जनहित याचिका Public Interest Litigation – PIL
जनहित याचिका का अभिप्राय यह है कि पीड़ित व्यक्तियों के बदले अन्य व्यक्ति और संगठन न्याय की मांग कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, यदि कोई व्यक्ति पीड़ित है परंतु उसमें न्यायालय में न्याय के लिए जाने की क्षमता नहीं है वैसी स्थिति में अन्य व्यक्तियों तथा स्वैच्छिक संगठनों की यह अधिकार है कि वे पीड़ित व्यक्ति के बदले न्याय के लिए न्यायालय में याचिका पेश कर सकते हैं। यह व्यवस्था देश के आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए उपलब्ध कराई गई है जिससे उन्हें न्याय मिल सके। उदाहरण के लिए, बंधुआ मजदूरों के लिए जनहित याचिका वरदान साबित हुई है। इतना ही नहीं देश की आम समस्याओं, जैसे- भ्रष्टाचार, को लेकर भी जनहित याचिका ने ऐतिहासिक निर्णय दिलवाया है। जनहित को लेकर कोई भी व्यक्ति न्यायालय में मुकदमा दायर कर सकता है। न्यायविदों ने अखबारी खबरों के आधार पर भी जनहित याचिका को स्वीकार किया है और अपने महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं।
न्यायपालिका गरीबों, शोषितों, उपेक्षितों तथा पद दलितों के लिए अंतिम शरण-स्थल है। अपनी अस्मिता तथा गरिमा की रक्षा के लिए प्रत्येक सुसंस्कृत देश का नागरिक न्यायपालिका की ओर निहारता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने हित की रक्षा के लिए न्यायालय की ओर से आश्वस्त रहता है कि वहां पर उनके हितों की रक्षा हो सकेगी। न्यायपालिका के निर्णय का ही जनसाधारण के मस्तिष्क पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। न्यायपालिका की आदरणीय स्थान दिए बिना किसी देश को सभ्य कहने की कल्पना तक नहीं की जा सकती, क्योंकि राज्य या समाज का कैसा भी स्वरूप हों, जब तक विरोधों और विभेदों की संभावना रहेगी, श्रेष्ठ, स्वतंत्र एवं सक्षम न्यायपालिका की आवश्यकता सदैव बनी रहेगी। कार्यपालिका आॉखों पर रंगीन चश्मा चढ़ाए बैठी हो। जिसके कान नहीं सुनने की बीमारी से ग्रसित हो और भ्रष्टाचार चरम पर हो ऐसे में गरीब और व्यापक जनहित के मुद्दों पर कौन सुनवाई करेगा। ऐसे में आम आदमी का विश्वास मात्र न्याय प्रणाली में ही है।
भारतीय न्यायपालिका ने जनहित संबंधी याचिकाओं की सुनवाई करके विधिक क्षेत्र में एक नया आयाम जोड़ा है। जब भी कोई नागरिक जनसमुदाय की सारभूत हानि के तथ्यों की ओर उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय का ध्यान आकर्षित करता है तो न्यायपालिका ऐसे प्रकरणों की सुनवाई करके परमादेश, उत्प्रेषण, बंदी प्रत्यक्षीकरण, प्रतिषेध तथा अधिकार पृच्छा जैसी रिटों को जारी कर अनुतोष प्रदान कर सकते हैं। इस प्रकार के आदेश पारित करते समय न्यायालय की यह देखना आवश्यक नहीं होता है कि जिस व्यक्ति ने याचिका दायर की है उसके किसी अधिकार का उल्लंघन हुआ है या नहीं। न्यायपालिका को मात्र जनसाधारण की हानियों का ही आकलन करना जरुरी होता है।
जनहित वाद की विकास यात्रा न्यायिक सक्रियता से जुड़ी हुई है। न्यायिक सक्रियता कहीं तकनीकी रूप में सामने आती है और कहीं सामाजिक सक्रियता के रूप में सामने आती है। न्यायाधीश किसी भी वर्ग का क्यों न हो, जब उसके सामने जनहित सम्बन्धी मामले आते है तो वह उसके प्रति आंखमूंदकर नहीं रह सकता।
जनहित याचिका के इतिहास में अमेरिका में गिडन बनाम राइट केस जनहित याचिका संबंधी प्रथम मामला था जो कि वहां 1876 में विधिक सहायता उपलब्ध कराने के संबंध में दायर किया गया था। इस मामले में श्री गिडन ने अमरीकन सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपना हस्तलिखित पत्र पेश करके याचना की कि फ्लोरिडा ट्रायल कोर्ट ने अन्वीक्षा में उसकी प्रतिरक्षा के लिए कोई अधिवक्ता नियुक्त करने से मना कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय के सभी 9 न्यायाधीशों ने एकमत से याची को अपने केस की पैरवी के लिए अधिवक्ता की नियुक्ति किए जाने हेतु परमादेश जारी किया तथा यह मानकर इतिहास बनाया कि ऐसे मामलों में साधारण व सुपरिचित न्यायिक प्रक्रिया की पालना कराया जाना अनिवार्य नहीं है। जनहित याचिका के इतिहास में न्यायालय का यह निर्णय सामाजिक न्याय के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है।
भारतवर्ष में सर्वप्रथम जनहित याचिका के महत्व को 1976 में कानूनी मान्यता प्राप्त हुई जब उस समय के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने मुम्बई कामगार बनाम अबदुल्ला भाई मामले में निर्णय देकर यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि-जनहित की व्यापक व्याख्या किया जाना इसलिए आवश्यक है कि इससे वैयक्तिक स्वतंत्रता के साथ-साथ अनगिनत व्यक्तियों के हित की रक्षा भी हो जाती है। विशेष तौर पर, जबकि ऐसे समुदाय को गरीबी व अज्ञान के कारण अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं हो और आर्थिक विपन्नता के कारण वे लोग खर्चीली न्याय प्रणाली व नियमों की बाध्यता के कारण न्यायालय में जाने में असमर्थ हैं। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर ने ऐसे ही सुधारवादी निर्णय देकर न्यायिक व्यवस्था को सक्रिय बनाने की दिशा में प्रगति की है।
न्यायाधीश श्री कृष्णा अय्यर ने फर्टिलाइजर कॉर्पोरेशन कामगार संघ बनाम भारत संघ मामले में कहा कि- विधि एक सामाजिक लेखा परीक्षक है। इस लेखा परीक्षण के कार्य के दीपक को कोई भी व्यक्ति जो वास्तव में व्यापक जनहित के लिए कटिबद्ध है, जलाकर न्यायालय से श्रवणाधिकार का क्षेत्राधिकार प्राप्त कर सकता है।
जनहित याचिका की न्यायाधीश पी.एन. भगवती एवं वी.के. कृष्णा अय्यर ने 1970 के उत्तरार्द्ध में प्रारम्भ किया जिसे न्यायाधीश जे.एस. वर्मा, वैकटचेलैया एवं कुलदीप सिंह ने आगे बढ़ाया। न्यायाधीश पी.एन. भगवती ने यहां तक कहा था कि कोई व्यक्ति जनहित याचिका एक साधारण पोस्टकार्ड द्वारा भी सर्वोच्च न्यायालय में दायर कर सकता है। न्यायालय जनहित याचिका के अंतर्गत, एक समिति का निर्माण करता है जिसका काम सच्चे तथ्यों को उजागर करना होता है जिसका व्यय सरकार उठाती है। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय संबंधित व्यक्तियों को इसकी सूचना देता है। उसके बाद सभी पक्षों को सुनने के बाद न्यायालय अपना अंतिम निर्णय देता है।
जनहित याचिका द्वारा कई अनसुलझे तथा आकस्मिक विवादों पर महत्वपूर्ण निर्णय किया गया है परंतु साथ ही इसकी आलोचना भी हो रही है कि भारी बोझ से दबे न्यायालयों ने अपने बोझ में और वृद्धि कर ली है। खासकर लंबित विवादों की निपटाने में और अधिक समय लग जाता है। आलोचकों का कहना है की जनहित याचिकाओं का निपटारा मजिस्ट्रेट तथा
निम्न अदालतों के स्तर पर होना चाहिए न कि उच्च स्तरीय न्यायालयों में, जबकि दूसरे पक्ष का विचार है कि सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय की भूमिका जनहित याचिका के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह समय की मांग भी है। तर्क यह है कि निम्न स्तर के निर्णय भय से प्रभावित हो सकते हैं परंतु यह उच्च स्तर पर सम्भव नहीं है। अतः जनहित याचिका जन-मानस में न्याय भावना को मजबूती प्रदान कर सकती है जहां तक त्रुटियों का प्रश्न है तो संशोधन का अर्थ यह है कि उन कमियों को दूर किया जाये ताकि एक स्वस्थ तथा स्वच्छ न्यायिक व्यवस्था का निर्माण हो सके।
लोकहित वाद सम्बन्धी प्रमुख निर्णय
- नगर परिषद् रतलाम बनाम बरदीचंद, 1982 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मजिस्ट्रेट के निर्णय को बहल करते हुए कहा कि नगरपालिका सार्वजानिक हित की रक्षा के दायित्व से साधनों की कमी को बताकर बच नहीं सकती है।
- एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ प्रकरण जो न्यायधीशों के स्थानान्तरण का प्रकरण के नाम से प्रसिद्द है, सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता समुदाय द्वारा विधि मंत्री द्वारा न्यायाधीशों के स्थानांतरण किए जाने वाले परिपत्र को दी गई धुनौती को जनहित वाद मानकर स्वीकार किया था, फिर इस बिंदु पर अपना ऐतिहासिक निर्णय दिया था।
- पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ जो एशियाड केस के नाम से प्रसिद्ध हुआ था, मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने लोकहित की रक्षा से प्रेरित एक संस्था जो पिचादे व् कमजोर वर्ग के हितों की रक्षा के लिए समर्पण भाव से कार्यरत थी, कि याचिका को स्वीकार किया। इसके फलस्वरूप एशियाई खेलों के मैदान बनाने में लगे श्रमिकों को विभिन्न श्रमिक कानूनों के दायरे में मानकर पारिश्रमिक व आर्थिक लाभ दिलाए जाने का आदेश दिया गया।
- डी.एस. नकारा बनाम भारत संघ के मामले में एक सहकारी सहमति के द्वारा सेवानिवृत्त कर्मचारियों की समस्याओं को लेकर लोकहितवाद प्रस्तुत करने के अधिकार की वैधानिक अधिकार मानकर याधिका स्वीकार की गई।
- हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम छात्रों के अभिवावक मामले में विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालयों में रागिंग की परम्परा का विरोध करने के सम्बन्ध में प्रस्तुत याचिका को लोकहित याचिका मानकर स्वीकार किया गया।
- सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन इस प्रकरण में लोकहित की रक्षा की आवश्यकता को महसूस करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जेल प्रशासन में सुधारों के लिए सूत्रपात किया तथा पुराने जेल मैनुअल के नियमों का सिंहावलोकन कर उनमें संशोधन की आवश्यकता पर जोर दिया, साथ ही विचाराधीन कैदियों को बेदी नहीं पहनने का भी इस निर्णय में प्रतिपादन किया गया।
- सी.सी. जैन बनाम राजस्थान राज्य प्रकरण में जब उच्च न्यायालय परिसर में अधिवक्ता समुदाय बिजली नहीं आने के कारण गर्मी से त्राहि-त्राहि कर रहा था तो इस बारे में प्रस्तुत याचिका को उच्च न्यायालय परिसर में जनरेटिंग सैट स्थापित करवाने के आदेश दिए गए। इसके बावजूद भी सरकार ने आदेशों को अनदेखा किया तो फिर अवमानना दायर की गई और फिर सर्वोच्च न्यायालय में भी इस विहाय राज्य सरकार की ओर से दायर विशेष निवेदन खारिज किए जाने के बाद इस हेतु राज्य सरकार ने अंत में तीन लाख रुपए स्वीकृत किए।
- पी.वी. कपूर बनाम भारत संघ मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने मन की लोकहितवाद याचिका व् न्यायालय द्वारा गरीब, कमजोर व् पिछड़े वर्ग की सामाजिक न्याय दिलाने की दशा में, सहयोग व सहकारितापूर्वक उठाया गया कदम है। इस प्रकरण में मण्डल कमीशन के विरुद्ध चल रहे आंदोलन के दौरान पुलिस ज्यादतियों से मारे गए दो युवकों की ओर से दो अधिवक्ताओं ने याधिकाएं पेश की थीं। इसके गुणावगुण पर विचारण कर न्यायालय ने उनके अभिभावकों को मुआवजा दिलवाए जाने के आदेश दिए थे।
- एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ प्रकरण में श्री अशोक मेहता ने लोकहित बाद दायर किया था जिसमें चाहे गए अनुतोष को स्वीकार करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश किया कि केंद्र सरकार को पर्यावरण की रक्षा के लिए व्यापक सूचना राष्ट्रीय व क्षेत्रीय भाषाओं के द्वारा दृश्यश्रव्य माध्यम से प्रसारित करवानी चाहिए। सरकार को छात्रों के पाठ्यक्रम में भी पर्यावरण विषय भी शामिल करना चाहिए।
न्यायपालिका की सक्रियता
आजकल सम्पूर्ण देश में एक ही मुद्दा सर्वाधिक चर्चित है और वह है न्यायपालिका की सक्रियता। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही न्यायपालिका ने भारतीय लोकतंत्र की रक्षा और विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। परन्तु, हाल के वर्षों में तो न्यायालयों ने अपने निर्णयों से सम्पूर्ण देश की जनता का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। सर्वप्रथम तो न्यायपालिका ने कार्यपालिका की दोषपूर्ण कार्यनीति पर प्रहार किया है और दूसरा उसने विधायिका पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया है (साविधानिक उपबंधों के तहतू)। आज देश में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र है, जिसमें न्यायपालिका की भूमिका उल्लेखनीय न हो।
भारतीय संविधान ने अपनी प्रस्तावना में भारत को धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया है। इस प्रस्तावना के अनुसार, सामाजिक संतुलन कायम करना सरकार का प्रथम कर्तव्य है। फिर, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्रात्मकता तथा गणराज्यात्मकता की रक्षा करना भी इसका पुनीत कर्तव्य है। परन्तु, हाल के वर्षों में हमारे देश की राजनीति बहुत ही दूषित हो गई है। आजकल हमारे राजनेताओं को पद और जनता के मत के सिवाय और किसी भी चीज की आवश्यकता महसूत नहीं होती। हमारे देश से अंग्रेज तो चले गए 60 वर्ष पूर्व ही, परन्तु अंग्रेजियत अभी भी अपने मूल रूप में विद्यमान है। अंग्रेजों ने जिस फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई थी, वह आज भी हमारी राजनितिक व्यवस्था में विद्यमान है। हमारे राजनेताओं ने देश की जनता कको अगदी जाति, पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आदि में विभक्त कर रखा है तथा उन्हें अलग-अलग हथकण्डों को अपनाकर अपना वोट-बैंक बना रखा है। उन्होंने इस क्रम में सामाजिक-संतुलन के उद्देश्य को नजरअंदाज कर दिया है। ऐसे में न्यायपालिका आगे आकर सामाजिक-संतुलन स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 124 से लेकर अनुच्छेद 147 तक, अनुच्छेद 214 से लेकर अनुच्छेद २३१तक तथा अनुच्छेद 233 से लेकर अनुच्छेद 237 तक क्रमशः उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्य न्यायालयों की व्यवस्था की है। न्यायपालिका की एकात्मक व्यवस्था की गयी है, जो पिरामिडनुमा है तया जिसके शीर्ष पर उच्चतम न्यायालय है। न्यायापालिका को कार्यपालिका तथा सिधायिका से स्वतंत्र रखा गया गई और उसे संविधान का संरक्षक बनाया गया है। उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा का अधिकार दिया गया है और इसलिए इसका यह कर्तव्य है कि कार्यपालिका अथवा विधायिका द्वारा किए जा रहे गैर-साविधानिक कार्यो पर साविधानिक उपबंधों के अंतर्गत पाबंदी लगाए।
न्यायपालिका की सक्रियता आज सम्पूर्ण देश में विवाद का मुद्दा बना हुआ है। भारतीय लोकतंत्र में उच्चतम न्यायालय की भूमिका को लेकर भारत के विधि विशेषज्ञ, न्यायविद्, और संविधान मर्मज्ञ दो गुटों में बटे हुए हैं। विधि विशेषज्ञ और न्यायविद्र न्यायपालिका की सक्रियता को न्यायालय की तानाशाही की संज्ञा दे रहें हैं, तो संविधान मर्मज्ञ इसे भारतीय लोकतंत्र का शुभ संकेत बता रहे हैं।
विधि विशेषज्ञों और न्यायविदों की चिंता का कारण यह है कि यदि लोकतांत्रिक पद्धति पर गठित लोकप्रिय सरकार द्वारा नियुक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश इस तरह से प्रशासन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करें और कार्यपालिका तथा विधायिका पर नियंत्रण स्थापित कर लें, तो लोकतंत्र का उपहास होगा। परन्तु, संविधान मर्मज्ञों और देश की आम जनता की राय है कि जब सरकार द्वारा उसके दायित्वों का सही तरीके से पालन नहीं होने के कारण अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो रही है, तो न्यायपालिका द्वारा सरकार तथा उसकी एजेंसियों की रास्ते पर लाने के लिए किए जा विकास की दिशा में किए जा रहे सराहनीय कार्य हैं।
वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासन की सुचारू व्यवस्था के लिए कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका- ये तीन स्वतंत्र अभिकरण स्थापित किए गए हैं। कार्यपालिका को विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है, परन्तु न्यायपालिका को पूर्ण रूप से स्वतंत्र संस्था के रूप में स्थापित किया गया है। फिर, किसी भी लोकतंत्र की सफलता के लिए इन तीनों अंगों का समन्वित प्रयास भी अत्यावश्यक है। ऐसे में कार्यपालिका अथवा विधायिका को न्यायपालिका द्वारा मार्गदर्शन करना लोकतंत्र के लिए हर्ष की बात है न कि उपहास की।
विधि विशेषज्ञों का कहना है कि आजकल न्यायपालिका ने अपने अधिकार क्षेत्र का अनावश्यक विस्तार कर लिया है। विधि-निर्माण के संबंध में भी न्यायपालिका और न्यायाधीशों ने हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है और अब वे जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों से भी शक्तिशाली होते जा रहे हैं तथा कार्यकारी और प्रशासनिक क्षेत्रों में न्यायपालिका की शक्ति दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। उनका कहना है कि यदि इसी प्रकार से न्यायपालिका की शक्ति बढ़ती रही, तो भारत की संसदीय शासन प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा और न्यायालय में तानाशाही स्थापित हो जाएगी। परन्तु, इन विचारकों को अमेरिका की लोकतंत्रात्मक व्यवस्था का अध्ययन जरूर करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि विश्व में यदि किसी देश की न्यायपालिका सर्वाधिक शक्तिशाली है, तो वह है अमेरिका की न्यायपालिका। यदि न्यायपालिका की शक्तिसम्पन्नता से लोकतंत्र संकट में फंसता, तो अमेरिका में लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी विकसित नहीं होती।
हाल के वर्षों में भारत में प्रशासनिक व्यवस्था के संदर्भ में कुछ परिवर्तित स्थिति दृष्टिगोचर होती है। पूर्व में यह व्यवस्था थी कि विधायिका विधि-निर्माण का कार्य करेगी, कार्यपालिका विधियों को कार्यान्वित करने तथा प्रशासन को सुचारू बनाने का कार्य करेगी तथा न्यायपालिका विधियों की व्याख्या तथा विवादों का फैसला करने का कार्य करेगी। परन्तु, आज की तारीख में विधि-निर्माण के क्षेत्र में तीनों अंग लगभग बराबर के हिस्सेदार हैं। कार्यपालिका के क्षेत्र में विधायिका के ही कुछ सदस्य मंत्रिमण्डल के रूप में शासन करते हैं, किन्तु विधायिका के प्रति उत्तरदायित्व तथा अपने कृत्यों की सांविधानिकता के लिए न्यायपालिका के निर्णयों पर आश्रित रहते हैं। न्यायालयों के संगठन, अधिकार क्षेत्र एवं शक्तियों को विनियमित करने तथा उसके संबंध में विधि बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा उनकी पदमुक्ति राष्ट्रपति और संसद द्वारा होती है। ऊपर की यह व्याख्या स्पष्ट करती है कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में अन्योन्याश्रय संबंध है। इन तीनों के सम्मिलित प्रयास ही जनता के लिए हितकारी होंगे तथा उसी से देश विकास पथ पर अग्रसर हो सकेगा।
न्यायपालिका का क्षेत्राधिकार संविधान द्वारा निर्धारित है। परन्तु, कभी-कभी ऐसी स्थितियां भी उत्पन्न हो जाती हैं, जब अपने क्षेत्राधिकार के बाहर भी न्यायपालिका हस्तक्षेप करती है। कुछ प्रमुख परिस्थितियां निम्नलिखित हैं, जो न्यायालय को अपने क्षेत्राधिकार के बाहर भी हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य करती हैं-
- जब सरकार या संसद कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ या अक्षम हो जाए और नागरिकों के हितों एवं अधिकारों की रक्षा के लिए तथा विधि और संविधान संरक्षण के लिए न्यायालय से हस्तक्षेप करने की मांग की जाए।
- जब सरकार अस्थिर और निर्बल हो जाए तथा कोई ठोस कदम उठाने में असक्षम हो जाए। नागरिकों की तथा उनके अधिकारों की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है, परन्तु यदि सरकार ऐसा करने में असफल हो जाए और नागरिक न्यायालय की शरण ले ले।
- सरकार द्वारा किसी मामले में न्यायालय का सहारा लेना।
- मानवीय मूल्यों की सुरक्षा के लिए न्यायालय द्वारा स्वयं क्षेत्राधिकार का विस्तार।
न्यायपालिका की सक्रियता यदि विवाद का कारण बना है, तो उसका सबसे बड़ा कारण है हाल के वर्षों में दिए गए न्यायालय द्वारा कुछ कठोर निर्णय। परन्तु, उच्चतम न्यायालय द्वारा हाल के वर्षों में दिए गए उन सभी निर्णयों का, जिन पर विधि विशेग्यों औए न्यायविदों द्वारा उगलियाँ उठाई जा रही हैं, सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये निर्णय न केवल न्यायसंगत थे, अपितु परिस्थितिवश आवश्यक और अनिवार्य भी थे। अपवादस्वरूप कुछ निर्णय अनावश्यक और अनुचित ठहराए जा सकते हैं। परन्तु, अपवाद तो सर्वत्र होते हैं, इसलिए न्यायपालिका के निर्णय सराहनीय हैं।
विगत कुछ वर्षों के दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए कुछ प्रमुख निर्णय हैं- समान नागरिक संहिता के लिए कानून बनाना, आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की सीमा का निर्धारण, न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका, अपराधियों को अदालत की आज्ञा के बिना हथकड़ी न पहनाना, सरकारी पदाधिकारियों की पदोन्नति, उद्योगों का स्थानांतरण आदि।
इस प्रकार, न्यायपालिका सरकार का प्रमुख अंग है। कार्यपालिका और विधायिका की कुरूप व्यवस्थाओं से त्रस्त व्यक्तियों के लिए न्यायपालिका उम्मीद की एक किरण के रूप में दृष्टिगोचर होती है। आज सरकार की स्थिति दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है और उसकी अकर्मण्यता तथा निष्ठाहीनता बढ़ती जा रही है। सम्पूर्ण व्यवस्था में भ्रष्टाचार फैल गया है और किसी भी प्रकार से सत्ता में बने रहने की प्रवृत्ति ने शासक-वर्ग की मनुष्यता तो समाप्त कर ही दी है, साथ-ही-साथ देश की सांविधानिकता को भी संकट में डाल दिया है। ऐसे में हाल के वर्षों में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय स्वागत-योग्य हैं। परन्तु, केवल न्यायपालिका की सक्रियता मात्र बढ़ जाने से प्रशासन की विसंगतियां समाप्त नहीं हो सकतीं। इसलिए, आवश्यकता इस बात की है कि कार्यपालिका और विधायिका भी निष्पक्ष रूप से कार्य करें तथा न्यायपालिका द्वारा दिए गए निर्णयों को अमल में लाएं। दूसरी ओर, न्यायपालिका को भी इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उसके द्वारा प्रेषित कोई भी निर्णय पक्षपातपूर्ण और राजनीति से प्रेरित न हो।
विलंबित न्याय-प्रणाली का मुद्दा
मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन ने 12 दिसंबर, 2009 को बेंगलूर के एक कार्यक्रम में विलंबित न्याय को लेकर जैसी शब्दावली प्रयोग की है वह भयभीत करने वाली है। हालांकि देश की धड़कन समझने वालों के लिए इसमें अचंभे का कोई अंश नहीं है। न्यायमूर्ति बालाकृष्णन ने एक न्यायविद् के नजरिए से वही कहा है जो उन्होंने अपने लंबे अनुभवों से महसूस किया है। उनकी चेतावनी है कि मुकदमों के निपटारे में विलंब यानी लोगों को न्याय मिलने में ऐसी ही देर होती रही तो लोग विद्रोह करने की बाध्य हो जाएंगे। यदि उस स्थिति से बचना है तो हमें शीघ्र न्याय मिलने की स्थिति पैदा करनी होगी।
भारत में विलंबित न्याय लंबे समय से चिंता का विषय है। औसत मुकदमों का फैसला होने में 15 वर्ष का समय लगता है। इतना लंबा धैर्य रखना सामान्य बात नहीं है। वैसे यह अवधि औसत है। ऐसे मुकदमों की संख्या भी काफी है जो कई पीढ़ी से एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय का चक्कर लगा रहे हैं। दीवानी मामलों के बारे में यह कहावत है ही कि आपने कोई मामला दायर किया और आपके पोते के समय अंतिम फैसला आ गया तो भी गनीमत है। न्याय प्रणाली की विलंबित धुन का राग इसे अन्याय प्रणाली सदृश बना देता है। न्याय का अर्थ ही है त्वरित। जब कोई अपने स्तर पर अन्याय से होने वाली हानि की भरपाई कर चुका या अन्याय को भुलाकर नए सिरे से जिन्दगी की शुरुआत कर चुका, उसके बाद आप उसे कैसे न्याय देंगे? किंतु ब्रिटिश न्याय प्रणाली (हमारी न्याय-प्रणाली इसी का प्रतिरूप है) के इस सिद्धांत में किसी को न्याय न मिले यह तो स्वीकार्य है लेकिन किसी को गलत फैसला वहां करना पड़े, इससे हरसंभव बचने बात कही गई है। इस सिद्धांत के पालन के लिए प्रतिवादी को बचाव का अधिकतम अवसर उपलब्ध कराया गया है। इसमें मुकदमों के लंबा खिंचने का सूत्र निहित है।
हमें विलंबित न्याय की स्थिति पर दो दृष्टिकोणों से विचार करना होगा। एक, वर्तमान न्याय-प्रणाली के अन्दर विचार करना एवं दूसरा, मौजूद न्याय-प्रणाली के बाहर विचार करना। न्यायमूर्ति बालाकृष्णन ने इस न्यायिक व्यवस्था के तहत् अपना विचार व्यक्त किया है। मुकदमों की बढ़ती संख्या एवं न्यायालयों एवं न्यायाधीशों की कम संख्या को उन्होंने इसका मुख्य कारण माना है। हमारे देश में 16 हजार निचले स्तर के न्यायालय हैं, जिनमें न्यायाधीशों की निर्धारित संख्या में दो हजार की कमी है। मुख्य न्यायाधीश के अनुसार, न्यायालयों की संख्या तत्काल 35,000 करने की आवश्यकता है और इसके लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति करनी होगी। न्यायिक सुधार में सक्रिय अनेक संस्थाओं ने अपने शोध आंकड़ों में ऐसे सुझाव दिए हैं। गौरतलब है कि भारत में प्रति 10 लाख पर 15 न्यायाधीश हैं, जबकि कनाडा में 75 तथा अमेरिका में 104। इसलिए कहा जा सकता है कि हमें चुस्त-दुरुस्त न्यायप्रणाली के लिए आधुनिक आधारभूत ढांचा तैयार करना होगा, जो एक बड़ी चुनौती है। देश के संविधानविदों या कानूनी-न्यायिक ढांचे से जुड़े लोगों की समस्या है कि उनके अंदर इस प्रणाली के प्रति अत्यंत महिमामंडित धारणा है। भारत में अंग्रेजों ने जिस न्यायप्रणाली की स्थापना की उससे हमारे यहां मुकदमेबाजी की शुरुआत हुई और वास्तविक न्याय काफी हद तक ओझल हो गया। आजादी के बाद जितना सुधार चाहिए था नहीं हुआ। न्यायप्रणाली की इससे बड़ी खामी है कि इसका स्थानीयता से संबंध नहीं होता। संपूर्ण देश के लिए लगभग एक ही कानून और न्याय का एक ही तरीका। कानून की किताबों में कई अपराध हैं, जो विभिन्न कोनों में जीवन शैली और परम्परा के अंग हैं। कानून और कानूनी प्रक्रिया आम आदमी की समझ से परे है। आम नागरिक न्यायालय में ज़ाते ही स्वयं को पंगु और भौचक्क जैसी स्थिति में पाता है। अंग्रेजों के आने के पूर्व भारत में जो न्याय प्रणाली थी वह मूलतः स्थानीयता पर निर्भर थी। मध्यस्थता एवं समझौता हमारे समाज का स्वभाव था। कालक्रम में उसमें दोष आए लेकिन आज तक वह संस्कार के रूप में विद्यमान है। न्यायमूर्ति कहते हैं कि चीन में 80 प्रतिशत मामले इसी में सुलझ जाते हैं और केवल 20 प्रतिशत मामले ही न्यायालय में आते हैं। इसके विपरीत भारत में पांच प्रतिशत मामले ही मध्यस्थता एवं समझौते से सुलझ पाते हैं। वस्तुतः भारत की परम्परागत न्यायप्रणाली को पुनर्जीवित और सशक्त करने की आवश्यकता है। इसके साथ-साथ उत्साह से भरपूर व्यापक न्याय सुधारों की आवश्यकता अपरिहार्य है। जिससे विलंबित न्याय की बीमारी एवं समस्या को समाप्त किया जा सके ।
न्यायिक जवाबदेही
न्यायिक जवाबदेही के मुद्दे ने सर्वाजनिक बहस की चिंगारी पकड़ ली है, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। हाल ही में न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता एवं जवाबदेही की मांग में आई तीव्र वृद्धि ने, सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एवं भारत के मुख्य न्यायाधीश को सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत प्रश्नों के प्रति जवाबदेह बनाने का तथ्य सामने रखा है।
उल्लेखनीय है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश समाचार-पत्र में अपनी व्यक्तिगत संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करते हैं, जबकि यूनाइटेड किंगडम में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी वहां के सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत ली जा सकती है। भारत की न्यायपालिका में भी अब न्यायाधीशों को उनकी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने एवं न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं उन पर लगे कदाचार एवं भ्रष्टाचार संबंधी आरोपों की जांच के संबंध में जानकारी सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत ली जा सके। अर्थात न्यायपालिका में भी सूचना के अधिकार अधिनियम की पहुंच सुनिश्चित हो।
संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यायाधीशों को 100 डॉलर या उससे अधिक कीमत के लिए जाने वाले उपहारों की सार्वजनिक घोषणा करनी होगी। ब्रिटेन सरकार ने ऐसे न्यायाधीशों की सूची जारी करने को कहा जो कम्प्यूटर का दुरुपयोग कर रहे हैं या अश्लील साहित्य देखते हैं। ब्रिटेन में न्यायाधीशों की नियुक्ति को न्यायिक नियुक्ति आयोग में चुनौती दी जा सकती है। जनता को यह अधिकार है कि वह न्यायाधीश के खिलाफ भ्रष्टाचार एवं दुर्व्यवहार की शिकायत न्यायिक व्यवहार आयुक्त के समक्ष कर सकती है। यदि शिकायत कर्ता संतुष्ट नहीं है तो वह उस देश के न्यायिक लोकायुक्त (औम्बुडसमैन) की अपील कर सकता है।
अप्रैल, 2008 में एक सूचना अधिकार आवेदन में पूछा गया कि क्या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी संपति का नियतकालिक ब्यौरा प्रस्तुत करते हैं?
इसके कुछ समय बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री के.जी. बालाकृष्णन ने कहा कि उनका पद सूचना अधिकार अधिनियम की परिधि में नहीं आता क्योंकि वे संवैधानिक पद हैं। तदुपरांत सोमनाथ चटर्जी ने मुख्य न्यायाधीश के कथन की वैधता को चुनौती डी और कहा की सुचना अधिकार अधिनियम सभी लोक सेवकों पर लागू होना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश के वक्तव्य ने विवाद खड़ा कर दिया कि क्या सभी संवैधानिक पद सूचना अधिनियम के दायरे से बाहर हैं? क्या ये पद लोक सेवा की परिधि में नहीं आते? इस दिशा में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 12 फरवरी, 2010 को एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे में आता है। न्यायालय ने कहा कि, न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का व्यक्तिगत परमाधिकार या विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि यह कानून एवं साक्ष्य के आधार पर ईमानदारी एवं निष्पक्षता से निर्णय करने के लिए प्रत्येक न्यायाधीश पर डाली गई जिम्मेदारी है। दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश कानूनन एक लोक प्राधिकार हैं। उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति सार्वजनिक करनी चाहिए। क्योंकि वे नीचे की अदालतों से कम जवाबदेह नहीं हैं, जिनकी सेवा नियमावली में संपत्ति की घोषणा करना शामिल हैं।
भारत जैसा मजबूत लोकतंत्र पारदर्शी न्यायपालिका के बगैर संभव नहीं है। ऐसे में हमारी न्यायिक संस्थाओं को पूर्णतः विवादहीन और नैतिकतावादी बनाए रखने की कोशिशें होती रही हैं। न्यायिक मानक और जिम्मेदारी विधेयक, 2010 इसी दिशा में एक बड़ा कदम है। कानून बन जाने के पश्चात् यह जजेज इन्क्वायरी ऐक्ट, 1968 की जगह लेगा। दरअसल वर्तमान जजेज इन्क्वायरी ऐक्ट की एक बड़ी खामी यह है कि उसमें न्यायिक शिकायतों से जुड़ी जांच के लिए कोई स्थायी प्राधिकरण नहीं है, जबकि न्याय के मंदिरों की विवाद के छीटों से बचाने के लिए न सिर्फ एक स्थायी तंत्र की जरूरत है, अपितु एक ऐसे कानून की भी आवश्यकता है, जो समसामयिक हो। अगर न्याय के उच्चासन पर बैठने वाले ही विवाद में घिर जाएं, तो फिर रास्ता कौन दिखाएगा। विडंबना यह है कि आज न्यायिक सेवा में भ्रष्टाचार की शिकायतें खुद न्यायपालिका से ही आ रही हैं। हालांकि भ्रष्ट न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग जैसा प्रावधान है, पर बेहद लंबी प्रक्रिया एवं सत्ता राजनीति के निहित स्वार्थ के कारण यह अव्यावहारिक ही बना रहा। इसलिए लंबे समय से एक ऐसे कानून की जरूरत महसूस की जाती रही है, जिसके तहत् न सिर्फ उच्च न्यायिक सेवाओं में एक मानक स्थापित किया जा सके, अपितु न्यायिक कर्तव्यों का निर्वाह भी समय पर हो सके। इस नए विधेयक में उच्च न्यायिक संस्थाओं में दुव्र्यवहार व भ्रष्टाचार के मामलों की जांच तीन न्यायाधीशों की समिति द्वारा करने का प्रावधान है। अगर मामला गंभीर होगा, तो उसे उपराष्ट्रपति की अध्यक्षता वाली न्यायिक निगरानी समिति के सुपुर्द कर दिया जाएगा। इस समिति में प्रधान न्यायाधीश द्वारा नामांकित उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त दो विधिवेत्ता भी होगे। न्यायिक जवाहदेही की व्यापक रूप देने के लिए देश के सभी उच्च न्यायालयों में जांच समिति के गठन का प्रावधान है। यह विधेयक न्यायिक संस्थाओं पर नजर रखने का काम ती करता ही है, साथ ही अदालतों का बोझ कम करने में भी पहल करता है। इसमें प्रावधान है कि मामलों की सुनवाई पूरी हीने के तीन महीने के अंदर निर्णय देना होगा।
न्यायिक जवाबदेही को पुख्ता करने के लिए सरकार एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग स्थापित करने की योजना बना रही है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका एवं विधानपालिका की कोई व्यावहारिक भूमिका नहीं है। नियुक्तियां न्यायपालिका द्वारा स्वयं की जाती हैं। इसलिए दोषी न्यायाधीश मुश्किल से हटाए जाते हैं। इसलिए इस दिशा में एक न्यायिक आयोग की स्थापना की जाएगी जो न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं बर्खास्तगी संबंधी मामलों की देखेगा। इसे न्यायाधीशों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने संबंधी अनुशंसा का अधिकार होगा। अंततः स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं जवाबदेह न्यायपालिका ही लोकतंत्र को मजबूती प्रदान कर सकती है। स्वतंत्रता, समानता, अधिकार एवं बंधुत्व को स्थापित कर सकती है। निष्पक्ष एवं स्वतंत्र न्यायपालिका की समायोजना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि यह गणतंत्र की आत्मा है एवं किसी भी कीमत पर इसका परिरक्षण आवश्यक है। इसकी सक्रियता एवं उत्तरदायित्व से ही विकसित नागरिक समाज संभव हो पाएगा।
न्यायिक सुधार की आवश्यकता
न्यायपालिका देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्तम्भ है। इसलिए न्यायपालिका के सुधार की बात समय-समय पर उठती रही है। संवैधानिक संरक्षक होने के कारण भी इसकी एक महती जिम्मेदारी है। स्वतंत्रता के 65 वर्षों के बाद भी भारतीय न्यायिक व्यवस्था तक जनसामान्य की पहुंच नहीं बन पायी है। आज न्यायिक व्यवस्था की शक्ति, आधारिक ढांचे, न्यायिक निष्पादन एवं प्रशासन चिंता के विषय हैं जिनका जल्द समाधान अपेक्षित है। उल्लेखनीय है कि भ्रष्टाचार का अध्ययन करने वाली अग्रणी वैश्विक संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने वर्ष 2007 की अपनी रिपोर्ट में भारत की न्यायपालिका को तीसरा सबसे भ्रष्ट क्षेत्र बताया। इसके साथ-साथ सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने अपने एक अध्ययन में बताया कि भारत के 77 प्रतिशत लोग न्यायिका व्यवस्था की भ्रष्ट मानते हैं। आधे से ज्यादा परिवारों का मानना है कि न्यायिक सेवाओं के प्रदाय, त्वरित निपटान, पक्षपाती निर्णय, शपथ-पत्र एवं जमानत प्राप्त करने के लिए रिश्वत का व्यापक तौर पर लेन-देन होता है। इन सब तथ्यों के प्रकाश में न्यायिक व्यवस्था के सुधार की अपरिहार्यता दृष्टिगत होती है।
विभिन्न आयोगों एवं समितियों के सुझाव
- विधि आयोग ने 1987 एवं 1988 में सिफारिश की कि सर्वोच्च न्यायालय में शिफ्ट व्यवस्था लागू की जाए ताकि कम लागत पर अधिकतम निष्पादन प्राप्त किया जा सके। साथ ही न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि की जाए जिससे वर्ष 2000 तक प्रत्येक 10 लाख की जनसंख्या पर 107 न्यायाधीशों के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।
- 1999 में शेट्टी आयोग ने न्यायिक अधिकारियों के वेतन भत्तों में बढ़ोतरी करने एवं अधीनस्थ न्यायालयों के लिए एकरूप सेवा शर्ते लागू करने का सुझाव दिया।
- मलिमथ समिति ने वर्ष 2003 में न्यायाधीशों की अर्हता की समीक्षा करने का प्रस्ताव रखा ताकि उच्च क्षमता वाले न्यायधीशों की नियुक्ति सके एवं सभी न्यायाधीशों को न्यायालय प्रबंध में प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।
न्यायिक सुधार एवं आर्थिक संवृद्धि
निश्चित रूप से कुशल न्यायिक व्यवस्था और आर्थिक संवृद्धि में पारस्परिक संबंध है। त्वरित एवं कुशल न्यायपालिका; बाजार विकास, विदेशी निवेश, संपत्ति अधिकार एवं गरीबी निवारण में सहायता प्रदान करती है। बॉन विश्वविद्यालय ने एक अध्ययन में पाया कि पारदर्शी एवं कुशल न्यायपालिका प्रति व्यक्ति आय को 1.9 प्रतिशत तक बढ़ा सकती है। विभिन्न शोध एवं अध्ययनों ने स्पष्ट किया है कि न्यायपालिका की दयनीय स्थिति देश के लिए काफी महंगी साबित होती है। हार्वर्ड लॉ स्कूल की रिपोर्ट के अनुसार, न्यायिक व्यवस्था के पंगु होने के कारण ब्राजील का सकल घरेलू उत्पाद 20 प्रतिशत तक गिर गया। गौरतलब है कि भारत के विभिन्न न्यायालयों में 3 करोड़ से भी अधिक प्रकरण लंबित हैं, तो इसकी आर्थिक लागत का अनुमान लगाया जा सकता है।
धीमी और सुस्त न्यायिक व्यवस्था व्यापारिक समझौतों एवं नए निवेशों को कमजोर करती है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने अपने अध्ययन में उजागर किया कि लंबित मामलों एवं व्यापार में एक पारस्परिक संबंध है। 60 प्रतिशत से अधिक कपनियां या व्यापारिक इकाइयां उन राज्यों में अपना व्यापार नहीं बढ़ाना चाहती है जहाँ विवादों के समाधान न्यायालयों में लंबित पड़े रहते हैं।
न्यायिक सुधार के सुझाव
- न्यायाधीशों की संख्या वर्तमान 14,000 से बढ़ाकर 50,000 की जानी चाहिए।
- न्यायालयों की सूचना प्रौद्योगिकी द्वारा नवीकृत किया जाए ताकि कार्यकुशलता बढ़ सके।
- मुकदमों के त्वरित निपटाने हेतु वैकल्पिक उपाय जैसे- लोक अदालत, कुटुम्ब न्यायालय, ग्राम न्यायालय आदि की अधिक से अधिक संख्या में स्थापना की जाए।
- न्यायाधीशों को जटिल मुकदमों के सफल संचालन हेतु उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
- स्वायत्त निकाय द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति निष्पक्ष रूप से की जानी चाहिए।
- राष्ट्रीय न्यायिक परिषद का त्वरित गठन किया जाए ताकि न्यायाधीशों एवं न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके।
- विधि व्यवसाय में तेजी से सुधार अत्यावश्यक है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर के विधि विश्वविद्यालय खोले जाने चाहिए।
केन्द्रीय कानून मंत्री रहे वीरप्पा मोइली का यह निर्णय स्वागत योग्य था कि देश में डेढ़ लाख विचाराधीन कैदियों को रिहा किया जाएगा। वीरप्पा मोइली इस काम के लिए कितने गंभीर थे इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि उन्होंने स्वयं एक विशेष अदालत में जाकर दर्शक दीर्घा में बैठकर मजिस्ट्रेट का हौसला बढ़ाया और उस मजिस्ट्रेट ने एक दिन में 40 केसों का निपटारा किया तथा 58 कैदियों की जेल से रिहा किया।
वस्तुतः लचर न्यायिक व्यवस्था; कोलाहल, अव्यवस्था, गरीबी एवं पिचादेपन को बढ़ावा देती है। आपराधिक गतिविधियाँ तीव्र होती हैं और कुत्सित लोग अपना शिकंजा मजबूत कर देते हैं ऐसे में समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व, जो लोकतंत्र का आदर्श एवं उद्देश्य हैं, धूमिल हो जाते हैं। निश्चित रूप से . न्यायिक सुधार में होने वाला व्यय देश के भावी आर्थिक विकास की निधि एवं निवेश हैं। प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने कहा है कि- एक सफल न्यायिक व्यवस्था विकास प्रक्रिया का एक अहम् हिस्सा है, न केवल इसलिए कि यह आर्थिक समृद्धि की वृद्धि में सहायक है अपितु इसलिए भी कि यह नागरिक समानता, स्वतंत्रता, अधिकार एवं भ्रातत्व की रक्षा भी करती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2011 में मुख्य सतर्कता आयुक्त पी.जे. थॉमस की नियुक्ति रद्द कर एक बार फिर जनहित से जुड़े मामलों में अपनी सक्रियता दिखाई। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, गृहमंत्री तथा लोकसभा में विपक्ष के नेता को मिलाकर बनी एक समिति द्वारा की जाती है। 15वीं लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नियुक्ति के समय ही अपनी मत भिन्नता प्रकट की थी तथा थॉमस की नियुक्ति का विरोध किया था। इस मामले में अंततोगत्वा सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति को रद्द कर जन कल्याण के मामले में अपनी भूमिका स्पष्ट कर दी।
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय हमेशा से ही जनकल्याण से जुड़े मुद्दों में दिलचस्पी दिखाती रहती है तथा जनकल्याण से जुड़े मामले, नीतियों को तय करने के मामले में भी अपनी भूमिका स्पष्ट करती रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सरकार के सामने प्रश्न रखा जिसे स्पष्ट करना सरकार के लिए आसान नहीं रहा। मामला आखिरकार लोक लेखा समिति तथा संयुक्त संसदीय समिति को सौंप दिया गया जो इस मामले की सुनवाई कर रही है। भारतीय न्यायपालिका, कार्यपालिका द्वारा लिए गए निर्णयों की शायद ही बिना न्यायिक समीक्षा किए छोड़ती है। कुछ मामलों में वह स्वयं भी सरकार की नीति-निर्धारण के लिए मापदंड तय कर देती है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 137 सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार देता है कि पास मंगवा सकती है या सुनवाई कर सकती है। भारत की जनता शायद ही न्यायालीय आदेशों से, कुछ अपवादों को छोड़कर नाराज हुई हो। न्यायालीय आदेशों ने सदैव जनता का विश्वास जीतने में सफलता प्राप्त की है।
एक तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय सर्वोच्च अपने समकक्षीय न्यायालयों, चाहे वे अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका के मुकाबले अधिक सक्रिय एवं प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप करने वाला रहा है। भारत में सरकार के साथ-साथ विपक्ष के भी बड़े-बड़े राजनेताओं को न्यायालय के आदेशों से असहजता महसूस हुई है। मामला चाहे 2जी स्पेक्ट्रम, मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति का रहा हो, या अनेक घोटालों का, सभी में न्यायालय ने राजनीतिज्ञों की कटघरे में खड़ा किया है।
स्पष्ट है कि न्यायालीय आदेशों ने सुशासन की स्थापना में मदद की है। सुशासन अब भारतीय लोकतंत्र में अपनी जगह बनाने में सफल होता जा रहा है। एक देश जिसने स्वयं को जनकल्याणकारी घोषित कर रखा हो, उसे निःसंदेह ही ऐसी नीतियों का निर्माण करना चाहिए, जिससे देश में सामाजिक-आर्थिक सुधार हो सके। भारत में देखा गया है कि प्रशासनिक लापरवाही से उनका सफल क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। न्यायालय का यह प्रयास रहा है कि लोगों की जीवन गुणवत्ता में सुधार आए। प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार आए। क्रियान्वयन करने वाली एजेंसियों की क्षमता में वृद्धि हो। बेहतर क्षमता, पारदर्शिता, वैधता, लोक कल्याणकारी के साथ-साथ उत्तरदायी प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की जा सके। भ्रष्टाचार से मुक्त सेवा आम लोगों को प्राप्त हो सके।
हमें यह बात ध्यान रखनी होगी की न्यायालय को अपने निर्णयों को लागु करवाने के लिए आखिरकार कार्यपालिका एवं विधायिका के ऊपर ही निर्भर होना पड़ता है। संविधान के इन्हीं दो अंगों की सहायता पर न्यायालय का सम्मान टिका होता है। अतः न्यायालय को अपना निर्णय देते समय उसके व्यवहारिक पहलुओं के प्रति चेतनाशील होना चाहिए। न्यायालय यह निर्धारित करने का प्रयास करता है कि किन विशेष कदमों से सामाजिक न्याय की स्थापना की जा सकती है। फिर भी न्यायिक सक्रियता को बेहद संतुलित तरीके से जारी रखना होगा। ऐसा न हो कि इससे राज्य के विभिन्न अंगों के मध्य शक्ति पृथक्करण की अवधारणा को चोट पहुंचे। अतः न्यायपालिका की आत्मानियंत्रण रखते हुए न्यायिक सक्रियता को लेकर कार्य करना होगा।