आर्थिक समीक्षा 2015-16 The Economic Survey 2015-16
‘अब वृहत-आर्थिक स्थिरता का माहौल है, जिससे अगले दो वर्षों में विकास दर 8 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा रहने की आशा’ – वित्त मंत्री
आर्थिक समीक्षा 2015-16; महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सुधार की बदौलत अब वृहत-संवेदनशीलता कम हो गई है
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में कहा गया है कि कीमतों के मोर्चे पर नरमी की स्थिति और देश में बाह्य चालू खाते के संतोषजनक स्तर को देखते हुए अगले दो वर्षों में 8 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा की विकास दर हासिल करना अब संभव नजर आ रहा है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि सरकार सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है और इस तरह के तीव्र विकास के लिए जो मौजूदा स्थितियां हैं, उनमें वृहत-आर्थिक स्थिरता सहायक साबित हो रही है।
आर्थिक समीक्षा में वर्ष 2016-17 के दौरान आर्थिक विकास दर 7 से लेकर 7.5 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है। वर्ष 2014-15 में 7.2 प्रतिशत और वर्ष 2015-16 में 7.6 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल करने के बाद 7 प्रतिशत से ज्यादा की विकास दर ने भारत को दुनिया की सबसे तेजी से विकास करने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था में तब्दील कर दिया है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान अब और अधिक मूल्यवान हो गया है, क्योंकि चीन फिलहाल अपने को फिर से संतुलित करने में जुटा हुआ है। आर्थिक समीक्षा में यह भी उल्लेख किया गया है कि भारत में विकास के मोर्चे पर जो तेजी देखी जा रही है, वह मुख्यत: खपत की बदौलत ही संभव हो रही है। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि जहां एक ओर सेवा क्षेत्र के विकास की रफ्तार थोड़ी धीमी पड़ गई, वहीं विनिर्माण क्षेत्र में आई तेजी ने लगातार दो वर्षों से मानसून के कमजोर रहने के चलते कृषि क्षेत्र में दर्ज की गई निम्न विकास दर की भरपाई कर दी है।
आर्थिक समीक्षा में, हालांकि, कमजोर वैश्विक मांग के प्रति आगाह किया गया है।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में कहा गया है कि 14वें वित्त आयोग (एफएफसी) की सिफारिशों के बाद ज्यादा पूंजीगत खर्च, राज्यों को ज्यादा शुद्ध संसाधन हस्तांतरण और ज्यादा सकल कर राजस्व के बीच संतुलन कायम करने की कोशिश की जा रही है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि चुनौतियों और वर्ष 2015-16 के दौरान जीडीपी के अनुमान से कम रहने के बावजूद राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को जीडीपी के 3.9 प्रतिशत के स्तर पर सीमित रखना संभव नजर आ रहा है। ऐसी उम्मीद इसलिए जग रही है, क्योंकि बेहतर कर संग्रह, विवेकपूर्ण खर्च प्रबंधन और तेल के घटते मूल्यों की बदौलत सकल कर राजस्व (जीटीआर) के लक्ष्य हासिल कर लिए गए हैं।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि बेहतर राजकोषीय प्रबंधन का एक संकेतक यह है कि वर्ष 2015-16 में कुल खर्च 17.77 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है, जो वर्ष 2014-15 के संशोधित अनुमानों से 5.7 प्रतिशत ज्यादा है। व्यय की गुणवत्ता पर फोकस को दोहराते हुए पूंजीगत खर्च में 25.5 प्रतिशत की वृद्धि की परिकल्पना की गई थी। चालू वित्त वर्ष के दौरान दिसंबर 2015 तक संतोषजनक राजकोषीय स्थिति से जुड़े अनेक तथ्य उल्लेखनीय रहे। अप्रत्यक्ष करों के संग्रह में दमदार वृद्धि, एफएफसी की सिफारिशों के अनुरूप राज्यों को करों में ज्यादा हिस्सा दिया जाना, पिछले 6 वर्षों के दौरान पूंजीगत खर्च में सर्वाधिक बढ़ोतरी और प्रमुख सब्सिडियों में कमी इन तथ्यों में शामिल हैं।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में इस ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर पिछले एक साल से भी ज्यादा समय से ऋणात्मक स्तर को दर्शा रही है। यही नहीं, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर भी घटकर विगत वर्षों के मुकाबले लगभग आधी रह गई है। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि विवेकपूर्ण नीतियों और बफर स्टॉक, समय पर अनाजों के वितरण एवं दाल आयात के जरिए सरकार द्वारा किये जा रहे महंगाई प्रबंधन से आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को वर्ष 2015-16 के दौरान नियंत्रण में रखने में मदद मिली है।
आर्थिक समीक्षा में, हालांकि, इस ओर संकेत किया गया है कि वर्ष की दूसरी छमाही में कुछ आवश्यक खाद्य पदार्थों की कीमतों में दर्ज की गई वृद्धि से ऐसा आभास होता है कि हमें निकट भविष्य में भी आपूर्ति प्रबंधन को बेहद समझदारी के साथ जारी रखना होगा।
मुद्रा स्फीति कम होने से भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो रेट को जो 2015 की शुरूआत में 125 मूल अंक (बीपीएस) थी, उसे सितंबर, 2015 के अंत में घटाकर 6.75 प्रतिशत कर दिया। यह भी बताया गया है कि रिजर्व बैंक ने दिन प्रति दिन की लिक्विडिटी जरूरतों से निपटने के लिए परिवर्तनीय रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट (ओवरनाइट एंड टर्म) नीलामियों जैसे विभिन्न उपाय किए हैं। इस प्रकार मौदिक नीति का परिचालन लक्ष्य रेपो रेट नीति के करीब बना रहा।
आर्थिक समीक्षा में यह भी बताया गया है कि कृषि क्षेत्र की उत्पादकता में सुधार लाने के लिए “इनपुट- क्रोप एंड रीजन न्यूट्रल” बनाकर सब्सिडी सहित कृषिगत नीतियों को विवेकपूर्ण बनाए जाने की तुरंत जरूरत है। इसमें बताया गया है कि गुणवत्ता/जीएम/कीटरोधी बीजों का अपनाया जाना कृषि उत्पादकता में सुधार लाने का एक अन्य तरीका होगा। जीएम बीजों के बारे में जो शंकाएं हैं, उन्हें वार्ताओं और परीक्षणों द्वारा दूर किया जाना चाहिए। बीजों और उर्वरकों जैसे निवेशों के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) से लीकेज और प्रणाली में परिवर्तन रोकने में मदद मिलने से लक्षित लाभार्थियों को लाभ पहुंचेगा।
समीक्षा में बताया गया है कि प्रधानमंत्री योजना (पीएमजेडीवाई), प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना (पीएमएसबीवाई), प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (पीएमजेजेबीवाई), अटल पेंशन योजना (एपीवाई) तथा बैंकिंग और बीमा क्षेत्रों में माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट्स रिफाइनेंस एजेंसी (मुद्रा) वित्तीय समावेशी समग्र लक्ष्य को अर्जित करने के लिए सरकार की पहल अच्छा कार्य निष्पादन कर रही हैं। समीक्षा में यह भी दर्शाया गया है कि सॉवरिन गोल्ड बांड स्कीम और स्वर्ण मुद्रीकरण योजना के माध्यम से उत्पादक उद्देश्यों के लिए सोने को जुटाने क लिए किस प्रकार प्रयास किए गए हैं। अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों का कार्य निष्पादन वर्ष 2015 के दौरान कमजोर रहा और बैंक क्रेडिट की बढ़ोत्तरी भी मंद रही।
समीक्षा में यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि सरकार द्वारा उठाए गए विभिन्न मौजूदा प्रयासों को देखते हुए औद्योगिक और बुनियादी ढांचा क्षेत्रों द्वारा अच्छा कार्य निष्पादन जारी रहेगा। यह भी बताया गया है कि बुनियादी ढांचा क्षेत्र का विकास सरकार का एक प्राथमिकता वाला क्षेत्र है और इसमें सार्वजनिक निवेश में वृद्धि देखी गई है।
बंदरगाहों पर भारतीय रेलवे द्वारा फ्रेट कैरेज में बढ़ोत्तरी, नागर विमानन क्षेत्र, दूरसंचार क्षेत्र और राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण में विकास बहुत प्रभावी रहा है। कोयला और खानों के ब्लॉक के आवंटन के लिए सफलतापूर्वक नीलामियां आयोजित की गईं।
पेट्रोलियम क्षेत्र में एनईएलपी के तहत उत्पादन भागीदारी संविदाओं के लिए नीति में सुधार, एक समान लाइसेंसिंग और ओपन एक्रेज नीति आदि के साथ परीक्षण जरूरतों में सुधार किया गया है। रेल, सड़क और सिंचाई कार्यक्रमों के लिए कर मुक्त बुनियादी ढांचा बांड्स की अनुमति दी गई है। नॉन बैंक फाइनेंशियल कंपनी के बुनियादी ढांचे में इक्विटी सहायता प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय निवेश एवं बुनियादी ढांचा निधि (एनबीएफसी) की स्थापना।
रक्षा क्षेत्र में 49 प्रतिशत तक, रेलवे में 100 प्रतिशत, बीमा और पेंशन में 49 प्रतिशत तक, एफडीआई की अनुमति के साथ अधिक सार्वजनिक एफडीआई नीति अपनाई गई है। इसके अलावा विनिर्माण, प्रसारण, नागर विमानन, प्लांटेशन, व्यापार, निजी क्षेत्र बैंकिंग, उपग्रह स्थापना एवं परिचालन तथा क्रेडिट सूचना कंपनियों आदि जैसे अनेक क्षेत्रों को उदार बनाया गया है।
आर्थिक समीक्षा के अनुसार सेवा क्षेत्र भारत की आर्थिक प्रगति का मुख्य वाहक बना रहा और इसमें 2014-15 में 10.3 प्रतिशत प्रगति की है, जबकि पिछले साल यह 7.8 प्रतिशत रही थी। अग्रिम अनुमानों के अनुसार 2015-16 में यह 9.2 प्रतिशत (स्थिर मूल्यों पर) होने की उम्मीद है। ऐसा जन प्रबंधन, रक्षा और अन्य सेवाओं में कम विकास के कारण हुआ। वर्ष 2015-16 के पहले सात महीनों में सेवा क्षेत्र में एफडीआई इक्विटी आवकों में बढ़ोत्तरी का रूख रहा और एफडीआई आवक में 74.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वैश्विक मंदी के कारण अगले कुछ महीनों में भारत के सेवा निर्यात में गिरावट रहने का जिक्र किया गया है।
समीक्षा में रेखांकित किया गया है कि सितंबर 2015 के अंत में देश का विदेशी कर्ज सुरक्षित सीमा के भीतर रहा, जो देश के कुल विदेशी ऋण का 82.2 प्रतिशत है, जैसाकि लंबी अवधि के ऋण खाते में दर्शाया गया है, जबकि मार्च 2015 के अंत में यह 82.0 प्रतिशत था। कुल विदेशी ऋण का कम अवधि ऋण का हिस्सा मार्च 2015 के अंत में 18.0 प्रतिशत से घटकर सितंबर 2015 के अंत में 17.8 प्रतिशत हो गया। इसमें कहा गया है कि 2014-15 में 23.7 प्रतिशत के सकल घरेलू उत्पाद अनुपात का विदेशी ऋण और 7.5 प्रतिशत का सेवा अनुपात कर्ज सुविधाजनक स्थिति में था।
सामाजिक संरचना, रोजगार और मानव विकास के मोर्चे पर समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में अकुशल कामगारों की अधिकता है। आर्थिक समीक्षा 2015-16 में बताया गया है कि सरकार कुशलता की कमी को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है। इसमें गुणवत्तापरक सेवा आपूर्ति के लिए प्रोद्योगिकी की भी बात की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण भारत में स्वच्छता स्थिति में सुधार के लिए स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) की शुरुआत से ग्रामीण क्षेत्रों में 122 लाख से अधिक शौचालयों का निर्माण किया गया है।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता के बारे में बताया गया है। शैक्षिक परिणामों में सुधार के लिए पेशेवर, योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं और बुनियादी ढांचा सुविधाओं को सुदृढ़ करने के लिए सरकारी तथा निजी निवेश की आवश्यकता है। सेवा आपूर्ति में सुधार और कुशल कर्मियों की कमी को दूर करने के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र नीति की आवश्यकता महसूस की गई है।
जलवायु परिवर्तन और सतत विकास के मोर्चे पर समीक्षा में कहा गया है कि भारत इसमें सक्रिय प्रतिभागी है और उसने दिसंबर 2015 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संरचना संधि (यूएनएफसीसीसी) और सितंबर 2015 में सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र, विशेष रूप से सौर और पवन ऊर्जा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबद्ध सहयोग उद्देश्यों के बारे में भी बताया गया है। समीक्षा में कहा गया है कि 2022 तक देश में 60 गीगावॉट की पवन ऊर्जा और 100 गीगावॉट की सौर ऊर्जा के लक्ष्य को हासिल करने का उद्देश्य है।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 जलवायु परिवर्तन पहल के लिहाज से वर्ष 2015 भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण
पेरिस समझौते को अपनाने और अंतर्राष्ट्रीय सौर एलायंस के शुभारंभ में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में बताया गया है कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन पहल के लिहाज से वर्ष 2015 भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत ने जलवायु परिवर्तन वार्ता और दिसंबर 2015 में पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कंवेंशन के अधीन समझौते और अंतर्राष्ट्रीय सौर एलायंस के शुभारंभ में महत्वपूर्ण निभाई है और इसके अलावा 2 अक्टूबर 2015 को यूएनएफसीसीसी पर अपने महत्वकांक्षी राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित येागदान (आईएनडीसी) भी प्रस्तुत किया है। आर्थिक समीक्षा में इन उपलब्धियों के साथ भारत द्वारा जलवायु परिवर्तन और सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए अपने विभिन्न योगदानों और पहलों का जिक्र भी किया गया है।
पेरिस समझौते में 2020 अवधि के बाद जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए विश्व के सभी देशों के लिए एक रोड़ मैप निर्धारित किया गया है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अंतर्राष्ट्रीय सौर एलायंस (आईएसए) का शुभारंभ करने में शीर्ष भूमिका निभाने के साथ-साथ इसके सचिवालय की स्वैछिक मेजबानी की घोषणा भी की।
आर्थिक समीक्षा में यूएनएफसीसीसी की स्वच्छ कार्य प्रणाली के अधीन पंजीकृत 7,685 परियोजनाओं में से 1,593 के बारे में प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार भारत इतनी बड़ी संख्या में परियोजनाओं को पंजीकृत करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है। समीक्षा में बताया गया है कि भारत ने जलवायु परिवर्तन के विरूद्ध अपनी कार्यवाही में महत्वकांक्षी लक्ष्यों को जारी रखा है।
जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्यवाही के अलावा जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर एक नए मिशन का गठन वर्तमान में प्रक्रियाधीन है। जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर एक राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह का भी गठन किया गया है। जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय अनुकूलन कोष के बारे में भी जिक्र किया गया है जिसे 2015-15 और 206-17 वर्षों के लिए 350 करोड़ रूपए के बजट प्रावधान के साथ स्थापित किया गया है।
भारत विश्व के उन कुछ देशों में शामिल हैं जहां कोयले पर उप-कर कार्बन टैक्स लागू है। आर्थिक समीक्षा में भारत में नवीकरणीय ऊर्जा का भी उल्लेख है और 2030 तक गैर – जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से 40 प्रतिशत संचयी बिजली क्षमता अर्जित करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का भी उल्लेख किया गया है। सरकार का अन्य महत्वपूर्ण कार्यक्रम सौर शहरों का विकास कार्यक्रम है जिसके तहत 56 सौर शहर परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है।
ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में श्रमशक्ति भागीदारी दर अधिक, पुरुषों की भागीदारी महिलाओं की तुलना में ज्यादा
चालू वित्त वर्ष में मनरेगा के तहत 57 प्रतिशत रोजगार महिलाओं को दी गई
दीनदयाल उपाध्याय कौशल योजना के तहत वर्ष 2015-16 में 1.75 लाख युवकों को प्रक्षिण दिया गया
आर्थिक सर्वे में बताया गया है कि आर्थिक रूप से सक्रिय जनसंख्या (15-59) 57.7 प्रतिशत से बढ़कर 63.3 प्रतिशत हो गई है।यह वृद्धि 1991 से 2013 के बीच की है जिसकी जानकारी नमूना पंजीकरण सिस्टम (एसआएस) के 2013 के आंकड़ों में दी गई है।
आर्थिक सर्वे के अनुसार संगठित क्षेत्र में (निजी एवं सार्वजनिक संयुक्त रूप से) 2012 में 2011 की तुलना में रोजगार में दो प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई जबकि 2011 में 2010 की तुलना में यह वृद्धि केवल एक प्रतिशत रही। निजी क्षेत्र में रोजगार की वार्षिक दर 2011 की तुलना में 2012 में 4.5 प्रतिशत रही। सार्वजनिक क्षेत्र में इस अवधि में इसमें अत्यंत ही कम 0.4 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई।
श्रम ब्यूरो द्वारा जनवरी 2014 से जुलाई 2014 में किए गए चौथे रोजगार-बेरोजगारी सर्वे के अनुसार सभी लोगों के लिए श्रम शक्ति भागीदारी दर (एलएफपीआर) 52.5 प्रतिशत थी। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के लिए एलएफपीआर 54.7 प्रतिशत थी जो 47.2 की तुलना में काफी अधिक थी। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में महिलाओं के बीच एलएफपीआर महत्वपूर्ण रूप से पुरुषों की तुलना में कम थी।आर्थिक सर्वे के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की दर 4.7 प्रतिशत रिपोर्ट की गई जबकि शहरी इलाकों में यह दर 5.5 प्रतिशत दर्ज की गई। श्रम ब्यूरो सर्वे के अनुसार कुल बेरोजगारी की दर 4.9 प्रतिशत रही। ये आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वे ऑफिस (एनएसएओ 2012-11) के आंकड़ों की अखिल भारतीय बेरोजगारी की दर 2.3 प्रतिशत ग्रामीण और 3.8 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों और अखिल भारतीय 2.7 प्रतिशत की तुलना में काफी ऊंचे हैं।
सरकार ने श्रम सुधार सहित देश में रोजगार की स्थिति, खासकर महिलाओं को रोजगार मुहैया कराने की दशा में सुधार लाने के लिए कई उपाय किए हैं। इनमें हाल में उठाए गए कुछ उपायों में बोनस भुगतान (संशोधन) अधिनियम 2015, राष्ट्रीय कॅरियर सेवा पोर्टल, श्रम सुविधा पोर्टल और यूनिवर्सल एकाउंट नंबर फैसेल्टिी जैसे उपाय शामिल हैं।
स्थायी जीविकोपार्जन सुनिश्चित करने के लिए कौशल विकास की राष्ट्रीय नीति और उद्यमिता 2015 का लक्ष्य तेजी से बड़े पैमाने पर उच्च मानकों के साथ कौशल विकसित करना है जिससे नवाचार आधारित उद्यमिता की संस्कति पैदा हो। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) में 24 लाख से अधिक युवकों को अर्थपूर्ण रोजगार मुहैया कराने का प्रस्ताव है। इसके तहत अब तक 5.32 लाख लोगों का कौशल आधारित प्रशिक्षण देने के लिए पंजीकरण कर लिया गया है। इनमें से पूरे देश में अब तक 4.38 लाख लोगों ने सफलता पूर्वक प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया है।
इसके अलावा राष्ट्रीय ग्रामीण जीविकोपार्जन मिशन(एनआरएलएम) के घटक के रूप में गावों के गरीब युवकों के लिए रोजगार संबंधित कौशल स्कीम दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना (डीडीयू-जीकेवाई) भी शुरू की गई है। डीडीयू-जीकेवाई के तहत वर्ष 2015-16 में 1.78 लाख उम्मीदवारों को कुशल बनाने के लक्ष्य की तुलना में 1.75 लाख लोगों को कुशल बनाया गया। इनमें से नवंबर 2015 तक 0.6 लाख लोग प्रशिक्षण के बाद रोजगार पा चुके थे।
दिव्यांगों के बीच रोजगार के गुंजाइश बढ़ाने के लिए कौशल प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना(एनएपी) बनाई गई है। इस योजना के तहत पांच लाख दिव्यांगों को अगले तीन सालों में प्रशिक्षित करने का लक्ष्य रखा गया है। इसके साथ ही प्रत्येक वर्ष पांच लाख लोगों के लिए ऑन लाइन कौशल प्रशिक्षण प्लेटफार्म बनाने के लिए एनएपी को विस्तार करने की योजना है।
चालू वित्त वर्ष (01.01.2016 के अनुसार) महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना के तहत 3.63 करोड़ परिवार को 134.96 करोड़ व्यक्ति दिवस रोजगार उपलब्ध कराया गया। इसमें 76.81 व्यक्ति दिवस यानि 57 प्रतिशत रोजगार महिलाओं को उपलब्ध हुआ।
आर्थिक सर्वे में महिलाओं की श्रम शक्ति में कम भागीदारी पर चिंता व्यक्त की गई है। देश में बैंकों में खाता खुलवाने की दशा में भी इनका वित्तीय समावेश का स्तर अभी भी कम है। आर्थिक सर्वे में वित्तीय संस्थानों और अग्रणी में उच्च पदों पर महिलाओं की उपस्थिति को उल्लेखनीय बताया गया है।
कुछ चुने हुए राज्यों में पयलेट आधारित समय के उपयोग संबंधी (टीयूएस) किए गए सर्वे में यह खुलासा हुआ है कि आर्थिक व्यवस्था में अवैतनिक कार्यों के रूप में महिलाओं का छिपा हुआ योगदान है। सर्वे में कहा गया है कि रोजगार और महिलाओं के कार्य दिखाई पड़े इसके लिए लिंग संवेदनशलता नीति बनाने के लिए टीयूसी यानि टाइम यूज सर्व को सभी राज्यों तक विस्तारित करने का प्रस्ताव है।
वर्ष 2016-17 में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 7 से 7.5 प्रतिशत तक रहने का अनुमान
सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों से वेतन वृद्धि और लाभों के कारण मूल्यों में अस्थिरता आ सकती है और इसका थोड़ा प्रभाव मुद्रास्फीति पर पड़ सकता है,
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबीएस) और कुछ कारपारेट घरानों की जुड़वां बैलेंस शीट की चुनौतियों को मान्यता, पुनर्पूंजीकरण के संकल्प और सुधार द्वारा व्यापाक रूप से हल करने की जरूरत है।
प्रधानमंत्री जन धन योजना (पीएमजेडीवाई) के तहत 2000 लाख लोगों के बैंक खते खोले जाने पर भी आर्थिक सर्वे में प्रकाश डाला गया है। एलपीजी और सरकारी कार्यक्रमों और रियायत के बारे में दुनिया में सबसे अधिक सीधे तौर पर लाभ पहुंचाने का जिक्र भी इस सर्वे में किया गया है। सर्वे में बताया गया है कि 1510 लाख लाभपात्रों ने इस योजना के तहत 29,000 करोड़ रुपए का लाभ दिया गया। अन्य सरकारी कार्यक्रमों और रियायत के लिए जन धन आधार मोबाइल (जेएएम) के लिए बुनियादी संरचना बनाई जा रही है।
सर्वे में जीएसटी बिल पर चिंता जताई गई है। विनिवेश कार्यक्रम का लक्ष्य घट रहा है और अगले चरण के सब्सिडी को युक्तिंगत बनाने का काम प्रगति पर है। निजी क्षेत्र को पुनर्जीवित करने में कारपोरेट और बैंकों की बैलेंसशीट तनाव पैदा कर रही है। आगे कहा गया है कि यह चिंता शायद इस बात की ओर इशारा करती है कि भारतीय आर्थिक व्यवस्था अपनी पूरी संभावनाओं को साकार नहीं कर पा रही है।
आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि यह बात निश्चित है कि भारत में अपार संभावनाएं हैं। देश की दीर्घकालिक संभावित विकास दर अभी भी लगभग 8-10 प्रतिशत है। इस संभावना को साकार करने के लिए कम से कम तीन मोर्चों पर प्रयास करने की जरूरत है।
साथ ही इस बात का भी जिक्र किया गया है कि आगामी बजट आर्थिक नीति को मोटे तौर पर असामान्य रूप से चुनौतीपूर्ण ओर कमजोर विदेशी माहौल का सामना करना होगा। इसमे सुझााव दिया गया हे कि एशिया में चीन के मुद्रा समायोजन करने की दशा में भारत को भी इसकी योजना जरूर बनाना होगा। सर्वे में कहा गया है विदेशी मांग के कमजोर रहने की आशंका है और इसके लिए घरेलू मांग के स्रोत को प्राप्त करना होगा और विदेशी मांग की कमजोरी को रोकने के लिए इसे सक्रिय करना होगा।
केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा हालिया जारी सकल घरेलू उत्पाद के अग्रिम अनुमानों में स्थिर बाजार कीमतों पर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 2014.15 में 7.2 प्रतिशत से 2015-16 में बढ़कर 7.6 प्रतिशत होने का अनुमान है। इसका मुख्य कारण निजी अंतिम उपभोग व्यय की गति का तेज होना है। इसी प्रकार जोड़े गए सकल घरेलू उत्पाद (जीवीए) की वृद्धि दर 2014-15 में 7.1 की तुलना में 2015-16 में 7.3 प्रतिशत होने का अनुमान है। इसी प्रकार विदेशी स्थिति सुदृढ़ प्रतीत होती हे। घरेलू लेखा घाटे में कमी आई है और यह सुखद स्थिति में है। विदेशी मुद्रा भंडार फरवरी 2016 के शुरू में 351.5 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया।
2015-16 में वास्तिविक जीडीपी 7 से 7.5 प्रतिशत के रेंज में होने का अनुमान है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था की मांग और आपूर्ति पहलू के विभिन्न और व्यापक ऑप सेटिंग घटनाक्रमों को दर्शाती हैं तथापि इन कारकों का विश्लेषण करने से पहले,पीछे जाकर एक महत्वपूर्ण बिंदु पर ध्यान देना जरूरी है।
सर्वे में कहा गया है कि पहले तीन तिमाही में निर्यात में करीब 18 प्रतिशत की गिरावट आई है। इससे यह पता चलता है कि पिछले दो सालों में भारतीय सेवा का निर्यात भारतीय निर्माण की तुलना में अधिक प्रभावित हुआ है, साथ ही विश्व निर्यात भी प्रभावित रहा है। भारत की 8-10 प्रतिशत की मध्यम कालीन वृद्धि संभावना के लिए निर्यात में तीव्र विकास की जरूरत होगी। चीन की तरह इस दिशा में विकास करने के लिए भारत को मौजूदा विश्व बाजार में 3 प्रतिशत निर्यात की हिस्सेदारी को बढ़ाकर 15 प्रतिशत तक करना होगा।
आर्थिक सर्वे में यह भी कहा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय उथल-पुथल और विश्व में मांग कमजोर होने के कारण भी हमारी व्यापार नीति तनावग्रस्त है। सर्वे में सुझाव दिया गया है कि भारत को डब्ल्यूटीओ के सुसंगत प्रक्रियाओं को मजबूती प्रदान करने की स्वीकृति देनी चाहिए और जमाखोरी के खिलाफ न्यायसंगत कार्रवाई करनी चाहिए।
मातृत्व पोषाहार, स्वच्छता में निवेश और सामाजिक मानदंडों को बदल उनकी प्रभावशीलता बढ़ाकर भारत की आबादी को इसके फायदे उठाने में मदद की जा सकती है
मातृत्व और शैशवावस्था में सुधार लाने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून और स्वच्छ भारत केन्द्र सरकार की नीति की कार्यसूची के हिस्से हैं
संसद में आर्थिक समीक्षा 2015-16 के महत्वपूर्ण बिंदुओं का खुलासा करते हुए श्री जेटली ने कहा कि अपेक्षाकृत कम लगात वाले मातृत्व और बाल जीवन के स्वास्थय और पोषाहार कार्यक्रम संचालित करने से निवेशों की काफी उच्च दरों वाली वापसी का वह प्रस्ताव करते हैं।
मातृत्व पोषाहार, स्वच्छता और बदलते सामाजिक नियमों में इनका असर भारत की आबादी में व्यापक रूप से असर छोड़ सकता है।
समीक्षा में स्पष्ट किया गया है कि शुरुआती दौर के हालात विकास को प्रभावित करते हैं। स्वस्थ मां ही स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है, इसका अर्थ यह है कि बालपन में मानव पूंजी निवेश से हमारे कार्यक्रमों की कामियाबी जुड़ी है क्योंकि यही बच्चे भविष्य में स्वस्थता के लक्ष्य को पूरा करते हैं। इसके लिए हमारे कार्यक्रम अपेक्षाकृत सस्ते निवेश से आकार पाते हैं। समीक्षा में सुझाव दिया गया है कि बालपन में हुआ निवेश वित्तीय अवसर की बुनियाद बनता है और सरकार की कार्यक्रम को लागू करने की क्षमता में वृद्धि करता है।
भारत में बच्चों की लंबी उम्र को लेकर समीक्षा में तीन बिंदुओं पर जोर दिया गया है–
- ग्रामीण और शहरी भारत में धीरे-धीरे सुधार हुआ है। 2013-14 में बच्चों पर हुए सर्वेक्षण में औसत लंबे बच्चों को शामिल किया गया और 2005-06 के दौरान हुए सर्वेक्षण से इसकी तुलना की गई।
- ग्रामीण और शहरी बच्चों की ऊंचाई पर अंतर पर भी प्रकाश डाला गया है।
- भारत में दो मानक आधारों से हटते हुए प्रगति के बावजूद नकारात्मक रूप से पिछड़ा हुआ है। हमारे बच्चे औसतन 2 मानक आधारों के लिहाज से औसत से छोटे हैं।
आर्थिक विकास के लिहाज से भारत में नवजात मृत्यु-दर का स्तर ऊपर है। वास्तव में, 70 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मृत्यु जन्म के पहले माह में ही हो जाती है। इसका मुख्य कारण जन्म के समय बच्चों का वजन कम होना है। आंकड़ों से पता चलता है कि गर्भावस्था के शुरूआती दिनों में 42.2 प्रतिशत भारतीय महिलाओं का वजन कम होता है। इसके विपरीत, 35 प्रतिशत उन महिलाओं का भी वजन कम होता है जो गर्भाधारण योग्य नहीं होती हैं। गर्भावस्था के प्रारंभ में भारतीय महिलाएँ सिर्फ दुबली-पतली ही नहीं बल्कि गर्भावस्था के दौरान उनका वजन भी नहीं बढ़ पाता, इससे गर्भावस्था के पूर्व उनके शारीरिक वजन में कमी क्षतिपूर्ति हो सके। भारतीय महिलाओं का गर्भावस्था के दौरान लगभग 7 किलोग्राम वजन बढ़ पाता है जो कम वजन वाली महिलाओं के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा महिलाओं के वजन के संबंध में की गई सिफारिशों को देखते हुए साढ़े 12 से 18 किलोग्राम कम है।
माताओं के खराब स्वास्थ्य का एक और कारण यह है कि संयुक्त परिवारों में युवा महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की होती है। इसी कारण पता चलता है कि बड़ी उम्र के पुरूषों की तुलना में युवा महिलाओं का वजन अपेक्षा से कम होने की दर बहुत ज्यादा है।
माताओं के स्वास्थ्य के मद में निवेश करना सरकार की नीतिगत सर्वोच्च प्राथमिकता बन सकती है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 में गर्भवती महिलाओं को कम से कम 6 हजार रुपए की नकदी देने संबंधी कानून बनाया गया है। यह कार्यक्रम गर्भावस्था के दौरान पोषण सुधारने का अच्छा अवसर है जिससे शहरी और ग्रामीण महिलाएं तथा मध्यवर्गीय और गरीब परिवारों की महिलाएं प्रभावित होती हैं।
समीक्षा में इस तथ्य को चिन्हित किया गया कि भारत में खुले में शौच करना प्रारंभिक जीवन की एक समस्या है। डब्ल्यूएचओ तथा यूनिसेफ के संयुक्त मॉनीटरिंग कार्यक्रम के अनुसार अनुमान है कि उप-सहारा अफ्रीका में ग्रामीणों के केवल 32 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2015 में 61 प्रतिशत ग्रामीण भारतीय खुले में शौच करते हैं।
खुले में शौच करने से वातावरण में कीटाणु फैलते हैं। इस कारण बढ़ते बच्चों में बीमारी पैदा होती है। ऐसी बीमारियों में एक बीमारी डायरिया है जो बढ़ते बच्चों के भोजन को संक्रमित करती है।
समीक्षा बताती है कि ये सभी साक्ष्य प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत मिशन के व्यापक महत्व की ओर इशारा करते हैं। यह भारत में खुले में शौच की बढ़ती समस्या एक बानगी है और इसे तेजी से समाप्त करने के लिए सरकार वचनबद्ध है। केवल पिछले ही वर्ष में सरकार ने 80 लाख से अधिक शौचालय बनाये।
स्तनपान के उदाहरण दर्शाते हैं कि कैसे राज्यों द्वारा कुछ निवेश तुलनात्मक रूप से कम अवधि में बदलते हुए मानदंडों में बुनियादी परिवर्तन ला सकते हैं। सरकार की कार्रवाई ने उन माताओं की आबादी को ठीक से बढ़ाया है जो जीवन के पहले 6 महीनों के दौरान अपने बच्चों को सिर्फ स्तनपान ही कराती हैं। ऐसा जननी सुरक्षा योजना और आंगनबाड़ी कार्यक्रमों के अंतर्गत एकीकृत बाल विकास योजना जैसी अन्य स्कीमों के कारण संभव हुआ है। स्तनपान कराने वाली उन जच्चाओं का अनुपात अब बेहतर होकर 62 प्रतिशत पहुंच गया है।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 : सब्सिडी का लाभ उठा रहे हैं समृद्ध वर्ग, आवश्यक कदम उठाने और विसंगतियां दूर करने की सिफारिश
आर्थिक समीक्षा 2015-16 से महज छह वस्तुओं जैसे कि सोना, रसोई गैस, केरोसीन, बिजली, रेल किरायों और हवाई ईंधन (एटीएफ) के साथ-साथ अल्प बचत योजना के मद में समृद्ध वर्गों को 1,00,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी का असमानवितरण होने की बात सामने आई है। सब्सिडी के रूप में दी जाने वाली कुल धनराशि 91350 करोड़ रुपये से कम नहीं बैठती है, वह भी तब ऐसा है जब एनएसएस में समृद्ध वर्गों द्वारा किए जाने वाले उपभोग के कम आकलन के कारण समृद्ध वर्गों को दी जाने वाली वास्तविक सब्सिडी का कम आकलन किया जाता है। अगर हम महज पीपीएफ योजनाओं में अंतर्निहित सब्सिडी को जोड़ दें तो समृद्ध वर्गों को दी जाने वाली कुल सब्सिडी 1 लाख करोड़ रुपये से ऊपर चली जाती है। इससे सरकारी कोष से बड़ी राशि के लीकेज होने और वास्तविक रूप से हकदार माने जाने वालों की मदद करने का अवसर गंवा देने की पुष्टि होती है।
इस दिशा में आवश्यक कदम उठाना और विसंगतियों को दूर करना न केवल राजकोषीय एवं कल्याणकारी दृष्टि से, बल्कि राजनीतिक आर्थिक कल्याण की दृष्टि से भी सही साबित होगा, जिससे अन्य बाजारोन्मुख सुधारों की विश्वसनीयता बढ़ेगी।
कठिन वैश्विक माहौल के बावजूद, भारत के 2016 में विश्व में सबसे तेज गति से बढने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने के आसार: आर्थिक समीक्षा 2015-16
जुड़वा बैलेंस शीट चुनौती को संबोधित करते हुए आर्थिक समीक्षा ने विकास अपेक्षाओं को नए सिरे से तय करने पर जोर दिया
ला नीना का कृषि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा
बड़ी उपलब्धियों की समीक्षा
- सतत बाजार मूल्यों पर जीडीपी की वृद्धि दर के 2014-15 के 7.2 प्रतिशत (सीएसओ) की तुलना में बढ़कर 2015-16 के दौरान 7.6 प्रतिशत होने के आसार हैं।
- सीपीआई नई श्रृंखला मुद्रास्फीति में 5.5 प्रतिशत के आसपास उतार चढाव हुआ है जबकि थोक मूल्य सूचकांक नवंबर 2014 से अभी तक नकारात्मक रहा है।
- विदेशी मुद्रा भंडार बढ़कर 351.5 अरब डॉलर (फरवरी 2016) पहुंच गया है।
- शुद्ध एफडीआई आवक बढ़कर 27.7 अरब (अप्रैल-दिसंबर 2015-16) तक पहुंच गई है।
वित्तीय क्षेत्र ने तीन उल्लेखनीय सफलताएं दर्ज कराईं– वर्तमान में जारी राजकोषीय संघटन, बेहतर अप्रत्यक्ष कर संग्रह एवं सरकार के सभी स्तरों पर व्यय की बेहतर गुणवत्ता। सरकार जीडीपी के 3.9 फीसदी के अपने राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को अर्जित करने में सक्षम होगी। प्रत्यक्ष कर संग्रह में 10.7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। प्रत्यक्ष कर संग्रह में भी उछाल देखा गया है। इसके साथ् ही, राजस्व से निवेश एवं सामाजिक क्षेत्रों की ओर व्यय की गुणवत्ता में भी बदलाव दर्ज किया गया है।
एक निवेश प्रस्ताव के रूप में भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अव्वल है। भारत का रेशनल इंवेस्टर रेटिंग्स इंडेक्स (आरआईआरआई) प्रदर्शित करता है कि भारत बीबीबी इंवेस्टमेंट ग्रेड में अपने प्रतिस्पर्धी देशों में बेहतर स्थिति में है तथा ए ग्रेड देशों के प्रदर्शन के लगभग समतुल्य है।
विदेशी चुनौतियां
आर्थिक समीक्षा के अनुसार भारत असामान्य रूप से एक चुनौतीपूर्ण तथा कमजोर विदेशी माहौल का सामना कर रहा है। इसके अतिरिक्त, इसे चीन में ऐसे ही समायोजन के बाद एशिया में एक बडे मुद्रा समायोजन के लिए भी तैयार रहने की जरूरत है।
जुडवां बैलेंस शीट समस्या
जुडवां बैलेंस शीट समस्या (टीबीएस) का अर्थ कुछ बडे कॉरपोरेट घरानों के साथ सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों की विषम आर्थिक स्थिति है। यह निजी क्षेत्र निवेश के लिए भी एक बडी बाधा है तथा एक पूर्णकालिक आर्थिक सुधार के लिए भी। आर्थिक समीक्षा के अनुसार, 2010 से गैर लाभकारी परिसंपत्तियों (एनपीए) में बढोतरी हो रही है। यह स्थिति निर्वहनीय नहीं है, एक निर्णयात्मक समाधान की जरूरत है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि टीबीएस की समस्या के समाधान के लिए व्यापक रूप से समस्या का मूल्यांकन , पुनपूंजीकरण, समाधान एवं सुधार की जरूरत है। बैंकों को उनकी पंरिसंपत्तियों का उनके वास्तविक मूल्य के करीब मूल्यांकन करना चाहिए। इससं संबंधित कुछ कदम उठाए भी गए हैं। सरकार ने बैंकों में चरणबद्ध पुनपूंजीकरण के लिए इंद्रधनुष योजना प्रारंभ किया है।
विकास अपेक्षाओं को नए सिरे से तय करना
भारत की दीर्घकालिक संभावित जीडीपी वृद्धि दर उल्लेखनीय है और 8 से 10 फीसदी के बीच है। चूंकि विनिर्मित वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात अब जीडीपी का लगभग 18 फीसदी है, इसकी वास्तविक वृद्धि वैश्विक विकास एवं मांग पर निर्भर करेगी। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि वर्तमान वैश्विक वातावरण में विकास अपेक्षाओं को नए सिरे से तय किया जाए तथा उसी के बाद आकलन का मानक बनाया जाए।
ला नीना
एल नीनो विषवत रेखा एवं पेरू के निकट प्रशांत महासागर के जल के असामान्य रूप से गर्म होने का भारत के कृषि उत्पादन पर प्रभाव पडता है। 2015 का एल नीनो 1997 के बाद का सबसे मजबूत एल नीनो रहा है। लेकिन अगर इसके बाद अगर एक मजबूत ला नीना आ जाए तो 2016-17 में बेहतर फसल हो सकती है। पहले ऐसे अवसर आए हैं और 2016 में भी इस प्रकार की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में घटते शैक्षणिक स्तर पर चिंता व्यक्त, मानव संसाधन में निवेश बढ़ाने और स्वास्थ्य क्षेत्र में बेहतर ढंग से सेवाएं मुहैया कराने पर विशेष जोर
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में कहा गया है कि देश में सामाजिक बुनियादी ढांचे का परिदृश्य लोगों द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास सुविधाएं हासिल करने में बढ़ती खाई को दर्शाता है। भारत में समावेशी विकास के लिए देश की जनता द्वारा शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल करने में नजर आ रही खाई को पाटना आवश्यक है।
भारत युवा आबादी के मामले में खुद को हासिल बढ़त से सकारात्मक लाभ हासिल करने में जुटा हुआ है, इसको ध्यान में रखते हुए आर्थिक समीक्षा 2015-16 में कहा गया है कि देश की आबादी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए मानव संसाधन में निवेश बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है। आर्थिक समीक्षा 2015-16 में कहा गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा, पोषण, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के कल्याण सहित सामाजिक सेवाओं पर कुल व्यय 2014-15 (संशोधित अनुमान) के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 7 प्रतिशत आंका गया, जबकि यह वर्ष 2013-14 के दौरान 6.5 प्रतिशत था।
शिक्षा के मोर्चे पर, सरकारी एवं निजी दोनों ही स्कूलों में पठन स्तर में कमी के रूप में घटते शैक्षणिक स्तर को चिंता का विषय बताया गया है। शिक्षा की रिपोर्ट पर वार्षिक स्थिति (एएसईआर) 2014 के अनुसार, वर्ष 2007 से लेकर वर्ष 2014 तक की अवधि के दौरान सरकारी और निजी दोनों ही स्कूलों में कक्षा पांच के उन बच्चों की संख्या में तेज गिरावट देखने को मिली जो कक्षा द्वितीय की पाठ्यपुस्तक ही पढ़ पाते हैं।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में कहा गया है कि बालक-बालिका समानता सूचकांक (2013-14 अनंतिम), हालांकि, लड़कियों की शिक्षा में सुधार को दर्शाता है। यही नहीं, शिक्षा के लगभग सभी स्तरों पर लड़कियों और लड़कों के बीच समानता हासिल की गई है। सरकार ने शिक्षा के विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से वंचितों और हाशिए पर पड़े कमजोर लोगों जैसे कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अल्पसंख्यकों सहित अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) और आर्थिक रूप से अन्य पिछड़े वर्गों को शिक्षा प्रदान करने के लिए कई कदम उठाए हैं। अलग-अलग समूहों के बीच नामांकन और सीखने के स्तर को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक छात्रवृत्ति योजनाएं चलाई जा रही हैं। प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) मोड के तहत राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल शुरू किया गया है, जो विभिन्न मंत्रालयों/विभागों द्वारा संचालित की जा रही विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्ति योजनाओं के लिए एकल खिड़की प्रणाली है।
मानव संसाधन का एक अन्य पहलू देश की आबादी द्वारा स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल करना है। सामाजिक सेवाओं पर कुल खर्च के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य पर किया गया खर्च वर्ष 2013-14 के 18.6 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2014-15 (संशोधित अनुमान) में 19.3 प्रतिशत और वर्ष 2015-16 (बजट अनुमान) में बढ़कर 19.5 प्रतिशत हो गया।
आगे की राह
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत पर बल दिया गया है। शैक्षणिक स्तर से जुड़े परिणामों में बेहतरी के लिए व्यावसायिक रूप से योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों की अत्यंत आवश्यकता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं और बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए सार्वजनिक निवेश के साथ-साथ निजी निवेश से लाभ उठाना भी आवश्यक है। जन-धन-आधार-मोबाइल (जैम) योजना से लाभ उठाते हुए प्रौद्योगिकी प्लेटफॉर्मों और अभिनव मॉडलों को अपना कर विभिन्न तरह की सेवाएं मुहैया कराने की व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकता है।
सकारात्मक परिवर्तनों से विद्युत क्षेत्र में अधिकतम वृद्धि
गरीबों के लिए कम दरों पर टैरिफ संरचनाओं में उचित रूप से अधिक प्रगति अर्जित करने की संभावनाओं का सुझाव दिया
भारत को विद्युत क्षेत्र में सशक्त बनाने के लिए अतिरिक्त विद्युत चरण की स्थापना का नया प्रतिमान
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में बताया गया है कि वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद से विद्युत क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए हैं। जो इस प्रकार हैं-
- उत्पादन क्षमता में अधिकतम अतिरिक्त बढोतरी हुई है। 2014-15 में 26.5 गीगावॉट की क्षमता के सृजन में अभी तक की सर्वाधिक बढ़ोतरी हुई है जो पिछले पांच वर्षों की लगभग 19 गीगावॉट की औसत वार्षिक परिवर्धन से कहीं अधिक है।
- विद्युत क्षेत्र में हुई क्षमता बढ़ोतरी अप्रत्याशित है। इन उपायों से भारत के शीर्ष बिजली घाटे को 2.4 प्रतिशत के कम स्तर पर लाने में मदद मिली है।
- विद्युत वितरण कंपनियों – उदय, उज्जवल, डिस्कॉम एश्योरेंस योजना के स्थिति और कार्य निष्पादन में सुधार लाने की व्यापक पहल की गई है। भारतीय रेल विद्युत खरीदने के लिए खुली पहुंच का बदलाव लाने का प्रयास कर रही है।
- नवीकरणों को प्रमुख नीति सहायता प्राप्त हुई है। 2022 तक लक्ष्यों को 32 गीगावॉट से 175 गीगावॉट तक संशोधित कर दिया गया है। राष्ट्रीय सौर मिशन के तहत नीलामियों के नवीनतम दौर में टैरिफ सर्वकालीन 4.34 रूपए/किलोवॉट तक पहुंच गई है।
आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि इन प्रमुख सफलताओं होने के बावजूद विद्युत क्षेत्र की जटिलता है कि भयानक चुनौतियां बनी हुई हैं जो इस प्रकार हैं-
- टैरिफ अनुसूचियों की जटिलता इक्नॉमिक एक्टर्स को मूल्य संकेतों की ओर संतोषजनक रूप से जवाबदेह बनाने से रोकती हैं।
- कुछ मामलों में औसत टैरिफ आपूर्ति की गई बिजली की औसत लागत से भी कम निर्धारित की गई है।
- उच्च औद्योगिक टैरिफ एवं बिजली की परिवर्तनशील गुणवत्ता मेक इन इंडिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
- सार्वजनिक पहुंच के माध्यम से एकल राष्ट्रव्यापी विद्युत मूल्य तय करने के मार्ग में मूल्य और गैर-मूल्य अवरोधक है।
- घरेलू उपभोक्ताओं के लिए प्रगामी टैरिफ अनुसूचियों का निर्धारण।
इस समीक्षा में विद्युत क्षेत्र के लिए कुछ दीर्घकालीन नीति मुद्दों के बारे में विचार-विमर्श किया गया है जो इस प्रकार हैं-
- विद्युत टैरिफ अनुसूचियां वर्तमान में जटिल है। उदाहरण के लिए कुछ राज्यों में मुर्गीपालन, मत्स्य पालन, नम भूमि खेती (किसी निश्चित आकार से ऊपर और नीचे) मशरूम और खरगोश पालन आदि के लिए अलग-अलग टैरिफ हैं। इसके विरूद्ध अन्य ऊर्जा उत्पाद एकल मूल्य द्वारा अभिलक्षित किया गया है।
- उद्योग के लिए ऊंची टैरिफ होने से कंपनियां अपनी बिजली सृजन करने की विधि अपना सकते है। 47 प्रतिशत कंपनियां डीजल जनरेटर का उपयोग कर रहे हैं। 2006-07 और 2014-15 के बीच यूटिलिटी से बिजली की खरीदारी 4.6 प्रतिशत वार्षिकी बढ़ोतरी हुई है।
आर्थिक समीक्षा 2015-16: सेवा क्षेत्र अब भी आर्थिक विकास का अहम वाहक, वर्ष 2015-16 में योगदान लगभग 66.1 प्रतिशत रहा
भारत में सेवा क्षेत्र अब भी राष्ट्र एवं राज्यों की आमदनी, व्यापार प्रवाह, एफडीआई प्रवाह और रोजगार में योगदान के लिहाज से सर्वाधिक जीवंत क्षेत्र है। आर्थिक समीक्षा 2015-16 के मुताबिक वर्ष 2015-16 में इसके सकल मूल्यवर्धन की वृद्धि में सेवा क्षेत्र का योगदान लगभग 66.1 प्रतिशत रहा, जिसकी बदौलत यह महत्वपूर्ण शुद्ध विदेशी मुद्रा अर्जक और एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) के प्रवाह की दृष्टि से सर्वाधिक आकर्षक क्षेत्र के रूप में उभर कर सामने आया है। संकट के बाद की अवधि (2010-14) के दौरान आर्थिक सुस्ती दर्ज किये जाने के बावजूद भारत में 8.6 प्रतिशत की सीएजीआर (संयोजित वार्षिक वृद्धि दर) के साथ भारत में सेवा क्षेत्र ने सर्वाधिक वृद्धि दर्शायी है, जिसके बाद 8.0 प्रतिशत की सीएजीआर के साथ चीन दूसरे स्थान पर है। ‘वैश्विक रोजगार एवं सामाजिक दृष्टिकोण : रूझान 2015’ पर आईएलओ (अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन) की रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले वर्षों में रोजगार सृजन मुख्यत: सेवा क्षेत्र में ही होगा।
एफडीआई
वर्ष 2014 के दौरान भारत में एफडीआई 34 अरब अमेरिकी डॉलर दर्ज किया गया, जो वर्ष 2013 के मुकाबले 22 प्रतिशत ज्यादा है। वर्ष 2014-15 और वर्ष 2015-16 (अप्रैल-अक्टूबर) के दौरान आमतौर पर और मुख्यत: सेवा क्षेत्र में एफडीआई के प्रवाह में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है।
भारत का सेवा व्यापार
हाल के वर्षों में भारत के व्यापार और भूमंडलीयकरण में सेवा निर्यात एक अहम गतिशील घटक रहा है। भारत का सेवा निर्यात वर्ष 2001 के 16.8 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2014 में 155.6 अरब अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया, जिसका जीडीपी में 7.5 प्रतिशत योगदान है और इसके साथ ही भारत विश्व में आठवां सबसे बड़ा सेवा निर्यातक बन गया है।
पर्यटन
पर्यटन आर्थिक विकास का एक प्रमुख इंजन और विभिन्न तरह के रोजगारों का सृजक है। आर्थिक समीक्षा के मुताबिक भारत का पर्यटन विकास वर्ष 2015 में विदेशी पर्यटक आगमन (एफटीए) के लिहाज से घटकर 4.5 प्रतिशत और विदेशी मुद्रा आमदनी (एफईई) के लिहाज से घटकर 2.8 प्रतिशत रह गया, जो वर्ष 2014 में एफटीए के लिहाज से 10.2 प्रतिशत और एफईई के लिहाज से 9.7 प्रतिशत था। हालांकि, घरेलू पर्यटन का अब भी इस क्षेत्र में अहम योगदान देखा जा रहा है, जिससे इसे आवश्यक गति निरंतर मिल रही है।
शिपिंग व बंदरगाह सेवाएं
मात्रा की दृष्टि से भारत के व्यापार के लगभग 95 प्रतिशत और मूल्य की दृष्टि से देश के व्यापार के 68 प्रतिशत का परिवहन समुद्री मार्ग से होता है। भारतीय बंदरगाहों का कारगो यातायात वर्ष 2014-15 में 8.2 प्रतिशत बढ़कर 1052.21 मिलियन टन के स्तर पर पहुंच गया।
आईटी-बीपीएम सेवाएं
आईटी-बीपीएम क्षेत्र ने काफी लचीलापन दर्शाया है और आर्थिक समीक्षा के मुताबिक वर्ष 2015-16 के दौरान जीडीपी में इसका हिस्सा 9.5 प्रतिशत और कुल सेवा निर्यात में इसका हिस्सा 45 प्रतिशत से भी ज्यादा हो जाने की आशा है। वर्ष 2015-16 में 21.4 प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ ई-कॉमर्स के बढ़कर 17 अरब अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच जाने की आशा है।
अनुसंधान एवं विकास सेवाएं
सीएसओ (केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन) की नई विधि के मुताबिक आर एंड डी के लिए कोई पृथक शीर्षक नहीं है, यह प्रोफेशनल, वैज्ञानिक एवं तकनीकी गतिविधियों का एक हिस्सा है, जिसमें आर एंड डी भी शामिल है और इसने वर्ष 2013-14 और 2014-15 में क्रमश: 3.8 तथा 25.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्शायी है।
परामर्श सेवाएं
आर्थिक समीक्षा के मुताबिक परामर्श सेवाएं भी भारत के सर्वाधिक तेजी से विकसित होने वाले खंडों में खुद को शुमार करने में सफल हो रही हैं। सरकार ने घरेलू सलाहकारों के क्षमता विकास के लिए विपणन विकास सहायता जैसे अनेक कदम उठाए हैं।
रियल एस्टेट और आवास
वर्ष 2014-15 के दौरान भारत के जीवीए (सकल मूल्य वर्धन) में इस क्षेत्र का योगदान 8.0 प्रतिशत आंका गया और इसने 9.1 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्ज की। वर्ष 2011-12 से ही यह सेक्टर 8.1 प्रतिशत की सीएजीआर के साथ विकास कर रहा है।
आंतरिक व्यापार
आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, जीवीए में 10.7 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ 12,31,073 करोड़ रुपये के व्यापार एवं मरम्मत सेवा क्षेत्र ने वर्ष 2014-15 में 10.8 प्रतिशत की वृद्धि दर दर्शायी। भारत के रिटेल बाजार के वर्ष 2020 तक बढ़कर 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच जाने की आशा है और इसके साथ ही भारत विश्व का सर्वाधिक तेजी से आगे बढ़ने वाला प्रमुख विकासशील बाजार बन जाएगा।
मीडिया एवं मनोरंजन सेवाएं
आर्थिक समीक्षा के अनुसार, इस उद्योग ने पिछले दो दशकों में अप्रत्याशित वृद्धि दर दर्शायी है और इसके साथ ही भारत के सर्वाधिक तेजी से विकसित होने वाले उद्योगों में यह भी शामिल हो गया है। वर्ष 2019 तक 13.9 प्रतिशत की सीएजीआर के साथ इस उद्योग का कारोबार 1964 अरब रुपये के स्तर पर पहुंच जाने की आशा है।
डाक सेवाएं
इंडिया पोस्ट विश्वभर में सबसे बड़ा डाक नेटवर्क है। वित्तीय समावेश की दिशा में डाक घर बचत बैंक (पीओएसबी) खातों की संख्या 30.86 करोड़ से बढ़कर 33.97 करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंच गई है। 80 लाख से भी ज्यादा ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ खाते खोले गए हैं।
अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक माहौल में निराशा के बीच भारत स्थायित्व के केन्द्र के रूप में खड़ा है 2015-16 में जीडीपी विकास दर का दायरा 7 से 7.75 रहने की उम्मीद
7वें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार वेतन और लाभ बढ़ने से मूल्य स्थिर न होने की संभावना और इससे मुद्रा स्फीति पर कम प्रभाव पड़ेगा
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और कुछ कॉरपोरेट घरानों की ट्विन बैलेंसशीट की चुनौती के व्यापक समाधान के लिए अपेक्षित मान्यता, पुनर्पूंजीकरण, संकल्प और सुधार की जरूरत
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक माहौल में असामान्य खलबली में भारत की अर्थव्यवस्था की आशावादी तस्वीर पेश की गई है, जिसमें भारत स्थायित्व और अवसरों के केन्द्र के रूप में खड़ा है। समीक्षा में बताया गया है कि देश की मैक्रो अर्थव्यवस्था स्थायी है और सरकार की राजकोषीय मजबूती और कम मुद्रा स्फीति पर स्थापित है। समीक्षा में भारत की आर्थिक प्रगति विश्व की सबसे ऊंची अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जिसे आवश्यक सार्वजनिक बुनियादी ढांचे की दिशा में सरकार द्वारा पुनःउन्मुख लागत से मदद मिली है। यह उलब्धियां उल्लेखनीय हैं और इन्हें अधिक कठिन वैश्विक माहौल में लगातार स्थायी रखने का कार्य करना है। देश का कार्य निष्पादन अनेक सार्थक सुधारों के कार्यान्वयन से परिलक्षित होता है। केन्द्र में भ्रष्टाचार से सार्थक रूप से निपटा गया है, जो सार्वजनिक संपत्तियों की नीलामी से झलकता है। एफडीआई को उदार बनाया गया है और व्यापार की लागत को सरल बनाने के लिए कठोर प्रयास किए गए हैं। कर निर्णयों में स्थायित्व और पुर्वानुमान स्थापित किए गए हैं जो विदेशी कंपनियों पर न्यूनतम विकल्प कर (एमएटी) के निपटान में परिलक्षित होता है। देश के बुनियादी ढांचे के मजबूत करने के लिए प्रमुख सार्वजनिक निवेश किया गया है। कृषि क्षेत्र में प्रमुख फसल बीमा प्रोग्राम शुरू किया गया है।
समीक्षा में प्रधानमंत्री जन-धन योजना जो विश्व का सबसे बड़ा प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण कार्यक्रम है के तहत 200 मिलियन लोगों ने बैंक खाते खोले हैं। एलपीजी के मामले में लगभग 151 मिलियन लाभार्थियों ने अपने बैंक खातों में 2900 करोड़ रुपये प्राप्त किए हैं। अन्य सरकारी कार्यक्रमों और सब्सिडी के लिए जन-धन आधार मोबाइल एजेंडा का विस्तार किया गया है। समीक्षा में जीएसटी बिल के बारे में चिंता व्यक्त की गई है। विनिवेश कार्यक्रम लक्ष्य से कम रहा है और सब्सिडी को युक्ति संगत बनाने के अगले चरण में कार्य किया जा रहा है। कॉरपोरेट और बैंक बैलेंसशीट चिंता का विषय रहे हैं जिससे निजी निवेशों की संभावना पर प्रभाव पड़ा। समीक्षा में भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी संभावनाओं को प्राप्त न करने पर चिंता व्यक्त की गई है। समीक्षा में बताया गया है कि देश की दीर्घकालीन संभावना विकास दर अभी 8 से 10 प्रतिशत है और इस संभावना को प्राप्त करने के लिए कम से कम तीन मोर्चों पर तेजी से कार्य करने की जरूरत है।
लेकिन उद्योगोन्मुखी होना अनिवार्य रूप से मूल रूप से प्रतिस्पर्धान्मुखी होना है। यह जोर देकर कहता है कि एक अधिक स्व-उपयोग वातावरण का सृजन करने की कुंजी एक्जिट समस्या का हल कराना होगा जो भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। दूसरा, समीक्षा अधिकतम स्तर पर भारत की युवा शक्ति का दोहन करने के लिए स्वास्थ्य एवं लोगों की शिक्षा में भारी निवेश करने की अपील करता है।
सर्वे में बताया गया है कि आगामी बजट एवं आर्थिक नीति को एक असामान्य चुनौतीपूर्ण एवं कमजोर विदेशी माहौल के साथ संतोष करना होगा। भारत को चीन में एक ऐसे ही समायोजन के बाद एशिया में एक बडा करेंसी पुनर्समायेाजन करने की योजना बनानी होगी। नीतिगत कदमों के परिणामस्वरूप जोखिम का एक और परिदृश्य पैदा हो सकता है जिसके तहत बडे उभरते बाजारों वाले देशों से बाहरी प्रवाह पर अंकुश लगाने के लिए पूंजी नियंत्रण को मजबूर होना पड सकता है जिसका आर्थिक विकास पर कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड सकता है। समीक्षा में कहा गया है कि किसी भी मामले में विदेशी मांग के कमजोर होने की आशंका है और विकास दर को कमजोर होने से बचाने के लिए मांग के घरेलू संसाधनों को ढूंढना होगा तथा उसे क्रियाशील बनाना होगा।
सर्वे में कहा गया है कि भारत एक निवेश स्थल के रूप् में अंतरराष्ट्रीय रूप से अव्वल है और रेशनल इंवेस्टर रेटिंग्स इंडेक्स प्रदर्शित करता है कि भारत बीबीबी इंवेस्टमेंट ग्रेड में प्रतिस्पर्धी देशों से बेहतर स्थिति में है और लगभग ए ग्रेड के देशों के समतुल्य है।
आर्थिक समीक्षा में बडे घटनाक्रमों की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि सीएसओ के अनुसार सतत बाजार मूल्यों पर जीडीपी की वृद्धि दर के 2014-15 के 7.2 प्रतिशत की तुलना में 2015-16 के दौरान 7.6 प्रतिशत रहने का अनुमान है। हालांकि कमजोर मानसून के कारण लगातार दूसरे वर्ष कृषि के निम्न रहने की आशंका है पर पिछले वर्ष की तुलना में इसने बेहतर प्रदर्शन किया है। उद्योग ने विनिर्माण में तेजी के कारण मजबूत प्रदर्शन किया है जबकि सेवा क्षेत्र में लगातार विस्तार जारी है। समीक्षा में कहा गया है कि भले ही वास्तविक आर्थिक विकास दर में तेजी बनी हुई है, सामान्य विकास दर गिर रही है।
समीक्षा में कहा गया है कि अन्य संकेतकों के बीच निम्न मुद्रास्फीति बनी रही है और मूल्य स्थिरता के विश्वास में बेहतरी आई है। चालू खाता घाटे में कमी आई है और फरवरी, 2016 के प्रारंभ में विदेशी मुद्रा भंडार बढ़कर 351.5 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। वित्तीय क्षेत्र ने कुछ बेहतरीन सफलताएं अर्जित की, जो इस प्रकार है- वर्तमान में जारी राजकोषीय मजबूती, अप्रत्यक्ष कर संग्रह में उछाल एवं सरकार के सभी स्तरों पर व्यय की गुणवत्ता में बेहतरी। सरकार के कर राजस्वों के बजट के स्तरों से अधिक रहने के आसार है। 2015-16 के पहले नौ महीनों के दौरान प्रत्यक्ष करों में 10.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, जबकि अप्रत्यक्ष कर संग्रह भी शानदार है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि वर्ष 2015-16 के दौरान सरकार के कुल पूंजीगत खर्च में 0.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। केन्द्र एवं राज्यों दोनों के ही मामले में यह वृद्धि देखने को मिली। जहां एक ओर इसमें केन्द्र का योगदान 54 प्रतिशत रहा, वहीं राज्यों का योगदान 46 प्रतिशत आंका गया है।
आर्थिक परिदृश्य में वर्ष 2015-16 के दौरान जीडीपी की वास्तविक वृद्धि दर 7 प्रतिशत से लेकर 7.75 प्रतिशत रहने की आशा है। हालांकि, इसमें आगाह करते हुए कहा गया है कि अगर वैश्विक अर्थव्यवस्था कमजोर बनी रहती है, तो भारत के विकास को तेज झटके लग सकते हैं। जहां तक घरेलू माहौल का सवाल है, दो कारकों की बदौलत खपत बढ़ सकती है- सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें अगर लागू हो गईं, तो सरकारी कर्मचारी अपने ज्यादा वेतन एवं भत्तों से अपेक्षाकृत अधिक खर्च करने के लिए आगे आ सकते हैं और सामान्य मानसून की वापसी से भी खपत को नई गति मिल सकती है। इसके साथ ही आर्थिक समीक्षा में तीन खतरों का भी उल्लेख किया गया है- वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल से निर्यात परिदृश्य बिगड़ सकता है, उम्मीदों के विपरीत तेल कीमतों में वृद्धि होने पर खपत में कमी आ सकती है और इन दोनों कारकों का आपस में मिल लाने से सबसे ज्यादा खतरा उत्पन्न होने की आशंका है।
आर्थिक समीक्षा में आगाह करते हुए कहा गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण अल्पकालिक चुनौती ट्विन बैलेंस शीट की समस्या को लेकर है। यह समस्या है सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) और कुछ कॉरपोरेट घरानों की बिगड़ती वित्तीय सेहत। ट्विन बैलेंस शीट निजी निवेश और पूर्ण रूप से आर्थिक बेहतरी के मार्ग में एक प्रमुख बाधा है। इस चुनौती से निपटने के लिए चार ‘आर’ की जरूरत पड़ेगी। ये हैं – रिक्गनिशन, रिकैपिटलाइजेशन, रिजोल्यूशन और रिफॉर्म। जहां तक संभव हो, बैंकों को अपनी परिसंपत्तियों का मूल्यांकन उसकी वास्तविक कीमत (रिक्गनिशन) के आस-पास करनी चाहिए, जिस पर आरबीआई जोर देता रहा है। जब एक बार वे ऐसा कर लेंगे, तो उनकी पूंजीगत स्थिति को निश्चित तौर पर नई इक्विटी (रिकैपिटलाइजेशन) के जरिए सुरक्षित किया जाना चाहिए, जैसा कि बैंक मांग करते रहे हैं। इसी तरह कॉरपोरेट क्षेत्र की गेर-निष्पादित परिसंपत्तियों को निश्चित तौर पर बेच देने अथवा समायोजित (रिजोल्यूशन) करने की जरूरत है, जैसी इच्छा सरकार की है। इसी तरह निजी क्षेत्र और कंपनियों के लिए भावी प्रोत्साहनों को दुरुस्त (रिफॉर्म) करने की जरूरत है, ताकि यह समस्या फिर से उत्पन्न न हो।
आर्थिक समीक्षा के मुताबिक मध्यकालिक राजकोषीय रूपरेखा की समीक्षा के लिहाज से यह समय उपयुक्त है। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि पूरी दुनिया में मध्यकालिक राजकोषीय रूपरेखा के क्षेत्र में नये बदलाव देखने को मिल रहे हैं, जिनसे भारत सीख सकता है।
महंगाई का जिक्र करते हुए आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन और लाभों में बढ़ोतरी किये जाने पर कीमतों में अस्थिरता उत्पन्न होने की संभावना नहीं है और इसका महंगाई पर मामूली असर पड़ेगा।
बाह्य परिदृश्य का उल्लेख करते हुए आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि प्रथम तीन तिमाहियों के दौरान कुल निर्यात में तकरीबन 18 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। आर्थिक समीक्षा में इस ओर ध्यान दिलाया गया है कि पिछले दो वर्षों के दौरान भारतीय विनिर्माण निर्यात के मुकाबले भारतीय सेवा निर्यात कहीं ज्यादा प्रभावित हुआ है। इसी तरह वैश्विक सेवा निर्यात पर भी असर पड़ा है। 8-10 प्रतिशत की भारतीय मध्यमकालिक विकास संभावना को साकार करने के लिए निर्यात में तेज वृद्धि की आवश्यकता है। चीन की तरह प्रदर्शन करने के लिए भारत की प्रतिस्पर्धी क्षमता को बेहतर करना होगा, ताकि इसका सेवा निर्यात विश्व बाजार में तकरीबन 15 प्रतिशत हिस्सा हासिल कर सके, जो फिलहाल विश्व निर्यात के लगभग तीन प्रतिशत के स्तर पर है।
व्यापार नीति के मुद्दे पर आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि पांच मसलों पर ध्यान देने की जरूरत है-डब्ल्यूएचओ के नियमों के मद्देनजर किसानों को सहायता प्रदान करना, किसानों को प्रोत्साहनों से जुड़ी अनियमित व्यापार नीति के असर को कम करना, व्यापार वार्ताओं में भारत के सामने उत्पन्न ‘बड़े लेकिन गरीब’ से जुड़ी दुविधा का सामना करना, बाह्य माहौल के कारण उत्पन्न मौजूदा दबावों से निपटना और व्यापार के मसले पर विश्व के साथ तालमेल बढ़ाना। आर्थिक समीक्षा में यह बात रेखांकित की गई है कि कृषि क्षेत्र में भारत की स्थिति बदल गई है, भारत अब ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो गया है और अब वह घरेलू सहायता पर अपेक्षाकृत ज्यादा भरोसा करता है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में मौजूदा उथल-पुथल और कमजोर वैश्विक मांग के कारण भी व्यापार नीति दबाव में है। आर्थिक समीक्षा में सुझाव दिया गया है कि भारत को खासकर उन वस्तुओं के मामले में संरक्षणवादी कदमों को अपनाने से बचना चाहिए, जिनके कारण डाउनस्ट्रीम कंपनियों और उद्योगों की प्रतिस्पर्धी क्षमता घट सकती है। आर्थिक समीक्षा में यह भी सुझाव दिया गया है कि भारत को उन प्रक्रियाओं को मजबूत करना चाहिए, जो डंपिंग, सब्सिडी (काउंटरवेलिंग डयूटी) और आयात में बढ़ोतरी (हिफाजत संबंधी उपाय) के खिलाफ डब्ल्यूटीओ के अनुरूप और इस तरह वैध कदमों को तेजी से उठाने की इजाजत देते हैं।
आर्थिक समीक्षा 2015-16, भारतीय अर्थव्यवस्था वृह्द आर्थिक स्थिरता, गतिशीलता एवं आशा के केन्द्र के रूप में उभरी है और आगामी वर्ष में जीडीपी विकास दर 7.0 प्रतिशत से 7.75 प्रतिशत तक रहने की उम्मीद है। समीक्षा में अगले दो वर्षों में विकास दर 8 प्रतिशत से भी अधिक रहने का अनुमान है।
वैश्विक मंदी के बावजूद, सामान्य मॉनसून के कारण 2016-17 में भी भारतीय अर्थव्यवस्था में लगातार तीसरे वर्ष सात प्रतिशत से अधिक वृद्धि जारी रहेगी। वित्त मंत्री श्री अरूण जेटली द्वारा आज संसद में प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा 2015-16 में बताया गया है कि सुधार प्रक्रिया को लगातार जारी रखने की सरकार की प्रतिबद्धता के कारण अगले दो वर्षों के दौरान अर्थव्यवस्था की बढ़ोत्तरी की गति आठ प्रतिशत या अधिक हासिल करने की स्थितियां मौजूद हैं। इस सर्वेक्षण में रेखांकित किया गया है कि वैश्विक अनिश्चित्ताओं और कमजोर मॉनसून के बावजूद भारत ने 2014-15 में 7.2 प्रतिशत और 2015-16 में 7.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की है। इस प्रकार भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था बन गया है।
सर्वेक्षण में बताया गया है कि 2015-16 में कृषि क्षेत्र में वृद्धि पिछले दशक के औसत की तुलना में लगातार कम रही है। ऐसा लगातार दूसरे वर्ष भी सामान्य से कम बारिश होने के कारण हुआ। वर्ष 2015-16 के लिए कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार खाद्यान्नों और तिलहनों का उत्पादन क्रमशः 0.5 प्रतिशत और 4.1 प्रतिशत घटने का अनुमान है, जबकि फलों और सब्जियों का उत्पादन थोड़ा सा बढ़ने की संभावना है। पशुधन उत्पादों, वानिकी और मत्स्य पालन जैसे संबद्ध क्षेत्रों में 2015-16 के दौरान पांच प्रतिशत से अधिक वृद्धि होने से अच्छी तस्वीर उभरने का अनुमान है, जिससे ग्रामीण लोगों की आय में कुछ बढ़ोतरी होगी।
विनिर्माण गतिविधियों में सुधार होने से चालू वर्ष के दौरान उद्योग में विकास की गति तेज होने का अनुमान है। निजी कॉरपोरेट क्षेत्र की विनिर्माण क्षेत्र में लगभग 69 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जिससे अप्रैल-दिसंबर, 2015-16 में वर्तमान मूल्यों पर 9.9 प्रतिशत बढ़ोत्तरी होने का अनुमान है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) ने यह दर्शाया है कि अप्रैल-दिसंबर, 2015-16 के दौरान विनिर्माण उत्पादन में 3.1 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि के दौरान यह बढ़ोत्तरी 1.8 प्रतिशत रही थी। मौजूदा विनिर्माण रिकवरी में पेट्रोलियम रिफाइनिंग, ऑटोमोबाइल्स, परिधान, रसायन, विद्युत मशीनरी और फर्नीचर सहित लकड़ी उत्पादों में जोरदार वृद्धि होने से मदद मिली है। विनिर्माण के अलावा उद्योग क्षेत्र के तीन खंड बिजली, गैस, जलापूर्ति और संबंधित सेवाओं, खनन और खदान तथा निर्माण गतिविधियों में मंद गति देखी जा रही है।
इस समीक्षा में सेवा क्षेत्र में साधारण बढ़ोत्तरी रेखांकित की गई है, लेकिन यह अभी भी बहुत मजबूत है। अर्थव्यवस्था का मुख्य वाहक होने के कारण कुल विकास में इस क्षेत्र का 2011-12 से 2015-16 के दौरान लगभग 69 प्रतिशत का योगदान रहा है और अर्थव्यवस्था में इसकी हिस्सेदारी 4 प्रतिशत बढ़कर 49 से 53 प्रतिशत होने की प्रक्रिया में है।
समीक्षा ने अपने दृष्टिकोण में यह स्पष्ट संकेत दिया है कि यद्यपि उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में स्पष्ट रूप से मंदी आई है, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था वृह्द आर्थिक स्थिरता, गतिशीलता एवं आशा के एक केन्द्र के रूप में उभरी है और आगामी वर्ष में इसकी जीडीपी विकास दर 7.0 प्रतिशत से 7.75 प्रतिशत तक रहने की उम्मीद है।
पिछले दो वर्षों के दौरान विद्युत क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई, रिकॉर्ड उत्पादन क्षमता जोड़ी गई, विद्युत में एकल बाजार, डिस्कॉम के सुधार और नवीकरणीय ऊर्जा के विकास की दिशा में कदम उठाए गए
‘मेक इन इंडिया’ को नई गति प्रदान करने के लिए ‘खुली पहुंच’ के जरिए अतिरिक्त उत्पादन क्षमता के दोहन के लिहाज से यह उद्योगों के लिए उपयुक्त समय है
प्रगतिशील शुल्क दर ढांचे के जरिए अमीरों पर बेवजह बोझ डाले बगैर गरीबों के लिए लागत घटाई जा सकती है
आर्थिक समीक्षा में यह बात रेखांकित की गई है कि पिछले दो वर्षों के दौरान विद्युत क्षेत्र में व्यापक बदलाव देखने को मिले हैं। वर्ष 2014-15 के दौरान उत्पादन क्षमता में 26.5 गीगावाट (जीडब्ल्यू) की अब तक की सर्वाधिक वृद्धि दर्ज की गई, जबकि पिछले पांच वर्षों के दौरान औसत वार्षिक वृद्धि लगभग 19 जीडब्ल्यू ही रही थी। क्षमता में बढ़ोतरी की बदौलत सर्वोच्च मांग के समय बिजली की किल्लत घटकर 2.4 प्रतिशत के अब तक के न्यूनतम स्तर पर आ गई है। वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) की माली हालत और बकाया कर्ज से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारें उज्ज्वल डिस्कॉम आश्वासन योजना (उदय) के जरिए एकजुट हो गई हैं।
आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्यों को 32 जीडब्ल्यू से बढ़ाकर 175 जीडब्ल्यू कर दिया गया है, ताकि नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र और सतत विकास को नीतिगत बढ़ावा मिल सके। राष्ट्रीय सौर मिशन के तहत होने वाली नीलामियों के साथ सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए ग्रिड समतुल्यता अब वास्तविकता बनने की ओर अग्रसर है तथा इसके परिणामस्वरूप 4.34 रुपये प्रति किलोवाट घंटे (केडब्ल्यूएच) की अब तक की सबसे न्यूनतम दर संभव हो पाई है।
आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि डिस्कॉम पर बकाया कर्ज बोझ परंपरागत रूप से विद्युत क्षेत्र के लिए एक प्रमुख अवरोध रहा है। सर्वाधिक नुकसान उठाने वाले राज्य वे हैं, जिनकी शुल्क दरें विद्युत आपूर्ति की लागत को कवर करने में विफल रही हैं। अनेक राज्य अब ‘उदय’ योजना के जरिए इस अंतर को पाटने की कोशिश कर रहे हैं।
‘मेक इन इंडिया’ पर विद्युत क्षेत्र का असर
आर्थिक समीक्षा में यह बात रेखांकित की गई है कि विद्युत आपूर्ति और इसकी गुणवत्ता का औद्योगिक उत्पादन पर असर पड़ता है। विशेषकर जब गुणवत्ता को ध्यान में रखा जाता है, तो विद्युत दरें भारतीय उद्योग के लिए असामान्य रूप से ज्यादा बैठती हैं। लगभग 72 जीडब्ल्यू की कुल क्षमता और 5 जीडब्ल्यू की वार्षिक वृद्धि दर के साथ अनियमित विद्युत आपूर्ति की समस्या का सामना करने के लिए डीजल जनरेटरों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2006-07 और वर्ष 2014-15 के बीच कैप्टिव विद्युत उत्पादन की संयोजित वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) 9.3 प्रतिशत आंकी गई, जबकि विभिन्न निकायों से खरीदी गई बिजली के लिए सीएजीआर 4.6 प्रतिशत दर्ज की गई।
भारत को ‘विद्युत में एकल बाजार’ बनाने की जरूरत – ‘खुली पहुंच’ सुलभ कराना
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि विद्युत क्षेत्र में ‘एकल भारत बनाने’ की दिशा में अनेक कदम उठाए गए हैं। विद्युत अधिनियम 2003, जिसके तहत एक मेगावाट से ज्यादा विद्युत लोड वाले ग्राहक विद्युत बाजारों से सीधे बिजली खरीद सकते हैं, के अंतर्गत पेश की गई खुली पहुंच (ओपन एक्सेस) नीति देश में विद्युत की एकल बाजार कीमत प्राप्त करने की दिशा में प्रथम कदम थी। खुली पहुंच नीति को अमल में लाने और एक राष्ट्रीय विद्युत बाजार के सृजन के उद्देश्य से वर्ष 2008 में विद्युत एक्सचेंज स्थापित किये गये थे।
विद्युत उत्पादन क्षमता बढ़ गई है, जबकि बिजली खरीदने के लिहाज से डिस्कॉम की वित्तीय क्षमता घट गई है। इसके परिणामस्वरूप मौजूदा विद्युत संयंत्र लोड फैक्टर्स घटकर लगभग 60 प्रतिशत के अपने न्यूनतम स्तर पर आ गए हैं। आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि ‘मेक इन इंडिया’ को नई गति प्रदान करने के मद्देनजर अब यह उपयुक्त समय है कि ज्यादा बिजली मांग वाले उद्योगों को ‘खुली पहुंच’ के जरिए अतिरिक्त विद्युत उत्पादन क्षमता के दोहन की अनुमति दी जाए।
गरीबों पर बोझ घटाने के लिए शुल्क दरों में प्रगतिशीलता
आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि भारत की घरेलू विद्युत दरों वाले ढांचे में प्रगतिशीलता की काफी गुंजाइश है। आर्थिक समीक्षा में ज्यादा राजस्व संग्रह को कल्याण मद में ज्यादा आवंटन के साथ संतुलित करने की जरूरत का उल्लेख किया गया है। आर्थिक समीक्षा में यह सुझाव दिया गया है कि लागत को कवर करते हुए और समृद्ध वर्गों पर बेवजह बोझ डाले बगैर गरीबों के लिए दरें घटाई जा सकती हैं।
आधुनिक वैश्विक कर इतिहास में जीएसटी असाधारण सुधार उपाय होगा
आर्थिक समीक्षा 2015-16: राजकोषीय मजबूती का एक विकल्प समृद्ध वर्गों को लगभग एक लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी राशि को कम कर इससे गरीबों को बेहतर सब्सिडी का लक्ष्य निर्धारित करना
समीक्षा में बीस प्रतिशत से अधिक आय वाले व्यक्तियों के कर दायरे को पांच.पांच प्रतिशत से बढ़ाने, रियल एस्टेट और कृषि से आय का तर्कसंगत कराधान, कर छूट राज की चरणबद्ध रूप से समाप्ति का प्रस्ताव
रियल एस्टेट में अटकलबाजी रोकने के लिए उच्च परिसंपत्ति कर दर
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में प्रस्तावित वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) को आधुनिक वैश्विक कर इतिहास में सुधार का असाधारण उपाय बताया गया है। राजनीतिक सहमति के बाद संवैधानिक संशोधन के लिए लंबित जीएसटी केंद्र, 28 राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा कार्यान्वित किया जाएगा। समीक्षा में कहा गया है कि अनुमानित दो से दो दशमलव पांच मिलियन उत्पाद शुल्क और सेवा कर देने वालों को प्रभावित करने वाले जीएसटी से भारतीय कर प्रणाली में नाटकीय बदलाव आएगा।
इक्कीसवीं सदी के लिए राजकोषीय क्षमता का खाका रखते हुए समीक्षा में निजी करदाताओं के आधार को बढ़ाने के लिए कहा गया है। 1980 के मध्य के बाद से अधिक संख्या में कर चुकाए जाने के बावजूद करीबन 85 प्रतिशत अर्थव्यवस्था कर दायरे से बाहर है। समीक्षा में बताया गया है कि कमाने वाले व्यक्तियों में से केवल पांच दशमलव पांच प्रतिशत कर दायरे में हैं। इसमें कहा गया है कि करदाताओं के करीब चार प्रतिशत और मतदाताओं के अनुपात को देखें तो यह अनुपात अनुमानित 23 प्रतिशत तक बढ़ना चाहिए। इसमें कहा गया है कि कर का भुगतान करना और राजनीतिक भागीदारी नागरिकों की दो महत्वपूर्ण जवाबदेह प्रक्रियाएं हैं। कर भरने और मतदान में अंतर के परिणाम विरोधाभासी हैं, जैसे देश में अकाल से निपटा जा सकता है, जबकि कुपोषण अभी भी चुनौती है। बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, लेकिन महिलाओं के लिए सामान्य सुरक्षा मुहैया कराना अधिक मुश्किल है। प्रभावी देश बाढ़ और त्सुनामी में त्वरित कार्रवाई करता है, जबकि पानी की समस्या और बिजली के मीटर लगाना अधिक बड़ी चुनौती बने हुए।
समीक्षा में सुझाव दिया गया है कि राजकोषीय क्षमता बढ़ाने की ओर कदम के रूप में कर आधार बढ़ाने के लिए सरल तरीका छूट की सीमा बढ़ाना नहीं हो सकता। स्वतंत्रता के बाद के आंकड़ों के अध्ययन बाद इसमें कहा गया है कि आय वृद्धि से अधिक तेजी से छूट की सीमा बढ़ाई गई है, जिसके परिणामस्वरूप औसत आय और अधिकतम सीमा के बीच अंतर बढ़ा है। इसमें बताया गया है कि किसी प्रकार के प्रत्यक्ष कराधान के जरिए अधिक से अधिक लोगों को कर के दायरे में लाने से भारतीय लोकतंत्र के सपने को साकार करने में मदद मिलेगी।
इसमें समीक्षा करने के बाद चरणबद्ध तरीके से कर छूट राज समाप्त करने के लिए भी कहा गया है, जिसका लाभ धनी निजी क्षेत्र को मिलेगा। समीक्षा में कार्पोरेट कर 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने का वादा दोहराया है, जबकि चरणबद्ध तरीके से कर छूट समाप्त करने का प्रस्ताव किया गया है। इसमें संपन्न व्यक्तियों की आय के स्रोत पर ध्यान दिए बिना उनके वास्ते तर्कसंगत कराधान के लिए भी कहा गया है। समीक्षा में तुरंत ध्यान देने के क्षेत्र के रूप में परिसंपत्ति कराधान को चिन्हित किया गया है। सावधिक उन्नयन के साथ उच्च संपत्ति कर दर से सरकार की वित्तीय स्थिति में सुधार होगा, रियल एस्टेट में अटकलबाजी को हतोत्साहित किया जाएगा और स्मार्ट सिटीज़ के लिए रास्ते खोले जाएंगे।
राजकोषीय मजबूती का एक विकल्प समृद्ध वर्गों को लगभग एक लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी राशि को कम कर इससे गरीबों को बेहतर सब्सिडी का लक्ष्य निर्धारित करना है।
आर्थिक समीक्षा का मानना है कि 2015-16 के लिए 3.9 प्रतिशत का राजकोषीय घाटा लक्ष्य अर्जित किया जाना संभव है
राजकोषीय दृष्टिकोण से आगामी वर्ष के चुनौतीपूर्ण होने की आशंका
आर्थिक समीक्षा 2015-16 के अनुसार वर्ष 2015-16 के लिए 3.9 प्रतिशत का राजकोषीय घाटा लक्ष्य अर्जित किया जाना संभव है। यह आकलन अनुमानित जीडीपी वृद्धि दर से निम्न वृद्धि दर हासिल किये जाने से पेश होने वाली चुनौतियों के बावजूद चालू वित्त वर्ष के पहले 9 महीनों के राजस्व एवं व्यय की पद्धति पर आधारित है। अप्रत्यक्ष कर संग्रह में उछाल से राजस्व प्राप्ति में हुई उल्लेखनीय वृद्धि, आयोजना पक्ष पर पूंजीगत व्यय के उच्चतर स्तर, सब्सिडियों के निम्न स्तर एवं 14वें वित्त आयोग की अनुशंसाओँ की सिफारिशों को स्वीकार करने के बाद राज्यों को हस्तांतरित अधिक संसाधन अभी तक 2015-16 में राजकोषीय प्रदर्शन की कुछ मुख्य विशेषताएं हैं।
पहले नौ महीनों के दौरान अप्रत्यक्ष करों के प्रदर्शन से संकेत प्राप्त होता है कि बजट आकलन अर्जित किया जा सकता है और संभवतः उसमें वृद्धि भी हो सकती है। आंशिक रूप से इसकी वजह सरकार द्वारा पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क बढ़ाए जाने के द्वारा राजस्व में वृद्धि करने से संबंधित कदमों का उठाया जाना है। इसके अतिरिक्त, 2015-16 में अप्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्ष करों से संबंधित कई अहम कदम उठाए गए।
सब्सिडियों के मुद्दें पर आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि बेहतर लक्ष्य निर्धारण के जरिए सब्सिडियों के विवेकीकरण और पुर्नप्राथमिकताकरण की राजकोषीय संघटन एवं समावेशी विकास की दिशा में व्यय को लक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। 2015-16 के बजट आकलनों के अनुसार, जीडीपी के समानुपात के रूप में कुल सब्सिडी बिल के जीडीपी के 2 प्रतिशत से कम रहने की उम्मीद है। बड़ी सब्सिडियों में 1.7 प्रतिशत की गिरावट की वजह अप्रैल-दिसंबर 2015 के दौरान पेट्रोलियम सब्सिडी में लगभग 44.7 प्रतिशत की कमी थी, जबकि इस अवधि के दौरान खाद्य एवं उर्वरक पर अन्य बड़ी सब्सिडियों में क्रमशः 10.4 प्रतिशत एवं 13.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
लेखा महानियंत्रक के जारी आंकड़ों को उद्धृत करते हुए आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि बजट अनुमान के प्रतिशत के रूप में दिसंबर 2015 के आखिर में केन्द्र सरकार का राजकोषीय घाटा पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में कम है। अब तक चालू वित्त वर्ष में प्राप्त अनुकूल राजकोषीय परिणाम कर संग्रह में हुई बढ़ोतरी एवं तेल की कीमतों में हुई गिरावट की मदद के साथ विवेकपूर्ण व्यय प्रबंधन के कारण प्राप्त हुआ है। चालू वित्त वर्ष की अन्य उल्लेखनीय विशेषताएं राज्यों को अधिक कर हस्तांतरण, पिछले छह वर्ष में पूंजीगत व्यय में सर्वाधिक बढ़ोतरी एवं बड़ी सब्सिडियों में गिरावट रही है।
चालू वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में सकल कर राजस्व में मजबूत वृद्धि को अप्रत्यक्ष करों में 34.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी से मदद मिली, जबकि केन्द्रीय उत्पाद शुल्कों में लगभग 68 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। व्यक्तिगत आय एवं कंपनी आय दोनों के लिहाज से प्रत्यक्ष करों में इस अवधि के दौरान 10 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई। दिसंबर 2015 के आखिर तक विनिवेश प्राप्तियां पिछले वर्ष की तुलना में अधिक थी, जो बजट अनुमान का केवल 18.5 प्रतिशत थी। पूंजीगत व्यय में 33.5 प्रतिशत की अधिकांश वृद्धि आयोजना पक्ष पर थी। अप्रैल-दिसंबर 2015 में राजस्व व्यय में केवल 9 प्रतिशत की मामूली वृद्धि हुई है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि मजबूत जीडीपी वृद्धि दर ने अर्थव्यवस्था की आकार को देखते हुए केन्द्र सरकार की ऋण वृद्धि को सतत स्तरों पर रखा है। सरकार (केन्द्र और राज्य) के राजकोषीय प्रदर्शन के मुद्दें पर आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि यह प्रदर्शन राजकोषीय मजबूती व राजकोषीय अनुशासन का रहा है।
आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि वित्तीय दृष्टिकोण से आगामी वर्ष के चुनौतीपूर्ण रहने के आसार है। वैश्विक मंदी के जारी रहने की आशंका के कारण 2016-17 में भारत की विकास दर के 2015-16 के स्तर से बहुत अधिक रहने की अधिक संभावना नहीं है। इसके अतिरिक्त वेतन आयोग की अनुशंसाओं और वन रैंक वन पेंशन (ओआरओपी) योजना के क्रियान्वयन से व्यय पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। बेहतर कर प्रशासन, नए संसाधनों का दोहन आदि के जरिए कर अनुपालन को बेहतर बनाने से अधिक राजस्व प्राप्त करने एवं संशोधित राजकोषीय योजना में अनुमानित स्तरों पर राजकोषीय घाटे को रखने में मदद मिल सकती है। व्यय की गुणवत्ता में बेहतरी को सतत राजकोषीय मजबूती अर्जित करने का एक महत्वपूर्ण कारक माना गया है।
किसानों के लिए स्थाई आजीविका और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कृषि क्षेत्र में व्यापक बदलाव की जरूरत हैआर्थिक समीक्षा के अनुसार कृषि में उत्पादकता बढ़ाने पर बल
उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी डीबीटी (प्रत्यक्ष लाभ अंतरण) के तहत करने की जरूरत है
पी और के उर्वरक सब्सिडी के मामले में सब्सिडी की राशि तय
मांग-जन्य कृषि सलाहकार सेवाओं को अपनाने की जरूरत है
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में निरंतर 2 सूखे वर्षों के कारण कृषि में ह्रासकारी वृद्धि और उत्पादन में प्रमुख फसलों के बुवाई क्षेत्र में गिरावट को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि किसानों के लिए स्थाई आजीविका और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कृषि क्षेत्र में व्यापक बदलाव की जरूरत है। कृषि में कायाकल्प के लिए कृषि में उत्पादकता बढ़ाकर, सक्षम सिंचाई प्रौद्योगिकियों में निवेश और सभी इनपुटों के कुशल प्रयोग की जरूरत है। आर्थिक समीक्षा 2015-16 में भारत में कृषि में उत्पादकता बढ़ाने के लिए निम्नलिखित मार्गदर्शनों को अपनाने की जरूरत है:
सिंचाई
भारत में कृषि की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए कृषि योग्य जमीन पर सिंचाई की व्यवस्था को बढ़ाने और पानी के दक्ष उपयोग और युक्ति संगत कीमत निर्धारण (प्राइसिंग) के उपयुक्त प्रौद्योगिकियों को अपनाए जाने की जरूरत है। सबसे पहले ऐसे परिदृश्य में जहां प्रवाहित सिंचाई के कारण पानी की अत्यधिक बर्बादी होती है, सिंचाई की उन प्रौद्योगिकियों को अपनाया जाना अत्यावश्यक है, जिनसे पानी के दक्ष उपयोग में सुधार लाया जा सके।
दूसरा, जलवायु परिर्वतन कारकों के कारण पानी की उपलब्धता में तेजी से होने वाली कमी और कृषि एवं अन्य उपयोगों में पानी की अंधाधुंध बर्बादी को देखते हुए दक्ष सिंचाई प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केन्द्रित करना बहुत जरूरी हो गया है। कारगर सिंचाई प्रौद्योगिकियों के माध्यम से ‘हर जलकण दे अपार अन्न‘ का लक्ष्य निर्धारित करके कृषि उत्पादकता में सुधार लाया जाना चाहिए, जिससे भविष्य के लिए ही खाद्य और जल सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकेगा।
भारत की कुल फसल में उत्पादन क्षेत्र में निवल सिंचित क्षेत्र
सिंचाई संबंधी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012-13 में पूरे भारत की कुल फसल उत्पादन क्षेत्र में निवल सिंचित क्षेत्र का प्रतिशतता विवरण 33.9 प्रतिशत था। कुल फसल उत्पादन क्षेत्र के निवल सिंचित क्षेत्र की दृष्टि से पंजाब, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश राज्यों में 50 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रीय असमानता देखने को मिलती है और शेष राज्यों में यह 50 प्रतिशत से कम होने की रिपोर्ट मिली है। कृषि में उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पूरे देश में सिंचित क्षेत्र की परिधि को बढ़ाये जाने की जरूरत है और इसकी गुंजाइश भी है।
सिंचाई क्षमता के उपयोग में गिरावट के इस रूझान को रोकना और अगले दो-तीन वर्षों में इसका रूख पलटना बहुत जरूरी है। मनरेगा, रोजगार उत्पन्न करने वाली अन्य योजनाओं के अंतर्गत निधियों का उपयोग सामुदायिक परिसम्पत्तियों के सृजन और अनुरक्षण के लिए किया जाना चाहिए, जिसमें सिंचाई के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले जलाशयों तथा अन्य जल स्रोतों से गाद हटाना और उनकी मरम्मत करना भी शामिल है।
सिंचाई में दक्षता
कृषि प्रणालियों की दक्षता कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में निर्णायक भूमिका निभाएगी। कृषि संबंधी कार्यबल (नीति आयोग 2015) के अनुसार पानी की लगातार बढ़़ती कमी, अति सिंचाई के कारण पानी की बर्बादी और मिट्टी की लवणता की समस्या को चलते भारत के कई भागों में सिंचाई की पुरानी प्रणालियां अव्यवहार्य हो गई है। ऐसी दक्षतापूर्ण सिंचाई प्रौद्योगिकियों के उपयोग से जो ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई की तरह आर्थिक एवं तकनीकी दोनों दृष्टियों से दक्ष हों, पानी की दक्षतापूर्ण उपयोग में सुधार किया जा सकता है, श्रम लागतों और बिजली की खपत को कम करके उत्पादन की लागत घटाई जा सकती है।
जल उत्पादकता
अखिल भारतीय स्तर पर पानी की उत्पादकता बहुत कम है, इसे टैपिंग, कटाई और रिसाइक्लिंग पानी के उपयोग, खेती में दक्षतापूर्ण जल प्रबंधन पद्धतियों को अपनाकर, लघु सिंचाई और अपशिष्ट जल एवं संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियों के उपयोग के जरिये बढ़ाया जाना चाहिए। भारत में प्रमुख और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं की समग्र सिंचाई दक्षता 38 फीसदी के आसपास रहने का अनुमान है। सतह सिंचाई प्रणाली की दक्षता को 35-40 प्रतिशत से बढ़ाकर लगभग 60 प्रतिशत तक तथा भूमिगत जल की दक्षता को 65-70 प्रतिशत से बढ़ाकर लगभग 75 प्रतिशत तक सुधारा जा सकता है।
मशीनीकरण
खेती के प्रत्येक कार्य के लिए बेहतर उपकरणों की उपलब्धता की दृष्टि से भारत में कृषि मशीनीकरण के स्तर पर और अधिक कार्य किये जाने की जरूरत है, क्योंकि इसके जरिये ही कृषि में कठोर परिश्रम से बचा जा सकेगा, समय और श्रम की बचत से दक्षता बढ़ायी जा सकेगी, उत्पादकता में सुधार होगा, अव्यय को कम किया जा सकेगा तथा प्रत्येक कृषि कार्य में श्रम की लागत को कम किया जा सकेगा। गांवों से शहरों की ओर पलायन, कृषि कार्यों की बजाय अन्य सेवाओं की ओर आकर्षण और कृषि इतर कार्यों में श्रम की बढ़ती मांग जैसे कारणों से कृषि कार्यों के लिए श्रम की उपलब्धता में कम आने से यह जरूरी हो गया है कि कृषि कार्यों के लिए उपलब्ध श्रम का उपयोग बहुत ही विवेकपूर्ण तरीके से किया जाए तथा इस स्थिति में कृषि के मशीनीकरण के मुद्दे और भी प्रासंगिक बना दिया है। भारत में अधिकांश कृषि कार्यो के लिए मशीनीकरण का स्तर 50 फीसदी से कम है। जोतों के बंटवारे में वृद्धि होने और छोटे किसानों द्वारा ट्रेक्टरों के उपयोग की निम्न दर के कारण निजी भागीदारी वाले ऐसे बाजार की आवश्यकता महसूस होती है, जहां ट्रेक्टर किराये पर उपलब्ध हो सके। ठीक वैसे ही जैसे कि कारें और सड़क निर्माण संबंधी उपस्कर आदि उपलब्ध कराये जाते है। उत्पादकता को बढ़ाने के लिए मझौले और सीमांत किसानों को घरेलू/अनुकूलित प्रौद्योगिकियों का उपयोग करके तैयार किये गये ऐसे उपयुक्त कृषि उपकरण उपलब्ध कराये जाने चाहिए, जो टिकाऊ, हल्के, सस्ते हो तथा फसल और कार्य विशेष को ध्यान में रखकर तैयार किये गये हो।
बीज, कृषि में उत्पादकता को बढ़ाने की दृष्टि से बुनियादी इन्पुट है। अनुमान है कि 20 से 25 प्रतिशत उत्पादकता बीज की गुणवत्ता पर निर्भर करती है (डीएसी एंड एफडब्ल्यू 2015)। बीज क्षेत्र से संबंधित जिन मुद्दों पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए वे हैं:
- बीज खरीदने की क्षमता- मुक्त परागण किस्मों वाले बीजों को किसान अपनी ही फसलों से तैयार कर सकते है। हालांकि अधिक उपज देने वाली संकर किस्मों के लिए किसानों को प्रत्येक फसल के लिए बाजार पर निर्भर रहना होगा।
- उपलब्धता- गुणवत्तापूर्ण बीजों की आपूर्ति में कमी चिंता का एक और विषय है। हालांकि गैर प्रमाणित बीजों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाती रही है, परन्तु वास्तव में प्रमाणन भी बीजों की गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं है। इस संबंध में अधिक अच्छा यह होगा कि बाजार में बीजों के लिए अधिकाधिक प्रतियोगियों (निजी और सरकारी) और प्रतिस्पर्धा को सुगम बनाया जाए, जिसके जरिये कम प्रतिस्पर्धी कीमतों पर गुणवत्तापूर्ण बीजों की उपलब्धता में सुधार का मार्ग खुल सकेगा।
- बीजों के विकास के लिए अनुसंधान और प्रौद्योगिकी- पर्याप्त अनुसंधान और आनुवांशिक इंजीनियरी के अभाव के कारण पिछले कुछ दशकों में भारत में प्रमुख फसलों के बीजों/बीज प्रौद्योगिकियों के विकास में बाधा उत्पन्न हो रही है। हरित क्रांति के दूसरे चरण को प्रारंभ करने के लिए निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में बीजों/बीज प्रौद्योगिकियों के विकास को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। इस विकास में कृषि के सभी पहलुओं/फसलों अर्थात् अनाज, मोटे अनाज, फल सब्जियों, दालों, तिलहन, पशुपालन तथा मछली पालन को एक साथ शामिल किया जाना चाहिए।
- जीएम फसलें और बीज- संकर और जीएम (आनुवांशिक रूप से परिष्कृत) बीजों के महंगा होने के कारण, जीएम फसलों की खेती से जुड़े पर्यावरणीय और नैतिक मुद्दों के कारण, खाद्य श्रृंखला को संभावित जोखिम, बीमारी फैलने की संभावना, पार-परागण आदि जैसे कारणों के चलते इनका उपयोग प्रारंभ नहीं हो पा रहा है। इन मुद्दों पर बहस, परीक्षण और मूल्यांकन किये जाने की जरूरत है, ताकि अगले छह माह में संकर बीजों का उपयोग शुरू किया जा सके। बीजों की संकर और अधिक उपज देने वाली किस्मों का उपयोग करना ही वह सुनिश्चित मार्ग है, जिससे भारतीय कृषि में उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।
उर्वरक
कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए उर्वरक एक महत्वपूर्ण और महंगा साधन है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा देने और उसे सुसाध्य बनाने के लिए सरकार किसानों को उर्वरक सब्सिडी देती आ रही है। 2013-14 में उर्वरक सब्सिडी कुल कृषिगत सकल घरेलू उत्पाद की लगभग 10 प्रतिशत रही है।
उर्वरक सब्सिडी को निविष्टि, फसल और क्षेत्र निरपेक्ष रूप में युक्ति संगत किये जाने और हेराफेरी को कम किये जाने की जरूरत है। उर्वरकों पर सब्सिडी संवितरण डीबीटी (प्रत्यक्ष लाभ अंतरण) के जरिए किए जाने की जरूरत है, जिससे लाभ बढ़ जायेंगे, यदि साथ ही साथ उर्वरक उद्योग/उत्पादन पर सभी नियंत्रण (आयात सहित) हटा दिये जाए। एनबीएस (पोषण आधारित सब्सिडी के साथ पी और के उर्वरक सब्सिडी के मामले में प्रत्येक ग्रेड पर उनके तत्व के आधार पर निश्चित राशि की सब्सिडी दी जाएगी।
उर्वरकों को फसल सापेक्ष, संतुलित प्रयोग
मृदा की स्थिति और उसकी उर्वरता के स्तर के आधार पर उर्वरकों का इष्टतम उपयोग सुसाध्य बनाना महत्वपूर्ण है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड को मृदा की स्थिति की जानकारी देने तथा उर्वरक का प्रयोग किये जाने के आधार पर उर्वरक से जोड़ने से, भले ही उर्वरक सब्सिडी युक्त न हो, फसल की उपज में बढ़ोतरी हो सकती है।
सूक्ष्म पोषक तत्व और जैविक उर्वरक
देश के अधिकतर भागों में भारतीय मृदा में बोरोन, जिंक, तांबा, लोहा आदि जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी दिखाई देती है। जिससे फसल की उपज और उत्पादकता सीमित हो जाती है। आईसीएआर द्वारा किये गये शस्य विज्ञान संबंधी परीक्षणों के अनुसार, सूक्ष्म पोषण तत्वों की अनुपूर्ति करने वाले उर्वरक 0.3 से 0.6 टन प्रति हेक्टेयर तक अनाज में अतिरिक्त उपज बढ़ा सकते है। यदि जैविक उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ाया जाए, तो सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी पर काबू पाया जा सकता है। इसके अलावा, जैविक कम्पोस्ट और खाद्य अपनाना और इस्तेमाल करना छोटे किसानों के लिए सस्ता होगा। इससे मृदा की उर्वरकता को बनाये रखना और उसमें सुधार लाना संभव होगा। चूंकि भारतीय मृदा का 67 प्रतिशत हिस्सा कम जैविक कार्बन से युक्त है, इसलिए जैविक उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ाने की अच्छी खासी गुंजाइश है।
पोषक तत्व प्रबंधन
मृदा का स्वास्थ्य और उत्पादकता बनाये रखने के लिए रसायनिक उर्वरको, जैव उर्वरकों तथा स्थानीय रूप से उपलब्ध जैविक खाद्य जैसे कि खेतों की खाद कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट और मृदा परीक्षण पर आधारित हरी खाद का उचित उपयोग किया जाना जरूरी है।
उर्वरक खपत में क्षेत्रीय असमानता
उवर्रकों की खपत में भारी क्षेत्रीय विषमता व्याप्त है। उर्वरकों का खपत में व्याप्त इन विषमता के कारण अधिक खपत करने वाले राज्यों में ऐसी सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता को कहा जा सकता है, जो उर्वरकों के बेहतर अवशोषण की पूर्वापेक्षा है। उपयुक्त मृदा परीक्षण सुविधाओं और नीतिगत उपायों के जरिये इन विषमताओं को कम किये जाने की जरूरत है।
कीटनाशक
खर-पतवारों, बीमारियों और कीटनाशकों के चलते भारत में किसान की फसल उपज कमियां 15 से 25 प्रतिशत है। तथापि भारत में उचित दिशा-निर्देशों का अनुपालन किये बगैर कीटनाशकों का उपयोग मानक स्तरों से कम कीटनाशकों का उपयोग और कीटनाशक उपयोग के बारे में जागरूकता की कमी प्रमुख कारक है। ये कारक भारत में खाद्य उत्पादकों में पाये जा रहे कीटनाशक अवशेष को बढ़ाते है, जो कि पर्यावरण और मानव दोनों के लिए डर पैदा करता है।
कृषि विस्तार सेवाएंकृषि विस्तार सेवाएं एक और महत्वपूर्ण साधन है, जो किसानों को सर्वोत्तम परिपाटियां, प्रौद्योगिकियां अपनाने के लिए आपातिक स्थितियों से निपटने के लिए समय पर परामर्शी सेवाएं देकर और बाजार सूचना आदि देकर कृषि उत्पादकता में सुधार कर सकती है।
एफटीए से आयात एवं निर्यात में बढ़ोतरी हुई
2000 के दशक के मध्य के बाद से भारत का मुक्त व्यापार करार (एफटीए) आज दोगुना होकर लगभग 42 तक पहुंच गया है। इन्होंने एफटीए देशों के साथ व्यापार को पहले की तुलना में काफी अधिक बढ़ाया है। बढ़े हुए व्यापार में आयात की मात्रा निर्यात की अपेक्षा अधिक रही है क्योंकि भारत में शुल्क दरें अपेक्षाकृत ज्यादा है और इसलिए अपने एफटीए साझेदारों की तुलना में भारत के शुल्क दरों में भारी गिरावट आई है।
आसियान के साथ एफटीए के मामले में, भारत को निर्यात में 33 प्रतिशत की उल्लेखनीय वृद्धि एवं आयात में 79 प्रतिशत वृद्धि के साथ व्यापार प्रवाह के दोनों ओर से लाभ हासिल हुआ।
अन्य देशों के साथ एफटीए की तुलना में आसियान के साथ एफटीए से व्यापार में काफी अधिक वृद्धि हुई है और आयात पक्ष में धातु जैसे कुछ उद्योगों में व्यापार अधिक हुआ है। निर्यात के लिहाज से एफटीए से वस्त्रों में, विशेष रूप से आसियान बाजारों में गतिशीलता में बढ़ोतरी हुई।
किसी एफटीए का व्यापार पर समग्र प्रभाव सकारात्मक एवं संख्या की दृष्टि से उल्लेखनीय है। एफटीए के वर्ष और आसियान, जापान एवं कोरिया के साथ व्यापार के वर्ष 2013 के बीच संचयी प्रभाव लगभग 50 प्रतिशत के बराबर है। भारत का एफटीए देशों के साथ बढ़ा हुआ व्यापार अधिक दक्ष गैर-एफटीए देशों से आयातों के डायवर्जन के कारण नहीं है।
आयात के संदर्भ में, धातु एवं मशीनरी पर एफटीए शुल्क दरों में 10 प्रतिशत गिरावट से एफटीए के अन्य उत्पादों या गैर-एफटीए देशों के सभी उत्पादों की तुलना में आयात में क्रमशः 1.4 प्रतिशत एवं 2.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
धीमी होती मांग एवं अतिरिक्त क्षमता के साथ कारोबार नियमों के उल्लंघन के खतरों के वर्तमान संदर्भ में एफटीए प्रगति, यदि अनुपालन किया जाए, को भारत की योग्यता अनुसार सुदृढृ बनाकर डब्ल्यूटीओ – सतत उपाय जैसे प्रतिपाटन एवं परंपरागत शुल्क एवं सुरक्षा उपया, के प्रति जवाबदेह बनाकर जोड़ना चाहिए। वृहत क्षेत्रीय विश्व के प्रति भारत को तैयार करने के लिए, विश्लेषणात्मक एवं अन्य प्रारंभिक कार्य अग्रिम रूप में आरंभ किए जाने चाहिए।
कृषि में बागवानी उत्पादन की प्रतिशत भागीदारी 33% से अधिक
पिछले दस वर्षो से अधिक समय से कृषि के अधीन रकबे में लगभग 2.7% और वार्षिक उत्पादन में 7% बढोत्तरी
2012-13 से बागवानी फसलों के उत्पादन ने खाद्यानों के उत्पादन को पीछे छोड़ा
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में ये बताया गया है कि भारत में बागवानी फसलों का परिदृश्य बहुत उत्साहजनक हो गया है। कृषि में बागवानी उत्पादन का प्रतिशत हिस्सा 33% से अधिक है। कृषि और अन्य संबद्ध गतिविधियों के दायरे में बागवानी के लिए योजना परिव्यय जो नौंवी योजना के दौरान 3.9 प्रतिशत था बारहवीं योजना के दौरान बढ़कर 4.6 प्रतिशत हो गया।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान देश में बागवानी उत्पादन में भारी वृद्धि देखी गई है। बागवानी फसलों के रकबे में महत्वपूर्ण वृद्धि होने से अधिक उत्पादन हो रहा है। पिछले दस वर्षो से अधिक समय से कृषि के अधीन रकबे में लगभग 2.7% और वार्षिक उत्पादन में 7% बढोत्तरी दर्ज हुई है। 2013-14 के दौरान बागवानी फसलों का 24.2 मिलियन हेक्टेयर रकबे से लगभग 283.5 मिलियन टन उत्पादन हुआ। वर्ष 2013-14 के दौरान 6 श्रेणियों- फल, सब्जियां, फूल, सुगंधित पेड़-पौधे, मसाले और पादप फसलों में सबसे अधिक 9.5 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि फल उत्पादन में देखी गई है। सब्जियों का उत्पादन 1991-92 से 2014-15 (तीसरे वार्षिक अनुमान) तक 58,532 हजार टन से बढ़कर 1,67,058 हजार टन हो गया।
पिछले 5 वर्षों (2010-11 से 2014-15) की तुलना में बागवानी फसलों का क्षेत्रफल तेजी से बढ़ा है। बागवानी फसलों के अधीन जहां रकबे में लगभग 18 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है उसकी तुलना में खाद्यानों के रकबे में बढ़ोत्तरी केवल 5 प्रतिशत हुई है। 2012-13 से बागवानी फसलों के उत्पादन ने खाद्यानों के उत्पादन को पीछे छोड़ दिया है।
भारत ने 6.26 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की जबकि विश्व में दुग्ध उत्पादन 3.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा
भारत में दूध की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1990-91 के 176 ग्राम से बढ़ाकर 2014-15 में 322 ग्राम प्रतिदिन हुई
अंडा एवं मछली उत्पादन में भी पिछले कुछ वर्षों के दौरान वृद्धि देखी गई
2015-16 की अंतिम तिमाही में मछली उत्पादन में वृद्धि का दौर देखने को मिला और अनुमान के मुताबिक यह 4.79 मिलियन टन हो गया है
भारतीय कृषि प्रणाली मुख्य रूप से मिश्रित फसल-पशुधन प्रणाली है। इसमें पशुधन भाग रोजगार उपलब्ध कराकर, पशु एवं खाद तैयार कर कृषि आय को बढ़ा रहा है। विश्व के कुल दुग्ध उत्पादन में 18.5 प्रतिशत के साथ भारत दुग्ध उत्पादन में पहले पायदान पर है। वर्ष 2013-14 के दौरान 137.69 मिलियन टन के मुकाबले 2014-15 के दौरान दूध का वार्षिक उत्पादन 146.3 मिलियन टन रहा। इसमें कुल 6.26 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, विश्व में दुग्ध उत्पादन में कुल 3.1 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2013 में 765 मिलियन टन के मुकाबले वर्ष 2014 में यह 789 मिलियन टन पहुंच गया।
भारत में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 1990-91 में 176 ग्राम प्रतिदिन के मुकाबले वर्ष 2014-15 के दौरान 322 ग्राम प्रतिदिन पहुंच गई है। यह वर्ष 2013 के दौरान विश्व के औसत 294 ग्राम प्रतिदिन की तुलना में अधिक है। यह बढ़ती आबादी के लिए दूध और दुग्ध उत्पादों की उपलब्धता में हुई निरंतर वृद्धि को दर्शाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि में लगे परिवारों के लाखों लोगों के लिए डेयरी आय का एक महत्वपूर्ण सहायक स्रोत बन गया है। डेयरी उद्योग की सफलता दूध के संग्रह की एकीकृत सहकारी प्रणाली, परिवहन, प्रसंस्करण और वितरण, दूध को उत्पादों एवं पाउडर में परिवर्तित करने, आपूर्तिकर्ताओं और ग्राहकों पर मौसमी प्रभाव को न्यूनतम करने, दूध और दुग्ध उत्पादों के खुदरा वितरण, मुनाफे का किसानों के साथ बंटवारा करने का परिणाम है। यह उत्पादकता बढ़ाने के काम में जुटाता है और अन्य कृषि उत्पादों/उत्पादकों द्वारा इसका अनुसरण किए जाने की आवश्यकता है।
पोल्ट्री क्षेत्र में, सरकार का ध्यान वाणिज्यिक पोल्ट्री उत्पादन बढ़ाने के लिए उपयुक्त नीतियां तैयार करने के अलावा, पारिवारिक पोल्ट्री प्रणाली को मजबूत बनाने पर है। यह आजीविका के मुद्दे पर ध्यान देता है। हाल के वर्षों में अंडा एवं मछली, दोनों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। 2014-15 में अंडा उत्पादन 78.48 बिलियन अंडों के आसपास रहा, जबकि कुक्कुट मांस अनुमानतः 3.04 मिलियन टन रहा। मछली पालन देश के सकल घरेलू उत्पाद का 1 प्रतिशत है, जबकि कृषि जीडीपी का 5.08 प्रतिशत है। 2014-15 के दौरान कुल मछली उत्पादन 10.16 मिलियन टन था। वर्ष 2015-16 की अंतिम तिमाही के दौरान भी उत्पादन में बढ़ोत्तरी का दौर देखने को मिला। यह अनुमानतः 4.79 मिलियन टन (अनंतिम) है। कृषि क्षेत्र में कृषि और गैर-कृषि गतिविधियों के विविधीकरण के संदर्भ में मुर्गी पालन और पशुधन उत्पादों का आजीविका सुरक्षा बढ़ाने के लिए काफी महत्व है।
अप्रैल-जनवरी, 2015-16 में व्यापार घाटा घटकर 106.8 बिलियन अमरीकी डॉलर हुआ जो 2014-15 की इसी अवधि के दौरान 119.6 बिलियन अमरीकी डॉलर रहा था
चालू लेखा घाटा (सीएडी) सीमा अप्रैल-सितंबर, 2015-16 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद का 1.4 प्रतिशत
विदेशी मुद्रा भंडार 5 फरवरी, 2016 के अनुसार 351.5 बिलियन अमरीकी डॉलर है
आर्थिक समीक्षा 2016 देश के लिए मजबूत मैक्रो-आर्थिक दृष्टिकोण की पुष्टि करती है। समीक्षा यह दर्शाती है कि कम वैश्विक उपभोक्ता मूल्यों में कमी और आवधिक अशांति वाली कुछ बड़ी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में कुछ बढ़ोत्तरी होने से 2015-16 में वाह्य क्षेत्र वातावरण पर प्रभाव पड़ा है। समीक्षा के अनुसार चालू वित्त वर्ष (अप्रैल-जनवरी) के दौरान भारत की निर्यात में बढ़ोत्तरी दर वर्ष घटकर 17.6 प्रतिशत रह गई है और यह 217.7 बिलियन अमरीकी डॉलर पर आ गई है। पेट्रोलियम तेल लुब्रीकेंट्स (पीओएल) का आयात कम होने का मुख्य कारण इस वर्ष अभी तक कुल आयात में कमी होना है। इसके परिणाम स्वरूप 2015-16 के दौरान (अप्रैल-जनवरी) व्यापार घाटा जो वर्ष 2014-15 की इसी अवधि के दौरान 119.6 बिलियन अमरीकी डॉलर रहा था घटकर 106.8 बिलियन अमरीकी डॉलर रहा है।
आर्थिक समीक्षा में यह बताया गया है कि अगले वित्त वर्ष में निर्यात बढ़ने से पहले निर्यात में मंदी अभी कुछ समय जारी रह सकती है। वैश्विक रूप से उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य में कमी जारी रहना से व्यापार और चालू लेखा घाटे के लिए ठीक है। जीडीपी के एक हिस्से के रूप में चालू लेखा घाटा एक से डेढ़ प्रतिशत के कम स्तर पर रहने की संभावना है। अदृश्य अधिशेष में साधारण बढ़ोत्तरी के साथ-साथ कम व्यापार घाटे के कारण सीएडी 2014-15 में 26.8 बिलियन अमरीकी डॉलर (जीडीपी का 1.3 प्रतिशत) और 2015-16 में 14.4 बिलियन अमरीकी डॉलर (जीडीपी का 1.4 प्रतिशत) रहा है।
2015-16 की पहली छमाही के दौरान भारत की भुगतान संतुलन स्थिति आरामदायक रही है। सीएडी के कम स्तर के साथ-साथ पूंजी आवक में साधारण बढ़ोत्तरी से विदेश मुद्रा का भंडार 2015-16 की पहली छमाही में 10.6 बिलियन अमरीकी डॉलर बढ़ा है। 5 फरवरी, 2016 को भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 351.5 बिलियन अमरीकी डॉलर रहा, जिसमें विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियां 328.4 बिलियन अमरीकी डॉलर (कुल की 93.4 प्रतिशत) तथा सोना 17.7 बिलियन अमरीकी डॉलर के बराबर रहे हैं। निर्यात का आरक्षित कवर मार्च, 2015 के अंत में 8.9 माह से बढ़कर सितंबर, 2015 के अंत तक 9.8 माह रहा।
2015-16 के दौरान (अप्रैल-जनवरी) रुपये की औसत विनिमय दर घटकर 65.04 रुपये प्रति अमरीकी डॉलर रही, जो 2014-15 की इसी अवधि में 60.92 रुपये प्रति अमरीकी डॉलर रही। भारत का विदेशी ऋण सुरक्षित सीमा में रहा, जैसा कि जीडीपी के 23.7 अनुपात के बाह्य ऋण और 2014-15 में 7.5 प्रतिशत के ऋण सेवा अनुपात द्वारा दर्शाया गया है।
सरकार द्वारा उठाए गए कई कदमों से ढांचागत क्षेत्र में व्यापक बदलावों को मदद मिलेगी, इनका परिणाम उच्च आर्थिक विकास अर्जित करने व कायम रखने में सहायक
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में कहा गया है कि विनिर्माण क्षेत्र के प्रदर्शन से प्रोत्साहित भारत के औद्योगिक क्षेत्र ने 2015-16 के दौरान उच्चतर वृद्धि दर दर्ज की है। औद्योगिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण सृजित करने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कई नीतिगत कदमों ने एफडीआई आवक में बढ़ोतरी, ढांचागत क्षेत्र के बेहतर प्रदर्शन पर अपना प्रभाव प्रदर्शित करना आरंभ कर दिया है। मेक इन इंडिया, व्यवसाय करने में सरलता, स्टार्ट अप इंडिया, डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी आदि जैसी ऐतिहासिक पहलों से उद्योगों को और प्रोत्साहन मिलेगा तथा औद्योगिक क्षेत्र के देश में आर्थिक विकास का प्रमुख वाहक बनने की उम्मीद है। ये कदम ढांचागत क्षेत्र में व्यापक बदलाव लाने में मददगार होंगे, जो कि उच्च आर्थिक विकास अर्जित करने तथा उसे कायम करने के लिए अनिवार्य है। समीक्षा के अनुसार, वर्ष 2015-16 एक उतार-चढ़ाव भरे वैश्विक आर्थिक माहौल से गुजर रहा है और बड़े देशों में आर्थिक विकास में सुस्ती दिखाई दे रही है। समीक्षा में आगे कहा गया है कि इस पृष्टभूमि में यह बेहद महत्वपूर्ण है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 7 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर के साथ सबसे तेज गति से बढ़ने वाली व्यवस्था के रूप में उभरी है। इस उच्च वृद्धि दर को बनाए रखने में विनिर्माण क्षेत्र का बड़ा योगदान रहा है। राष्ट्रीय आय के संशोधित आकलनों पर जनवरी 2016 में जारी न्यूनतम आंकड़ों के अनुसार मुख्य रूप से खनन, विनिर्माण, बिजली एवं निर्माण क्षेत्रों से निर्मित औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि दर 2014-15 के दौरान 5.9 प्रतिशत रही है, जबकि 2013-14 के दौरान यह 5.0 प्रतिशत थी। राष्ट्रीय आय 2015-16 के अग्रिम आकलनों से प्रदर्शित होता है कि औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि दर के 7.3 प्रतिशत रहने के आसार है, जबकि विनिर्माण क्षेत्र के 9.5 प्रतिशत की दर से बढ़ने के आसार है।
औद्योगिक प्रदर्शन
आईआईपी के अनुसार, मुख्य रूप से खनन, विनिर्माण एवं बिजली क्षेत्रों से निर्मित औद्योगिक क्षेत्र में खनन एवं विनिर्माण क्षेत्र में उच्चतर वृद्धि के कारण अप्रैल-दिसंबर 2015-16 के दौरान 3.1 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त की, जबकि 2014-15 की इसी अवधि के दौरान यह 2.6 प्रतिशत थी। आर्थिक समीक्षा के अनुसार अप्रैल-दिसंबर 2015-16 के दौरान खनन, विनिर्माण एवं बिजली क्षेत्रों में क्रमशः 2.3 प्रतिशत, 3.1 प्रतिशत एवं 4.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई।
भारतीय अर्थव्यवस्था को पर्याप्त, ‘अच्छे’ सुरक्षित उत्पादक वेतन वाले रोजगार जुटाने की जरूरत है
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में बताया गया है कि भारत अपने जनसांख्यिकी लाभांश के माध्यम से जनसंख्या के कार्य आयु के हिस्से के रूप में आर्थिक प्रगति प्रदान कर रहा है। इस लाभांश का दोहन करने और श्रमिक वर्ग में प्रवेश करने की बढ़ती हुई इच्छा को पूरा करने के लिए भारत की अर्थवयवस्था में अच्छे रोजगार जुटाने की जरूरत है जो सुरक्षित हों, अच्छे वेतन वाले हों तथा वे कौशल और उत्पादकता में सुधार करने के लिए कंपनियों और कामगारों को प्रोत्साहित भी करें। उल्लेखनीय है कि 1989 और 2010 के दरमियान सृजित किए गए 10.5 मिलियन रोजगारों में केवल 3.7 मिलियन अर्थात 35 प्रतिशत औपचारिक क्षेत्रों में थे। इस अवधि में संस्थापनों की संख्या 4.2 मिलियन बढ़ी जबकि औपचारिक क्षेत्र में रोजगारों की संख्या में कमी हुई है। ऐसा संभवत: इन कंपनियों द्वारा ठेका श्रम का अधिक उपयोग करने के कारण हुआ। इस प्रकार देश में अच्छे रोजगार सृजन की चुनौतियां औपचारिक क्षेत्र के लिए एक चुनौती के रूप में देखी जा रही हैं। यह क्षेत्र कामगार की सुरक्षा की गारंटी भी देता है।
समीक्षा में यह सुझाव दिया गया है कि परिधान क्षेत्र में कम उत्पादकता वाली कंपनियों का अधिक उत्पादकता वाली कंपनियों में पूंजी हस्तांतरण करके इस बारे में महत्वपूर्ण सुधार किया जा सकता है। भारत में औपचारिक परिधान क्षेत्र की कंपनियों की अनौपचारिक क्षेत्र की कंपनियों के मुकाबले 15 गुणा अधिक उत्पादकता है। इस प्रकार भारत के परिधान क्षेत्र में अनौपचारिक कंपनियों का वर्चस्व है। जहां लगभग 2 लाख कंपनियों में लगभग 3,30,000 कामगार कार्यरत हैं।
हाल के अध्ययनों में यह अनुमान लगाया गया है कि अर्थव्यवस्था में अगर महिलाओं को भी पुरूषों के समान भागीदारी मिलें तो भारत के सकल घरेलू उत्पाद में प्रतिवर्ष 1.4 प्रतिशत की अतिरिक्त बढ़ोतरी होगी। अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए केंद्र को यह सुनिश्चित करना है कि श्रम विनियमन कामगार केंद्रित हो और श्रमिकों की इच्छा का विस्तार किया जाए और औपचारिक क्षेत्र के रोजगारों पर जरूरी आवयश्क कर घटाएं जाएं। समीक्षा में कर्मचारी भविष्य निजी संगठन के कार्य में सुधार करने का भी सुझाव दिया गया है। नीति निर्माताओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि क्या कम आय वाले कामगारों को भी ईपीएफ में अमीरों की तरह अपने वेतन का एक हिस्से का येागदान देने की छूट दी जाए। औपचारिक क्षेत्र में श्रमिकों को काम पर रखने की लागत कम करने और अधिक लोगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। क्योंकि इन क्षेत्रों में उत्पादकता का स्तर और बढ़ोतरी अधिक है। संक्षेप में भारत की सबसे अहम श्रम बाजार चुनौती यह है कि अच्छे रोजगार बड़ी तादाद में जुटाये जाएं।
उर्वरक क्षेत्र के पैकेज में सुधार
केंद्रीय वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली ने आज संसद में प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा 2015-16 में बताया गया है कि सरकार ने 2015-16 में उर्वरकों की सब्सिडियों पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.5 प्रतिशत यानि 73,000 करोड़ रूपये का बजट रखा है। इस राशि का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा यूरिया के लिए आवंटित था जो आमतौर पर सबसे उपयोग किया जाने वाला उर्वरक है। इस प्रकार खाद्य के बाद इसमें सबसे अधिक सब्सिडी दी गई है। विविध विनियमों के परिणामस्वरूप यूरिया में विकृतियां आई है। ये विकृतियां अनेक विनियमों का परिणाम हैं। ये विकृतियां आपस में एक दूसरे को पोषित करते हुए ऐसा माहौल पैदा करती हैं जिससे प्रतिकूल परिणामों की श्रृंखला को बढ़ावा मिलता है।
पहला, यूरिया को केवल किसी उपयोग के लिए सब्सिडीकृत बनाया गया है। इस तरह की सब्सिडियां एक उत्पाद, एक मूल्य सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं। इन विनियमों- केनेलाइजेशन से काला बाजारी को बढ़ावा मिलता हैं।
दूसरा, कालाबाजारी बड़े किसानों की तुलना में छोटे और सीमांत किसानों को प्रभावित करती हैं क्योंकि ऐसे लगभग सभी किसानों को कालाबाजार से यूरिया खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
तीसरा, कुछ यूरिया सब्सिडी छोटे किसानों तक पहुंचने की बजाय सतत अकुशल घरेलू उत्पादन में चली जाती है।
सुधार पैकेज में पहचान की गई हर समस्या का समाधान उपर्युक्त उर्वरक प्रयोग का तीन प्रकार का क्षरण और विषम मिश्रण का समाधान प्रस्तुत करेगा। जिसका उद्देश्य छोटे किसानों को लाभ पहुंचाना है।
पहला, यूरिया आयात को डिकनेलाइन करने से आयातकों की संख्या में बढ़ोतरी होगी और इससे आयात के निर्णय में ज्यादा स्वतंत्रता प्राप्त होगी और उर्वरक आपूर्ति में लचीलापन तथा मांग में तेजी से परिवर्तन आएगा। यह काम समय रहते होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण सरकार के लिए कृषि दशाओं के बारे में पूर्वानुमान लगाना और केंद्रीय रूप से आपूर्ति का प्रबंधन करना बहुत कठिन हो रहा है।
दूसरा, यूरिया को पोषण आधारित सब्सिडी कार्यक्रम में शामिल करने से, जो लाभ वर्तमान में डीएपी और एमओपी के बारे में लागू है वहीं बाजार को नियंत्रित करते समय घरेलू उत्पादक अपने उर्वरकों में मौजूद पोषाहार की मात्रा के आधार पर एक निर्धारित सब्सिडी के रूप में प्राप्त करते रहेंगे तथा उन्हें बाजार मूल्य भी मिलते रहेंगे। इससे उर्वरक विनिर्माता और अधिक दक्ष होने के लिए प्रभावित होंगे और वे ऐसी स्थिति में लागत कम करके अधिक लाभ कमाने की स्थिति में होंगे जिससे किसानों को लाभ होगा और यूरिया की गुणवत्ता में भी सुधार होगा।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में बताया गया है कि उर्वरकों में प्रत्यक्ष हस्तांतरण को काला बाजार में हेराफेरी को कम करने के लिए लागू किया गया है। नीम की परत चढ़ाने से काला बाजारियों के लिए यूरिया को औद्योगिक उपभोक्ताओं के लिए उपलब्ध कराना बहुत मुश्किल होगा। हेराफेरी में और कटौती करने तथा उर्वरकों की सब्सिडियों के बेहतर लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तकनीकी का और अधिक इस्तेमाल किया जा सकता है। एलपीजी के सफल अनुभवों के साथ बहुत अधिक समानता के कारण जैम (जनधन, आधार, मोबाइल) सूत्र को आगे बढ़ाने के लिए उर्वरक एक सबसे अच्छा क्षेत्र है। केंद्र उर्वरक की आपूर्ति पर नियंत्रण रखता है। ग्रामीण भारत में अंतिम व्यक्ति तक वित्तीय समावेशी का अपेक्षाकृत कम स्तर यह सुझाव देता है कि बैंकिंग प्रणाली में लाभार्थियों के कमजोर जुड़ाव के कारण उर्वरकों की सब्सिडी नकद देने में जोखिम रहेगा।
बोलियों की सीमित संख्या को सीमित रखते हुए सभी लोगों को सब्सिडी प्रदान करना
कितनी बोरियों पर सब्सिडी दी जाए यह तय करना एक बेहतर विकल्प होगा। प्रत्येक परिवार खरीददारी कर सकता है और बिक्री के संबंध (पीओएस) में उसे बॉयोमिट्रिक प्रमाणीकरण की आवश्यकता होगी। जिससे बड़े स्तर पर डाइवर्जन करना मुश्किल होगा। सब्सिडीकृत बोरियों की कुल संख्या तय करके प्रत्येक किसान खरीददारी कर सकता है, जिससे लक्षित सुधार होगा। छोटे किसान अपने लिए सब्सिडीकृत मूल्यों पर यूरिया की खरीदारी करने में समर्थ होंगे। लेकिन बड़े किसानों को अपने खरीदे गए कुछ यूरिया के लिए बाजार मूल्य चुकाने पड़ेंगे।
आर्थिक समीक्षा में 2015-16 में आगे यह बताया गया है कि उर्वरक सब्सिडी बहुत महंगी हैं। और यह सकल घरेलू उत्पाद की लगभग 0.8 प्रतिशत है। यह सब्सिडी यूरिया के अधिक उपयोग को बढ़ावा देती है जिससे मिट्टी को नुकसान पहुंचने के साथ-साथ ग्रामीण आय, कृषि उत्पादकता कम होती है और इनके कारण आर्थिक प्रगति भी प्रभावित होती है। उर्वरक क्षेत्र में सुधार से न केवल किसानों की मदद होगी बल्कि निपुणता में सुधार के साथ-साथ आयात कम होगा और उस समय पर उर्वरकों की उपलब्धता सुनिश्चित होगी।
चक्रव्यूह की चुनौतीः प्रवेश करना आसान, बाहर निकलने में अवरोध
भारतीय अर्थव्यवस्था में फर्मों, प्रतिभाओं और प्रौद्योगिकी के प्रवेश में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए काफी प्रगति हुई है,
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में 2015-16 की आर्थिक समीक्षा पेश करते हुए महाभारत की चक्रव्यूह की गाथा का जिक्र किया। जिसमें प्रवेश की योग्यता होना तो है लेकिन बाहर निकलने की योग्यता न होना है, जिसके गंभीर परिणाम होते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था ने फर्मों, प्रतिभाओं और प्रौद्योगिकी के प्रवेश में आने वाली बाधाओं को दूर करने में काफी प्रगति की है, लेकिन इससे बाहर निकलने के संबंध में काफी कम प्रगति हुई है। इस तरह, पिछले छह दशकों के दौरान, भारतीय अर्थव्यवस्था ‘सीमित प्रवेश वाले समाजवाद से हटकर बिना प्रस्थान वाले बाजारवाद’ की ओर बढ़ गई है।
बाहर निकलने की कमी कम से कम तीन प्रकार की लागत उत्पन्न करती है, राजकोषीय, आर्थिक और राजनैतिक:
राजकोषीष प्रभाव: अक्षम फर्मों को हमेशा सरकारी सहायता की आवश्यकता होती है। यह सहायता विशेष रूप से सब्सिडियों (उदाहरण के लिए बेलआउट) या अप्रत्यक्ष रूप (सरकारी बैंकों से प्रशुल्क, कर्ज) में होती है।
आर्थिक प्रभाव निरर्थक इस्तेमाल के लिए उत्पादन के कारकों एवं संसाधनों के गलत आवंटन से भी आर्थिक प्रभाव पड़ता है। इनमें कार्पोरेट और बैंक बैलेंस शीट पर दबाव वाली परिसंपत्तियों की अधिकता भी शामिल हैं।
राजनैतिक प्रभाव: बीमारू फर्मों को सरकारी सहायता से ऐसा संदेश जाता है कि सरकार बड़े कार्पोरेट की हितैषी है, जिससे अर्थव्यवस्था के लाभार्थ उपाय करने की क्षमता में कमी आती है, लेकिन उसे व्यवस्था के लाभार्थ देखा जाता है।
आर्थिक समीक्षा के विश्लेषण के अनुसार, तीन ‘आई’ के कारण प्रस्थान (एक्जिट) की समस्या उत्पन्न होती है:
हित: निहित स्वार्थों के चलते व्यापक उपभोक्ता हितों के बजाय निर्माता के हितों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। नतीजतन इन योजनाओं को चरणबद्ध तरीके से हटाना मुश्किल हो जाता है और उन्हें सहायता देना जरूरी हो जाता है। उदाहरण के लिए केंद्रीय क्षेत्रों की 50 प्रतिशत योजनाएं जिनके लिए 2015-16 के केंद्रीय बजट में धन की व्यवस्था की गई, 25 साल पुरानी थीं। ताकि यह सुनिशिचत किया जा सके कि ये स्कीमें समय बीतने के साथ प्रासंगिक और उपयोगी बनी रहें।
संस्थाए: कमजोर संस्थाएं निकलने के समय और वित्तीय लागत बढ़ाती हैं। उदाहरण के लिए, अनर्जक आस्तियों (नॉन परफार्मिंग एसेट्स) के बढ़ने से ऋण वसूली अधिकरण (डीआरटी) की शरण में जाने की घटनाएं बढ़ी हैं। यहां निपटाए गए मामलों की संख्या कम है, उनका हिस्सा कम रहा है और निपटाए न जा सके मामलों का संचित बैकलॉग कई गुना बढ़ गया है। कमजोर संस्थाओं को दंडित करने में अक्षम होना भी सभी संस्थाओं की वैधता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।
विचार: राज्य प्रेरित विकास और समाजवाद की संस्थापक विचारधारा ने हकदारी को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने को कठिन बनाया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था अब भी वैश्विक सुस्ती का सामना करने में सक्षम, भारत के लिए बहुपक्षीय संस्थानों का नजरिया सकारात्मक बहुपक्षीय संस्थानों ने अपने नवीनतम आकलनों में यह बात रेखांकित की है कि भारत की विकास दर अल्पावधि में 8-9 फीसदी की उसकी विकास संभावनाओं से कम रह सकती है। हालांकि, इस बात की प्रबल संभावना है कि अर्थव्यवस्था आगे भी लचीलापन दर्शाते हुए वैश्विक सुस्ती का सामना करती रहेगी। इसके साथ ही यह भी संभावना जताई गई है कि भारत आने वाले वर्ष में वृहत आर्थिक स्थिरता के मोर्चे पर अपनी बढ़त को और ज्यादा मजबूत करेगा। वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली द्वारा आज संसद में प्रस्तुत की गई आर्थिक समीक्षा 2015-16 में यह दृष्टिकोण व्यक्त किया गया है। आर्थिक समीक्षा में इस बात पर रोशनी डाली गई है कि प्रमुख क्षेत्रों में सुधार पर ध्यान केंद्रित किए जाने और स्थिर व्यापक आर्थिक स्थितियों की बदौलत वर्ष 2016-17 में 7.0 से लेकर 7.75 प्रतिशत तक की विकास दर का अनुमान उचित प्रतीत होता है। फिर भी, विकास संबंधी नजरिया अनेक कारकों पर निर्भर रहेगा और उनमें से सबसे मजबूत कारक का वास्ता कमजोर वैश्विक मांग से है।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में इस बात पर जोर दिया गया है कि बाहरी जोखिम के संकेतकों में सुधार देखा गया है और रुपये ने ज्यादातर उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं की तुलना में अवमूल्यन के दबाव का कहीं बेहतर ढंग से सामना किया है। विकास को सुस्त वैश्विक मांग के कारण झटका लग सकता है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था काफी हद तक बाकी दुनिया के साथ एकीकृत है। निर्यात और आयात दोनों के घट जाने के बावजूद वर्ष 2015-16 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इनका संयुक्त हिस्सा 42 प्रतिशत रहा। हालांकि, एक उज्ज्वल पक्ष यह है कि भारत के व्यापारिक साझेदारों की संयोजित वृद्धि दर वर्ष 2016 में कुछ बेहतर रहने की आशा है।
कुल मांग की दृष्टि से, आर्थिक समीक्षा में यह बात रेखांकित की गई है कि समग्र निवेश में कमी के बावजूद घरेलू मोर्चे पर उपभोग का स्तर अब भी काफी ज्यादा है। हाल के वर्षों में निजी खपत विकास का प्रमुख वाहक रही है। हालांकि, अगले साल खपत के मोर्चे पर कुछ बदलाव देखने को मिल सकते हैं : पहला, तेल की कीमतों में कमी की बदौलत खपत में जो भारी बढ़ोतरी देखने को मिली है, उसके अगले साल कुछ घट जाने की संभावना है। दूसरा, सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल से खपत के स्तर में थोड़ी वृद्धि हो सकती है। तीसरा, कृषिक्षेत्र के प्रदर्शन में सुधार से ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली खपत बढ़ सकती है। हालांकि, यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि खपत की बदौलत तेज विकास का सिलसिला लगातार जारी रहेगा।
आर्थिक समीक्षा 2015-16 में विशेष जोर देते हुए कहा गया है कि राजकोषीय सुदृढ़ीकरण पर सरकार का फोकस सामान्य सरकारी उपभोग व्यय में वृद्धि करने के विकल्प को सीमित कर देता है। 2014-15 में निजी कॉरपोरेट बचत और निवेश के नतीजे उत्साहजनक रहे, लेकिन कुछ क्षेत्रों में अधिशेष क्षमता के संकेतों का भी अंतिम नतीजे पर असर पड़ सकता है। हालांकि, उद्योग और उद्यमों को बढ़ावा देने के लिए सरकार की ओर से बहुआयामी उपाय किए जाने से निवेश आधारित विकास की वापसी होने की उम्मीद की जा सकती है।
आर्थिक समीक्षा में यह बात रेखांकित की गई है कि वृहत अर्थव्यवस्था के मजबूत बुनियादी तत्वों और कमोडिटी की कम कीमतों की बदौलत देश के बाह्य क्षेत्र के प्रदर्शन में लगातार बेहतरी देखी जा रही है। यह वैश्विक वित्तीय बाजारों में उतार-चढ़ाव और अनेक क्षेत्रों पर उसके व्यापक असर के मद्देनजर महत्वपूर्ण है। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि निर्यात के मोर्चे पर सुस्ती आगे भी देखने को मिल सकती है, लेकिन अगले वित्त वर्ष में निर्यात तेज गति पकड़ सकता है। जीडीपी के अनुपात के रूप में चालू खाता घाटा 1 प्रतिशत से लेकर 1.5 प्रतिशत तक की रेंज में रह सकता है।