शाकम्भरी और अजमेर के चौहान Shakambhari And Chauhan Of Ajmer
चाहमान वंश के अनेक राजपूत सरदार आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही अजमेर के उत्तर में सांभर झील के निकट सांभर (शाकम्भरी) नामक स्थान पर राज करने लगे थे। इस वंश की अन्य शाखाओं का राज्य आगरा और ग्वालियर के मध्य में धौलपुर नामक स्थान में, रणथम्भौर में और आबू पर्वत के उत्तर में नद्दूल (नंदोल) में भी था, परन्तु ये वंश शाकम्भरी के चौहानों की तरह विख्यात और महत्त्वपूर्ण नहीं थे। इसी वंश के कुछ सरदार गुर्जर महेन्द्रपाल-द्वितीय के समय में उज्जैन के शासक के सामन्त थे। भड़ौच चाहमान सरदार, नागभट्ट-प्रथम के सामन्त थे, सांभर के चौहानों की ही तरह प्राचीन थे।
इस वंश का प्रथम उल्लेखनीय नरेश विग्रहराज-द्वितीय था। उसने सन् 973 के लगभग शासन करना आरम्भ किया और अपने राजवंश की स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की। कहा जाता है कि उसने अन्हिलीवाड़ के मूलराज-प्रथम को पराजित किया। पृथ्वीराज-प्रथम ने सन् 1105 ई. के लगभग राज्य किया। उसके पुत्र अजयराज ने अजयमेरु अथवा अजमेर नामक नगर की स्थापना की। उसने बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शासन करना प्रारम्भ किया। वह अपने कुल का प्रथम शासक था जिसने एक आक्रमणात्मक साम्राज्यवादिनी नीति का अवलम्बन किया। उसने उज्जैन पर आक्रमण किया और परमार सेनानायक को बन्दी बना लिया। उसके लिए यह कहा जाता है कि उसने युद्ध में तीन राजाओं को तलवार के घाट उतार दिया। परन्तु हमें इस बात का विवरण प्राप्त नहीं है कि इन युद्धों के फलस्वरूप उसके राज्य की सीमा में कोई विस्तार हुआ या नहीं। अजयराज के विषय में एक विचित्र बात यह है कि उसकी कुछ मुद्राओं पर उसकी रानी सोमलदेवी का नाम उत्कीर्ण मिलता है। यह बात भारतीय इतिहास में बहुत ही कम दिखलाई पड़ती है। अजयराज के उपरान्त अर्णोराज सिंहासनारूढ़ हुआ, जिसके दो अभिलेखों पर सन् 1139 की तिथि दी हुई है। उसका जयसिंह सिद्धराज और अन्हिलीवाड के कुमारपाल से संघर्ष हुआ। अर्णोराज ने कुछ तुस्कों (अर्थात् पंजाब के मुसलमानों) को, जिन्होंने उसके राज्य पर आक्रमण किया था, युद्ध में पराजित कर दिया और मार डाला।
विग्रहराज-चतुर्थ- विग्रहराज-चतुर्थ अथवा वीसलदेव चाहमान वंश का एक अति प्रतापी और विख्यात नरेश था, जिसने चाहमानों की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि तथा उसे एक साम्राज्य के रूप में परिणत करने का प्रयास किया। सन् 1153 . में विग्रहराज-चतुर्थ वीसलदेव शाकम्भरी राजसिंहासन पर बैठा। मेवाड़ के नामक स्थान से एक लेख प्राप्त हुआ है जिससे यह सूचित होता है कि उसने गहड़वालों से दिल्ली छीनकर अपने राज्य में मिला ली। परन्तु कुछ विद्वानों कथन है कि यद्यपि विग्रहराज-चतुर्थ एक वीर विजेता था और अपनी विजयों द्वारा उसने अपने राज्य की सीमा का पर्याप्त विस्तार भी किया, तथापि उसके द्वारा दिल्ली-विजय की बात प्रमाणिक नहीं मणि जा सकती। उसने जाबालिपुर, नददूल और राजपूताना के अन्य छोटे-छोटे भू-भागों पर अपना अधिकार कर लिया। ये राज्य कुमारपाल के अधीनस्थ थे, अतएव इनको विजित कर विग्रहराज-चतुर्थ ने उस पराजय का बदला लिया जो उसके पिता को चालुक्यों द्वारा सहन करनी पड़ी थी। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि अपनी उत्तरी विजयों द्वारा विग्रहराज ने अमर यश का उपार्जन किया। उसने ढिल्लिका (दिल्ली) को जीत लिया। विग्रहराज-चतुर्थ के लेखों से पता चलता है कि उसका राज्य उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियों तक फैला हुआ था और दक्षिण में कम से कम उदयपुर और जयपुर जनपद को उसके राज्य की सीमा स्पर्श करती थी।
विग्रहराज चतुर्थ– प्राचीन भारत के राजपूत राजाओं की पंक्ति में एक गौरवशाली स्थान का अधिकारी है। वह केवल विजेता ही न था, उसका सुयश उसके एक ग्रन्थ हरिकोल नाटक पर अवलम्बित है। वह स्वयं एक नाटककार था, साथ ही वह विद्वानों और कवियों का आश्रयदाता भी था। सोमदेव उसके दरबार में रहता था, जिसने अपने संरक्षक के सम्मान में ललितविग्रहराज नाटक का प्रणयन किया। उसने मालवा के भोज-प्रथम की भांति अजमेर में एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना कराई थी। इस संस्कृत विद्यालय के स्थान पर एक मस्जिद खड़ी है जो विद्यालय की एक भव्य दीवार तुड़वा कर बनवाई गई थी। अजमेर की इस मस्जिद का नाम अढ़ाई दिन का झोपडा है। इसमें जड़े कुछ पाषाण-खण्डों पर हरिकेल नाटक के कुछ अंश खुदे हुए दिखाई पड़ते हैं। ललितविग्रहराज नाटक भी संस्कृत-विद्यालय के भग्नावशेषों पर उत्कीर्ण मिला है। विग्रहराज-चतुर्थ का देहान्त 1164 ई. में हुआ।
पृथ्वीराज-तृतीय- चाहमान वंश का सबसे प्रतापी राजा पृथ्वीराज-तृतीय या रायपिथोरा था। डॉ. त्रिपाठी के शब्दों में- इस राजा के व्यक्तित्व पर एक अद्भुत प्रभामण्डल है जिसने रोमांचक जनश्रुतियों और गीतों का उसे नायक बना दिया है। जबकि डॉ. मजूमदार ने भी लिखा है कि- भारतीय इतिहास में पृथ्वीराज का नाम एक अद्वितीय स्थान का अधिकारी है। उत्तरी भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट् के रूप में उसकी स्मृति लोकगाथाओं से समलंकृत की गई है और इसने लोकगीतों को विषय प्रदान किया है। चन्दबरदाई नामक सुप्रसिद्ध कवि ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराजरासो में उसे अमर बना दिया है, परन्तु जिस रूप में यह पुस्तक उपलब्ध है, उस रूप में इसे उसके जीवन का समकालीन और प्रामाणिक विवरण-ग्रन्थ नहीं माना जा सकता। उसके जीवनचरित् से सम्बन्धित एक अन्य ग्रन्थ है जिसका नाम पृथ्वीराजविजय है। यह प्राचीनतर और अधिक विश्वसनीय ग्रन्थ है। परन्तु इसका कुछ ही अंश अभी तक प्रकाश में आया है। मुस्लिम इतिहासकारों ने भी पृथ्वीराज-तृतीय के विषय में अपने विवरण दिये हैं।
पृथ्वीराज-तृतीय एक महान् विजेता और रणबांकुरा सेनानायक था। परमाल नामक चन्देल राजा को उसने पराजित किया और उसने 1182 ई. में उसकी राजधानी महोबा छीन ली। चन्देल-नरेश के ऊपर पृथ्वीराज चौहान की विजय का एक अभिलेखिक साक्ष्य भी प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह महोबा पर अधिक समय तक अधिकार न रख सका।
मुख्यतः इस बात पर पृथ्वीराज का यश अवलम्बित है कि उसने मुस्लिम आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया, यद्यपि देश में राष्ट्रीयता की भावना के अभाव और अपनी ही राजनैतिक अदूरदर्शिता के कारण वह दुबारा इस आक्रमण के सामने ठहर न सका। मुहम्मद गोरी ने पंजाब को विजित कर लेने के उपरान्त, पृथ्वीराज चौहान के पास यह सन्देश भिजवाया कि वह चौहान राजा के साथ मित्रता करना चाहता है। परन्तु पृथ्वीराज ने, जो इस समय यौवन की स्फूर्ति और साहसिकता से उद्वेलित हो रहा था, न केवल गोरी के प्रस्ताव को घृणापूर्वक ठुकरा दिया, वरन् वह मुहम्मद गोरी से मोर्चा लेने के लिए आगे बढ़ा। मन्त्री के परामर्श को मानकर वह चुपचाप गोरी के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगा। जब मोहम्मद गोरी, पृथ्वीराज के राज्य की सीमा में प्रविष्ट होकत उसकी प्रजा को संत्रस्त और उत्पीडित करने लगा तो चाहमान-राजा एक विशाल सेना लेकर उसका सामना करने के लिए आगे बाधा। तारें के मैदान में दोनों सेनाओं की मुटभेड़ हुई औरर एक भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में मुसलमानों के छक्के छूट गए और वे भाग खड़े हुए। गोरी बड़ी कठिनाई से अपने कुछ विश्वासपात्र सरदारों के साथ प्राण लेकर रणक्षेत्र से भाग निकला। भुजते हुए प्रदीप की अंतिम प्रभापूर्ण शिखा की भांति हिंडौन की यह अंतिम महँ सैनिक सफलता थी।
परन्तु इस गहरी पराजय से गोरी तनिक भी हतोत्साह नहीं हुआ, वरन अपनी इस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए वह दिन-रात बेचैन रहने लगा। मध्य एशिया के पहाड़ी लड़ाकुओं की एक विशाल सेना एकत्र कर गोरी ने पुनः अगले ही वर्ष पृथ्वीराज पर आक्रमण कर दिया। वीरतापूर्वक राजपूत सैनिकों ने युद्ध किया परन्तु अन्त में उनको पराजय ही का मुख देखना पड़ा। इस युद्ध में अनेक वीर राजपूत सरदार दिवंगत हुए। स्वयं पृथ्वीराज भी बन्दी बना लिया गया और उसे तलवार के घाट उतार दिया गया। शाकम्भरी और अजमेर के राज्य पर गोरी ने अपना अधिकार जमा लिया।
मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद उसके पुत्र को अजमेर के सिंहासन पर बैठा दिया और उसे वार्षिक कर भेजने के लिए विवश किया। परन्तु कुछ ही समय के बाद अपने चाचा के कारण उसे अजमेर छोड़कर रणथम्भोर चले जाना पड़ा। पृथ्वीराज के पुत्र ने रणथम्भौर में अपने एक नये राजकुल की स्थापना की जिसका अन्त अलाउद्दीन खिलजी ने सन् 1301 में किया। इधर कुतुबुद्दीन ने हरिराज को पराजित कर चौहान वंश का अन्त कर दिया।