भारत में अंग्रेजी शासन की सामाजिक एवं सांस्कृतिक नीति Social And Cultural Policy Of The British Rule In India

1813 तक अंग्रेजों ने भारत के सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन में अहस्तक्षेप की नीति अपनायी, किंतु यूरोप में 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में हुये महत्वपूर्ण परिवर्तनों के प्रकाश में ब्रिटेन के हितों एवं विचारधाराओं में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुये फलतः 1813 के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय समाज एवं देश के सांस्कृतिक वातावरण में परिवर्तन के लिये कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने प्रारंभ कर दिये । इनमें से कुछ प्रमुख परिवर्तन इस प्रकार थे

औद्योगिक क्रांति

इसकी शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुयी। इसके फलस्वरूप मशीनी युग एवं पूंजीवादी व्यवस्था का जन्म हुआ। इस क्रांति के फलस्वरूप ब्रिटेन के औद्योगिक हितों में परिवर्तन आया। इन औद्योगिक हितों में वृद्धि के कारण इस बात की आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि यदि भारत को एक बड़े बाजार के रूप में विकसित किया जाये तो ब्रिटेन में निर्मित सामान की खपत वहां आसानी से हो जायेगी तथा उसके औद्योगिक हितों की पूर्ति हो सकेगी। इस कार्य के लिये आंशिक आधुनिकीकरण तथा भारतीय समाज में परिवर्तन आवश्यक था।

बौद्धिक क्रांति

इसके फलस्वरूप नये प्रकार की विचारधाराओं, मान्यताओं, शिष्टाचार के तरीकों तथा नैतिकता की नयी-नाट्य अवधारणा का जन्म हुआ।

फ्रांसीसी क्रांति

इस क्रांति के तीन महान संदेशों स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व ने न केवल फ्रांस अपितु पूरे विश्व में लोकतंत्र एवं राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।


इस नये रुझान के बौद्धिक प्रवर्तक थे- बैकन, लॉक, वाल्टेयर, रूसी, कांट, एडम स्मिथ एवं वेंथम तथा साहित्यिक प्रवर्तक थे- वर्डस्वर्थ, बायरन, शीले एवं चार्ल्स डिकेन्स ।

नये विचारों की विशेषतायें

नये विचारों की इस लहर की कुछ प्रमुख विशेषतायें निम्नानुसार थीं-

  1. तर्कवादः यह किसी भी वस्तु के संबंध में तर्क एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समर्थक था।
  2. मानवतावादः यह मानवता से प्रेम की वकालत करता है- इसके अनुसार मानवतावाद का सिद्धांत सर्वोपरि है। प्रत्येक मनुष्य को न केवल खुद से अपितु सम्पूर्ण मानवता से प्यार करना चाहिये। किसी भी मनुष्य को यह अधिकार नहीं है कि वह व्यक्तिगत आनंद के लिये किसी दूसरे मनुष्य का अहित करे। इससे मानवतावाद को हानि पहुंचती है। मानवतावाद के सिद्धांत से स्वतंत्रता, समाजवाद एवं वैयक्तिकता के सिद्धांतों को प्रोत्साहन मिला।
  3. विकास का सिद्धांतः इस सिद्धांत के अनुसार कुछ भी अपरिवर्तनीय नहीं है तथा समय के साथ प्रत्येक रामाज में कुछ न कुछ परिवर्तन होता है। मानव में यह क्षमता है कि वह अपनी परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप प्रकृति एवं समाज को परिवर्तित कर सकता है।

विचारधारायें या सिद्धांत

विचारों के नये प्रवाह से प्रशासकों के मध्य टकराव हुये तथा इसकी प्रतिक्रियास्वरूप विभिन्न सिद्धांतों या विचारधाराओं का जन्म हुआः

रुढ़िवादी (conservatives): ये परम्परागत व्यवस्था के हिमायती थे। इन्होंने अत्यल्प परिवर्तनों की वकालत की। इनके मतानुसार भारतीय सभ्यता यूरोपीय सभ्यता से भिन्न है लेकिन उससे निम्न नहीं है। इस विचारधारा के चिंतक भारतीय दर्शन एवं सभ्यता को सम्मान की दृष्टि से देखते थे। उनके अनुसार, यदि इसमें थोड़ा-बहुत परिवर्तन करना भी हो तो पाश्चात्य विचारों का समावेश धीरे धीरे एवं अत्यंत सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। इन्होंने महसूस किया की सामाजिक स्थायित्व का होना आवश्यक है। इस विचारधारा के प्रारंभिक अनुयायियों में वारेन हेस्टिंग्स एवं एडमंड बर्क का नाम उल्लेखनीय है। बाद में मुनरो, मैटकाफ एवं एल्फिंस्टन ने भी इस विचारधारा का समर्थन किया। रूढ़िवादी अपने पूरे कार्यकाल में इसा व्यवस्था के पक्षधर रहे तथा ब्रिटिश शासन के अधिकांश अधिकारी भी इसी विचारधारा के समर्थक बने रहे।

संरक्षणवादी साम्राज्यवादी: ये मुख्यतः 19वीं शताब्दी से प्रभावी हुये। इस विचारधारा के अनुयायी भारतीय समाज एवं सभ्यता के तीव्र आलोचक थे तथा इन्होंने भारत की राजनीतिक एवं आर्थिक दासता की स्थिति को जायज ठहराया।

मौलिकतावादी: इन्होंने भारतीय समाज एवं संस्कृति की आलोचना से परे, रूढ़ीवादियों तथा साम्राज्यवादियों के दृष्टिकोण से असहमति प्रकट की तथा भारतीय परिस्थितियों में उन्नत मानवतावादी एवं तर्कवादी विचारों के अनुप्रयोग की वकालत की। इनके मतानुसार भारत में वह शक्ति है, जिससे वह उन्नति कर सके तथा इस कार्य में उन्हें अवश्य सहायता करनी चाहिये। इनकी इच्छा भारत को विज्ञान एवं मानवतावाद पर आधारित आधुनिक एवं प्रगतिशील विश्व के एक भाग के रूप में विकसित करने की थी, इसीलिये इन्होंने देश में आधुनिक एवं पाश्चात्य विज्ञान, दर्शन एवं साहित्य को प्रवृत्त (introduce) करने की वकालत की। 1820 के पश्चात भारत आने वाले ब्रिटिश अधिकारियों में से कुछ इसी विचारधारा के समर्थक थे। इन अधिकारियों का राजा राममोहन राय एवं कुछ अन्य प्रबुद्ध भारतीयों ने भरपूर समर्थन किया, जो इसी सिद्धांत के समर्थक थे।

लेकिन दुर्भाग्यवश पहले से शासन पर अपनी पकड़ बनाये हुये तत्वों ने अपनी साम्राज्यवादी एवं शोषणात्मक शासन की नीति जारी रखी। इनका तर्क था कि भारत का आधुनिकीकरण एवं विकास अंग्रेजों की छत्रछाया में ही हो सकता है तथा इसके लिये भारतीय संसाधनों का दोहन आवश्यक है। साम्राज्यवादियों की इस अवधारणा के कारण मौलिकतावादियों से उनका मतभेद अपरिहार्य था। साम्राज्यवादियों के इस तर्क से की भारत में ब्रिटिश शासन की उपस्थिति एवं संरक्षण प्राथमिक तथ्य है तथा अन्य कारक द्वितीयक तत्व, मौलिकतावाद ने अपनी असहमति प्रकट की।

सरकार के सम्मुख असमंजस की स्थिति

सरकार इस बात से भयभीत थी कि भारत का बहुत ज्यादा आधुनिकीकरण किया गया तो ऐसी ताकतें पैदा हो सकती हैं, जो ब्रिटिश हितों को आघात पहुंचा सकती हैं। इसीलिये सरकार ने भारत के आंशिक आधुनिकीकरण की नीति अपनायी। एक ओर जहाँ कुछ क्षेत्रों में उसने इस प्रक्रिया को प्रारंभ किया, वहीँ दूसरी ओर उसने अन्य क्षेत्रों में यह प्रक्रिया अवरुद्ध कर दी। दूसरे शब्दों में उसने ‘उपनिवेशवादी आधुनिकीकरण’ की प्रक्रिया प्रारंभ की

ईसाई मिशनरियों की भूमिका ईसाई मिशनरियों (धर्म प्रचारकों) ने ईसाई धर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म के रूप में प्रचारित किया तथा पाश्चात्यीकरण के द्वारा इसके प्रसार की नीति अपनायी। उनका विश्वास था कि इस नीति के द्वारा वे भारतीयों की अपने धर्म एवं संस्कृति में आस्था को विनष्ट कर देंगे। अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये इन मिशनरियों ने-

–    मौलिकतावादियों (Radicals) का समर्थन किया, क्योंकि उनका विश्वास था कि मौलिकतावादियों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की अवनति होगी।

–    उन्होंने साम्राज्यवादियों का समर्थन किया क्योंकि उनके उद्देश्यों की सफलता के लिये कानून एवं व्यवस्था की स्थिति का उनके अनुकूल होना आवश्यक था। साथ ही मिशनरियों का मानना था कि ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का होना नितांत आवश्यक है।

–    उन्होंने ब्रिटिश व्यवसायियों एवं पूंजीपतियों का समर्थन किया क्योंकि उनका विश्वास था कि वे इसाई धर्म का प्रचार कर भारतीयों में पाश्चात्य सभ्यता का प्रसार करेंगे। इससे अंग्रेजी वस्तुओं की खपत बढ़ेगी तथा अंग्रेज पूंजीपति एवं व्यापारी, मिशनरियों को उनके उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता पहुंचायेंगे।

1858 के पश्चात, झिझकपूर्ण आधुनिकीकरण की नीति (Policy of hesitant modernisation) त्याग दी गयी, क्योंकि भारतीय धीरे-धीरे शासन के सम्मुख शिष्य की तरह व्यवहार करने लगे तथा अपने समाज एवं संस्कृति के तीव्रता से आधुनिकीकरण किये जाने की मांग करने लगे। साथ ही भारतीयों ने अपने अनुरूप स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय पर आधारित प्रशासन की मांग प्रारंभ कर दी थी। अब अंग्रेजों ने सामाजिक रूढ़िवादी एवं समाज के संकीर्णतावादी तत्वों का पक्ष लेना प्रारंभ कर दिया। अंग्रेजों ने जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद को उभारना भी प्रारंभ कर दिया।

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