मौर्योत्तर काल में सामाजिक स्थिति Social System in Post-Mauryan Period

शुंग और सातवाहन वंश के शासक ब्राह्मण थे। अतएव उनके शासन-काल के समय में चार वर्णों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठ स्थिति होना स्वाभाविक था। ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठता का पक्षपोषण तत्कालीन स्मृतियों से हो जाता है। उदाहरण के लिए मनुस्मृति में स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की पुष्टि की गई है। मनु के अनुसार ब्राह्मणों को प्राणदण्ड की सजा नहीं दी जा सकती थी। ब्राह्मणों के लिए शूद्र का भोजन वर्जित था। यद्यपि मनु शुद्र अध्यापकों की चर्चा करते हैं किन्तु फिर भी वे शूद्र और दासों में कोई अंतर नहीं देख पाते। मनु ने 7 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। इसके विपरीत यदि हम मौर्य युग की प्रख्यात विचारक की सुविख्यात रचना अर्थात कौटिल्य के अर्थशास्त्र में शूद्रों के विषय में देखते हैं  तो उसमें स्पष्ट रूप से यह पाते हैं कि कौटिल्य  शूद्रों को दास बनाना वर्जित ठहराते हैं- त्वेवार्यस्य दास भावः। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य स्मृति में भी हमें शुद्रों के प्रति उदार दृष्टिकोण दिखलाई पड़ता है। इसके अनुसार शूद्रों को कृषक, कारीगर एवं व्यापारी बनने की स्वीकृति प्रदान की गयी है। मनु ने विपत्ति के समय निर्वाह के लिए 10 ऐसे व्यवसाय बताए हैं जो सभी वर्णों क लोग कर सकते हैं- (1) अध्ययन (2) शिल्पकर्म (3) मज़दूरी (4) सेवा (5) पशुपालन (6) व्यापार (7) कृषि (8) सन्तोष (9) भिक्षा और (10) ब्याज लेना।

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सातवाहन युग में अभिजन या सत्ताभोगी दृष्टि से समाज का एक अन्य वर्गीकरण भी दिखलाई पड़ता है। यह वर्गीकरण इस प्रकार है-

  1. प्रथम वर्ग में सामन्त एवं शासक वर्ग के लोग थे जिन्हें महाराज, महारथी तथा महा सेनापति आदि, उपाधियां प्राप्त थीं।
  2. दूसरा वर्ग मंत्री, कोषाध्यक्ष, अन्य उच्च राजपदाधिकारी आदि का था।
  3. तीसरा वर्ग लेखकों, विद्वानों, वैद्यों, ज्योतिषियों आदि का था।
  4. चौथा वर्ग स्वर्णकारों, शिल्पियों एवं कृषकों आदि का था।

इस युग की सामाजिक दृष्टि से अन्य विशेषता, विदेशी जातियों का भारत की सामाजिक व्यवस्था में विलयन का था। भारतीय समाज में यवन, पहलव, शक आदियों के प्रवेश से कुछ समस्याएँ उत्पन्न हो गई थीं। इन जातियों ने भारतीय धमों को अंगीकर कर लिया था। इन लोगों में अधिकांश ने परम्परागत हिन्दू धर्म के किसी न किसी सम्प्रदाय को स्वीकार कर लिया अर्थात् कुछ शैव मतावलम्बी हो गए थे, कुछ ने वैष्णव धर्म को स्वीकार कर लिया था, कुछ ने बौद्ध तथा कुछ ने जैन। तत्कालीन समाज के सूत्रधारों को उनके भारतीय समाज में प्रवेश करने में कोई आपत्ति नहीं थी। उदाहरण के लिए भागवत पुराण में कहा गया है कि ये जातियाँ विष्णु पूजन से पवित्र हो गई हैं और यदि विदेशी जातियाँ विष्णु पूजन करती हैं तो पवित्र हो जाती हैं। इस प्रकार वैष्णव धर्म ने इन जातियों को ब्राह्मणधर्मी सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत समावेश एवं समायोजन का मार्ग बताकर हिन्दू समाज के द्वार उन लोगों के लिए खोल दिए जो मूलतया विदेशी थे किन्तु भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आने के लिए इच्छुक थे। प्राचीन भारतीय इतिहास में इस प्रकार के साक्ष्यों का अभाव नहीं है, जब विदेशी जातियों ने भारतीय धर्म को स्वीकार कर भारत की धार्मिक परम्पराओं में अपनी निष्ठा व्यक्त की। ई.पू. और ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक साक्ष्य सुलभ हैं। उदाहरण के लिए बसनगर के अभिलेख में यह स्पष्ट है कि यवन राजदूत होलियोडोरस ने भागवत धर्म को अंगीकार कर लिया था और भगवान वासुदेव के सम्मान में एक गरुड़ध्वज समर्पित किया था। इसी प्रकार महाहत्रप सोडास के समय एक अन्य अभिलेख में भगवान वासुदेव के मन्दिर के प्रवेश द्वार और वेदिकाओं के निर्माण का उल्लेख है। कुषाण द्वारा बौद्ध धर्म अपनाए जाने से उनके भारतीय समाज में प्रवेश में किसी प्रकार की समस्या का प्रश्न नहीं था क्योंकि बौद्ध धर्म जाति-वर्ण इत्यादि को अस्वीकार करता है।

जहाँ तक इस युग में स्त्रियों की स्थिति का प्रश्न है, इस युग में समाज में स्त्रियों को सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता था। यद्यपि मनु ने उनके जीवन को काफी प्रतिबन्धित कर दिया था। कन्या, पत्नी और माता के रूप में क्रमश: पिता, पति और पुत्र द्वारा नियन्त्रित और संरक्षित मानी गई। सातवाहन काल में स्त्रियों की पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी स्थिति हो गई थी, इसमें कोई सन्देह नहीं। सातवाहन राजाओं द्वारा अपने नाम के साथ माता का नाम जोड़ने की प्रथा, जैसे गौतमीपुत्र शातकर्णी, वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी समाज में स्त्रियों की मान्यता को इंगित करता है। रानी नायनिका ने अपने अल्पव्यस्क पुत्र की संरक्षिका के रूप में शासन चलाया था। गौतमी ने बलश्री को विदुषी और धर्मपरायण कहा है। स्त्री शिक्षा की ओर ध्यान दिया जाता था। बाल्यकाल से ही उनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता था। अनेक महिलाएँ शिक्षिका बनकर शिक्षण कार्य द्वारा जीवनयापन करती थीं। ऐसी स्त्रियां उपाध्याया कही जाती थीं। मनु के अनुसार विवाह के अवसर पर कन्या को जो कुछ दिया जाता था अर्थात् पति गृह जाते समय माता-पिता एवं भाई द्वारा दिया धन स्त्री को ही मिलता था, उसे स्त्री धन कहा जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि परिवार की सम्पूर्ण सम्पत्ति में स्त्री का हिस्सा होता था एवं इच्छानुसार अपने पास रख सकती थी। मनु ने यह भी निर्देशित किया है कि पति की मृत्यु के बाद नारी को उसकी स्त्री धन से वंचित न किया जाये। एक स्थान पर अपुत्रवती व्यभिचारिणी स्त्री की शुद्धि का उल्लेख कर उसकी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास किया है। हमें ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं जिनसे स्त्रियों की पर्दा प्रथा सिद्ध होती हो, किन्तु विवाह की अवस्था निरन्तर घटती जा रही थी। संभवत: यह पाश्चात्य आक्रमणकारियों के भारतीय समाज में प्रवेश के प्रयास का परिणाम था। मनु ने 30 वर्ष के पुरुष को 12 वर्ष की कुमारी अथवा 24 वर्ष के पुरुष को आठ वर्ष की बालिका से विवाह की अनुमति प्रदान कर दी। इसका प्रभाव स्त्री शिक्षा पर तो पड़ा ही बल्कि मानसिक विकास पर भी इसका बुरा असर हुआ। वैदिक काल में जिन विशेष परिस्थितियों में तलाक की अनुमति थी उसे भी बुरा समझा जाता था।

विधवाओं के पुनर्विवाह पर रोक के साथ सती प्रथा का आविर्भाव हुआ। महाभारत के कुछ उल्लेखों और यवन लेखकों द्वारा कुछ वास्तविक घटनाओं की चर्चा से स्पष्ट है कि इस काल में यह प्रथा प्रचलित थी। अरिस्टोबुलस ने इस विषय में कुछ छान-बीन कर लिखा है कि कुछ अवस्थाओं में स्त्रियाँ से अपने पति की चिता पर जल मरती हैं। जो ऐसा नहीं करती वे समाज हेय दृष्टि से देखी जाती हैं। यद्यपि आरम्भिक धर्मशास्त्रों में इस प्रथा को मान्यता नहीं दी गयी है तथापि इससे स्पष्ट होता है कि क्रूर प्रथा को जनता प्रोत्साहित करती थी।

ब्राह्मण एवं बौद्ध साहित्यिक ग्रंथों से दास प्रथा के प्रचलन की जानकारी मिलती है। मनु ने शूद्रों से दास कर्म करवाये जाने का उल्लेख किया है। उसने सात प्रकार के दासों का जिक्र किया है- ध्वजाहत (युद्ध में जीता गया), भक्तदास (भोजन हेतु बना दास), गृहज (दासी पुत्र), क्रीत (मूल्य देकर क्रय किया। हुआ), दत्तिम (किसी द्वारा दिया हुआ), पैत्रिक (पैतृक रूप से चला आ रहा), दण्डदास (दण्ड या ऋण न चुका पाने के कारण)। महाभाष्य में दो प्रकार के दासों का जिक्र आया है-क्रीत एवं परिक्रीत। परिक्रीत दास निश्चित अवधि के लिए निश्चित द्रव्य के आधार पर परिचारक के रूप में रखे जाते थे एवं क्रीत दासों को सुनिश्चित धन से क्रय किया जाता था जो उतना धन लौटाये जाने पर स्वतंत्र हो जाता था। स्मृत्तियों में दासों के प्रति उदार व्यवहार और मुक्ति के नियम दिये गये हैं।


इस तरह मौर्योत्तर काल को सामाजिक परिवर्तनों एवं समन्वय का युग कहा जा सकता है। उत्तर भारत दक्षिण से जुड़ने लगा और सांस्कृतिक दृष्टि से एकता के सूत्र में परिबद्ध होने लगा। इस काल में न केवल विविध जातियों और धर्मावलम्बियों का भारतीय समाज में विलीनीकरण संभव हुआ बल्कि भारत ने एक राष्ट्र के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना विशिष्ट स्थान बना लिया।

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