भारत छोड़ो आंदोलन Quit India Movement
क्रिप्स मिशन के उपरांत, गाँधीजि ने एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमे अंग्रेजों से तुरन्त भारत छोड़ने तथा जापानी आक्रमण होने पर भारतीयों से अहिंसक असहयोग का आहान किया गया था। कांग्रेस कार्यसमिति ने वर्धा की अपनी बैठक (4 जुलाई 1942) में संघर्ष के गांधीवादी प्रस्ताव को अपनी स्वीकृति दे दी।
संघर्ष क्यों अपरिहार्य हो गया, इसके कई कारण थे-
- संवैधानिक गतिरोध को हल करने में क्रिप्स मिशन की असफलता ने संवैधानिक विकास के मुद्दे पर ब्रिटेन के अपरिवर्तित रुख को उजागर कर दिया तथा यह बात स्पष्ट हो गयी कि भारतीयों की ज्यादा समय तक चुप्पी उनके भविष्य को ब्रिटेन के हाथों में सौंपने के समान होगी। इससे अंग्रेजों को भारतीयों से विचार-विमर्श किये बिना उनके भविष्य निर्धारण का अधिकार मिल जायेगा।
- मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि तथा चावल, नमक इत्यादि आवश्यक वस्तुओं के अभाव से सरकार के विरुद्ध जनता में तीव्र असंतोष था। सरकार ने बंगाल और उड़ीसा की नावों को जापानियों द्वारा दुरुपयोग किये जाने के भय से जब्त कर लिया था, जिससे स्थानीय लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। जापानी आक्रमण के भय से ब्रिटेन ने असम, बंगाल एवं उड़ीसा में दमनकारी एवं भेदभावपूर्ण भू-नीति का सहारा लिया।
- दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटेन की पराजय तथा शक्तिशाली ब्रिटेन के पतन के समाचार ने असंतोष की व्यक्त करने की इच्छाशक्ति भारतीयों में जगायी। ब्रिटिश शासन के स्थायित्व से लोगों की आस्था कम होने लगी तथा लोग डाकघरों एवं बैंकों से अपना रुपया वापस निकालने लगे।
- बर्मा और मलाया को खाली करने के ब्रिटिश सरकार के तौर-तरीकों से काफी असंतोष फैला। सरकार ने यूरोपीयों की बस्तियां खाली करा ली तथा स्थानीय निवासियों को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। यहां दो तरह की सड़कें बनायी गयीं- भारतीय शरणार्थियों के लिये काली सड़क तथा यूरोपीय शरणार्थियों के लिये सफेद सड़क। ब्रिटिश सरकार की इन हरकतों से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा की गहरा आघात लगा तथा उनकी सर्वश्रेष्ठता की मनोवृति उजागर हो गयी।
- निराशा के कारण जापानी आक्रमण का जनता द्वारा कोई प्रतिरोध न किये जाने की आशंका से राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं को संघर्ष प्रारम्भ करना अपरिहार्य लगने लगा।
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक- गवालिया टैंक, बम्बई (8 अगस्त 1942): इस बैठक में अंग्रेजो भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित किया गया तथा घोषणा की गयी कि-
- भारत में ब्रिटिश शासन को तुरंत समाप्त किया जाये।
- घोषणा की गयी कि स्वतंत्र भारत सभी प्रकार की फासीवाद एवं साम्राज्यवादी शक्तियों से स्वयं की रक्षा करेगा तथा अपनी अक्षुणता को बनाये रखेगा।
- अंग्रेजों की वापसी के पश्चात् कुछ समय के लिये अस्थायी सरकार की स्थापना की जायेगी।
- ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आंदोलन का समर्थन किया गया।
- गांधीजी को संघर्ष का नेता घोषित किया गया।
विभिन्न वगाँ की गांधीजी द्वारा दिये गये निर्देशः हालांकि गांधीजी द्वारा इन निर्देशों की घोषणा कांग्रेस की ग्वालिया टैंक बैठक में ही कर दी गयी थी लेकिन उस समय उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया था। इनके तहत समाज के विभिन्न वर्गों की गांधीजी ने विभिन्न निर्देश दिये थे। ये निर्देश इस प्रकार थे-
- सरकारी सेवकः त्यागपत्र नहीं दें लेकिन कांग्रेस से अपनी राजभक्ति घोषित कर दें।
- सैनिकः सेना से त्यागपत्र नहीं दें किंतु अपने सहयोगियों एवं भारतीयों पर गोली नहीं चलायें।
- छात्रः यदि आत्म-विश्वास की भावना हो तो, शिक्षण संस्थाओं में जाना बंद कर दें तथा पढ़ाई छोड़ दें।
- कृषकः यदि जमींदार सरकार विरोधी हों तो पारस्परिक सहमति के आधार पर तय किया गया लगान अदा करते रहें किंतु यदि जमींदार सरकार समर्थक हो तो लगान अदा करना बंद कर दें।
- राजे-महाराजेः जनता को सहयोग करें तथा अपनी प्रजा की संप्रभुता को स्वीकार करें।
- देशी रियासतों के लोगः शासकों का सहयोग तभी करें जब वे सरकार विरोधी हों तथा सभी स्वयं को राष्ट्र का एक अंग घोषित करें।
इस अवसर पर गांधी जी ने लोगों से कहा था “एक मंत्र है, छोटा सा मंत्र, जो मैं आपको देता हूं। उसे आप अपने हृदय में अंकित कर सकते हैं और प्रत्येक सांस द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। यह मंत्र है: “करो या मरो।“ या तो हम भारत की आजाद कराएगें या इस प्रयास में अपनी जान दे देंगे; अपनी गुलामी का स्थायित्व देखने के लिये हम जिन्दा नहीं रहेंगे”।
आंदोलन का प्रसार
गांधी जी सविनय अवज्ञा आदोलन, सांगठनिक कार्यों तथा लगातार प्रचार अभियान से आंदोलन का वातावरण निर्मित कर चुके थे। लेकिन सरकार न तो कांग्रेस से किसी तरह के समझौते के पक्ष में थी न ही वह आंदोलन के औपचारिक शुभारंभ की प्रतीक्षा कर सकती थी। फलतः उसने गिरफ्तारी और दमन के निर्देश जारी कर दिये। 9 अगस्त को प्रातः ही सभी महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओं को बंदी बना लिया गया तथा अज्ञात स्थानों पर ले जाया गया। इन शीर्षस्थ नेताओं की गिरफ्तारी से आंदोलन की बागडोर युवा में उग्रवादी तत्वों के हाथों में आ गयी।
जन विद्रोह
जनता ने सरकारी सत्ता के प्रतीकों पर आक्रमण किया तथा सरकारी भवनों पर बलपूर्वक तिरंगा फहराया। सत्याग्रहियों ने गिरफ्तारियां दी, पुल उड़ा दिये गये, रेलों की पटरियां उखाड़ दी गयीं तथा तार एवं टेलीफोन की लाइनें काट दी गयीं। शिक्षण संस्थाओं में छात्रों ने हड़ताल कर दी, छात्रों द्वारा जुलूस निकाले गये, उन्होंने गैरकानूनी पचे लिखे, जगह-जगह उन्हें बांटने लगे तथा भूमिगत कार्यकर्ताओं के लिये संदेशवाहक का कार्य किया। अहमदाबाद, बम्बई, जमशेदपुर, अहमदनगर एवं पूना में मजदूरों ने हड़ताल कर दी।
भूमिगत गतिविधियां
भूमिगत गतिविधियों के संचालन का कार्य मुख्यतः समाजवादी, फारवर्ड ब्लाक के सदस्य, गांधी आश्रम के अनुयायी तथा क्रांतिकारी आतंकवादियों के हाथों में रहा। बंबई, पूना, सतारा, बड़ौदा तथा गुजरात के अन्य भाग, कर्नाटक, आन्ध्र, सयुंक्त प्रांत, बिहार एवं दिल्ली इन गतिविधियों के मुख्य केंद्र थे। राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली, उषा मेहता, बीजू पर्नायक, छोटू भाई पुराणिक, अच्युत पर्वर्धन, सुचेता कृपलानी तथा आर.पी. गोयनका भूमिगत गतिविधियां संचालित करने वाले अग्रगण्य नेताओं में से थे।
उषा मेहता ने बम्बई में भूमिगत रेडियो स्टेशन की स्थापना की। भूमिगत गतिविधियों में संलग्न लोगों को व्यापक सहयोग मिल रहा था। उन्हें बड़ी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद दिया गया। इन आंदोलनकारियों का मुख्य उद्देश्य यह होता था कि सरकारी भवनों, संचार तथा यातायात के माध्यमों तथा अन्य सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले किये जायें तथा जो व्यक्ति सरकार के समर्थक हैं या सरकार के लिये जासूसी करते हैं, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाये।
समानांतर सरकारें
भारत छोड़ो आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी, देश के कई स्थानों में समानांतर सरकारों की स्थापनाः
बलिया (अगस्त 1942 में, केवल एक सप्ताह के लिये)- यहां चित्तू पांडे के नेतृत्व में समांनातर सरकार की स्थापना की गयी। उनकी सरकार ने स्थानीय जिलाधिदारी से शासन के सभी अधिकार छीन लिये तथा जेल में बंद सभी कांग्रेस नेताओं की रिहा कर दिया।
तामलुक (मिदनापुर, दिसम्बर 1942 से सितम्बर 1944 तक)- यहां की जातीय सरकार ने तूफान पीड़ितों के लिए सहायता कार्यक्रम प्रारंभ किए, स्कूलों को अनुदान दिये, धनी लोगों का अतिरिक्त धन गरीबों में बांटा तथा एक सशस्त्र विद्युत वाहिनी का गठन किया।
सतारा (1943 के मध्य से 1945 तक)- यह सबसे लंबे समय तक चलने वाली सरकार थी। यहां प्रति सरकार के नाम से समानांतर सरकार स्थापित की गयी। सरकार की स्थापना में वाई.बी. चव्हाण तथा नाना पाटिल इत्यादि की प्रमुख भूमिका थी। सरकार के कार्यों में ग्रामीण पुस्तकालयों की स्थापना, न्यायदान मंडलों (जन अदालतों) का गठन, शराब बंदी अभियान तथा गांधी विवाहों का आयोजन जैसे कार्य सम्मिलित थे।
भारत छोड़ो आंदोलन में आम जनता ने आंदोलनकारियों को अभूतपूर्व सहयोग प्रदान किया। समाज का कोई भी वर्ग सहायता एवं समर्थन देने में पीछे नहीं रहा। उद्योगपतियों (अनुदान, प्रश्रय एवं अन्य वस्तुओं के रूप में सहयोग), छात्रों (संदेशवाहक के रूप में सहयोग), सामान्य ग्रामीणों (सरकारी अधिकारियों को आंदोलनकारियों के संबंध में सूचनायें देने से इंकार), ट्रेन चालकों (ट्रेन में बम एवं अन्य आवश्यक वस्तुयें ले जाकर) तथा पुलिस एवं सरकारी अधिकारियों सभी ने आंदोलनकारियों को पूर्ण सहयोग प्रदान किया।
आंदोलन में जनता की भागेदारी
भारत छोड़ो आंदोलन में जनता की भागेदारी कई स्तरों पर थी-
- युवक मुख्य रूप से स्कूल एवं कालेज के छात्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
- महिलायें मुख्यतः स्कूल एवं कालेज की छात्राओं ने आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया। अन्य महिलाओं में अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी तथा उषा मेहता के नाम प्रमुख हैं।
- किसान पूरे देश के किसान इस आंदोलन की जान थे। किसान चाहे अमीर हो या गरीब, सभी ने आंदोलन में ऐतिहासिक भागेदारी निभायी। यहां तक कि कुछ जमींदारों ने भी आंदोलन में भाग लिया। विशेषकर दरभंगा के राजा, जो काफी बड़े जर्मींदार भी थे। किसानों ने केवल ब्रिटिश सत्ता के प्रतीकों को ही अपना निशाना (मिदनापुर), बिहार, महाराष्ट्र (सतारा), आंध्र, गुजरात, केरल तथा यू.पी. किसानों की गतिविधियों के प्रमुख केंद्र थे। सरकारी अधिकारी विशेष रूप से प्रशासन एवं पुलिस के निचले तबके से सम्बद्ध अधिकारी। इन्होंने भी आंदोलन में महत्वपूर्ण सहयोग दिया, फलतः इस तबके के सरकारी अधिकारियों से सरकार का विश्वास समाप्त हो गया।
- मुस्लमान इन्होंने भूमिगत आंदोलनकारियों को प्रश्रय प्रदान किया। आंदोलन के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा का नामो-निशान नहीं था।
- कम्युनिस्ट यद्यपि इनका निर्णय आंदोलन का बहिष्कार करना था फिर भी स्थानीय स्तर पर सैकड़ों कम्युनिस्टों ने आंदोलन में भाग लिया।
- देशी रियासर्ते इनका सहयोग सामान्य था।
सरकारी दमन
आन्दोलनकारियों के विरुद्ध सरकार ने दमन की नीति का सहारा लिया तथा वह आन्दोलन को पूर्णरूपेण कुचल देने पर उतर आयी। यद्यपि मार्शल लॉ नहीं लागू किया गया था किंतु सरकार की दमनात्मक कार्रवाई अत्यंत गंभीर थी। प्रदर्शनकारियों पर निर्दयतापूर्वक लाठी चार्ज किया गया, आंसू गैस के गोले छोड़े गये तथा गोलियां बरसायी गयीं। अनुमानतः 10 हजार लोग मारे गये।
सरकार ने प्रेस पर हमला बोल दिया तथा कई समाचार-पत्रों पर पाबंदी लगा दी गयी। सेना ने कई शहरों को अपने नियंत्रण में ले लिया तथा पुलिस एवं गुप्तचर सेवाओं का साम्राज्य कायम हो गया। विद्रोही गांवों पर भारी जुर्माने लगाये गये तथा लोगों को सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाये गये।
मूल्यांकन
- भारत छोड़ो आंदोलन के मुख्य केंद्र थे- पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मिदनापुर, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक।
- छात्र, मजदूर एवं कृषक आंदोलन की रीढ़ थे, जबकि उच्च वर्ग एवं नौकरशाही आंदोलन में तटस्थ बनी रही।
- सरकार के प्रति निष्ठा रखने वाले तत्वों को आंदोलनकारियों ने देशद्रोही माना। आंदोलन से यह स्पष्ट हो गया कि भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना काफी गहराई तक घर कर चुकी है।
- आंदोलन से यह बात स्पष्ट हो गयी कि भारतीयों की इच्छा के विरुद्ध भारत पर अब और अधिक शासन करना संभव नहीं है।
- पूर्ववर्ती आंदोलनों की तुलना में इस आंदोलन में स्वतः स्फूर्तता का तत्व कहीं ज्यादा था। यद्यपि असहयोग आंदोलन तथा सविनय अवज्ञा आदोलन (दोनों चरण) में भी कांग्रेस ने स्वतःस्फूर्त तत्वों के विकास की संभावनाओं को अवसर प्रदान किया था किंतु 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में यह तत्व तुलनात्मक रूप से काफी अधिक था। वस्तुतः गांधीवादी जनआंदोलन की रणनीति यह थी कि शीर्ष नेतृत्व कार्यक्रम की योजना बना देता था तथा उसका कार्यान्वयन जनता तथा स्थानीय स्तर के कार्यकर्ताओं के हाथों में छोड़ दिया जाता था। यद्यपि नेतृत्व को आंदोलन छेड़ने का अवसर न मिल पाने के कारण भारत छोड़ो आंदोलन की रूपरेखा स्पष्ट नहीं की गयी थी किंतु एक बार जब कांग्रेस नेतृत्व एवं गांधीजी ने आंदोलन को परिभाषित कर दिया, सभी लोग उत्प्रेरित होकर आंदोलन से जुड़ गये। इसके अतिरिक्त कांग्रेस भी सैद्धांतिक, राजनीतिक एवं संगठनात्मक तौर पर काफी लंबे समय से इस संघर्ष की तैयारी कर रही थी।
- भारत छोड़ो आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि स्वतंत्रता संघर्ष के एजेंडे में भारत को तुरंत आजादी दिये जाने की मांग को सम्मिलित किया गया था। इस आंदोलन के पश्चात कांग्रेस का नेतृत्व तथा भारतीय, इस मांग के संदर्भ में कभी नरम नहीं पड़े।
- इस आंदोलन में जनसामान्य की भागेदारी अप्रत्याशित थी। लोगों ने अदम्य सहस एवं राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया। यद्यपि उन्होंने जो प्रताड़ना सही वह अत्यंत बर्बर एवं अमानवीय थी तथा संघर्ष की परिस्थितियां भी उनके प्रतिकूल थीं। किंतु आंदोलन के हर मोर्चे पर जनता ने अत्यंत सराहनीय भूमिका निभायी तथा आन्दोलनकारियों को पूर्ण समर्थन एवं सहयोग प्रदान किया।
फरवरी 1943
सरकार, गांधीजी पर लगातार यह दबाव डाल रही थी कि वो लेकिन गांधीजी ने ऐसा करने से इंकार कर दिया तथा तर्क दिया कि इस हिंसा के लिये सरकार की दमनकारी नीतियां ही उत्तरदायी हैं। गांधीजी ने इसी सरकारी दमन के विरोध में फरवरी 1943 में 21 दिन का उपवास प्रारंभ कर दिया। गांधीजी के उपवास की खबर से पूरे देश में आक्रोश फैल गया। देश भर में प्रदर्शन, हड़ताल एवं जुलूसों का आयोजन किया गया। विदेशों में भी गांधी के उपवास की खबर से व्यापक प्रतिक्रिया हुयी तथा सरकार से उन्हें तुरंत रिहा करने की मांग की गयी। वायसराय की कार्यकारिणी परिषद से तीन सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया। गांधीजी के उपवास से निम्न उपलब्धियां हासिल हुयीं-
- जनता के मनोबल में वृद्धि हुयी।
- ब्रिटिश-विरोधी भावनायें और प्रखर हो गयीं।
- इसने राजनीतिक गतिविधियों के संचालन को नया अवसर प्रदान किया।
- सरकार की सर्वोच्चता एवं दंभ की प्रवृत्ति का खुलासा हो गया।
सरकार, गांधीजी से किसी भी तरह का समझौता करने के पक्ष में नहीं थी तथा वह यह मानकर चल रही थी कि उपवास के कारण गांधीजी की मृत्यु हो जायेगी तथा उसकी साम्राज्यवादी नीति का सबसे बड़ा कंटक दूर हो जायेगा। किंतु गांधीजी ने हमेशा की तरह अपने विरोधियों को मात दे दी तथा मरने से इंकार कर सरकारी मंसूबों पर पानी फेर दिया।
23 मार्च, 1943 को पाकिस्तान दिवस मनाया गया।
1943 का अकाल
इस अकाल से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र दक्षिण पश्चिमी-बंगाल का क्षेत्र था, जिसमें तामलुक-कोन्ताई-डायमंड हार्बर क्षेत्र, ढाका, फरीदपुर, तिपेरा एवं नोआखाली सम्मिलित थे। अनुमान है कि इस मानव निर्मित भीषण अकाल में 15 से 30 लाख लोग काल के ग्रास बन गये। मरने वालों में अधिकांशतया महामारी (मलेरिया, हैजा तथा चेचक), कुपोषण एवं भूख के कारण मारे गये। इस भयानक दुर्भिक्ष के लिये निम्न कारण उत्तरदायी थे-
- युद्ध प्रचार एवं युद्ध व्यय के कारण खाद्यान्नों की आपूर्ति बंद हो गयी।
- बर्मा एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया से चावल का आयात बंद हो गया।
- राहत कार्य विलंब से प्रारंभ हुये तथा वे पर्याप्त नहीं थे। केंद्रीय सरकार ने इसे प्रांतीय जिम्मेदारी कहकर कोई सहायता नहीं की। सहायता कार्य मुख्यतः बड़े शहरों में ही चलाया गया; धन के अभाव के कारण सहायता कार्य सीमित रहे। इन् सभी कारणों से दुर्भिक्ष की भयंकरता बढ़ गयी।