गुप्तोत्तर काल: वर्धन राजवंश Post Gupta Period: Vardhan Dynasty
गुप्तोत्तर काल
इतिहास के अपना एक चक्र पूरा कर वहीँ आ गया जहाँ मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद की स्थिति थी। गुप्तों के साम्राज्य के धराशायी हो जाने के बाद भारतवर्ष में पुन: विघटन ओर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियाँ बलवती हो गई। स्कन्द गुप्त के निधन के उपरान्त शीघ्र ही प्रान्तीय राज्य अपनी स्वतंत्रता जयघोष करने लगे। गुप्त-साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर जिन राज्यों और राजवंशों का अभ्युदय हुआ, उनमें मुख्य थे- 1. वल्लभी के मैत्रक, 2. मगध के उत्तरकालीन गुप्त तथा 3. कन्नौज के मौखरी। ये राज्य परस्पर संघर्षरत थे और साथ ही अपने से दुर्बल राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहते थे। विभिन्न राज्यों के पारस्परिक विद्वेष और संघर्ष तथा केन्द्र में शक्तिशाली शासक के अभाव का लाभ उठा कर इसी समय भारत पर हूणों ने भी अपने आक्रमण प्रारम्भ कर दिए। हूण एशिया के रहने वाले बर्बर लोग थे जिन्होंने चौथी एवं पाँचवीं शताब्दियों में एक प्रकार से सारे विश्व को आतंकित कर रखा था। उनकी क्रूरता, निर्दयता, रक्तपात और हिंसा की कथाएँ आज भी रोगटे खड़ी कर देने वाली हैं। सम्राट् स्कन्दगुप्त ने 455 तथा 467 ई. के मध्य में हूणों को बुरी तरह पराजित कर दिया था। इससे कुछ समय के लिए हूणों के आक्रमण से भारतीय जनता को मुक्ति मिल गई थी। किन्तु कालान्तर में वे पुन: सशक्त होकर अपनी आक्रामक नीति को मूर्त रूप देने लगे। ऐसे समय थानेश्वर में एक ऐसे राजवंश का उत्कर्ष हुआ जिसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने वाले हूणों से देश की रक्षा के प्रत्युत, एक बार पुन: भारत को राजनैतिक एकता के सूत्र में बाँधने में सफलता प्राप्त की। थानेश्वर का यह राजवंश वर्धन वंश के नाम से सुविख्यात है। सम्राट् हर्ष वर्धन वंश का सबसे प्रतापी सम्राट् था।
वर्धन-वंश के अध्ययन-स्रोत- वर्धन वंश के विषय में हमें प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। इस अध्ययन सामग्री को हम मुख्यतया निम्नलिखित रूप में रख सकते हैं-
साहित्यिक सामग्री– जहाँ तक साहित्यिक सामग्री का प्रश्न है, इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी रचना हर्ष चरित है। हर्षचरित सम्राट् हर्षवर्द्धन के राजकवि बाणभट्ट की रचना है। संस्कृत साहित्य की यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें न केवल सम्राट् हर्ष का राजनैतिक जीवन प्रत्युत तत्कालीन सामाजिक तथा आर्थिक जीवन का भी उल्लेख है। यद्यपि बाण ने अपने आश्रयदाता का यशोगान एक प्रशस्तिकार के रूप में किया है। तथापि इसमें पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। बाणभट्ट की अन्य महत्त्वपूर्ण रचना कादम्बरी है।
कादम्बरी से भी तत्कालीन भारत के सामाजिक-धार्मिक जीवन के विषय में अच्छी जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त दंडिन के दशकुमार चरित, कामन्दक के नीतिसार तथा कात्यायन एवं देवाला की स्मृतियाँ तथा नारद-स्मृति की टीका से हर्ष के विषय में उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है।
हर्ष न केवल विद्वानों का आश्रयदाता था। प्रत्युत वह स्वत: भी उच्च कोटि का विद्वान् तथा लेखक था। रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिक उसकी सुप्रसिद्ध रचनाएँ हैं। हर्ष और हर्ष कालीन भारत के विषय में इन रचनाओं से सहायता मिलती है।
उपरोक्त साहित्यिक साध्यों के अतिरिक्त कतिपय पुरातात्विक साध्यों से भी हमें हर्ष के विषय में जानकारी मिलती है। पुरातात्विक साध्यों में अभिलेख, मुद्राएँ और स्मारक हैं। जहाँ तक, अभिलेखों का प्रश्न है, मधुबन अभिलेख, वशखरा अभिलेख तथा गद्देमन अभिलेख मुख्य हैं।
इन पुरातात्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त हर्षकालीन मुद्राएँ भी हर्ष के विषय में जानकारी प्रदान करती हैं। उसके दो पुत्र राज्यवर्धन द्वितीय तथा हर्षवर्द्धन और एक पुत्री राज्य श्री थी। राज्य श्री का विवाह मौखरी राजा गृहवर्मा से हुआ था। मौखरियों के साथ सम्बन्ध-स्थापन से वर्धन राजवंश की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। कारण स्पष्ट है, वर्धन राजवंश जिसे थानेश्वर का राजवंश भी कहा जाता है, पहले मौखरियों के सामन्त थे, बाद में उन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। प्रभाकर वर्धन के पौरुष और पराक्रम का परिचय उस युग के ऐतिहासिक साक्ष्यों से मिल जाता है। उदाहरण के लिए बाणभट्ट ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना हर्षचरित में लिखा है वह हूण हिरण के लिए सिंह, सिन्धु राजाओं के लिए तप्त ज्वर, गुर्जर नरेशों की निद्रा भंग करने वाला, गंधार स्वामी के लिए पित्तरोग एवं मालव की भाग्य-लक्ष्मी के लिए कुल्हाड़ी था। इस प्रकार प्रभाकर वर्धन ने तत्कालीन भारत के राजनैतिक मान-चित्त में अपना स्थान बना लिया था।
प्रभाकर वर्धन अपनी शक्ति-विस्तार और संगठन के लिए जब प्रयास कर रहा था, उसी समय (लगभग 604 ई. में) हूणों ने साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर आक्रमण कर दिया। प्रभाकर वर्धन ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन द्वितीय को हूणों का दमन करने के लिए भेजा। इधर प्रभाकर वर्धन अस्वस्थ हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। जिस समय प्रभाकर वर्धन मृत्यु शैय्या पर पड़ा हुआ था। राज्यवर्धन हूणों से युद्ध को राज्य-भार सौंप दिया किन्तु हर्ष राजपद के लिए अनिच्छक था। उसने राज्यवर्धन को बुलाने के लिए राजदूत भेजे। इसी बीच मालव नरेश देवगुप्त ने महाराज गृहवर्मन की हत्या कर दी और गृहवर्मन की पत्नी राज्य-श्री को कारागार में डाल दिया। अतएव मालव नरेश को दण्डित करने तथा अपनी बहन को मुक्त कराने की दृष्टि से राज्यवर्धन एक विशाल सेना के साथ मालव नरेश की ओर चल पड़ा। उसने बड़ी आसानी से मालव-नरेश को पराजित कर दिया। वाण के कथनानुसार गौड़-नरेश ने धोखा देकर राज्यवर्धन की हत्या कर दी। डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार, डॉ. आर.डी. बनर्जी तथा कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार मालव नरेश के मित्र गौड़ाधिपति शशांक ने राज्यवर्धन की युद्ध में पराजित होने के उपरान्त ही उसकी हत्या की थी। ह्येनसांग के अनुसार, शशांक और उसके मंत्रियों ने राज्यवर्धन को सम्मेलन में बुलाया और उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार किन प्रकार किन परिस्थितियों में किस प्रकार राज्यवर्धन की हत्या की गई यह प्रश्न विवादास्पद है।
राज्यवर्धन की हत्या से क्षुब्ध और बहन राज्य-श्री की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध हर्ष ने अपने सेनापति और मंत्रियों के परामर्श से राज्य-सिंहासन ग्रहण किया। इतिहासकारों के अनुसार हर्ष के सिंहासनारोहण की तिथि 606 ई. है। इसी समय से हर्ष संवत प्रवर्ति हुआ।
हर्ष ने सर्वप्रथम गौड़ नरेश शशांक को दंडित करने का संकल्प लिया। उसने कहा कि- यदि मैंने कुछ दिनों के अन्तर्गत ही पृथ्वी को गौड़विहीन न कर दिया तो मैं पतंग की भाँति प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रविष्ट होकर अपने प्राणों की आहूति दे दूंगा। वह शशांक पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हो गया। मार्ग में उसे सूचना मिली कि कन्नौज पर किसी ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है और श्री को बंदी गृह से मुक्त कर लिया है और वह विन्ध्य पर्वत के जंगलों की ओर चली गई है। पिता और भरता की मृत्यु से, पहले से ही शोकाकुल हर्ष और भी क्षुब्ध होकर राज्य-श्री को ढूंढने के लिए निकल पड़ा। सौभाग्यवश राज्य-श्री उसे मिल गयी। उस समय वह चीता बनाकर अपने को चिताग्नि में समर्पित करने के लिए तैयार कर रही थी। बहुत समझाने-बुझाने के उपरांत वह राज्य-श्री को साथ लेकर शिविर लौट आया। हर्ष के विषय में जानकारी देने वाली कई मुद्राएँ हैं। इन मुद्राओं में एक स्वर्ण मुद्रा है जिसके अग्रभाग पर परम-महारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री महाराज हर्षदेव उत्कीर्ण है और पृष्ठ पर नंदी पर आसीन शिव और पार्वती का चित्र है। हर्षकालीन भारत की जानकारी का अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत ह्वेनसांग का राजा-वृत्तान्त है। ह्येनसांग एक चीनी यात्री और बौद्ध भिक्षु था। वह भारत में लगभग चौदह वर्षों (630-644 ई.) तक रहा था। उपर्युक्त सामग्री के माध्यम से सम्राट् हर्ष और हर्षकालीन भारत के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।