स्वतंत्रता संघर्ष की शुरुआत The Beginning Of The Struggle For Independence
उदारवादी चरण और प्रारंभिक कांग्रेस 1858-1905 ई.
सामान्यतः भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन कारकों का परिणाम माना जाता है, जो भारत में उपनिवेशी शासन के कारण उत्पन्न हुए जैसे- नयी-नयी संस्थाओं की स्थापना, रोजगार के नये अवसरों का पृजन, संसाधनों का अधिकाधिक दोहन इत्यादि। दूसरे शब्दों में भारत में राष्ट्रवाद का उदय कुछ उपनिवेशी नीतियों द्वारा एवं कुछ उपनिवेशी नीतियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। किंतु विभिन्न परिस्थितियों के अध्योनपरांत यह ज्यादा तर्कसंगत होता है कि भारत में राष्ट्रवाद का उदय किसी एक कारण या परिस्थिति से उत्पन्न न होकर विभिन्न कारकों का सम्मिलित प्रतिफल था।
संक्षिप्त रूप में देखा जाये तो भारत में राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास के लिये निम्न कारक उत्तरदायी थे–
- विदेशी आधिपत्य का परिणाम।
- पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा।
- फ्रांसीसी क्रांति के फलस्वरूप विश्व स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना एवं आत्म-विश्वास की भावना का प्रसार।
- प्रेस एवं समाचार-पत्रों की भूमिका।
- भारतीय पुनर्जागरण।
- अंग्रेजों द्वारा भारत में आधुनिकता को बढ़ावा।
- ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध भारतीय आक्रोश इत्यादि।
भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय के कारण
भारतीय हितों एवं उपनिवेशी हितों में विरोधाभास
भारतवासियों ने देश के आर्थिक पिछड़ेपन की उपनिवेशी शासन का परिणाम माना। उनका विचार था कि देश के विभिन्न वर्ग के लोगों यथा-कृषक, शिल्पकार, दस्तकार, मजदूर, बुद्धजीवी, शिक्षित वर्ग एवं व्यापारियों इत्यादि सभी के हित विदेशी शासन की भेंट चढ़ गये हैं। देशवासियों की इस सोच ने आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया। उनका मानना था कि देश में जब तक विदेशी शासन रहेगा लोगों के आर्थिक हितों पर कुठाराघात होता रहेगा।
देश का राजनीतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक एकीकरण
भारत में ब्रिटिश शासन का विस्तार उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पूर्व में असम से पश्चिम में खेबर दरें तक था। अंग्रेजों ने देश में मौर्यो एवं मुगलों से भी बड़े साम्राज्य की स्थापना की। कुछ भारतीय राज्य सीधे ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में थे तो अन्य देशी रियासतें अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के अधीन थीं। ब्रिटिश तलवार ने पूरे भारत को एक झंडे के तले एकत्र कर दिया। एक दक्ष कार्यपालिका, संगठित न्यायपालिका तथा संहिताबद्ध फौजदारी तथा दीवानी कानून, जिन पर दृढ़ता से अमल होता था। भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक लागू होते थे। इसने भारत की परम्परागत सांस्कृतिक एकता को एक नये प्रकार की राजनैतिक एकता प्रदान की। प्रशासनिक सुविधाओं, सैन्य रक्षा उद्देश्यों, आर्थिक व्यापन तथा व्यापारिक शोषण की बैटन को ध्यान में रखते हुए परिवहन के तीव्र साधनों का विकास किया गया। पक्के मार्गों का निर्माण हुआ जिससे एक स्थान दूसरे स्थान से जुड़ गये।
परंतु देश को एक सूत्र में बांधने का सबसे बड़ा साधन रेल था। 1850 के पश्चात रेल लाइनें बिछाने का कार्य प्रारंभ हुआ। रेलवे से अन्य कई लाभों के अतिरिक्त इसने देश को अप्रत्यक्ष रूप से एकीकृत करने का भी कार्य किया।
1850 के उपरांत प्रारंभ हुयी आधुनिक डाक व्यवस्था ने तथा बिजली के तारों ने देश को समेकित करने में सहायता की। इसी प्रकार आधुनिक संचार साधनों ने भारत के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों को एक-दूसरे से संबंध बनाये रखने में सहायता दी। इससे राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला। राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से एकीकरण के इन प्रयासों को दो प्रकार से देखा जा सकता है-
- एकीकरण से विभिन्न भाग के लोगों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गये। जैसे किसी एक भाग में अकाल पड़ने पर इसका प्रभाव दूसरे भाग में खाद्यानों के मूल्यों एवं आपूर्ति पर भी होता था।
- यातायात एवं संचार के साधनों के विकास से देश के विभिन्न वर्गों के लोग मुख्यतः नेताओं का आपस में राजनीतिक सम्पर्क स्थापित हो गया। इससे विभिन्न सार्वजनिक एवं आर्थिक विषयों पर वाद-विवाद सरल हो गया।
पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा का प्रभाव
आधुनिक शिक्षा प्रणाली के प्रचलन से आधुनिक पाश्चात्य विचारों को अपनाने में मदद मिली, जिससे भारतीय राजनितिक चिंतन को एक नयी दिशा प्राप्त हुयी। जब ट्रेवेलियन, मैकाले तथा बैंटिक ने देश में अंग्रेजी शिक्षा का श्रीगणेश किया तो यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय था। पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार यद्यपि प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिये किया गया था। परंतु इससे नवशिक्षित वर्ग के लिये पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा के द्वार खुल गये। बेन्थम, शीले, मिल्टन, स्पेंसर, स्टुअर्ट मिल, पेन, रूसो तथा वाल्टेयर जैसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों के अतिवादी और पाश्चात्य विचारों ने भारतीय बुद्धजीवियों में स्वतंत्र राष्ट्रीयता तथा स्वशासन की भावनायें जगा दी और उन्हें अंग्रेजी साम्राज्य का विरोधाभास खलने लगा।
इसके साथ ही अंग्रेजी भाषा ने सम्पूर्ण राष्ट्र के विभिन प्रान्तों एवं स्थानों के लोगों के लिए संपर्क भाषा का कार्य किया। इसने सभी भाषा-भाषियों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलन को अखिल भारतीय स्वरूप मिल सका। अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त कर नवशिक्षित भारतीयों जैसे-वकीलों, डाक्टरों इत्यादि ने उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड की यात्रा की। इन्होंने यहां एक स्वतंत्र देश में विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं के विकास की प्रक्रिया देखी तथा वस्तुस्थिति का भारत से तुलनात्मक आंकलन किया, जहाँ नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अधिकारों से वंचित रखा गया था। इस नवपाश्चात्य भारतीय शिक्षित वर्ग ने भारत में नये बौद्धिक मध्यवर्ग का विकास किया, कालांतर में जिसने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत की विभिन्न राजनीतिक एवं अन्य संस्थाओं को इसी मध्य वर्ग से नेतृत्व मिला।
प्रेस एवं समाचार-पत्रों की भूमिका
समय-समय पर उपनिवेशी शासकों द्वारा भारतीय प्रेस पर विभिन्न प्रतिबंधों के बावजूद 19वीं शताब्दी के पूवार्द्ध में भारतीय समाचार पत्रों एवं साहित्य की आश्चर्यजनक प्रगति हुयी। 1877 में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषायी एवं हिंदी समाचार पत्रों की संख्या लगभग 169 थी तथा इनकी प्रसार संख्या लगभग 1 लाख तक पहुंच गयी थी।
भारतीय प्रेस, जहां एक ओर उपनिवेशी नीतियों की आलोचना करता था वहीं दूसरी ओर देशवासियों से आपसी एकता स्थापित करने का आह्वान करता था। प्रेस ने आधुनिक विचारों एवं व्यवस्था जैसे- स्वशासन, लोकतंत्र, दीवानी अधिकार एवं औद्योगिकीकरण इत्यादि के प्रचार-प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। समाचार पत्रों, जर्नल्स, पेम्फलेट्स तथा राष्ट्रवादी साहित्य ने देश के विभिन्न भागों में स्थिति राष्ट्रवादी नेताओं के मध्य विचारों के आदान-प्रदान में भी सहायता पहुंचायी। इस प्रकार भारतीय समाचार-पत्र भारतीय राष्ट्रवाद के दर्पण बन गये तथा जनता को शिक्षित करने का माध्यम।
भारत के अतीत का पुनः अध्ययन
19वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतवासियों को अपने प्राचीन इतिह्रास का ज्ञान अत्यंत कम था। वे केवल मध्यकालीन या 18वीं सदी के इतिह्रास से ही थोड़ा-बहुत परिचित थे। किंतु तत्कालीन प्रसिद्ध यूरोपीय इतिह्रासकारों जैसे- मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स, रोथ एवं सैसून तथा विभिन्न राष्ट्रवादी इतिह्रासकारों जैसे- आर. जी. भंडारकर, आर. एल. मित्रा एवं स्वामी विवेकानंद इत्यादि ने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को पुर्नव्याख्यित कर राष्ट्र की एक नयी तस्वीर पेश की। इन्होंने अथक परिश्रम कर कला, साहित्य, वास्तुकला, संगीत, दर्शन, विज्ञान तथा गणित इत्यादि के क्षेत्रों में भारतीय उपलब्धियों एवं मानव सभ्यता के विकास में भारत के योगदान को पुनः प्रकाशित किया, जिससे लोगों में राष्ट्रप्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुयी। यूरोपीय चिंतकों ने व्याख्या दी कि भारतीय तथा यूरोपीय एक ही प्रकार के आयों की संतान है। इसका भारतवासियों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा तथा उनमें प्रजातीय हीनता की भावना जाती रही। इससे देशवासियों की यह भ्रांति भी दूर हो गयी कि वे सदैव ही गुलामी की दासता के अधीन जीते रहे हैं।
सुधार आंदोलनों का विकासात्मक स्वरूप
19वीं शताब्दी में भारत में विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुये। इन आंदोलनों ने सामाजिक, धार्मिक नवजागरण का कार्यक्रम अपनाया और सारे देश को प्रभावित किया। आदोलनकारियों ने व्यक्ति स्वातंत्र्य,सामाजिक एकता और राष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर जोर दिया और उनके लिये संघर्ष किया। इन आंदोलनों ने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सामाजिक एकता कायम की। समाज सुधार के प्रस्तावों को सरकारी अनुमति में विलंब ने समाज सुधारकों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि जब तक स्वशासन नहीं होगा सुधार संबंधी विधेयकों को पूर्णतः सरकारी सहमति एवं सहयोग नहीं मिल सकता। सुधार-आंदोलनों ने देशवासियों में साहस जुटाया कि वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करें।
मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का उत्थान
अंग्रेजों की प्रशासनिक तथा आर्थिक प्रक्रिया से नगरों में एक मध्यवर्गीय नागरिकों की श्रेणी उत्पन्न हुई। इस नवीन श्रेणी ने तत्परता से अंग्रेजी भाषा सीख ली जिससे उसे रोजगार तथा सामाजिक प्रतिष्ठा दोनों ही प्राप्त होने लगे। यह नवीन श्रेणी अपनी शिक्षा, समाज में उच्च स्थान तथा प्रशासक वर्ग के समीप होने के कारण आगे आ गई। यह मध्यवर्ग भारत की नवीन आत्मा बन गया तथा इसने समस्त देश में नयी शक्ति का संचार किया। इसी वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन को उसके सभी चरणों में नेतृत्व प्रदान किया।
तत्कालीन विश्वव्यापी घटनाओं का प्रभाव
दक्षिण अमेरिका में स्पेनी एवं पुर्तगाली उपनिवेशी शासन की समाप्ति से अनेक नये राष्ट्रों का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त यूनान एवं इटली के स्वतंत्रता आंदोलनों एवं आयरलैंण्ड की घटनाओं ने भारतीयों को अत्यंत प्रभावित किया।
विदेशी शासकों का जातीय अहंकार तथा प्रतिक्रियावादी नीतियां
अंग्रेज शासकों की जातीय अहंकार एवं श्रेष्ठता की भावना ने भारतीयों को अत्यंत आहत किया। अंग्रेज अधिकारियों तथा कर्मचारियों ने खुले आम शिक्षित भारतीयों को अपमानित किया तथा कई बार उन पर प्रहार किये। अंग्रेज भारतीयों को अनेक अपमानजनक शब्दों से संबोधित करते थे। एक अंग्रेज का जीवन कई भारतीयों के जीवन से अधिक मूल्यवान समझा जाता था। उच्च एवं महत्वपूर्ण पदों पर भारतीयों को नियुक्ति का अधिकार नहीं था। इन सभी कारणों से त्वचा के गोरेपन एवं प्रजातीय श्रेष्ठता के रंग में डूबे अंग्रेजों के प्रति भारतीयों में घृणा पैदा हो गयी। जातीय अहंकार का सबसे घृणित रूप था- न्याय में असमानता। अंग्रेज तथा भारतीयों के झगड़े में दोषी होने पर भी अंग्रेजों को दोषमुक्त करार दिया जाता था। तथा दोषहीन होने पर भी भारतीयों को कठोर दण्ड से प्रताड़ित किया जाता था।
लार्ड लिटन की विभिन्न प्रतिक्रियावादी नीतियों जैसे- इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करना (1876), जब पूरा दक्षिण भारत भयंकर अकाल की चपेट में था तब भव्य दिल्ली दरबार का आयोजन (1877), वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट (1878) तथा शस्त्र अधिनियम (1878) इत्यादि ने देशवासियों के समक्ष सरकार की वास्तविक मंशा उजागर कर दी तथा अंग्रेजों के विरुद्ध जनमत तैयार किया। इसके पश्चात इलबर्ट बिल विवाद (1883) सामने आया। लार्ड रिपन के समय इलबर्ट बिल को लेकर भारत में एक विशिष्ट समस्या खड़ी हो गयी। लार्ड रिपन ने इस प्रस्ताव द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियन अधिकारियों के मुकद्दमे का निर्णय करने का अधिकार देना चाहा। इस बात पर सम्पूर्ण भारत और इंग्लैण्ड में अंग्रेजों ने संगठित होकर ऐसा तीव्र आंदोलन किया कि इस प्रस्ताव का संशोधित रूप ही कानून बन सका। इसमें काले और गोरे को लेकर, जो विवाद खड़ा हुआ उससे स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज रंग के आधार पर भारतीयों से कितनी घृणा करते थे। इससे भारतीयों में अंग्रेजों के विरुद्ध नफरत पैदा हो गयी तथा उनमें संगठित होकर आंदोलन करने की प्रेरणा जागी।
साहित्य की भूमिका
19वीं एवं 20वीं शताब्दी में विभिन्न प्रकार के साहित्य की रचना हुयी उससे भी राष्ट्रीय जागरण में सहायता मिली। विभिन्न कविताओं, निबंधों, कथाओं, उपन्यासों एवं गीतों ने लोगों में देशभक्ति तथा राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत की। हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बांग्ला में रवींद्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, बंकिमचंद्र चटर्जी, मराठी में विष्णु शास्त्री चिपलंकर, असमिया में लक्ष्मीदास बेजबरुआ इत्यादि उस काल के प्रख्यात राष्ट्रवादी साहित्यकार थे। इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा भारतीयों में स्वतंत्रता, समानता, एकता, भाईचारा तथा राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया। साहित्यकारों के इन प्रयासों से आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास को प्रोत्साहन मिला।