1857 का विद्रोह Revolt of 1857
आधुनिक भारत के इतिह्रास में 1857 ई. अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है, क्योंकि इसी वर्ष से भारतीय स्वाधीनता संग्राम की शुरूआत मानी जाती है।
तात्कालिक कारण
1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारण सैनिक थे। कम्पनी ने भारतीयों के प्रति जो भेदभाव की नीति रखी थी, उसका सर्वाधिक स्पष्ट रूप सेना में था। कारण, उसी में भारतीयों के रोजगार मिलने की सर्वाधिक संभावना थी। परन्तु, भारतीय सैनिकों के साथ बड़ा ही बुरा बर्ताव होता था। इस कारण 1765 में बंगाल में, 1806 में वेल्लूर में, 1824 में बैरकपुर में और अन्यत्र भी सेना में विद्रोह होते रहे।
भारतीय सैनिकों द्वारा कितनी भी योग्यता या बहादुरी दिखाने पर भारतीयों को ‘जमादार’ से ऊंची पदोन्नति नहीं मिलती थी। भारतीय सैनिकों के वेतन, भते आदि भी अंग्रेजों की तुलना में बहुत कम थे। साथ ही; खान-पान, रहन-सहन एवं व्यवहार में भी भारतीयों के साथ भेदभाव बरता जाता था। सेना में भी पादरी ईसाई-धर्म के प्रचार के लिए आते रहते थे। फिर, कम्पनी की नीति से जिस प्रकार भारतीय कृषि-अर्थव्यवस्था कुप्रभावित हो रही थी, उससे सैनिकों पर भी असर पड़ता था, क्योंकि, उस समय सैनिकों की आय उतनी नहीं थी कि उसकी आय से ही सारे परिवार के लोगों का पेट भर सके अर्थात् कृषि ही उसकी आवश्यकताओं को पूरा करती थी। वस्तुतः, सैनिक भी वर्दीधारी किसान’ ही थे, जिस पर लगान का समान बोझ पड़ता था। इतना तक भारतीय सैनिकों ने बरदाश्त किया। पर, जब उनकी धार्मिक भावना पर चोट की गई, तब उन्होंने व्यापक विद्रोह कर दिया।
लॉर्ड केनिंग के समय 1856 में द जेनरल सर्विस इनलिस्टमेण्ट एक्ट के अनुसार यह घोषणा की गई कि भारतीय सैनिकों को युद्ध के लिए समुद्र पारकर विदेश भी जाना होगा। भारतीय समुद्र-यात्रा को पाप समझते थे। वे इसका विरोध कर ही रहे थे की कंपनी की सेना में एक नई एनफील्ड नामक राइफल आई, जिसमे गोली लगाने से पहले कारतूस को मुंह से खोलना पड़ता था और कारतूस में चर्बी चढ़ी होती थी। मन जाता है इन कारतूसों में गायों व सूअरों की चर्बी का प्रयोग किया गया था। सैनिकों को जैसे ही इस बात का पता चला, उनका क्षोभ सीमा पार कर गया।
सबसे पहले बैरकपुर छावनी में मंगल पांडेय ने 29 मार्च, 1857 को ऐसी कारतूस के प्रयोग का विरोध किया। उसने काफी उत्पात मचाया-8 अप्रेल, 1857 को उसे फांसी दे दी गई। 6 मई को सैनिकों ने फिर विरोध किया। अब कम्पनी ने भारतीय सैनिकों दी जाने लगी और उन्हें बड़ी संख्या में कैद किया जाने लगा। अंत में, 10 मई, 1857 को सैनिकों ने व्यापक स्तर पर विरोध कर विद्रोह की घोषणा कर दी और क्रांति की शुरुआत हो गई।
क्रांति का संगठन, उद्देश्य और समय
संगठन
1857 की क्रांति के संबंध में यह कहा जाता है कि इसमें संगठन का अभाव था। इस क्रांति के लिए उद्देश्य, निश्चित समय, प्रचार, तैयारी, एकता, नेतृत्व से लेकर गांवों तक सम्प्रेषित किया गया था। संवाद प्रेषण के लिए कमल आदि प्रतीकों का प्रयोग किया गया था।
उद्देश्य
1857 की क्रांति का उद्देश्य निश्चित और स्पष्ट था। अंग्रेजों को देश से निकालना और भारत को स्वाधीन कराना क्रांतिकारियों का अंतिम लक्ष्य था । यह कहना कि इस क्रांति में भाग लेने वाले सैनिकों, जमींदारों या छोटे-मोटे शासकों के निजी हित थे, क्रांति के महत्त्व को कम करने की कोशिश है। वस्तुतः यह विद्रोह एकता पर आधारित और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध था।
समय
सम्पूर्ण देश में क्रांति की शुरूआत का एक ही समय निर्धारित किया गया था और वह था 31 मई 1857 का दिन । जे.सी. विल्सन ने इस तथ्य को स्वीकार किया था और कहा था कि प्राप्य प्रमाणों से मुझे पूर्ण विश्वास हो चुका है कि एक साथ विद्रोह करने के लिए 31 मई, 1857 का दिन चुना गया था। यह संभव है कि कुछ क्षेत्रों में विद्रोह का सूत्रपात निश्चित समय के बाद हुआ हो । किन्तु, इस आधार पर यह आक्षेप नहीं किया जा सकता कि 1857 की क्रांति के सूत्रपात के लिए कोई निश्चित समय निर्धारित नहीं किया गया था।
क्रांति की शुरूआत
1857 की क्रांति का सूत्रपात मेरठ छावनी के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिक मंगल पाण्डे ने किया। 29 मार्च, 1857 को नए कारतूसों के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पाण्डे ने आवाज उठायी। ध्यातव्य है कि अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सेना के उपयोग के लिए जिन नए कारतूसों को उपलब्ध कराया था, उनमें सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग किया गया था। छावनी के भीतर मंगल पाण्डे को पकड़ने के लिए जो अंग्रेज अधिकारी आगे बढ़े, उसे मौत के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दी गई। उसे दी गई फांसी की सजा की खबर सुनकर सम्पूर्ण देश में क्रांति का माहौल स्थापित हो गया।
6 मई, 1857 को भारतीय सैनिकों ने फिर नए कारतूसों के प्रयोग का विरोध किया। विरोध करने वाले सेनिकों को दस वर्षों के कैद की सजा मिली। सैनिकों से हथियार छीन लिए गए। हथियार छीने जाने को मेरठ में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी अपमान का विषय समझा। ऐसी स्थिति में सैनिकों के लिए अंग्रेजों से बदला लेना परम कर्त्तव्य हो गया। मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 ई. को ही कर दिया। मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली आकर क्रांतिकारी सेनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी।
एकता का प्रदर्शन
1857 की क्रांति में हिन्दू और मुसलमानों ने एक साथ मिलकर भाग लिया। क्रांति ने एक-दूसरे का पूरा साथ दिया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के विरोध में कारण यह था कि अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति को हिन्दुओं और मुसलमानों को तोड़ने में लागू नहीं किया था। फिर, अंग्रेजी सरकार ने जिस नए कारतूस को भारतीय सैनिकों के प्रयोग के लिए दिया था, उसमें गाय और सूअर की चर्बों का उपयोग किया गया था। इससे दोन धर्मों के सैनिकों ने अंग्रेजी सरकार का विरोध किया।
क्रांति का दमन
क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश सरकार ने निर्ममतापूर्ण दमन की नीति अपनायी। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं। जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था। निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई। दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेने के बाद नरसंहार शुरू हो गया था। फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी । सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अनेकों को तोप के मुंह पर लगाकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया।
अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, और उसके पुत्रों की हत्या करवादी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी-खीर ही साबित होता। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था।
क्रांति की असफलता के कारण
क्रांतिकारियों ने जिस उद्देश्य से 1857 की क्रांति का सूत्रपात किया था, उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्होंने सोचा था कि अंग्रेजों को बाहर खदेड़ कर भारत की स्वाधीन कर देंगे। परन्तु, क्रांति के दमन के बाद अंग्रेजों ने ऐसी नीति अपनायी कि 90 और वर्षों तक भारतीयों को गुलाम बनाए रखने में सफल रहे। इस महान् क्रांति की असफलता के अनेक कारण थे, जिनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
निश्चित समय की प्रतीक्षा न करना
1857 की क्रांति की देशव्यापी शुरूआत के लिए 31 मई 1857 का दिन निर्धारित किया गया था। एक ही दिन क्रांति शुरू होने पर उसका व्यापक प्रभाव होता। परन्तु, सैनिकों ने आक्रोश में आकर निश्चित समय के पूर्व 10 मई, 1857 को ही विद्रोह कर दिया। सैनिकों की इस कार्यवाही के कारण क्रांति की योजना अधूरी रह गयी। निश्चित समय का पालन नहीं होने के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति की शुरूआत अलग-अलग दिनों में हुई। इससे अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का दमन करने में काफी सहायता हुई। अनेक स्थानों पर तो 31 मई की प्रतीक्षा कर रहे सैनिकों के हथियार छीन लिए गए। यदि सभी क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात एक साथ हुआ होता, तो तस्वीर कुछ और ही होती।
देशी राजाओं का देशद्रोही रूख
1857 की क्रांति का दमन करने में अनेक देशी राजाओं ने अंग्रेजों की खुलकर सहायता की। पटियाला, नाभा, जीद, अफगानिस्तान और नेपाल के राजाओं ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता के साथ-साथ आर्थिक सहायता भी की। देशी राजाओं की इस देशद्रोहितापूर्ण भूमिका ने क्रांतिकारियों का मनोबल तोड़ा और क्रांति के लिए अंग्रेजी सरकार को प्रोत्साहित किया।
साम्प्रदायिकता का खेल
1857 ई. की क्रांति के दौरान अंग्रेजी सरकार हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाने में तो सफलता प्राप्त नहीं कर सकी, परन्तु आंशिक रूप से ही सही साम्प्रदायिकता का खेल खेलने में सफल रही। साम्प्रदायिक भावनाओं को उभर कर ही अंग्रेजी सरकार ने सिक्ख रेजिमेंट और मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। मराठों, सिक्खों और गोरखों को बहादुरशाह के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। उन्हें यह महसूस कराया गया कि बहादुरशाह के हाथों में फिर से सत्ता आ जाने पर हिन्दुओं और सिक्खों के अत्याचार होगा। इसका मूल कारण था कि सम्पूर्ण पंजाब में बादशाह के नाम झूठा फरमान अंग्रेजों की ओर से जारी किया गया, जिसमें कहा गया था कि लड़ाई में जीत मिलते ही प्रत्येक सिक्ख का वध कर दिया जाएगा। सैनिकों के साथ-साथ जनसाधारण को ही गुमराह किया गया। इस स्थिति में क्रांति का असफल हो जाना निश्चित हो गया। जब देश के भीतर देशवासी ही पूर्ण सहयोग न दें, तो कोई भी क्रांति सफलता प्राप्त नहीं कर सकती।
सम्पूर्ण देश में प्रसारित न होना
1857 ई. की क्रांति का प्रसार सम्पूर्ण भारत में नहीं हो सका था। सम्पूर्ण दक्षिण भारत और पंजाब का अधिकांश हिस्सा इस क्रांति से अछूता रहा। यदि इन क्षेत्रों में क्रांति का विस्तार हुआ होता, तो अंग्रेजों को अपनी शक्ति को इधर भी फैलाना पड़ता और वे पंजाब रेजिमेण्ट तथा मद्रास के सैनिकों को अपने पक्ष में करने में असफल रहते।
शस्त्रास्त्रों का अभाव
क्रांति का सूत्रपात तो कर दिया गया, किन्तु आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण क्रांतिकारी आधुनिक शस्त्रास्त्रों का प्रबंध करने में असफल रहे। अंग्रेजी सेना ने तोपों और लम्बी दूरी तक मार करने वाली बंदूकों का प्रयोग किया, जबकि क्रांतिकारियों को तलवारों और भालों का सहारा लेना पड़ा। इसलिए, क्रांति को कुचलने में अंग्रेजों को सफलता प्राप्त हुई।
सहायक साधनों का अभाव
सत्ताधारी होने के कारण रेल, डाक, तार एवं परिवहन तथा संचार के अन्य सभी साधन अंग्रेजों के अधीन थे। इसलिए, इन साधनों का उन्होंने पूरा उपयोग किया। दूसरी ओर, भारतीय क्रांतिकारियों के पास इन साधनों का पूर्ण अभाव था। क्रांतिकारी अपना संदेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक शीघ्र भेजने में असफल रहे। सूचना के अभाव के कारण क्रांतिकारी संगठित होकर अभियान बनाने में असफल रहे। इसका पूरा-पूरा फायदा अंग्रेजों को मिला और अलग-अलग क्षेत्रों में क्रांति को क्रमशः कुचल दिया गया।
सैनिक संख्या में अंतर
एक तो विद्रोह करने वाले भारतीय सैनिकों की संख्या वैसे ही कम थी, दूसरे अंग्रेजी सरकार द्वारा बाहर से भी अतिरिक्त सैनिक मंगवा लिया गया था। उस समय कम्पनी के पास वैसे 96,000 सैनिक थे। इसके अतिरिक्त देशी रियासतों के सैनिकों से भी अंग्रेजों को सहयोग मिला। अंग्रेज सैनिकों को अच्छी सैनिक शिक्षा मिली थी और उनके पास अधुनातन शस्त्रास्त्र थे, परन्तु अपने परंपरागत हथियारों के साथ ही भारतीय क्रांतिकारियों ने जिस संघर्ष क्षमता का परिचय दिया, उससे कई स्थलों पर अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गए। फिर भी, अंततः सफलता अंग्रेजों के हाथों ही लगी।
क्रांति के परिणाम
1857 ई. की क्रांति अपने तत्कालीन लक्ष्य की दृष्टि से असफल रही, परन्तु इस क्रांति ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इस क्रांति के परिणाम अच्छे और बुरे दोनों हुए। क्रांति का परिणाम अंग्रेजों और भारतीयों के लिए अलग-अलग हुआ।
1857 ई. की क्रांति के जो परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गए, उनमें प्रमुख हैं-
सत्ता का हस्तांतरणः क्रांति के बाद भारत में सत्ता ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकलकर ब्रिटिश सरकार के हाथों में चली गयी। इसके लिए भारत शासन अधिनियम, 1858 पारित हुआ । अब भारत का शासन प्रत्यक्षतः ब्रिटिश नीति से होने लगा। ऐसा करने से कम्पनी द्वारा शासन-व्यवस्था के लिए संगठित बोर्ड ऑफ कंट्रोल, द कोर्ट ऑफ प्रोपराइट्स तथा द कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का विघटन हो गया। इनके स्थान पर द सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया (भारत सचिव) के रूप में नए पद का सृजन किया गया। इस सचिव की सहायता के लिए इंग्लैंड में एक परिषद का भी गठन किया गया। अब भारत का गवर्नर जनरल ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधि बन गया और इसे वायसराय कहा जाने लगा। ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने भारत में अच्छे शासन-प्रबंध की स्थापना के लिए कदम उठाए जाने की घोषणा की। महारानी की इस घोषणा से भारतीयों का रोष एवं असंतोष कुछ समयों के लिए ठंढा पड़ गया।
सतर्कता में वृद्धि
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने सेना और सैन्य सामग्रियों पर एकाधिकार कर लिया, जिससे भविष्य में भारतीय सैनिकों की ओर से उनके लिए कोई खतरा न उत्पन्न हो । इस समय से यह भी निश्चय किया गया कि किसी भी भारतीय को उच्च सैनिक पद प्रदान नहीं किया जाएगा। अंग्रेजों को इस नीति को क्रियान्वित करने से काफी समय तक सुरक्षित रहने का अवसर प्राप्त हुआ।
शस्त्रास्त्र पर प्रतिबंध
अंग्रेजी सरकार ने भारत की साधारण जनता के बीच अस्त्र-शस्त्र रखने की मनाही कर दी। इससे भारतीयों की आक्रामक शक्ति को पूर्ण रूप से पंगु बना दिया गया। दुर्भाग्यवश भारत के धन से अंग्रेजी सरकार की सेना अधुनातन शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित हो गई और भारत का जनसाधारण अपनी आत्मसुरक्षा के लिए पारम्परिक शस्त्रास्त्रों को रखने से भी वंचित हो गया।
देशी राजाओं से मित्रता
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने देशी राजाओं के साथ फिर से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किए। देशी राजाओं के साथ विरोध की नीति अपनाने की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। आगे फिर कोई करने और इसका लाभ उठाने का मार्ग अपनाया। इसी नीति को ध्यान में रखकर ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने 1 नवम्बर, 1858 को देशी राजाओं का पूर्ण सम्मान किए जाने की घोषणा की।
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में वृद्धि
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने ऐसी शिक्षा-पद्धति को लागू किए जाने को प्रोत्साहित किया, जिससे भारतीय अपने धर्म और संस्कृति को भूल जाएं तथा पाश्चात्य संस्कृति की ओर आकृष्ट हों। पाश्चात्य देशों के वैचारिक आंदोलन से भारत के लोगों को नयी प्रेरणा मिली तथा वे लाभान्वित भी हुए, पर उन देशों की आडम्बरपूर्ण जीवन-पद्धति से भारतीयों का चरित्र-बल भी समाप्त होने लगा। भारत के लोगों के साथ ऐसा होना अंग्रेजों के लिए सुखदायक था।
भारतीयों से दूरी में वृद्धि
अंग्रेजों ने भारत में आरम्भ से गोरे और काले के आधार पर श्रेष्ठता और हीनता की भावना फैला रखी थी। 1857 की क्रांति के बाद तो प्रत्येक अंग्रेज भारतीयों से सावधान और अलग-थलग रहने लगा। अंग्रेजों को ऐसा महसूस होने लगा कि भारतीयों से दूरी बनाए रखना ही उनके हित में है, क्योंकि नजदीक आने से भारतीय अंग्रेजों के भेड़ों को जन लेंगें और उन्हें परेशान करने लगेंगे। क्रांति के दौरान अंग्रेज सतर्क हो गए और उस सतर्कता को उन्होंने लगभग हमेशा बनाए रखा।
सरकार की नीति में परिवर्तन
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के अंतिम दौर में भारत में कठोर एवं दमनात्मक नीति को अपनाया गया था। 1857 की क्रांति को देखकर अंग्रेजी सरकार भारतीयों के विचार पर भी ध्यान देने लगी। सरकार ऐसा अनुभव किया कि भारतीयों की पूर्णरूपेण उपेक्षा से परेशानियां बढ़ेगी। भारतीयों के हित में तो सरकार की ओर से कोई कदम नहीं उठाया गया, पर अनेक प्रकार के आश्वासन अवश्य दिए जाने लगे।
1857 की क्रांति के कुछ परिणाम भारतीयों के पक्ष में भी रहे। भारतीयों के पक्ष में जो सकारात्मक परिणाम सामने आए, वे हैं-
आत्मबल में वृद्धि
1857 की क्रांति अपने लक्ष्य को तत्काल प्राप्त करने में असमर्थ रही। परन्तु, इस क्रांति ने भारतीयों के आत्मबल में वृद्धि की और उनकी सुसुप्त चेतना को स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए जागृत किया। अब भारतीयों में जीवन का एकमात्र लक्ष्य बना लिया। इस समय से एक जागृत भारत का अभ्युदय हुआ।
राजनीतिक जागृति
लंबी पराधीनता और शासकों को अपराजेय मानने की धारणा ने भारतीयों में आलस्य भर दिया था। पराधीनता को भारतीयों ने अपनी नियति मान ली थी। परन्तु, 1857 की क्रांति ने भारतीयों के शीतित रक्त को फिर से खौला दिया। क्रांति के बाद भारतीयों को ऐसा महसूस हुआ कि जोर लगाने पर स्वशासन की प्राप्ति आसानी से हो सकती है।
संगठन की प्रेरणा
यद्यपि 1857 की क्रांति को संगठित स्वरूप प्रदान की पूर्ण कारण मनोवांछित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी थी। व्यापक संगठन के अभाव के कारण ही क्रांति को कुचल दिया गया था। इसलिए, इस क्रांति से आगे के क्रांतिकारियों को व्यापक संगठन की प्रेरणा प्राप्त हुई। 1857 ई. की क्रांति से प्रेरणा पाकर ही आगे के वर्षों में अनेक क्रांतिकारी आंदोलनों का संचालन संभव हो सका।
एकता की प्रेरणा
1857 की असफलता का कारण सम्पूर्ण भारतवासियों में एकता का अभाव भी था। सिक्ख और दक्षिण भारतीय क्रांति के विरुद्ध थे तथा अनेक देशी रियासतों के शासकों ने अंग्रेजों की सहायता की थी। जिन क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात हुआ, वहां भी सभी वर्गों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध नहीं किया। एकता ही राष्ट्रीयता का मूल मंत्र है- इस तथ्य की ओर भारतीयों का ध्यान क्रांति के असफल हो जाने के बाद गया। अब उन्होंने ऐसा महसूस किया कि एक साथ चलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है और लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
स्वतंत्रता आंदोलन की नयी दृष्टि
1857 की क्रांति का जिस निर्ममता के साथ अंग्रेजी सरकार ने दमन किया था, उससे उसका असली चेहरा भारतीयों के सामने उजागर हुआ। अंग्रेजों के क्रूरतापूर्ण व्यवहार को देखने के बाद भारतवासियों ने अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का संकल्प लिया। इस क्रांति से स्वतंत्रता आंदोलन को भविष्य में एक नयी दृष्टि मिली। विद्रोह के बदले असहयोग का मार्ग होता। शासन और शस्त्रास्त्र का नियंत्रण अंग्रेजी सरकार के हाथों में था और किसी भी प्रकार के विद्रोह का गला घोंट देने की क्षमता उसमें थी, इसलिए क्रांति के बाद विद्रोह का रास्ता छोड़ने की प्रेरणा मिली।
1857 का विद्रोह- स्वतंत्रता संघर्ष अथवा सैनिक विद्रोह?
वर्ष 1857 का विद्रोह शताब्दियों से शोषित, प्रताड़ित एवं उपेक्षित भारतीय जन-समूह की स्वतंत्रता प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा का प्रतीक है। 1857 ई. में हुए इस विद्रोह के सम्पूर्ण घटनाक्रम पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि यह एक राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत स्वतंत्रता संघर्ष था, परन्तु कुछ अंग्रेज इतिह्रासकारों और उनके समर्थक इतिह्रासकारों द्वारा इसे ‘सैनिक विद्रोह’ अथवा ‘गदर’ की संज्ञा प्रदान कर इसके महत्त्व को कम करने की कोशिश की जाती है।
फ्रेड राबर्ट्स, एडवर्ड्स टॉमप्सन विलियम, जी.टी. गैरेट, सर जॉन सिले, जेम्स आऊट्रम, विलियम हॉवर्ड रसेल, जी.बी. मैल्लेसन आदि पाश्चात्य इतिह्रासकारों के साथ-साथ रमेशचन्द्र मजूमदार, सुरेन्द्रनाथ सेन, हरिप्रसाद चट्टोपाध्याय, पूरनचंद जोशी आदि भृत्य इतिह्रास में 1857 के विद्रोह को सैनिकों द्वारा छोटे स्तर पर किए गए विद्रोह के रूप में व्याख्यायित करते हैं। इनका मानना है कि 1857 के विद्रोह में राष्ट्रीयता की भावना का सर्वथा अभाव था।
दूसरी ओर, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, विनायक दामोदर सावरकर, एस.ए.ए. रिजवी, बेंजामिन डिजरैली, जस्टिस मेकार्थी, जॉन ब्रूस नोर्टन, विपिनचंद्र आदि जैसे- इतिह्रासकार 1857 के विद्रोह को भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रथम संघर्ष की संज्ञा दी है। इनका मानना है कि वर्ष 1857 का आन्दोलन जन-जीवन से सम्पृक्त, भारत से विदेशी आततायियों को निकालने के उद्देश्य से संबद्ध तथा एक संगठित और सुनियोजित कार्यक्रम था।
1857 का संग्राम यदि सैनिक विद्रोह मात्र था, तो उसमें सिर्फ सैनिकों ने ही भाग क्यों नहीं लिया? मेरठ से उठी क्रांति की लहर ने दो दिनों के भीतर ही दिल्ली को भी अपनी चपेट में ले लिया। वस्तुतः, विद्रोह में ग्रामीण और शहरी जनता सम्मिलित थी। हां, क्रांति की शुरूआत सैनिकों ने की थी।
वर्ष 1857 के विप्लव में क्रुद्ध सिपाहियों के साथ-साथ अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध जनसाधारण ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। इसलिए, इसे मात्र ‘सैनिक विद्रोह’ की संज्ञा देना युक्तिसंगत नहीं है। डॉ. आर.सी. मजूमदार का यह कहना कि “तथाकथितं 1857 का प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था” सर्वथा अतिशयोक्तिपूर्ण और सत्यता से परे है। स्वतंत्रता की भावना से उद्वेलित हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों का सम्मिलित होकर विदेशियों को अपने देश से निकालने का पहला प्रयास 1857 ई. में ही हुआ। इसलिए, 1857 की क्रांति को भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम का प्रथम उद्घोष कहना सर्वथा युक्तिसंगत है।