जलवायु परिवर्तन पर अभिसमय United Nations Conference on Environment and Development – UNCED
जून 1992 में रियो डी जेनिरो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन (United Nations Conference on Environment and Development–UNCED) के दौरान विकसित अभिसमयों में एक महत्वपूर्ण अभिसमय जलवायु परिवर्तन पर हुआ था। पृथ्वी सम्मेलन के रूप में भी ज्ञात इस सम्मेलन में पर्यावरण से संबंधित निम्नांकित विषयों पर चर्चा हुई-कार्बन-डाई-ऑक्साइड और मिथेन गैसों के बढ़ते उत्सर्जन से उत्पन्न ग्रीन हाउस प्रभाव, क्लोरोफ्लोरोकार्बन के कारण वातावरण में ओजोन परत का ह्रास, जैव-विविधता का नष्ट होना, आदि। इन विषयों पर हुई चर्चाओं के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा अभिसमय, जैव-विभिन्नता पर अभिसमय, रियो घोषणा, एजेंडा 21 और वातावरण, आर्थिक विकास और मानवाधिकारों से संबंधित अन्य अंतरराष्ट्रीय समझौतों को अपनाया गया। जलवायु अभिसमय को 1992 में ही हस्ताक्षर के लिये खोल दिया गया, लेकिन यह 1994 में ही प्रभाव में आ सका जब 50 से अधिक देशों ने इसे अनुमोदित कर दिया।
जलवायु अभिसमय का लक्ष्य ग्रीन हाउस गैसों के वायुमंडलीय संकेन्द्रण को सुरक्षित स्तर पर स्थिर करना है। सदस्य देशों को अपने उत्सर्जन स्तर और उस पर नियंत्रण के लिये उठाये गये कदमों के संबंध में समय-समय पर रिपोर्ट जारी करनी पड़ती है। यह रिपोर्ट राज्यों के सम्मेलन में प्रस्तुत की जाती है। सदस्यों से उन तकनीकों के विकास, प्रयोग और स्थानान्तरण में सहयोग की अपेक्षा की जाती है, जो जलवायु परिवर्तन को कम कर सकते हैं। संधि के अनुच्छेद 1 में निर्दिष्ट देशों (विकसित देशों तथा आर्थिक संक्रमण से गुजर रहे देशों) को वर्ष 2000 तक उत्सर्जन स्तर को 1990 के स्तर तक लाने के लिये कहा गया। विकासशील देशों को अभिसमय के दायित्वों को पूरा करने के योग्य बनाने के लिये उन्हें विकसित देशों के द्वारा जीईएफ (विश्व बैंक, यूएनडीपी और यूएनईपी द्वारा संयुक्त रूप से नियंत्रित कोष) के माध्यम से वित्तीय सहायता प्रदान करने का प्रावधान है। विकासशील देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने की दिशा में अपनायी गई तकनीकों पर होने वाले व्ययों में सहयोग देने के लिये विकसित देशों पर शुल्क (duty) आरोपित किए गए।
दिसम्बर 1997 में जलवायु अभिसमय पर क्योटो प्रोटोकॉल को अपनाया गया। यह विकसित देशों को अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन स्तर की विश्व औसत (5.2 प्रतिशत) तक घटाने का आदेश देता है। यह प्रोटोकॉल अभी तक प्रभाव में नहीं आया है।
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