मानव शरीर की प्रमुख आनुवंशिक बीमारियाँ Important Genetic Diseases of Human Body

मानव शरीर में कई तरह के  आनुवांशिक विकार पाए जाते है, इनमे से कई काफी घातक होते हैं। ये विकार प्रमुखतः उत्परिवर्तन (mutation) द्वारा बने दोषपूर्ण जीन (gene)  से होते हैं। ज्यादातर आनुवांशिक बीमारियाँ लाइलाज होती हैं, परन्तु कुछ का इलाज संभव है। ये बीमारियाँ आज भी शोधकर्ताओं के लिए चुनौती बनी हुई हैं।

मानव शरीर में पाई जाने वाली प्रमुख अनुवांशिक बीमारियाँ इस प्रकार हैं-

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बालास्थिक्षय या भ्रूणास्थिशोथ Achondroplasia

अकान्ड्रॉप्लासिया या कम-अंग बौनापन  का सबसे आम रूप है इसमें वयस्क असामान्य रूप से छोटे कद के रह जाते हैं। यह गुणसूत्र (chromosome) 4 पर उपस्थित एक जीन में उत्परिवर्तन (Mutation) के कारण होता है जो उपास्थि (cartilage) को हड्डी में रूपांतरण को नियंत्रित करता है। यह अकेला जीन है जो अकान्ड्रॉप्लासिया के साथ जुड़े होने के लिए जाना जाता है। अकान्ड्रॉप्लासिया मूल रूप से हड्डी के विकास का एक विकार है। हर 15,000 से 40,000 जीवित जन्मों में से एक में अकान्ड्रॉप्लासिया पाया जाता है। अकान्ड्रॉप्लासिया से पीड़ित 20% बच्चों में यह उन्हें उनके माता-पिता से मिलता है, जबकि 75-80 प्रतिशत मामलों में यह जन्म के बाद जीन उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह विकार सभी लिंगों और जातियों दोनों को समान रूप से प्रभावित करता है।

जन्म से पहले अल्ट्रासाउंड द्वारा और जन्म के बाद एक्स-रे द्वारा शरीर की लम्बी और सिर की हड्डियों के नाप द्वारा इसका पता लगाया जा सकता है।

अकान्ड्रॉप्लासिया से पीड़ित 3 प्रतिशत बच्चे जीवन के पहले वर्ष के दौरान आमतौर पर रीढ़ की हड्डी के संपीड़न से अचानक और अप्रत्याशित रूप से मर जाते हैं। अकान्ड्रॉप्लासिया को को रोकने के लिए अभी तक कोई ज्ञात रास्ता नहीं है, क्योंकि इसके लिए जीन उत्परिवर्तन जिम्मेदार है।



सीलिएक रोग Celiac disease

सीलिएक रोग परिवारों में पाया जाने वाला एक पाचन विकार है जिसमे खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों की पाचन और अवशोषण के साथ के साथ समस्या पैदा हो जाती है। इस रोग में शरीर गेहूं, जौ, राई और अन्य कुछ अनाजों में पाये जाने वाले  ग्लूटेन (gluten) प्रोटीन से एक प्रतिरक्षात्मक प्रतिक्रिया करने लगता है।

सीलिएक रोग से ग्रसित व्यक्ति जब ग्लूटेन युक्त भोजन करता है तो उसकी आंत की दीवारे प्रतिरक्षात्मक प्रतिक्रिया (immune    Reaction) करती है और उनमे सुजन आ जाती है। धीरे-धीरे आँतों के विलाई (villi-आँतों में पाए जाने वाले ऊँगली की तरह के उभार जिससे आँतों का अवशोषण क्षेत्र बढ़ जाता है) गिरने लगते हैं और आँतों का सतह क्षेत्र और अवशोषण की क्षमता कम होने लगती है।

समय के साथ रोगी में कुछ लक्षण उसके पाचन तंत्र में या शरीर में कहीं पर भी विकसित हो सकतें है, या कभी-कभी कोई भी लक्षण तब तक नहीं पता चलते है जब तक शरीर भोजन से पोषक तत्वों को अवशोषित करने में असमर्थ नहीं हो जाता है और एनीमिया, ऑस्टियोपोरोसिस, या कुपोषण जैसी स्थितियां पैदा हो जाती है।

इस रोग का आसानी से पता नहीं चलता है, क्योंकि इस रोग के लक्षण अकसर पेट के दुसरे रोगों से मिलते है और इसके लक्षण एक रोगी से दुसरे रोगी में अलग-अलग ही सकते हैं।

सीलिएक रोग परिवारों में पाया जाता है, किसी पीड़ित व्यक्ति के प्राथमिक रिश्तेदार (माता पिता, बच्चे, या भाई) में इस बीमारी के पाए जाने की सम्भावना 10% होती है। यह रोग यूरोप में मुख्यतः इटली और आयरलैंड में सामान्य रूप से पाया जाता है जहाँ इसकी सम्भावना 250 से 300 व्यक्तियों में 1 की होती है। यह पुरुषों की तुलना में महिलाओं में से थोड़ा अधिक पाया जाता है। डाउन सिंड्रोम या टाइप 1 मधुमेह से पीड़ित लोगों में सीलिएक रोग विकसित होने का खतरा ज्यादा होता है। इस रोग की शुरुआत कैसी होती है यह वास्तव में अभी तक ज्ञात नहीं है, सीलिएक रोग किसी भी उम्र में हो सकता है। वयस्कों में सीलिएक रोग अक्सर किसी तरह के एक आघात जैसे, किसी तरह के संक्रमण, शारीरिक चोट, गर्भावस्था में तनाव या सर्जरी के बाद दिखाई देता है।

सीलिएक रोग का कोई इलाज नहीं है। यह लस और ग्लूटेन युक्त उत्पादों की पूरी तरह से मुक्त आहार खाने से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।


संयुक्त जुड़वाँ Conjoined twins

संयुक्त जुड़वाँ, जुड़वाँ बच्चे ही होते है जिसमे दो भ्रूण विकास के बारहवें दिन बाद जन्म से पहले पूरी तरह से अलग होने में असफल हो जाते हैं। अगर एक निषेचित मानव अंडे, बारहवें दिन पहले दो भ्रूण में विभाजित हो जाते हैं तो दो अलग जुड़वां शिशुओं के रूप में सामान्य रूप से पैदा हो जाएगा। इस विभाजन में देर होने से ही संयुक्त जुड़वाँ बच्चों का जन्म होता है।

अपने जुड़े होने के आधार पर यह कई प्रकार के हो सकते है

थोरैकोपेगस Thoracopagus – संयुक्त जुड़वां बच्चों में से 40 प्रतिशत छाती से जुड़े होते है, इन जुड़वां बच्चों में हमेशा एक ह्रदय होता है।

ओमफैलोपेगस Omphalopagus – इस प्रकार में पेट से जुड़े जुड़वा बच्चों आते हैं, 34 प्रतिशत संयुक्त जुड़वां इस प्रकार के होते हैं, इनमे जिगर और पाचन तंत्र जुड़े होते हैं।

पायगोपेगस Pygopagus – 18 प्रतिशत संयुक्त जुड़वाँ इस प्रकार के होते है। ये नितंबों से आपस में जुड़े होतें है। इनमें पाचन तंत्र के निचले भाग या जननांग आपस में जुड़े होते हैं।

इस्चियोपेगस Ischiopagus – इस प्रकार के बच्चे श्रोणि (Pelvis) या रीढ़ के निचले हिस्से से जुड़े होते हैं। इनमें अधिकतर शरीर का निचला हिस्सा जुड़ा होता है। इनके 4 हाथ होते है पर पैर दो या चार हो सकते हैं। इनकी संख्या 6 प्रतिशत हो सकती है।

क्रैनिओपेगस Craniopagus – 2% संयुक्त जुड़वाँ इस प्रकार के होतें हैं। इए सिर से आपस में जुड़े होते हैं और इनका मस्तिष्क एक होता है।

परजीवी जुड़वां Parasitic twins – इस प्रकार में एक जुड़वां अन्य की तुलना में काफी छोटा होता है और अपने अस्तित्व के लिए बड़े पर निर्भर रहता है। लगभग 10% सयुंक्त जुड़वां इस प्रकार के होते हैं।

संयुक्त जुड़वाँ हर 33,000-165,000 जन्मों में एक बार होते हैं। नर संयुक्त जुड़वाँ में मृत प्रसव होने की संभावना ज्यादा होती है। महिला सयुंक्त जुड़वां में तीन गुना अधिक जीवित पैदा होने की संभावना होती है

संयुक्त जुड़वां बच्चे यूरोप या उत्तरी अमेरिका की अपेक्षा भारत और अफ्रीका में ज्यादा पाए जाते है। अभी तक उस जीन की पहचान नहीं हो सकी है जी सयुंक्त जुड़वां बच्चों के लिए जिम्मेदार होता है।

सयुंक्त जुड़वां बच्चों का गर्भावस्था के आठवें सप्ताह के बाद अल्ट्रासाउंड, एमआरआई (MRI), सी.टी.स्कैन अदि से पता लग सकता है। संयुक्त जुड़वां बच्चों में हमेशा जटिल सर्जरी की आवश्यकता होती है।


सिस्टिक फाइब्रोसिस Cystic fibrosis

सिस्टिक फाइब्रोसिस एक घटक अनुवांशिक रोग है जो एक जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है, जिसके कारण फेफड़ों और अग्न्याशय में मोटा, चिपचिपा बलगम (mucus) बनने लगता है। इस बलगम के कारण साँस लेने में मुश्किल आती है और यह रोकता अग्न्याशय से पाचन एंजाइमों के प्रवाह को अवरुद्ध करके पोषण को रोकता है।

सिस्टिक फाइब्रोसिस में जो जीन जिम्मेदार होता है, उसके कारण शरीर में क्लोराइड का स्तर कम हो जाता है। क्लोराइड शरीर में पसीना, पाचक रस और सामान्य म्यूकस के उत्पादन के लिए जिम्मेदार होता है। क्लोराइड शरीर की कोशिकाओं में जल के अंदर और बाहर के प्रवाह को नियंत्रित करता है, जिससे सामान्य म्यूकस बनता है और शरीर में नमक की सामान्य मात्रा बनाये रखता है। जब शरीर में सामान्य क्लोराइड नहीं होता है तो म्यूकस पैदा करने वाले ऊतक (Tissue) मोटा और चिपचिपा म्यूकस पैदा करते हैं। यह फेफड़े, अग्न्याशय, पसीने की ग्रंथियों, और पाचन तंत्र के समुचित कार्य में अवरोध पैदा करता है। मोटा और चिपचिपा म्यूकस फेफड़ों में बैक्टीरिया और कवक, के लिए एक प्रजनन भूमि प्रदान करता है जो फेफड़ों में सूजन और ऊतकों के क्रमिक विनाश का कारण बनते है। पाचन तंत्र में म्यूकस उन नलिकाओं को अवरुद्ध कर देता है जी अग्न्याशय से पाचक एंजाइम लाते हैं, जिसके कारण पाचन क्रिया कमजोर हो जाती है और शरीर पोषक पदार्थों का अवशोषण नहीं कर पाता है।

सिस्टिक फाइब्रोसिस गुणसूत्र 7 पर स्थित CFTR जीन में एक उत्परिवर्तन के कारण होता है। इस जीन की सर्वप्रथम पहचान 1989 में की गयी थी। सिस्टिक फाइब्रोसिस होने के लिए माता और पिता दोनों में दोषपूर्ण जीन होना चाहिए। यदि माता पिता में से किसी एक में सामान्य CFTR जीन है तो  बच्चा एक वाहक हो सकता है और उसमे रोग के लिए लेकिन कोई लक्षण नहीं होगा। CFTR जीन में 900अलग-अलग तरह के म्यूटेशन पाए जाते है। यदि CFTR जीन के दो वाहक शादी करते हैं, तो उनके बच्चों में सिस्टिक फाइब्रोसिस की 25% सम्भावना होगी, 50% सम्भावना उनके वाहक (carrier) होने की होगी।

सिस्टिक फाइब्रोसिस का पता गर्भावस्था के 11वें हफ्ते में प्लेसेंटा के उतकों की जाँच द्वारा पता चल सकता है। गर्भावस्था के 16वें हफ्ते के बाद इसक पता अम्निओसेन्टिस (amniocentesis) द्वारा इसका पता चल सकता है। आधुनिक तकनीकों द्वारा CTFR जीन की पहचान की जा सकती है।

सिस्टिक फाइब्रोसिस का कोई इलाज नहीं है, इसके उपचार के दौरान रोगी के म्यूकस स्राव को पतला रखने, श्वास नलिकाओं को साफ रखने, पर्याप्त पोषण बनाए रखने और संक्रमण से बचने की कोशिश की जाती है।

सिस्टिक फाइब्रोसिस पहला ऐसा रोग था जिसे शोधकर्ताओं ने 1993 में जीन थेरेपी द्वारा इलाज करने का प्रयास किया था। इसमें एक नयी तकनीक का उपयोग करके शरीर के ऊतकों में दोषपूर्ण जीन की जगह सामान्य जीन के साथ प्रतिस्थापित करना था। यह प्रयास सफल नहीं रहा , परंतु शोधकर्ताओं द्वारा इसका प्रयास जारी है।

टे-सैक्स रोग Tay-Sachs Disease (TSD) यह भी एक घातक रोग है, जिसमे गुणसूत्र 15 पर उपस्थित HEXA जीन में जेनेटिक म्यूटेशन हो जाता है। HEXA जीन एक एंजाइम के उत्पादन के लिए जिम्मेदार होता है जो दिमाग की तंत्रिका कोशिकाओं में एक वसा युक पदार्थ GM2 गंग्लियोसाइड (GM2 ganglioside) बनने से रोकता है। इस एंजाइम के बिना दिमाग की तंत्रिका कोशिकाएं मरने लगती है। इस रोग से ग्रसित बच्चे 5 वर्ष से ज्यादा जीवित नहीं रह सकते है, सिस्टिक फाइब्रोसिस की तरह इसका भी कोई इलाज नहीं है।


डाउन सिंड्रोम Down syndrome

डाउन सिंड्रोम या त्रिगुणसूत्रता 21 (trisomy 21), गुणसूत्र 21 (chromosome 21) की एक अतिरिक्त प्रति के उपस्थित होने के कारण या इस रोग से प्रभावित बच्चे के माता –पिता में गुणसूत्र 21 के एक हिस्से के दुसरे जगह स्थानांतरित होने से हो सकता है। डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों में मानसिक मंदता (औसत IQ 35-70) के साथ ही चेहरे की विशेषतायें जैसे कि औसत से छोटा चेहरा, उर्ध्व-झुकी आँखें  और एक चपटी नाक पाई जाती है। डाउन सिंड्रोम में कमजोर मांसपेशियां (hypotonia) पाई जाती हैं। डाउन सिंड्रोम के साथ बच्चे को अक्सर गंभीर हृदय दोष और छोटी आंत की रुकावटों के साथ पैदा होते हैं। जन्म के बाद इन्हें शीघ्र ही सर्जरी की आवश्यकता हो सकती है। इन बच्चों में बचपन से ही ल्यूकेमिया का खतरा ज्यादा होता है।

हर जीवित 800 जन्मों में से एक को डाउन सिंड्रोम का खतरा होता है।

हालाँकि त्रिगुणसूत्रता 21 से ग्रसित एक चौथाई बच्चों में इसका खतरा होता है। डाउन सिंड्रोम से ग्रसित 75% मामलों में ग्राभ्पट हो जाता है। डाउन सिंड्रोम जातियों में समान आवृत्ति के साथ पाया जाता है। लड़कियों की तुलना में लड़कों में इससे प्रभावित होने की थोड़ा अधिक संभावना होती है।

डाउन सिंड्रोम  जनन कोशिकाओं  के निर्माण के दौरान आनुवंशिक त्रुटियों या अंडे के शुक्राणु से निषेचित होने के बाद कोशिका विभाजन के दौरान के दौरा हो सकता है। डाउन सिंड्रोम के सबसे आम रूप यानि 95% मामलों में यह तब होता है जब एक अंडा या शुक्राणु गर्भाधान में शामिल गुणसूत्र 21 की दो प्रतियां ले जाने के लिए जिम्मेदार होता है।

डाउन सिंड्रोम की पहचान बच्चों के जन्म के बाद उनके शारीरिक लक्षणों के देखकर की जा सकती है । इसे  कैरिओटाइप रक्त परीक्षण ((एक व्यक्ति के गुणसूत्रों का विशेष विश्लेषण) द्वारा भी इसका पता लगाया जा सकता है। कोरियोनिक विलस नमूना (chorionic villus sampling -CVS) से 98% तक सही परिक्षण किया जा सकता है जो की गर्भावस्था के नौवें से चौदहवें सप्ताह में किया जाता है।

इसका कोई विशेष इलाज नहीं है, जन्म के तुरंत बाद ही बच्चों को सर्जरी की आवश्यकता पद सकती है। बड़े बच्चों लगातार मोतियाबिंद, सुनने में हानि  और थायराइड की समस्याओं के लिए जाँच आवश्यकता पड़ती है।

डाउन सिंड्रोम के साथ लोगों जीवन प्रत्याशा बहुत कम होती है, इन्हें जल्दी अल्जाइमर रोग का खतरा, चालीस वर्ष की उम्र में  मानसिक रोगों का खतरा बढ़ जाता है। इस रोग से ग्रसित 85% बच्चों की 1 वर्ष के भीतर ही मौत हो जाती है, कुछ ही 50 की उम्र पार कर पाते हैं।

इस सिंड्रोम के साथ कई वयस्कों ने नौकरियां भी की और जीने के लिए स्वतंत्र रूप से भी रहे। इनमे से कुछ  सफल कलाकार, अभिनेता या गायक भी बन पाए।


एडवर्ड्स सिंड्रोम Edwards syndrome

एडवर्ड्स सिंड्रोम, गुणसूत्र 18 की एक अतिरिक्त प्रतिलिपि (copy) गोने से या गुणसूत्र 18 के एक भाग का किसी दुसरे गुणसूत्र पर स्थानांतरित होने के कारण हो सकता है। त्रिगुणसूत्रता (trisomy) के कारण होने वाला यह दूसरा सबसे आम आनुवंशिक विकार है। एडवर्ड्स सिंड्रोम की सबसे पहले एक ब्रिटिश आनुवंशिकीविद् (geneticist ) जॉन एच एडवर्ड्स (John H. Edwards) द्वारा 1960 में पहचान की गयी थी, जिन्होंने इस सिंड्रोम से ग्रसित बच्चे के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया।

एडवर्ड्स सिंड्रोम से ग्रसित बच्चों की पहचान जन्म के समय कम वजन है; छोटे और असामान्य आकार का सिर; छोटे जबड़े

और मुंह; बंधी हुई मुट्ठी अदि द्वारा इनकी पहचान की जाती है।इं बच्चों में मानसिक मंदता, हृदय दोष, गुर्दा रोग, और अन्य अंगों और शरीर की प्रणालियों में असमान्यतायें पायी जाती हैं। एडवर्ड्स सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे जन्म के कुछ दिनों के भीतर ही मर जाते हैं।

हर 6000 से 8000 जीवित जन्मों में एक में एडवर्ड्स सिंड्रोम की संभावना रहती है। एडवर्ड्स सिंड्रोम से पीड़ित 95% बच्चों की जन्म से पहले ही मृत्यु हो जाती है। 5-10 प्रतिशत बच्चे एक वर्ष तक जीवित रह सकते हैं।

एडवर्ड्स सिंड्रोम से पीड़ित 80% बच्चे, महिला होते हैं। एक अनुमान के अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पुरुष बच्चों में जन्म से पहले ही इनके मरने की संभावना ज्यादा होती है। एडवर्ड्स सिंड्रोम सभी जातियों और जातीय समूहों में समान रूप से पाया जाता है।

एडवर्ड्स सिंड्रोम भी उन्हीं कारणों से होता है जिस कारण डाउन सिंड्रोम, इसमें सिर्फ फर्क यह है की इसमें गुणसूत्र 18 में विकार पाया जाता है, जो की जनन कोशिकाओं के बनने के समय ही हो जाता है।।

डाउन सिंड्रोम की ही तरह एडवर्ड्स सिंड्रोम का भी कोई इलाज नहीं है।


नाजुक एक्स Fragile X

नाजुक एक्स सिंड्रोम या फ्रैगाइल एक्स सिंड्रोम एक आनुवंशिक विकार है जो X गुणसूत्र पर उपस्थित FMR1 जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह जीन एक प्रोटीन, कमजोर एक्स मानसिक मंदता-1 (fragile X mental retardation 1 protein ) बनाता है। जिसका कार्य पूरी तरह से ज्ञात नहीं है लेकिनयह सिनैप्सिस (synapses) के विकास से संबंधित माना जाता है, जोतंत्रिका कोशिकाओं के बीच विशेष प्रकार के जंक्शन होते हैं। इस जीन में उत्परिवर्तन के कारण इस प्रोटीन का उत्पादन रुक जाता है, जिसके कारण इससे प्रभावित बच्चों बच्चों में मानसिक मंदता और विकास की अन्य समस्यायें पाई जाती है। इसे नाजुक एक्स सिंड्रोम इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस गुणसूत्र को माइक्रोस्कोप से देखने पर यह असामान्य रूप से पतला या कमजोर दिखयी देता है।

इस विकार की सबसे पहले 1943 में मार्टिन और बेल (Martin and Bell ) मनोचिकित्सकों ने की थी, जिन्होंने सबसे पहले यह भी बताया की यह सिंड्रोम X गुणसूत्र से जुदा होता है। हालाँकि इसके लिए जिम्मेदार जीन की खोज 1991 में हो सकी।

इस जीन के म्यूटेशन से जीन के उस भाग का विस्टा हो जाता है जहाँ सामान्य रूप से 6 से 55 तक ट्राईन्युक्लियोटाइड (न्युक्लियोटाइड nucleotide, DNA को बनाने वाला एक पदार्थ है) पाए जाते हैं। कुछ व्यक्तिओं में इनकी संख्या 200 तक हो सकती है, परंतु यर इस सिंड्रोम से प्रभावित नहीं होते है बल्कि इसके वाहक (carrier) होते हैं, जो अपने बच्चों में इसे पहुंचाते हैं। जब इनकी संख्या 230 से ज्यादा हो जाती है तो यह जीन उस प्रोटीन का निर्माण बंद कर देता है।

फ्रैगाइल एक्स सिंड्रोम पुरुषों में महिलाओं के अपेक्षा ज्यादा पाया जाता है। नाज़ुक एक्स सिंड्रोम सभी जातियों और जातीय समूहों में समान रूप से पाया जाता है।

नाजुक एक्स सिंड्रोम के लिए कोई इलाज नहीं है। इसके इलाज के लिए  आमतौर पर कई तरह के दृष्टिकोण के संयोजन किया जाता है, जिसमे संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी, विशेष शिक्षा कार्यक्रम, भाषण और भाषा चिकित्सा, चिंता और अवसाद के लिए दवायें, और शारीरिक असामान्यताएं के उपचार की जरूरत होती है।

नाजुक एक्स सिंड्रोम एक दुर्लभ नहीं है और इससे प्रभावित बच्चों के लिए विशेष शिक्षा के दृष्टिकोण का परीक्षण और विकास किया गया है। नाजुक एक्स सिंड्रोम से प्रभावित लोगों की सामान्य जीवन प्रत्याशा होती है।

नाजुक एक्स सिंड्रोम के आनुवंशिक उत्परिवर्तन, जो इसका कारण बनता है, को रोकने के लिए कोई रास्ता नहीं है।


हाशिमोटो रोग Hashimoto disease

हाशिमोटो रोग एक स्वत प्रतिरक्षा विकार है जिसमें शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली, थायराइड ग्रंथि की कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला करके उसे नष्ट करने लगती हैं। जिससे इस ग्रंथि में सूजन आ सकती है जिसे घेंघा (goiter) कहते हैं, या या ग्रंथि सामान्य आकार में भी रह सकती है। जिसके कारण थायराइड ग्रंथि (thyroid gland), थायराइड हार्मोन का उत्पादन बंद कर देती है। थायराइड हार्मोन (thyroid hormone) शारीर में उपापचय (metabolism) की प्रक्रिया को विनियमित करता है। इस स्थिति को हाइपोथायरायडिज्म (hypothyroidism) के रूप में में जाना जाता है।

हाशिमोटो रोग से सबसे अधिक प्रभावित आयु समूह, तीस और पचास के बीच मध्यम आयु वर्ग के वयस्क होते है। यह रोग पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक पाया जाता है, हर 1000 महिलाओं में लगभग 14 और हर 2000 पुरुषों में एक में पाया जाता है। इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं है। यह सभी जातियों और जातीय समूहों में सामान रूप से पाया जाता है।

हालाँकि शोधकर्ता यह जानते है की यह एक स्वतः प्रतिरक्षा (autoimmune) विकार है, परन्तु इसके लिए जिम्मेदार जीन का अभी तक निश्चित रूप से निर्धारण नहीं हो सका है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार इसके लिए HLA-DR5 जीन जिम्मेदार है, परन्तु कुछ अलग जातियों में अलग-अलग जीन इसके लिए जिम्मेदार पाए गए है। यह रोग भी परिवारों में पाया जाता है।

इस रोग से प्रभावित व्यक्तियों में सूखी और खुजली वाली त्वचा, थकान, बालों का गिरना अदि लक्षण पाए जाते है। इस रोग का पता लगने में महीनो या सालों लग सकते हैं।

जापान के हराकू हाशिमोटो (Haraku Hashimoto) ने सन 1912 में जर्मनी में अपने अध्ययन के दौरान इस बीमारी का पता लगाया था।

इस बीमारी का पता थायराइड-स्टिमुलेटिंग हार्मोन (thyroid-stimulating hormone, or TSH) के परिक्षण से लग सकता है। थायराइड-स्टिमुलेटिंग हार्मोन मष्तिष्क में उपस्थित पियूष ग्रंथि (pituitary gland) द्वारा स्रावित होता है। जब थायराइड ग्रंथि, थायराइड हारमोन का उत्पादन बंद कर देती है तब शरीर में थायराइड-स्टिमुलेटिंग हार्मोन (thyroid-stimulating hormone, or TSH) की अत्यधिक मात्रा पाई जाती है। जिससे यह पता च जाता है कि थायराइड ग्रंथि अब क्रियाशील नहीं है। चूँकि यह एक स्वतः प्रतिरक्षा (autoimmune) विकार है, इसलिए शारीर में कई तरह के एंटीबाडी भी बन जाते हैं।

इस रोग के उपचार के लिए रोगी को एक कृत्रिम थायराइड हार्मोन के रूप लिवोथायराक्सिन (levothyroxine) की रोजाना खुराक लेनी पड़ सकती है।

इस रोग का पूर्ण निदान संभव है, और मरीज आम तौर पर एक सामान्य जीवन प्रत्याशा के साथ, सामान्य जीवन जी सकता है। हाशिमोटो रोग को रोकने के लिए कोई ज्ञात रास्ता नहीं है,क्योंकि अभी तक पूरी तरह से इसके कारणों का पता नहीं चल पाया है।


अधिरक्तस्त्राव Hemophilia

हीमोफीलिया एक आनुवांशिक विकार है जिसमे इससे प्रभावित व्यक्ति का रक्त अपनी थक्का (blood clot) ज़माने की क्षमता खो देता है। इसे ब्लीडर रोग, शाही रोग, क्रिसमस रोग (Bleeder’s disease, royal disease, Christmas disease) भी कहा जाता है। हीमोफिलिया की गंभीरता हर व्यक्ति में बदलती रहती है। इससे प्रभावित व्यक्ति को आसानी से लगी खरोंच से भी असामान्य रूप से लंबी अवधि तक खून बहता रहता है।

हीमोफिलिया के दो मुख्य प्रकार होते हैं – हीमोफिलिया A, और हीमोफिलिया B ।

हीमोफिलिया A  को क्लासिक हीमोफिलिया (classic hemophilia) भी कहा जाता है। 80% हीमोफिलिया से प्रभावित व्यक्ति इसी प्रकार के हीमोफिलिया A से ही ग्रसित होते हैं।

हीमोफिलिया B या  क्रिसमस रोग (Christmas disease) प्रभावित व्यक्तियों में से 20 प्रतिशत में इस प्रकार का हीमोफिलिया पाया जाता है।

दोनों प्रकार के हीमोफिलिया जीन म्यूटेशन के वजह से होते है, हीमोफिलिया ए की वजह से हैं F8 जीन में उत्परिवर्तन द्वारा और हीमोफिलिया बी F9 जीन के उत्परिवर्तन द्वारा होता है। ये दोनों ही जीन X गुणसूत्र पर पाए जाते हैं। चूँकि दोनों जीन ही X गुणसूत्र पर पाए जाते है इसलिए महिलाये इस रोग की वाहक होती हैं और पुरुष ही इस रोग से प्रभावित होते है।

हीमोफिलिया का एक बहुत ही दुर्लभ प्रकार भी पाया जाता है जिसे अधिग्रहीत हीमोफिलिया (acquired hemophilia) भी कहते हैं। यह हीमोफिलिया आनुवांशिक नहीं होता है बल्कि यह शारीर में बाद में हुए म्यूटेशन के कारण होता है। इस प्रकार में शरीर एक स्व-प्रतिरक्षा तंत्र विकसित करके अपने ही रक्त का थक्का ज़माने वाले कारक – 8 (blood coagulation factor VIII) को ख़त्म करने लगता है, यह कारक सामान्य रूप से रक्त का थक्का ज़माने में मदद करता है।

हीमोफिलिया एक ऐसी बीमारी है जिसके बारे में हम शताब्दियों से जानते हैं, पर सर्वप्रथम 1803 में फिलाडेल्फिया के एक डॉक्टर   डा. जॉन ओटो,  ने सर्वप्रथम यह पता लगाया की यह बीमारी भी परिवारों में पाई जाती है परन्तु इनमे यह महिलाओं में नहीं होती है और इससे सिर्फ पुरुष ही प्रभावित रहतें है।

हीमोफीलिया शाही रोग के रूप में तब जाना गया जब उन्नीसवीं सदी में महारानी विक्टोरिया (1819-1901) के सबसे छोटे बेटे युवा लियोपोल्ड की मस्तिष्क हेमोरेज (brain hemorrhages ) से मृत्यु हो गयी । विक्टोरिया की दो बेटियां दोषपूर्ण F8 जीन की वाहक थीं जिन्होंने इस रोग को स्पेन, रूस और जर्मनी के शाही घरों में भी पहुँच दिया।

इस रोग के कारणों का सबसे पहले अर्जेंटीना के एक डाक्टर ने 1944 में हीमोफीलिया के अलग-अलग प्रकारों का पता लगाया जो की अलग-अलग रक्त का थक्का ज़माने वाले कारकों की कमी के कारण होता था। 1965 में फ्रीज़-ड्राइंग तकनीकी (freeze-drying process) की खोज हुई, जिसमे रक्त के प्रोटीन को रक्त के तरल भाग प्लाज्मा से अलग किया जा सकता था। इस तकनीकी ने रोगियों के बार-बार रक्त बदलने जी जरूरत को कम कर दिया, जिससे इसके रोगियों को काफी रहत मिली।

हीमोफिलिया A ज्यादा पाया जने वाला प्रकार है जो की 4000 पुरुषों में से एक में पाया जाता है।

हीमोफिलिया B 20000 पुरुषों में से एक में पाया जाता है।

महिलाओ में यह सामान्यतया नहीं पाया जाता है, परन्तु जो महिलाएं जो इसके F8 या F9 जीन की वाहक होती हैं, उनमे से 10% में मासिक-स्राव (menstrual periods) में ज्यादा रक्त स्राव की समस्याएं पाई जाती हैं।

हीमोफिलिया ए दोनों और हीमोफिलिया बी दुनिया भर में सभी नस्लीय और जातीय समूहों में समान रूप से पाए जाते हैं।

हीमोफिलिया के लिए कोई इलाज नहीं है। इसमें रक्त स्राव को नियंत्रित करके इसके खतरों को कम किया जा सकता है।

उन रोगियों में जिनमे इसका प्रभाव का पाया जाता है, उन्हें एक हारमोन डेस्मोप्रेसिन या DDAVP (desmopressin or DDAVP)का इंजेक्शन दिया जाता है, जो रोगी के शारीर में रक्त का थक्का ज़माने वाले कारकों के उत्पादन को बढ़ा देता है।

इस रोग में अब आधुनिक तकनीक या अनुवांशिक इंजीनियरिंग (genetically engineered) द्वारा तैयार किये गए रक्त का थक्का ज़माने वाले कारकों को भी अलग से दिया जाता है। आज हीमोफिलिया का उचित इलाज उपलब्ध होने से इसके रोगियों की जीवन प्रत्याशा बढ़ गयी है।

हीमोफिलिया को रोका नहीं जा सकता है, क्योंकि या म्यूटेशन द्वारा लगातार होता रहता है। हीमोफिलिया को जीन थेरेपी द्वारा ठीक करने के भी प्रयास भी चल रहे है और इसमें कुछ हद तक वैज्ञानिकों की सफलता भी मिली है।


हटिंगटन रोग Huntington disease

हटिंगटन रोग भी एक लाइलाज आनुवांशिक रोग है, को गुणसूत्र 4 पर उपस्थित दोषपूर्ण जीन के कारण होता है। हटिंगटन रोग दुर्लभ परन्तु हमेशा घातक होता है। मध्य युग से ही इस रोग के बारे में जानकारी थी और इसे सेंट वाइटस के नृत्य (St. Vitus’ dance) के नाम से भी जाना जाता था। इस रोग का नाम डॉ जॉर्ज हटिंगटन (Dr. George Huntington) के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने सबसे पहले इस बात का पता लगाया कि यह रोग आनुवंशिक होता है। इनेक पिता और दादा भी डाक्टर थे जिन्होंने एक ही परिवार के 4 पीढ़ियों की जानकारी जुटाई थी। 1983 में इस बात का पता लग पाया कि इसका जीन क्रोमोसोम 4 पर पाया जाता है। इस जीन की खोज 1993 में हो सकी, जब शोधकर्ताओं ने वेनेज़ुएला के मछुआरे के परिवार के समूहों का अध्ययन किया। जहाँ इस रोग से प्रभावित व्यक्तियों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा थी, जहाँ हर 100,000 लोगों 700 लोग इससे प्रभावित थे। इन लोगों के उतकों के नमूनों ने इस जीन की खोज में मदद की।

हटिंगटन रोग अलग-अलग महाद्वीपों और देशो में असमान रूप से पाया जाता है। अमेरिका में यह हर 100,000 व्यक्तियों में 4-8, यूरोप में हर 100,000 लोगों में 2-10 तक, और कुछ देशो में मारिशस में हर 100,000 लोगों में 46, तस्मानिया में हर 100,000 लोगों में 18 लोगों में पाया जाता है। यह यूरोप के वंशजों में, अफ्रीका और एशिया के वंशजों से ज्यादा पाया है।

पुरुष और महिलायें दोनों में सामान रूप से इस जीन के पाए जाने की संभावना होती है, और दोनों ही अपने बच्चों में इस जीन के वाहक होते है। यह उन कुछ आनुवांशिक रोगों में से है जो गुणसूत्रों के जोड़ो में से किसी एक पर दोषपूर्ण जीन होने से हो सकता है। कई मामलों में इसके लक्षण 30 से 40 की उम्र के बाद उभरते है, परन्तु 10 प्रतिशत मामलों में यह 20 वर्ष की उम्र में भी उभर सकता है। कभी-कभी यह दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों में और 80 वर्ष से अधिक के बुजुर्गों में भी देखने को मिलता है। इसके लक्षणों के उभरने के 10 से 25 वर्ष के भीतर रोगी की मौत हो सकती है।

हटिंगटन रोग के लिए जिम्मेदार दोषपूर्ण जीन, गुणसूत्र 4 पर उपस्थित होता है जो कि एक असामान्य प्रोटीन के निर्माण के लिए जिम्मेदार होता है। इस प्रोटीन के कारण मष्तिष्क की तंत्रिका कोशिकाएं मरने लगती है, जो गति, अनुभूति (सोच) और व्यवहार के लिए जिम्मेदार होता है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति को शरीक विकलांगता हो सकती है। इसके लक्षण काफी कुछ पार्किन्सन रोग से मिलते हैं। इस रोग से प्रभावित 30 से 40 प्रतिशत रोगियों में दौरे भी पड़ते है।

इस जीन में यह विकार डीएनए (DNA) की पुनरावृत्ति (repeat) के कारण होता है, जो की 36 से 120 बार तक हो सकती है, जबकि सामान्य जीन यह पुनरावृत्ति 7 से 35 बार तक ही होती है।  सी.टी. स्कैन और एम. आर आई. (MRI) द्वारा इस रोग का पता लग सकता है। ससे प्रभावित व्यक्तियों में सबसे पहले दिमाग के उस हिस्से की कोशिकाएं नष्ट होने लगती है जिसे कॉडेट नुक्लिअस (caudate nucleus) कहते हैं। यह भाग गति, सीखने और स्मृति के लिए जिम्मेदार होता है।

आनुवांशिक परीक्षणों द्वारा भी हटिंगटन रोग का पता लगाया जा सकता है।  इस रोग का भी कोई इलाज नहीं है। इसके रोगियों को कई तरह की दवाएं दी जाती है।


हचिंसन-गिलफोर्ड सिंड्रोम Hutchinson-Gilford syndrome

इसे हचिंसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम (Hutchinson-Gilford progeria syndrome, HGPS) के नाम से भी जाना जाता है। इस बीमारी में व्यक्ति समय से पहले ही बूढा हो जाता है और उसकी शीघ्र मृत्यु हो जाती है।

यह परिवारों में पाया जाने वाला एक दुर्लभ रोग है। इस बीमारी के बारे में सबसे पहले ब्रिटिश चिकित्सक जोनाथन हचिंसन (Jonathan Hutchinson) ने 1886 में बताया था। 1897 में एक स्वतन्त्र ब्रिटिश चिकित्सक हेस्टिंग्स गिलफोर्ड ने भी इस रोग के बारे में व्याख्या की थी।

जन्म के समय इससे प्रभावित बच्चे सामान्य दिखते हैं, परन्तु दो वर्ष बाद ही इनमे इस रोग के लक्षण दिखाई देने लगते है।

इनका विकास धीमा हो जाता है और ये पूरी तरह विकसित होने में असफल रहते हैं इसे FTT ( failure to thrive) कहते हैं। इन बच्चों की त्वचा पर वयोवृद्ध व्यक्ति की तरह झुर्रियां पड़ जाती है, त्वचा के नीचे की वसा (Fat) नष्ट हो जाती है, शारीर बहुत कमजोर और दुर्बल दिखने लगता है और इन व्यक्तियों में जोड़ और कुल्हे आसानी से उखड जाते है। बच्चों के बल झड़ने लगते हैं,आंखे बड़ी-बड़ी हो जाती है, चोंच की तरह नाक, पतले होंठ, एक छोटी ठोड़ी  और कान भी बड़े हो जाते हैं। कुछ बच्चो में दाँत नहीं होते या बाद में निकलते है। इनमे उम्र बढ़ने की प्रक्रिया एनी बच्चों की तुलना में 6-7 गुना तेजी से होतो है। इन बच्चों में उम्र से सम्बंधित समस्याओं जैसे कैंसर और मोतियाबिंद का खतरा भी बढ़ जाता है। इस रोग से पीड़ित बच्चे अकसर एनजाइना (angina) – ह्रदय की पेशियों में ऑक्सीजन की कमी से छाती में होने वाला दर्द होने, का अनुभव करते हैं। ये उच्च रक्तचाप और दिल के आकार में वृद्धि से भी पीड़ित होते हैं।

हचिंसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया एक बहुत ही दुर्लभ रोग है, जो 8,000,000 से 4,00,0000 लोगों में से एक में पाया जाता है। इस रोग से पीड़ित 97 प्रतिशत लोग काकेशियन (Caucasians) प्रजाति के होते हैं, इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं है। यह लड़कों में लड़कियों से थोडा ज्यादा पाया जाता है। सन 2005 में एक ही परिवार में इस रोग से पीड़ित एक से ज्यादा सदस्य दुनिया में सिर्फ दो ही परिवारों में पाए गए थे। इसमें पहला परिवार कोलकाता भारत में था, जिसमे 5 बच्चे इस रोग से प्रभावित थे और सन 2008 में दूसरा बेल्जियम में जिसमे दो बच्चे इस रोग से पीड़ित थे।

हचिंसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया गुणसूत्र 1 पर उपस्थित दोषपूर्ण जीन LMNA के कारण होता है,जो की एक प्रोटीन लैमिन A (lamin A) के निर्माण के लिए जिम्मेदार होता है। यह प्रोटीन कोशिकाओं में केन्द्रक (nucleus) के आकार को सुनिश्चित करने के जिम्मेदार होता है। इस दोषपूर्ण जीन के कारण लैमिन A प्रोटीन का निर्माण सामान्य रूप से नहीं हो पता है, जिससे कोशिकाओं का नाभिक अपने सामान्य गोल आकार के बजाय मुड़ा हुआ होता है। इस बात की अभी तक कोई जानकारी नहीं है की केन्द्रक का यह आकार हचिंसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया के विकास के लिए कैसे जिम्मेदार होता है।

इस रोग की पहचान रक्त परीक्षणों द्वारा इसके लिए जिम्मेदार जीन की पहचान द्वारा की जाती है। हचिंसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया का अभी तक कोई ज्ञात इलाज नहीं है। इसके रोगियों को ह्रदय के आघातों से बचने के लिए एस्पिरिन (aspirin) दी जाती है। इस रोग से पीड़ित 90% बच्चे दिल के दौरे या स्ट्रोक से मर जाते हैं। यह हमेशा घातक होता है। इससे प्रभावित बच्चों की जीवन प्रत्याशा 13 वर्ष तक ही होती है। कुछ बच्चे 6-7 वर्ष में ही मर सकते हैं।

हचिंसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया और इससे मिलती जुलती एक अन्य बीमारी वर्नर सिंड्रोम (Werner syndrome) शोधकर्ताओं के लिए हमेशा ही रूचि का विषय रहे है, क्योंकि शोधकर्ताओं को लगता है कि वे इस पर किये गए शोध से उम्र बढ़ने के रहस्यों का पता लगा सकते हैं। इस रोग की एक मात्र दवा लोनारफिब (lonafarnib) का परिक्षण किया गया है, जो की वास्तव में कैंसर के रोगियों के लिए बनायी गयी थी, परन्तु इसके परिणाम बहुत उत्साहजनक नहीं रहे हैं।


क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम Klinefelter syndrome

क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम एक ऐसी परिस्थिति होती है, जिसमे पुरुषों में एक और X गुणसूत्र पाया जाता है। यह दूसरी सबसे सामान्य आनुवांशिक विकार है जो एक से ज्यादा लिंग निर्धारण करने वाले गुणसूत्र (sex-chromosome) के द्वारा होता है। क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम का नाम डॉ हैरी फिच क्लाइनफेल्टर (Dr. Harry Fitch Klinefelter) के नाम पर रखा गया, जो की अमेरिका में बोस्टन के मैसाचुसेट्स जनरल अस्पताल में एंडोक्राइनोलॉजिस्ट (endocrinologist) थे। इन्होने सबसे पहले 1942 में इस बीमारी की व्याख्या की थी। परन्तु इस बीमारी के आनुवांशिक संबंधों का पता 1959 में चल सका।

इस बीमारी से प्रभावित पुरुष अपने पिता और भाइयों से लम्बे होते हैं, इनका शरीर गोल होता है, छाती स्त्रियों की तरह और लिंग और अंडकोष छोटे और अविकसित होते हैं। इनके शारीर पर बाल नहीं पाए जाते हैं। जबकि कुछ व्यक्ति जिनमे एक अधिक X गुणसूत्र पाया जाता है, कभी-कभी लगभग सामान्य होते हैं। इन बच्चों में मानसिक मंदता भी पाई जाती है।

क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम केवल पुरुषों में पाया जाता है और हर 500 से 1000 बच्चों में से एक में यह पाया जाता है। यह सभी जातियों और जातीय समूहों में समान रूप से पाया जाता है।

क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम एक आनुवांशिक दोष के कारण होता है जिसे नानडिस्जंकशन (nondisjunction) कहते हैं। सामान्य रूप से जनन कोशिकाओं (शुक्राणु और अंड कोशिकाएं) के विभाजन के दौरान इनमे 23 गुणसूत्र होते हैं, परन्तु इस प्रक्रिया में लिंग-गुणसूत्रों का विभाजन नहीं होता है और इस प्रकार अंड कोशिकाओं में XX गुणसूत्र और शुक्राणुओं में XY गुणसूत्र पाए जाते है, और सामान्य कोशिकाओं से निषेचन के दौरान इनमें एक X गुणसूत्र अधिक हो जाता है।

शोधकर्ताओं के अनुसार बच्चो में यह अतिरिक्त गुणसूत्र माता और पिता से सामान रूप से आ सकता है। XXY पुरुषो में स्व-प्रतिरक्षा (autoimmune) विकारो का खतरा भी बढ़ जाता है, जैसे संधिशोथ (rheumatoid arthritis), चर्मक्षय (Lupus), स्तन कैंसर और ऑस्टियोपोरोसिस।

रक्त परीक्षणों में श्वेत रक्त कणिकाओं (white blood cell) में अतिरिक्त X – गुणसूत्र की जाँच करके इस रोग का पता लगाया जा सकता है। XXY पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन, एक पुरुष सेक्स हार्मोन के स्तर की जाँच करके भी इस रोग का पता लग सकता है।

XXY पुरुषों की जीवन प्रत्याशा सामान्य होती है, वे अपनी शिक्षा भी पूरी कर सकते है। इनके लिए विशेष शैक्षणिक कार्यक्रम भी चलाये जाते है। आधुनिक तकनीकों से ये पिता भी बन सकते है।

क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम को रोकने के लिए कोई ज्ञात रास्ता नहीं है क्योंकि एक बेतरतीब आनुवंशिक त्रुटि की वजह से होता है।

XXY पुरुषों को हार्मोनल उपचार, शल्य चिकित्सा और सहायक शैक्षिक उपायों से काफी मिला है और इसके परिणाम उत्साहजनक रहें है। इन उपायों से ये पुरुष भी सामान्य जीवन भी जी पाए हैं।


मर्फन सिंड्रोम Marfan syndrome

मर्फन सिंड्रोम, संयोजी ऊतक (connective tissue) का एक प्रकार का आनुवांशिक विकार है, जो गुणसूत्र 15 पर उपस्थित FBN1 जीन में उत्परिवर्तन के द्वारा होता है। चूँकि संयोजी ऊतक मनुष्य के पुरे शरीर में पाए जाते है अतः यह रोगी की आंखें, संचार प्रणाली, त्वचा, और फेफड़ों के साथ-साथ हड्डियों और मांसपेशियों को प्रभावित करता है। इस रोग का नाम एक फ्रेंच बल रोग विशेषज्ञ (pediatrician) एंटोनी मर्फन (Antoine Marfan) के नाम पर रखा गया था, जिहोने सबसे पहले इस रोग को एक पाँच वर्ष की बच्ची में खोजा था। परन्तु इसके लिए जिम्मेदार जीन की खोज न्यूयॉर्क में माउंट सिनाई मेडिकल सेंटर के शोधकर्ता फ्रांसेस्को रामिरेज़ (Francesco Ramirez) द्वारा 1991 में की गयी थी।

FBN1 जीन शारीर के संयोजी ऊतकों में इलास्टिक फाइबर (elastic fibers) और सही समय पर शरीर के वृद्धि कारकों के बनने के लिए जिम्मेदार होता है। दोषपूर्ण FBN1 जीन के कारण सभी रोगी अलग-अलग गंभीरता के साथ प्रभावित होते हैं। इस जीन में 137 अलग-अलग तरह के उत्परिवर्तनों की पहचान की गयी है। मर्फन सिंड्रोम के बुनियादी लक्षणों में लंबे, पतले हाथ और पैर

हड्डी अतिवृद्धि ढीले जोड़ों और कमजोर मांसपेशियां पाई जाती हैं। इससे प्रभावित व्यक्तियों में निकटदृष्टि दोष (nearsightedness), मोतियाबिंद (cataracts and glaucoma) और आँखों के लेंस की अव्यवस्था हो सकती है। इस रोग से प्रभावित 50 प्रतिशत रोगियों में इस प्रकार के लक्षण पाए जाते हैं। इस रोग के अन्य आम लक्षण है कंकाल तंत्र की विकृति , विशेष रूप से स्कोलियोसिस (scoliosis -रीढ़ की असामान्य वक्रता) पसलियों और छाती की विकृति। इससे प्रभावित व्यक्ति के लिए यह सबसे घातक तब होता है जब ह्रदय और परिसंचरण तंत्र (heart and circulatory system) से जुड़ी समस्याएं आती हैं। कमजोर संयोजी उतकों की वजह से ह्रदय के वाल्व ख़राब हो सकते हैं, महा धमनियां (arota) पतली और कमजोर हो सकती हैं। फेफड़ो की धमनी अपने आकार में बढ़ सकती है, जिससे कभी-कभी पूर्ण रूप से नष्ट हो सकती है और रोगी की मृत्यु हो जाती है।

मर्फन सिंड्रोम, महिलाओं और पुरुषों में, सभी जाति और जातीय समूहों में सामान रूप से पाया जाता है। हर 5000 जन्मों में से एक में इस सिंड्रोम की संभावना होती है।

मर्फन सिंड्रोम का जिस तरह से पीढ़ियों में वंशानुगत होता है उसे ओटोसोमल प्रमुख पैटर्न (autosomal dominant pattern) कहते है, अर्थात इस रोग के लिए FBN1 जीन की केवल एक ही प्रति (copy) जिम्मेदार होती है।

यह रोग परिवारों में पाया जाता है परन्तु 25-30 प्रतिशत रोग नए उत्परिवर्तन द्वारा उन परिवारों में भी होते है, जिनके इतिहास में कभी भी यह सिंड्रोम नहीं पाया गया था।

FBN1 जीन एक प्रोटीन फाईब्रिलिन-1 (fibrillin-1) के उत्पादन के लिए जिम्मेदार होता है, जो पतले धागेनुमा तंतुओं का निर्माण करता है और ये तंतु संयोजी ऊतकों के निर्माण में सहायक होते हैं। ये छोटे तंतु वृद्धि कारकों में मुक्त होने के लिए भी जिम्मेदार होते है जो नयी कोशिकाओं के निर्माण और वृद्धि में भी सहायक होते हैं। सामान्य व्यक्तियों में ये वृद्धि कारक (growth factor) सही समय पर मुक्त होते हैं, पर मर्फन सिंड्रोम से प्रभावित व्यक्तियों में यह कारक बहुत जल्दी मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार दोषपूर्ण FBN1 जीन से प्रभावित कमजोर फाईब्रिलिन-1, संयोजी उतकों को भी कमजोर कर देते हैं, जिसके कारण व्यक्ति और उसके हाथ असामान्य रूप से लम्बे हो जाते है।

मर्फन सिंड्रोम की पहचान करना एक जटिल प्रक्रिया है इसके कई कारण है, पहला सिर्फ एक जीन के परिक्षण से FBN1 जीन में उत्परिवर्तन का पता नहीं चलता है। दूसरा संयोजी उतकों के कुछ विकार भी मर्फन सिंड्रोम से मिलते जुलते है। तीसरा इसके कई लक्षण उम्र बढ़ने के साथ सम्बंधित होते है, जैसे व्यस्क होने तक इस रोग से प्रभावित व्यक्तियों में सिर्फ आँखों से सम्बंधित समस्याये ही दिखायी देती हैं और पूर्ण रूप से व्यस्क होने पर ही असामान्य वृद्धि के लक्षण दिखाई देते हैं। इससे प्रभावित कुछ खिलाडियों की मौत खेल के दौरान ही हो गयी है जैसे 1986 में ओलम्पिक रजत पदक विजेता फ्लो हाईमैन (Flo Hyman) की एक वालीबाल खेल के दौरान।  इस रोग की पहचान व्यक्ति के पारिवारिक इतिहास, जीन परिक्षण और कई तरह के चिकित्सीय परीक्षणों (CT scan, MRI, ECG) द्वारा होती है।

इस रोग के इलाज के लिए भी डाक्टरों की पूरी टीम की आवश्यकता होती है, जो अलग – अलग विकारों का उपचार करते हैं। सही समय पर उपचार शुरू होने से इस रोग के निदान में काफी प्रगति हो सकती है। बिना इलाज के इस रोग से प्रभावित व्यक्ति 30 वर्ष की उम्र से पहले ही ह्रदय की समस्याओं से मर सकते हैं। सही इलाज के मदद से रोगी 60 से 70 वर्ष तक सामान्य रूप से जी सकता है।

इस रोग को रोका नहीं जा सकता क्योंकि यह नए उत्परिवर्तनों द्वारा भी होता है।


पेशी अपविकास Muscular dystrophy

पेशी अपविकास वास्तव में 9 तरह के वंशानुगत विकारों का समूह है, जिसमे मांसपेशियों की ताकत और मांसपेशियों व तंत्रिकाओं के बीच का सम्पर्क प्रभावित होता है। कुछ रोगियों में इसके लक्षण बचपन में ही दिखाई देने लगते हैं, जबकि ज्यादातर वयस्क होने पर इसके लक्षण दिखाई देते है। कुछ रोगियों की जल्दी ही मौत हो सकती है जबकि कुछ रोगियों में केवल हलकी विकलांगता आ सकती है। इसके प्रमुख लक्षण उम्र की भिन्नता के अनुसार अलग-अलग हो सकते है-

डचेन पेशी अपविकास Duchenne muscular dystrophy – इसका नाम फ्रेंच डाक्टर गुईलॉम डचेन (Guillaume Duchenne) के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने सबसे पहले 1860 में इस रोग की व्याख्या की थी। लगभग आधे से ज्यादा पेशी अपविकास से प्रभावित व्यक्तियों में यही प्रकार पाया जाता है। यह ज्यादातर पुरुषो में पाया जाता है। इस रोग के लक्षण बचपन में ही दिखाई देने लगते हैं। इससे प्रभावित बच्चों की पैर और कूल्हों की मांसपेशियां कमजोर होने लगती हैं, इसके बाद हाथों और गले की। रोगी ठीक से खड़े नहीं हो पाते हैं और उन्हें व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ता है। इन्हें श्वास और ह्रदय की समस्याएं हो जाती है। अधिकतम 20 वर्ष की उम्र तक इनकी मौत हो जाती है।

यह हर लगभग 3500 जन्मे लड़कों में से एक को होता है।

बेकर पेशी अपविकास Becker muscular dystrophy –  पेशी अपविकास का यह एक थोडा हल्का रूप है। 11 वर्ष की उम्र के बाद इसके लक्षण दिखाई देते है। इससे प्रभावित व्यक्ति मध्य आयु तक जिन्दा रहते हैं।

यह हर लगभग 30000 जन्मे लड़कों में से एक को होता है।

जन्मजात पेशी अपविकास Congenital muscular dystrophy – यह लड़के और लड़कियों दोनों में पाया जाता है और इसके लक्षण 2 वर्ष की उम्र से ही दिखाई देने लगते हैं। इससे प्रभावित कुछ बच्चे प्रारंभिक अवस्था में ही मर सकते हैं, जबकि कुछ व्यस्क भी हो सकते हैं।

एमरी-ड्रेफस पेशी अपविकास Emery-Dreifuss muscular dystrophy – यह प्रमुख रूप से लड़कों में पाया जाता है। 10 से 25 वर्ष की उम में इसके लक्षण दिख सकते हैं\ टखने, घुटने, और अन्य जोड़ों में अवकुंचन (Contracture) से मांसपेशियां कमजोर होने लगती है। 30 की उम्र तक सभी रोगियों को ह्रदय की समस्याएं हो जाती हैं।

चेहरे, कंधे व बाजू संबंधी पेशी अपविकास Facioscapulohumeral muscular dystrophy – शारीर के अन्य अंगो से पहले इसमें चेहरे, कंधे व बाजू प्रभावित होते हैं। इसके लक्षण 10 से 40 वर्ष तक कभी भी दिखाई दे सकते हैं। रोगी का चेहरा फूल जाता है और मुखौटे जैसा प्रतीत होता है।

यह हर लगभग 100000 जन्मे लड़कों में से एक को होता है।

लिंब गर्डल पेशी अपविकास Limb-girdle muscular dystrophy – इस प्रकार पेशी अपविकास लड़कों और लड़कियों दोनों को प्रभावित करता है। मांसपेशियों में कमजोरी आम तौर पर पहले कूल्हों के आसपास दिखाई देती है जो बाद में कंधे, पैर, और गर्दन तक फैल जाती है। इससे प्रभावित व्यक्ति भचक कर चलते है, जल्दी-जल्दी गिर सकते है और दौड़ने में असमर्थ होते हैं।

यह बहुत दुर्लभ होता है, जो पेशी अपविकास के सारे रोगियों में से केवल एक प्रतिशत में पाया जाता है।

दूरस्थ पेशी अपविकास distal muscular dystrophy – इसके लक्षण 40 से 60 वर्ष के बाद दिखाई देते हैं। यह हाथ और पैर की मांसपेशियों को प्रभावित करता है।

यह स्वीडन के लोगों में अन्य देशों की तुलना में अधिक पाया जाता है।

मायोटोनिक पेशी अपविकास Myotonic muscular dystrophy – यह वयस्कों में होने वाला सबसे आम प्रकार का पेशी अपविकास है। इसके लक्षण 20 से 30 वर्ष के बाद दिखाई देते हैं। यह स्त्री और पुरुषों दोनों को सामान रूप से प्रभावित करता है। इसे स्टिनर्ट रोग (Steinert’s disease) के रूप में भी जाना जाता है। इस रोग में मांसपेशियां जकड़ जाती है । रोगी मांसपेशियों को स्वेच्छा से, उन्हें कसने के बाद ढीला नहीं कर पाते है। मरीज की मांसपेशियों को कमजोर करने के अलावा, मायोटोनिक पेशी अपविकास केंद्रीय तंत्रिका तंत्र और हृदय सहित अन्य अंगों, अधिवृक्क ग्रंथियों, थायराइड, आँखें (मोतियाबिंद)  और पाचन तंत्र को प्रभावित करता है।

ओक्युलोफैरिन्जिअल पेशी अपविकास Oculopharyngeal muscular dystrophy – यह पेशी अपविकास 40 या 50 की उम्र के बाद शुरू होता है। यह पुरुष और महिलाओं दोनों में पाया जाता है। फ्रांसीसी, कनाडा और मेक्सिको में रहने वाले हिस्पैनिक के वंशजों में यह ज्यादा पाया जाता है। मांसपेशियों में कमजोरी शुरू होने के साथ निगलने में कठिनाई, कमजोर दृष्टि, पलकों और गले की मांसपेशियों प्रभावित होती हैं। अधिकांश रोगी अंततः चलने की क्षमता खो देते हैं।

पेशी अपविकास भी जीन उत्परिवर्तन के कारण होता है जिसके कारण उन प्रोटीन का निर्माण प्रभावित होता है जो मांसपेशियों की संरचना बनाये रखने में मदद करते हैं। पेशी अपविकास ज्यादातर लड़कों में पाए जाते हैं, क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार जीन X गुणसूत्र पर पाया जाता है।

डचेन पेशी अपविकास और बेकर पेशी अपविकास के लिए X गुणसूत्र पर उपस्थित DMD जीन जिम्मेदार होता है, जो की एक प्रोटीन डिस्ट्रोफ़िन (dystrophin) के उत्पादन के लिए जिम्मेदार होता है। यह प्रोटीन मांसपेशियों की कोशिकाओं की कोशिका झिल्ली को बनाए रखने में मदद करता है। डचेन पेशी अपविकास में यह प्रोटीन बनता ही नहीं है और बेकर पेशी अपविकास में इसका बहुत कम मात्रा में उत्पादन होता है।

एमरी-ड्रेफस पेशी अपविकास में X गुणसूत्र पर उपस्थित EMD जीन जिम्मेदार होता है, जो की एक प्रोटीन एमेरिन (emerin) के निर्माण के लिए जिम्मेदार होता है। जो कंकाल और हृदय की मांसपेशियों के कामकाज के लिए आवश्यक होता है।

मायोटोनिक पेशी अपविकास गुणसूत्र 19 पर उपस्थित एक दोषपूर्ण जीन के कारण होता है, जिसके कारण मयोसिन प्रोटीन का निर्माण प्रभावित होता है जो मांसपेशियों के संचलन के लिए आवश्यक होता है।

अलग – अलग प्रकार के पेशी अपविकास अलग-अलग उम्र में होते हैं, इसलिए इनकी जाँच भी अलग-अलग होती है। जैसे तंत्रिका तंत्र की जाँच, एंजाइमों के स्तर के लिए रक्त और मूत्र परीक्षण, व्यायाम परीक्षण, अल्ट्रासाउंड इमेजिंग, MRI, स्नायु बायोप्सी (Muscle biopsy), इलेक्ट्रोमायोग्राफी (Electromyography), ECG और फेफड़े के कार्य परीक्षण अदि की जाँच।

पेशी अपविकास के लिए कोई इलाज नहीं है। रोगी को जितना संभव हो सके गतिशील और सहज रूप में लंबे समय तक रखा जाता है।

जीन म्यूटेशन से होने के कारण इस रोग को रोका भी नहीं जा सकता है।

आधुनिक मेडिकल और सर्जिकल केयर  तकनीकों से अधिकांश रोगी पहले की तुलना में जीवन की बेहतर गुणवत्ता के साथ जी सकते हैं।


पटाऊ सिंड्रोम Patau syndrome

पटाऊ सिंड्रोम गुणसूत्र 13 की एक अतिरिक्त प्रति या गुणसूत्र 13 के कहीं और स्थानांतरित होने पर होता है। पटाऊ सिंड्रोम से प्रभावित बच्चे चेहरे, तंत्रिका तंत्र और ह्रदय के विकारों के साथ पैदा होते हैं और इनकी मृत्यु दर बहुत उच्च होती है।

पटाऊ सिंड्रोम हर 5000 से 12000 जन्मो में से एक को होता है। यह लड़के लड़कियों , सभी जाति और जातीय समूहों में सामान रूप से पाया जाता है। 32 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के बच्चों में इस सिंड्रोम के होने की संभावना अधिक होती है। इससे प्रभावित लड़कों की जन्म से पहले और बाद में मृत्यु दर ज्यादा होती है।

पटाऊ सिंड्रोम जनन कोशोकाओं के निर्माण के दौरान होने वाली त्रुटियों से या निषेचन के बाद दोषपूर्ण कोशिका विभाजन से यह सिंड्रोम होता है। सबसे आम प्रकार का पटाऊ सिंड्रोम, जो की इससे प्रभावित 75 प्रतिशत रोगियों में पाया जाता है, उन दोषपूर्ण अंड कोशिकाओं या शुक्राणुओं से होता है जिसमे निषेचन के समय गुणसूत्र 13 की दो प्रतियाँ पाई जाती हैं। निषेचन के बाद जन्मे बच्चे में क्रोमोसोम 13 की 3 प्रतियाँ पाई जाती है, इसे पूर्ण त्रिगुणसूत्रता 13 (full trisomy 13) कहते हैं।

20 प्रतिशत मामलों में यह तब होता है जब गुणसूत्र 13 का कोई भाग गुणसूत्र 14 से जुड़ जाता है। इस प्रकार की आनुवांशिक त्रुटि को आंशिक त्रिगुणसूत्रता 13 (partial trisomy 13) कहते हैं।

इससे प्रभावित 5 प्रतिशत मामलों में शरीर की कुछ कोशिकाओं में गुणसूत्र 13 की अतिरिक्त प्रति पाई जाती है जबकि कुछ में नहीं। इसे मोजैक पटाऊ सिंड्रोम कहते है।

पटाऊ सिंड्रोम में मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। इससे प्रभावित भ्रूण का ज्यादातर जन्म से पहले ही गर्भपात हो जाता है, जो बच्चे पैदा होते है, वे कुछ ही दिनों तक जिन्दा रह पाते है, इसमें से 69 प्रतिशत श्वास समस्याओं से और 13 प्रतिशत ह्रदय के विकारों से मर जाते है।

इससे प्रभावित बच्चों में कई तरह के लक्षण पाए जाते है जैसे होलोप्रोजेनसिफैली (Holoprosencephaly)-जिसमे मष्तिष्क दो भागों में बंट जाता है, ह्रदय की समस्याएं, पालीडैक्टाईली (Polydactyly)- हाथों या पैरों में अतिरिक्त उँगलियों का पाया जाना, द्विमेरुता (Spina bifida)- इसमें मेस्र्रज्जु (spinal cord) रीढ़ की हड्डी से पूर्ण रूप से ढका नहीं होता है।

पटाऊ सिंड्रोम की जाँच जन्म के बाद उसके लक्षणों को देख कर की जा सकती है, या जन्म से पहले अल्ट्रासाउंड या अधुनिको तकनीकों द्वारा माँ और बच्चे के रक्त परीक्षणों द्वारा की जा सकती है।

पटाऊ सिंड्रोम का कोई इलाज नहीं है, इससे प्रभावित बच्चो को जन्म के तुरंत बाद गहन चिकित्सा इकाई (intensive care unit-ICU) में रखना पड़ता है। ये औसत रूप से 2.5 दिन से ज्यादा जिन्दा नहीं रह सकते हैं। कुछ मामलों में इससे प्रभावित बच्चे 20 वर्ष तक जिन्दा रहें है। लड़कियां ज्यादा दिन तक जिन्दा रह सकती हैं।

पटाऊ सिंड्रोम ज्यादातर जीन उत्परिवर्तन के कारण होता है, यह वंशानुगत नहीं होता है। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार महिलाओं के 30 से 40 वर्ष के बाद गर्भधारण करने पर इस सिंड्रोम से प्रभावित होने की आशंका ज्यादा होती है।


फेनिलकीटोन्यूरिया Phenylketonuria

फेनिलकीटोन्यूरिया एक आनुवांशिक बीमारी है जो की क्रोमोसोम 12 पर उपस्थित PAH जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह जीन फेनिलएलनिन (phenylalanine) नामक एक एमिनो एसिड (amino asid) की शारीर के साथ प्रतिक्रिया को प्रभावित करता है, जो की प्रोटीन के निर्माण के लिए जिम्मेदार होता है। इस प्रकार इस एमिनो एसिड का स्तर शरीर में बहुत बढ़ जाता है। इस प्रकार इस बीमारी से प्रभावित बच्चे मानसिक मंदता और अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हो सकते हैं।

इस रोग से पीड़ित बच्चे जन्म के बाद कुछ समय तक सामान्य दिखते हैं, परन्तु कुछ समय बाद इनकी त्वचा साफ और बल पतले होने लगते हैं। इनमे खुजली और त्वचा रोग से सम्बंधित समस्याएं हो जाती हैं। एमिनो एसिड का स्तर बढ़ने से इनके श्वास, पसीने और मूत्र से चूहों की तरह गंध आने लगती है।

फेनिलकीटोन्यूरिया कुछ देशों और जातीय समूहों में आम तौर पर पाया जाता है। सामान्य रूप में यह 10,000 से 15,000 जन्मों में से एक में होता है, परन्तु तुर्की में या 26,00 जन्मों में से एक में होता है। आयरलैंड, यमन, पूर्वी यूरोप, इटली और चीन में भी यह अधिक पाया जाता है। फिनलैंड में इसकी दर सबसे कम 100,000 जन्मो में से एक है। यह लड़के और लड़कियों को सामान रूप से प्रभावित करता है। यदि इसके दोषपूर्ण जीन के माता-पिता दोनों ही वाहक है तो इनके 4 बच्चों में से एक को इस रोग की संभावना होगी। कोई व्यक्ति अपने सामान्य जीवन में भी उत्परिवर्तन द्वारा इसका वाहक बन सकता है।

इस रोग की जाँच के लिए गुथरी परीक्षण (Guthrie test) किया जाता है, जिसमे नवजात बच्चो का रक्त परिक्षण करके इसमें फेनिलएलनिन के स्तर की जाँच की जाती है।

फेनिलकीटोन्यूरिया में फेनिलएलनिन से मुक्त आहार लेने के निर्देशों का कड़ाई से पालन किया जाता है। इस बीमारी का पता सबसे पहले नार्वे के डाक्टर इवर असबोर्न फोलिंग (Ivar Asbjorn Folling) ने 1934 में लगाया था। इसके निदान के लिए कुछ दवाएं भी बन गयी हैं जो शरीर में फेनिलएलनिन को पचाने वाले एंजाइम का उत्पादन बढ़ा देती हैं।


सिकल सेल एनीमिया Sickle cell anemia

सिकल सेल एनीमिया, हीमोग्लोबिन (hemoglobin) के उत्पादन के लिए जिम्मेदार एक जीन, गुणसूत्र 11 पर उपस्थित  हीमोग्लोबिन-बीटा जीन में उत्परिवर्तन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। हीमोग्लोबिन लाल रक्त कणिकाओं (RBC) में पाया जाने वाला एक प्रोटीन होता है, जो फेफड़ो से आक्सीजन को शरीर के अन्य अंगो में ले जाता है। इस रोग की पहचान सबसे पहले शिकागो, अमेरिका के एक डाक्टर जेम्स हेरिक (James Herrick) ने 1910 में की थी। इन्होने वेस्ट-इंडीस के एक रोगी के रक्त परिक्षण में यह पाया कि इसकी लाल रक्त कोशिकाएं हंसिया या अर्द्धचंद्र (sickle-shaped or crescent-shaped) के आकार की हो गयी है।

सिकल सेल एनीमिया होने के लिए माता व पिता दोनों का दोषपूर्ण जीन का वाहक होना जरुरी है। सिकल सेल एनीमिया में एक दोषपूर्ण हीमोग्लोबिन बन जाता है जिसे हीमोग्लोबिन S कहते हैं।  हीमोग्लोबिन S, सामान्य हीमोग्लोबिन की तुलना में चिपचिपा होता है और रक्त वाहिकाओं (blood vessels) में सामान्य रूप से इसका प्रवाह नहीं हो सकता है। इस प्रकार की लाल रक्त कोशिकाएं जल्दी मरने लगती है और इनकी आक्सीजन ले जाने की क्षमता भी कम हो जाती है। यस असामान्य कोशिकाएं गुच्छे (clumps) बनाने लगती है जिससे रक्त वाहिकाओं और शारीर के अन्य अंगो को नुकसान पहुँचता है। सिकल सेल रक्त वाहिकाओं को ब्लॉक करते हैं, जिस कारण सीने में दर्द, गुर्दे,  तिल्ली, जिगर को नुकसान और स्ट्रोक के रूप में लक्षण पैदा होते हैं। ये आँखों को रक्त पहुँचाने वाली रक्त वाहिकाओं को भी नुकसान पहुंचाते हैं जिससे रेटिना कमजोर हो जाता है और आँखों से रक्त भी आने लगता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार इस रोग की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई, बाद में यह दुनिया के अलग-अलग भागों में भी पहुंचा। सिकल सेल के वाहक मलेरिया के प्रति प्रतिरोधी होते हैं। इस कारण यह विश्व के उन हिस्सों में ज्यादा पाया जाता है जहाँ मलेरिया ज्यादा फैलता है। यह रोग अफ्रीका, भारत, मध्य और दक्षिण अमेरिका, कैरेबियन द्वीप समूह, सऊदी के कुछ हिस्सों अरब, और तुर्की में अमेरिका और यूरोप की तुलना में ज्यादा पाया जाता है। यह रोग महिलाओं और पुरुषों दोनों में सामान रूप से फैलता है, और दोनों ही इस रोह के वाहक होते हैं।

इसका उपचार रोगी के लक्षणों के प्रकार और गंभीरता पर निर्भर करता है। सिकल सेल एनीमिया के लिए ही इलाज एक अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण है (bone marrow transplant – BMT) है। इस रोग में 18 प्रतिशत बच्चों को ही इस प्रत्यारोपण के उपयुक दाता मिल पता है , जो की अकसर उसका सगा भाई ही होता है। 6 प्रतिशत बच्चों की मौत इस प्रत्यारोपण के दौरान ही हो जाती है। रक्ताधान (Blood transfusions) से भी इसके खतरों को कम किया जा सकता है।

इस रोग का पूर्ण रुप से निदान संभव नहीं है, उन बच्चों को छोड़कर जिनमे अस्थि मज्जा का सफल प्रत्यारोपण हो पता है। इससे व्यक्ति 40-45 वर्ष से ज्यादा जिन्दा नहीं रह पाता है।

सिकल सेल एनीमिया की जाँच रक्त परीक्षणों द्वारा की जाती है। इस रोग के इलाज के लिए जीन थेरेपी (gene therapy) में भी काफी प्रगति हुई है।


थैलेसीमिया Thalassemia

थैलेसीमिया कई तरह के आनुवांशिक रक्त विकारों (inherited blood disorders) का एक समूह है, जो कि जीन में कई प्रकार के म्यूटेशन द्वारा हो सकता है, जो शरीर की हीमोग्लोबिन उत्पादन करने की क्षमता प्रभावित कर सकते हैं। अलग-अलग तरह के हीमोग्लोबिन के अणुओं में आये विकारों के आधार पर थैलेसीमिया प्रमुख रूप से दो प्रकार के होते है। हीमोग्लोबिन में चार प्रकार की प्रोटीन श्रृंखलाएं पाई जाती है, दो अल्फा चेन एवं दो बीटा चेन। जीन उत्परिवर्तन यदि अल्फा चेन को प्रभावित करता है तो इसे अल्फा थैलेसीमिया और यदि बीटा चेन को प्रभावित करता है तो इसे बीटा थैलेसीमिया कहते हैं।

हीमोग्लोबिन अणुओं की अल्फा चेन में प्रोटीन का निर्माण करने के लिए 4 जीन की आवश्यकता होती है। यदि किसी व्यक्ति में इनमे से एक या दो दोषपूर्ण हो तो उसे थैलेसीमिया विशेषता (thalassemia trait) कहेंगे, इनमे थैलेसीमिया के लक्षण नहीं पाए जाते है, परन्तु ये इस रोग के वाहक होते हैं। किसी बच्चे में थैलेसीमिया आने के लिए माता और पिता दोनों से एक-एक दोषपूर्ण जीन आना आवश्यक है। यदि माता और पिता दोनों ही थैलेसीमिया के जीन के वाहक हैं तो उनके बच्चों में इस रोग की संभावना 25 प्रतिशत और इस रोग के वाहक होने की संभावना 50 प्रतिशत होगी।

यदि किसी व्यक्ति में अल्फा चेन में प्रोटीन के उत्पादन के लिए जिम्मेदार दो या दो से ज्यादा जीन में उत्परिवर्तन होता है, तो

उसे हलके थैलेसीमिया से लेकर गंभीर थैलेसीमिया तक हो सकता है। इस प्रमुख अल्फा थैलेसीमिया या हाईड्रॉप्स फेटैलिस (alpha thalassemia major or hydrops fetalis) कहतें हैं। इस प्रकार के थैलेसीमिया में बच्चे जन्म के तुरंत बाद मर सकते हैं। इस थैलेसीमिया के चार में से एक या चारों जीन गुणसूत्र 16 पर उपस्थित होते हैं।

इसी प्रकार बीटा थैलेसीमिया में यदि दो या दो से ज्यादा जीन में उत्परिवर्तन होता है, तो रोगी में हलके थैलेसीमिया से लेकर गंभीर थैलेसीमिया तक हो सकता है। गंभीर थैलेसीमिया को प्रमुख बीटा थैलेसीमिया या कूली एनीमिया (thalassemia major or

Cooley’s anemia) कहते हैं। बीटा थैलेसीमिया के लिए जिम्मेदार HBB जीन गुणसूत्र 11 पर उपस्थित होता है।

अल्फा थैलेसीमिया अफ्रीका, मध्य पूर्व, भारत, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिणी चीन, और कभी कभी भूमध्य सागर के आसपास के देशों में प्रमुख रूप से पाया जाता है। हर वर्ष 300,000 से 400,000 गंभीर अल्फा थैलेसीमिया से प्रभावित बच्चे पैदा होता हैं, इनमे से 95 प्रतिशत एशिया, भारत, और मध्य पूर्व में पैदा होते हैं।

बीटा थैलेसीमिया उत्तरी यूरोप या उत्तरी अमेरिका की तुलना में, अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया, ईरान, अरब, मध्य एशिया, और भूमध्य सागर के आसपास के देशों में प्रमुख रूप से पाया जाता है। यह लड़के और लड़कियों को सामान रूप से प्रभावित करता है।

हीमोग्लोबिन एच रोग Hemoglobin H disease – यह अल्फा थैलेसीमिया का गंभीर प्रकार है। इसमें गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं में प्लीहा का बढ़ जाना, विकृत हड्डियां, पैर के अल्सर, पित्त पथरी और थकान जैसे लक्षण पाए जाते हैं। हीमोग्लोबिन एच के साथ बच्चे अक्सर पीलिया और एनीमिया के साथ पैदा होते हैं, जिसका आमतौर पर शीघ्र ही जन्म के बाद पता चल जाता है।

दोनों ही प्रकार के थैलेसीमिया का पता रक्त परीक्षण और जीन परीक्षणों से चल सकता है।

इस रोग के उपचार के लिए रक्ताधान (blood transfusions) करना पड़ता है। इस रोग के लिए एक उपचार जिसे कीलेशन थेरेपी (chelation therapy) कहते है का सहारा लिया जाता है। इसमें डिसफेरल (Desferal) ड्रग और एक पंप की मदद से शरीर में बने ज्यादा आयरन की बहार निकला जाता है। कुछ नयी और प्रभावशाली दवाइयों से भी शरीर का ज्यादा बना आयरन उस रूप में बदल जाता है , जिससे वह मल-मूत्र के साथ बाहर निकल सके।

कूली एनीमिया (thalassemia major or Cooley’s anemia) में ज्यादातर बढे हुए प्लीहा (spleen) को सर्जरी द्वारा निकालना पड़ता है। इसमें कभी-कभी अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण (transplantation of bone marrow) भी किया जाता है।

इस रोग का निदान इसके लक्षणों और गंभीरता के आधार पर किया जाता है। हीमोग्लोबिन एच रोग से पीड़ित व्यक्ति सामान्य रूप से व्यस्क अवस्था तक जी सकते है, जबकि हाईड्रॉप्स फेटैलिस (alpha thalassemia major or hydrops fetalis) हमेशा ही घटक होता है।

कूली एनीमिया का सही उपचार होने से व्यक्ति सामान्य जीवन जी सकता है। अनुपचारित कूली एनीमिया से पीड़ित व्यक्ति की आमतौर पर बीस वर्ष की उम्र से पहले ह्रदय रोग या संक्रमण से मौत हो जाती है।

दोनों हो प्रकार के थैलेसीमिया को रोकने का कोई उपाय नहीं है। हालाँकि जीन थेरेपी द्वारा इस रोग के इलाज की नै संभावनाएं तलाशी जा रहीं हैं।


ट्रिपल एक्स सिंड्रोम Triple X syndrome

ट्रिपल एक्स सिंड्रोम सिर्फ लड़कियों में पाई जाने वाली वह अवस्था है जिसमे कोई लड़की शरीर की प्रत्येक कोशिका में एक अतिरिक्त X गुणसूत्र के साथ पैदा होती है, या कभी-कभी शरीर की कुछ कोशिकाओं में ही एक अतिरिक्त X गुणसूत्र (trisomy) पाया जाता है। इसकी खोज स्काटलैंड की एक डाक्टर पेट्रीसिया जैकब (Patricia Jacobs) ने 1959 में की थी।

इससे प्रभावित महिलाओं में समयपूर्व रजोनिवृत्ति (premature menopause), सीखने की क्षमता में कमी, शारीरिक विकास में देरी जैसे लक्षण पाए जाते हैं। इस सिंड्रोम में कोई असामान्य शारीरिक अक्षमता नहीं पाई जाती हैं। इस रोग से थोडा कम प्रभावित महिलाओं में इसकी पहचान कभी नहीं हो पाती है।

हर 900-1000 लड़कियों के जन्मों में से एक में यह सिंड्रोम पाया जाता है। यह सिंड्रोम सभी जाति और जातीय समूहों में पाया जाता है। ज्यादा उम्र की गर्भवती महिलाओं की जन्मी लड़कियों में इस रोग की वाहक होने की संभावना अधिक होती है।

आम तौर पर यह रोग तब होता है जब अंड कोशिकाओं में दो X गुणसूत्र पाए जाते हैं।

इस सिंड्रोम की आसानी से पहचान नहीं हो पाती है। लक्षणों के दिकहायी देने पर रक्त परीक्षणों या जीन थेरेपी से इसकी पहचान संभव है।

इस सिंड्रोम से प्रभावित लड़कियां सामान्य जीवन जी सकती हैं। इससे प्रभावित महिलाओं में समयपूर्व रजोनिवृत्ति (premature menopause) क्यों होती है इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं है। माता-पिता के प्यार और समर्थन से इसके रोगियों को काफी मदद मिलती है।

यह स्वाभाविक आनुवंशिक उत्परिवर्तन (spontaneous genetic mutation) द्वारा होता है अतः इसे रोक पाना संभव नहीं है। कुछ दवाइयों और सामाजिक समर्थन से इसका काफी हद तक निदान संभव है।


टर्नर सिंड्रोम Turner syndrome

टर्नर सिंड्रोम सिंड्रोम भी सिर्फ लड़कियों में पाई जाने वाली वह अवस्था है जिसमे कोई लड़की शरीर की प्रत्येक कोशिका में या कुछ कोशिकाओं में सिर्फ एक X गुणसूत्र (monosomy) या अधूरे दुसरे X गुणसूत्र के साथ पैदा होती है। इसका नाम अमेरिकन डाक्टर हेनरी टर्नर (Henry Turner) के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने इस रोग की सन 1938 में व्याख्या की थी।

दो X गुणसूत्र लड़कियों में लिंग निर्धारण का काम करते है। टर्नर सिंड्रोम से प्रभावित लडकिय कभी माँ नहीं बन पति क्योंकि उनके अंडाशय (ovaries) विकसित नहीं हो पाते हैं।

इस सिंड्रोम से प्रभावित लड़कियों में गर्दन के पास एक अतिरिक्त एक झिल्लीदार त्वचा, हाथ और पैरो में सुजन, दिल या गुर्दे की समस्यायें और स्कोलियोसिस (रीढ़ की हड्डी में असामान्य टेढ़ापन) जैसे लक्षण पाए जाते हैं। बाद के जीवन में ऑस्टियोपोरोसिस (भंगुर हड्डियां) और उच्च रक्तचाप का खतरा भी पाया जाता है।

शोधकर्ता इस बात का पता अभी तक नहीं लगा पाए हैं की इस सिंड्रोम के लिए कितने जीन जिम्मेदार हैं। अभी तक एक जीन SHOX जो हड्डियों के विकास के लिए आवश्यक प्रोटीन का निर्माण करता है, का पता लगाया गया है। हर 2000-2500 नवजात जन्मी लड़कियों में से एक में यह सिंड्रोम होता है। 98 प्रतिशत टर्नर सिंड्रोम से प्रभावित लड़कियां भ्रूण अवस्था में ही मर जाती हैं। इस सिंड्रोम की दर सभी देशों , जाति और जातीय समूहों में एक समान पाई जाती हैं। बेतरतीब आनुवंशिक त्रुटियों से होने के कारण इस रोग के प्रमुख कारणों का अभी तक पता नहीं चला है।

टर्नर सिंड्रोम भी जनन कोशिकाओं के बनने के दौरान होने वाली त्रुटियों के कारण होता है। इसका प्रमुख कारण नान-डिस्जन्कशन (nondisjunction) के कारण होता है।

इस सिंड्रोम का पता भी रक्त परीक्षण और क्रोमोसोम परीक्षणों द्वारा चल सकता है। कुछ लड़कियों के मामलों में यह तब पता चलता चलता है जब इससे प्रभावित लड़की अपने यौवन तक पहुँचने में विफल रहती है।

इस रोग को रोका नहीं जा सकता। इसके इलाज के लिए ग्रोथ हार्मोन (growth hormone) और एस्ट्रोजन का सहारा लिया जाता है। एस्ट्रोजेन रिप्लेसमेंट थेरेपी लड़की के 12-15 वर्ष उम्र के बाद शुरू की जाती है। या इलाज लड़की के रजोनिवृत्ति (menopause) तक किया जा सकता है। इस रोग को रोका नहीं जा सकता, परन्तु उचित देखभाल के साथ टर्नर सिंड्रोम से प्रभावित लडकियां सामान्य जीवन प्रत्याशा के साथ जी सकती हैं।


जिरोडर्मा पिग्मेंटोसम Xeroderma pigmentosum

जिरोडर्मा पिग्मेंटोसम वह दुर्लभ आनुवांशिक विकार है जिसमे त्वचा की कोशिकाएं सूर्य की पराबैंगनी किरणों (ultraviolet) के संपर्क में आने की वजह से हुए नुकसान की मरम्मत करने में सक्षम नहीं होती हैं। इस रोग की सबसे पहले 1874 में ऑस्ट्रिया के दो त्वचा रोग विज्ञानी (dermatologists) फर्डिनेंड वॉन हेब्र (Ferdinand von Hebra) और मोरित्ज़ कापोसी (Moritz Kaposi)  ने व्याख्या की थी। डा. मोरित्ज़ कापोसी ने इस रोग का यह नाम रखा जिसका अर्थ होता है ‘शुष्क फीकी पड़ी हुई त्वचा’। सन 1968 के बाद हमें यह पता चला की इस रोग के लिए जीन म्यूटेशन जिम्मेदार है।

जिरोडर्मा पिग्मेंटोसम में उन 8 जीन में से किसी में उत्परिवर्तन हो जाता है जो त्वचा की कोशिकाएं का सूर्य की पराबैंगनी किरणों (ultraviolet) के संपर्क में आने की वजह से हुए नुकसान की मरम्मत करने में सक्षम होते हैं।

सामान्य अवस्था में सूर्य की पराबैंगनी किरणों के संपर्क में आने के बाद त्वचा की उपरी कोशिकाओं के डीएनए (DNA) को नुकसान पहुँचता है, इस नुकसान को न्यूक्लियोटाइड की कांट-छांट व मरम्मत (nucleotide excision repair) नाम की एक प्रक्रिया द्वारा दूर किया जाता है। इससे प्रभावित व्यक्तियों में जो एंजाइम इस प्रक्रिया के लिये जिम्मेदार होता है वो या तो बनता ही नहीं है, या बहुत ही कम मात्रा में पाया जाता है। इस प्रकार जब DNA की मरम्मत नहीं हो पाती है तो त्वचा की कोशिकाएं मरने लगती हैं, जिससे त्वचा का कैंसर भी हो सकता है। इस रोग से प्रभावित बच्चों में 8 वर्ष के उम्र से ही त्वचा के कैंसर के लक्षण दिखने लगते हैं। सूर्य की पराबैंगनी किरणों से इन व्यक्तियों में आँखों की समस्याएं भी हो जाती हैं।  पलकें छोटी या गायब भी हो सकती हैं। इससे प्रभावित 20-30 प्रतिशत बच्चों या किशोरावस्था में तंत्रिका तंत्र के विकार भी हो जाते हैं। उम्र बढ़ने ये लक्षण और भी बदतर होते जाते हैं।

अलग-अलग देशों में इसकी अलग-अलग आवृत्तियाँ पाई जाती हैं। जापान मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में यह ज्यादा पाया जाता है। जहाँ यह हर 22,000 जन्मों में से एक में होता है। सभी देशों में यह समान रूप से पुरुषों और महिलाओं को प्रभावित करता है। यदि माता-पिता दोनों ही इसके जीन के वाहक होते हैं तो उनके 25 प्रतिशत बच्चों में इस रोग की संभावना होती है।

जीन परीक्षणों द्वारा या अति उच्च विशेष प्रयोगशालाओं में त्वचा की संवेदनशीलता की जाँच की जाती है।

इस रोग का कोई इलाज नहीं है। इसके उपचार के लिए, सूरज से रोगी की रक्षा, आंखों और तंत्रिका तंत्र को प्रभावित लक्षणों के विकास की निगरानी करके की जाती है। इसके लिए कुछ दवाइयां और एक लोशन T4N5 लिपोसोम (T4N5 Liposome) का प्रयोग किया जाता है। शोधकर्ता अभी भी इस रोग को समझने की कोशिश कर रहें हैं।

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