कामरूप का राज्य State of Kamrup
प्राचीन भारत का कामरूप राज्य वर्तमान असम-राज्य से बडा था। यह राज्य आधुनिक काल में भारत की पूर्वी सीमा का निर्माण करता था। प्राग्ज्योतिष प्राचीन कामरूप की राजधानी थी। यह राज्य करतोया नदी तक फैला हुआ था। और इसमें कूचबिहार तथा रंगपुर के जिले सम्मिलित थे। महाभारत में कामरूप राज्य और उसके नरेश का उल्लेख किया गया है। परन्तु, अभिलेखों में कामरूप का उल्लेख सबसे पहले समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में किया गया है। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि कामरूप-राज्य ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी, किन्तु स्वायत्त शासन के सम्बन्ध में इसने अपना अधिकार अक्षुण्ण रखा था। आदित्यसेन गुप्त के अफसड़ अभिलेख में भी लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) तक महासेनगुप्त तक पहुँचने का उल्लेख मिलता है। महासेन गुप्त ने कामरूप के राजा को युद्ध में पराजित किया था। यह राजा कदाचित् सुस्थितवर्मन था।
सुस्थितवर्मन का पुत्र भास्करवर्मन कामरूप का एक प्रसिद्ध शासक था तथा संतर हर्ष का समकालीन था। हर्षचरित में कामरूप के राजा के साथ हर्ष की मैत्री और संधि का उल्लेख किया गया है। जब नालंदा में चीनी यात्री ह्वेनसांग दुबारा रुका तो भास्करवर्मन ने साग्रह उससे परिचय प्राप्त किया और उससे अपने राज्य का पर्यटन करने का अनुरोध किया। कामरूप की राजधानी में कुछ दिन रूकने के बाद चीनी यात्री को भास्करवर्मन के साथ हर्षवद्धन से मिलने के लिए जाना पड़ा। भास्करवर्मन का दूसरा नाम कुमार भी था। चीनी यात्री ने लिखा है कि कुमार या भास्कर ब्राह्मण था और अपने को विष्णु की सन्तान कहता था। बाण ने लिखा है कि भास्करवर्मन का जन्म एक अत्यन्त प्राचीन कुल में हुआ था। भास्करवर्मन के ही आग्रह पर चीनी सम्राट् ने अपने देश के प्रसिद्ध दार्शनिक लाओ-त्से के ग्रन्थ को संस्कृत में अनूदित करने के लिए ह्वेनसांग को आदेश दिया।
हर्षचरित् के अनुसार भास्करवर्मन शिव का अनन्य भक्त था। उसने हर्ष के साथ जो मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया उसका कारण कदाचित् धर्म न होकर राजनीतिक हित का विचार था। कर्णसुवर्ण का राजा शशांक अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ था। उसकी बढ़ती हुई शक्ति से भास्करवर्मन को भय था। इसके अतिरिक्त जब देवगुप्त ने (मालवाधिपति) शासक के साथ सन्धि कर ली तो भास्करवर्मन का भय और अधिक बढ़ गया। इधर सम्राट् हर्ष भी शशांक की ओर से सशंक तथा भयभीत था। अतएव जब कामरूपाधिपति ने हर्ष से मैत्री का प्रस्ताव किया तो उसने तुरन्त उसे स्वीकार कर लिया। हर्षचरित् में बाण ने जिन शब्दों में भास्करवर्मन और हर्ष के सन्धि सम्बन्ध का वर्णन किया है, वे स्पष्ट सूचित करते हैं कि दोनों ही नरेश शशांक से भयभीत थे और उसकी शक्ति को रोकने के लिए ही दोनों ने आपस में एक-दूसरे से मित्रता की थी।
भास्करवर्मन और हर्ष की इस पारस्परिक सन्धि के व्यवहारिक परिणाम क्या हुए, यह ठीक से ज्ञात नहीं। कामरूप-नरेश ने हर्ष को उसके रण-अभियान में, विशेषकर शशांक के विरुद्ध किसी प्रकार की सैनिक सहायता दी थी अथवा नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु जिस उद्देश्य से भास्करवर्मन ने हर्ष के साथ मित्रता स्थापित की थी, उस उद्देश्य की पूर्ति हो गई। भास्करवर्मन के राज्य को शशांक कोई क्षति नहीं पहुंचा सका, बल्कि इस मैत्री सम्बन्ध से कामरूप-नरेश भास्करवर्मन को और अधिक लाभ हुआ। ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि हर्ष की मृत्यु के अनन्तर जब उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया तब कामरूप के नृपति ने भी उससे लाभ उठाया और कणसुवर्ण को अपने राज्य में मिला लिया। कुछ समय तक बंगाल भास्करवर्मन के अधिकार में रहा। निधानपुर वाले लेख से विदित होता है कि उसने कर्ण्कासुवर्ण की राजधानी से कुछ भूमि दान में दी थी। भास्करवर्मन ने हर्ष के जीवन-काल में ही बंगाल के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया था। सम्भवत: शशांक का साम्राज्य दो भागों में विभक्त कर दिया गया था, हर्ष के अधिकार में पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा और फोंगोद आये और भास्करवर्मन को बंगाल का अवशिष्ट भाग मिला। परन्तु इस सम्बन्ध में उपलब्ध सामग्री इतनी स्वल्प है कि सुनिश्चित सम्मति देने का साहस नहीं किया जा सकता। भास्करवर्मन के बाद का भी इतिहास मिलता है, किन्तु उसके बाद का इतिहास अस्पष्ट और धुंधला है। भास्करवर्मन के समय के पश्चात् से कामरूप की शक्ति क्षीण होने लगी और देश की राजनीतिक गतिविधि में इसका कोई महत्त्वपूर्ण भाग नहीं था। मुसलमानों के समय में आसाम ने अपनी स्वतन्त्रता अक्षुण्ण रखी परन्तु अंग्रेजों के आने पर यह उनके अधिकार में चला गया। आज आसाम स्वतन्त्र भारत की पूर्वी सीमा पर स्थित एक राज्य है।