क्रांतिकारी दर्शन का प्रतिपादन Rendering of The Revolutionary Philosophy

भगत सिंह तथा उनके क्रांतिकारी सहयोगियों ने पहली बार ‘क्रांतिकारी संघर्ष के तरीके एवं क्रांति के लक्ष्य’ के रूप में क्रांतिकारियों के समक्ष क्रांतिकारी दर्शन को प्रस्तुत किया। वैसे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के भीतर काफी समय से इस मुद्दे पर विचार मंथन चल रहा था। अक्टूबर 1924 में एच.आर.ए. की संस्थापक परिषद ने जनता को सामाजिक, क्रांतिकारी और साम्यवादी सिद्धांतों की शिक्षा देने तथा उनका प्रचार-प्रसार करने का निर्णय लिया। 1925 में अपने घोषणापत्र में इसने कहा कि हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण करता है।

एच.आर.ए. के मुख्य अंग क्रांतिकारियों ने रेलवे तथा परिवहन के अन्य साधनों तथा इस्पात और जहाज निर्माण जैसे बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का भी प्रस्ताव रखा। एच.आर.ए. ने किसानों और मजदूरों का संगठन बनाने तथा ‘संगठित हथियारबंद क्रांति’ के लिए काम करने का भी निर्णय किया। अपने अंतिम वर्षों के दौरान (1920 के दशक के) ये क्रांतिकारी विनाशकारी तथा व्यक्तिगत आतंकवादी गतिविधियों से दूर होने लगे। तथा उनका झुकाव राजनीतिक जनांदोलन की तरफ होने लगा।

अपनी हिरासत की अवधि में रामप्रसाद बिस्मिल ने युवकों से अपील की कि वे पिस्तौल और रिवाल्चर का साथ छोड़ दें, क्रांतिकारी पड़यंत्रों में हिस्सा न लें और खुला आंदोलन चलायें। उन्होंने युवकों से हिन्दू-मुस्लिम एकता बनाये रखने तथा सभी राजनीतिक दलों से कांग्रेस के नेतृत्व में एक होने की भी अपील की। बिस्मिल ने साम्यवाद में अपनी आस्था व्यक्त की तथा इस सिद्धांत का समर्थन किया कि ‘प्रकृति की संपदा पर प्रत्येक इंसान का बराबर का अधिकार है’।

चन्द्रशेखर आजाद के अनुरोध पर भगवती चरण वोहरा ने द फिलॉसफी आफ द बॉम्ब‘ (बम का दर्शन) नामक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की। इसमें क्रांतिकारियों की ओर से जारी वह दस्तावेज या बयान था, जो उन्होंने जनता को अपनी विचारधारा से अवगत कराने हेतु जारी किया था।

यहां तक कि अपनी गिरफ्तारी से पहले भगत सिंह का भी उग्रवाद तथा व्यक्तिगत आतंकवादी कार्यवाइयों से विश्वास उठ चुका था तथा वे मार्क्सवाद में विश्वास करने लगे थे। उनका मानना था कि व्यापक जनांदोलन ही सफल क्रांति लाने का एकमात्र तरीका है। दूसरे शब्दों में क्रांति का तात्पर्य है- जनता के द्वारा, जनता के लिये। इसी उद्देश्य से भगत सिंह ने 1926 में पंजाब में क्रांतिकारियों के खुले संगठन भारत नौजवान सभा के गठन में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया। इसके गठन में उनकी प्रमुख भूमिका थी। भगत सिंह इस सभा के संस्थापक महामंत्री थे। भारत नौजवान सभा का उद्देश्य- युवकों, मजदूरों तथा किसानों के मध्य राजनीतिक कार्य करना, उन्हें संगठित करना तथा गांवों में सभा की शाखायें खोलना था। भगत सिंह तथा सुखदेव ने छात्रों के मध्य खुले तौर पर संवैधानिक कार्य करने हेतु लाहौर छात्र संघ का भी गठन किया। भगत सिंह तथा उनके कामरेड साथियों ने यह भी महसूस किया कि क्रांति का तात्पर्य है क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में समाज के दलित, शोषित व गरीब तबके के जनआंदोलन का विकास। भगत सिंह कहा करते थे गांव एवं कारखाने ही वास्तविक क्रांतिकारी सेनायें हैं

किन्तु प्रश्न उठता है कि फिर क्रांतिकारी, व्यक्तिगत आतंकवादी कार्रवाइयां क्यों करते थे? इसके दो कारण थे- प्रथम, उनके विचारों में लगातार तीव्र परिवर्तन। अतीत उनके वर्तमान का एक हिस्सा था। जो उपलब्धि दशकों में हासिल हो सकती थी, उसे वे थोड़े ही वर्षों में हासिल करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त नयी विचारधारा की जनसामान्य में प्रभावी पैठ एक लंबी तथा ऐतिहासिक प्रक्रिया है। दूसरा, ये लोग इस उलझन में थे कि जनता को प्रभावित करने तथा नये समर्पित कार्यकर्ताओं को भर्ती करने के लिये कौन-सा तरीका अपनाया जाये। वे अपनी गतिविधियों को कांग्रेस की धीमी, बौद्धिक एवं राजनीतिक गतिविधियों से तेज भी करना चाहते थे। अतः इन्हीं सब कारणों से अंततः उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि बलिदान देकर ही युवाओं को प्रोत्साहित किया जा सकता है। उनका मानना था कि कुछ चमत्कारिक एवं बहादुरीपूर्ण कार्यवाहियां कैडरों को तैयार किया जा सकता है।

क्रांति की पुनार्व्यख्या


भगत सिंह व उनके कामरेड साथियों ने क्रांति को व्यापक ढंग से परिभाषित किया। अब क्रांति का तात्पर्य हिंसा या लड़ाकूपन ही नहीं था। इसका पहला उद्देश्य था- राष्ट्रीय स्वतंत्रता की स्थापना के लिये साम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ फेंकना तथा समाजवादी समाज की स्थापना करना। समाजवादी समाज का तात्पर्य ऐसे समाज से था जहां ‘व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण न हो’। एसेंबली बम कांड में भगत सिंह ने अदालत में कहा था कि क्रांति के लिये रक्तरंजित संघर्ष आवश्यक नहीं है व्यक्तिगत बैर के लिए भी उसमें कोई जगह नहीं है। यह पिस्तौल और बम की उपासना नहीं है। क्रांति से हमारा आशय यह है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था समाप्त होनी चाहिये।

भगतसिंह का मार्क्सवाद तथा समाज के संबंध में मार्क्स की वर्गीय अवधारणा में पूर्ण विश्वास था। उन्होंने कहा कि किसानों को सिर्फ विदेशी शोषणकर्ताओं से ही मुक्ति नहीं पानी है बल्कि उन्हें पूंजीपतियों और जमीदारों के चंगुल से भी मुक्त होना है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘भारत में संघर्ष तब तक जारी रहेगा, जब तक मुट्टीभर शोषणकर्ता अपने हितों की पूर्ति के लिये सामान्य जनता के श्रम का शोषण करते रहेंगे’। इस बात का कोई विशेष महत्व नहीं है कि शोषणकर्ता अंग्रेज पूंजीपति हैं या भारतीयों और अंग्रेजों का गठबंधन है या पूरी तरह भारतीय हैं। उन्होंने समाजवाद की वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया- जिसका अर्थ था पूंजीवाद तथा वर्ग-प्रभुत्व का पूरी तरह अंत।

भगत सिंह एक जागरुक तथा धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी थे। नोजवान भारत सभा के 6 नियमों में से (जिन्हें भगत सिंह ने बनाया था) दो के अनुसार-इस सभा के सदस्य किसी ऐसी संस्था, संगठन या पार्टी से किसी तरह का संबंध नहीं रखेंगे जो साम्प्रदायिकता का प्रचार करती हो। साथ ही वे धर्म को जनता का व्यक्तिगत मामला मानते हुये जनता के मध्य सहनशीलता की भावना पैदा करने का प्रयास करेंगे। भगत सिंह ने जनता को अंधविश्वास तथा धर्म की जकड़न से मुक्त करने पर बहुत जोर दिया। उन्होंने धर्म एवं धार्मिक दर्शन की भी आलोचना की तथा नास्तिकता का मार्ग अपनाया। भगवान के अस्तित्व में भी उनकी आस्था खत्म गयी। उन्होंने घोषित किया कि ‘प्रगति के लिए संघर्षरत प्रत्येक व्यक्ति को अंधविश्वासों को आलोचना करनी ही पड़ेगी’। प्रचलित मान्यताओं की प्रत्येक व्यवस्था को प्रासंगिकता एवं सत्यता की कसौटी पर खरा उतरना होगा।

बंगाल में नये आतंकवादी आंदोलन की विशेषतायें

इसके उल्लेखनीय तथ्य निम्नानुसार हैं-

इसकी सबसे प्रमुख विशेषता, इसमें बड़े पैमाने पर युवतियों की भागीदारी थी। सूर्यसेन के नेतृत्व में ये महिलायें क्रांतिकारियों को शरण देने, संदेश पहुंचाने तथा बंदूक लेकर लड़ने का काम करती थीं। इस काल में बंगाल की प्रमुख महिला क्रांतिकारियों में प्रीतिलता वाडेदार, जिन्होंने पहाड़तली (चटगांव) के रेलवे इंस्टिट्यूट में छापा मारा और शहीद हो गयीं तथा कल्पना दत्त, जिन्हें गिरफ्तार कर सूर्यसेन के साथ आजीवन कारावास की सजा दी गयी, सबसे प्रमुख थीं।

दिसम्बर 1931 में कोमिल्ला की दो स्कूली छात्राओं- सुनीति चौधरी और शांति घोष ने एक जिलाधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी। फरवरी 1932 में बीनादास ने उपाधि वितरण हेतु आयोजित दीक्षांत समारोह में गवर्नर पर नजदीक से गोली चलायी।

इस चरण में व्यक्तिगत आतंकवादी कार्रवाइयों के स्थान पर उपनिवेशी शासन के महत्वपूर्ण अंगों पर सामूहिक हमले को ज्यादा महत्व दिया गया। इसका उद्देश्य युवाओं के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करना तथा नौकरशाही का मनोबल कम करना था।

क्रांतिकारियों की हिन्दू धर्मपरायणता अब कम होने लगी तथा उन्होंने धर्म के नाम पर शपथ लेना बंद कर दिया। मुसलमानों को भी क्रांतिकारी संगठनों में प्रवेश दिया जाने लगा। चटगांव की इंडियन रिपब्लिकन आर्मी (आई.आर.ए.) में अनेक मुसलमान थे। जैसे-सत्तार, फकीर अहमद मियां, मीर अहमद, तूनू मियां इत्यादि।

कुछ खामियां

  1. आंदोलन में कुछ विवादास्पद तत्व थे।
  2. ये संगठन सामाजिक रूढ़िवादी तत्वों से बिल्कुल मुक्त नहीं थे।
  3. ये व्यापक सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य निर्धारित करने में असफल रहे।

स्वराज्य पार्टी से आये क्रांतिकारी आतंकवादियों ने तो जमींदारों के विरुद्ध मुसलमान कृषक मजदूरों के संघर्ष का समर्थन तक नहीं किया।

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