माउंटबैटन योजना, 3 जून 1947 The Mountbatten Plan, 3 June 1947
भारत विभाजन की ओर
1947 के प्रारंभ में साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहे देश तथा कांग्रेस एवं लीग के मध्य बढ़ते गतिरोध के कारण भारतीय राष्ट्रवादी विभाजन के उस दुखद एवं ऐतिहासिक निर्णय के संबंध में सोचने को विवश हो गये, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। इस दौरान सबसे महत्वपूर्ण मांग बंगाल एवं पंजाब के हिन्दू एवं सिख समुदाय की ओर से उठायी गयी। इसका प्रमुख कारण यह था कि यह समुदाय समूहीकरण की अनिवार्यता के कारण इस बात से चिंतित था उसे कहीं पाकिस्तान में सम्मिलित न होना पड़े। बंगाल में हिन्दू मह्रासभा ने पं. बंगाल के रूप में एक पृथक हिन्दू राज्य की अवधारणा प्रस्तुत की।
10 मार्च, 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि वर्तमान समस्या के समाधान का सबसे सर्वोत्तम उपाय यह है कि कैबिनेट मिशन, पंजाब एवं बंगाल का विभाजन कर दें।
अप्रैल 1947 में भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष जे.बी. कृपलानी ने वायसराय को लिखा कि.“युद्ध से बेहतर यह है कि हम उनकी पाकिस्तान की मांग को मान लें। विकिन्तु यह तभी संभव होगा जब आप पंजाब और नंगल का ईमानदारीपूर्वक विभाजन करें।”
माउंटबैटन वायसराय के रूप में: लार्ड माउंटबैटन अपने पूर्ववर्ती वायसरायों की तुलना में निर्णय लेने में ज्यादा त्वरित एवं निर्णायक सिद्ध हुये क्योंकि उन्हें निर्णय लेने के ज्यादा एवं अनौपचारिक अधिकार प्रदान किये गये थे। साथ ही उन्हें ब्रिटिश सरकार के इस दृढ़ निर्णय से भी काफी सहायता मिली कि जितनी जल्दी हो सके भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित कर दी जाये। उनका प्रमुख कार्य यह था कि अक्टूबर 1947 से पहले वे इस बात का पता लगायें कि भारत में एकता या विभाजन दोनों में से क्या होना है और इसके पश्चात उनका उत्तरदायित्व ब्रिटिश सरकार को इस बात से अवगत कराना है कि भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण किस प्रकार किया जायेगा तथा उसका स्वरूप क्या होगा? मांउटबैटन के आने से पूर्व ही भारतीय परिस्थितियां निर्णायक मोड़ लेने लगी थीं, इससे भी माउंटबैटन को परिस्थितियों को समझने तथा निर्णय लेने में मदद मिली।
कैबिनेट मिशन निष्फल प्रयास के रूप में सामने आया तथा जिन्ना इस बात पर दृढ़तापूर्वक अड़े हुये थे कि वे पाकिस्तान से कम कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।
माउंटबैटन योजना, 3 जून 1947
लार्ड वैवेल के स्थान पर लार्ड माउंटबैटन के वायसराय बन कर आने के पूर्व ही भारत में विभाजन के साथ स्वतंत्रता का फार्मूला भारतीय नेताओं द्वारा लगभग स्वीकार के लिया गया था। 3 जून को माउंटबैटन ने भारत के विभाजन के साथ सत्ता हस्तांतरण की एक योजना प्रस्तुत की। इसे माउंटबैटन योजना के साथ ही 3 जून योजना के नाम से भी जाना जाता है।
मुख्य विन्दुः माउंटबैटन योजना के मुख्य बिन्दु निम्नानुसार थे–
- पंजाब और बंगाल में हिन्दू तथा मुसलमान बहुसंख्यक जिलों के प्रांतीय विधानसभा के सदस्यों की अलग बैठक बुलाई जाये और उसमें कोई भी पक्ष यदि प्रांत का विभाजन चाहेगा तो विभाजन कर दिया जायेगा।
- विभाजन होने की दशा में दो डोमनियनों तथा दो संविधान सभाओं का निर्माण किया जायेगा।
- सिंध इस संबंध में अपना निर्णय स्वयं लेगा।
- उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत तथा असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह द्वारा यह पता लगाया जायेगा कि वे भारत के किस भाग के साथ रहना चाहते हैं।
- योजना में कांग्रेस की भारत की एकता की मांग को अधिक से अधिक पूरा करने की कोशिश की गयी। जैसे-
- भारतीय रजवाड़ों को स्वतंत्र रहने का विकल्प नहीं दिया जा सकता उन्हें या तो भारत में या पाकिस्तान में सम्मिलित होना होगा।
- बंगाल को स्वतंत्रता देने से मना कर दिया गया।
- हैदराबाद की पाकिस्तान में सम्मिलित होने की मांग को अस्वीकार कर दी गयी। (इस मांग के संबंध में माउंटबैटन ने कांग्रेस का पूर्ण समर्थन किया)।
- 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान को डोमिनियन स्टेट्स के आधार पर सत्ता का हस्तांतरण हो जायेगा।
- यदि विभाजन में गतिरोध उत्पन्न हुआ तो एक सीमा आयोग का गठन किया जायेगा।
माउंटबैटन योजना को कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया तथा भारत का भारत एवं पाकिस्तान दो डोमिनियनों में विभाजन कर दिया गया। इस योजना से जहां मुस्लिम लीग की बहुप्रतीक्षित पाकिस्तान के निर्माण की मांग पूरी हो गयी, वहीं योजना में कांग्रेस की इस मांग का भी पूरा ध्यान रखा गया कि यथासंभव पाकिस्तान का भौगोलिक क्षेत्र छोटा से छोटा हो।
भारत ने डोमिनयन का दर्जा क्यों स्वीकार कियाः लाहौर अधिवेशन (1929) की भावना के विरुद्ध कांग्रेस ने डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा स्वीकार किया क्योंकि-
- इससे शांतिपूर्ण एवं त्वरित सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया सुनिश्चित हो गयी।
- देश की तत्कालीन विस्फोटक परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिये आवश्यक था कि कांग्रेस जल्द से जल्द शासन की शक्तियां प्राप्त करे।
- देश में प्रशासनिक एवं सैन्य ढांचे की निरंतरता को बनाये रखने के लिये भी यह अनिवार्य था।
भारत द्वारा डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा स्वीकार किये जाने से ब्रिटेन को उसे राष्ट्रमंडल में शामिल करने का अवसर मिल गया। इससे ब्रिटेन की यह चिर-प्रतीक्षित इच्छा पूरी हो गयी। यद्यपि भले ही यह अस्थायी था, परंतु ब्रिटेन को विश्वास था कि भारत के राष्ट्रमंडल में आ जाने से उसे आर्थिक सुदृढ़ता तथा रक्षात्मक शक्ति मिलेगी तथा भारत में उसके निवेश के नये द्वार खुलेंगे।
ब्रिटेन द्वारा सत्ता हस्तांतरण की तिथि (15 अगस्त 1947) समय से पूर्व ही तय कर लिये जाने का कारण
ब्रिटेन, डोमिनियन स्टेट्स के मुद्दे पर कांग्रेस की स्वीकृति चाहता था। इसके साथ ही वह उस समय हो रहे भीषण सांप्रदायिक दंगों की जिम्मेदारी से भी बचना चाहता था।
योजना यह थी कि जैसे ही डोमिनियन स्टेट्स के लिये कांग्रेस की स्वीकृति मिले, योजना को तुरंत, बिना किसी विलंब के क्रियान्वित कर दिया जाये। इस योजना के अनुसार, सीमांत प्रांत में जनमत संग्रह द्वारा यह तय होना था कि वह भारत में शामिल होगा या पाकिस्तान में इसी प्रकार असम के मुस्लिम बहुसंख्यक सिल्हट जिले में भी जनमत संग्रह द्वारा यह निश्चित होना था कि वह भारत में सम्मिलित होगा या पूर्वी बंगाल में।
बंगाल और पंजाब की विधानसभाओं को दो भागों में, एक में मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेश के प्रतिनिधि तथा दूसरे में शेष अन्य प्रतिनिधियों को यह निश्चित करना था कि प्रांतों का विभाजन हो या नहीं। जैसी कि उम्मीद थी दोनों प्रांतों के हिंदू बहुसंख्यक प्रदेशों के प्रतिनिधियों ने यह निश्चय किया कि प्रांतों का विभाजन हो। पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल ने यह तय किया कि वे पाकिस्तान में सम्भिलित होंगे, जबकि पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब ने यह तय किया कि वे भारत में सम्मिलित हॉगे । सिल्हट और सीमांत प्रांत का जनमत संग्रह पाकिस्तान के पक्ष में गया। ब्लूचिस्तान एवं सिंध में जनमत ने भारी बहुमत से पाकिस्तान में सम्मिलित होने की इच्छा जतायी ।