भारत का अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंध India’s Relations With its Neighbouring Countries
भूटान
1816 में असम के अधिग्रहण ने अंग्रेजों को पड़ोसी राज्य भूटान के निकट सम्पर्क में ला दिया। भूटानियों द्वारा समय-समय पर असम एवं बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में की जाने वाली लूटपाट, 1863-64 में लार्ड एल्गिन के प्रतिनिधि से दुर्व्यवहार एवं उस पर थोपी गयी शर्ते, जिसके कारण अंग्रेजों को असम के सभी महत्वपूर्ण दर्रे भूटानियों को सौंपने पड़े, दोनों के मध्य झगड़े का प्रमुख कारण थीं। बाद में अंग्रेजों ने इन दर्रों पर पुनः अधिकार कर लिया तथा भूटानियों को भत्ता देना बंद कर दिया।
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नेपाल
भारत की प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं के पार साम्राज्य का विस्तार करने की इच्छा के कारण अंग्रेजों का सबसे पहले जिस राज्य से टकराव हुआ वह नेपाल था। यह राज्य उत्तर की पहाड़ियों में अवस्थित था। नेपाल के साथ विवाद के कारण 1814 में अंग्रेजों एवं नेपालियों के मध्य एक भीषण युद्ध हुआ, जिसका अंत एक संधि से हुआ। इस संधि के अनुसार-
- नेपाल ने अपने यहां ब्रिटिश प्रतिनिधि (रेजीडेंट) रखना स्वीकार कर लिया।
- नेपाल ने कुमांऊ एवं गढ़वाल जिले अंग्रेजों को सौंप दिये तथा तराई क्षेत्र पर दावा छोड़ दिया।
- नेपाल ने सिक्किम भी अंग्रेजों को सौंप दिया।
इस संधि से अंग्रेजों के कई लाभ हुये-
- अब ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार हिमालय तक हो गया।
- मध्य एशिया में व्यापार के लिये उसे अच्छी व्यापारिक सुविधायें प्राप्त हुयीं।
- अंग्रेजों को कई महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल एवं पहाड़ी सैरगाह मिल गये। जैसे शिमला, नैनीताल तथा मसूरी।
- ब्रिटिश भारतीय सेना को बहादुर एवं लड़ाकू जाति के गोरखा सैनिक मिलने लगे।
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बर्मा
ब्रिटिश सरकार की विस्तारवादी नीतियों के तहत-जंगली संसाधनों की चाह, ब्रिटिश वस्तुओं के लिये बाजार की प्राप्ति तथा बर्मा एवं शेष दक्षिण-पूर्व एशिया में फ्रांसीसी महत्वाकांक्षाओं पर रोक लगाने के प्रयासों ने अंग्रेजों एवं बर्मा के मध्य तीन भयंकर युद्धों को जन्म दिया। इन युद्धों में बर्मा की पराजय हुयी तथा अंततः उसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।
बर्मा राज्य, भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित था। अठारवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत की पूर्वी सीमा में चीनी-तिब्बत मिश्रित एक जाति आवा को राजधानी बनाकर बर्मा में एक राज्य की स्थापना के प्रयासों में जुटी थी। इनका नेतृत्व एक बहादुर व्यक्ति आलोमपोरा कर रहा था।
प्रथम बर्मा युद्ध (1824-1826ई.)
सन् 1822 में ब्रह्मा के सेनापति महाबुंदेला ने असम पर अधिकार कर लिया तदुपरांत मणिपुर को जीत लिया। जब उसने कचर राज्य को भी हस्तगत करना चाहा तो लार्ड एमहर्स्ट ने इसका तीव्र विरोध किया। इस प्रकार बर्मा सरकार तथा अंग्रेजों के मध्य ताकतव प्रारंभ हुआ। आबा सरकार के शाहपुरी द्वीप पर अधिकार करने से अंग्रेज सरकार कुद्ध हो गयी। प्रत्युत्तर में अंग्रेजों ने शाहपुरी द्वीप को अपने कब्जे में ले लिया तथा बर्मा द्वारा विरोध करने पर 24 फरवरी 1824 को बर्मा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
बर्मा पर आक्रमण करने के लिये अंग्रेजों ने दो तरफ से सेना भेजी। पहली सेना उत्तर-पूर्व के स्थल मार्ग से तथा सर आर्चीबोल्ड कैम्पबेल के नेतृत्व में दूसरी सेना समुद्री मार्ग से। मई 1824 में अंग्रेजों ने रंगून जीत लिया तथा फिर असम को भी हस्तगत कर लिया। बर्मी सेनापति महाबुंदेला अंग्रेजों से युद्ध करते हुये मारा गया। इसके तीन सप्ताह पश्चात कैम्पबेल ने प्रोम पर अधिकार कर लिया। जब अंग्रेज आवा से केवल 72 किलोमीटर दूर रह गये, तब बर्मियों ने संधि का प्रस्ताव किया। 24 फरवरी 1826 को अंग्रेजों एवं बर्मियों के मध्य याण्डबू की संधि हुयी, जिसके अनुसार बर्मा सरकार ने-
- अंग्रेजों को 1 करोड़ रुपये युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में दिये।
- अराकान और टेनासिरिम के प्रांत अंग्रेजों को दे दिये।
- असम, कछार और जैंतिया पर अपना दावा छोड़ दिया।
- मणिपुर को स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता दे दी।
- ब्रिटेन के साथ एक व्यापारिक संधि करना स्वीकार किया।
- आवा में एक अंग्रेज रेजीडेंट रखना स्वीकार कर लिया।
इस संधि से अंग्रेजों को बहुत लाभ हुआ। उत्तर-पूर्व में उन्हें पर्याप्त भूमि मिल गयी तथा भविष्य में प्रसार के लिये बर्मा में उन्हें सुदृढ़ आधार प्राप्त हो गया।
द्वितीय बर्मा युद्ध, 1852 ई.
यह युद्ध अंग्रेजों की व्यापारिक महत्वाकांक्षाओं का प्रतिफल था। इस समय भारत का गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौजी था। ब्रिटिश व्यापारी ऊपरी बर्मा के जंगलों पर अधिकार करना चाहते थे तथा वे बर्मा सरकार को व्यापारिक कर देने के भी पक्ष में नहीं थे। इस समय (1837 में) ‘थेरावदी’ बर्मा का नया राजा बना। उसने पुराने राजा के समय की गयी संधि की शर्तो का पालन करने से इंकार कर दिया। 1852 में बर्मा के अंग्रेज व्यापारियों ने लार्ड डलहौजी को एक शिकायती पत्र भेजा, जिसमें व्यापारियों ने बर्मा में होने वाली विभिन्न व्यापारिक कठिनाइयों का उल्लेख किया।
इन सभी घटनाओं के कारण अंग्रेजों को बर्मा से युद्ध अवश्यंभावी प्रतीत होने लगा। घटनाओं के मद्देनजर डलहौजी ने लैम्बर्ट के नेतृत्व में जहाजों का बेड़ा रंगून भेज दिया। लैम्बर्ट ने रंगून पहुंचकर अंग्रेज व्यापारियों की समस्याओं को बर्मा सरकार के सम्मुख उठाया तथा रंगून के बर्मी गवर्नर को हटाने की मांग की। साथ ही उसने बर्मा के एक जहाज पर भी अधिकार कर लिया। इन घटनाओं के कारण अंग्रेजों एवं बर्मियों के मध्य युद्ध प्रारंभ हो गया। इस बार अंग्रेजों ने पेगू पर अधिकार कर लिया, जो शेष बचा हुआ बर्मा का एकमात्र तटीय प्रांत था। किंतु निचले बर्मा पर पूर्ण अधिकार करने के पहले अंग्रेजों को भीषण गुरिल्ला आक्रमणों का सामना करना पड़ा।
तृतीय बर्मा युद्ध 1885-86
इस युद्ध के समय वहां का शासक थीबो था। इस समय रंगून एवं निचले बर्मा के अंग्रेज व्यापारियों ने बर्मा के शासक थीबो पर सौतेला व्यवहार करने का आरोप लगाया। थीबी पर यह भी आरोप था कि वह अंग्रेजों के प्रतिद्वंदियों जैसे- फ़्रांस, जर्मनी, इटली, के साथ वाणिज्यिक संधियां करने में जुटा हुआ है। इसी समय फ्रांस ने योजना बनायी कि वह मांडले से फ्रांसीसी प्रदेश तक नयी रेल लाईन बिछायेगा।
यह वह समय था, जब नाइजर, मिस्र एवं मेडागास्कर में ब्रिटेन का फ्रांस के साथ टकराव चल रहा था। थीबो ने एक ब्रिटिश टिम्बर कंपनी पर भारी जुर्माना लगा दिया। अंत में लार्ड डफरिन ने बर्मा पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया तथा 1885 में बर्मा को विजित कर (ऊपरी बर्मा को) उसका ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया गया।
लेकिन बर्मा को अधिग्रहित करने के कुछ समय पश्चात ही वहां अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध प्रारंभ हो गये। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात बर्मा में स्वतंत्रता आदोलन भी शुरू हो गया। शीघ्र ही बर्मा के राष्ट्रवादियों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से मैत्री संबंध स्थापित कर लिये। अंग्रेजों ने कांग्रेस से बर्मी राष्ट्रवादियों के संबंधों को तोड़ने का प्रयास किया तथा 1935 में बर्मा को भारत से पृथक कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय यू आंग सेन के नेतृत्व में बर्मा का स्वतंत्रता आंदोलन अत्यंत तीव्र हो गया। अंततः बर्मा के स्वतंत्रता संग्राम को सफलता मिली तथा 4 जनवरी, 1948 को बर्मा आजाद हो गया।
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अफगानिस्तान
अपने साम्राज्य की सुरक्षा तथा पश्चिमोत्तर की ओर एक वैज्ञानिक सीमा की समस्या ने अंग्रेजों को अफगानों से संबंध बनाने अथवा संघर्ष करने पर बाध्य कर दिया। 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में फारस (ईरान) में रूस का प्रभाव बढ़ने से ब्रिटिश प्रभाव में कमी आ गयी तथा अंग्रेजों की फरात नदी के रास्ते भारत से एक नया जल मार्ग स्थापित करने की योजना असफल हो गयी। विशेषरूप से तुरकोमनचाई की संधि (1928 ई.) के पश्चात रूस के प्रभाव से अंग्रेज घबरा गये। इंग्लैंड में विशेषज्ञों ने भारत संकट में है का नारा लगाया। इसके तुरंत बाद भारत की ओर से एक वैज्ञानिक सीमा की खोज प्रारंभ हो गयी। उत्तर-पश्चिमी दर्रे भारत के द्वार की चाबी थे। अतः यह सोचा गया कि अफगानिस्तान को मित्र राजा के अधीन होना चाहिए।
ऑकलैंड, जो कि 1836 में गवर्नर-जनरल बनकर भारत आये, अग्रगामी नीति (Forward Policy) के समर्थक थे। अफगानिस्तान का अमीर (शासक) दोस्त मुहम्मद, अंग्रेजों से मित्रता का इच्छुक था तथा उसने आकलैण्ड को भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त किये जाने पर उसे बधाई पत्र भी लिखा। किंतु उसने मित्रता के लिये अंग्रेजों के सम्मुख यह शर्त रखी थी कि अंग्रेज अपने राजनीतिक प्रभाव का प्रयोग करके रणजीत सिंह से पेशावर उसे वापस दिला दें। लेकिन ऑकलैंड ने दोस्त मुहम्मद के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके पश्चात दोस्त मुहम्मद ने रूस एवं फारस की ओर रुख किया तथा इनसे सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। दोस्त मुहम्मद के इस प्रयास से अंग्रेज सरकार अग्रगामी नीति अपनाने की ओर अग्रसर हुयी तथा उसने रणजीत सिंह एवं शाहशुजा के साथ मिलकर जून 1838 ई. में त्रिदलीय संधि पर हस्ताक्षर किये। (शाहशुजा 1809 में अफगानिस्तान के सिंह्रासन से अपदस्थ कर दिया गया था, तबसे वह लुधियाना में कंपनी का पेंशनर बनकर रह गया था)। इस संधि के अनुसार-
- सैनिक सहायता द्वारा सिख, शाहशुजा को अफगानिस्तान के सिंह्रासन पर बैठा देंगे; कंपनी पर्दे के पीछे रहेगी तथा केवल पैसा व्यय करेगी।
- इसके बदले शाहशुजा अपने विदेशी संबंधों का संचालन अंग्रेजों व सिखों की सलाह के अनुसार करेगा।
- शाहशुजा ने एक बड़ी राशि के बदले, सिंध के अमीरों पर अपने प्रभुसत्ता के अधिकारों को छोड़ दिया।
- शाहशुजा ने सिंध नदी के दक्षिणी तट पर महाराजा रणजीत सिंह के अधिकारों को स्वीकार कर लिया।
लेकिन शीघ्र ही पूरी स्थित तेजी से बदल गयी। अंग्रेजों द्वारा फारस की खाड़ी में भेजी गयी अभियान सेना से फारस का शाह अत्यंत भयभीत हो गया तथा सितम्बर 1838 में उसने हेरात का घेरा उठा लिया। दूसरी ओर राजनीतिक दबाव के मद्देनजर रूस ने भी काबुल से अपना दूत वापस बुला लिया। इसके बावजूद भी अंग्रेजों ने अपनी अग्रगामी नीति को आगे बढ़ाने का निश्चय किया। इसी के कारण प्रथम अफगान युद्ध (1838-42) हुआ। अंग्रेजों की वास्तविक मंशा अफगानिस्तान पर प्रभुत्व जमाने की थी।
सफलतापूर्वक कंधार और गजनी जीतने के पश्चात अगस्त 1839 में अंग्रेजों की सेना ने काबुल में प्रवेश किया। इससे पहले अंग्रेजों ने रिश्वत देकर सभी स्थानीय जनजातियों को पहले ही अपनी ओर कर लिया था। दोस्त मुहम्मद ने आत्मसमर्पण (1840) कर दिया और शाहशुजा को अफगानिस्तान का अमीर घोषित कर दिया गया। लेकिन अफगानिस्तान के लोगों को शाहशुजा स्वीकार्य नहीं था। वह केवल ताकत के बल पर ही गद्दी पर रह सकता था। इसके पश्चात आकलैण्ड ने अंग्रेजी सेना वापस बुला ली तथा एक छोटी टुकड़ी जनरल एलफिंस्टन के नेतृत्व में काबुल में छोड़ दी। अंग्रेजी सेना के वापस लौटते ही अफगानों ने विद्रोह कर दिया तथा काबुल में अंग्रेजी सेना के कमांडर बर्न्स की हत्या कर दी। इसके पश्चात अंग्रेज दोस्त मुहम्मद के पुत्र अकबर खां से एक अपमानजनक संधि (1841) करने पर बाध्य हुये। इस संधि द्वारा उन्होंने अफगानिस्तान छोड़ना स्वीकार कर लिया तथा दोस्त मुहम्मद को पुनः अफगानिस्तान का शासक बना दिया गया। इसके बाद मैक्नाटन, एलफिंस्टन और शाहशुजा भी एक-एक करके मार दिये गये तथा ऑकलैंड के उत्तराधिकारी एलनबरो ने बचे हुए सभी अंग्रेज सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुला लिया। इस प्रकार अंग्रेजों की यह महान योजना गुब्बारे की तरह फूट गयी।
अपने नये अभियान में 1842 में अंग्रेजों ने पुनः काबुल पर अधिकार कर लिया। किंतु पहले अभियान से भलीभांति सबक सीख चुके अंग्रेजों ने इस बार समझौते की नीति अपनायी। उन्होंने दोस्त मुहम्मद से समझौता करके शीघ्र ही काबुल को खाली कर दिया तथा दोस्त मुहम्मद को अफगानिस्तान के स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता दे दी।
प्रथम अफगान युद्ध में भारत का लगभग 1 करोड़ 50 लाख रुपया व्यय हुआ तथा उसके लगभग 20 हजार लोग मारे गये।
जान लारेंस (जो कि 1864 से 1869 तक भारत का गवर्नर-जनरल रहा) ने अफगानिस्तान के संबंध में कुशल अकर्मण्यता की नीति (Policy of Masterly Inactivity) अपनायी। यह नीति प्रथम अफगान युद्ध में हुये अंग्रेजों के सर्वनाश का सीधा परिणाम थी। इस युद्ध से अंग्रेज वास्तविकता से अवगत हो गये तथा उन्हें सीमा समस्या के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी हासिल हुयी। इसके साथ ही उन्हें अफगानों की स्वतंत्रप्रियता का भी पता चल गया। इसके कारण ही 1863 में जब दोस्त मुहम्मद की मृत्यु के पश्चात अफगानिस्तान में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ तो अंग्रेजों ने इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया। जान लॉरेंस की इस नीति के मुख्य दो उद्देश्य थे-
- सीमा में शांति भंग नहीं होनी चाहिये। तथा
- देश के गृहयुद्ध में किसी भी उम्मीदवार का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए।
उत्तराधिकार युद्ध के पश्चात जब शेर अली अफगानिस्तान का शासक बना तो लारेंस ने उससे मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास किये। 1876 में लिटन के वायसराय बनकर आने पर अफगानिस्तान के संबंध में अपनायी गयी नीति में निश्चयपूर्वक परिवर्तन आया। नयी नीति गौरवपूर्ण पार्थक्य (Proudreserve) की थी, जिसमें वैज्ञानिक सीमाओं और प्रभाव क्षेत्रों को बनाये रखने पर बल दिया गया था। लिटन के अनुसार अफगानिस्तान के साथ संबंधों को लंबे समय तक अनिश्चय की स्थिति में नहीं रखा जा सकता। लिटन ने शेर अली के सम्मुख एक सम्मानजनक संधि का प्रस्ताव रखा लेकिन शेर अली अपने दोनों शक्तिशाली पड़ोसियों (रूस एवं इंग्लैड) से मैत्रीपूर्ण संबंध विकसित करना चाहता था। इसके पीछे अली चाहता था कि वह इंग्लैण्ड एवं रूस दोनें को प्रसन्न रखे तथा दोनों को अफगानिस्तान से दूर रखे। बाद में शेर अली ने काबुल में अंग्रेज प्रतिनिधि को रखने से इंकार कर दिया लेकिन उसने रूसी प्रतिनिधि को काबुल आने की अनुमति दे दी। शेर अली के इस कदम से लिटन स्तब्ध रह गया तथा वह तिलमिला उठा। तत्पश्चात जैसे ही रूसी प्रतिनिधि काबुल से वापस गया, लिटन ने अफगानिस्तान पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। इसके उपरांत द्वितीय अफगान युद्ध (1878-80) प्रारंभ हो गया। अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया। शेर अली तुर्किस्तान भाग गया तथा अंग्रेजों ने उसके पुत्र याकूब खां से गंडमक की संधि (मई 1879) की। इस संधि के अनुसार-
- याकूब खां ने वचन दिया कि वह अपने विदेशी संबंधों का संचालन भारत सरकार की सलाह से करेगा।
- काबुल में स्थायी रूप से एक अंग्रेज प्रतिनिधि (रेजीडेंट) रखा जायेगा।
- अमीर ने कुर्रम और मिशनी दर्रों का नियंत्रण तथा पिशीन, कुर्रम और सिबी जिलों का प्रशासन अंग्रेजों को दे दिया।
- उसके बदले भारत सरकार ने याकूब खां को अन्य देशों के विरुद्ध रक्षा का आश्वासन दिया और छः लाख रुपया वार्षिक भी देना स्वीकार किया।
लेकिन शीघ्र ही याकूब के विरुद्ध विद्रोह के कारण उसे पद त्यागना पड़ा तथा अंग्रेजों ने काबुल और कंधार जीत लिया। लिटन ने अफगानिस्तान को टुकड़े-टुकड़े कर देने की योजना बनायी पर वह अपनी योजना पर अमल नहीं कर सका। बाद में लिटन ने इस योजना को त्याग दिया तथा मध्य राज्य की योजना (Policy of Buffer state) स्वीकार कर ली। शेर अली के पश्चात अब्दुररहमान अफगानिस्तान का शासक बना। अब्दुररहमान इस बात पर सहमत हो गया कि वह अंग्रेजों के अलावा किसी और से अपने राजनीतिक संबंध नहीं स्थापित करेगा। इस प्रकार अपनी विदेशी नीति पर उसका कोई नियंत्रण न रहा।
प्रथम विश्व युद्ध एवं रूस की क्रांति (1917 ई.) के पश्चात, अफगान पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने लगे। हबीबुल्लाह (जो अब्दुररहमान के पश्चात 1901 में अफगानिस्तान के शासक बने) की 1919 में हत्या कर दी गयी। तदुपरांत अफगानिस्तान के नये शासक अमानुल्लाह ने अंग्रेजों के विरुद्ध खुले युद्ध की घोषणा कर दी। 1921 में एक शांति संधि संपन्न हुयी, जिसके द्वारा अफगानिस्तान दारा अपने सभी विदेशी मामले स्वतन्त्रतापूर्वक चलने के अधिकार को स्वीकार कर लिया गया। 1922 में इंग्लैण्ड तथा काबुल के मध्य दूतावास स्थापित किये गये।
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उत्तर-पश्चिमी सीमा
भारत के उत्तरवर्ती शासकों ने एक वैज्ञानिक सीमा की खोज में अफगानिस्तान एवं सिंधु नदी के बीच स्थित प्रदेश में पहुंचने तथा आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास किया। 1843 में सिंध की विजय तथा 1849 में पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिये जाने के पश्चात ब्रिटिश साम्राज्य की सीमायें सिंधु नदी को पार कर गयीं। इन विजयों ने अंग्रेजों को बलूच एवं पठान कबीलाई जातियों के निकट सम्पर्क में ला दिया। वैसे तो ये कबीले स्वतंत्र थे किंतु अफगानिस्तान के अमीर इन पर नाममात्र के आधिपत्य का दावा करते थे।
1840 के दशक में जॉन जैकब ने सिंध में चौकसी द्वारा, चलित प्रतिरक्षा व्यवस्था की स्थापना की तथा बेकार पड़ी भूमि पर अधिकार कर खेती करना प्रारंभ कर दिया। लार्ड डलहौजी ने इन कबाइलियों के प्रति अनुरंजक या सांत्वना देने की नीति (Conciliatory policy) अपनायी। उसने कबाइलियों की लूटपाट को रोकने के उद्देश्य से स्थान-स्थान पर दुर्ग बनवाये। 1849 के पश्चात अंग्रेजों की उत्तर-पश्चिमी सीमा नीति लार्ड लारेंस की हस्तक्षेप न करने (non-intervention) के सिद्धांत पर आधारित रही। किंतु 1876 में लिटन के आने पर कुशल अकर्मण्यता की नीति समाप्त हो गयी तथा अग्रगामी नीति का अनुसरण होने लगा। इस समय अंग्रेजी नीति-निर्माताओं को एक वैज्ञानिक सीमा की महत्ता (Importance) का एहसास होने लगा। विशेष रूप से द्वितीय अफगान युद्ध तथा अफगान क्षेत्रों को अधिग्रहित करने के पश्चात इस धारणा को और बल मिला। लार्ड लैंसडाउन (जो कि 1888-94 तक वायसराय रहा) ने लिटन की अग्रगामी नीति का और विस्तार किया। 1870 के दशक में सीमा संबंधी कई प्रशासकीय कदम उठाये गये। यथा- सिविल अधिकारियों को पाश्तु एवं बलूची भाषा सीखने के लिये प्रेरित किया गया, पंजाब सीमा बल की सहायता के लिये स्थानीय सेना की स्थापना की गयी तथा अफरीदी, वजीरी, गुरचनिस, भिटानिस तथा बगटीज के कबीलों को ब्रिटिश क्षेत्रों में बदल दिया गया।
1891-92 में अंग्रेजों ने बोरी तथा जॉब घाटी तक शक्ति का प्रसार कर लिया तथा गिलगित घाटी में हंजा और नागर पर भी अधिकार कर लिया गया। ब्रिटिश सरकार की इन अग्रगामी चालों से अब्दुररहमान को शंका होने लगी। अंत में डूरंड समझौते से अफगानिस्तान एवं अंग्रेजी साम्राज्य के बीच सीमा समस्या का समाधान हो गया। अमीर को और जिले दे दिये गये तथा उसके अनुदान (subsidy) में वृद्धि कर दी गयी। लेकिन 1893 में संपन्न हुआ डूरंड समझौता शांति स्थापित करने में असफल हो गया तथा जल्द ही कबाइलियों की विद्रोह प्रारंभ हो गये। इन विद्रोहों को रोकने के लिये चितराल में एक स्थायी सेना के साथ एक दुर्ग का निर्माण किया गया तथा मालाकन्द दर्रे में प्रहरी (Guard) तैनात कर दिये गये। लेकिन इन उपायों के पश्चात भी 1898 तक कबाइलियों के उपद्रव जारी रहे।
लार्ड कर्जन (जो कि 1899 से 1905 तक वायसराय रहा) ने सीमा नीति के सम्बन्ध में वापसी तथा केन्द्रीकरण की नीति (Policy of withdrawal and Concentration) अपनायी। नियमित अंग्रेजी सेना को कबाइली प्रदेशों में स्थित चौकियों से हटा लिया गया तथा कबाइली प्रदेश की रक्षा अंग्रेज अधिकारियों द्वारा प्रशिक्षित कबाइली सेना को सौंप दी गयी। कर्जन ने कबाइलियों को शांति स्थापित करने के लिये भी प्रोत्साहित किया। उसने भारत सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत नामक एक नये प्रांत का गठन किया। (पहले यह क्षेत्र पंजाब के लेफ्टिनेंट-गवर्नर के नियंत्रण में था)। कुल मिलाकर कर्जन की नीतियों से शांतिपूर्ण उत्तर-पश्चिमी सीमा की स्थापना हुयी। लेकिन उ.-प. सीमा में शांति स्थापना के पश्चात भी कबाइलियों के उपद्रव की छिटपुट घटनायें होती रहीं। जनवरी 1932 में इस प्रांत को गवर्नर के प्रांत की स्थिति दे दी गयी तथा सर रेल्फ ग्रिफिथ को पहला गवर्नर नियुक्त किया गया। 1947 में विभाजन के पश्चात यह प्रांत पाकिस्तान में सम्मिलित हो गया।
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तिब्बत
तिब्बत चीन के प्रतीकात्मक आधिपत्य में बौद्ध भिक्षुओं (लामाओं) द्वारा धर्मराज्य के रूप में शासित होता रहा था। प्रारंभ में अंग्रेजों द्वारा तिब्बत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने की दिशा में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं हुयी तथा कर्जन के भारत आगमन के पश्चात संबंधों में गतिरोध पैदा हो गया। तिब्बत पर चीन का आधिपत्य अप्रभावी था तथा यहां धीरे-धीरे रूसी प्रभाव में वृद्धि होने लगी। ऐसी सूचनायें मिलीं कि रूस, तिब्बत में अपने सैन्य प्रभाव में धीरे-धीरे वृद्धि कर रहा है। कर्जन इन सूचनाओं से सतर्क हो गया तथा उसने तिब्बतियों से समझौता करने के उद्देश्य से कर्नल यंगहस्बैंड के नेतृत्व में एक गोरखा टुकड़ी को विशेष अभियान दल के रूप में तिब्बत भेजा। लेकिन तिब्बतियों ने समझौता करने से इंकार कर दिया तथा अहिंसात्मक प्रतिरोध की नीति अपनायी। तत्पश्चात यंगहस्बैंड ने ल्हासा पर आक्रमण कर दिया (अगस्त 1940) तथा दलाई लामा भाग खड़ा हुआ। यंगहस्बैंड ने तिब्बत के अधिकारियों के सम्मुख एक प्रस्ताव पेश किया, जिसके अनुसार-
- तिब्बत, हानि की प्रतिपूर्ति के रूप में अंग्रेजों को 75 लाख रुपये देगा। यह रकम 1 लाख रुपये प्रतिवर्ष करके अदा की जायेगी।
- प्रतिपूर्ति की सुरक्षा (Security) के रूप में भारत सरकार चुम्बी घाटी (भूटान एवं सिक्कम के बीच का क्षेत्र) को 75 वर्ष तक अपने अधिकार में रखेगी।
- तिब्बत, सिक्किम की सीमाओं का सम्मान करेगा।
- यातुंग, ग्यान्त्से तथा गार्टोक के व्यापार बाजार को तिब्बत अंग्रेज व्यापारियों के लिये खोल देगा।
- तिब्बत रेलवे, रोड, टेलीग्राफ इत्यादि के क्षेत्र में किसी अन्य विदेशी राज्य को कोई रियायत नहीं देगा तथा उसकी विदेश नीति पर कुछ हद तक ब्रिटेन का अधिकार रहेगा।
लेकिन बाद में भारत सचिव के दबाव तथा रूस के आग्रह के कारण इस संधि को संशोधित किया गया तथा क्षतिपूर्ति की रकम को 75 लाख रुपये से घटाकर 25 लाख रुपये कर दिया गया। इसके अतिरिक्त चुम्बी घाटी को केवल तीन वर्ष पश्चात मुक्त करने पर भी सहमति हो गयी। (लेकिन वास्तव में चुम्बी घाटी को जनवरी, 1908 में ही खाली किया गया)।
यंगहस्बैंड अभियान मुख्यतः वायसराय की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं का प्रतिफल था तथा इसके कोई सार्थक परिणाम नहीं निकले। केवल इस मामले में चीन ही सबसे ज्यादा लाभान्वित हुआ, क्योंकि 1907 में इंग्लैंड एवं रूस के बीच हुयी सहमति में यह तय किया गया कि वे चीन सरकार की मध्यस्तता के बिना तिब्बत के संबंध में किसी प्रकार का सौदा नहीं करेंगे। फिर भी कर्जन की नीतियों ने तिब्बत। के संबंध में रूस की सभी योजनाओं पर रोक अवश्य लगा दी।