रजिया: 1236-1240 ई. Razia Sultan: 1236-1240 AD.
इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नासिरुद्दीन मुहम्मद की 1229 ई. की अप्रैल में मृत्यु हो गयी। वह अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के योग्य नहीं थे। अत: इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु-शैय्या पर से अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया। परन्तु उसके दरबार के सरदार एक स्त्री के समक्ष नतमस्तक होना अपने अहंकार के विरुद्ध समझते थे। उन लोगों ने मृतक सुल्तान की इच्छाओं का उल्लंघन कर, उसके सबसे बड़े जीवित पुत्र रुक्नुद्दीन फ़िरोज को, जो अपने पिता के जीवन काल में बदायूं तथा कुछ वर्ष बाद लाहौर का शासक रह चुका था, सिंहासन पर बैठा दिया। रुक्नुद्दीन शासन के बिलकुल अयोग्य था। वह नीच रुचि का था, राजकाज की उपेक्षा करता था और राज्य के धन का अपव्यय करता था। उसकी माँ शाह तुर्खान के, जो एक निम्न उद्भव की महत्त्वकांक्षापूर्ण महिला थी, कामों से बातें बिगड़ती ही जा रही थीं। उसने सारी शक्ति को अपने अधिकार में कर लिया, जबकि उसका पुत्र भोग-विलास में डूबा रहता था। सारे राज्य में गड़बड़ी फैल गयी। बदायूँ, मुलतान, हाँसी, लाहौर, अवध एवं बगाल में केन्द्रीय सरकार के अधिकार का तिरस्कार होने लगा। दिल्ली के सरदारों ने, जो राजमाता के अनावश्यक प्रभाव के कारण असन्तोष से उबल रहे थे, उसे बन्दी बना लिया तथा रज़िया को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया। रुक्नुद्दीन फिरोज को, जिसने लोखरी में शरण ली थी, कारावास में डाल दिया गया, जहाँ 1236 ई. में 9 नवम्बर को उसके जीवन का अन्त हो गया। परन्तु रज़िया में शासकोचित गुणों का अभाव नहीं था। उसने चतुराई एवं उच्चतर कूटनीति से शीघ्र ही अपने शत्रुओं को परास्त कर दिया। हिन्दुस्तान (उत्तरी भारत) एवं पंजाब पर उसका अधिकार स्थापित हो गया तथा बंगाल एवं सिन्ध के सुदूरवर्ती प्रान्तों के शासकों ने भी उसका अधिपत्य स्वीकार कर लिया।
फिर भी उसके भाग्य में शान्तिपूर्ण शासन नहीं बदा था। वह अबीसीनिया के एक दास जलालुद्दीन याकूत के प्रति अनुचित कृपा दिखलाने लगी तथा उसने उसे अश्वशालाध्यक्ष का ऊँचा पद दे दिया। इससे क्रुद्ध होकर तुर्की सरदार एक छोटे संघ में संगठित हुए। सबसे पहले सरहिन्द के शासक इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया ने तौर पर विद्रोह किया, जिसे दरबार के कुछ सरदार गुप्त रूप से उभाड़ रहे थे। बेगम एक बड़ी सेना लेकर विद्रोह का दमन करने चली, परन्तु इस युद्ध में विद्रोही सरदारों ने याकूत को मार डाला तथा बेगम को कैद कर लिया। वह अल्तूनिया के संरक्षण में रख दी गयी तथा उसका (रज़िया का) भाई मुइजुद्दीन बहराम दिल्ली का सुल्तान घोषित किया गया। रजूिया ने अल्तूनिया से विवाह कर इस विकट परिस्थिति से छुटकारा पाने का प्रयत्न किया, परन्तु यह व्यर्थ सिद्ध हुआ। वह अपने पति के साथ दिल्ली की ओर बढ़ी, लेकिन कैथल के निकट पहुँचकर अल्तूनिया के समर्थकों ने उसका साथ छोड़ दिया तथा 13 अक्तूबर, 1240 ई. को मुइजुद्दीन बहराम ने उसे पराजित कर दिया। दूसरे दिन पति के साथ उसकी हत्या कर दी गयी। इस तरह तीन वर्ष तथा कुछ महीनों के राज्य-काल के बाद रज़िया बेगम के कष्टपूर्वक जीवन का अंत हुआ।
रज़िया की मृत्यु के पश्चात् कुछ काल तक अव्यवस्था एवं गड़बड़ी फैली रही। दिल्ली की गद्दी पर उसके उत्तराधिकारी मुइजुद्दीन वहराम शाह (1240-42 ई.) तथा अलाउद्दीन मसूद शाह (1242-46 ई.) गुणहीन एवं अयोग्य थे तथा उनके छः वर्षों के शासन-काल में देश में शान्ति एवं स्थिरता का नाम भी न रहा। बाहरी आक्रमणों से हिन्दुस्तान (उत्तरी भारत) का दु:ख और भी बढ़ गया। बहराम शाह के समय, नयाब-ए-ममलिकात के पद का सृजन हुआ और इस पद पर प्रथम व्यक्ति एखतियारूद्दीन एतिगीन नियुक्त हुआ। इसी के समय मिन्हान उस सिराज ने तबकात-ए-नासिरी लिखा। 1241 ई. में मंगोल पंजाब के मध्य में पहुँच गये तथा लाहौर का सुन्दर नगर उनके निर्मम पंजे में पड़ गया। 1245 ई. में वे उच्च तक बढ़ आये। लेकिन उनकी बड़ी क्षति हुई और उन्हें पीछे हटना पड़ा। मसूद शाह के शासन-काल के अन्तिम वर्षों में असंतोष अधिक प्रचंड एवं व्यापक हो गया। अमीरों तथा मलिकों ने 10 जून, 1246 ई. को इल्तुतमिश के एक कनिष्ठ पुत्र नासिरुद्दीन महमूद को सिंहासन पर बैठा दिया।