ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रारंभिक विद्रोह The Early Rebellion Against British Rule
1757 के पश्चात् सौ वर्षों में विदेशी राज्य तथा उससे संलग्न कठिनाइयों के विरुद्ध अनेक आंदोलन, विद्रोह तथा सैनिक विप्लव हुए। अपनी स्वतंत्रता के खो जाने पर स्वशासन में विदेशी हस्तक्षेप प्रशासनिक परिवर्तनों का आना, अत्यधिक करों की मांग, अर्थव्यवस्था का भंग होना, इन सबसे भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न समय पर प्रतिक्रिया हुई उससे बहुत सी अव्यवस्था फैली।
प्रारंभिक विद्रोह के सामान्य कारण
राजनीतिक कारण
इन विद्रोह के लिए अनेक प्रकार के राजनीतिक कारण जिम्मेदार थे।
सहायक संधि प्रणाली
वैल्जली ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी राजनैतिक परिधि में लाने के लिए सहायक संधि प्रणान्री का प्रयोग किया। इस प्रणाली ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार में विशेष भूमिका निभाई और उन्हें भारत का एक विस्तृत क्षेत्र हाथ लगा। इस कारण भारतीय राज्य अपनी स्वतंत्रता खो बैठे।
गोद-प्रथा की समाप्ति
गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के शासन काल में भारत के कुछ प्रमुख देशी राज्यों, यथा–झांसी, उदयपुर, संभलपुर, नागपुर आदि के राजाओं के कोई पुत्र नहीं थे। प्राचीन भारतीय राजव्यवस्था के प्रावधानों के तहत योग्य उत्तराधिकारी के चयन के लिए ये राजा अपने मनोनुकूल किसी बच्चे को गोद ले सकते थे। परन्तु डलहौजी ने गोद लेने की इस प्रथा को अमान्य घोषित कर इन देशी राज्यों (रियासतों) को कम्पनी के शासनाधिकार में ले लिया। कम्पनी द्वारा शुरू की गई इस नयी नीति से सभी राजा असंतुष्ट थे और वे किसी ऐसे अवसर की तलाश में थे, जब पुनः अंग्रेजों को दबाकर अपनी रियासत पर अधिकार जमा सकें।
अवघ के साथ विश्वासघात
1856 ई. में कम्पनी द्वारा अवध राज्य का अधिग्रहण कर लिया गया था। इसके पूर्व अवध के नवाबों के साथ झूठी मित्रता कर अंग्रेजों ने उनसे पूरी सहायता ली थी। पर, जब उनका साम्राज्य विस्तृत हो गया, तब उन्होंने अवध को भी अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन कर लिया। इससे अवध की जनता में अंग्रेजों के प्रति अत्यधिक असंतोष था और इस असंतोष के कारण वहां के सैनिक उत्तेजित हो गए।
बहादुरशाह का अपमान
मुगल साम्राज्य के शासक बहादुरशाह का भी डलहौजी ने घोर अपमान किया। बहादुरशाह को लाल किला खाली करने का आदेश मिला, सिक्कों से उसका नाम हटाया गया और उसके पुत्र कोयाश को अंग्रेजों द्वारा राजकुमार घोषित कर दिया गया, जबकि बहादुरशाह का ज्येष्ठ पुत्र मिर्जा जवांबख्स वास्तविक उत्तराधिकारी था। अंग्रेजी शासन के इस कृत्य से राजपरिवार और जनसाधारण दोनों में रोष था। इसीलिए क्रांति की शुरूआत के समय बहादुरशाह ने यथाशीघ्र नेतृत्व प्रदान करना स्वीकार कर लिया।
दत्तक प्रथा की समाप्ति
लॉर्ड डलहौजी ने गोद प्रथा को समाप्त करने के साथ-साथ दत्तक पुत्रों से जागीर जब्त कर लेने का निश्चय किया और पेंशन भी रोकवा दी। नाना साहब स्वर्गीय पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे और इनका पेंशन रोककर अंग्रेजों ने दुश्मनी मोल ले ली।
अफगानिस्तान में अंग्रेजों की पराजय
वर्ष 1841-42 में अफगानिस्तान में अंग्रेजों को पराजय का सामना करना पड़ा। इससे इस धारणा से उबड़ने का मौका मिला कि अंग्रेज अपराजेय हैं। भारत के क्रांतिकारियों को इस युद्ध से नयी आशा और प्रेरणा मिली कि हम भी अंग्रेजों को देश से निकाल सकते हैं और इसके लिए उन्होंने विद्रोह शुरू कर दिया।
सामाजिक कारण
कंपनी के शासन विस्तार के साथ-साथ अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ-साथ अमानुषिक व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया था। काले और गोरे का भेद स्पष्ट रूप से उभरने लगा था। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को गुलाम समझा जाता था। समाज में अंग्रेजों के प्रति उपेक्षा की भावना बहुत अधिक बढ़ गयी थी, क्योंकि उनके रहन-सहन, अन्य व्यवहार एवं उद्योग-आविष्कार से भारतीय व्यक्तियों की सामाजिक मान्यताओं में अंतर पड़ता था। अपने सामाजिक जीवन में वे अंग्रेजों का प्रभाव स्वीकार नहीं करना चाहते थे। अंग्रेजों की खुद को श्रेष्ठ और भारतीयों को हीन समझने की भावना ने भारतीयों को क्रांति करने की प्रेरणा दी।
धार्मिक कारण
भारत में अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में भारतीयों पर धार्मिक दृष्टि से भी कुठाराघात किया था। इस काल में योग्यता की जगह धर्म को पद का आधार बनाया गया। जो कोई भी भारतीय ईसाई धर्म को अपना लेता था, उसकी पदोन्नति कर दी जाती थी, जबकि भारतीय धर्म का अनुपालन करने वाले को सभी प्रकार से अपमानित किया जाता था। इससे भारतीय जनसाधारण के बीच अंग्रेजों के प्रति धार्मिक असहिष्णुता उत्पन्न हो गई थी। फिर, ईसाई धर्म का इतना अधिक प्रचार किया गया कि भारतीयों को यह संदेह होने लगा कि अंग्रेज उनके धर्म का सर्वनाश करना चाहते हैं। परिणामस्वरूप भारतवासी अंग्रेजों को धर्मद्रोही समझकर उन्हें देश से बाहर निकालने का मार्ग ढूंढने लगे और 1857 ई. में जब मौका मिला, तब हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध प्रहार किया।
आर्थिक कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत के उद्योग धंधों को नष्ट कर दिया तथा श्रमिकों से बलपूर्वक अधिक से अधिक श्रम कराकर उन्हें कम पारिश्रमिक देना प्रारम्भ किया। इसके अतिरिक्त अकाल सूखा और बाढ़ की स्थिति में भारतीयों की किसी भी प्रकार की सहायता नहीं की जाती थी और उन्हें अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता था ।
निम्न वर्गीय कृषकों तथा मजदूरों की स्थिति तो दयनीय थी ही, राजाओं और नवाबों तक की आर्थिक स्थिति बदहाल थी। भारत से प्राप्त खनिज संसाधनों और सस्ते श्रम के बल पर अंग्रेजों ने अपने उद्योग धंधों को विकास के चरम पर पहुंचा दिया, जबकि दूसरी ओर भारत में किसी नए उद्योग की स्थापना की बात तो दूर छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों को भी समाप्त कर दिया गया। इससे भारत के प्रत्येक वर्ग में अंग्रेजों के प्रति अविश्वास की भावना उत्पन्न हुई और वे व्यापक विद्रोह के सूत्रधार बन गए।
[divide]
1857 से पूर्व के विद्रोह Rebellion Before 1857
1857 से पूर्व कई महत्वपूर्ण विद्रोह हुए जो निम्नलिखित प्रकार के थे-
चेरो-विद्रोह
बिहार के पलामू जिले में स्थानीय राजा एवं कंपनी के द्वारा जब जागीरदारों (चेरो) से जमीन छीनी जाने लगी, तब वहां के जागीरदारों ने राजा एवं कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। यह विद्रोह 1800 ई. में आरम्भ हुआ और 1802 ई. तक चला। इसका नेतृत्व भूषण सिंह नामक जमींदार ने किया था।
फकीर विद्रोह (बंगाल)
यह आंदोलन यद्यपि अठारहवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुआ किन्तु 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक चलता रहा। इस आन्दोलन का नेतृत्व एक फकीर नेता मजनूम शाह ने किया। फकीर, बंगाल के घुमन्तू धार्मिक मुसलमानों का एक समूह था। बंगाल के विलय के उपरांत 1776-77 में मजनूम शाह के नेतृत्व में फकीरों ने अंग्रेजी शासन की उपेक्षा करते हुये स्थानीय जमीदारों तथा किसानों से धन वसूलना प्रारम्भ कर दिया। मजनूम शाह की मृत्यु के पश्चात आंदोलन की बागडोर चिरागअली शाह ने संभाली। राजपूत, पठान एवं सेना के भूतपूर्व सैनिर्को ने आन्दोलन को सहयोग प्रदान किया। चिराग अली शाह के नेतृत्व में आन्दोलन और तीव्र हो गया तथा इसका प्रसार उत्तरी बंगाल के जिलों में भी हो गया। भवानी पाठक और एक महिला देवी चौधरानी, इस आन्दोलन के दो प्रमुख हिन्दू नेता थे। कालान्तर में इस आन्दोलन के समर्थकों ने हिंसक गतिविधियां प्रारम्भ केन्द्र बनाया। उन्होंने अंग्रेजी फैक्ट्रियों तथा सैनिक साजो-सामान के केन्द्रों पर हुयी। 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों तक अंग्रेजी सेनाओं ने आन्दोलन को कठोरतापूर्वक दबा दिया।
संन्यासी विद्रोह (बंगाल)
यह आन्दोलन 1770 में प्रारंभ हुआ किन्तु 19 वीं शताब्दी के दूसरे दशक 1820 तक चलता रहा। इस विद्रोह का प्रमुख कारण तीर्थ यात्रियों द्वारा तीर्थ स्थानों पर यात्रा करने पर प्रतिबन्ध लगाया जाना था। राजपूतों तथा बंगाल और अवध के नवाबों की सेनाओं में सैनिक थे। 1770 में बंगाल के भयानक दुर्भिक्ष ने यहां के निवासियों को त्रस्त कर दिया था उसके पश्चात संन्यासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध शस्त्र विद्रोह प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने बलपूर्वक धन वसूला तथा अंग्रेजी फैक्ट्रियों पर लूटपाट की। अंग्रेजों ने आन्दोलनकारियों से निपटने के लिये दमन का सहारा लिया तथा 1820 तक आन्दोलन को कुचल दिया। इसी सन्यासी विद्रोह का उल्लेख ‘वंदेमातरम्’ के रचयिता बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास आनद मठ में किया है।
कूका विद्रोह (पंजाब)
इस आन्दोलन की शुरुआत जवाहरमल भगत (सियान साहिब) एवं उनके शिष्य बालक सिंह ने पश्चिमी पंजाब में की। उन्होंने हाजरो नामक स्थान को अपना मुख्यालय बनाया। इस आन्दोलन का उद्देश्य सिख धर्म में प्रचलित बुराइयों एवं अंधविश्वासों को दूर करके धर्म को शुद्ध बनाना था। अधिकार, मांस, मदिरा एवं अन्य नशीली वस्तुओं के सेवन से परहेज, अन्तरजातीय विवाह को प्रोत्साहन तथा महिलाओं में पर्दा प्रथा को दूर करना इत्यादि प्रमुख थे। प्रारम्भ में कूका आन्दोलन एक धार्मिक सुधार आन्दोलन था, किन्तु अंग्रेजों द्वारा पंजाब को हस्तगत कर लेने के पश्चात यह राजनैतिक आन्दोलन में परिवर्तित हो। गया। कूका आन्दोलन के राजनीतिक स्वरूप अख्तियार करने पर अंग्रेज चिंतित हो। तथा इसके दमन का प्रयास करने लगे। फलतः कूका आन्दोलन के समर्थकों एवं अंग्रेजों में टकराव हुआ। अंग्रेजों ने आन्दोलन को कुचलने के जोरदार उपाय किये। 1872 में आन्दोलन के एक प्रमुख नेता राम सिंह को रंगून निर्वासित कर दिया गया, जहां 1885 में उनकी मृत्यु हो गयी।
सावंतवादी विद्रोह
यह विद्रोह 1844 में हुआ, जिसका नेतृत्व एक मराठा सरदार फोण्ड सावंत ने किया। सावंत ने कुछ सरदारों तथा देसाइयों की सहायता से कुछ किलों पर अधिकार कर लिया। बाद में अंग्रेज सेनाओं ने मुठभेड़ के पश्चात विद्रोहियों को परास्त कर दिया तथा किले से बाहर खदेड़ दिया। कई विद्रोही गोवा भाग गये तथा बचे हुए विद्रोहियों को पकड़कर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें कड़ी सजा दी गयी।
पाड्यगारों का विद्रोह
दक्षिण भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध हुए विद्रोहों में यह विद्रोह सबसे बड़ा था, जिसमें दक्षिण के पाड्यगारों (किलों के अधिपति) ने कम्पनी की अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया और मालगुजारी देना बन्द कर दिया। यह विद्रोह 1801 से 1805 ई. तक चला। इस विद्रोह का नेतृत्व कट्टबोम नायकन नामक पाड्यगार ने किया था, जिसे अंगरेजों ने पकड़े जाने पर फांसी दे दी थी।
वेल्लोर का सिपाही-विद्रोह
1806 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारतीय सिपाहियों ने वेल्लोर में विद्रोह कर दिया, जिसमें अंग्रेज अधिकारी सिपाहियों की हिंसा के शिकार हुए। इस विद्रोह में टीपू सुल्तान के वंशजों ने सिपाहियों का साथ दिया था, जो कि वेल्लोर के दुर्ग में कम्पनी द्वारा नजरबन्द थे। विद्रोहियों ने दुर्ग पर मैसूर राज्य के राजचिह्नयुक्त झण्डे को भी फहरा दिया था। पर, 1806 ई. के अन्त तक इस विद्रोह पर पूरी तरह काबू पा लिया गया था।
नायक-विद्रोह
बंगाल में मेदिनीपुर जिले में हुआ यह विद्रोह उन रैयतों (नायक) ने किया था, जिन पर कम्पनी बढ़ी हुई दर से लगान चुकाने के लिए दबाव डाल रही थी। 1806 ई. में कम्पनी ने इन नायकों की जमीन भी जब्त कर ली थी। नायकों ने इसके विरोध में कम्पनी के खिलाफ छापामार युद्ध शुरू कर दिया, जो 1816 ई. तक चला। इस विद्रोह का नेतृत्व अचल सिंह नामक व्यक्ति ने किया था, जिसने नायकों को सैनिक प्रशिक्षण देकर एक कुशल पलटन तैयार की थी।
त्रावणकोर का विद्रोह
त्रावणकोर में वहां के दीवान वेलू थम्पी ने कम्पनी की बढती ज्यादतियों के खिलाफ एक सशक्त विद्रोह का नेतृत्व किया जिससे लगभग एक वर्ष तक त्रावणकोर पर कम्पनी का अधिकार समाप्तप्राय रहा। वेलू थम्पी ने 1808 ई. में फ्रांस एवं अमेरिका से भी अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता के लिए सम्पर्क स्थापित किया था। वेलू थम्पी ने स्थानीय शासकों से भी सहयोग के लिए सम्पर्क किया, पर किसी ने सहयोग नहीं किया। अन्त में, 1809 ई. में कम्पनी की सेना के बहुत बढ़ आने पर वेलू थम्पी ने आत्महत्या कर ली, पर आत्मसमर्पण नहीं किया।
बरेली का विद्रोह
1816 ई. में बरेली के लोगों ने स्थानीय अंग्रेज अधिकारियों की ज्यादितियों के खिलाफ हिंसक विद्रोह कर दिया, जिसमें दोनों पक्षों के सैकड़ों लोग हताहत हुए। इस विद्रोह का तात्कालिक कारण था कि अंग्रेजों ने स्थानीय लोगों पर चौकीदार-टैक्स आरोपित कर उसकी सख्ती से वसूली शुरू कर दी थी। इस विद्रोह में लोगों का नेतृत्व मुफ्ती मुहम्मद एवाज नामक व्यक्ति ने किया था ।
अलीगढ़ का विद्रोह
आगरा प्रान्त के अन्तर्गत अलीगढ़ के किसान, जमीदार एवं सैनिक ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रशासनिक फेरबदल से असंतुष्ट थे। इसलिए, जब कम्पनी ने मालगुजारी बढ़ाने का निर्णय किया, तब उनका असंतोष विद्रोह के रूप में फूट पड़ा। यह विद्रोह 1817 ई. में हुआ था। इस विद्रोह के नेता हाथरस के तालुकेदार दयाराम और मुरसान के तालुकेदार भगवन्त सिंह थे।
उड़ीसा के पायकों का विद्रोह
अन्य रियासतों की तरह अंग्रेजों ने उड़ीसा में भी भूमि-कर में बेतहाशा वृद्धि कर दी थी और वे इसकी वसूली भी बड़ी सख्ती से कर रहे थे। इस अत्याचार से हजारों किसान खेतों को छोड़कर जंगल भागने लगे। परन्तु, स्थानीय पायकों ने, जो कि मुगलों एवं मराठों के विरुद्ध मोर्चा ले चुके थे, अंग्रेजों का प्रभावी प्रतिरोध किया और खुर्दा – जैसे स्थानों पर उन्हें करारी मात दी। इस विद्रोह में पायकों का नेतृत्व जगबन्धु ने किया था। यह विद्रोह 1817 ई. में शुरू हुआ था, जो 1818 ई. में आकर शिथिल पड़ा गया, यद्यपि जगबन्धु 1821 ई. तक अंग्रेजों का प्रतिकार करता रहा।
कित्तूर का विद्रोह
तृतीय आंग्ल-मराठा-युद्ध के बाद अंग्रेजों ने कित्तूर को स्वतंत्र राज्य मान लिया था। 1824 ई. में उत्तराधिकार के प्रश्न पर अंग्रेजों का कित्तूर राज्य से विरोध हो गया, जब उन्होंने अन्तिम शासक शिवलिंग रुद्र के उत्तराधिकारी को वास्तविक मानने से इन्कार कर दिया। ऐसे में महारानी चेनम्मा ने अंग्रेजों के विरुद्ध कर दिया, पर 1824 के अन्त तक अंग्रेजों ने इसे दबा दिया। परन्तु, 1829 ई. में रायप्पा के नेतृत्व में कितूर में एक बार फिर विद्रोह हुआ, पर यह भी उसी वर्ष दबा दिया गया।
रामोसिस-विद्रोह
पूना के रामोसिस (मराठायुगीन पुलिस) अंग्रेजों के शासनकाल में बेगार हो गए थे। ऊपर से उनके पास जो जमीन बची थी, उस पर अंग्रेजों ने लगान की दर बहुत बढ़ा दी। ऐसे में रामोसिसों ने 1822 ई. में चित्तूर सिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और अंग्रेजों पर हमले शुरू कर दिए। इस विद्रोह को दबा दिया गया। 1826 ई. में फिर से उमाजी के नेतृत्व में रामोसिसों ने विद्रोह आरम्भ कर दिया। इस बार 1829 ई. तक रामोसिसों ने अंग्रेजों से मोर्चा लिया।
अहोम-विद्रोह
1824 ई. में बर्मा-युद्ध के बाद अंग्रेजों ने उत्तरी असम पर अधिकार कर लिया था । असम के अहोम-वंश के उत्तराधिकारियों ने इसे नापसन्द किया और ईस्ट इंडिया कम्पनी से असम छोड़कर चले जाने को कहा। कम्पनी द्वारा न मानने पर 1828 ई. से 1830 ई. तक गदाधर सिंह के नेतृत्व में असमियों ने कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, पर विद्रोह सफल न हो सका। गदाधर सिंह को निर्वासित कर दिए जाने के बाद 1830 ई. में असमियों ने कुमार रूपचन्द के नेतृत्व में विद्रोह किया, पर यह दूसरा विद्रोह भी असफल रहा।
विशाखापत्तनम् के विद्रोह
मद्रास प्रेसीडेंसी के अन्तर्गत विशाखापत्तनम् जिले में विद्रोहों की एक लम्बी श्रृंखला थी। पालकोण्डा के जमींदार विजयराम राजे ने 1793 ई. से 1796 ई. के बीच अंग्रेजों के साथ कई छिटपुट लड़ाइयां लड़ीं। 1821-31 के बीच फिर से पालकोण्डा के जमींदार ने राजस्व-वसूली के प्रश्न पर विद्रोह किया। 1830 ई. में विशाखापत्तनम् के जमींदार वीरभद्र राजे ने पेंशन के सवाल पर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। 1832-34 ई. में विशाखापत्तनम् के ही एक अन्य जमींदार जगन्नाथ राजे ने उत्तराधिकार-विवाद में अंग्रेजों के हस्तक्षेप की वजह से विद्रोह कर दिया।
कुर्ग का विद्रोह
दक्षिण भारत में 1833-34 में कुर्गवासियों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाई संगठित नागरिक विद्रोह की मिसाल है। यदि वहां के राजा वीर राजा ने जनता की तरह की बहादरी दिखाई होती, तो अंग्रेजों को निर्णायक हार कुर्ग मई, 1834 में ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया।
गुमसुर का विद्रोह
1800-1805 ई. के बीच हुए गंजाम-विद्रोह का नेतृत्व जिस श्रीकर भंज ने किया था, उसी के पुत्र धनंजय ने 1835 ई. में गुमसुर की जमींदारी में लगान के बकाये के प्रश्न पर विद्रोह कर दिया। 1835 ई. के अन्त में धनंजय की मुत्यु के बाद आम जनता ने इस विद्रोह को जारी रखा। फरवरी, 1837 ई. में अंग्रेजों ने इसे बुरी तरह दबा दिया।
वहाबी-आन्दोलन
वहाबी-आन्दोलन भारत में शुरू किया बरेली के सैयद अहमद बरेलवी ने। वैसे तो इस आन्दोलन का लक्ष्य इस्लाम में सुधार लाना था, पर भारत में इसका लक्ष्य अंग्रेजों एवं शोषक वर्ग के अन्य लोगों का विरोध करना हो। गया। पटना इस आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र था, यद्यपि इसका प्रसार सम्पूर्ण भारत में हो गया था। यह आन्दोलन 1830 ई. में शुरू हुआ और 1869 ई. तक इसने अंग्रेजी सत्ता को परेशान किया। 1831 ई. में बरेलवी की मृत्यु के बाद बिहार में एनायत अली और विलायत अली तथा बंगाल में तीतू मीर और दुदू मियां ने नेतृत्व किया। अन्तिम चरण में इस आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र पश्चिमोत्तर भारत हो गया था।
फराजी-आन्दोलन
यह आन्दोलन बंगाल के फरीदपुर जिले में आरम्भ हुआ था। इन आन्दोलन का भी मुख्य उद्देश्य इस्लाम में सुधार करना ही था, पर यह वहाबियों का विरोधी था। बंगाल में कालान्तर में इस आन्दोलन ने अंग्रेजों के विरोध का रुख अपना लिया। शरीयतुल्ला एवं उसके पुत्र मुहम्मद मोहसिन (दुदू मिया) ने बंगाल के गरीब किसानों के बीच काफी लोकप्रियता अर्जित की और उनके बल पर एक सशक्त एवं प्रभावी आन्दोलन चलाया।
सम्भलपुर का विद्रोह
सम्भलपुर में उत्तराधिकार के प्रश्न पर अंग्रेजों के हस्तक्षेप के विरोध में कई चरणों में गोंडों ने विद्रोह किए। पहला विद्रोह 1833 ई में हुआ, पर इसे शीघ्र ही दबा दिया गया। 1839 ई. में सुरेन्द्र साई के नेतृत्व में एक बार फिर विद्रोह हुआ, जिसका कारण नए भूमि-बन्दोबस्त के द्वारा राजस्व में अंग्रेजों द्वारा वृद्धि कर देना था। यह विद्रोह काफी लम्बे समय तक चलता रहा। 1857 ई. की क्रान्ति के समय सम्भलपुर में सुरेन्द्र साई ने मोर्चा सम्भाला, जिसमें अन्य जमीदारों ने भी उसका साथ दिया। 1862 ई. में सुरेन्द्र साई द्वारा आत्मसमर्पण कर देने के बाद यह विद्रोह कमजोर पड़ गया।
कोलिय-विद्रोह
कोलिय मध्यकालीन भारत में दुर्गों के सैनिक के रूप में काम किया करते थे। अंग्रेजों का शासन स्थापित हो जाने के बाद दुर्गों का महत्त्व नहीं रहा, उन्हें तोड़ दिया गया। ऐसे में ये बेगार हो गए और ये यत्र-तत्र विद्रोह के झण्डे बुलन्द करते रहे। 1824 ई. के अन्त में पश्चिमी घाट एवं कच्छ के सीमावर्ती भाग के कोलियों ने विद्रोह किया, जिसे 1825 ई. में दबा दिया गया। 1839 ई. में पूना के आसपास के कोलियों ने विद्रोह आरम्भ कर दिया, जो 1850 ई. तक चला। विभिन्न चरणों में भाऊ सरे, चिमनाजी यादव, नाना दरबारे, रघु भंगरिया, बापू भंगरिया आदि ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। इस विद्रोह को रामोसिसों ने भी सहयोग दिया था।
गडकरी-विद्रोह
गडकरी भी मराठा-क्षेत्र के दुगों में सैनिक के रूप में काम किया करते थे, जिसके बदले इन्हें करमुक्त जमीन मिला करती थी। अंग्रेजों का शासन हो जाने के बाद ये बेगार तो हो ही गए थे, इनकी जमीनों पर कर भी आरोपित कर दिया गया। इसके विरोध में गाडकरियों ने 1844 ई. में विद्रोह कर दिया। सामानगढ़, कोलहापुर आदि इस विद्रोह के प्रमुख केन्द्र थे। बाबाजी अहीरेकर इस विद्रोह के प्रमुख नेताओं में थे।
बुन्देला-विद्रोह
1835 ई. में अंग्रेजों ने उत्तर-पश्चिमी प्रांत नामक एक नया प्रान्त बनाया, जिसमें मराठों से छीने गए आधुनिक मध्यप्रदेश के दो जिले भी मिलाये गए-सागर एवं दमोह। इस प्रान्त में ‘बर्ड कमीशन‘ के प्रतिवेदन पर हुई दर पर कर दिया गया। इससे यहां के जमीदार नाराज हुए और जब उनसे लगान मधुकरशाह ने 1842 ई. में विद्रोह कर उत्पात मचाना शुरू कर दिया। 1843 ई. तक इस विद्रोह पर काबू पा लिया गया और लगान भी कम कर दिया गया था।