पल्लव वंश Pallava dynasty
दक्षिण भारत में कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच के प्रदेश में पल्लव वंश के राज्य की स्थापना हुई। पल्लवों ने कांची या कांजीवरम को अपनी राजधानी बनाया। पल्लव वंश में अनेक राजा हुए। सिंह विष्णु इस राजवंश का संस्थापक था। इसे पोत्तरयण एवं अवनिसिंह भी कहा जाता है। महेन्द्र वर्मन् प्रथम इस वंश का एक प्रसिद्ध शासक हुआ है जिसने 600 से 630 ई. तक राज्य किया। वह एक महान् निर्माता था और उसने विशाल चट्टानों को कटवाकर मन्दिर बनवाये। उसने महेन्द्रवाड़ी के निकट महेन्द्र कुंड नामक जलाशय का निर्माण कराया। महेन्द्र विद्वानों का आश्रयदाता था। उसने मत्त विलास प्रहसन नामक परिहास नाटक लिखा। महेन्द्र वर्मा सम्राट् हर्षवर्धन और चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय का समकालीन था। महेन्द्र वर्मा को चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय ने पराजित किया और उसे वेंगी का प्रदेश पुलकेशिन द्वितीय को देना पड़ा। महेन्द्र वर्मा को कई उपाधियाँ प्राप्त थीं जैसे- विचित्रचित, मत विलास, गुणभर आदि।
नरसिंह वर्मा प्रथम- महेन्द्र वर्मन् प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र नरसिंह वर्मन् प्रथम सिंहासन पर बैठा। उसने 630 से 668 ई. तक राज्य किया। वह पल्लव वंश का महान् शासक था। उसने काँची की ओर बढ़ते हुए पुलकेशिन द्वितीय के आक्रमण को विफल कर दिया। उसने अपने सेनापति सिरू तोंड उपनाम परन्जोति के सेनापतित्व में एक विशाल सेना वातापी पर आक्रमण करने के लिए भेजी। इस सेना ने 642 ई. में चालुक्यों की राजधानी वातापी पर आक्रमण किया। पुलकेशिन द्वितीय अपनी राजधानी की रक्षा करते हुआ मारा गया। वातापी पर नरसिंह वर्मन् प्रथम का अधिकार हो गया। इस विजय की यादगार में नरसिंह वर्मन् कोंड का विरुद धारण किया। चालुक्य साम्राज्य के दक्षिण भाग पर उसका अधिकार हो गया। इस प्रकार उसने अपने पिता की पराजय का बदला लिया। फिर उसने वातापीकोंड की उपाधि ली।
इसके पश्चात् नरसिंह वर्मम् प्रथम ने सिंहल (श्रीलंका) के राजसिंहासन के एक दावेदार मानवम्म की सहायता के लिए दो बार सिंहल-विजय के लिए सेना भेजी। मानवम्म ने नरसिंह वर्मा प्रथम की उसके युद्धों में सहायता की थी और इसी सहायता के उपहार स्वरूप नरसिंह वर्मन् ने प्रथम मानवम्म को सिंहल का राजसिंहासन प्राप्त करने में सहायता दी। दूसरे अभियान में वर्मन् को सफलता मिली और उसने मानवम्म को सिंहल के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया।
नरसिंह वर्मन् एक महान् विजेता ही नहीं, एक महान् निर्माता भी था। त्रिचनापली जिले और पुड्डुकोट में अनेक मन्दिरों का निर्माण उसने कराया। नरसिंह वर्मन प्रथम महामल्ल ने अपने नाम के अनुकूल महाबलिपुरम् अथवा महामल्लपुरम नामक नगर बसाया और धर्मराज रथ के मन्दिरों से सुशोभित किया। उसके शासनकाल में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग 642 ई. के लगभग कांची आया। पल्लव राज्य और वहाँ के लोगों का वर्णन करता हुआ वह लिखता है- कांची 6 मील की परिधि में है। यहाँ 100 के लगभग बौद्ध मठ हैं जिसमें 10,000 भिक्षु रहते हैं। ये भिक्षु महायान सम्प्रदाय की स्थविर शाखा के अनुयायी हैं। यहाँ 80 मन्दिर हैं जिनमें अधिकांश जैनियों के हैं- भूमि उर्वर है, नियम से जोती जाती है और प्रभूत अन्न उपजाती है। अनेक प्रकार के फल-फूल होते हैं। बहुमूल्य रत्न और अन्य वस्तुएं यहां उत्पन्न होती हैं। जलवायु उष्ण है और प्रजा साहसी है। लोग सच्चे और ईमानदार हैं। वे विद्या का बड़ा आदर करते हैं। ह्वेनसांग के विवरण से यह जानकारी मिलती है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध विद्वान धर्मपाल कांची के ही निवासी थे।
महेन्द्र वर्मन् द्वितीय और परमेश्वर वर्मा प्रथम- नरसिंह वर्मन् प्रथम के बाद उसका पुत्र महेन्द्र वर्मन् द्वितीय (668-670 ई.) और पौत्र परमेश्वर वर्मन् प्रथम (670-695 ई.) राजा बने। कोई विशेष घटना महेन्द्र वर्मन् के अल्प शासन-काल में नहीं घटी। उसकी मृत्यु के पश्चात् परमेश्वर वर्मन् प्रथम सिंहासनरूढ़ हुआ।
पल्लवों और चालुक्यों में संघर्ष परमेश्वर वर्मन् प्रथम के शासन-काल में चलता रहा। इस संघर्ष के बारे में दोनों पक्षों ने अलग-अलग दावे किये हैं। चालुक्य अभिलेखों के अनुसार चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम ने कांची पर अधिकार कर लिया। परन्तु पल्लव अभिलेखों के अनुसार परमेश्वर वर्मन् प्रथम ने पेरूवलनल्लुर के युद्ध में विक्रमादित्य प्रथम की सेना को पराजित किया। इन परस्पर विरोधी प्रमाणों के आधार पर हम निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि किसी भी पक्ष को निर्णायक विजय प्राप्त नहीं हुई। परमेश्वर वर्मन् प्रथम शिव का उपासक था। अपने राज्य में उसने शिव मन्दिरों का निर्माण कराया।
नरसिंह वर्मन् द्वितीय और परमेश्वर वर्मन् द्वितीय- परमेश्वर वर्मन् प्रथम के बाद उसका पुत्र नरसिंह वर्मन् द्वितीय (695-722 ई.) राजा बना। उसका शासन-काल शांतिमय था। निर्माण कार्य पर अपने शांतिमय शासन-काल में उसने जोर दिया। उसने कांची में कैलाशनाथ मन्दिर का निर्माण कराया। कांची में ही उसने ऐरावतेश्वर मन्दिर तथा महाबलिपुरम् में तथाकथित शोर मन्दिर का निर्माण कराया। उसके अभिलेख इन मन्दिरों में उत्कीर्ण हैं। नरसिंह वर्मन् द्वितीय विद्वानों का आश्रयदाता था। उसने अनेक उपाधियाँ धारण की-जैसे राजसिंह, आगय प्रिय, शिव चूडामणि, शंकर भक्त तथा वाद्यविद्याधर। नरसिंह वर्मन् द्वितीय के बाद उसका पुत्र परमेश्वर वर्मन् द्वितीय (722-730 ई.) शासक बना। उसका चालुक्यों से युद्ध छिड़ गया।
नन्दी वर्मन् द्वितीय- पल्लव वंश का नन्दी वर्मन् द्वितीय महत्वपूर्ण शासक था। वह 730 ई. में सिंहासन पर बैठा और उसने लगभग 65 वर्ष तक राज्य किया। उसके काल में चालुक्य-पल्लव संघर्ष तीव्र हो गया। 740 ई. में चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने नन्दी वर्मन् द्वितीय को पराजित किया और कांची पर अधिकार कर लिया। लेकिन पल्लवों ने काँची पर पुन: अधिकार कर लिया। नन्दी वर्मन् द्वितीय को पाण्ड्यों और राष्ट्रकूटों से भी युद्ध करना पड़ा। राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने कांची पर अधिकार कर लिया, परन्तु बाद में दोनों में सन्धि हो गई और दन्तिदुर्ग ने अपनी पुत्री रेवा का विवाह नन्दी वर्मन् द्वितीय के साथ कर दिया। नंदीवर्मन् का शासन-काल यद्यपि संघर्षों, अभियानों, आक्रमणों में बिता था परन्तु उसने निर्माण कायों में भी रूचि ली। उसने अपनी राजधानी कांची में मुक्तेश्वर ओर बैकुन्ठ-पेरूमल मन्दिरों का निर्माण कराया। नन्दी वर्मन् द्वितीय स्वयं विद्वान्, कवि और विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके शासन-काल में प्रसिद्द विद्वान एवं वैष्णव संत त्रिरूमन्गईम अलवार हुए।
दन्तिवर्मन और उसके उत्तराधिकारी- नंदी वर्मन द्वितीय के पश्चात् उका पुत्र दन्तिवर्मन राजा बना। यह उसकी राष्ट्रकूट रानी रेवा से उत्पन्न पुत्र था। इस विवाह के फलस्वरूप यद्यपि राष्ट्रकूटों और पल्लवों में सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, फिर भी ध्रुव, निरूपम तथा गोविन्द तृतीय नामक राष्ट्रकूट राजाओं ने कांची पर आक्रमण किये। 804 ई. के लगभग गोविन्द तृतीय ने कांची पर आक्रमण करके दन्ति वर्मन् को पराजित किया। दन्ति वर्मन् को पाण्ड्यों से भी युद्ध करना पड़ा। उसके उत्तराधिकारी नन्दी और नृपतुंगवर्मन को भी पाण्ड्यों से लोहा लेना पड़ा। पल्लव राजाओं को चोलों से भी युद्ध करने पडे। 855 ई. के लगभग चोल राजा आदित्य प्रथम ने अन्तिम पल्लव राजा अपराजित वर्मन् को पराजित करके कांची पर अधिकार कर लिया और पल्लव राज्य का अन्त हो गया।