उत्तर अटलांटिक संधि संगठन North Atlantic Treaty Organization – NATO
यह संगठन राजनीतिक, सैनिक, आर्थिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में सहयोग एवं परामर्श के माध्यम से यूरोप और उत्तरी अमेरिका के 28 देशों को उनकी सामूहिक सुरक्षा के लिये एकजुट करता है।
औपचारिक नाम: ऑर्गेनाइजेशन डू ट्रेटे डी आई अटलांटिके नॉर्ड (ओटीएएन) (Organisationdu Traite de I’Atlantique Nord–OTAN)
मुख्यालय: ब्रुसेल्स (बेल्जियम)।
सदस्यता: अम्बनिया, बेल्जियम बुल्गारिया, कनाडा, क्रोएशिया, चेक गणराज्य, डेनमार्क, एस्टोनिया, फ़्रांस, जर्मनी, यूनान, हंगरी, आइसलैंड, इटली, लिथुआनिया, लाटविया, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, नार्वे, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, स्पेन, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका।
शांति सहभागिता हेतु भागीदार देश: आर्मेनिया, आस्ट्रिया, अजरबैजान, बेलारूस, बोस्निया-हर्जेगोविना, मिस्र, फ़िनलैंड, जार्जिया, इजरायल, आयरलैंड, जॉर्डन, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, मेसिडोनिया, माल्डोवा, माल्टा, मारिटानिया, रूस, स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड, ताजीकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, सर्बिया, ट्यूनीशिया, मोंटेनेग्रो, मोरक्को, यूक्रेन और उज्बेकिस्तान।
[बुल्गारिया, एस्टोनिया, लाटविया एवं लिथुआनिया वर्ष 2004 में शामिल हुए जबकि अल्बानिया और क्रोएशिया 2009 में नाटो में शामिल हुए।]
आधिकारिक भाषाएं: अंग्रेजी और फ्रांसीसी।
उद्भव एवं विकास
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा एक बड़ी चिन्ता का विषय बन गया, विशेषकर तत्कालीन सोवियत संघ के मध्य एवं पूर्वी यूरोप पर बढ़ते प्रभाव के कारण। मार्च 1948 में बेल्जियम, फ्रांस, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, और युनाइटेड किंगडम के विदेश मंत्रियों ने ब्रुसेल्स में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सहयोग तथा सामूहिक आत्मरक्षा संधि पर हस्ताक्षर किए। यह अनुभव किया गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका के सहयोग के बिना ब्रुसेल्स संधि के सदस्य देश सोवियत संघ की शक्ति का सामना नहीं कर सकते थे और एक महीने के अन्दर ब्रुसेल्स शक्तियों ने विस्तृत सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा के साथ वार्ताएं आयोजित करनी शुरू कर दी। तदनन्तर, अप्रैल 1948 में वाशिंगटन डीसी में बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ़्रांस, आइसलैंड, इटली, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, नार्वे, पुर्तगाल, ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रतिनिधियों ने अटलांटिक संघ की स्थापना के लिये उत्तर अटलांटिक संधि पर हस्ताक्षर किए। उत्तर अटलांटिक संधि की क्रियान्वित करने के लिये सितम्बर 1949 में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (North Atlantic Treaty Organisation–NATO) की स्थापना हुई। यूनान और तुर्की 1952 में, जर्मनी संघ गणराज्य 1955, स्पेन 1982 में तथा चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड 1999 में नाटो के सदस्य बने, जिससे संगठन के कुल सदस्यों की संख्या 19 हो गई।
संधि के अनुच्छेद 5 के अंतर्गत, हस्ताक्षरकर्ता सदस्य इस बात पर सहमत होते हैं कि, यूरोप अथवा उत्तरी अमेरिका में एक या अधिक सदस्यों के विरुद्ध किसी सशस्त्र आक्रमण को सभी सदस्यों पर आक्रमण माना जाएगा; अतः वे इस पर सहमत होते हैं कि, ऐसे आक्रमण की स्थिति में प्रत्येक सदस्य संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 51 में स्वीकृत व्यक्तिगत या सामूहिक आत्मरक्षा के अधिकार के प्रयोग के तहत स्वयं या दूसरे पक्षों के साथ मिलकर आवश्यक कार्यवाहियों, जिसमें उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र में सुरक्षा बनाये रखने के लिये सशस्त्र बल का प्रयोग भी सम्मिलित हैं, के माध्यम से आक्रमित सदस्य या सदस्यों की सहायता करेगा। अनुच्छेद 6 में उल्लेखित प्रावधान, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में किसी भी सदस्य के क्षेत्र में सशस्त्र आक्रमण संधि के भौगोलिक विस्तार को स्पष्ट करता है। अनुच्छेद 3 के अंतर्गत, नाटो के यूरोपीय सदस्यों को संयुक्त राज्य अमेरिका की सैन्य तथा अन्य रक्षा सहायता, जिसका कुल मूल्य संगठन के गठन के प्रथम बीस वर्षों के अन्दर 25 बिलियन डॉलर से अधिक था, उपलब्ध कराया गया। अनुच्छेद 9 के अंतर्गत संगठन या संधि के लिये एक केन्द्रीकृत प्रशासनिक और नेतृत्व संरचना स्थापित की गयी तथा विस्तृत नागरिक संस्थाओं, सैनिक कमानों, कार्मिकों और गतिविधियों को विकसित किया गया।
फ्रांस 1966 में नाटो की एकीकृत सैन्य कमांड से बाहर हो गया, यद्यपि, वह संगठन का सदस्य बना रहा। फ्रांस पुनः 1995 में इस कमांड में सम्मिलित हुआ। यूनान भी 1974 में एकीकृत सैन्य तंत्र से बाहर हो गया, लेकिन 1980 में पुनः इसमें सम्मिलित हो गया।
उद्देश्य
नाटो के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं-किसी सदस्य पर सशस्त्र आक्रमण की स्थिति में विश्वसनीय निवारण (deterrence) तथा वास्तविक तनाव शैथिल्य (detents) के सिद्धांतों पर आधारित एक सामूहिक रक्षा व्यवस्था प्रदान करना; संवाद और पारस्परिक सहयोग तथा सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण, न्यायसंगत और प्रामाणिक निःशस्त्रीकरण समझौतों के माध्यम से सकारात्मक पूर्व-पश्चिम संबंधों की दिशा में कार्य करना, और; गठबंधन के भीतर आर्थिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा अन्य क्षेत्रों में सहयोग विकसित करना।
संरचना
नाटो की मूल संधि में संस्थागत पहलुओं का विस्तृत उल्लेख नहीं था; इसमें सिर्फ रक्षा समितियों और अन्य सहायक अंगों को गठित कने के लिए अधिकृत रक परिषद् के गठन का उल्लेख किया गया। सैनिक तथा असैनिक क्षेत्रों में नाटो के उत्तरदायित्वों को दृष्टिगत रखते हुए इसके संगठनात्मक ढांचे का विकास हुआ है।
असैनिक क्षेत्र में उत्तरी अटलांटिक परिषद नीतिगत विषयों के लिये सर्वोच्च निर्णयकारी अंग तथा परामर्श मंच है। सभी सदस्य देशों के प्रतिनिधियों से बनी इस परिषद की मंत्रिस्तरीय (वर्ष में दो बार) और शिखर स्तरीय बैठक होती है तथा स्थायी प्रतिनिधियों के स्तर पर यह स्थायी सत्र में कायम रहता है। सभी स्तरों पर इसकी सत्ता और निर्णयकारी शक्तियां समान होती हैं। इसके सभी निर्णय सर्वसम्मति से लिये जाते हैं। 1968 में गठित रक्षा नियोजन समिति (डीपीसी) में उन देशों के प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं, जो एकीकृत सैन्य कमान-तंत्र के सदस्य हैं। सैनिक नीति की दृष्टि से यह नाटो की सर्वोच्च संस्था है। इसकी मंत्री और स्थायी प्रतिनिधि, दोनों स्तरों पर बैठकें होती हैं। नाभिकीय नियोजन समूह (एनसीजी) नाभिकीय विषयों पर चर्चा करता है।
सैनिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिये नाटो में एक सैन्य समिति (एमसी) का गठन किया गया है, जो डीपीसी और परिषद के समक्ष अनुशंसाएं प्रस्तुत करती है तथा संयुक्त कमांडरों को दिशा-निर्देश देती है। फ्रांस और आइसलैंड को छोड़कर (आइसलैंड के पास अपनी सैनिक संरचना नहीं है, इसका प्रतिनिधित्व असैनिक सदस्य के द्वारा संभव है) सभी सदस्य देशों के सैनिक प्रतिनिधि इस समिति के सदस्य होते हैं। चीफ-ऑफ-स्टाफ्स के स्तर पर इसकी वर्ष में दो बैठकें होती हैं तथा सदस्य देशों के सैनिक प्रतिनिधियों के स्तर पर इसका स्थायी सत्र चालू रहता है। एमसी की सहायता के लिये अंतरराष्ट्रीय सैनिक स्टाफ (आईएमएस) होता है, जो एमसी की नीतियों और निर्णयों का क्रियान्वयन करता है तथा सैनिक विषयों पर सिफारिशें तैयार करता है और अध्ययन आयोजित करता है। 1994 से पहले संधि के अधीन आने वाले रणनीतिक क्षेत्र, तीन कमानों में विभाजित थे–संयुक्त कमान-यूरोप, संयुक्त कमान-अटलांटिक, और, संयुक्त कमान-चैनल (उदाहरणार्थ, इंग्लिश चैनल)। 1994 में संयुक्त कमान-चैनल को भंग कर दिया गया और इसके उत्तरदायित्व संयुक्त कमान-यूरोप को सौंप दिये गये।
संयुक्त कमान-यूरोप का मुख्यालय, जिसे आधिकारिक रूप से यूरोपीय गठबंधन शक्तियों का सर्वोच्च मुख्यालय (Supreme Headquarters Allied Powers Europe—SHAPE) कहा जाता है, केस्टीयू (बेल्जियम) में अवस्थित है। यूरोप कमान का सर्वोच्च गठबंधन कमांडर यूरोप-सेकुर (Supreme Allied Commander Europe—Saceur) होता है। इस कमान को तीन सहायक कमानों में विभक्त किया गया है-उत्तरी-पश्चिमी, मध्य और दक्षिणी। संयुक्त कमान-अटलांटिक का मुख्यालय नॉरफॉक (वर्जीनिया) में है तथा इसका सर्वोच्च अधिकारी सर्वोच्च गठबंधन कमांडर एत्लान्तिक-सेक्लेंट (Supreme Allied Commander Atlantic-Saclant) कहलाता है। दोनों कमानों के अधिकारी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के द्वारा नियुक्त (designated) होते हैं। शांति काल में इन कमानों का कार्य मित्र सेनाओं का वास्तविक शासन करना नहीं है, बल्कि उनके क्षेत्रों की रचना का नियोजन करना, सेनाओं का पर्यवेक्षण करना तथा अभ्यास कराना है। कनाडा-संयुक्त राज्य अमेरिका क्षेत्रीय नियोजन समूह संयुक्त राज्य अमेरिका-कनाडा क्षेत्र के लिये रक्षा योजना तैयार करता है।
इसके अतिरिक्त राजनीतिक, आर्थिक, सैनिक और अन्य विविध विषयों पर विचार करने के लिये विशिष्ट समितियां गठित की गई हैं।
महासचिव परिषद् और डीपीसी के निर्णयों को क्रियान्वित करता है तथा उन्हें विशेषज्ञ (expert) सलाह देता है।
1955 में नाटो के सांसद सम्मेलन के रूप में उत्तर अटलांटिक सभा का गठन किया गया। यह सभा राष्ट्रीय संसदों द्वारा प्रत्यायोजित सदस्यों की बनी होती है। यह नाटो से स्वतंत्र है, लेकिन सदस्य देशों के सांसदों और नाटो संगठन के बीच एक अनौपचारिक कड़ी के रूप में कार्य करती है। इसमें नाटो की नीतियों पर राजनीतिक चर्चाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है।
गतिविधियां
नाटो का प्राथमिक उद्देश्य सोवियत संघ और उसके वारसा संधि के मित्रों के द्वारा साम्यवाद के विस्तार के क्रम में पश्चिमी यूरोप पर आक्रमण की स्थिति में पश्चिमी मित्र राष्ट्रों के सैनिक प्रत्युत्तर में मजबूती लाना और एकजुटता उत्पन्न करना था। इस उद्देश्य से नाटो ने क्रमबद्ध तरीके से अपने सैनिकों को विकसित करना प्रारम्भ कर दिया। 1957 के पूर्वार्द्ध से पश्चिमी यूरोप के सैनिक अड्डों पर संयुक्त राज्य अमेरिका के परमाणु हथियारों की तैनाती शुरू कर दी गई। 1970 के पूर्वार्द्ध तक नाटो सेना के पास परमाणु अस्त्रों से सुसज्जित मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र और बड़ी संख्या में परम्परागत हथियार एकत्रित हो गये थे। अगले दो दशकों तक अर्थात् 1980 के दशक के अंत तक, नाटो ने शस्त्र विस्तार के मुद्दे पर सोवियत रूस और उसके वारसा संधि मित्रों के साथ तनाव शैथिल्य के लिये वार्ताओं को जारी रखने तथा एक प्रभावशाली सामूहिक रक्षा प्रणाली को कायम रखने की दोहरी नीति का अनुसरण किया।
1980 के दशक के अंत में सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव के दूरगामी सुधारों ने शीतयुद्ध और अंततः नाटो को जड़ से प्रभावित किया। 1989 के अंत और 1990 के प्रारम्भ की घटनाओं-सोवियत संघ द्वारा सम्पूर्ण पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सरकारों के पतन तथा उनकी जगह निष्पक्ष रूप से निर्वाचित सरकारों (गैर-साम्यवादी) की स्थापना की मौन स्वीकृति; बर्लिन दीवार (जिसे कभी कभी नाटो के अस्तित्व के चरम संकेत के रूप में निर्दिष्ट किया जाता था) का ढहना, और; जर्मनी का नाटो का सदस्य बनना, ने पश्चिम यूरोप को वारसा संधि से पूर्व में मिल रही अधिकांश धमकियों को समाप्त कर दिया। इससे नाटो को एक सैनिक संगठन के रूप में बनाये रखने के औचित्य पर प्रश्न चिह्न लग गया। 1990 में लंदन में आयोजित नाटो शिखर सम्मेलन ने शीतयुद्ध की समाप्ति की पुष्टि की तथा पूर्व में एक-दूसरे के विरोधी रह चुके सदस्यों के समक्ष और गैर-आक्रमण संधि और एक परंपरागत अस्त्र समझौते का प्रस्ताव रखा। लंदन घोषणा में अग्रवर्ती रक्षा (forward defence) के सिद्धांत, जिसके अंतर्गत पूर्वी-पश्चिमी सीमान्तों पर भारी संख्या में सैनिकों और अस्त्रों की तैनाती होती थी, के स्थान पर पूर्वकालीन अग्र सीमाओं (front lines) से पर्याप्त दूरी पर कम संख्या में तथा गतिशील सैनिकों की तैनाती पर सहमति हुई। मई 1991 में नाटो के रक्षा मंत्री सैनिक व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन के लिये तैयार हुये। इनमें सैनिकों की संख्या (यूरोप में अमेरिकी सैनिकों में कमी सहित) में भारी कमी तथा छोटे संकटों, जैसे-यूरोप महाद्वीप में जातीय वैमनस्यता से उत्पन्न संकट, से निबटने के लिये गठबंधन त्वरित कार्य बल की स्थापना सम्मिलित थी।
यूरोप के सैनिक परिदृश्य में परिवर्तन से यूरोपीय सुरक्षा मामलों में अमेरिकी भूमिका पर बहस छिड़ गई। नाटो को क्षेत्र से बाहर सैनिक गतिविधियों की अनुमति देना चर्चा का एक अन्य विषय था। इससे पूर्वी यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा को लेकर आशंकित हो गये। इस चिन्ता की दृष्टिगत रखते हुए नाटो ने पूर्व वारसा संधि के सदस्यों और नाटो के बीच राजनीतिक संवाद के लिये 1991 में उत्तर अटलांटिक सहयोग परिषद (North Atlantic Cooperation Council– NACC) का गठन किया।
रोम शिखर सम्मेलन, 1991 में संगठन के लिये एक नई सामरिक अवधारणा को अपनाया गया तथा यूरोपीय सैनिक संधि से बाहर अस्त्र नियंत्रण प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया गया। नई युद्धनीतिक अवधारणा संगठन के मुख्य (सैन्य) कार्यों को प्रेरित करती है। साथ ही, यह सुरक्षा मामलों के प्रति राजनीतिक रुख के महत्व को भी स्वीकार करती है। नाटो नेताओं ने महाद्वीप की सुरक्षा समस्याओं से निबटने के लिए सीएससीई (बाद में ओएससीई), ईसी तथा डब्ल्यूईयू जैसे संगठनों की भूमिका में वृद्धि का भी अनुमोदन किया, लेकिन इस बात पर बल दिया कि अखिल-यूरोपीय सैन्य बल यूरोप में नाटो सैनिकों के लिये अनुपूरक होगा न कि प्रतिस्थापक।
1992 में नाटो के विदेश मंत्री जातीय हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में शांति की स्थापना के लिये (case-by-case basis) पर सैनिकों की तैनाती के लिये तैयार हुये। 1993 में नाटो ने युगोस्लाविया संघ गणराज्य के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिबंध में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। 1994 में नाटो के सैन्य विमानों ने सर्बिया पर हवाई हमले किये। यह संगठन के इतिह्रास में पहली प्रत्यक्ष सैनिक कार्यवाही थी।
1994 में नाटो ने समस्त यूरोप में राजनीतिक और सैनिक सहयोग विकसित करने के उद्देश्य से शांति के लिये सहभागिता कार्यक्रम आरंभ किया। एनएसीसी द्वारा विकसित एवं विस्तृत राजनीतिक संवाद पर आधारित यह कार्यक्रम भागीदारों को सैन्य नियोजन, प्रशिक्षण और अभ्यासों, रक्षा एवं सुरक्षा सूचनाओं के आदान-प्रदान तथा नाटो/ओएससीई शांति मिशनों में संयुक्त भागीदारी में सैन्य सहयोग (न कि पूर्ण-विकसित सुरक्षा संधि) प्रदान करता है। 1999 में नाटो में कुल 26 शांति-सहभागी सम्मिलित थे। नाटो प्रत्येक ऐसे सक्रिय सहयोगी से परामर्श करता है, जिनको अपनी क्षेत्रीय एकता, राजनीतिक स्वतंत्रता और सुरक्षा पर प्रत्यक्ष खतरा नजर आता है। नाटो के विस्तार की प्रक्रिया में शांति हेतु सहभागिता कार्यक्रम में सक्रिय भागीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका है।
1995 में नाटो के नेतृत्व में एक बहुराष्ट्रीय सैनिक बल, क्रियान्वयन सैन्य बल (आईएफओआर) ने बोस्निया में विभिन्न प्रतिद्वंद्वी गुटों के बीच हुए शांति समझौते के क्रियान्वयन और नागरिक एवं आर्थिक पुनर्निर्माण के लिये अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के उद्देश्य से संयुक्त प्रयास के नाम से अपनी कार्यवाही प्रारम्भ की। बोस्निया में आईएफओआर द्वारा की गई कार्यवाही नाटो की अब तक की सबसे बड़ी सैनिक कार्यवाही थी।
1996 में नाटो विदेश मंत्री संकट प्रबंधन और शांति सहयोग कार्यक्रमों के लिये संयुक्त सह-टास्क बल (Combined Joint Task Forces–CJTFs) को क्रियान्वित करने के लिए सहमत हुए।
1990 के दशक के मध्य में अनेक पूर्वी यूरोपीय देशों ने नाटो का सदस्य बनने की इच्छा व्यक्त की। नाटो के अनेक सदस्यों ने इनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया, लेकिन रूस ने इसका घोर विरोध किया । रूस ने नाटो के विस्तार को अपने प्रभाव क्षेत्र में अतिक्रमण के रूप में लिया। 1990 के दशक के अंत में भी नाटो के विस्तार का मामला रूस और पश्चिम के बीच तनाव का एक स्रोत बना रहा। वर्ष 1997 में नाटो और रूस ने पारस्परिक संबंध, सहयोग और सुरक्षा स्थापना अधिनियम पर हस्ताक्षर किये, जिसके अंतर्गत दोनों पक्ष एक-दूसरे को विरोधी के रूप में देखने की प्रवृत्ति को रोकने तथा मौलिक रूप से नये संबंधों की स्थापना के लिये सहमत हुये। सुरक्षा मामलों पर चर्चा के लिये एक स्थायी नाटो-रूस परिषद का गठन किया गया।
1997 में ही शांति हेतु सहभागिता कार्यक्रम को विकसित करने तथा नाटो के पूर्णकालिक सदस्यों और भागीदार सदस्यों के मध्य राजनितिक संबंधों को प्रोत्साहित करने के लिए एनएसीसी के स्थान पर एक नये अंग-अटलांटिक भागीदारी परिषद, का गठन हुआ।
1999 में कोसोवो संकट के समाधान के लिये युगोस्लाविया के अधिकारियों के साथ हुई समझौता वार्ता के विफल होने के बाद नाटो ने सर्बियाई सैनिक ठिकानों के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही की।
11 सितंबर, 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले के पश्चात् अमेरिका द्वारा इसके पीछे ओसामा बिन लादेन तथा उसके संगठन अल-कायदा के हाथ होने के पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद नाटो द्वारा पहली बार अक्टूबर 2001 में अनुच्छेद 5 के तहत पारस्परिक रक्षा धारा को औपचारिक रूप से अधिनियमित किया गया।
राजनीतिक रूप से, संगठन के भूतपूर्व वारसा पैक्ट के देशों के साथ बेहतर संबंध रहे, जिनमें से अधिकतर 1999 और 2004 में नाटो में शामिल हुए। संगठन ने कई भूमिकाएं निभाई हैं जिनमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् प्रस्ताव 1973 के अनुरूप वर्ष 2011 में लीबिया में नो-फ्लाई जोन प्रवृत्त करना शामिल है।
वर्ष 2004 के इस्तांबुल शिखर बैठक में नाटो ने फारस की खाड़ी के चार देशों के साथ इस्तांबुल सहयोग पहल को जारी किया। मार्च 2004 में नाटो की बाल्टिक एयर पोलिसिंग शुरू हुई, जिसने अवांछित आकाशीय घुसपैठ की प्रतिक्रिया हेतु लड़ाके प्रदान करके लाटविया, लिथुआनिया एवं एस्टोनिया की संप्रभुता का समर्थन किया।
वर्ष 2006 के रीगा (लाटविया) शिखर बैठक में ऊर्जा सुरक्षा के मामले पर प्रमुखता से विचार किया गया। यह नाटो का पहला ऐसा शिखर सम्मेलन था जिसे ऐसे देश में आयोजित किया गया जो सोवियत संघ का हिस्सा रहा था। अप्रैल 2008 के बुखारेस्ट (रोमानिया) सम्मेलन में नाटो क्रोएशिया एवं अल्बानिया दोनों के नाटो में सम्मिलन पर सहमत हो गया जो अप्रैल 2009 में नाटो में शामिल हो गए।
2014 के क्रीमिया संकट के चलते पूर्वी यूरोप के कई सदस्य देश नाटो पर इस बात के लिए जोर दे रहे हैं कि वह उनकी धरती पर स्थायी रूप से एक सैनिक टुकड़ी की स्थापना करे और यह 1997 में किए गए रूस के साथ सहयोग समझौते के परिप्रेक्ष्य में कहा गया है, यद्यपि नाटो ने उस समझौते की कानूनी बाध्यता को नकार दिया। 2012 से यह संगठन (नाटो) अपने उद्देश्य को लेकर बेहद व्यापक हो गया है जिसकी बैठकों में काउंटर पाइरेसी और तकनीकी आदान-प्रदान के मामलों पर भी बातचीत की जाती हैं।