भारत की विदेश नीतिः गुटनिरपेक्षता एवं पंचशील India’s Foreign Policy: Non-Alignment And Panchsheel
भारतीय विदेश नीति के मौलिक सिद्धांत भली-भांति परिभाषित हैं तथा ये आज भी लगभग वहीं हैं जिनका भारत की अंतरिम सरकार के प्रधान के रूप में 1946 में पंडित नेहरू ने वर्णन किया था। इनमें निरंतरता इसलिए बनी रही क्योंकि कुछ क्रांतिकारी घटनाओं के होते हुए भी वातावरण की मुख्य मांगे, अर्थात् विश्व शांति तथा सुरक्षा की रक्षा या उपनिवेशवाद तथा नस्ली भेदभाव की समाप्ति, आपसी असहयोग तथा मित्रता के बंधनों को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता शक्ति राजनीति, शीत युद्ध से अलग रहने की आवश्यकता तथा संयुक्त राष्ट्र को सुदृढ़ करने की आवश्यकता आज भी उतनी ही वैध मानी जाती है जितनी कि 1946 में थी।
तथापि भारतीय विदेश नीति के प्रारंभिक वर्षों में अपनाए गए उद्देश्य तथा सिद्धांत काफी स्पष्ट हो गए हैं परंतु स्थिति में परिवर्तन तथा सूक्ष्म पुनर्व्याख्याएं भी हुई हैं। इन सिद्धांतों को सर्वप्रथम पंडित नेहरू ने बनाया तथा परिकल्पित किया।
भारत की विदेश नीति की मूल बातों का समावेश हमारे संविधान के अनुच्छेद 51 में कर दिया गया है जिसके अनुसार राज्य अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देगा, राज्य राष्ट्रों के मध्य न्याय और सम्मानपूर्वक संबंधों को बनाए रखने का प्रयास करेगा, राज्य अंतर्राष्ट्रीय कानूनों तथा संधियों का सम्मान करेगा तथा राज्य अंतर्राष्ट्रीय झाड़ों को पंच फैसलों द्वार निपटाने की रीति को बढ़ावा देगा। कुल मिलाकर भारत की विदेश नीति के प्रमुख आदर्श निम्नलिखित है:
- भारतीय विदेश नीति अपने आप में स्वतंत्र है, भारत दो बड़ी शक्तियों में से किसी के गुट में शामिल नहीं है। पर ऐसा मानना सही नहीं कि भारत की विदेशी नीति “तटस्थ” है। वस्तुतः अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भारत कभी “तटस्थ” नहीं रहा बल्कि इसके गुण और दोष के आधार पर विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों से अपनी सम्मति स्पष्ट रूप से व्यक्त करता रहा है।
- भारत कभी भी द्विपक्षीय या बहुपक्षीय सैन्य संधि के पक्ष में नहीं रह है। विश्व की समस्याओं को सुलझाने में सैन्य शक्ति की भूमिका का भारत ने हमेशा विरोध किया है।
- भारत ने सभी देशों से मित्रता बनाये रखने की कोशिश की। उल्लेखनीय है कि भारत ने अमरीकी गुट (पूंजीवादी व्यवस्था) और सोवियत गुट (साम्यवादी व्यवस्था) के देशों से बिना किसी भेदभाव के मित्रता की।
भारत ने कभी भी एक देश को दूसरे देश से लड़ाने की नीति पर अमल नहीं किया। भारत में सरकार का ढांचा लोकतांत्रिक है। लेकिन विदेश नीति के मामले में भारत न पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों से अधिक जुड़ा और न ही साम्यवादी देशों से इस कारण दूर हुआ।
- भारत बहुत दिनों तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहा, इसने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही उपनिवेशवाद विरोधी नीति का अनुगमन किया। विश्व के मानचित्र पर भारत के एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में उभरने के साथ ही एशिया-अफ्रीका-लातिनी अमरीका के देशों में उपनिवेशों के स्वतंत्र होने का सिलसिला शुरू हुआ। भारत की आजादी के बाद श्रीलंका बर्मा और इंडोनेशिया आजाद हुए। इसके बाद भारत ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों से उपनिवेशवाद के खिलाफ बोलकर अफ्रीकी देशों की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- भारत ने अपनी विदेश नीति के अंतर्गत नस्लवाद विरोधी नारा बुलंद किया। उल्लेखनीय है कि गांधी जी ने 19वीं शताब्दी के आरंभ में दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष किया था।
- भारत इस विचार का समर्थक रहा है कि अस्त्रों की होड़ और सैन्य संधियों को रोके बिना विश्व-शांति कायम करना असंभव है। भारत निरस्त्रीकरण को विश्व शांति की कुंजी मानता है। इसके अतिरिक्त निरस्त्रीकरण से अस्त्रों पर खर्च की जाने वाली विशाल राशि की बचत होगी और इस राशि का उपयोग गरीब देशों के विकास के लिए किया जा सकता है।
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भारत की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएं The Salient Features of India’s Foreign Policy
सितंबर 1946 में अंतरिम सरकार की स्थापना के बाद से ही भारतीय विदेश नीति विकसित होने लगी। पं. नेहरू ने स्पष्ट कहा कि स्वतंत्र भारत अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में एक स्वतंत्र नीति का अवलम्बन करेगा और किसी गुट में सम्मिलित नहीं होगा। भारत विश्व के किसी भी भाग में उपनिवेशवाद और प्रजातीय सहयोग बढ़ाने पर भी जोर देगा। यदि स्वाधीन भारत की विदेश नीति का समीक्षात्मक विश्लेषण करें तो निम्नलिखित विशेषताएं हमारे सामने प्रकट होती हैं-
शांति की विदेश नीति
शांति की विदेश नीति सदैव ही विश्व शांति की समर्थक रही है। भारत ने प्रारंभ से ही यह महसूस किया है कि युद्ध और संघर्ष नवोदित भारत के आर्थिक और राजनीतिक विकास को अवरुद्ध करने वाला है। अगस्त 1954 में पणिक्कर ने कहा था- भारत को इस बात की बड़ी चिंता है कि उसकी प्रगति को तथा सामान्य रूप से मानव-जाति की उन्नति को संकट में डालने वाला कोई युद्ध न हो।” 1956 के स्वेज नहर के संकट के कारण भारत की आर्थिक योजनाएं अत्यधिक प्रभावित हुई।
मैत्री और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति
भारत की विदेशी नीति मैत्री और सह-अस्तित्व पर जोर देती है। यदि सह-अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता तो आणविक शस्त्रों से समूची दुनिया का ही विनाश हो जाएगा। इसी कारण भारत ने अधिक से अधिक देशों के साथ मैत्री संधियां और व्यापारिक समझौते किए।
पंचशील सिद्धांत
‘पंचशील’ के पांच सिद्धांतों का प्रतिपालन भी भारत की शांतिप्रियता का द्योतक है। 1954 के बाद से भारत की विदेश नीति को ‘पंचशील’ के सिद्धांतों ने एक नई दिशा प्रदान की। पंचशील से अभिप्राय है- आचरण के पांच सिद्धांत । जिस प्रकार बौद्ध धर्म में ये व्रत एक व्यक्ति के लिए होते हैं उसी प्रकार आधुनिक पंचशील के सिद्धांतों द्वारा राष्ट्रों के लिए दूसरे के साथ आचरण के सम्बंध निश्चित किए गए हैं। ये सिद्धांत निम्नलिखित प्रकार से हैं-
- एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना
- अनाक्रमण
- एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना
- समानता एवं पारस्परिक लाभ, तथा
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व
‘पंचशील’ के इन सिद्धांतों का प्रतिपादन सर्वप्रथम 29 अप्रैल, 1954 को तिब्बत के सम्बंध में भारत और चीन के बीच हुए एक समझौते में किया गया था। 28 जून, 1954 को चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई तथा भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने पंचशील में अपने विश्वास को दोहराया। इसके उपरांत एशिया के प्रायः सभी देशों ने ‘पंचशील’ के सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया। अप्रैल 1955 में बाण्डुग सम्मेलन में पंचशील के इन सिद्धांतों को पुनः विस्तृत रूप दिया गया। बाण्डुंग सम्मेलन के बाद विश्व के अधिसंख्य राष्ट्रों ने पंचशील सिद्धांत को मान्यता दी और उसमें आस्था प्रकट की। पंचशील के सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों के लिए निःसंदेह आदर्श भूमिका का निर्माण करते हैं। पंचशील के सिद्धांत आपसी विश्वासों के सिद्धांत हैं। पं. नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि- यदि इन सिद्धांतों को सभी देश मान्यता दे दें तो आधुनिक विश्व की अनेक समस्याओं का निदान मिल जाएगा।
पंचशील के सिद्धांत आदर्श हैं जिन्हें यथार्थ जीवन में उतारा जाना चाहिए। इनसे हमें नैतिक शक्ति मिलती है और नैतिकता’ के बल पर हम न्याय और आक्रमण का प्रतिकार कर सकते हैं। आलोचकों का कहना है की भारत-चीन संबंधों की पृष्ठभूमि में ‘पंचशील’ एक अत्यंत असफल सिद्धांत साबित हुआ। इसके द्वारा भारत ने तिब्बत में चीन की सर्वोत्तम सत्ता को स्वीकार करके तिब्बत की स्वायत्तता के अपहरण में चीन का समर्थन किया था। इसकी आलोचना करते हुए आचार्य कृपलानी ने कहा था कि “यह महान सिद्धांत पापपूर्ण परिस्थितियों की उपज है क्योंकि यह आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से हमारे साथ सम्बद्ध एक प्राचीन राष्ट्र के विनाश पर हमारे स्वीकृति पाने के लिए प्रतिपादित किया गया था।
साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोधः ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन दासता में पिसने के बाद भारत की साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद के अमानवीय, अनुदारवादी, तथा उच्च स्तरीय शोषण प्रवृति का पूर्णतया आभास है। भारत की आजादी की लड़ाई वास्तव में साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई थी। विश्व के किसी भी भाग में साम्राज्यवाद का अस्तित्व भारत को अस्वीकार्य है। भारत के लिए साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष जीवन मृत्यु का प्रश्न है।
ऐसे सभी देश जो कभी न कभी साम्राज्यवाद के शिकार थे जैसे इंडोनेशिया, लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मोरक्को, अंगोला, नामीबिया आदि सभी की भारत ने उपनिवेशीय शासन से छुटकारा पाने के लिए किए जाने वाले संघर्ष में पूर्ण रूप से सहायता की है। 1947 के बाद से भारत, साम्राज्यवाद तथा नवउपनिवेशवाद की शक्तियों (जो नये राष्ट्रों की स्वतंत्रता को विभिन्न अप्रत्यक्ष तथा सूक्ष्म तरीकों से सीमित कर रहे हैं) के विरुद्ध एशियाई, अफ्रीकी तथा लातीनी अमरीकी राष्ट्रों की एकता बनाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। एशियाई सम्बंध कान्फ्रेंस, 1955 के बांदुग सम्मेलन, गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के सम्मेलनों में, संयुक्त राष्ट्र संघ की मह्रासभा की बैठकों में तथा वास्तव में सभी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में, भारत ने इन बुराइयों के विरुद्ध सदा ही आवाज उठाई है। अफ्रीकी-एशियाई एकता की दृढ़ता बल्कि, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नव-उपनिवेशवाद के विरुद्ध सम्पूर्ण तीसरे विश्व की एकता आज भी भारतीय विदेश नीति के मूल सिद्धांत हैं। उपनिवेशीय तथा साम्राज्यवादी शक्तियों की ओर से घोर विरोध के बावजूद भारत साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नव-उपनिवेशवादी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष का समर्थन करता रहा है। तथा ऐसा करने के लिए दृढ़ निश्चयी है। इस सम्बंध में शक्तिशाली भूमिका निभाने के लिए भारत दक्षिण-दक्षिण सहयोग के विकास का प्रबल समर्थक रहा है।
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संयुक्त राष्ट्र तथा विश्व शांति के लिए समर्थन
भारत संयुक्त राष्ट्र के मूल सदस्यों में से एक है। भारत ने सानफ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया था तथा संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर किए थे। तब से लेकर आज तक भारत ने सयुंक्त राष्ट्र तथा दूसरी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के क्रियाकलापों का समर्थन किया है तथा इनमें सक्रियता से भाग लिया है।
संयुक्त राष्ट्र की विचारधारा का समर्थन करने तथा इसके क्रिया-कलापों में सक्रियता सकारात्मक तथा रचनात्मक रूप से भाग लेना भारतीय विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धांत रहा है। भारत मह्रासभा का एक सक्रिय सदस्य रहा है तथा यह सुरक्षा परिषद् में कई बार अस्थाई सदस्य बना है।
बहुत सी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के क्षेत्रीय कार्यालय भारत में स्थित है। भारत UNICFF, FAO, UNESCO तथा ऐसी दूसरी संस्थाओं के कार्यक्रमों में सक्रियता से जुड़ा हुआ है। भारत सदा ही लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक कल्याण के लिए संयुक्त राष्ट्र के निर्देशों का पालन करता रहा है तथा हर अंतरराष्ट्रीय प्रायोजित वर्षों तथा कार्यक्रमों को लागू करने के यथासम्भव प्रयत्न करता है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र की कार्यप्रणाली का समर्थन करना तथा इसमें सक्रियता से भाग लेना भारतीय विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धांत है।
गुटनिरपेक्ष नीतिः द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत विश्व राजनीति का दो ध्रुवों में विभाजन हो चुका था। साम्यवादी सोवियत संघ और पूंजीवादी अमेरिका द्वारा संसार के नवस्वतंत्र देशों को अपने-अपने गुटों में शामिल करने तथा इन देशों की शासन प्रणालियों को अपनी विचारधाराओं के अनुकूल ढालने के भरसक प्रयास किये जा रहे थे। ऐसे विश्व परिदृश्य में भारत ने विश्व राजनीति में अपनी पृथक पहचान एवं स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने के उद्देश्य से गुटनिरपेक्षता नीति का अनुपालन किया। गुटनिरपेक्षता को अपनाये जाने के कारण निम्नलिखित प्रकार से हैं-
- भारत किसी गुट में शामिल होकर विश्व में अनावश्यक तनावपूर्ण स्थिति पैदा करने का इच्छुक नहीं था।
- भारत किसी भी गुट के विचारधारायी प्रभाव से ग्रस्त होना नहीं चाहता था। किसी भी गुट में शामिल होने पर भारत की शासनप्रणाली एवं नीतियों पर उस गुट विशेष के नेतृत्व का दृष्टिकोण हावी हो जाता।
- भारत की भौगोलिक सीमाएं साम्यवादी देशों से जुड़ीं थीं, अतः पश्चिमी देशों के गुट में शामिल होना अदूरदर्शी कदम होता। दूसरी ओर साम्यवादी गुट में शामिल होने पर भारत को विशाल पश्चिमी आर्थिक व तकनीकी सहायता से वंचित होना पड़ता।
- नवस्वतंत्र भारत को आर्थिक विकास हेतु दोनों गुटों से समग्र तकनीकी एवं आर्थिक सहायता की जरूरत थी, जिसे गुटनिरपेक्ष रहकर ही प्राप्त किया जा’ सकता था।
- गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत भारत की मिश्रित एवं सर्वमान्य संस्कृति के अनुरूप था।
- भारत के दक्षिणपंथी तथा वामपंथी दलों के विदेश-नीति से जुड़े आपसी मतभेदों को समाप्त करने का सर्वमान्य सूत्र, गुटनिरपेक्षता सिद्धांत को ही स्वीकार किया गया।
- गुटनिरपेक्षता स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान घोषित आदशों एवं मान्यताओं का पोषण करती थी। यह गांधीवादी विचारधारा के सर्वाधिक निकट थी।
इस प्रकार उपर्युक्त कारणों से भारत ने गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपने विश्व राजनीतिक व्यवहार का प्रमुख मापदंड बनाया।
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भारत की गुटनिरपेक्षता के प्रमुख लक्ष्य India’s Non-Alignment of The Principal Target
स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही भारतीय नेताओं पर कुछ मान्यताओं का स्पष्ट प्रभाव पड़ चुका था। ये मान्यताएं थीं- राजनीति एवं सत्ता का आदर्शवादी दृष्टिकोण, एशियावाद, पश्चिमी लोकतांत्रिक प्रणाली तथा साम्यवाद का सैद्धांतिक रूप से खंडन और अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों के आदर्शवादी दृष्टिकोण को मान्यता।
इन मान्यताओं के प्रत्यक्ष प्रभाव के आलोक में ही भारत की गुटनिरपेक्षता नीति के लक्ष्य निर्धारित किये गये। ये लक्ष्य इस प्रकार थे-
- अंतरराष्ट्रीय शांति व सुरक्षा को कायम रखना और उसका संवर्धन करना।
- उपनिवेशों के लोगों के आत्मनिर्णय अधिकार को बढ़ावा देना।
- समानता पर आधारित विश्व समुदाय की स्थापना तथा रंगभेद का विरोध।
- आणविक निरस्त्रीकरण तथा नवीन आर्थिक व्यवस्था की स्थापना।
- अफ्रीका और एशिया के देशों का समर्थन।
- अंतरराष्ट्रीय विवादों तथा संघर्षों के शांतिपूर्ण निपटारे का समर्थन।
- संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था के अंतर्गत ही उपर्युक्त लक्ष्यों की सिद्धि करना।
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गुटनिरपेक्षता का तात्पर्य Signification of Non-Alignment Movement
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व के नवस्वतंत्र देशों द्वारा अपनायी गयी गुटों से अलग रहने की नीति को 1940 व 50 के दशकों में विद्वानों द्वारा कई नाम दिये गये, जैसे- अप्रतिबद्धता, अहस्तक्षेप, तटस्थता, तटस्थतावाद, सकारात्मक तटस्थता, स्वतंत्र एवं सक्रीयनीति, शांतिपूर्ण सक्रीय सह-अस्तित्व इत्यादि।
जवाहरलाल नेहरू द्वारा मई 1950 में ही इस नीति को व्यक्त करने के लिए गुटनिरपेक्षता‘ शब्द का प्रयोग किया गया था। उसके बाद इस नाम का प्रयोग भारत एवं विदेश में व्यापक रूप से प्रचलित हो गया।
यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि गुटनिरपेक्ष देशों के प्रथम सम्मेलन (बेलग्रेड, 1 सितंबर 1961) में भी इन देशों की नीति को गुटनिरपेक्षता‘ शब्द द्वारा व्यक्त नहीं किया गया।
वास्तव में गुटनिरपेक्षता’ शब्द किसी बौद्धिक या शैक्षिक सिद्धांत पर कार्य है। गुटनिरपेक्षता की कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्न हैं-
- ‘फोंटाना डिक्शनरी ऑफ मॉडर्न थॉट’ के अनुसार “शीतयुद्ध की स्थिति में दो परस्पर विरोधी मुख्य शक्तिसमूहों में से किसी का भी पक्ष लेने से इनकार करना। तटस्थता की अपेक्षा गुटनिरपेक्षता कम अलगाववादी थी और ये द्विध्रुवीयता को खुले सैनिक संघर्ष में बदलने से रोकने हेतु किये जाने वाले सामूहिक हस्तक्षेप की धारणा से जुड़ी हुई थी।”
- जवाहरलाल नेहरू के अनुसार “गुटनिरपेक्षता का अर्थ है, सैनिक गुटों से अपने आपको अलग रखने का किसी देश द्वारा प्रयत्न करना। इसका अर्थ है- जहां तक हो सके, तथ्यों को सैन्य दृष्टि से न देखना। हालांकि कभी-कभी ऐसा करना पड़ता है परन्तु हमारा दृष्टिकोण स्वतंत्र होना चाहिए और वह अन्य देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बंधों की स्थापना में सहायक होना चाहिए।”
- ए.अप्पादोराई ने गुटनिरपेक्षता की सबसे उपयुक्त परिभाषा दी हे, उनके अनुसार “गुटनिरपेक्षता का अर्थ है- शांति कायम रखना; शांतिपूर्ण तरीकों जैसे वार्ता, जांच, मध्यस्थता, समझौता एवं न्यायनिर्णय की दिशा में प्रयत्न’, किसी भी पक्ष की आक्रमणकारी के रूप में भर्त्सना करने में तब तक संकोच करना, जब तक तथ्यों की अंतरराष्ट्रीय जांच द्वारा आक्रमण निर्विवाद रूप से सिद्ध न हो जाये; दोनों पक्षों की सदाशयता पर तब तक विश्वास रखना जब तक इसके विपरीत कोई बात सिद्ध न हो जाये तथा वार्ता की संभावना की पूरी खोज करना एवं कम से कम युद्ध को स्थान विशेष तक सीमित रखना- यही भारत का दृष्टिकोण है।”
गुटनिरपेक्षता की विशेषताएं The Characteristics of Non-Alignment Movement
गुटनिरपेक्षता की मुख्य विशेषताएं हैं-
- शीतयुद्ध का विरोध;
- सैन्य एवं सुरक्षा गठबंधनों का विरोध;
- शक्ति राजनीति से निर्लिप्तता;
- स्वतंत्र विदेश नीति का समर्थन;
- शांतिपूर्ण सहअस्तित्व तथा अहस्तक्षेप;
- अलगाववाद की बजाय क्रियाशीलता की नीति;
- कूटनीतिक साधन या वैधानिक स्थिति नहीं;
- गुटनिरपेक्ष देशों की गुटबंदी नहीं;
- विकास के लिए आपसी सहयोग की नीति;
- नवउपनिवेशवाद का विरोध।
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जवाहरलाल नेहरू काल में गुटनिपेक्षता की नीति, 1947-64 Jawaharlal Nehru During Non-Alignment Policy, 1947-64
प्रारंभिक वर्षों (1947-50) में भारत की गुटनिरपेक्षता नीति अस्पष्ट रही। इस समय में भारत का झुकाव पश्चिमी गुट की तरफ था। पश्चिमी शिक्षा प्रणाली का प्रभाव, ब्रिटिश बाजार की अर्थव्यवस्था को कायम रखने का निर्णय, देश की सेनाओं पर ब्रिटिश निरीक्षण तथा तकनीकी एवं आर्थिक सहायता की जरूरतों इत्यादि ने भारत की पश्चिमी देशों पर निर्भरता को बढ़ा दिया था। इसी निर्भरता के कारण भारत ने पश्चिमी जर्मनी को अपनी मान्यता प्रदान की लेकिन पूर्वी जर्मनी को नहीं। कोरिया युद्ध (1952-53) में भी भारत ने पश्चिमी देशों का समर्थन करते हुए उत्तर कोरिया को आक्रामक घोषित कर दिया।
1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद भारत के प्रति सोवियत दृष्टिकोण काफी उदार हो गया था जिसके फलस्वरूप भारत की सोवियत संघ से निकटता में वृद्धि होने लगी। 1954 की पाकिस्तान-अमरीका संधि के अनुसार अमरीका द्वारा पाकिस्तान को बड़े पैमाने पर हथियार उपलब्ध कराने तथा गोआ के प्रश्न पर पुर्तगाल का समर्थन करने के कारण भारत और अमरीका के सम्बंधों में कटुता पैदा में समर्थन किया जाने लगा था। भारतीय प्रधानमंत्री ने रूस की सद्भावना यात्रा भी की। रूस से व्यापार एवं आर्थिक सम्बंधों में वृद्धि होने लगी। रूस ने भारत के भिलाई इस्पात कारखाने हेतु आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान की। 1956 में स्वेज नहर मामले में भारत ने रूस का समर्थन करते हुए फ्रांस और ब्रिटेन द्वारा मिस्र पर आक्रमण करने की निंदा की। 1955 में हंगरी के मामले में भी भारत ने रूस का समर्थन किया। 1957 के बाद आर्थिक संकट, विदेशी मुद्रा की कमी तथा खाद्यान्न के अभाव जैसे मुद्दों ने भारत के दृष्टिकोण को पुनः पश्चिमी देशों की तरफ झुका दिया। नेहरू द्वारा अमेरिका की सद्भावना यात्रा की गयी तथा भारत ने पश्चिमी साम्राज्यवाद विरोध के अपने स्वर को धीमा कर लिया।
1962 में भारत पर चीन द्वारा आक्रमण कर दिया गया जिससे भारतीय गुटनिरपेक्षता नीति को कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ा। युद्ध में भारत को दोनों गुटों की सहायता प्राप्त हुई। वर्ष 1963 में भारत और अमरीका के मध्य अणुऊर्जा के असैनिक उपयोग के सम्बंध में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। नवंबर 1964 में मझगांव बंदरगाह के पुनर्निर्माण तथा लिएंडर वाढ के युद्धपोतों के निर्माण के विषय में भारत और ब्रिटेन के मध्य एक सुरक्षा संधि सम्पन्न की गई। जून 1964 में भारत के राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने अमरीका की यात्रा की तथा दोनों देशों के मध्य दक्षिण एशियाई क्षेत्र में चीनी आक्रामक गतिविधियों के निरोधक उपायों पर चर्चा की गई। मास्को के साथ बातचीत में भी भारत ने क्षेत्रीय विवादों के शांतिपूर्ण समाधान में अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।
इसके अतिरिक्त संपूर्ण नेहरू युग में निरस्त्रीकरण के प्रश्न, फारमूसा जलडमरूमध्य का संघर्ष (1955), हिंद-चीन से संबंधित जेनेवा सम्मेलन (1954), बांडुग सम्मेलन (1955) तथा बेलग्रेड सम्मेलन जैसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत द्वारा सक्रिय भूमिका निभाई गयी। अणुपरीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने का प्रश्न 1959 में भारत द्वारा सामान्य सभा की विषय सूची में रखा गया। अपनी नीतियों और प्रयासों के फलस्वरूप भारत को एशिया एवं अफ्रीका के नवोदित राष्ट्रों को महाशक्तियों की शक्ति राजनीति से अलग रखने में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। वर्ष 1950 में नेहरू द्वारा दावा किया गया कि “दिल्ली पिछले वर्षों में विश्व मैत्री और शांति का केंद्र बन गया है।”
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मूल्यांकन
भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति पूर्णतः नेहरू के दृष्टिकोण और अंतःप्रज्ञा पर आधारित थी। इसी कारण गुटनिरपेक्षता को सुसंगत एवं बोधगम्य नीति का रूप देने में कठिनाई पैदा हुई। नेहरू द्वारा गुटनिरपेक्षता को विदेशनीति का साधन तथा लक्ष्य-दोनों, एक साथ मान लेना एक गंभीर भूल थी। गुटनिरपेक्षता भारतीय विदेश नीति की आधारशिला है तथा उसका किसी भी परिस्थिति में परित्याग नहीं किया जा सकता, यह मान लेना आत्मघाती था। परिस्थितियों को ध्यान में रखकर गुटनिरपेक्षता के प्रति विभिन्न दृष्टिकोणों को अपनाया जाना अधिक युक्तिसंगत साबित हो सकता था। इसी प्रकार गुटनिरपेक्षता की नैतिकता से सम्बद्ध मानना असंगत था। वास्तव में गुटनिरपेक्षता सिद्धांत नैतिक दृष्टि से निष्क्रिय था। आवश्यकता पड़ने पर उसके स्वरूप में परिवर्तन किया जा सकता था और राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति के लिए उसका परित्याग भी किया जा सकता था। चीनी आक्रमण से पहले भारत द्वारा विदेशी सहायता अस्वीकार करने तथा बाद में उसे स्वीकार करने पर, भारत की गुटनिरपेक्षता सिद्धांत पर सदैव अटल रहने की घोषणा का उपह्रास हुआ।
नेहरू द्वारा विवादों के शांतिपूर्ण निपटारे पर जोर देना तथा आणविक शस्त्रो के निर्माण व परीक्षण की सदा के लिए निंदा करना भी दुर्भाग्यपूर्ण था। 1962 के भारत-चीन युद्ध में पराजित होने के बाद गुटनिरपेक्षता की नीति की कड़ी आलोचना की गई। आलोचकों का मानना था कि गुटनिरपेक्षता की नीति के तहत राष्ट्रीय हितों की घोर अपेक्षा की गयी तथा देश की प्रतिरक्षा हेतु आवश्यक तैयारियों के महत्व को नजरंदाज किया गया। भारत यदि पश्चिमी गुट में शामिल होता तो चीन भारत पर आक्रमण करने का साहस भी नहीं जुटा सकता था। भारत-चीन युद्ध के समय उन एशियाई-अफ्रीकी देशों द्वारा भी भारत की सहायता नहीं की गई, जिनके हितों की सुरक्षा के लिए भारत गुटनिरपेक्षता सिद्धांत के माध्यम से निरंतर प्रयत्नशील रहा था। पश्चिमी देशों से सहायता स्वीकार करना भी भारत की निर्गुट नीति का उल्लंघन माना गया और इसे ‘पथ विचलन’ या “भारत की सैद्धांतिक नारेबाजी का खोखलापन की संज्ञा दी गयी। इस प्रकार भारत की गुटनिरपेक्षता ने भारत के शत्रुओं और मित्रों-दोनों को ही भ्रमित किया। यह भारत के राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा करने में भी असफल सिद्ध हुई।
इन सब आलोचनाओं के बावजूद नेहरू काल में गुटनिरपेक्षता के सार व लक्ष्यों को सुरक्षित रखने में काफी सीमा तक सफलता प्राप्त हुई। गुटनिरपेक्ष नीति के अनुपालन द्वारा ही भारत को तृतीय विश्व के नेतृत्वकर्ता का प्रभावपूर्ण दर्जा हासिल हुआ जो आर्थिक एवं सैन्य रूप से कमजोर एक नवस्वतंत्र देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बात थी। निरस्त्रीकरण, गठबंधनहीनता, विकासशील देशों की आर्थिक जरूरतों को स्वीकार करने वाली विश्व प्रणाली की स्थापना तथा इन देशों में पूंजी तथा तकनीकी निवेश के प्रति भारतीय दृष्टिकोण को व्यापक रूप में स्वीकार किया गया। 1955 में ‘मेनचेस्टर गार्जियन’ ने भी लिखा था कि “जब तटस्थ भाव से समय का इतिह्रास लिखा जायेगा, तब कदाचित यह देखकर आश्चर्य होगा कि अंतिम विनाश, जिसका सभी को भय है, के निवारण में भारत ने अक्सर कितनी उपयोगी भूमिका निभाई है।”
भारत-चीन युद्ध में विदेशी सहायता के औचित्य को सिद्ध करते हुए नेहरू ने कहा था कि “चीन का मुकाबला करने के लिए भारत ने जो भी शस्त्रास्त्र सहायता ली है, उसके साथ किसी प्रकार की शर्त नहीं जुड़ी है और बिना शर्त सहायता लेना गुटनिरपेक्षता नीति से अलग हटना नहीं कहा जा सकता।”
भारत की गुटनिरपेक्षता नीति के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही उसे भारत-चीन युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ दोनों की सहायता प्राप्त हो सकी। भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता का परित्याग कर अमरीकी गुट में शामिल हो जाने पर भारत-चीन सीमा संघर्ष भी शीत युद्ध का एक अंग बन जाता। इसीलिए नेहरू ने स्पष्ट किया था कि भारत अपनी राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए विदेशी मदद लेने के बावजूद गुटनिरपेक्षता की नीति का त्याग नहीं करेगा। भारत ने चीन के साथ उन विषयों पर सहानुभूति दर्शायी जिनका सम्बंध सीमा विवादों से नहीं था। भारत की इस नीति की कोलम्बो सम्मेलन के देशों तथा अमरीका व अन्य देशों द्वारा भी सराहना की गई। भारत में वामपंथियों तथा स्वतंत्र पार्टी दोनों ने भारत की चीन सम्बन्धी नीति का विरोध किया, जो गुटनिरपेक्षता नीति की सफलता का द्योतक था। इस प्रकार नेहरू युग में भारत की गुटनिरपेक्षता नीति सफलता एवं असफलता के विभिन्न चरणों से होकर गुजरी।
गुटनिरपेक्ष देशों का प्रथम सम्मेलन Non Aligned Movement First Summit |
गुटनिरपेक्ष आंदोलन को सबसे पहले 1955 में बांडुंग (इंडोनेशिया) में सम्पन्न 29 अफ्रीकी-एशियाई देशों के सम्मेलन में स्पष्ट स्वरूप प्रदान किया गया। इस सम्मेलन में भारत के जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के गामेल अब्दुल नासिर तथा यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो द्वारा उपनिवेशवाद की समाप्ति हेतु गुटनिरपेक्ष देशों के संयुक्त प्रयासों की जरूरत पर बल दिया गया। जून 1961 में 21 देशों का तैयारी सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमें प्रथम सम्मेलन की अस्थायी विषय-सूची तथा सदस्यता आमंत्रण से जुड़े कुछ मानदंड तय किये गये।सितंबर 1961 में गुटनिरपेक्ष देशों के प्रथम सम्मेलन का आयोजन बेलग्रेड (यूगोस्लाविया) में किया गया। इस सम्मेलन में 25 अफ्रीकी-एशियाई देशों तथा एक यूरोपीय देश ने भी भाग लिया। तीन लैटिन अमरीका के देशों ने पर्यवेक्षकों के रूप में भागीदारी की। इस सम्मेलन में एक 27 सूत्रीय घोषणापत्र को स्वीकार किया गया।सम्मेलन में विश्व के सभी भागों में हर प्रकार की उपनिवेशवादी, साम्राज्यवादी, नवउपनिवेशवादी तथा नस्लवादी प्रवृत्तियों की बड़ी निंदा की गई। इसमें अल्जीरिया, अंगोला, कांगो, ट्यूनीशिया आदि देशों में चल रहे स्वतंत्रता संघर्षों का पुरजोर समर्थन किया गया। सम्मेलन में विकासशील देशों के व्यापार विकास हेतु उचित दशाओं की जरूरत पर बल दिया गया। सम्मेलन द्वारा संपूर्ण निरस्त्रीकरण की अपील भी जारी की गयी। निष्कर्ष रूप में गुटनिरपेक्ष देशों ने सभी अल्पविकसित एवं विकासशील देशों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास का अह्वान किया।इस प्रकार प्रथम सम्मेलन के घोषणापत्र ने नवस्वतंत्र राष्ट्रों के मध्य गुटनिरपेक्षता की अवधारणा को व्यापक लोकप्रिय बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप दूसरे गुटनिरपेक्ष सम्मेलन (1964, काहिरा) में सदस्यों की संख्या बढ़कर 47 (11 पर्यवेक्षकों के अलावा) हो गयी। |