शेरशाह:1540-1545 ई. Sher Shah 1540-1545 AD.
पानीपत एवं घाघरा में बाबर की विजयों के परिणामस्वरूप अफगान नायकों का पूर्ण उन्मूलन नहीं हुआ। नव-स्थापित विदेशी शासन के विरुद्ध वे असन्तोष से खौल रहे थे। उन्हें केवल एक पराक्रमी व्यक्ति के पथप्रदर्शन की आवश्यकता थी, जो उनके छिटपुट प्रयत्नों को इस शासन के विरुद्ध एक संगठित राष्ट्रीय प्रतिरोध के रूप में एकीभूत कर दे। यह उन्हें शेर खाँ सूर में मिल गया, जिसने अफगान शक्ति का पुनरुत्थान किया तथा नवस्थापित मुग़ल शक्ति को निकालकर भारत में एक गौरवपूर्ण शासन स्थापित किया, यद्यपि यह बहुत कम समय के लिए टिक सका।
हिन्दुस्तानी मुस्लिम पुनर्जागरण के नायक शेर खाँ सूर का जीवन बाबर के जीवन की तरह आकर्षक है तथा महान् मुग़ल अकबर के जीवन से कम उपदेशपूर्ण नहीं है। आरम्भ में उसका नाम फरीद था। उसके जीवन का प्रारंभ साधारण ढंग से हुआ। इतिहास के बहुत-से अन्य महापुरुषों की तरह उसे अनेक परीक्षाओं एवं भाग्य के परिवर्तनों से होकर गुजरना पड़ा; तब कहीं जाकर वह अपनी व्यक्तिगत योग्यता के बल से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। उसका दादा इब्राहिम, जो सूर खानदान का एक अफगान था, पेशावर के निकट रहता था।
अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् फरीद ने राजकीय फरमान के बल पर जिसे वह आगरे में प्राप्त करने में समर्थ हो गया था, पैतृक जागीर पर अधिकार कर लिया। 1522 ई. में उसने बिहार के स्वतंत्र शासक बहार खाँ लोहानी के यहाँ नौकरी कर ली। ईमानदारी एवं परिश्रम से अपने कर्तव्य निर्वाहन के कारण उसने शीघ्र उसकी कृपा प्राप्त कर ली। उसने अकेले ही एक शेर को मार डाला। ऐसी वीरता दिखलाने के कारण उसके स्वामी ने उसे शेर खाँ की उपाधि दी। शेर खाँ को अपना प्रतिनिधि (वकील) तथा अपने नाबालिग पुत्र जलाल खाँ का शिक्षक (अतालिक) नियुक्त कर उसने शीघ्र उसकी योग्यता एवं स्वामिभक्ति को पुरस्कृत किया।
परन्तु दुष्ट प्रारब्ध फिर शेर के विरुद्ध हो गया। उसके शत्रुओं ने उसके विरुद्ध उसके स्वामी के कान भर दिये। पुनः एक बार वह अपने पिता की जागीर से वंचित हो गया। मुग़ल शस्त्रों की पूर्ण सफलता से प्रभावित होकर तथा भविष्य में लाभ की आशा से वह अब बाबर की छावनी में सम्मिलित हो गया। वहाँ वह अप्रैल, 1527 ई. से लेकर जून 1528 ई. तक रहा। बाबर की उसकी पूर्वी लड़ाईयों में उसने उसे जो मूल्यवान् सहायता दी, उसके बदले बाबर ने उसे सहसराम लौटा दिया।
शेर ने शीघ्र मुगलों की नौकरी छोड़ दी। वह बिहार लौट आया। यहाँ वह बिहार का उपशासक तथा अपने भूतपूर्व शिष्य जलाल खाँ का संरक्षक बन गया। अल्पायु राजा बिहार का नाममात्र का शासक बना रहा, जब कि शेर वस्तुत: इसकी सरकार का प्रधान बन बैठा। चार वर्षों के अन्दर उसने सेना के अधिकांश को अपने पक्ष में कर लिया तथा अपने को पूर्ण स्वतंत्र बना लिया। इसी बीच सौभाग्यवश चुनार का गढ़ उसके अधिकार में आ गया। चुनार का स्वामी ताज खाँ अपनी एक छोटी स्त्री लाड मलिका के प्रति मुग्ध था। इससे ताज खाँ के सबसे बड़े पुत्र ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उसे मार डाला। पर इस विधवा ने शेर खाँ से विवाह कर लिया तथा उसे चुनार का गढ़ दे दिया। हुमायूँ ने 1531 ई. में चुनार पर घेरा डाला। परन्तु शेर खाँ ने उस वर्ष के अफगान विद्रोह में कोई भाग नहीं लिया तथा मुग़ल आक्रमणकारी की समय पर अधीनता स्वीकार कर अपनी स्थिति को बचा लिया। लोहानी अफगानों के मत्थे शेर के इस शीघ्र एवं अप्रत्याशित उत्कर्ष के कारण लोहानी अफगान तथा जलाल खाँ तक उसके नियंत्रण से अधीर हो उठे। वे इस तानाशाह से छुटकारा पाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु उसकी असाधारण सावधानी के कारण यह प्रयत्न विफल हो गया। तब उन्होंने बंगाल के सुल्तान महमूद शाह के साथ संधि की (सितम्बर, 1533 ई.) जो स्वभावतः शेरशाह के उत्थान को रोकने के लिए उत्सुक था, क्योंकि इससे स्वयं उसकी प्रतिष्ठा एवं शक्ति की हानि थी। पर वीर अफगान प्रतिनिधि ने बंगाल के सुल्तान एवं लोहानियों की संयुक्त सेना को बिहार शहर के पूर्व किउल नदी के तट पर सूरजगढ़ में परास्त कर दिया। सूरजगढ़ की विजय वास्तव में शेर के जीवन में एक युगांतरकारी बिंदु थी। सैनिक सफलता के रूप में तो यह बड़ी चीज थी ही, महत्त्वपूर्ण राजनैतिक परिणाम के विचार से यह और भी बड़ी चीज थी।…….यदि सूरजगढ़ की विजय न होती, तो सहसराम का जागीरदार अंधकार से निकलकर राजनीति के अखाडे में नहीं आता तथा अनिच्छा से भी बहादुरशाह एवं हुमायूँ बादशाह के समान वंशानुगत राजमुकुटधारियों के साथ साम्राज्य प्राप्त करने की दौड़ में सम्मिलित न होता। इससे वह वास्तविक और नाम दोनों तरह से बिहार का निष्कंटक शासक बन गया।
जब हुमायूँ सेना लेकर गुजरात के बहादुरशाह के विरुद्ध बढ़ गया, तब शेर को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया। उसने अचानक बंगाल पर आक्रमण कर दिया तथा इसकी राजधानी गौड़ के समक्ष, तेलियागढ़ी की घाटियों (ईस्टर्न रेलवे लूप लाइन पर आधुनिक साहेबगंज के निकट) के सामान्य मार्ग से होकर नहीं बल्कि एक दूसरे अल्प-प्रयुक्त एवं कम चक्करदार मार्ग से होकर, उपस्थित हुआ। बंगाल के दुर्बल शासक महमूद शाह ने अफगान आक्रमणकारी का विरोध करने का कोई विशेष प्रयत्न किये बिना ही उससे संधि कर ली। उसने शेर खाँ को काफी धन दिया जो तेरह लाख सोने के सिक्कों के बराबर था और किउल से लेकर सकरीगली तक का नब्बे मील लंबा एवं तीस मील चौड़ा प्रदेश उसके हवाले कर दिया। इन नयी प्राप्तियों के कारण शेर की शक्ति एवं प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी। गुजरात के बहादुर शाह के पराभव पर बहुत से प्रतिष्ठित अफगान सरदार पूर्व के अपने इस उदीयमान नेता से मिल गए। इस प्रकार सबल होकर शेर ने स्थानीय रूप से जीत लेने के उद्देश्य से 1537 ई. के अक्टूबर महीने के मध्य लगभग बंगाल पर आक्रमण कर दिया तथा गौड़ नगर पर जबर्दस्त रूप से घेरा डाल दिया। हुमायूँ गुजरात एवं मालवा से लौटते समय आगरे में अपने पुराने ढंग से अपना समय नष्ट कर रहा था। उसने पूर्व के अफगान संकट की गम्भीरता को महसूस करने में बहुत देर कर दी। 1537 ई. के दिसम्बर महीने के द्वितीय सप्ताह में वह शेर खाँ के विरुद्ध सेना लेकर चला। परन्तु सीधे गौड़ की ओर बढ़ने के बदले, जिससे वह बंगाल के शासक के साथ मिलकर शेर खाँ की योजनाओं को विफल कर सकता था, उसने चुनार को घेर लिया। चुनार में शेर खाँ की किले की रखवाली करने वाली सेना ने छः महीनों तक आक्रमणकारियों की सभी चेष्टाओं को विफल कर दिया। इस समय का उपयोग शेर खाँ ने गौड़ के जीतने में किया। अप्रैल, 1538 ई. में गौड़ उसके अधीन हो गया। शेर खाँ ने सन्देहयुक्त साधनों से रोहतास के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया था तथा वहाँ अपना परिवार एवं सम्पत्ति भेज दी थी। बिहार में विफल होकर हुमायूँ बंगाल की ओर मुड़ा तथा जुलाई, 1538 ई. में गौड़ में घुस गया। पर शेर खाँ चालाकी से उसके साथ बंगाल में खुल्लमखुल्ला लड़ाई बचा गया। उसने बिहार एवं जौनपुर के मुग़ल प्रदेशों पर अधिकार कर लिया तथा पश्चिम में कन्नौज तक के प्रदेश को लूट लिया।
हुमायूँ गौड़ में उस समय आलस्य एवं उत्सवों में अपना समय नष्ट कर रहा था। पश्चिम में शेर के कारनामों को सुनकर वह व्याकुल हो उठा। अपने लौटने का रास्ता कटने के पहले वह बंगाल से आगरे के लिए चल पड़ा। पर राह में बक्सर के निकट चौसा में शेर खाँ तथा उसके अफगान अनुगामियों ने उसका विरोध किया। जून, 1539 ई. में उसकी गहरी हार हुई। अधिकतर मुग़ल सैनिक गंगा में डूब गये अथवा बंदी बना लिये गये। उनका भाग्यहीन शासक कोई उपाय न देख गंगा में कूद पड़ा। एक भिश्ती ने उसे अपने चमडे के थैले पर बैठाकर गंगा पार कर दिया। इस प्रकार उस भिश्ती के कारण अभागे मुग़ल बादशाह की जान बची।
दिल्ली के बादशाह पर हुई विजय के कारण शेर खाँ की महत्त्वाकांक्षा का क्षितिज विस्तीर्ण हो गया। वह पश्चिम में कन्नौज से लेकर पूर्व में आसाम की पहाड़ियों एवं चटगाँव तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में झारखंड की पहाड़ियों (रोहतास से वीरभूमि तक) एवं बंगाल की खाड़ी तक फैले हुए प्रदेश का वास्तविक शासक बन बैठा। उसने हथियार तथा युद्ध-कौशल की शक्ति से जो प्राप्त किया था उसे कानूनी रूप देने के लिए, उसने अब शेरशाह की राजकीय उपाधि धारण की तथा अपने नाम से खुतबा पढ़ाने एवं सिक्के ढलवाने की आज्ञा दी। अगले वर्ष हुमायूँ ने अपने भाग्य को पलटने की पुनः चेष्टा की। पर अपनी अच्छी-से-अच्छी कोशिशों के बावजूद वह अपने भाईयों का सहयोग प्राप्त न कर सका। 17 मई, 1540 ई. को मुगलों एवं अफगानों के बीच कन्नौज के सामने फिर भिडन्त हुई। हुमायूँ की सेना बुरी तरह पस्तहिम्मत एवं निरुत्साह थी तथा उसमें अच्छे अफसर नहीं थे। अफगानों ने गंगा अथवा बिलग्राम के युद्ध में, जो कन्नौज के युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है, उसे बुरी तरह परास्त कर दिया। हुमायूँ किसी प्रकार भाग निकला। इस प्रकार भारत में बाबर का कार्य नष्ट हो गया। हिन्दुस्तान की राजसत्ता पुन: एक बार अफगानों के हाथों में चली आई। इस समय से करीब पंद्रह वर्षों तक हुमायूँ को घुमक्कड का जीवन बिताना पड़ा।
हुमायूँ लाहौर गया तथा अपने भाईयों को मिलाने का भरसक प्रयत्न किया। परन्तु इस संकटपूर्ण क्षण तक में बाबर के बेटे संयुक्त होने में असफल रहे। उनके स्वार्थ ने सम्मिलित हित पर विजय पायी तथा शेरशाह पंजाब पर भी अपना अधिकार जमाने में समर्थ हुआ। अफगान शासक, पहले के समान अपनी तत्परता एवं शक्ति के साथ, सिंधु एवं झेलम के ऊपरी भागों में स्थित गक्कर देश की लड़ाकू पहाड़ी जातियों को अधीन करने के लिए सेना लेकर रवाना हुआ। उसने इस राज्य को रौद डाला, पर गक्करों को पूर्णत: अधीन नहीं कर सका। कारण यह हुआ कि उसे हड़बड़ाकर मार्च, 1541 ई. में बंगाल चला जाना पड़ा, जहाँ उसके प्रतिनिधि ने विवेकहीन होकर उसकी प्रभुता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। उसने विद्रोही को नौकरी से अलग कर दिया, प्रान्तीय शासन के सैनिक ढाँचे को बदल दिया तथा उसके बदले एक पूर्णतया नवीन पद्धति लागू कर दी, जो सिद्धान्त में बिल्कुल मौलिक एवं व्यवहार में कार्यक्षम थी। उस प्रान्त को कई जिलों में विभक्त कर दिया गया, जिनमें प्रत्येक पर सीधे उसके द्वारा नियुक्त एवं केवल उसी के प्रति उत्तरदायी पदाधिकारी शासन करता था।
इसके बाद शेरशाह ने पश्चिम के राजपूतों के विरुद्ध अपना ध्यान दिया। अब तक खनवा के आघात से पूरी तरह सँभल नहीं पाये थे। 1542 ई. में मालवा को अधीन कर वह मध्य भारत में रायसीन के पूरनमल के विरुद्ध सेना लेकर चल पड़ा। कुछ प्रतिरोध के उपरान्त रायसीन के दुर्ग की संरक्षक सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा राजपूत इस शर्त पर दुर्ग खाली कर देने को तैयार हो गये कि मालवा की सीमा के बाहर जाते समय उन्हें कष्ट नहीं दिया जाएगा। परन्तु जैसे ही किले के लोग दीवारों से बाहर निकले कि अफगान उन पर भयानक रूप से टूट पड़े। राजपूतों ने अपनी स्त्रियों एवं बच्चों को अपमान से बचाने के लिए उनकी जाने ले लीं। तथा स्वयं अपने विकराल शत्रु से वीरतापूर्वक लड़ते हुए एक-एक कर 1543 ई. में मर मिटें। बहुत-से लेखकों ने रायसीन की घटना को शेरशाह के चरित्र पर एक बड़े धब्बे के रूप में निन्दा की है। सिंध और मुल्तान पंजाब के सूबेदार द्वारा अफगान-साम्राज्य में मिला लिये गये। अब अधीन करने के लिए शेरशाह का केवल एक ही भयानक शत्रु बच गया। वह था मारवाड़ का राजपूत शासक मालदेव, जो एक उत्कृष्ट सेनापति एवं स्फूर्तिवान् शासक था। उसका राज्य करीब दस हजार वर्ग मीलों में फैला हुआ था। कुछ बिगड़े हुए राजपूत नायकों द्वारा, जिनके राज्य मालदेव ने जीत लिये थे, उत्प्रेरित किए जाने पर शेर खाँ ने 1544 ई. में राठौर नायक पर आक्रमण कर दिया। मालदेव भी अपनी ओर से अप्रस्तुत नहीं था। राठौरों से उनके अपने देश में खुले रूप से युद्ध करने का जोखिम उठाना अनुचित समझ सहारा लिया। उसने मालदेव के पास कई जाली पत्र भेज जिनसे यह प्रतीत होता था की राजपूत सेनानियों ने जिनके द्वारा ये पत्र लिखे हुए कहे जाते थ, शेरशाह को सहायता देने का वचन दिया है। इस प्रकार राठौर शासक को डराने में वह सफल हुआ। मालदेव मैदान छोड़कर भगा और सिवान के दुर्ग में शरण ली। इसके बावजूद जेत एवं काम के समान राजपूतों के सेनापतियों ने अपने अनुगामियों के साथ शेरशाह की सेना का विरोध किया। वे नैराश्यजनित वीरता के साथ लडे, वीरगति को प्राप्त हुए। शेरशाह विजयी हुआ, पर उसे इसकी गहरी कीमत देनी पड़ी। रणक्षेत्र में कई हजार अफगान हताहत हुए तथा उसे अपना साम्राज्य खोने की नौबत भी करीब-करीब आ पहुँची थी। राजपूतों के पुनरुत्थान का अवसर जाता रहा तथा उत्तरी भारत पर अफगानों की निष्कंटक प्रभुता का रास्ता खुल गया। इस सफलता के बाद शेरशाह ने अजमेर से लेकर आबू तक फैले हुए सम्पूर्ण प्रदेश को अपने अधीन कर लिया तथा कालिंजर के दुर्ग पर घेरा डालने के लिए सेना लेकर रवाना हुआ। वह दुर्ग को अधिकृत करने में सफल हुआ, पर अचानक बारूद का विस्फोट होने से 22 मई, 1545 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी।
शेरशाह एक साहसी योद्धा एवं सफल विजेता नहीं, बल्कि एक ऐसी देदीप्यमान शासन-पद्धति का निर्माता था, जिसकी प्रशंसा उसके शत्रु मुगलों के स्तुति-गायकों ने भी की है। वास्तव में शासक के रूप में उसके गुण रणक्षेत्र में उसकी विजयों की अपेक्षा अधिक विलक्षण थे। पाँच वर्षों के उसके छोटे राज्यकाल में शासन की प्रत्येक सम्भव शाखा में विवेकपूर्ण एवं हितकर परिवर्तन लाये गये। इनमें से कुछ तो भारत की पुरानी हिन्दू एवं मुसलमानी शासन-प्रणालियों की परम्परागत विशेषताओं के पुनर्जीवन एवं सुधार के रूप में थे। अन्य परिवर्तन पूर्णत: मौलिक थे जो, वास्तव में प्राचीन एवं आधुनिक भारत के बीच एक कड़ी हैं। मिस्टर कीन ने स्वीकार किया है कि किसी सरकार ने, अंग्रेजी सरकार तक ने-इतनी बुद्धिमत्ता नहीं दिखलायी है, जितनी कि इस पठान ने। यद्यपि शेरशाह की सरकार अत्यन्त केद्रीभूत प्रणाली थी, जिसके शिखर पर नौकरशाही थी तथा वास्तविक शक्ति सुल्तान के हाथों में केद्रित थी, पर वह बेलगाम एवं एकतंत्री शासक नहीं था, जिसे लोगों के अधिकारों एवं हितों की परवाह नहीं थी। एक प्रज्ञापूर्ण निरंकुश शासक की भावना से उसने एक ऐसा साम्राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया, जो जनता की इच्छा पर विस्तृत रूप में आधारित हो। शेरशाह के बाद उसका पुत्र जमाल खाँ (1545-53) हुआ जो इस्लाम शाह के नाम से शासक बना। इस्लाम शाह अपनी राजधानी आगरा से ग्वालियर ले गया। साम्राज्य का खजाना भी चुनार से ग्वालियर ले आया। साम्राज्य के आर्थिक एवं राजनैतिक एकीकरण में उसने सम्पूर्ण इक्ता भूमि को खालसा भूमि में तब्दील कर दिया और महत्त्वपूर्ण अधिकारियों का वेतन खजाने से देने लगा। इसका एक महत्त्वपूर्ण कदम था-इस्लामी कानूनों का संहिताकरण। इससे उलेमा वर्ग पर शासन की निर्भरता कम हो गई।