प्रान्तीय राजवंश: गुजरात Provincial Dynasty: Gujarat
गुजरात प्रान्त के विशाल धन के कारण, जो विशेषत: खंभात, सूरत तथा भडौंच के समृद्ध बन्दरगाहों से होकर किए जाने वाले क्रियाशील वाणिज्य से हुआ था, उस पर बार-बार बाहरी हमले हुआ करते थे। अलाउद्दीन खल्जी ने इसे 1297 ई. में दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। तब से बहुत समय तक दिल्ली के सुल्तानों द्वारा नियुक्त मुस्लिम सूबेदार इस पर शासन करते रहे। पर 1401 ई. में जफर खाँ (एक राजपूत से मुसलमान बने हुए का पुत्र) ने, जिसे फीरोज तुगलक के कनिष्ठ पुत्र मुहम्मद शाह ने 1391 ई. में उस प्रान्त का शासक नियुक्त किया था, विधिवत् स्वतंत्रता धारण की। 1403 ई. में जफर खाँ के पुत्र तातार खाँ ने कुछ असन्तुष्ट सरदारों के साथ षड्यंत्र कर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, उसे असावल में बंदी बना लिया तथा नसिरुद्दीन मुहम्मद शाह के नाम से अपने को राजा घोषित कर दिया। वह अपना अधिकार स्थापित करने के लक्ष्य से दिल्ली की ओर भी बढ़ा, पर उसके चाचा एवं संरक्षक शम्स खाँ ने उसे मौत के घाट उतार डाला। इससे जफर खाँ गद्दी पुनः प्राप्त करने तथा सुल्तान मुजफ्फर शाह की उपाधि धारण करने में समर्थ हो गया। मुजफ्फर शाह ने मालवा के सुल्तान हुशंग शाह के विरुद्ध सफल युद्ध किया तथा धार को जीत लिया। जून, 1411 ई. में उसकी मृत्यु हुई। उसके पश्चात् उसका पौत्र एवं भावी उत्तराधिकारी अहमद शाह गद्दी पर बैठा। अहमद उचित ही गुजरात की स्वतंत्रता का वास्तविक संस्थापक समझा गया है। वह पर्याप्त साहस एवं स्फूर्ति से सम्पन्न था। लगभग तीस वर्षों के अपने पूरे शासनकाल में वह अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाने में व्यस्त रहा, जो उसके दोनों पूर्वगामियों के शासनकालों में असावल के निकट एक छोटे क्षेत्र में परिमित हो गया था। मालवा के सुल्तान तथा असीरगढ़, राजस्थान एवं अन्य पाश्र्ववर्ती प्रदेशों के नायकों के साथ युद्धों में उसे बराबर सफलता प्राप्त हुई। उसने अपने राज्य के असैनिक प्रशासन को सुधारने पर भी ध्यान दिया। वह निष्पक्ष होकर न्याय करता था। अपने शासनकाल के प्रथम वर्ष में असावल के प्राचीन नगर के स्थान पर उसने अहमदाबाद के सुन्दर नगर का निर्माण किया तथा वहीं उसी स्थान पर अपनी राजधानी ले गया, जो आज तक उसकी रुचि एवं उदारता का साक्षी है। उसका एकमात्र दोष उसकी धार्मिक असहिष्णुता थी। 16 अगस्त, 1442 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी। उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद शाह गद्दी पर बैठा, जो अपनी मृत्यु (10 फरवरी, 1451 ई.) तक राज्य करता रहा। उसके बाद मुहम्मद शाह के पुत्र कुत्बुद्दीन अहमद एवं मुहम्मद के भाई दाऊद नामक दो दुर्बल शासक आये। गद्दी पर बैठने के कुछ ही दिनों के अन्दर अपने बुरे तरीकों के कारण दाऊद सरदारों की सहानुभूति से हाथ धो बैठा। उन्होंने उसे गद्दी से उतारकर, उसके भतीजे और अहमद शाह पौत्र अबुल फतह खाँ को, महमूद के नाम से, गद्दी पर बैठाया। उसे सामान्यत: बैगरा कहा जाता है।
मुहम्मद बैगरा निस्संदेह अपने वंश का सबसे विख्यात सुल्तान था। उसके राज्य का एक प्रमुख मुस्लिम इतिहासकार लिखता है कि- उसने गुजरात राज्य की महिमा और ज्योति बढ़ायी। वह अपने पूर्वगामियों एवं उत्तरगामियों सहित गुजराती राजाओं में सर्वश्रेष्ठ था। चाहे प्रचुर न्याय और उदारता के लिए हो या इस्लाम एवं मुसलमानों के कानूनों के प्रचार के लिए, चाहे बचपन, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था में एक समान निर्णय के ठोसपन के लिए हो या शक्ति, वीरता एवं विजय के लिए, वह श्रेष्ठता का आदर्श था। अपेक्षाकृत कम उम्र में गद्दी पर बैठाने पर भी, उसने तुरंत अपने राज्य-कार्य के प्रबन्ध को अपने ही हाथों में ले लिया तथा अपने विरोधी दरबारियों को पराजित कर दिया, जिन्होंने उसके भाई हसन खाँ का गद्दी पर बैठने का षड्यंत्र रच रखा था। उसने लगभग तिरपन वर्षों तक किसी मंत्री अथवा अन्त:पुर के प्रभाव में आये बिना उद्यम से राज्य किया। वीर सैनिक होने के कारण उसे अपने सभी आक्रमणों में सफलता मिली। उसने निजाम शाह बहमनी की मालवा के महमूद खल्जी के आक्रमण से रक्षा की, कच्छ के सूम्रा एवं सोधा नायकों को हराया, जगत (द्वारका) के सामुद्रिक डाकुओं को दबाया तथा जूनागढ़ एवं चम्पानेर के मजबूत दुर्गों को जीत चम्पानेर का नाम बदलकर मुहम्मदाबाद रख दिया। उसकी विजयों के फलस्वरूप गुजरात का राज्य अपनी चरम सीमाओं तक पहुँच गया। यह राज्य “मांडू की सभाओं से लेकर जूनागढ़ होते हुए सिंध की सीमाओं तक, जालोर और नागौड़ होकर शिवालिक पर्वत तक, बलगाना होकर नासिक अम्बक तक, बुरहानपुर से लेकर दक्कन में बाराह एवं मलकापुर तक, बुरहानपुर की और करकून एवं नर्मदा नदी तक, ईडर की और चितौड़ एवं कुम्भलगढ़ तक तथा समुद्र की ओर चौल की सीमाओं तक फ़ैल गया। अपने शासनकाल के अंत में मिस्र के सुलतान कस्नावा-अल-गौरी के साथ मिलकर उसने भारतीय सागरों में पुर्तगीज की उभरती हुई शक्ति को रीकने की कोशिश की। इन पुर्तगीजों ने वास्कोडिगामा द्वारा 1498 ईं में अंतरी मार्ग (यूरोप से उत्तमाशा अंतरीप होकर भारत पहुँचने का समुद्र-मार्ग) का पता लगाए जाने के 10 वर्षों के अन्दर ही लाल सागर एवं मिस्र से होने वाले मसाले के लाभदायक व्यापार पर प्रायः एकाधिकार स्थापित कर लिया था। इससे मुस्लिम व्यापारियों एवं पश्चिम भारत के खम्भात एवं चौल जैसे महत्वपूर्ण बंदरगाहों के हितों पर क्षति पहुंची थी। जद्दा के शासक अमीर हुसैन कुर्द के अधीन मिस्र के बेड़े तथा गुजरात के दरबार में काम पाए हुए एक तुर्क मालिक अयाज के अधीन भारतीय सैन्यदल ने एक पुर्तगीज बेड़े को जिसका सेनापतित्व पुर्तगीज राजप्रतिनिधि फैन्सेस्को डी अलमिडै का पुत्र डोम लौरेंसो कर रहा था, बम्बई से दक्षिण चौल के निकट 1508 ई. में हरा दिया पर 1509 ई. में पुर्तगीजों ने दीव के निकट मिलेजुले मुस्लिम बेड़े को करारी हार दी और सामुद्रिक तट पर अपना नाविक प्रभुत्व पुनः प्राप्त कर लिया। महमूद ने उन्हे दीव में कारखाने (फैक्ट्री) के लिए भूमि दी, माना जाता है की इसने दो किलों को जीता था इसलिए इसका नाम बेगडा पड़ा। ये किले गिरनार और चम्पानेर थे। उसने गिरनार का नाम मुस्तफाबाद और चम्पानेर का नाम मोहम्मदाबाद रखा। इसका दरबारी कवि उदयराज था जिसने राजा विनोद नामक ग्रन्थ लिखा। यह महमूद बेगड़ा की जीवनी है। माना जाता है कि बचपन से ही उसे विष देकर पाला गया था इसलिए उसके शरीर पर बैठने वाली मक्खी भी मर जाती थी।
23 नवम्बर, 1511 ई. मो. महमूद बैगरा की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र मुजफ्फर द्वितीय को गद्दी मिली। मुजफ्फर द्वितीय ने राजपूतों के विरुद्ध सफल युद्ध किये तथा मालवा के महमूद खल्जी को पुन: उसकी गद्दी पर बैठा दिया! 7 अप्रैल, 1526 ई. को मुजफ्फर की मृत्यु के पश्चात् सिकन्दर तथा नासिर खाँ महमूद द्वितीय नामक उसके पुत्रों के दो छोटे महत्वहीन शासनकाल आते हैं। अंत में उसी वर्ष जुलाई महीने में उसके अत्याधिक साहसी पुत्र बहादुर ने गद्दी पर अधिकार कर लिया।
बहादुर अपने दादा के समान साहसी एवं युद्धप्रिय था। वह मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक विख्यात शासक था। उसने न केवल मालवा के महमूद द्वितीय को परास्त कर 1531 ई. में उसके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया, बल्कि अपने खानदान के पुराने शत्रु मेवाड़ के राणा के प्रदेशों को रौद डाला तथा 1534 ई. में चित्तौड़ को तहस-नहस कर दिया। पर हुमायूँ के विरुद्ध लड़े गये युद्धों में भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया। उसे नव-विजित मालवा प्रान्त ही नहीं, बल्कि अपने राज्य के अधिकतर भाग से हाथ धोना पड़ा। पर दिल्ली की सेना के लौट जाने पर बहादुर ने अपने राज्य को पुनः प्राप्त कर लिया तथा पुर्तगीजों के निकालने के लिए कटिबद्ध हो गया। उसने पुर्तगीजों से मुगलों के विरुद्ध सहायता माँगी थी, पर नहीं मिली। पुर्तगीज शासक नुन्हो-डा-कुन्हा को अपने पास बुलाने में असफल हो, वह स्वयं फरवरी, 1537 ई. में उससे मिलने अपने जहाज पर चला। पर पुर्तगीजों ने उसे छलपूर्वक डुबो दिया तथा उसके सभी साथियों को मार डाला। बहादुर की मृत्यु के बाद उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों के अधीन जो प्रतिद्वन्द्वी सरदारों के दलों के हाथों के कठपुतले मात्र थे, गुजरात में अराजकता और गड़बड़ी का तांडव नृत्य करने में लगा। इसलिए अकबर ने इसे 1572 ई. में आसानी से मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया।