संसद Parliament
भारतीय संविधान ने देश की शासन प्रणाली के रूप में संसदीय शासन व्यवस्था को चुना है। इस शासन व्यवस्था में विधायिका एवं कार्यपालिका का सुंदर समन्वय होता है। इसमें कार्यपालिका शक्ति विधानमण्डल के जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित और बहुमत दल के सदस्य समूह के हाथों में निहित होती है। यह शक्ति उनके पास तभी तक रहती है, जब तक कि उन्हें विधानमण्डल में निर्वाचित सदन में बहुमत प्राप्त है। भारतीय संविधान के अंतर्गत संघीय विधानमंडल को संसद की संज्ञा प्रदान की गई है और यह संसद द्विसदनात्मक सिद्धांत के आधार पर संगठित की गई है। अनुच्छेद-79 के अनुसार, संघ के लिए एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों से मिलकर बनेगी, जिनके नाम क्रमशः राज्य सभा और लोक सभा होंगे।
भारतीय संविधान का स्वरूप किसी विदेशी संविधान का अनुकरण मात्र न होकर अपने में एक अनुपम और नवीन प्रयोग है। संविधान निर्माता इस तथ्य से परिचित थे कि ब्रिटिश ढंग की संसदीय प्रभुता स्वीकार करने में अनेक संस्थानात्मक कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं। वे ती भारत के लिए ऐसी व्यावहारिक शासन व्यवस्था चाहते थे जो कि भारतीय वातावरण में पोषित हो सके। इसी कारण भारतीय संसद को ब्रिटिश संसद की भांति सम्प्रभु नहीं बनाया गया।
संसद की सम्प्रभुता का प्रश्न अनेक अवसरों पर वाद-विवाद का कारण बना है। केशवानंद भारती के मामले में भी पालकीवाला ने इसी प्रश्न को उठाते हुए संसद की शक्तियों को मर्यादित बतलाया। उनके अनुसारसंसद के क्षणिक बहुमत द्वारा बुनियादी मानव स्वतंत्रता का हरण नहीं किया जा सकता एवं संसद संविधान के अनिवार्य और स्थायी तत्वों की संशोधित नहीं कर सकती।
संसद की भाषा |
संविधान के अनुच्छेद 120 के अंतर्गत संविधान के भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किंतु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संसद में कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परंतु यथास्थिति, राज्य सभा का सभापति या लोकसभा का अध्यक्ष अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिंदी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की आज्ञा दे सकेगा। |
संसद के कार्य Function’s of The Parliament
आधुनिक समय में संसद का कार्य केवल कानून बनाने तक ही सीमित नहीं रह गया है, अपितु यह संस्था विविध प्रकार के कृत्यों एवं दायित्वों का निर्वहन कर रही है। फिर भी, संसद के कुछ मूलभूत कार्य एवं उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं-
राजनीतिक एवं वित्तीय नियंत्रण
केंद्र में सरकार तभी तक सत्तासीन रहती है, जब तक कि उसे संसद के निचले सदन अर्थात् लोकसभा का विश्वास एवं बहुमत प्राप्त है। सदन के बहुमत का समर्थन खो देने पर सरकार अपदस्थ हो जाती है। संविधान के अनुसार अनुमानित प्राप्तियों एवं व्यय का वार्षिक विवरण सरकार द्वारा अनिवार्य रूप से प्रस्तुत किया जाता है। संसद की अनुमति के बिना सरकार न तो कोई नया कर लगा सकती है और न ही राजकोष से एक भी पैसा व्यय ही किया जा सकता है।
प्रशासनिक उत्तरदायित्व
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में नियम एवं नीतियां बनाने का कार्य संसद द्वारा तो उन्हें क्रियान्वित करने का कार्य प्रशासन द्वारा किया जाता है। अतः क्रियान्वयन में कोई भी त्रुटि होने पर उसका स्पष्टीकरण मंत्रियों को नहीं, बल्कि अधिकारियों को देना होता है। संसद किसी भी सार्वजनिक नीति की सामाजिक-आर्थिक प्रगति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ सकती है और इस तथ्य की जांच कर सकती है कि प्रशासन ने स्वीकृत नीतियों के अधीन अपने दायित्वों का ठीक ढंग से निर्वहन् किया है अथवा नहीं और जिस प्रयोजनार्थ उसे शक्तियां प्रदान की गई थीं उनका प्रयोग उन्हीं के लिए किया गया है या नहीं। क्या धन संसदीय स्वीकृति के अनुसार ही व्यय किया गया है? इससे प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक नीतियों के क्रियान्वयन में अधिक सजगता बरती जाती है। संसदीय समिति प्रणाली, प्रश्न पूछना, ध्यानाकर्षण सूचनाओं, आधे घंटे की चर्चाओं इत्यादि जैसे विभिन्न प्रक्रियागत साधन भी प्रशासनिक कार्यों पर संसदीय निगरानी रखने हेतु अत्यधिक सशक्त माध्यम हैं, जिनके माध्यम से संसद को विभिन्न जानकारियां प्राप्त होती हैं।
जानकारी प्राप्त करने का अधिकार
जानकारी प्राप्त करना संसद की सम्भवतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्ति है। संसद के सदस्य प्रश्न पूछकर, मौखिक अथवा लिखित रूप में या किसी भी सार्वजनिक महत्व के प्रश्न पर चर्चा करके जानकारी प्राप्त करते हैं। संसद द्वारा जानकारी प्राप्त करने का अधिकार असीम है; साथ ही इस पर यह अंकुश भी है कि यदि किसी जानकारी को उद्घटित करने से राष्ट्रीय हित अथवा राज्य की सुरक्षा पर आंच आती हो तो उसे देने पर जोर नहीं दिया जा सकता। वस्तुतः यह सरकार का कर्तव्य है कि वह समय-समय पर पूर्ण, वास्तविक एवं स्पष्ट जानकारी संसद की उपलब्ध कराए। सरकार द्वारा यह जानकारी मंत्रियों द्वारा सदन में वक्तव्य देकर, प्रतिवेदन एवं पत्र सभा पटल पर रखकर अथवा दस्तावेज संसद के पुस्तकालय में रखकर उपलब्ध कराई जाती है। सरकार द्वारा संसद को उपलब्ध कराई गयी जानकारी यदि महत्वपूर्ण होती है तो उसे यथाशीघ्र प्रकाशित कर दिया जाता है और उसका प्रयोग सदन में विभिन्न चर्चाओं के दौरान किया जाता है।
प्रतिनिधित्व करना, शिकायतें व्यक्त करना, शिक्षित करना तथा मंत्रणा करना
संसद जनता की सर्वोत्कृष्ट संस्था है। यह वह सर्वोच्च मंच है, जहां जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से अपनी आशाएं, इच्छाएं आकांक्षाएं, शिकायतें, परेशानियां, कठिनाइयां भावनाएं, चिंताएं और निराशाएं अभिव्यक्त करती है। इस प्रकार संसद जनता की परिवर्तनशील भावनाओं एवं आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करती है।
विधायी प्रस्तावों अथवा वित्तीय विधेयकों पर, सरकार द्वारा नीतियों पर विचार करने और उन्हें स्वीकृति प्रदान के प्रस्ताव पर, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर, बजट इत्यादि पर वाद-विवाद एवं चर्चा के दौरान सदस्य अपने विचार अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं और वे कह सकते हैं कि देश का हित किसमें है और वर्तमान नीति में क्या रूपभेद करना अपेक्षित है सरकार संसद की राय के प्रति सदैव संवेदनशील रहती है। संसद में चर्चाएं महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि इनसे सरकार को किसी मुद्दे पर संसद का दृष्टिकोण ज्ञात होता है तथा प्रशासन को जन-भावनाओं का पता चलता है। संसदीय वाद-विवाद प्रशासन की उसके कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की याद दिलाते रहते हैं। इससे प्रशासन को मार्ग-दर्शन प्राप्त होता है।
कानून बनाना, सामाजिक परियोजना, विकास एवं वैधीकरण
भारतीय संविधान के अनुसार संसद राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोच्च विधायी निकाय है। संसद संविधान की सातवीं अनुसूची में वर्णित संघ सूची एवं समवर्ती सूची में उल्लिखित विषयों तथा अवशिष्ट विषयों से सम्बन्धित कानूनों का निर्माण कर सकती है।
किसी भी नीति अथवा कानून का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उससे प्राप्त होने वाले सामाजिक परिणाम होते हैं। भारत जैसे परिवर्तनशील समाज में सामाजिक परिवर्तनों हेतु आधार एवं माध्यम की व्यवस्था मात्र संसद ही कर सकती है। वस्तुतः संसद सामाजिक सुधार लाने में सबसे आगे रही है। संविधान के प्रारंभ में संसद द्वारा समाज सुधार सम्बन्धी एवं उपेक्षित वर्गों के लिए आरक्षण; सामाजिक सुरक्षा; निर्योग्यताओं के निवारण; न्यूनतम पारिश्रमिक; वृद्धावस्था पेंशन; आवास; आदि के रूप में गारण्टी एवं लाभों के विशेष उपबंध दिए गए हैं। कानूनों का निर्माण करने में संसद की भूमिका अर्थात् प्रस्तावित कानून का पुनरीक्षण, निरीक्षण, एवं उस पर चर्चा करने तथा संभवतः अंतिम रूप में उसे प्रभावित करने का अवसर प्रदान करने में काफी महत्व रखती है तथापि तस्वीर का एक दूसरा पक्ष भी है। संसद कानूनों का निर्माण स्वयं नहीं करती। इस प्रयोजनार्थ उसके पास न तो समय है और न ही आवश्यक जानकारी। अन्य मामलों की भांति कानून के मामले में भी पहल पूर्णतः कार्यपालिका एवं प्रशासनिक विभागों द्वारा की जाती है। कार्यपालिका द्वारा सूत्रबद्ध विधायी प्रस्तावों, अर्थात् विधेयकों, नियमों तथा विनियमों आदि पर संसद केवल विचार करती है, छानबीन करती है और उन पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर उन्हें वैध बनाती है। अतः संसद की भूमिका विधि निर्माण की न होकर वैधीकरण की अधिक है।
संविधान में संशोधन करना
अनुच्छेद- 368 के अंतर्गत संविधान में संशोधन करने का अधिकार संसद की प्रदान किया गया है। ये अधिकार संसद को निम्नलिखित रूपों में प्राप्त है:
- संविधान में संशोधन सम्बन्धी प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है; क्योंकि, संविधान में संशोधन की पहल केवल संसद ही कर सकती है।
- संसद द्वारा संविधान के अधिकांश उपबंधों में संशोधन विशेष बहुमत से ही किया जा सकता है अर्थात् प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा। केवल कुछ संवैधानिक उपबंधों, जैसे- सातवीं अनुसूची की सूचियों, संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व, अनुच्छेद-368, आदि से सम्बन्धित उपबंध; का संसद के प्रत्येक सदन द्वारा निर्धारित विशेष बहुमत से संशोधन विधेयक पास किए जाने के पश्चात् कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डल द्वारा उनके अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है।
- संविधान संशोधन विधेयक को विधिवत् रूप से पारित कर दिए जाने के पश्चात् उसे संसद द्वारा अनुमोदन हेतु राष्ट्रपति के समक्ष भेजा जाता है और राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर के लिए बाध्य है अर्थात् राष्ट्रपति के पास अनुमति रोकने अथवा विधेयक पर पुनर्विचार हेतु उसे सदन को लौटने का कोई विकल्प नहीं है, जैसा की साधारण विधेयकों के मामले में होता है।
संक्षेप में, यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि संविधान का ऐसा कोई भी उपबंध नहीं है जिसमें संशोधन न किया जा सके क्योंकि संसद संविधान के किसी भी उपबंध में किसी भी प्रकार का संशोधन, परिवर्तन अथवा उसे समाप्त (निरसित) कर सकती है और ऐसे संशोधन को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, यदि उससे संविधान के मूल तत्वों में परिवर्तन अथवा उनका हनन नहीं होता।
संघर्षों का समाधान एवं राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना
राष्ट्रीय राजनीति में टकरावों के समाधान के सशक्त माध्यम और प्रमुख मध्यस्थता शक्ति के रूप में संसद का उद्भव भारतीय राजनीतिक जीवन का सर्वमान्य तथ्य है। वाद-विवाद और चर्चाओं से समाज के भीतर के तनाव और असंतोष प्रकाश में आ जाते हैं। संसद, शक्ति संघर्ष के लिए, राजनीतिक गतिविधि को स्पष्ट करने के लिए या परस्पर विरोधी भूमिकाएं अदा करने के लिए वैध रूप से मैदान बन जाता है और संसदीय नियम तथा प्रक्रियाओं का कारण अंत में समझौता करना संभव हो जाता है।
संसद का अंतिम और महत्वपूर्ण कृत्य
वह प्रतिभा के राष्ट्रीय रक्षित भंडार के रूप में कार्य करती है। जहां से राजनीतिक नेता उभरते हैं। संसद एक ऐसा मंच है जहां मंत्रीगण कार्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और प्रशिक्षण पाते हैं। दोनों सदनों में और उनकी समितियों में सदस्यों के कार्य निष्पादन को देखकर प्रधानमंत्री को अधिकतम योग्यता रखने वालों का चयन करने में सहायता मिलती है।
भारतीय संसद की स्थिति
भारतीय संसद एक प्रतिनिधिक संस्था है। यह न तो ब्रिटिश संसद की भांति सम्प्रभु है और न ही अमेरिकी कांग्रेस की भांति अशक्त ही, अपितु भारतीय संसद की स्थिति इन दोनों में मध्य की है। यह व्यवस्था संवैधानिक संविदाओं एवं समीचीनता (Expediency) का परिणाम है।
अमेरिकी कांग्रेस एवं ब्रिटिश संसद के साथ तुलना करने पर भारतीय संसद की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में शासन व्यवस्था लिखित एवं कठोर संविधान द्वारा संचालित होती है, जो कि सर्वोच्च एवं सम्प्रभु है। सरकार की शक्ति एवं अधिकारों का एकमात्र स्रोत संविधान ही है। अमेरिकी कांग्रेस के सम्बन्ध में भी यही तथ्य सत्य है। इसे न केवल संविधान संशोधन के मामले में ही सीमित अधिकार प्राप्त हैं, अपितु उसके द्वारा पारित किसी भी अधिनियम अथवा कानून को संघीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त किया जा सकता है। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की संविधानतः असाधारण न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है। इसके अतिरिक्त अमेरिकी कांग्रेस अमेरिकी संघ में शामिल राज्यों की सीमाओं में न तो कोई परिवर्तन कर सकती और न ही किसी नए राज्य का गठन ही।
अमेरिकी संविधान के विपरीत ब्रिटेन के संविधान का अधिकांश भाग अलिखित है और प्रचलित रीति-रिवाजों एवं अभिसमयों से स्वयंमेव विकसित हुआ है। इन रीति-रिवाजों एवं अभिसमयों को नीति-नियमों का रूप दिया वहां की सम्प्रभु संसद ने। ब्रिटिश संसद विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली संसद मानी जाती है, जो कि किसी भी विषय पर कानून बना सकती है और ब्रिटिश न्यायालय इस प्रकार के किसी भी विधान को निरस्त नहीं कर सकते। इस प्रकार ब्रिटिश न्यायपालिका को न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति प्राप्त नहीं है।
भारतीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत इन दोनों स्थितियों के मध्य व्यवस्था की गई है। अमेरिकी संविधान की भांति यहां का संविधान लिखित है, जो कि देश की सर्वोच्च एवं सम्प्रभु विधि है। भारतीय संसद को ब्रिटिश संसद की भांति विभिन्न क्षेत्रों में काफी अधिक शक्ति प्रदान की गई है। भारतीय संसद की शक्ति इसी तथ्य से प्रमाणित हो जाती है कि संविधान प्रवृत्त होने के 68 वर्ष के भीतर संविधान में 97 संशोधन हो चुके हैं। इन समस्त संशोधनों में राज्य विधानमण्डलों की भूमिका अत्यंत सीमित मात्र ½ है, जबकि अमेरिका में यह ⅔ है। इसके अतिरिक्त भारत में राज्यों को संविधान में संशोधन सम्बन्धी कोई प्रक्रिया शुरू करने का अधिकार नहीं है। अपितु, यहां संविधान के अधिकांश क्षेत्रों के सम्बन्ध में केवल संघीय संसद द्वारा पारित अधिनियम ही सर्वोच्च हैं तथा वे संविधान में संशोधन नहीं माने जाते हैं।
भारतीय संसद की विधि निर्माण की शक्ति ब्रिटिश संसद के समतुल्य है। इसके अतिरिक्त संसद संघ-सूची में विनिर्दिष्ट विषयों पर तो कानून बना ही सकती है (इस सूची के विषयों पर एकमात्र संसद द्वारा ही कानून बनाए जा सकते हैं) साथ ही वह समवर्ती-सूची के विषयों पर भी विधि निर्माण कर सकती है; यहां तक कि वह आवश्यकता पड़ने पर राज्य-सूची के विषयों पर
भी कानून बना सकती है। आपातकाल के समय संसद किसी भी सूची के विषय पर कानून बना सकती है तथा किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में भी संसद उस राज्य के लिए कानूनों का निर्माण कर सकती है।
अमेरिकी कांग्रेस के विपरीत, जहां उसका सरकार के गठन में कोई योगदान नहीं होता, वहीं भारत में सरकार का गठन भारतीय संसद के सर्वप्रमुख कार्यों में से एक है। संसद के निचले सदन (लोक सभा) में बहुमत प्राप्त करने वाला राजनीतिक दल ही सरकार का गठन करता है। संसद सरकार की नीतियों की आलोचना एवं निंदा कर सकती है, तथा सरके के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव भी पारित कर सकती है, जिसके पारित होने पर सरकार को त्याग-पत्र देना ही पड़ता है। अमेरिकी कांग्रेस के पास इस प्रकार की कोई शक्ति नहीं है।
निर्वाचन सम्बन्धी शक्तियों के संदर्भ में भी भारतीय संसद ही आगे है। ब्रिटिश संसद के पास भी निर्वाचन सम्बन्धी कोई शक्ति नहीं है। अमेरिकी कांग्रेस को राष्ट्रपति एवं उप-राष्ट्रपति के निर्वाचनों के दौरान टाई (Tie) होने की स्थिति में अमेरिकी कांग्रेस को इस प्रकार के (निर्वाचन सम्बन्धी) कुछ अधिकार प्राप्त हैं। यद्यपि इस प्रकार का अवसर अभी तक नहीं आया है। भारत में राष्ट्रपति के निर्वाचन के समय निर्वाचक मण्डल के संसद के सदस्य भी अभिन्न अंग होते हैं। उप-राष्ट्रपति का चुनाव केवल संसद के सदस्यों द्वारा ही होता है।
इन सबके बावजूद यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय संसद की शक्तियां असीमित नहीं हैं। इसके कुछ ठोस कारण हैं, जो कि निम्नलिखित हैं-
- देश का संविधान लिखित है, जो कि सर्वोच्च सत्ता है। संसद सहित समस्त सरकारी संस्थान देश की इस सर्वोच्च विधि (संविधान) से ही सत्ता एवं अधिकार प्राप्त करते हैं। संविधान में संशोधन सम्बन्धी असाधारण शक्तियां होते हुए भी वह इसके आधारिक लक्षणों में संशोधन नहीं कर सकती और यदि वह ऐसा करती भी है तो देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन्हें अवैध करार देकर निरस्त कर दिया जाएगा।
- सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरीक्षण द्वारा संसद द्वारा निर्मित असंवैधानिक विधियों को निरस्त कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक अवसरों पर अपनी इस शक्ति का प्रयोग किया भी है।
- वर्तमान समय वैश्विक स्तर पर व्यवस्थापिकाओं के पतन का काल है। विश्व के समस्त देशों में व्यवस्थापिकाएं विधायी शक्तियों के साथ-साथ अपनी समस्त शक्तियां खोती जा रही हैं। भारतीय संदर्भ में भी ऐसा ही है। विधेयकों में पारिभाषिक अथवा कानूनी शब्दावली का बढ़ता प्रयोग, विशेषज्ञों एवं समय का अभाव तथा सरकार की बढ़ती आकांक्षाएं, आदि कारणों ने संसद को मनमौजी एवं शौक़ीन कार्यकारिणी की छलायोजित (Manipulated) संस्था बना दिया है।
संक्षेप में, संसद केवल उसी देश में ही सम्प्रभु रह सकती है, जिसका संविधान अलिखित हो तथा देश की शासन-व्यवस्था एकात्मक हो। भारत में इनमें से एक भी स्थिति विद्यमान नहीं है। संघीय शासन व्यवस्था में संविधान ही सम्प्रभु होता है। इसी प्रकार भारत में भी लिखित संविधान होने के कारण संविधान ही सर्वोच्च एवं सम्प्रभु है, न कि संसद और न ही इसकी शक्तियां असीमित हैं। फिर भी, अनेक समकालीन संसदों में भारतीय संसद काफी शक्तिशाली है।
भारतीय संसद का ह्रास
संसदीय लोकतंत्र शासन की वह व्यवस्था है, जिसके अंतर्गत जनता द्वारा निर्वाचित विधायिका कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है। कार्यपालिका तभी तक बनी रह सकती है जब तक कि उसे संसद के निर्वाचित सदन का स्पष्ट बहुमत प्राप्त है।
विगत कुछ वर्षों से संसद की गरिमा में कुछ हास (Decline of the Parliament) आया है। इस स्थिति हेतु उत्तरदायी कुछ कारक इस व्यवस्था में ही अंतर्निहित होते हैं। आधुनिक विश्व में संसदीय सर्वोच्चता की कार्यपालिका प्रभुत्व का समानार्थी माना जाता है, विशेषतः तब जब सत्तारूढ़ दल को सदन में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो। कठोर दलीय अनुशासन दल के प्रति निष्ठा को सुनिश्चित करता है, कभी-कभी तो ऐसा राष्ट्रीय अथवा सामाजिक हितों की ताक पर रखकर भी किया जाता है। इस प्रकार, संसदीय लोकतंत्र के वास्तविक आधार का खण्डन होता है। प्रत्यायोजित विधान का भी संसदीय ह्रास में काफी योगदान है।
भारतीय संदर्भ में संसद का वास्तविक गुण उसकी हासमान स्थिति है। संसदीय लोकतंत्र (यदि यह प्रभावी तरीके से कार्य करे) की सफलता हेतु आवश्यक है कि संसद निश्चित तौर पर आदशों का पालन तथा उसकी गरिमा को बनाए रखे। व्यवहार में हम देखते हैं कि वाद-विवाद अब उपद्रव एवं हुल्लड़बाजी में परिवर्तित हो गए हैं। मुद्दों पर विवेकपूर्ण एवं तटस्थ विचार-विमर्श का स्थान अब झगड़ालू अप्रासंगिक शब्दों अथवा कार्यविधिक लड़ाई-झगड़े ने ग्रहण कर लिया है।
राजकोष एवं विपक्ष के व्यवहार दोनों में ही मर्यादा एवं उत्तरदायित्व का अभाव, बार-बार पीठासीन अधिकारी का निरादर अथवा उपहास, असंसदीय भाषा के प्रयोग के साथ-साथ संसदीय प्रक्रिया की उपेक्षा अब आए दिन की बातें हो गई हैं। सदन में मंत्रियों द्वारा पूर्ण तैयारी के साथ न आना, अतिमहत्वपूर्ण विधेयकों पर विचार-विमर्श के दौरान भी गणपूर्ति का अभाव रहना, बार-बार सदन से बहिर्गमन (Walkouts) कर जाना तथा जन-साधारण के धन का अपव्यय ही है।
विपक्ष द्वारा सरकार के कार्यों की रचनात्मक आलोचना के स्थान पर व्यर्थ की अड़गेबाजी से राष्ट्र हित को भारी क्षति पहुंचती है। इस प्रकार पतन की ओर बढ़ती संसद अधिक समय तक सुदृढ़ नहीं रह सकती तथा लोकतंत्र कभी भी ढह सकता है। इस विनाशकारी स्थिति से बचने के लिए राजनीतिज्ञों को चाहिए कि वे एक आचार संहिता बनाएं और उसका पालन करें तथा सामाजिक हित एवं स्वार्थ में भेद करना सीखें तभी देश में संसद की गरिमा और लोकतंत्र बने रह सकते हैं, अन्यथा नहीं।