गुप्त राजवंश का उद्भव और उत्कर्ष The emergence and rise of the Gupta Dynasty
श्री गुप्त (240-280 ई.)- गुप्तों के कुल और उद्भव भूमि के साथ ही यह प्रश्न भी विवादास्पद है कि गुप्त राजवंश का संस्थापक कौन था। गुप्त अभिलेखों में जो वंश-वृहन दिए गए हैं, उनमें सर्वप्रथम नाम श्री गुप्त का आता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि गुप्तों के आदि पुरुष का नाम श्री गुप्त था। विद्वानों में इस प्रश्न पर मतभेद है कि श्री सम्मानार्थक प्रयुक्त किया गया है अथवा वह नाम के साथ जुड़ा है। एलन तथा जायसवाल महोदय के अनुसार गुप्तों के आदि पुरुष का नाम केवल गुप्त था, श्री सम्मानार्थ जोड़ दिया गया है। इस प्रसंग में यदि प्रयाग प्रशस्ति का उल्लेख करें तो देखेंगे कि समुद्रगुप्त ने अपने को महाराज श्री गुप्त का प्रपौत्र बतलाया है। सभी राजाओं के नाम के पूर्व श्री जोड़ दिया गया है और जहाँ किसी का नाम वास्तव में श्री से प्रारम्भ होता है, वहाँ दो श्री का भी प्रयोग किया गया है। श्री गुप्त का राज्य-क्षेत्र सीमित था। उसके बाद उसका उत्तराधिकारी घटोत्कच हुआ।
घटोत्कच- प्रभावती गुप्त के पूना एवं ऋद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोत्कच को प्रथम गुप्त नरेश कहा गया है। उसका शासन-काल 280-319 ई. माना जाता है। किन्तु एलन महोदय के अनुसार उसका राज्य-काल 300 से 320 ई. था। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार घटोत्कच ने 300-319 ई. तक शासन किया। रीवा जिले में स्थित सुपिया से प्राप्त लेख (गुप्त संवत 151-471 ई.) में गुप्त वंश को घटोत्कच-वंश कहा गया है। प्रिंसेस और टामस के अनुसार यह मुद्राएँ घटोत्कच की हैं। किन्तु यह मत मान्य नहीं है क्योंकि इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग पर सम्राट की उपाधि सर्वराजोच्छेता (सम्पूर्ण नरेशों का उन्मूलनकर्ता) उत्कीर्ण है। यह अपने समय के सर्वशक्तिशाली सम्राट की उपाधि रही होगी। घटोत्कच की महाराज उपाधि सूचित करती है कि वह एक साधारण शासक था। वह स्वतंत्र शासक न रह कर किसी राजवंश का मांडलिक अथवा सामन्त रहा होगा।
चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)- चन्द्रगुप्त प्रथम घटोत्कच का पुत्र और उत्तराधिकारी था। प्रयोग प्रशस्ति में गुप्तवंश के तृतीय शासक चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज की पदवी प्राप्त है जबकि प्रथम दो शासकों को केवल महाराजा का विरद प्राप्त है। इससे यह ज्ञात होता है कि प्रथम दो राजाओं गुप्त तथा घटोत्कच और चन्द्रगुप्त के राजनैतिक अधिकारों में अन्तर था। परन्तु चन्द्रगुप्त स्वतंत्र राजा रहा होगा तभी उसे महाराजा की पदवी प्राप्त थी जो उसके बाद के अन्य गुप्त राजाओं को भी प्राप्त है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया। इस विवाह से उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा में विशेष वृद्धि हुई। डॉ. मजूमदार के अनुसार संभावत: गुप्त और लिच्छवि राज्य पड़ोसी थे। इस विवाह ने उन्हें संयुक्त कर दिया जिससे नए राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। डॉ. फ्रीट के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ही 319-20 ई. में प्रारम्भ होने वाले गुप्त संवत् का प्रवर्त्तक था। गुप्त अभिलेखों से इस संवत् की प्रारम्भिक तिथि के निर्धारण में सहायता मिलती है। चन्द्रगुप्त प्रथम 319 ई. में सिंहासनासीन हुआ और उसी वर्ष उसने एक नए संवत् का प्रवर्त्तन किया, इसकी पुष्टि अनेक अभिलेखों से हो जाती है। इस प्रकार अधिकांश इतिहासकार दिसम्बर, 319 ई. को चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा प्रवर्तित संवत् की तिथि मानते हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह तिथि 26 फरवरी, 320 ई. होती है।
चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने साम्राज्य का विस्तार और उसका सुगठन किया। स्मिथ महोदय के अनुसार उसके साम्राज्य के अन्तर्गत तिरहुत, दक्षिणी बिहार, अवध तथा इसके सभी पर्वतीय प्रदेश थे। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार बिहार, बंगाल का कुछ भाग, कौशल, कोशाम्बी या इलाहाबाद तक का क्षेत्र उसके साम्राज्य के अंतर्गत आता था। गुप्त साम्राज्य के विस्तार और उसके संगठन के आधार पर उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।