मुहम्मद शाह: 1434-1445 ई. Muhammad Shah: 1434-1445 AD.
दिल्ली के सरदारों ने खिजिर खाँ के एक पौत्र तथा भूतपूर्व मार डाले गये सुल्तान के भावी उत्तराधिकारी मुहम्मद को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया। पर वह भी दलबन्दियों का शिकार एवं परिस्थितियों का खेल बन गया। सिद्धांत-शून्य वजीर सखरुलमुल्क की मृत्यु के बाद जब उसे अपनी शासन की योग्यता दिखलाने का अवसर भी मिला, तब उसने इसका इस प्रकार दुरुपयोग किया कि जिन्होंने उसे उसके शत्रुओं के हाथों से बचाया था उनका भी विश्वास खो बैठा। लाहौर एवं सरहिन्द के शासक बहलोल खाँ लोदी ने, जो मालवा के महमूदशाह खल्जी की राजधानी तक बढ़ आने पर सुल्तान की सहायता करने आया था, शीघ्र दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयत्न किया। यद्यपि यह तत्काल निष्फल रहा, पर सैय्यदों की अवस्था धीरे-धीरे अधिक बुरी होती गयी। जैसा कि निजामुद्दीन अहमद लिखता है- राज्य के कार्य दिन-प्रतिदिन अधिक अव्यवस्थित होते गये और ऐसी अवस्था आ पहुँची कि दिल्ली से बीस करोह (कोस) पर के भी सरदारों ने (लड़खड़ाते हुये साम्राज्य की) अधीनता अस्वीकार कर दी तथा इसके प्रतिकार की तैयारियों में लग गये।
अलाउद्दीन शाह: 1445-1451 ई. Alauddin Shah: 1445-1451 AD.
1445 ई. में मुहम्मद शाह की मृत्यु के बाद सरदारों ने उसके पुत्र को अलाउद्दीन आलमशाह की उपाधि से इस विनिष्ट राज्य का शासक घोषित किया, जिसमें अब केवल दिल्ली शहर और अगल-बगल के गाँव बच गये थे। नया शासक अपने पिता से भी अधिक कमजोर और अयोग्य था। उसने 1451 ई. में दिल्ली का राजसिंहासन बहलोल लोदी को दे दिया तथा निन्दनीय ढंग से अपने प्रिय स्थान बदायूँ चला गया। वहाँ उसने अपने जीवन का शेष भाग, अपनी मृत्यु तक विषय सुख में – लिप्त रहकर, व्यतीत किया। शायद उसे अपनी गद्दी छोड़ने का कोई दु:ख नहीं हुआ।