मौलिक अधिकार Fundamental Right
मौलिक अधिकार का अर्थ एवं प्रकृति
लोकतांत्रिक व्यवस्था में मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं, जो किसी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता एवं उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के समुचित एवं बहुमुखी विकास हेतु अनिवार्य हैं, जिन्हें राज्य के विरुद्ध न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त होता है। इन अधिकारों के अभाव में लोकतंत्र मात्र एक कल्पना ही सिद्ध होगा।
वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन एवं उसके सम्पूर्ण विकास हेतु मौलिक एवं अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा अपने नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, मौलिक अधिकार कहलाते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि, व्यक्ति के इन अधिकारों को मौलिक अधिकार क्यों कहा जाता है? तो इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि ये अधिकार व्यक्ति के पूर्ण भौतिक, मानसिक एवं नैतिक विकास हेतु अत्यावश्यक हैं। इनके अभाव में उसके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। इसलिए लोकतंत्रात्मक राज्य में प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के ये मूलभूत अधिकार प्रदान किए जाते हैं। इन अधिकारों को मौलिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन्हें देश की सर्वोच्च विधि अर्थात् संविधान में प्रमुखता से स्थान दिया जाता है और साधारणतः संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया के अतिरिक्त इनमें किसी अन्य प्रकार से परिवर्तन नहीं किया जा सकता और न ही राज्य द्वारा इन अधिकारों का किसी भी रूप में, पूर्णतः अथवा आंशिक, अपहरण ही किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मौलिक अधिकार साधारणतः उल्लंघनीय नहीं होते और संसद, सरकार अथवा बहुमत द्वारा उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। ऐसा होने की स्थिति में पीड़ित व्यक्ति अपने अधिकारों की रक्षार्थ न्यायालय में शरण ले सकता है। व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका द्वारा सभी आवश्यक कदम उठाए जा सकते हैं।
किसी भी लोकतंत्र की सफलता या असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि देश की जनता को आमतौर पर कौन-सी नागरिक स्वतंत्रताएं प्राप्त हैं। नागरिक के व्यक्तित्व का अधिक से अधिक विकास करना लोकतंत्र का उद्देश्य है और व्यक्तित्व के विकास का नागरिक स्वतंत्रता के साथ अन्योन्याश्रय संबंध है। नागरिकों की उन्नति केवल स्वतंत्र समाज में ही होती है। जन-कल्याण की प्रगति भी इसी में निहित है।
प्रत्येक लोकतंत्र राज्य की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अपने नागरिकों को विकास के अधिक से अधिक अवसर प्रदान करता है। प्रायः सभी लोकतंत्र इसी प्रयोजन के लिए मौलिक अधिकारों की एक सूची अपने संविधान द्वारा प्रत्याभूत करके उन्हें कार्यपालिका तथा विधानमण्डल के अतिक्रमण से सुरक्षित रखते हैं।
सिद्धांततः मौलिक अधिकारों का अर्थ है- परिसीमित प्रशासन और परिसीमित प्रशासन का उद्देश्य है- कार्यपालिका और विधानमण्डल की स्वतंत्र अथवा सम्मिलित रूप में तानाशाही की प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाना। जिन संविधानों में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था नहीं होती, वह बहुत जल्दी तानाशाही के साधन बन जाते हैं। अतएव मौलिक अधिकारों का आधारभूत सिद्धांत यह है कि राज्य की शक्ति पर संवैधानिक नियंत्रण के द्वारा व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रताओं की सुरक्षा की जाए।
मौलिक अधिकार लोकतंत्र के अधर स्तम्भ हैं। मौलिक अधिकार इस दृष्टिकोण से भी लोकतंत्र के लिए अनिवार्य हैं कि उनके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के पूर्ण शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास को सुरक्षा प्रदान की जाती है। इनके द्वारा उन आधारभूत स्वतंत्रताओं तथा स्थितियों की व्यवस्था की जाती है, जिनके बिना उचित रूप में नागरिक जीवन व्यतीत नहीं किया जा सकता।
मौलिक अधिकार देश की राजनीतिक प्रणाली में एक दल विशेष की तानाशाही होने से रोकने के लिए अत्यंत आवश्यक है। ये व्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक नियंत्रण के बीच उचित सामंजस्य स्थापित करते हैं। इनके द्वारा एक ओर व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को कानून द्वारा निश्चित सीमाओं में रहने के लिए बाध्य किया जाता है और दूसरी तरफ नागरिकों को शासन के स्वेच्छाचारी संचालन के विरुद्ध जनमत के निर्माण हेतु उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं। इस प्रकार मौलिक अधिकार नागरिकों को न्याय और समुचित व्यवहार की सुरक्षा प्रदान करते हैं और राज्य के बढ़ते हुए हस्तक्षेप तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करते हैं। ये अधिकार मानवीय स्वतंत्रता के मापदण्ड और संरक्षक दोनों ही हैं।
जवाहरलाल नेहरू ने अपने सुप्रसिद्ध उद्देश्य-प्रस्ताव में यह कहा था कि संविधान का लक्ष्य एक ऐसे गणतंत्र की स्थापना का होना चाहिए, जिसमे सभी लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय की व्यवस्था हो। इसी उद्देश्य-प्रस्ताव से संविधान की प्रस्तावना का जन्म हुआ और इसी में मूलभूत अधिकारों का सार निहित है।
भारत में मौलिक अधिकारों की मांग
मौलिक अधिकारों के विचार का सूत्रपात वर्ष 1215 में इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा से हुआ। हालांकि फ्रांस की राज्य क्रांति से विश्व की स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का संदेश मिला। फ्रांस में 1789 के संविधान में मानवीय अधिकारों की घोषणा को शामिल करके व्यक्ति के जीवन के लिए आवश्यक कुछ अधिकारों को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने की प्रथा प्रारंभ की गई। इसके पश्चात् 1791 में अमेरिका के संविधान में संशोधन करके अधिकार पत्र को सम्मिलित किया गया।
भारत में मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूकता भी विश्व के इन देशों द्वारा अधिकारों का घोषणा-पत्र जारी करने के पश्चात् उत्पन्न हुई। वास्तव में ये घोषणा-पत्र ही भारतीय जन-मानस के लिए प्रेरणा स्रोत रहे। सर्वप्रथम भारत में मौलिक अधिकारों की घोषणा के लिए 1895 में मांग की गई। भारत में अंग्रेजी राज्य का स्वरूप पूर्णतः स्वेच्छाचारी था। इस स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति के कारण अंग्रेजी सरकार लोगों पर मुकदमा चलाए, बिना उन्हें नजरबंद कर देती थी। इन अत्याचारों की प्रतिक्रियास्वरूप स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं ने मूल अधिकारों की मांग पर जोर देना प्रारंभ कर दिया था।
मूल अधिकार और संविधान के अन्य उपबंधों द्वारा प्रत्याभूत अधिकारों के बीच अंतर |
भारतीय संविधान के भाग-III में सम्मिलित मूल अधिकारों और अन्य भाग में अंतर्विष्ट मर्यादाओं से उत्पन्न होने वाले ऐसे अधिकारों (न्याय निर्णय के क्षेत्र से बाहर के अधिकारों को छोड़कर उदाहरणार्थ राज्य के नीति-निदेशक तत्व जो भाग-IV में है) के बीच, जो समान रूप से न्यायालय द्वारा प्रवृत्त कराए जा सकते हैं, क्या विभिन्नता है? इन दोनों वर्गों के अधिकार समान रूप से न्यायाधीन हैं, उच्चतम न्यायालय में सीधे आवेदन करके अनुच्छेद 32 के अधीन उपचार पाने का अधिकार भाग-III में मूल अधिकार के रूप में सम्मिलित किया गया है। यह उपचार मूल अधिकार की दशा में ही उपलब्ध होता है। यदि अधिकार संविधान के किसी अन्य उपबंध से प्राप्त होता है, उदाहरण के लिए अनुच्छेद 265 या अनुच्छेद 301,तो व्यथित व्यक्ति सामान्यवाद लाकर या उच्च न्यायालय में अनुच्छेद 226 के अधीन आवेदन देकर अनुतोष प्राप्त कर सकेगा किंतु अनुच्छेद 32 के अधीन आवेदन नहीं हो सकेगा जब तक कि ऐसे अधिकार के अतिक्रमण के कारण मूल अधिकार का उल्लंघन न होता हो।कुछ संविधानों में मूल अधिकार सांविधानिक संशोधन द्वारा परिवर्तित नहीं किए जा सकते। मूल शब्द से यह ध्वनि भी निकलती है। दूसरे अर्थ में संविधान के अन्य उपबंधों की तुलना में उन्हें उच्चतर स्थान प्रदान किया जाता है किंतु संविधान में यह सिद्धांत स्वीकार नहीं किया गया है। संविधान के संशोधनों से और न्यायिक विनिश्चयों से यह निर्वचन प्राप्त होता है।यह ठीक है कि संविधान के किसी भाग को सामान्य विधान द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता जब तक कि स्वयं संविधान में इसके लिए प्राधिकार न दिया गया हो। किंतु संविधान के सभी भाग, मूल अधिकार सहित, अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन अधिनियम पारित करके संशोधित किए जा सकते हैं किंतु आधारिक लक्षणों में संशोधन नहीं हो सकता। |
श्रीमती ऐनी बेसेंट द्वारा 1915 में प्रवर्तित भारतीय संविधान विधेयक या होमरूल में मूल अधिकारों की मांग प्रस्तुत की गई। 1925 में दि कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिया बिल में भी इन अधिकारों की मांग की गई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1927 के मद्रास अधिवेशन में एक संकल्प पास कर निर्धारित किया गया कि भारत के भावी संविधान का आधार मूल अधिकारों की घोषणा होनी चाहिए। 1928 में मोतीलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट में भी मौलिक अधिकारों की मांग की गई। मार्च 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन तथा सितम्बर में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन मेंगांधी जी द्वारा मूल अधिकारों की मांग को दोहराया गया। इसके बावजूद 1934 में संयुक्त संसदीयसमिति ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया और 1935 के भारत सरकार अधिनियम में मूल अधिकारों को शामिल नहीं किया गया।
संविधान के निर्माण के लिए संविधान के गठन की योजना प्रस्तुत करने वाले कैबिनेट मिशन द्वारा सुझाव दिया गया कि मूल अधिकारों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सिफारिश करने के लिए एक समिति का गठन किया जाना चाहिए, इसलिए संविधान सभा ने वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में परामर्श समिति का गठन किया। परामर्श समिति ने 27 फरवरी, 1947 को पांच उप-समितियों की नियुक्ति की जिनमें एक मूल अधिकारों के संबंध में थी। मौलिक अधिकारों से सम्बंधित इस उप-समिति के सदस्य थे- जे.बी. कृपलानी, मीनू मसानी, के.टी. शाह, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर, के.एम. मुंशी, के.एम. पाणिक्कर तथा राजकुमारी अमृत कौर आदि।
परामर्श समिति तथा उप-समिति की सिफारिशों के आधार पर संविधान में मूल अधिकारों को शामिल किया गया।
भारत के संविधान के भाग-III के अंतर्गत अनुच्छेद-12 से 35 तक मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन किया गया है। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में गठित एक समिति द्वारा किया गया था।
मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण
भारतीय संविधान द्वारा अपने नागरिकों को आरम्भ में 7 मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे-
- समानता का अधिकार;
- स्वतंत्रता का अधिकार,
- सम्पत्ति का अधिकार,
- शोषण के विरुद्ध अधिकार;
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार;
- शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार,तथा;
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
किंतु,बाद में 44वें संवैधानिक संशोधन (1978) द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में से निकाल दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि इस अधिकार के कारण देश में व्याप्त जमींदारी प्रथा का उन्मूलन तथा भू-सुधार सम्बन्धी कानूनों का क्रियान्वयन कर पाना सरकार के लिए सम्भव नहीं हो पा रहा था। वर्तमान समय में सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार के रूप में है। गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 300A में इसे स्थान दिया गया है। इस प्रकार भारतीय नागरिकों को अब निम्नलिखित छह मौलिक अधिकार ही प्राप्त हैं:
- समानता का अधिकार,
- स्वतंत्रता का अधिकार,
- शोषण के विरुद्ध अधिकार,
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार,
- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार, तथा;
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
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समानता का अधिकार
समानता का अभिप्राय यह है की प्रत्येक व्यक्ति को राजनितिक समानता, नागरिक समानता, सामाजिक समानता और आर्थिक समानता सुलभ हो। संविधान के पांच अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 और 18 समानता के अधिकार की व्याख्या करते हैं, जो निम्नलिखित है-
विधि के समक्ष समता
अनुच्छेद-14 के अनुसार- राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति की विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
प्रथम दृष्ट्या विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण अभिव्यक्तियां समरूप जान पड़ती हैं किंतु वास्तव में इनका अर्थ भिन्न है। विधि के समक्ष समानता एक नकारात्मक संकल्पना है, जिसमें यह विवक्षा है कि किसी भी व्यक्ति को कोई विशेष अधिकार नहीं होंगे और सभी वर्ग समान रूप से सामान्य विधि के अधीन होंगे। विधियों का समान संरक्षण अपेक्षाकृत अधिक सकारात्मक संकल्पना है। इसमें यह विवक्षा है कि समान परिस्थितियों में समता का व्यवहार किया जाएगा।
विधि के समक्ष समता के विरुद्ध भारत के संविधान में निम्नलिखित अपवाद स्वीकार किए गए हैं-
- राष्ट्रपति या राज्य का राज्यपाल अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिए या उन शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने द्वारा किए गए या किए जाने के लिए तात्पर्यित किसी कार्य के लिए न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा।
- राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में किसी भी प्रकार की दाण्डिक कार्यवाही संस्थित नहीं की जाएगी या चालू नहीं रखी जाएगी।
- राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल के रूप में अपना पद ग्रहण करने से पहले या उसके पश्चात् उसके द्वारा अपनी वैयक्तिक हैसियत से किए गए या किए जाने के लिए तात्पर्यित किसी कार्य के संबंध में कोई सिविल कार्यवाहियां, जिनमें राष्ट्रपति या ऐसे राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध अनुतोष का दावा किया जाता है, उसकी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में तब तक संस्थित नहीं की जाएगी जब तक कार्यवाहियों की प्रकृति, उनके लिए वाद हेतु ऐसी किसी कार्यवाहियों को संस्थित करने वाले पक्षकार का नाम, वर्णन, निवास-स्थान, और उस अनुतोष का जिसका वह दावा करता है, कथन करने वाली लिखित सुचना यथास्थिति, राष्ट्रपति या राज्यपाल को परिदत्त किए जाने या उसके कार्यालय में छोड़े जाने के पश्चात् दो मास का समय समाप्त नहीं हो गया है। (अनच्छेद-361) उपरोक्त उन्मुक्तियों से, (a) राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग की कार्यवाहियां, (b) भारत सरकार या राज्य सरकार के विरुद्ध वाद या अन्य समुचित कार्यवाहियां वर्जित नहीं होती।
विधि के समान संरक्षण से अर्थ है- समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा। दूसरे शब्दों में, विधि द्वारा अधिरोपित दायित्वों के संबंध में समान परिस्थितियों में समान व्यवहार का अधिकार है। किसी का भी पक्ष नहीं लिया जाना चाहिए जिसमें भिन्न व्यवहार करने के लिए युक्तियुक्त औचित्य न हो। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति पर समान रूप से कर लगाया जाएगा किंतु यह अर्थ है कि समान व्यक्तियों पर समान मानक से कर लगाया जाएगा।
यदि वर्गीकरण के लिए युक्तियुक्त आधार है तो विधानमंडल को विधानमंडल
- कुछ वर्गों की सम्पत्ति को कराधान से बिल्कुल छूट दे सकता है, जैसे-पूर्व कार्य पुस्तकालय आदि;
- विभिन्न व्यापार और व्यवसाय करने वालों पर भिन्न-भिन्न विनिर्दिष्ट कर लगा सकता है,
- स्थावर और जंगम सम्पत्ति पर भिन्न रीति से कर लगा सकता है।
इस प्रकार समान संरक्षण की प्रत्याभूति समान परिस्थितियों में समान व्यवहार की प्रत्याभूति है। विभिन्न परिस्थितियों में विभेद करने की अनुज्ञा है।
भेदमाव का निषेध
अनुच्छेद 15 (1) में राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म,मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
(2) कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर-
(क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या
(ख) पूर्णतः या भागतः राज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, के बारे में किसी भी निर्योग्यता दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा।
(3) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य की महिलाओं और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
(4) इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड-2 की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। है।
यह स्पष्ट हो जाता है की इस अनुच्छेद का विषय बहुत विस्तृत है। खंड-1 में शब्द केवल का प्रयोग अर्थपूर्ण है। इनमें से किसी एक या अधिक आधारों पर तथा अन्य आधार या आधारों पर आधारित विभेद इस अनुच्छेद के द्वारा प्रभावित नहीं होगा और न ही निवास पर आधारित विभेद अवैध होगा।
खंड-2 में इस प्रतिषेध की विशेष रूप से लागू करने का उपबंध किया गया है। स्पष्ट है कि प्रतिषेध राज्य एवं साधारण जनता दोनों की कार्यवाहियों पर लागू होता है।
खंड-8 तथा खंड-4 में विभेद न करने के सामान्य सिद्धांतों के अपवाद अंतर्निहित हैं। ये राज्य को क्रमशः स्त्रियों तथा बच्चों के लिए और सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के कुछ वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देते हैं। समाज के इन वगों के संरक्षण के लिए कतिपय कानूनों की विधिमान्यता के संबंध में उच्चतम न्यायालय की उद्घोषणाएं इन अपवादों की जरूरत तथा औचित्य को प्रचुर रूप में प्रमाणित करती हैं। किंतु इन विशेष उपबंधों के बावजूद, यह निर्णय दिया गया है कि अनुच्छेद 14 के अधीन सामान्य प्रतिषेध ऐसे मामलों में भी लागू होगा; राज्य जो भी विशेष प्रावधान करे, वे मनमाने या अनुचित नहीं होने चाहिए।
खंड-4 ने जो सबसे बड़ी समस्या पैदा की, वह इस बात के निर्धारण के संबंध में हैं कि कौन व्यक्ति सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग हैं। इसका निर्धारण करने के लिए उचित मानदंड तैयार करने में स्वभावतया अनेक कारक अपनी भूमिका निभाएंगे। जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि अमुक वर्ग पिछड़ा है या नहीं, व्यक्ति की जाति एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती। चित्रलेखा बनाम मैसूर के मामले में उसने निर्णय दिया कि हालाँकि जाती किसी वर्ग के पिचादेपन का सुनिश्चय करने के लिए एक प्रासंगिक कारण है किन्तु ऐसी कोई बात बहिन है जो सम्बंधित प्राधिकारी को नागरिकों के किसी वर्ग के विशेष पिछड़ेपन का निर्धारण करने से रोकती हो, बशर्ते वह जाति के हवाले के बिना ऐसा कर सकता हो। एक और मामले में उच्चतम न्यायालय में निर्णय दिया कि पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए जाति तथा निर्धनता दोनों ही प्रासंगिक है। किंतु न तो केवल जाति और न ही केवल निर्धनता निर्धारण की कसौटी होगी।
लोक नियोजन में अवसर की समानता
राज्य द्वारा केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा। इस साधारण आश्वासन के उप-सिद्धांत के रूप में संविधान ने लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता की प्रत्याभूति दी है। अनुच्छेद 16 यह कहता है किः
- राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन से सम्बंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी।
- कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म-स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में अपात्र नहीं होगा या उससे विभेद नहीं किया जाएगा।
राज्य की सेवा से किसी व्यक्ति को केवल इस आधार पर अपवर्जित नहीं किया जा सकता कि वह ब्राह्मण है। यद्यपि विभिन्न जातियों में अनुपात या कोटे के अनुसार पदों के वितरण के कारण यह होता है। उल्लेखनीय है कि राज्य की यह समता न केवल लोक सेवाओं में नियुक्ति के विषय में देखनी होगी बल्कि अन्य लोकनियोजन में भी इसका ध्यान रखना होगा जहां राज्य और कर्मचारी के बीच स्थायी और सेवक का संबंध है। विभेद का प्रतिषेध प्रारंभिक नियुक्ति के विषय में भी हैं और प्रोन्नति तथा सेवा के पर्यवसान के विषय में भी।
मंडल आयोग प्रकरण |
इंदिरा श्वाने प्रकरण में, जिसे मंडल आयोग प्रकरण के तौर पर भी माना जाता है, उच्चतम न्यायालय ने सरकारी सेवाओं में आरक्षण के मुद्दे पर कुछ महत्वपूर्ण विधि संबंधी बिंदु रखे-
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- संसद कानून बनाकर किसी राज्य या स्थानीय प्राधिकारी के अधीन आने वाले किसी वर्ग या वर्गों के पद पर नियोजन या नियुक्ति के संबंध में निवास विषयक प्रावधान कर सकती है। इस प्रकार के प्रावधान के लिए संसद ने लोक नियोजन अधिनियम, 1957 पारित करके सरकार को यह शक्ति दी थी कि वह आंध्र प्रदेश राज्य, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर तथा त्रिपुरा संघ राज्य क्षेत्र में कुछ पदों तथा सेवाओं के सम्बन्ध में निवास स्थान संबंधी अर्हता निहित कर सकती है। लेकिन 1974 में इसे समाप्त कर दिया गया। केवल आंध्र प्रदेश के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 371-घ में विशेष प्रावधान किया गया है।
- राज्य पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण का प्रावधान कर सकता है। आरक्षण, विशेष कारणों के सिवाय, 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
(4क) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य की अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, राज्य के अधीन सेवाओं में किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
इस संशोधन का प्रभाव यह है-
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण किया जा सकता है।
- राज्य आरक्षण के लिए उपबंध कर सकेगा अर्थात् राज्य यह निर्धारित करेगा कि आरक्षण कितना और कैसा होगा।
- राज्य को आरक्षण करने के पहले यह राय बनानी होगी कि ऐसी जाति या जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि प्रोन्नति में आरक्षण एक अनिष्टकर बात है क्योंकि जो कर्मचारी एक ही प्रवर्ग और ज्येष्ठता के हैं वे अपने सहकर्मियों द्वारा अतिष्ठित कर दिए जाते हैं। जबकि उन सहकर्मियों के दावे का एकमात्र आधार जाति है गुणागुण नहीं। इसके कारण असंतोष और कटुता का जन्म होता है। सरकार ने यह अधिनियम राजनीतिक कारणों से बनाया है। इसके पीछे व्यापक राष्ट्रीय विचार नहीं है।
(4ख) इस नए खंड में यह उपबंध किया गया है कि किसी वर्ष में रिक्त स्थानों की कुल संख्या की 50 प्रतिशत की सीमा का अवधारण करने के लिए जिस वर्ष में रिक्त स्थान भरे जा रहे हैं उस वर्ष की रिक्तियों में वे रिक्तियां नहीं जोड़ी जाएंगी जो विगत् वर्षों में भरी नहीं गई हैं।
दरअसल 81वें संशोधन से खंड (4ख) अंतःस्थापित करके मंडल वाले मामले में न्यायालय द्वारा घोषित इस नियम को अकृत किया गया कि आरक्षित प्रवर्ग के लिए जो रिक्त स्थान बकाया हैं और जो किसी कारण से किसी पूर्ववर्ती वर्ष में भरे नहीं जा सके हैं उन पर भी 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा लागू होगी।
इस संशोधन का परिणाम यह है कि अग्रेषित किए गए रिक्त स्थान सदैव किसी विशिष्ट वर्ष में आने वाले रिक्त स्थान से अलग रहेंगे।। 50 प्रतिशत के कोटे से अधिक आरक्षण हो गया है या नहीं यह पता करने के लिए इन दोनों को जोड़ा नहीं जाएगा।
संविधान (85वां संशोधन) अधिनियम, 2001 द्वारा अनुच्छेद 16 के खंड (4क) में कुछ शब्द डाले गए। इसका उद्देश्य उच्चतम न्यायालय ने वीरपाल सिंह चौहान और अजित सिंह मामले में जो विधि घोषित की थी उसे निष्प्रभावी करना था। उच्चतम न्यायालय ने यह कहा था कि अनुसूचित जाति और जनजाति के जिन सरकारी सेवकों की प्रोन्नति हो जाती है उन्हें प्रोन्नति के परिणामस्वरूप ज्येष्ठता का लाभ नहीं मिलेगा। 85वें संशोधन द्वारा न्यायालय द्वारा घोषित विधि को उलटते हुए यह अधिनियमित किया गया है कि ऐसे सरकारी सेवकों को प्रोन्नति के बाद पारिणामिक ज्येष्ठता का लाभ मिलेगा। यह संशोधन भूतलक्षी प्रभाव से 17 जून, 1995 से लागू किया गया है।
इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी जो यह उपबंध करती है कि किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था के कार्यकलाप से संबंधित कोई पदधारी या उसके शासी निकाय का कोई सदस्य किसी विशिष्ट धर्म का मानने वाला या विशिष्ट संप्रदाय का ही हो।
आरक्षण
आरक्षण शब्द ने वर्तमान में विकृत रूप ग्रहण कर लिया है। आरक्षण शब्द का अर्थ है- सुरक्षा प्रदान करना। वर्तमान संदर्भ में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से कुछ जाति विशेष की शिक्षा एवं सरकारी सेवाओं में सुविधाएं प्रदान करना आरक्षण है। भारतीय संविधान ने सम्पूर्ण भारतीयों को एकसमान अधिकार प्रदान कर विकास के समान अवसर प्रदान करने की व्यवस्था के लिए अनुच्छेद 14 में यह उपबंध किया कि- भारत संघ के किसी क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के साथ राज्य (सरकार) जाति, धर्म, मूलवंश, जन्मस्थान, भाषा, लिंग आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा। अनुच्छेद 17 के उपबंध द्वारा अस्पृश्यता का अंत किया गया। अनुच्छेद 18 के उपबंध द्वारा उन सभी उपाधियों का अंत कर दिया गया, जो समाज में विभेद को स्थापित करती थीं। संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 23 में यह व्यवस्था दी कि मानव के साथ दुव्यापार तथा बलात् श्रम करना अपराध है। ये सारी व्यवस्थाएं सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए दी गयीं।
संवैधानिक स्थिति: स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत में उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच एक गहरी खाई बन गयी थी। उस खाई को पाटने के लिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में आरक्षण के लिए स्पष्ट रूप से उपबंध किए। अनुच्छेद 16(4) में यह स्पष्ट उद्धृत है कि यदि सरकार को लगे कि सरकारी सेवाओं में पिछड़ों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो वह आरक्षण का प्रावधान कर सकती है। यह आरक्षण शैक्षिक एवं सामाजिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को सरकारी सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की स्थिति में ही प्रदान किया जा सकता है। संविधान के उपबंधों के तहत केंद्रीय और राज्य विधानमंडल में भी जनसंख्या के आधार पर सीटें आरक्षित की गई हैं। संविधान के अनुच्छेद 330, 331, 332, 333 और अनुच्छेद 336 में ऐसा उपबंध है।
संविधान के 93वें संशोधन अधिनियम (2006) द्वारा निजी एवं बिना सरकारी अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। 94वें संविधान संशोधन (2006) द्वारा मध्य प्रदेश, उड़ीसा साथ-साथ छत्तीसगढ़ एवं झारखण्ड को सम्मिलित किया गया है। इन राज्यों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कल्याण के लिए एक मंत्री का प्रावधान किया गया है।
संविधान के 95वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, द्वारा लोक सभाओं एवं राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के चुनावी सीटों का आरक्षण एवं आंग्ल भारतीयों के मनोनयन की व्यवस्था को 26 जनवरी, 2010 से आगामी दस वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है।
भारतीय संविधान में मूल रूप से आरक्षण की अवधि 10 वर्षों के लिए निर्धारित की गयी थी। इससे पूर्व इसकी अवधि 10-10 वर्ष के लिए 8वें, 28वें, 62वें एवं 79वें संविधान संशोधन द्वारा बढ़ाई जाती है।
सार्वजनिक पदों में अनुसूचित जातियों के लिए 1943 में 8 प्रतिशत कोटा रखा गया था। आजादी के बाद संवैधानिक रूप से प्रारम्भ में 10 वर्षों के लिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए क्रमशः 15 प्रतिशत एवं 7. 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। वी.पी. सिंह सरकार द्वारा मण्डल आयोग लागू करके आरक्षण नीति का अंतहीन सिलसिला प्रारंभ कर दिया गया जो सुरक्षा के मुंह की तरह बढ़ता ही जा रहा है।
आरक्षण क्यों?: भारतीय संविधान ने जब यह व्यवस्था दी है कि भारत का कोई भी नागरिक किसी भी तरह से भेदभावपूर्ण दृष्टि से नहीं देखा जाएगा, तब फिर आरक्षण की आवश्यकता क्या है और इसका औचित्य क्या है? आरक्षण का औचित्य जानने के लिए व्यापक चिन्तन की आवश्यकता है। यह देखना आवश्यक है कि महात्मा गांधी, अम्बेडकर और नेहरू सदृश राजनीतिज्ञों ने आरक्षण की आवश्यकता क्यों महसूस की? वे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय समाज की स्थिति देख चुके थे और अपनी दूरदृष्टि से भविष्य की भी अच्छी सोच रखते थे। उन्होंने आरक्षण की व्यवस्था का पक्ष न केवल इसलिए लिया कि इससे पिछड़े वर्गों की उन्नति संभव हो सकेगी, अपितु इससे पिचादे वर्गों, शोषितों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों आदि का सामाजिक उत्थान भी हो सकेगा और सामाजिक न्याय की स्थापना हो सकेगी। यदि केवल आर्थिक दृष्टि से उन्नत बनाना आरक्षण का उद्देश्य होता तो अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लोग आज आर्थिक दृष्टि से पिछड़े नहीं होते। आरक्षण से लाभ पाकर जब कोई भी व्यक्ति उच्च पद धारण करता है, तब उसे शोषित, दलित या पिछड़ा नहीं समझा जाता है। उसके पास काम के लिए तथाकथित जन्मजात बड़ी जाति के लोग जब किसी काम से आते हैं, तो वे उसे शोषित या पिछड़ा नहीं समझते, बल्कि एक अधिकारी समझकर उसका सम्मान करते हैं। आरक्षण के विरोध में जो आंदोलन पूर्व में चलाए गए हैं, उसके मद्देनजर सरकार यदि आरक्षण वापस ले लेती, तो सामाजिक विषमता बढ़ती और समाज का एक वर्ग शक्तिशाली हाथी बन जाता, तो दूसरा वर्ग कमजोर चींटी। इसलिए, संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी।
आरक्षण का लाभ किन-किन लोगों को मिले, इसकी पहचान करने के लिए समय-समय पर केंद्र और राज्य-स्तर पर अनेक आयोगों का गठन किया गया है। राज्य सरकारों द्वारा जिन आयोगों का गठन किया गया है, उनमें सर्वप्रमुख स्थान गुजरात के राणे आयोग का है। केंद्र स्तर पर गठित आयोग में 1958 में गठित काका कालेलकर आयोग और 1978 में गठित मण्डल आयोग प्रमुख हैं। 30 जनवरी, 1953 को गठित कालेलकर आयोग ने 30 मार्च, 1955 को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया और उसमें यह सिफारिश की, कि उसके द्वारा चुनी गई विभिन्न जातियों को (2399) सरकारी सेवाओं में आरक्षण की व्यवस्था की जाए। 20 दिसम्बर, 1978 की गठित मण्डल आयोग (बी.पी. मण्डल) ने मई, 1980 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इस आयोग ने जांच के दौरान 3473 ऐसी जातियों की पहचान की, जिन्हें विशेष सुविधा प्रदान किए जाने की आवश्यकता थी। मण्डल आयोग ने ऐसी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की सिफारिश की। मण्डल आयोग ने जो सिफारिशें की थीं, उनको लागू करने से प्रशासन में विसंगतियां उत्पन्न हो जाएंगी और देश में अस्थिरता उत्पन्न हो जाएगी, ऐसा भय पालते हुए पूरे एक दशक तक किसी भी सरकार की यह हिम्मत नहीं हुई कि वह इन सिफारिशों को लागू कर सके। जनता दल के नेता व भारत के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 13 अगस्त, 1990 की मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की। परन्तु, उनकी इस घोषणा का राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक विरोध हुआ तथा सम्पूर्ण देश में हिंसा का वातावरण बन गया।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने वर्ष 2008 में एक मामले में दलित शब्द के प्रयोग को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। क्योंकि इससे सामंती मानसिकता अभिव्यक्त होती है। छत्तीसगढ़ सरकार ने कानून बनाकर इसे अपराध घोषित कर प्रतिबंधित कर दिया है। दलित के स्थान पर अनुसूचित जाति शब्द का प्रयोग व्यावहारिक एवं उचित है।
आरक्षण और उच्चतम न्यायालय: आरक्षण के मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्णय महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आरक्षण के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की 9 सदस्यीय खण्डपीठ ने जो ऐतिहासिक निर्णय दिए, वे हैं- संविधान के अनुच्छेद 16(4) के उपबंधों के तहत सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों को ही आरक्षण दिया जाना चाहिए। आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए और यदि आरक्षण की इस सीमा का उल्लंघन किया जाता है, तो उसका कारण निर्दिष्ट करना अनिवार्य होगा, पदोन्नति के मामले में आरक्षण की व्यवस्था नहीं की जा सकती, आरक्षण की व्यवस्था सरकारी अधिसूचना से ही की जा सकती है, उसके लिए व्यवस्थापिका में कानून बनाने की कोई जरूरत नहीं, तकनीकी, चिकित्सीय, वैज्ञानिकी, अभियांत्रिकी तथा अनुसंधान से संबद्ध पदों के लिए आरक्षण नहीं होना चाहिए, सामाजिक तथा आर्थिक पिछड़ेपन को आधार बनाकर अल्पसंख्यकों को आरक्षण दिया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में क्रीमी लेयर अर्थात् सम्पन्न वर्ग का उल्लेख करते हुए कहा कि आरक्षण लागू करते समय सरकार की अनिवार्य रूप से इस वर्ग से संबद्ध लोगों को अलग रखना होगा। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का पालन करना सरकार के लिए वर्तमान में मुश्किल प्रतीत होता है।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
- मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराय रंजन, 1951, उच्चतम न्यायालय-जाति आधारित आरक्षण को कम्यूनल अवार्ड के संदर्भ में अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन मानते हुए असंवैधानिक माना।
- एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर, 1963, सुप्रीम कोर्ट-आरक्षण की सीमा की 50 प्रतिशत पर रोका गया।
- अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ (रेलवे) बनाम भारत संघ, 1981, सुप्रीम कोर्ट-अनुच्छेद 16(4) के तहत् भर्तियों में आरक्षण के अंतर्गत पदोन्नति में आरक्षण भी शामिल है। पदोन्नति में आरक्षण संवैधानिक है।
- इन्दिरा साहनी बनाम भारत संघ, 1993, उच्चतम न्यायालय-पदोन्नति में आरक्षण असंवैधानिक है।
- एम. नागराज बनाम भारत संघ, 2007, उच्चतम न्यायालय- पदोन्नति में आरक्षण देने से पूर्व तीन शर्तों को पूरा किया जाना अनिवार्य है-
- पिछड़ेपन के प्रामाणिक आंकड़े,
- अपर्याप्त प्रतिनिधित्व एवं
- प्रशासनिक दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ता हो।
- यू.पी. पॉवर कॉर्प लि. बनाम राजेश कुमार, उच्चतम न्यायालय (27 अप्रैल, 2012)- पदोन्नति में आरक्षण संबंधी उत्तर प्रदेश सरकार के निर्णय की असंवैधानिक घोषित किया।
क्रीमी लेयर: उच्चतम न्यायालय ने 8 सितंबर, 1998 को आरक्षण के संबंध में अपना निर्णय सुनाते हुए पिछड़े वर्ग के संदर्भ में मलाईदार परत की व्याख्या की। न्यायालय ने कहा था कि आरक्षण का लाभ सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से अत्यन्त पिछड़े वर्ग के लोगों को ही मिलना चाहिए एवं पिछड़ों में जो आर्थिक दृष्टि से संपन्न हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने न्यायाधीश प्रसाद की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया और उसे क्रीमी लेयर के अंतर्गत आने वाले विभिन्न लोगों की पहचान करने का कार्य सौंपा। प्रसाद आयोग ने जांच के बाद अपना जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया, उसके अनुसार उन व्यक्तियों के बच्चों की आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा, जिनमें राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, संघ अथवा राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अथवा सदस्य, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, केन्द्रीय अथवा लोक सेवा की श्रेणी ए तथा श्रेणी बी के अधिकारी, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, बैंकों, में कर्नल के समकक्ष या उससे उच्च पद धारण करने वाले व्यक्ति हैं।
साथ ही उन चिकित्सकों, अधिवक्ताओं, चार्टर्ड एकाउण्टेण्टों, आयकर सलाहकारों, कम्पुटर विशेषज्ञों, वास्तुविदों, फिल्म कलाकारों, लेखकों, खिलाडियों अथवा खेल व्यवसायियों, जिनकी आय 4.5 लाख रुपए वार्षिक या उससे अधिक है, के परिवार के सदस्यों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता।
उल्लेखनीय है कि सरकार ने अक्टूबर 2008 से क्रीमी लेयर की वार्षिक आय सीमा 2.5 से 4.5 लाख कर दी है। वर्तमान में 4.5 लाख या इससे अधिक की वार्षिक आय के पिछड़े वर्ग की आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। महत्वपूर्ण है कि अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आय सीमा का निर्धारण पहली बार वर्ष 1998 में 1 लाख रखी गई। तत्पश्चात 2004 में यह बढ़ाकर 2. 5 लाख की गई तथा वर्ष 2008 में यह 4.5 लाख वार्षिक कर दी गई है।
सरकार ने 16 मई, 2013 को सरकारी नौकरियों और केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण का लाभ उठाने के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए क्रीमीलेयर के मापदण्ड को साढ़े चार लाख रुपए से बढ़ाकर छह लाख रुपए कर दिया है।
आय सीमा में यह वृद्धि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में वृद्धि के अनुरूप है और इससे अन्य पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले आरक्षण के फायदों का लाभ अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकेगा। इससे अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिक से अधिक लोग सरकारी सेवाओं और केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में मिल रही आरक्षण सुविधा का फायदा उठा सकेंगे।
धर्म आघारित अल्पसंख्यक आरक्षित कोटा: सच्चर कमेटी की सिफारिशों के आधार पर भारत सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण के अंतर्गत 4.5 प्रतिशत कोटा धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित घोषित किया (22 दिसम्बर, 2011), लेकिन माननीय आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया है। न्यायालय ने धर्म के आधार पर आरक्षण को असंवैधानिक माना है। तमिलनाडु राज्य में 3.5 प्रतिशत मुस्लिम तथा 3.5 प्रतिशत ईसाई अल्पसंख्यको का आरक्षण का प्रावधान किया। गया है। तमिलनाडु में कुल 69 प्रतिशत आरक्षण है जिसे संविधान की नौवीं अनुसूची द्वारा संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार केरल लोक सेवा आयोग द्वारा मुस्लिमों को 12 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है। आंध्र प्रदेश में भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों को 4 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। पश्चिम बंगाल में भी मुस्लिमों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
आरक्षण की सीमा और अवधि: आरक्षण के संबंध में आरंभ से ही यह विवाद का विषय रहा है कि आखिर आरक्षण की सीमा क्या हो? आरक्षण को लेकर गठित दो प्रमुख आयोगों- काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग ने जो सिफारिशें प्रस्तुत कीं उनके आधार पर आरक्षण की 49 प्रतिशत की अधिकतम सीमा निर्धारित है क्योंकि 1955 में कालेलकर आयोग ने सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के लिए 25 प्रतिशत से 40 प्रतिशत तक आरक्षण की व्यवस्था की सिफारिश की थी। 1980 में बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता वाले मंडल आयोग ने जो सिफारिशें प्रस्तुत कीं, उसमें 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था थी। भारतीय संविधान आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित करता है। वर्ष 1990 में आरक्षण के संबंध में निर्णय सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ायी जा सकती है, किन्तु विशेष परिस्थितियों में। भारत के कुछ राज्यों में 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा का उल्लंघन किया जा चुका है। ऐसे राज्य हैं- तमिलनाडु और कर्नाटक। तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण को सांविधानिक मान्यता मिल चुकी है और कर्नाटक में 73 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव विधान सभा द्वारा पारित कर दिया गया है।
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों, सरकारी कर्मचारियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए सरकार द्वारा 117वें संविधान संशोधन विधेयक, 2012 को राज्यसभा में 5 सितंबर, 2012 को पेश करने के साथ ही देशभर में आरक्षण विषय सुर्खियों में आ गया। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने इस आरक्षण का प्रावधान किया था जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। उच्चतम न्यायालय ने भी अप्रैल 2012 में इस प्रकार के आरक्षण को रद्द कर उच्च न्यायालय का समर्थन किया था। सरकार बिना तर्क-विमर्श, आकलन एवं परिणामों की परवाह किए बगैर राजनीतिक तुष्टिकरण के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध पदोन्नति में आरक्षण हेतु संशोधन लायी है। यह दुभाग्यपूर्ण स्थिति है।
भारत में दलित-दमित एवं निर्धन लोगों का भाग्य वर्षों से आरक्षण की त्रासदी के अनगिनत विवादों के घेरे में बना हुआ है। आरक्षण का विवाद अंतहीन है। सामाजिक शिल्प एवं सामाजिक अभियांत्रिकी की यह योजना स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की परिस्थितियों में सर्वथा उचित थी, लेकिन कालांतर में वोट बैंक की राजनीति एवं दलगत राजनीतिक विसंगतियों ने संविधान और उसकी आत्मा की निरंतर उपेक्षा की।
संरक्षणमूलक भेदभाव पर आधारित आरक्षण व्यवस्था वंचितों की मुख्य धारा में लाने का एक उपचार है। लेकिन कोई भी उपचार अनंतकाल तक नहीं चल सकता। आरक्षण से लाभान्वित होते ही उन्हें इससे दूर कर देना चाहिए, जिससे औरों को भी लाभान्वित होने का अवसर मिल सके। क्या मुट्टीभर लोग ही इसके हकदार हैं? और क्या वे पीढ़ी दर पीढ़ी भर्ती- पदोन्नति व अनंत तक इसका लाभ लेते रहेंगे? यह लाइलाज नहीं है। दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति द्वारा इसका समाधान सम्भव है। आरक्षण नीति का पुनर्विलोकन किया जा सकता है या फिर एक परिवार- एक फायदा संबंधी कोई नियम बनाकर आरक्षण के मूल उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है।
यदि सचमुच हम पिछड़ों- वंचितों – दलितों – अल्पसंख्यकों की मदद करना चाहते हैं, तो उन्हें जाति और मजहब की बेड़ियों में फिर से क्यों जकड़ रहे हैं? अच्छा होता यदि हम जाति आधारित आरक्षण जैसे मुद्दों पर पुनर्विचार करते, लेकिन इसकी बजाय हम उल्टे आरक्षण के गहरे और नए दल-दल में फंसते चले जा रहे हैं।
महिला आरक्षण: महिलाओं को आरक्षण देने की बात सबसे पहले हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने उठायी थी, परन्तु अचानक उनकी मृत्यु हो जाने से महिला आरक्षण की बात वहीं-की-वहीं रह गयी। उसके बाद विभिन्न दलों की सरकारें बनीं और समय-समय पर महिला आरक्षण को संसद में पेश करने की कोशिश की गयी। तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा ने सन् 1996 में अपने कार्यकाल में इसे लोकसभा में पेश किया और ऐतिहासिक उपलब्धि बताते हुए एक ही रात में बहस कर उसे पास कर देने की घोषणा कर दी। उस समय भाजपा की उमा भारती ने नये विवाद को जन्म दिया कि इस विधेयक में पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण सुनिश्चित कर दिया जाए। उनके इस विवाद का सभी दलों ने साथ दिया, फिर इस विधेयक को सदन की प्रवर समिति के सुपुर्द कर दिया गया। इस प्रवर समिति ने संसद के दोनों सदनों में अपना प्रतिवेदन 9 दिसम्बर, 1996 को प्रस्तुत किया। समिति इस बात से पूर्णतः सहमत थी कि महिलाओं की लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में एक-तिहाई आरक्षण मिले, उसमें समिति ने मूल विधेयक के लिए आरक्षित सीटें 1/3 से कम नहीं के स्थान पर 1/3 के निकटतम कर दिया जाए। समिति ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया कि पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए प्रस्तावित कुल 33 प्रतिशत में से ही आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाए। समिति ने सिफारिश की कि इसके लिए सरकार अन्य पिछड़े वर्गों को भी आरक्षण देने पर विचार करे ताकि उन वगों की महिलाओं की भी इस आरक्षण का लाभ मिल सके।
महिला आरक्षण का सफर |
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इस रिपोर्ट को तत्कालीन प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल ने स्वयं सदन में पेश करना चाहा, लेकिन उन्हीं की पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव ने उन्हें बोलने से रोक दिया। अंततः उस समय भी यह विधेयक ठंडे बस्ते में चला गया। चुनाव के पूर्व भाजपा ने 33 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने का वादा किया था। कांग्रेस पार्टी ने, चूंकि विधेयक की कल्पना स्व. राजीव गांधी ने की है इसलिए इसे पास कराने में पूरा सहयोग करने का वचन दिया, किन्तु व्यक्तिगत बात करने पर किसी भी दल का सदस्य इसे पारित करने का पुरजोर विरोधी है।
शाहबानो प्रकरण में स्व. राजीव गांधी पर महिला हितों के विरुद्ध काम करने का आरोप लगा था, उसकी भरपाई के लिए उन्होंने महिला आरक्षण का समर्थन करने का फैसला किया था। उसके बाद ही स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा देने की बात चल पड़ी और 1992 में 73वां तथा 74वां संविधान संशोधन विधेयक पास हो गया। उसके आधार पर विभिन्न राज्यों में कानून बनाने के समय महिलाओं को प्रतिनिधित्व में स्थान आरक्षित किये गये और उसमें पिछड़े वर्ग की महिलाओं को (उनकी जनसंख्या के अनुपात में) और दलित वर्ग की महिलाओं को स्थान मिला, अल्पसंख्यकों को इसलिए आरक्षण नहीं दिया जा सका, क्योंकि उसकी कोई संवैधानिक व्यवस्था ही नहीं थी।
इसके पश्चात् भाजपा सरकार द्वारा इस बिल को जब संसद में पेश किया गया, तो कुछ भिन्न और विचित्र स्वरूप ही देखने को मिला। महिला आरक्षण विधेयक के विरोधियों ने लोकसभा में इस विधेयक को पेश तो नहीं ही होने दिया, बल्कि उन्होंने इसके विरोध में कुछ ऐसा रुख अपनाया, जिससे संसद की गरिमा धूमिल हुई। वर्ष 1999 में जब कानून मंत्री रामजेठमलानी ने महिला आरक्षण विधेयक की लोकसभा में पेश करने की कोशिश की ती उनके हाथ से पेपर छीन लिए गए। लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का मामला पुनः राजनीतिक दलों के मध्य तीव्र मतभेद के कारण एक बार फिर टल गया। इस बार आरक्षण विधेयक की टालने में प्रमुख भूमिका निभायी- सपा और राजद के अध्यक्ष क्रमशः मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने। ये नेता पहले वर्तमान प्रारूप में ही इस विधेयक को समर्थन दे रहे थे, जब इनकी मिली-जुली सरकार सत्ता पर काबिज थी, परन्तु बाद में इन्होंने यह शर्त रखी कि तब तक महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं होने दिया जाएगा, जब तक कि 33 प्रतिशत आरक्षण का एक-तिहाई भाग अल्पसंख्यक, दलित, और पिचादों के लिए आरक्षित नहीं हो जाता। यानी आरक्षण में आरक्षण की मांग इनकी वर्तमान नीति है और इस पुरुष सत्तात्मक देश में इसके विरोध के लिए कल कुछ और मांग उठायी जा सकती है, फर्क सिर्फ इतना ही होगा कि उसका स्वरूप इससे कुछ भिन्न होगा।
वर्ष 2005 में केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने एक बार फिर संसद एवं विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों के आरक्षण से सम्बन्धित महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत किया। इसमें अन्य प्रावधान तो पूर्ववर्ती थे, किंतु सरकार ने विधानमण्डलों की वर्तमान सीटों की संख्या में एक-तिहाई वृद्धि का एक नया प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। किंतु, इस प्रस्ताव पर भी कोई सहमति नहीं बन पाई और विधेयक हमेशा की भांति एक बार फिर गिर गया।
सन् 2008 में कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने रेणुका चौधरी जैसी कांग्रेस की तेज-तर्रार महिला मंत्री के माध्यम से राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल पेश किया लेकिन इसका भविष्य अभी भी अधर में है। करीब डेढ़ दशक से लटके महिला आरक्षण विधेयक की 9 मार्च, 2010 को राज्यसभा ने पारित कर इतिहास रच दिया। हालांकि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान वाले बिल पर उच्च सदन ने भले ही एक के मुकाबले 186 वोटों से मंजूरी दे दी हो, लेकिन सपने को पूरा करने के लिए लोकसभा में इसका पारित करवाना एक बड़ी चुनौती होगी।
विलंब की तमाम शिकायतों के बावजूद मंडल आयोग की रिपोर्ट 10 वर्ष के भीतर लागू हो गई लेकिन महिला आरक्षण विधेयक तकरीबन 15 वर्षों से अपने भविष्य को लेकर डांवाडोल स्थिति में है।
दिक्कत यह है कि समाज का जो वर्ग आरक्षण के लिए लंबा संघर्ष कर रहा है। जिस तरह से मंडल आयोग की रपट और उसकी प्रगतिशील राजनीति के रास्ते में मंदिर आंदोलन आकर खड़ा हो गया था, उसी प्रकार आज महिला आरक्षण के रास्ते में मंडल आयोग की रपट से उत्पन्न राजनीति खड़ी हो गई है।
अस्पृश्यता का उन्मूलन
सामाजिक समानता को और अधिक व्यवहारिकता प्रदान करने के लिए अस्पृश्यता का निषेध किया गया है। अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का अंत करके, छुआछूत के व्यवहार को दण्डनीय अपराध घोषित करता है।
अनुच्छेद 17 के साथ पढ़े जाने पर अनुच्छेद-35 संसद को अस्पृश्यता के आचरण के लिए दंड विहित करने के लिए विधि बनाने की शक्ति देता है। इस शक्ति का प्रयोग करते हुए संसद ने अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 अधिनियमित किया था। 1976 में इसे और कठिन बनाया गया और इसका नाम परिवर्तित करके इसे नया नाम, सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 दिया गया। इस अधिनियम में निम्न दंड विहित किए गए हैं-
- किसी व्यक्ति को सार्वजनिक पूजा स्थल में प्रवेश करने से या ऐसे स्थान में पूजा करने से रोकना।
- अस्पृश्यता के आधार पर अनुसूचित जाति के किसी सदस्य का अपमान करना।
- प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता का उपदेश करना।
- ऐतिहासिक, दार्शनिक, धार्मिक या अन्य आधार पर अस्पृश्यता की न्यायोचित ठहराना।
- किसी दुकान, जलपान गृह, होटल या सार्वजनिक मनोरंजन के स्थान पर प्रवेश नहीं करने देना।
- अस्पताल में प्रवेश से इंकार करना।
- कोई माल बेचने या सेवाएं देने से इंकार करना।
गौरतलब है कि वर्ष 1977 में इस अधिनियम के अंतर्गत नियम नागरिक अधिकार संरक्षण नियम, 1977 से संबंधित अधिसूचना जारी की गई। यह अधिनियम पूरे देश में लागू होता है और छुआछूत करने या इसे बढ़ावा देने वालों को सजा के दायरे में लाता है। इस अधिनियम को संबंधित राज्य सरकारों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को प्रशासनों द्वारा लागू किया गया।
इसी दिशा में 30 जनवरी, 1990 को अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (पीओए) अस्तित्व में आया। इस कानून का उद्देश्य गैर-अनुसूचित जातियों एवं के खिलाफ किए जाने वाले अपराधों का निवारण करना है। इस अधिनियम के अंतर्गत व्यापक नियमों से युक्त अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम, 1995 संबंधी अधिसूचना वर्ष 1995 में जारी की गई थी। जिसमें अन्य बातों के अतिरिक्त राहत एवं पुनर्वास संबंधी नियम भी शामिल हैं। जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर अधिनियम के दायरे में पूरा देश आता है।
अनुच्छेद 17 अपने उद्देश्य में बेहद सफल रहा है। हमारे समाज से यह पारंपरिक कुरीति अब समाप्त हो चुकी है। इस अनुच्छेद से एक समतापूर्ण समाज उदित हुआ है।
उपाधि का अंत
अनुच्छेद 18 राज्य को, किसी व्यक्ति को चाहे वह भारतीय नागरिक हो या विदेशी हो, उपाधियां प्रदान करने का प्रतिषेध करता है। इस अनुच्छेद के खंड-2 के अधीन, भारत के नागरिक को भी किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार करने का प्रतिषेध किया गया है। खंड-3 में उपबंध किया गया है कि कोई व्यक्ति, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए, किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं कर सकता और खंड-4 के अधीन, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
यह ध्यान देने योग्य है कि-
- यह प्रतिबंध केवल राज्य के विरुद्ध है। अन्य सार्वजनिक संस्थाएं,जैसे- विश्वविद्यालय आदि नेताओं या गुणी जनों का सम्मान करने के लिए उपाधियां या सम्मान दे सकते हैं।
- राज्य की सेना या विद्या संबंधी सम्मान देने से नहीं रोका गया है यद्यपि उनका उपयोग उपाधि के रूप में किया जा सकता है।
- राज्य की सामाजिक सेवा के लिए कोई सम्मान या पुरस्कार देने से निवारित नहीं किया गया है। इस सम्मान का उपाधि के रूप में अर्थात् अपने नाम के साथ जोड़कर उपयोग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार भारत रत्न या पद्म विभूषण का, प्राप्तकर्ता द्वारा उपाधि के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सकता और इसलिए यह संविधान में प्रतिषेध के अधीन नहीं आते।
इस प्रकार अनुच्छेद 18 सभी उपाधियों के प्रदान का प्रतिषेध करता है केवल सेना या विद्या संबंधी सम्मान दिए जा सकते हैं। जैसे परमवीर चक्र, महावीर चक्र, पी.एच.डी., एम.ए., एम.एससी. इत्यादि।
उल्लेखनीय है कि 1954 में भारत सरकार ने कुछ सम्मान प्रारंभ किए जिनमें एक मेडल और एक प्रमाण-पत्र दिया जाता है। इनके चार वर्ग हैं-
- भारत रत्न
- पद्म विभूषण
- पद्म भूषण
- पद्मश्री
भारत रत्न कला, साहित्य और विज्ञान के क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट सेवाओं के लिए और सर्वोच्च कोटि की लोक सेवा की मान्यता के लिए प्रदान किया जाता है।
पद्म पुरस्कार किसी भी क्षेत्र में विशिष्ट लोक सेवा के लिए प्रदान किए जाते हैं। ये सेवा की गुणवत्ता की कोटि के अनुसार दिए जाते हैं। ये पुरस्कार सरकारी कर्मचारियों को भी दिए जा सकते हैं। कुछ लोग इन पुरस्कारों के विरुद्ध थे क्योंकि इनमें पंक्ति के आधार पर विभेद किया जाता है। कुछ लोग इनका उपयोग उपाधि के रूप में भी कर रहे थे। जब पहले महान्यायवादी मोतीलाल चिमनलाल सीतलवाड की पुस्तक कामन लाइन इंडिया प्रकाशित हुई तो उनके नाम के आगे पद्मविभूषण उपाधि के रूप में लगाया गया। मोरारजी देसाई ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में सभी अलंकरण समाप्त कर दिए।
समानता का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक समानता उपलब्ध कराता है। |
इन पुरस्कारों की विधिमान्यता पर बालाजी राघवन बनाम भारत संघ में विचार हुआ। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 18 में उन अभिजात्य उपाधियों का प्रतिषेध किया गया है जो आनुवांशिक होती हैं अर्थात्, उपाधि जन्म से ही मिल जाती है, कुछ कर्म नहीं करना पड़ता है। अनुच्छेद 18 के अनुसार भारत में नाम के आगे या पीछे कोई उपाधि नहीं लगाई जा सकती। भारत रत्न और पद्म अलंकरण, पाने वाले के नाम के आगे या पीछे कोई उपाधि नहीं लगाई जा सकती। भारत रत्न और पद्म अलंकरण, पाने वाले के नाम के आगे या पीछे प्रयोग नहीं किए जा सकते इसलिए वे उपाधि नहीं हैं और अनुच्छेद 18 का उल्लंघन नहीं करते। न्यायालय ने संप्रेक्षण भी किया कि इन पुरस्कारों को देते समय किसी भी सरकार ने विचारपूर्वक कार्य नहीं किया है। जो लोग पद पर आसीन होते हैं वे अपने राजनीतिक या संकीर्ण वर्गहित के अनुसार पुरस्कार देते हैं। न्यायालय ने यह आदेश किया कि पुरस्कार देने के लिए स्पष्ट मार्गदर्शक नियम बनाए जाएं और इस कार्य के लिए एक उच्च स्तर की समिति नियुक्ति की जाए।
स्वतंत्रता का अधिकार
भारतीय संविधान का उद्देश्य विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वाधीनता सुनिश्चित करना है। भारतीय संविधान में केवल समानता का ही उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि विविध स्वतंत्रताओं का भी विस्तृत वर्णन किया गया है। अनुच्छेद 19-22 में स्वतंत्रता के अधिकार की व्यापक व्याख्या की गई है। संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताएं इस प्रकार हैं-
भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद-19) लोकतंत्रात्मकराज्य व्यवस्था के संचालन का एक अनिवार्य अंग है। भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने तथा अन्य व्यक्तियों के विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। प्रेस भी विचारों के प्रचार का एक साधन होने के कारण इस अनुच्छेद में शामिल है। 44वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद-361-ए जोड़ दिया गया है जिसके अंतर्गत समाचार पत्रों को संसद व विधानमंडलों की कार्रवाई प्रकाशित करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार रेडियो और दूरदर्शन पर भी लागू होता है। संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा भारत की प्रभुता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध उद्दीपन के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
युक्तियुक्त निर्बंधन Reasonable Restrictions
शाहीन और रिनी श्रीनिवासन द्वारा दिवंगत बाला साहब ठाकरे को लेकर फेसबुक पर की गई टिप्पणी ने एक बार फिर लोकतंत्र में अभिव्यक्ति एवं इस पर युक्तियुक्त निर्बंधन की बहस को छेड़ दिया है। युक्तियुक्त निर्बंधन क्या है? यह सदैव ही एक कठिन विषय रहा है। युक्तियुक्तता पर विधायिका के निर्णय अंतिम नहीं हैं। निर्बंधनों की युक्तियुक्तता का निर्धारण करना न्यायालयों का कार्य है। यह युक्तियुक्त शब्द न्यायालय की पुनर्विलोकन की शक्ति को बेहद विस्तृत कर देता है। लेकिन युक्तियुक्तता को जांचने के लिए कोई निर्धारित कसौटी भी नहीं है और इसका निर्णय सदैव ही परिस्थितियों के आधार पर किया जाता रहा, है। उच्चतम न्यायालय के निर्णयों से कुछ सामान्य सिद्धांत स्थापित हुए हैं, जिनके आधार पर युक्तियुक्तता की जांच की जाती है।
युक्तियुक्तता के स्थापित सिद्धांत:
- युक्तियुक्तता पर अंतिम निर्णय देने की शक्ति न्यायालय की है, न कि विधायिका की।
- नागरिकों के अधिकारों पर लगाए गए निर्बंधन न्यायपूर्ण और सामान्य जनता के हित में होने चाहिए, उससे अधिक नहीं। वैयक्तिक हित और सामाजिक हितों में सामंजस्य का प्रयास होना चाहिए। लगाए गए निर्बंधन और उसके उद्देश्य में सामंजस्य रहे और उनमें तर्कसंगत संबंध हो। यदि विधि स्वेच्छाचारी और आवश्यकता से अधिक निर्बंधन के संबंध में कोई विधि बनाती है तो उसे अवैध घोषित करने का अधिकार न्यायालय को है।
- लगाए जा रहे निर्बंधनों को मौलिक विधि और प्रक्रियात्मक विधि दोनों दृष्टिकोण से युक्तिपूर्ण होना आवश्यक है। इस कारण से न्यायालय लागू करने के लिए प्राधिकृत किए गए तरीके पर भी विचार करना चाहिए।
- युक्तियुक्तता का कोई सामान्य आधार नहीं हो सकता। प्रत्येक मामले की परिस्थितियों और तथ्यों पर वह निर्भर करेगा। यह मानदंड उस अधिकार की प्रकृति जिस पर निर्बंधन लगाया जा रहा है, लगाए गए निर्बंधन के अंतनिर्हित प्रयोजन, बुराई की मात्रा, उसे दूर करने की अनिवार्यता, निर्बंधन लगाने के अनुपात में भिन्नता और समकालीन परिस्थितियों के अनुरूप बदलता रहता है। न्यायिक निर्णय के लिए इन सब बिंदुओं पर विचार किया जाना आवश्यक है।
- जब न्यायालय किसी निर्बंधन की युक्तियुक्तता पर विचार करे तो उनका दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ होना चाहिए, न कि व्यक्तिनिष्ठ। युक्तियुक्तता का मानदंड एक औसत विवेकशील व्यक्ति के जैसा होना चाहिए और न्यायाधीश की व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक विचारधारा से प्रेरित नहीं होना चाहिए। न्यायाधीशों को दायित्व की भावना और आत्मनियंत्रण से काम लेना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि संविधान केवल उनकी विचारधारा वाले व्यक्तियों के लिए नहीं बनाया गया है बल्कि सभी के लिए और जनता के प्रतिनिधियों ने निर्बंधनों को युक्तियुक्त मानकर ही लगाया होगा।
- राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में निहित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए लगाए गए निर्बंधन युक्तियुक्त माने जा सकते हैं।
- न्यायालय कानून की युक्तियुक्तता का निर्धारण नहीं कर सकते, उन्हें केवल यह देखना है कि नागरिक अधिकारों पर लगाए गए निर्बंधन युक्तियुक्त हैं या नहीं।
- निर्बंधन निषेधात्मक भी हो सकते हैं। कुछ विशेष मामलों में नागरिकों के पूर्ण अधिकार पर रोक लगाने के निर्बंधन भी युक्तियुक्त हो सकते हैं। खतरनाक व्यापारों और उत्पादनों पर रोक लगाना जैसे शराब, नशीले पौधे उगाना, औरतों का क्रय-विक्रय करना, आदि युक्तियुक्त निर्बंधन है। प्रत्येक नागरिक को विधिपूर्ण वाणिज्य का पूरा अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का प्रयोग उसे युक्तियुक्त निर्बंधनों के अधीन ही करना होगा। उस पर ऐसे निर्बंधन लगाए जा सकते हैं, जिसे सरकार समाज की सुरक्षा, शांति व्यवस्था एवं नैतिकता इत्यादि के लिए आवश्यक समझती है।
- अनुच्छेद 19(1) में दिए गए अधिकारों पर लगाए गए निर्बंधन केवल अनुच्छेद 19(2) से 19(6) तक में वर्णित आधारों पर ही लगाए जा सकते हैं। अन्य किसी आधार पर लगाए गए निर्बंधन असंवैधानिक होंगे।
शांतिपूर्वक सम्मेलन की स्वतंत्रता
अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का अधिकार तभी न्यायसंगत होता है, जब जनता को स्वतंत्रतापूर्वक एकत्रित होने का अधिकार प्राप्त हो। इसलिए संविधान में शांतिपूर्ण ढंग से बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के सभा या सम्मेलन आयोजित करने का अधिकार प्रत्याभूत किया गया है। उदाहरण के लिए, प्रदर्शन व जुलूस की स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं कि यातायात को ठप्प कर दिया जाए। एकत्रित होने के अधिकार पर केवल सार्वजनिक व्यवस्था की रक्षा के लिए प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
हड़ताल करने का अधिकार मूल अधिकारों के अंतर्गत कोई मूल अधिकार नहीं है अतएव किसी भी व्यक्ति को हड़ताल करने से रोका जा सकता है। प्रदर्शन जब हड़ताल का रूप धारण कर लेता है तो वह विचारों की अभिव्यक्त करने का साधन मात्र नहीं रह जाता ।
समुदाय या संगठन के निर्माण की स्वतंत्रता
सभी नागरिकों को संगम या संघ या सहकारी समितियां बनाने का अधिकार संविधान द्वारा प्रत्याभूत किया गया है। अपवाद- स्वतंत्रता की आड़ में नागरिक ऐसे समुदायों का निर्माण नहीं कर सकते जो षड्यंत्र अथवा शांति व्यवस्था को भंग करें। तात्पर्य यह है कि उनका उद्देश्य सुरक्षा व शांति को खतरा पहुंचाना या अनैतिकता को प्रोत्साहन देना न हो। वेश्याओं और सैनिकों की संघ बनाने की स्वतत्रंता नहीं है।
सर्वत्र आने-जाने और निवास की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 19 में भारतीय क्षेत्र में कहीं भी भ्रमण तथा इसके किसी भी भाग में निवास करने के अधिकार का उल्लेख किया गया है। अपवादस्वरूप सार्वजनिक हित और अनुसूचित जनजातियों की रक्षा की दृष्टि से इस अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है। अनुच्छेद 370 के अनुसार कश्मीर राज्य क्षेत्र में देश के किसी भी राज्य के निवासी को स्थायी निवास करने पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। इसे संवैधानिक रूप से प्रत्याभूत किया गया है। यद्यपि यह संविधान के नागरिकता संबंधी प्रावधानों का उल्लंघन है।
वृत्ति, उपजीविका या व्यापार की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 19 के अनुसार, भारत के सभी नागरिकों को किसी भी व्यवसाय, वृत्ति, उपजीविका अथवा व्यापार की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। किंतु राज्य, सामान्य जनता के हित में इन स्वतंत्रताओं पर उचित प्रबंध लगा सकता है। उदाहरण के लिए, अत्यावश्यक पदार्थों के उत्पादन व वितरण पर उचित नियंत्रण लगाए जा सकते हैं। किसी भी व्यवसाय अथवा कारोबार के लिए कुछ व्यवसायिक अथवा तकनीकी तोग्य्तएं निर्धारित की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, वकील या डॉक्टर का पेशा अपनाने के लिए यह जरूरी है कि नागरिक व्यावसायिक योग्यता रखते हों।
अपराध की दोषसिद्धि के विषय में संरक्षण
अनुच्छेद 20 में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसने अपराध के समय में लागू किसी कानून का उल्लंघन न किया हो। किसी व्यक्ति पर एक अपराध के लिए एक बार से अधिक न मुकदमा चलाया जाएगा, न एक बार से अधिक सजा दी जाएगी। किसी अपराध में अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
केदारनाथ बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1954) के वाद में न्यायालय ने यह स्थिर किया कि जब विधानमण्डल किसी कार्य को अपराध घोषित करता है या किसी अपराध के दण्ड का उपबंध करता है तो वह विधि को भूतलक्षी बनाकर उन व्यक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल सकता जिन्होंने उस विधि के अधिनियम किये जाने से पूर्व कार्य किए थे।
प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण
अनुच्छेद-21 में कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य किसी तरीके से किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
44वें संवैधानिक संशोधन (1978) द्वारा जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को और अधिक महत्व प्रदान किया गया है। अब आपातकाल की स्थिति में भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकता।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा जीवन की सुरक्षा के अंतर्गत निम्नलिखित को शामिल किया गया है-
- विदेश में जाने या विदेश में भ्रमण की स्वतंत्रता।
- त्वरित अन्वेषण तथा विचारण का अधिकार।
- निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार।
- यातना न दिये जाने के अधिकार को शामिल करकेमानवीय गरिमा का अधिकार।
- निरुद्ध व्यक्ति द्वारा अपने विधिक सलाहकार तथा कुटुम्ब के सदस्यों और मित्रों के साथ मुलाकात करने का अधिकार।
- पुलिस की क्रूरता के विरुद्ध अधिकार।
- लोक स्वास्थ्य को बनाये रखने तथा उसकी प्रोन्नति का अधिकार।
- दोष मुक्ति के बाद अवैध रूप से कारागार में निरुद्ध रखने पर प्रतिकार का अधिकार।
- अपील करने का कानूनी अधिकार।
- जीविकोपार्जन का अधिकार।
शिक्षा का अधिकार: संविधान में 96वें संविधान संशोधन अधिनियम-2002 द्वारा एक नया अनुच्छेद-21(क) सम्मिलित किया गया, जिसके अंतर्गत राज्य छह से चौदह आयु वर्ग के बच्चों को अनिवार्य एवं मुक्त शिक्षा प्रदान करेगा।
अनुच्छेद 21(क) के क्रियान्वयन में चुनौतियां एवं समाधान
निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम-2009 के 1 अप्रैल, 2010 से प्रभावी हो जाने के फलस्वरूप आजादी के करीब 6 दशकों के उपरांत देश के 6-14 आयु वर्ग के सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा की सुलभता आखिरकार एक मौलिक अधिकार के रूप में प्राप्त हो गयी। विदित है कि संविधान निर्माताओं द्वारा प्राथमिक शिक्षा को संविधान के भाग-3 के अंतर्गत निर्धारित किए गए सात मूल अधिकारों के अंतर्गत स्थान प्रदत्त करने के स्थान पर इसे संविधान के भाग-4 के अंतर्गत अनुच्छेद 36 से 57 तक निर्धारित किए गए राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में सम्मिलित किया गया था। अनुच्छेद 45 के अधीन सरकार से 6-14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की अपेक्षा की गई थी। वर्ष 2002 में अर्थात् सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के करीब 9 वर्ष बाद 86वां संविधान संशोधन संसद में पारित कराया जा सका। 86वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21क सम्मिलित किया गया है जिसमें कहा गया है कि राज्य सरकारें 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान कराएंगी और इसके लिए वे चाहें तो कानून का निर्माण भी कर सकती हैं। इसी क्रम में शिक्षा को मौलिक अधिकारों के अंतर्गत सम्मिलित किए जाने वाली व्यवस्था के रूप में निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा, अधिकार अधिनियम-2009 संसद द्वारा पारित किया गया है।
अधिनियम के अनेक प्रावधान विसंगतियों से परिपूर्ण हैं, जिस पर मंथन किया जाना चाहिए अन्यथा इस अधिनियम की व्यावहारिक क्रियान्विति के माध्यम से शिक्षा के सार्वभौमिकरण की मुहिम की जो बल मिला है, उसे अमलीजामा पहनाना दुष्कर हो जाएगा। प्रावधान है कि अधिनियम के क्रियान्वयन की तिथि से आगामी पांच वर्ष के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधनों हेतु 25,000 करोड़ रुपए की व्यवस्था वित्त आयोग द्वारा की जाएगी, किंतु यथार्थ में 1.71 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता होगी जो एक चुनौतीपूर्ण पहलू है। अतः वित्तीय संसाधनों की अपर्याप्तता अधिनियम के क्रियान्वयन में मुख्य बाधा बनेगी।
प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में विद्यालय भवन, विद्यालय में पेयजल, शौचालय, बचों के बैठने की व्यवस्था जैसी आधारिक संरचना सुविधाओं और यथोचित संख्या में योग्य और प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवस्था दोनों ही मामलों में आपूर्ति जनित बाधाएं हैं जिनसे तभी निपटा जा सकता है कि जब देश के सभी राज्यों की सरकारें इस अभियान से प्राप्त होने वाले दीर्घकालीन राजनीतिक लाभांश को सही परिप्रेक्ष्य में समझें और संसाधनों की इस ओर मोड़ें।
ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त गरीबी व बेरोजगारी से ग्रामीणों को शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन से भी बालकों को भी अपने अभिभावकों के साथ पलायन करना होगा। फलतः पढ़ाई अधूरी छोड़कर घर बैठ जाने वाले बच्चों का अनुपात भी बढ़ेगा। अतः अधिनियम में बाल श्रमिकों के संबंध में कुछ प्रावधान किए गए होते, तो इस वय के बालकों को और राहत मिलती।
अधिनियम में गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने पर जोर दिया गया है। योग्यताधारी शिक्षकों की भर्ती व निरंतर प्रशिक्षण दिए जाने पर भी जोर दिया गया है, किंतु 12 लाख अतिरिक्त प्रशिक्षित शिक्षकों की व्यवस्था करने के लिए भी अतिरिक्त संसाधनों की व्यवस्था करनी होगी, तभी हम कुशलतम प्रशिक्षित अध्यापकों की जमात तैयार कर पाएंगे।
अधिनियम में प्रति कक्षा छात्र-अध्यापक अनुपात 30:1 निर्धारित किया गया है, किंतु वर्तमान में यह 50:1 है। इसके कम होने की संभावना बिल्कुल प्रतीत नहीं होती। इस हेतु विशेष प्रयास करने होंगे। इसके साथ ही छात्रों में शारीरिक व मानसिक विकास के लिए आधारभूत सुविधाएं प्रदान की जाएंगी, किंतु आज भी ग्रामीण विद्यालयों में शिक्षकों, कक्षा, खेलकूद सामग्री, शारीरिक प्रशिक्षण, बैठक व्यवस्था आदि की पर्याप्त सुविधाएं न होना भी अधिनियम के मूल उद्देश्य गुणवत्तापरक प्राथमिक शिक्षा की क्रियान्विति पर प्रशन चिन्ह आरोपित कर देते हैं।
शिक्षा के प्रसार-प्रचार में सभी का सहयोग अपेक्षित है। शिक्षा अधिनियम में शिक्षा के द्रुत विकास के लिए सरकारी व निजी क्षेत्र की सहभागिता की बात की गई है। निजी स्कूलों में सरकारी स्कूलों की तुलना में ऊंचा शुल्क वसूला जाता है। फलतः-शिक्षा के माध्यम से असमानताएं फैलेंगी। कमजोर वर्ग की सुस्पष्ट परिभाषा अधिनियम में नहीं दी गई है। कमजोर वर्ग का आकलन आय के आधार पर होगा या फिर जातिगत आधार पर? प्रस्तुत अधिनियम की इन विसंगतियों के बावजूद भी सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य को प्राप्त करने में एक सार्थक प्रयास है। अधिनियम में गुणवत्तायुक्त शिक्षक प्रशिक्षण व्यवस्था, शिक्षा संबंधी आधारभूत तकनीकी व अन्य सुविधाओं की उपलब्धता व जनसहभागिता को प्रोत्साहित करके ही अधिनियम का क्रियान्वयन किया जाना सम्भव है। आज हर बच्चे के लिए निःशुल्क तथा सार्वभौमिक शिक्षा की व्यवस्था सबसे अग्रतावाली शैक्षिक चुनौतियां बन गयी हैं। कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियां निम्न हैं-
- बच्चों को निर्धारित अवधि तक विद्यालय में रखना
- नामांकन को सार्वभौमिक बनाने की चुनौती
- शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की भिन्नता
- विद्यालयी सुविधाओं को सार्वभौमिक बनाना
- प्राथमिक विद्यालयों के प्रशासन तंत्र में निश्चित नीति का अभाव
- दोषपूर्ण शिक्षा नीति को दूर करना।
समाधान के बिंदु
- नवीन विद्यालयों के खुलने से पूर्व उनकी सभी दशाएं अनिवार्य रूप से पूरी होनी चाहिए।
- विहित आयु के हर बच्चे को प्रचार द्वारा, समझाकर या जरूरी होने पर दण्डात्मक कार्यवाही करके विद्यालयों की कक्षा-1 में नामांकन कराना।
- बच्चों को विद्यालय से दूर रखने वाली किसी भी प्रकार की वित्तीय बाधा चाहे वह फ़ीस हो, पुस्तकें एवं कापियांं
- परिवहन और पोषक आदि का खर्च हो या फिर अन्य कोई व्यय, का भुगतान करना सरकार अनिवार्य रूप से अपना कर्तव्य समझकर पूरा करेगी।
- कक्षा-01 और 02 में खेल विधियों को अपनाना।
- योग्य दूरी पर विद्यालय की स्थापना करना।
- औपचारिक विद्यालयों में बहु-बिंदु प्रवेश नीति को अपनाना।
जीवन के अधिकार का विस्तार
प्राण का अर्थ केवल पशुवत् अस्तित्व या जीवित रहना नहीं है। इसके अंतर्गत मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है और जीवन के वे सब आयाम हैं जिनसे मनुष्य का जीवन, सार्थक, संपूर्ण और जीने योग्य बनता है। दैहिक स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की परिधि में अनेक प्रकार के अधिकार आते हैं। न्यायालयों ने इस अभिव्यक्ति को बेहद व्यापक अर्थ दिया है।
अनुच्छेद 21 के उदार निर्वचन के कारण वह एक प्रकार से अवशिष्ट अधिकार सा हो गया है। संविधान के निर्माताओं ने ऐसा कभी नहीं सोचा होगा। अनुच्छेद 21 के संरक्षण का विस्तार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने अनेक मामलों में व्यक्ति के पक्ष में निदेश दिए हैं-
- राज्य और निजी उद्योग दोनों को कर्मकारों के स्वास्थ्य प्रोन्नयन के लिए कदम उठाने चाहिए।
- मृत्युदंड के निष्पादन में यदि बेहद विलंब होता है तो अनुच्छेद 21 का संरक्षण प्राप्त किया जा सकता है। मृत्युदंड को घटाकर आजीवन कारावास किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 21 उन व्यक्तियों को भी प्राण और स्वतंत्रता की सुरक्षा देगा जो नागरिक नहीं हैं।
- कार्य स्थल पर कार्मिक स्त्रियों का यौन उत्पीड़न अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
- मृत्युदंड से अनुच्छेद 13, 19 और 21 का उल्लंघन नहीं होता।
- राज्य का यह कर्तव्य है कि वह प्राइवेट विधि महाविद्यालय की स्थापना की अनुमति दे और सहायता-अनुदान दे।
- यदि कोई ईमानदार निर्णीत ऋण चुकाने में असमर्थ है तो उसे जेल नहीं भेजा जा सकता।
- सरकारी अस्पताल द्वारा क्षतिग्रस्त व्यक्ति को चिकित्सकीय सहायता न देना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के फलस्वरूप बहुत से अधिकार अनुच्छेद-21 के अंतर्गत माने गए हैं-
निजता का अधिकार: नीरा राडिया टेप खुलासे के पश्चात् निजता के अधिकार पर बहस छिड़ गई है। एक तरफ निजता का अधिकार है, दूसरी तरफ सूचना का। दोनों अधिकारों में संतुलन स्थापित करने के दृष्टिगत केंद्र सरकार निजता की रक्षा के लिए कानून बनाने पर विचार कर रही है। अभी तक भारतीय संविधान में निजता के अधिकार के लिए कोई कानून नहीं है। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने पीयूसीएल बनाम संघ (1996) बाद में स्पष्ट किया है कि फोन टेप किन स्थितियों में किए जा सकते हैं। न्यायालय ने स्वीकार किया है कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत् दिए गए जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का अहम हिस्सा है। उल्लेखनीय है कि भारत भी नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय अनुबंध पर हस्ताक्षर कर चुका है, जिसके अनुच्छेद 17 में निजता का अधिकार और इस अधिकार पर हमला होने पर कानूनी सुरक्षा दिए जाने की बात कही गई है। साथ ही संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भी निजता का अधिकार अंतर्निहित है। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से निर्णय दिया है कि भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम 1885 की धारा 5(2) के अंतर्गत टेपिंग मौलिक अधिकारों का हनन है। इसलिए टेपिंग केवल कानून द्वारा निर्धारित उस प्रक्रिया के तहत् ही की जा सकती है जो उचित एवं न्यायपूर्ण हो और संविधान के अनुच्छेद 19(2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करने के लिए दिए गए आधारों की परिधि में हो। अदालत ने कहा कि निजता का उल्लंघन हुआ है या नहीं यह प्रत्येक मामले के तथ्य पर निर्भर करेगा। अभी राडिया टेप एवं विकीलीक्स के खुलासे के बाद एक तर्क यह दिया जा रहा है कि सार्वजनिक हित सबसे ऊपर है और बंद दरवाजे में कुछ ऐसा होता है, जिसका प्रभाव आम लोगों पर पड़ता है तो जनता को उसे जानने का अधिकार है। निजता का अर्थ है व्यक्ति का यह तथ्य करने का अधिकार कि किस सीमा तक वह अन्य के साथ अपने आपको शेयर करेगा। निश्चित रूप से किसी को अधिकार है कि वह स्वयं की सबसे अलग कर ले तथा किसी को उसके निजी जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार न हो। किंतु राडिया टेप में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है। यह चंद व्यापारिक घरानों के व्यापारिक हितों को आगे बढ़ाने और अनुचित लाभ उठाने के लिए किसी विशेष व्यक्ति को मंत्रिमंडल में एक खास विभाग दिलाने के लिए लॉबी किए जाने से संबंधित है। इस प्रकार इसका प्रत्यक्ष संबंध जनहित से है। लेकिन नियम प्रतिकूल टेपिंग आदि होने से उभरते, मजबूत लोकतंत्र, लोकतांत्रिक और मुक्त भारत की अवधारणा को नुकसान पहुंचा सकता है। ऐसी सूचनाएं जो गोपनीय बनी रहनी चाहिए, सरकार को बनाए रखना चाहिए।
निद्रा का अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार की परिधि को विस्तृत करते हुए नागरिकों के चैन से नींद के अधिकार को भी इसमें शामिल किया है। एक नागरिक का चैन की नींद उसके जीवन के लिए मौलिक अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश रामलीला मैदान में बाबा रामदेव की रैली में सो रही भीड़ के ऊपर कार्रवाई के विरुद्ध दिया है।
नींद मनुष्य के लिए आवश्यक है जिससे वह अपने अस्तित्व तथा उत्तरजीविता के लिए आवश्यक स्वास्थ्य में संतुलन बनाए रख सकता है। नींद इसलिए मनुष्य का मौलिक तथा आधारभूत अधिकार है जिसके बिना उसके जीवन का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। इस रूप में यह बुनियादी मानव अधिकार है। प्राधिकरण इसके लिए ठीक उसी प्रकार से कदम उठाएंगे जैसे देर रात संगीत बजाने पर सोने में दिक्कत होती है। इस आदेश से नींद का अधिकार, अधिकारों की श्रेणी में आ गया है तथा प्राधिकरण को इसकी रक्षा के उपाय करने होंगे। न्यायालय ने निर्णय देते हुए कहा कि नींद, जीवन के लिए मौलिक है यह उसी तरह है जैसे गोपनीयता का अधिकार, भोजन का अधिकार इत्यादि का उल्लंघन नहीं हो सकता जो कि अनुच्छेद-21 के तहत् जीवन के अधिकार के अंतर्गत आते हैं।
मुआवजे का अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में मुआवजे में देरी को अनुच्छेद-21 का उल्लंघन माना है और इसे अनुच्छेद-21 के तहत् जीविका के अधिकार से जोड़ा है। देश में विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों के क्रियान्वयन हेतु सरकारें किसानों से भूमि अधिगृहित करती हैं। न्यायालय के अनुसार भूमि अधिग्रहण के कारण मिलने वाले मुआवजे में बेवजह देरी करना संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत् प्रदत्त जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। मान्य अधिग्रहण प्रक्रिया के बावजूद यह राज्य या अन्य उत्तरदायी प्राधिकरण का कानूनी दायित्व बनता है कि वह जल्द से जल्द इस प्रक्रिया को पूर्ण करे तथा किसानों की आवश्यक मुआवजे की राशि प्रदान करे। किसी भी कल्याणकारी राज्य की इस बात की अनुमति नहीं दी जा सकती कि औद्योगिक विकास के लिए किसी को उसके मूल्य स्थान से उखाड़ दे और उसे उसके संवैधानिक, मौलिक एवं मानवीय अधिकारों से वंचित करे।
सुखमृत्य: सुखमृत्यु (यूथेनेसिया), किसी ऐसे व्यक्ति को मारने की क्रिया है जो बहुत बीमारी और कष्ट में है ताकि वह पीड़ा भुगतने से बच सके। अभी तक केवल कुछ देशों जैसे- नीदरलैंड ने इसे कानूनी जामा पहनाया है जबकि शेष विश्व अभी इस पक्ष में नहीं दिखाई देता। उल्लेखनीय है कि अस्सी के दशक से भारत में भी सुखमृत्यु का अधिकार दिया जाना चाहिए या नहीं इस विषय पर बहस जारी है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय इसे वैधता देने से इंकार करता रहा है।
विधि आयोग ने 28 जून, 2008 को सरकार की अनुशंसा की, कि लम्बे समय से चले आ रहे बीमार व्यक्ति को अत्यंत कष्ट एवं पीड़ा से बचाने हेतु मर्सी किलिंग का अधिकार दिया जाना चाहिए। आयोग ने यह भी कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 को समाप्त किया जाना चाहिए जो आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति की दण्डित करती है। विधि आयोग ने महसूस किया कि ऐसे व्यक्ति की जो सामान्य जीवन जीने की क्षमता खो चुका है एवं अत्यंत दुखद स्थिति महसूस कर रहा है, को आत्महत्या के प्रयास हेतु दण्ड देना न्यायसंगत नहीं है अपितु उसे ऐसे प्रयास से बचाया जाना चाहिए। विधि आयोग ने मेनका गांधी के ऐतिहासिक निर्णय की ओर इशारा किया है, जिसमें कहा गया है कि, जीवन का अर्थ पाश्विक जीवन जीना नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर की देखभाल करने में असमर्थ है एवं अपनी समस्त चेतना खो चुका है, यदि उसकी इच्छा जीवन त्यागने की है तो उसे दर्दनाक जीवन जीने के लिए बाध्य एवं प्रताड़ित नहीं करना चाहिए। ऐसी स्थिति में उसे सुखमृत्यु के अधिकार से वंचित करना मानवीयता के विरुद्ध नृशंसता होगी।
सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण: सर्वोच्च न्यायालय का विचार इस प्रश्न में निहित है कि, क्या जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार भी निहित है? यह जिज्ञासा सर्वप्रथम 1987 में महाराष्ट्र बनाम मरूति श्रीपति दूबल के मामले में सामने आयी जिसमें मुम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार भी सम्मिलित है परिणामस्वरूप भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 का उन्मूलन कर दिया जाना चाहिए। 1988 में चेना जगदीश्वर बनाम आध्र प्रदेश राज्य विवाद में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार सम्मिलित नहीं है। वर्ष 1994 में सर्वोच्च न्यायालय ने पी. रथिनम बनाम भारत संघ के प्रकरण में कहा कि व्यक्ति की मृत्यु का अधिकार भी है और आई.पी.सी. की धारा 309 असंवैधानिक है। न्यायालय ने कहा कि व्यक्ति को उसकी दयनीय शारीरिक, मानसिक एवं अनिच्छुक स्थिति के बावजूद जीने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने सुखमृत्यु (यूथेनेसिया) को वैधानिक किए जाने सम्बन्धी याचका को ख़ारिज कर दिया क्योंकि इसमें अन्य व्यक्ति सक्रिय एवं निष्क्रिय भूमिका मध्यस्थ के तौर पर निभाता है या दूसरे व्यक्ति की मरने में सहायता करता है।
अंततः प्रश्न का समाधान वर्ष 1996 में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ में ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य के प्रकरण में हुआ। न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार या मारे जाने का अधिकार शामिल नहीं है। मृत्यु का अधिकार प्राचीन काल से ही जीवन के अधिकार के साथ प्रासंगिक नहीं है। जीवन का अधिकार एक प्राकृतिक अधिकार है जबकि आत्महत्या जीवन को अप्राकृतिक रूप से समाप्त करना है। गौरतलब है कि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने वेकटेंश प्रकरण में अपने ज्ञान कौर प्रकरण के निर्णय को दोहराया कि जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार सम्मिलित नहीं है।
जेल में दांपत्य जीवन का अधिकार: पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में आया यह मामला देश का पहला ऐसा मामला है जिसने जेल में कैदियों को दांपत्य अधिकार दिए जाने के सवाल पर विवाद खड़ा कर दिया। पटियाला केंद्रीय जेल में सजा काट रहे जसवीर सिंह और उसकी पत्नी सोनिया ने न्यायालय से जेल में दांपत्य जीवन के अधिकार की मांग की है। होशियारपुर के गांव मेधोबालगंज (पंजाब) के इस दंपत्ति की मांग है कि इस अधिकार के तहत उन्हें प्रजनन का अधिकार दिया जाना चाहिए क्योंकि यह जीवन के अधिकार से जुड़ा हुआ है। गौरतलब है कि अभी तक भारत में कैदियों को जेल में दांपत्य जीवन या प्रजनन का अधिकार नहीं है।
फिलहाल पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने पंजाब सरकार से इस मामले में राय देने के लिए कहा है। न्यायालय का कहना है कि क्या ऐसा संभव है? या फिर याचिकाकर्ता को कृत्रिम गर्भाधान की अनुमति दी जा सकती है?
जैसाकि बहुत से विकसित देशों में कैदियों की दांपत्य जीवन का अधिकार प्राप्त है। ब्राजील, डेनमार्क, अमेरिका के कुछ राज्य, कनाडा, आस्ट्रेलिया, रूस, इंग्लैंड और इस्राइल की जेलों में रह रहे कैदियों की वहां के कानून के अनुसार यह सुविधाएं प्राप्त हैं। जबकि वहां अपराध करने की सजा भारत से कहीं ज्यादा कठोर हैं। फिर भी वहां की जेलों में कैदी अपने परिवार के साथ निजी समय बिता सकते हैं और अपनी पत्नी या दोस्त के साथ यौन संबंध भी स्थापित कर सकते हैं। ऐसा इसलिए भी किया गया है कि परिवार के साथ जेल में इस प्रकार रहने से कैदियों के पुनर्वास में आसानी होती है। वह पारिवारिक इकाई को महसूस करते हैं। घर लौटने पर वे अवसाद का शिकार नहीं होते। परिवार और दोस्त कैदी की भावनात्मक बल देते हैं और उसे सुरक्षा का अहसास भी करवाते हैं।
वैसे अमेरिका का मिसिसिपी राज्य विश्व का पहला राज्य है जहां कैदियों को जेल में दांपत्य जीवन का अधिकार दिया गया था। उसके पश्चात् तो दुनिया की कई जेलों में सुधार कार्यक्रमों के तहत कैदियों को दांपत्य जीवन का अधिकार मिला ताकि वह परिवार की इकाई के रूप में रख सकें । भारत में मुम्बई उच्च न्यायालय भी राज्य सरकार से जेल में दांपत्य जीवन का अधिकार दिए जाने पर विचार करने को कह चुका है। महाराष्ट्र की विभिन्न जेलों में 600 से ज्यादा कैदी एचआईवी से ग्रस्त हैं। इस अधिकार के मिल जाने से जेलों में अप्राकृतिक यौन संबंध पर भी अंकुश लग सकेगा। हालांकि जेल में दापंत्य जीवन के अधिकार की मांग विवादस्पद है लेकिन यह कैदियों के मूल मानवाधिकारों से जुड़ी है, जेल में यह अधिकार उन्हें मिलना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य अधिकार हैं-
- बंधुआ श्रमिक न बनाए जाने का अधिकार
- अच्छे पर्यावरण का अधिकार
- आश्रय का अधिकार
- ऐसे साधनों से जीविकोपार्जन का अधिकार जो अवैध, अनैतिक या लोक नीति के विरुद्ध नहीं हैं।
- विदेश यात्रा का अधिकार शीघ्र विचारण का अधिकार
- विधिक सहायता का अधिकार
- एकांत कारावास के विरुद्ध अधिकार
- पैर में डंडा बेड़ी डालने के विरुद्ध अधिकार
- हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार
- फांसी में बिलंब के विरुद्ध अधिकार
- अभिरक्षा में हिंसा के विरुद्ध अधिकार
- शिक्षा का अधिकार
- पीने योग्य शुद्ध जल का अधिकार
- प्रतिष्ठा का अधिकार
मृत्युदंड का औचित्य
यद्यपि भारत विश्व के उन देशों में शुमार है जहां अभी भी मृत्युदंड की व्यवस्था प्रचलन में है, तथापि भारत में इस दंड को यदा-कदा ही दिया जाता है। हाल ही में इस दंड को देने में बेहद अंतराल रहा है; उदाहरणार्थ ऑटो शंकर की 1995 में और धनंजय चटर्जी को 2004 में मृत्युदंड दिया गया, और उसके बाद 2012 और 2013 में क्रमशः अजमल कसाब और अफजल गुरु एवं 2015 में याकूब मेनन को फांसी की सजा दी गई।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़, साल 2004 से 2013 के बीच भारत में 1,303 लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई गई, हालांकि इस दौरान केवल तीन लोगों को फांसी दी गई।
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2004 से 2014 के बीच 3751 लोगों की फांसी की सजा उम्रकैद में बदली। |
2004 से 2014 के बीच सर्वाधिक मृत्युदंड देने वाले राज्य
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57% मृत्युदंड 5 राज्यों में – यूपी, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार और एमपी में दिए गए। |
वर्ष 1983 में देश के उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि मृत्युदंड मात्र दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में ही दिया जाना चाहिए। केवल विशेष रूप से भयावह एवं घिनौने या राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले ऐसे दंड की श्रेणी में आते हैं। भारत के स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गांधी, एवं भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या विगत् 60 वर्षों में इस श्रेणी में आती है।
भारत में हत्या, हत्या सहित सामूहिक लूटपाट, पागल व्यक्ति या बच्चे की आत्महत्या के लिए उकसाना, राष्ट्र के विरुद्ध विद्रोह, सशस्त्र बल के सदस्य द्वारा हत्या के लिए उकसाना इत्यादि अपराध मृत्युदंड की श्रेणी में आते हैं। 1989 में, मादक द्रव्य एवं साइकोट्रॉपिक सब्सटॉन्स (एनडीपीएस) अधिनियम पारित किया गया जिसमें बड़े स्तर पर मादक द्रव्यों के व्यापार में दूसरी बार अपराधी होने पर मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है। 16 जून, 2011 बॉम्बे उच्च न्यायालय ने एनडीपीएस अधिनियम की धारा 31ए पर निर्णय किया कि, यह धारा संविधान के अनुच्छेद-21 का उल्लंघन करती है, और दूसरी बार दोषी व्यक्ति को मृत्युदंड दिए जाने की आवश्यकता नहीं है, जो मृत्युदंड दिए जाने के बारे में न्यायाधीशों को निर्णय करने की स्वविवेकीय शक्ति देता है। हाल के वर्षों में नए आतंकरोधी विधानों में आतंकी गतिविधियों में संलिप्तता के दोषी लोगों को मृत्युदंड दिए जाने का प्रावधान किया जा रहा है।
उच्चतम न्यायालय ने ऑनर किलिंग के दोषियों को मृत्युदंड दिए जाने की अनुशंसा की है। उच्चतम न्यायालय ने उन पुलिस अधिकारियों को भी मृत्युदंड देने की अनुशंसा की है जो मुठभेड़ के रूप में हत्या को अंजाम देते हैं, तथा पुलिस बर्बरता करते हैं। 8 फरवरी, 2013 को, दिल्ली के पाश्विक सामूहिक बलात्कार पर लोगों के गुस्से के जवाब में, भारत सरकार ने एक अध्यादेश पारित किया, जो बलात्कार के ऐसे मामलों, जिनमें पीड़िता की मृत्यु हो जाती है या वह निरंतर दुर्दशा की स्थिति में पहुंच जाती है, मृत्युदंड का प्रावधान करता है।
सितंबर 2007 में, भारत ने मृत्युदंड को समाप्त करने पर संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव के विरोध में मत दिया। नवम्बर 2012 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा के मृत्युदंड प्रतिबंध पर प्रस्तुत ड्रॉफ्ट प्रस्ताव के खिलाफ भारत ने मतदान करके फिर से अपने पूर्ववत् दृष्टिकोण पर बना रहा।
एक बड़ा चर्चा का विषय है, न केवल भारत में अपितु समस्त विश्व में, कि मृत्युदंड को बनाए रखना चाहिए या नहीं? क्या यह मानवाधिकार और जीवन के अधिकार के विरुद्ध नहीं हैं? इस विषय पर अंतिम निर्णय से पूर्व बेहद व्यापक विश्लेषण, विचार मनन एवं सभी पहलुओं पर सूक्ष्म दृष्टि डालने की आवश्यकता है।
गिरफ्तारी और नजरबंदी की अवस्था में संरक्षण
अनुच्छेद 22 में नागरिकों के निम्नलिखित तीन अधिकारों का उल्लेख किया गया है-
- बंदी बनाए गए व्यक्ति को उसके अपराध अथवा बंदी बनाये जाने के कारणों को बताए बिना अधिक समय तक बंदीगृह में नहीं रखा जा सकता।
- बंदी बनाए गए व्यक्ति को वकील से परामर्श करने और अपने बचाव के लिए प्रबंध करने का अधिकार प्राप्त होगा।
- बंदी बनाए गए व्यक्ति को 24 घंटों के भीतर निकटस्थ मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित करना आवश्यक होगा। मजिस्ट्रेट की आज्ञा के बिना किसी को भी 24 घंटे से अधिक समय के लिए बंदी नहीं रखा जा सकता। ये अधिकार दो प्रकार के अपराधियों पर लागू नहीं होंगे – प्रथम, शत्रुदेश के निवासियों पर, और; द्वितीय, निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत गिरपतार व्यक्तियीं पर।
निवारक निरोध: निवारक निरोध का तात्पर्य वास्तव में किसी प्रकार का अपराध किये जाने से पूर्व और बिना किसी प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया के ही नजरबंदी है। निवारक निरोध किसी गैर-कानूनी कार्य को रोकने के लिए होता है, न कि गैर-कानूनी कार्य के लिए किसी व्यक्ति की दंड देने के लिए।
अनुच्छेद-22 संसद को निवारक निरोध का उपबंध करने वाला ऐसा कानून बनाने का अधिकार देता है जिसमें यह निर्धारित किया गया हो कि किसी व्यक्ति को किन परिस्थितियों में, किस वर्ग के मामलों में, अधिक से अधिक कितनी अवधि के लिए निरुद्ध किया जा सकता है।
भारतीय संविधान के अनुसार निवारक निरोध सामान्यकाल तथा संकटकाल दोनों परिस्थितियों में लागू होता है। विशेष बात यह है कि ऐसी व्यवस्था किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में नहीं पाई जाती ! ब्रिटेन और अमेरिका आदि देश केवल युद्ध काल में ही इसको लागू करते हैं, जबकि भारत में युद्ध और शांति दोनों ही परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है।
निवारक निरोध अधिनियम: संसद द्वारा 1950 ई. में निवारक निरोध अधिनियम पारित किया गया। समय-समय पर इस अधिनियम की अवधि बढ़ायी जाती रही। यह-अधिनियम 31 दिसंबर, 1969 तक ही अस्तित्व में रहा क्योंकि इसके पश्चात् इसकी अवधि में विस्तार नहीं किया जा सका।
आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम, 1971:
निवारक निरोध अधिनियम के विकल्प के रूप में 7 मई, 1971 को राष्ट्रपति द्वारा आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम अध्यादेश जारी कर जून 1971 में इसे कानून बना दिया गया। इस कानून को बोलचाल की भाषा में मीसा कहा जाता है। यह अधिनियम निवारक निरोध अधिनियम की अपेक्षा अधिक कठोर है।
निवारक निरोध अधिनियम के अंतर्गत नजरबंदी की अधिकतम अवधि एक वर्ष थी। मीसा के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई कि एक व्यक्ति को परामर्शदाता मण्डल से सलाह प्राप्त किए बिना संकट काल की अवधि में अधिक-से-अधिक 21 माह तक नजरबंद रखा जा सकता है। इस कानून द्वारा किसी भी ऐसे व्यक्ति का नजरबंद किया जा सकता है जो कि भारत की प्रतिरक्षा, सुरक्षा, समाज के लिए आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं की सुरक्षा के विरुद्ध कार्यवाही करता है। आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम 44वें संविधान संशोधन के प्रतिकूल था इस कारण अप्रैल 1979 में यह स्वतः ही समाप्त हो गया।
राष्ट्रीय सुरक्ष अधिनियम्, 1983: 24 सितंबर, 1983 को सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश के नाम से एक अध्यादेश जारी किया। इस अध्यादेश का उद्देश्य साम्प्रदायिक और जातीय दंगों और देशकी सुरक्षा के लिए खतरनाक अन्य गतिविधियों के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों को निरुद्ध करना है। इस अधिनियम के अंतर्गत निरोध की तिथि से 10 दिनों के भीतर निरोध के आधार बताए जाने का उपबंध है। निरुद्ध व्यक्ति विरोध की विधिमान्यता को न्यायालय में चुनौती दे सकता है।
विदेशी मुद्रा सरक्षण व सरकारी निरीक्षण अधिनियम, 1974: आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की श्रेणी का यह कानून 19 दिसंबर, 1974 से लागू है। 13 जुलाई, 1984 को एक अध्यादेश के आधार पर इस अधिनियम में संशोधन कर तस्करों के लिए नजरबंदी की सीमा एक वर्ष से बढ़ाकर दो वर्ष कर दी गई।
आतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधि निरोधक अधिनियम 1985: भारत में बढ़ रहे आतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए आतंकवाद एवं विध्वंसक गतिविधि निरोधक अधिनियम, 1985 में लागू किया गया। इसे संक्षेप में टाडा (TADA) भी कहा जाता है। इस अधिनियम में अग्रलिखित प्रावधान किये गये-
- पुलिस अभियुक्त को 180 दिनों तक हिरासत में रख सकती है। दण्डाधिकारी के समक्ष उपस्थित कर फिर अगले 180 दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता है।
- पुलिस के समक्ष की गई अपराध स्वीकृति को सबूत माना जा सकता है।
- इसे एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित किया जा सकता है।
- अभियुक्त को आरोपी और गवाहों की जानकारी से वंचित रखा जा सकता है।
- इसके लिए अपील मात्र 30 दिनों के भीतर केवल सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है।
23 मई, 1995 को टाडा की अवधि समाप्त हो गई। टाडा कानून के उन्मूलन के पश्चात् बीजेपी सरकार द्वारा पोटा (POTA) कानून लाया गया। सरकार के सत्ताच्युत होते ही यह कानून भी समाप्त हो गया।
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शोषण के विरुद्ध अधिकार
न्याय का एक आवश्यक पहलु यह भी है की एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण समाप्त किया जाए। भारतीय संविधान द्वारा न्याय के इस आदर्श की पुष्टि के लिए शोषण को अपराध घोषित किया गया है।
मानव व्यापार तथा बेगार का प्रतिषेध
अनुच्छेद-23 अमरीकी संविधान के 13वें संशोधन की तरह है, जिसमें दासता का अंत किया गया है। भारत में भी सदियों से किसी न किसी रूप में दासता की प्रथा विद्यमान थी, जिसके अनुसार हरिजनों, खेतिहर श्रमिकों तथा स्त्रियों पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार किए जाते थे। अतः संविधान में मानवीय शोषण के इन सभी रूपों को कानून के अनुसार दण्डनीय घोषित कर दिया गया है। इस अधिकार का एक महत्वपूर्ण अपवाद भी है कि, राज्य सार्वजनिक उद्देश्य से अनिवार्य श्रम की योजना धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ण या सामाजिक स्तर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
शोषण के विरुद्ध अधिकार के अंतर्गत मानव व्यापार तथा किसी भी व्यक्ति से बेगार अथवा जबरदस्ती काम लेना गैर-कानूनी घोषित किया गया है। इसके अतिरिक्त 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी बच्चे को कारखाने अथवा अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नहीं लगाया जा सकता। |
बच्चों को कारखानों या जोखिम भरे काम में नियोजन का निषेध
अनुच्छेद-24 द्वारा 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों या जोखिम भरे कामों में नियोजित करने का निषेध किया गया है। यह निषेध मानव अधिकारों संबंधी अवधारणाओं तथा संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों के अनुरूप है। वस्तुतः शोषण के विरुद्ध अधिकार का उद्देश्य एक वास्तविक सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
धार्मिक स्वतंत्रता का अभिप्राय है कि किसी भी धर्म में आस्था रखने या न रखने के बारे में राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं करता। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 27, 28 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करते हैं।
अंत:करण की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 25 के अनुसार सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता तथा कोई भी धर्म स्वीकार करने या उसका प्रचार करने का अधिकार प्राप्त होगा।
कृपन धारण करना सिख धर्म को मानने का अंग समझा जाएगा और इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए सिख, जैन और बौद्ध भी हिन्दुओं में शामिल होंगे।
उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार धर्म का प्रचार करने के अधिकार में बलात् धर्म परिवर्तन का कोई अधिकार शामिल नहीं है क्योंकि इससे लोक व्यवस्था अस्थिर हो सकती है।
आनन्द मार्ग के मामले में, सार्वजनिक जुलूस में घातक हथियारों तथा मनुष्य की खोपड़ियों के साथ तांडव नृत्य करने की अनिवार्य धार्मिक आचरण नहीं माना गया था और लोक व्यवस्था तथा सदाचार के हित में उस जुलूस पर रोक लगाना एक युक्तियुक्त प्रतिबंध माना गया था।
इसी प्रकार बकरीद के मौके पर गो-वध की ईस्लाम की अनिवार्य प्रथा नहीं माना गया है। इसलिए लोक व्यवस्था के हित में विधि द्वारा इसका प्रतिषेध किया जा सकता है।
धार्मिक मामलों का प्रबंध करने की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 26 के अनुसार प्रत्येक धर्म के अनुयायियों को निम्न अधिकार प्रदान किये गये हैं-
- धार्मिक संस्थाओं तथा दान से पोषित सार्वजनिक सेवा संस्थाओं की स्थापना तथा उनके संचालन का अधिकार।
- धर्म संबंधी निजी मामलों के प्रबंध का अधिकार।
- चल और अचल सम्पति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार।
- उक्त सम्पत्ति का विधि के अनुसार संचालन करने का अधिकार।
अनुच्छेद-26 के अधीन अधिकार भी लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन नहीं हैं। अनुच्छेद 25 के अधीन किए गए प्रावधान के अनुसार न्यायालयों ने धर्म के जरूरी तथा गैर-जरूरी पक्षों के बीच विभेद किया है। न्यायालयों के अनुसार धार्मिक संस्थाओं की संपत्ति के प्रशासन को विधि द्वारा विनियमित किया जा सकता है किंतु प्रशासन के अधिकार को पूरी तरह से छीना नहीं जा सकता (रतिलाल बनाम बंबई राज्य, 1954), (रामानुज बनाम तमिलनाडु राज्य, 1961), (सरूप बनाम पंजाब राज्य, 1959), (नरेंद्र बनाम गुजरात राज्य, 1974), (राम बनाम पंजाब राज्य, 1981)।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार नागरिकों को किसी भी धर्म का अनुसरण करने एवं पूजा-पाठ करने की अनुमति प्रदान करता है। किसी भी धर्म में आस्था रखने अथवा न रखने के सम्बन्ध में राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं करता और राजकीय शिक्षण संस्थानों में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी। |
धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर न देने की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 27 में उल्लेख किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि या पोषण में किए गए खर्च के लिए कोई कर अदा करने के लिए विवश नहीं किया जाएगा। तात्पर्य यह है कि है यदि करों का इस्तेमाल सभी धर्मों की अभिवृद्धि के लिए किया जाता है तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। यह पंथनिरपेक्षता की अवधारणा के अनुरूप है और इसका अर्थ है-सर्वधर्म समभाव। संविधान किसी विशेष धर्म पर किये जाने वाले व्यय को कर से मुक्त करता है लेकिन यदि राज्य किसी धार्मिक सम्प्रदाय के लिए कोई कार्य करता है, तो ऐसे कार्य के लिए राज्य उस धार्मिक सम्प्रदाय के लोगों से शुल्क वसूल सकता है। कर और शुल्क में अंतर होता है। राज्य बिना किसी सेवा के कर वसूलता है, जबकि सेवा करने के कारण राज्य शुल्क वसूलता है।
राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का निषेध
अनुच्छेद 28 में कहा गया है कि राजकीय निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।
इसके अतिरिक्त राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या आर्थिक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में किसी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष की शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकेगा। उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि संविधान ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की है। धर्मनिरपेक्ष राज्य अधार्मिक अथवा धर्मविरोधी नहीं होता। लोक व्यवस्था एवं सदाचार के लिए राज्य उपरोक्त स्वतंत्रताओं पर आवश्यक प्रतिबंध लगा सकता है। उदाहरण के लिए, धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में कोई बालवध या कन्या वध जैसे जघन्य अपराध नहीं कर सकता। कमिश्नर, हिंदू रिलीजिअस एंडोंमेंट्स बनाम लक्ष्मीन्द्र के विवाद में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि धार्मिक स्वतंत्रता के प्रावधान-भारत के नागरिकों के लिए ही नहीं वरन् सभी व्यक्तियों के लिए हैं, जिनमें विदेशी भी शामिल हैं।
संस्कृति एवं शिक्षा का अधिकार सभी नागरिकों को समान रूप से अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति को अक्षुण्ण बनाने हेतु उपाय करने तथा शिक्षण संस्थान खोलने का अधिकार प्रदान करता है। |
संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार
भाषा, लिपि और संस्कृति बनाए रखने का अधिकार अनुच्छेद 29 भारत में कहीं भी निवास करने वाले नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति हैं, उसे बनाए रखने के अधिकार की गारंटी देता है। किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा चलाई जाने वाली अथवा उससे सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में केवल धर्म, मूलवंश, जाति या भाषा के कारण प्रवेश देने से इंकार नहीं किया जाएगा।
शिक्षण संस्थाएं कायम करने का अधिकार
सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी पसंद की शिक्षण संस्थाएं कायम करने और उनका प्रबंध करने का अधिकार होगा। राज्य आर्थिक सहायता देने में ऐसी संस्थाओं के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा।
44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सम्पत्ति के मूल अधिकार को समाप्त करने का जो कार्य किया गया है उसके संबंध में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इससे अल्पसंख्यकों के अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा इन शिक्षण संस्थाओं के प्रशासन के अधिकार पर कोई आघात नहीं पहुंचेगा। सेंट स्टीफेंस कॉलेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय (1992) के विवाद में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि पंथनिरपेक्षता या अल्पसंख्यकों के नाम पर अल्पसंख्यकों को अधिक अधिकार नहीं दिये जा सकते क्योंकि राष्ट्र की एकता और सद्भावना के लिए बहुसंख्यकों का विश्वास भी समान रूप से आवश्यक है। अतः अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अपने समुदाय के विद्यार्थियों के लिए अधिकतम 50 प्रतिशत तक स्थान आरक्षित कर सकते हैं।
संविधान में अल्पसंख्यकों को दी गई विशिष्टता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि अल्पसंख्यक राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा में घुल-मिल न सकें। इसका अभिप्राय यह है कि देश की प्रगति के साथ-साथ बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों को एक दूसरे से अलग करने वाले अवरोध धीरे-धीरे कम होते जाएं और भारत का एक परम्परावादी एवं नियमनिष्ठ समाज एक समन्वित, गतिशील समाज बनकर राष्ट्रीय आदशों और आकांक्षाओं के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहे।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
संविधान न केवल अधिकारों की एक शानदार सूची प्रस्तुत करता है, बल्कि उन अधिकारों की रक्षा की भी व्यवस्था करता है। अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को सौंपा गया है।
संवैधानिक उपचारों के अधिकारों की व्यवस्था के महत्त्व को दृष्टि में रखते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, यदि कोई मुझसे यह पूछे कि संविधान का वह कौन सा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान शून्य प्राय हो जाएगा, तो इस अनुच्छेद-32 को छोड़कर मैं और किसी अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह संविधान का हृदय एवं आत्मा है। यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों का सजग प्रहरी बना देता है।
परमाधिकार रिटेंपरमाधिकार रिटें इंग्लैंड के सामान्य कानून (Common Law) की अभिव्यक्ति हैं। ये वे असाधारण रिटें हैं जो सम्राट द्वारा इस आधार पर निकाली जाती थीं कि सामान्य विधिक उपचार अपर्याप्त हैं। आगे चलकर ये रिटें उच्च न्यायालय प्रदान करने लगा क्योंकि उसके माध्यम से ही सम्राट न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करता था। ये परमाधिकार रिटें तब दी जाती थीं जब सामान्य विधि में कोई उपचार उपलब्ध नहीं होता था या उपलब्ध उपचार अपर्याप्त था।भारतीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत उच्च न्यायालय की रिट निकालने की शक्ति उच्चतम न्यायालय की शक्ति की अपेक्षा अधिक व्यापक है। संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय को केवल मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए ही रिटें निकालने का अधिकार है। उच्च न्यायालय न केवल मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए बल्कि सामान्य विधि के उल्लंघन के कारण किसी अन्य क्षति या अवैधता के प्रतितोष के लिए भी रिट निकाल सकता है। उदाहरणस्वरूप-
उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों को मूल अधिकारों की रक्षा के लिए निम्न आदेश जारी करने के अधिकार दिए गए हैं- बंदी प्रत्यक्षीकरण: लैटिन भाषा के शब्द हेबियस कारपस का अर्थ है, शरीर को हमारे समक्ष प्रस्तुत करो। इसके द्वारा न्यायालय, बंदीकरण करने वाले अधिकारी को आदेश देता है कि वह बंदी बनाए गए व्यक्ति को निश्चित समय और स्थान पर उपस्थित करे, जिससे न्यायालय बंदी बनाए जाने के कारणों पर विचार कर सके। न्यायालय इस बात का निर्णय करता है कि नजरबंदी वैध है या अवैध, और यदि न्यायालय की यह लगता है कि किसी व्यक्ति की अनुचित ढंग से बंदी बनाया गया है तो वह उसकी रिहाई का आदेश दे देता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए यह लेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह रिट किसी भी व्यक्ति को संबोधित हो सकती है चाहे वह अधिकारी ही या प्राइवेट व्यक्ति जिसकी अभिरक्षा में कोई अन्य व्यक्ति है। इस रिट की अवज्ञा करने पर न्यायालय के अवमान का दंड दिया जाएगा। इस प्रकार की रिट प्राइवेट व्यक्ति और कार्यपालिका दोनों के मनमाने कार्यो के विरुद्ध प्रजा के पक्ष में शक्तिशाली रक्षोपाय है। अपवाद: निम्नलिखित मामलों में बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी नहीं की जा सकती-
परमादेश: अंग्रेजी शब्द मैन्डेमस का अर्थ है-आज्ञा। इसमें जिस निकाय या व्यक्ति की वह संबोधित है उससे यह अपेक्षा है कि वह कोई लोक कर्तव्य या लोक-कल्प विधिक कर्तव्य करे जिसे करने से उसने इंकार किया है और जो किसी अन्य पर्याप्त विधिक उपचार द्वारा कराया नहीं जा सकता। अतएव स्पष्ट है कि परमादेश तभी निकाला जाएगा जब आवेदक को लोक प्रकृति के किसी, विधिक कर्तव्य के अनुपालन का विधिक अधिकार है और जिस पक्षकार के विरुद्ध रिट की याचना की जाती है। वह उस कर्तव्य को करने के लिए आबद्धकर है। यह उपचार न्यायालय के विवेकाधीन है और यदि जिस क्षति का परिवाद किया गया है उसके प्रतितोष के लिए आनुकल्पिक उपचार है तो न्यायालय परमादेश देने से इंकार कर सकता है। मूल अधिकारों के प्रवर्तन के मामलों में आनुकल्पिक उपचार के प्रश्न की उतना महत्व नहीं दिया जाता क्योंकि उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय का कर्तव्य है कि वह मूल अधिकारों का प्रवर्तन करे। भारत में परमादेश द्वारा अधिकारियों और सरकार के विरुद्ध समुचित कार्यवाहियां की जा सकती हैं। यह रिट अवर न्यायालयों और अन्य न्यायिक निकायों के विरुद्ध भी उस स्थिति में जारी की जा सकती है, यदि वे अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने से इंकार करते हैं और इस प्रकार अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं। परमादेश निम्नलिखित व्यक्तियों के लिए नहीं दिया जाएगा-
प्रतिषेध: प्रतिषेध का अर्थ है- मना करना। जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर जा रहा है अर्थ कोई ऐसा कार्य कर रहा है जो उसके अधिकार क्षेत्र में न हो तो उच्चतम या उच्च न्यायालय उसे ऐसा करने से रोक सकता है। प्रतिषेध आदेश केवल न्यायिक प्राधिकारियों के विरुद्ध ही जारी किए जा सकते हैं, प्रशासनिक कर्मचारियों के विरुद्ध नहीं। अपवाद:
उत्प्रेषण: उत्प्रेषण का अर्थ है– और अधिक सूचित कीजिए। यह आज्ञा पत्र अधिकांशत: किसी विवाद की निम्न न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिए जारी किया जाता है जिससे वह अपनी शक्ति से अधिक अधिकारों का उपयोग न करे या अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतों को भंग न करे। इस आज्ञापत्र के आधार पर उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायाधीशों से किन्हीं विवादों के संबंध में सूचना प्राप्त कर सकते हैं। अपवाद: प्रॉविंस ऑफ बॉम्बे बनाम खुशालदास (1950) के मामले में न्यायालय ने यह कहा था कि शुद्ध रूप से प्रशासनिक कार्रवाई के विरुद्ध उत्प्रेषण की रिट जारी नहीं की जाएगी किंतु क्राइपाक बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1970), केशव मिल्स बनाम भारत संघ (1978), जोसेफ बनाम एक्जीक्यूटिव इंजीनियर (1978) आदि विवादों में दिए गए निर्णयों में न्यायालय ने प्रशासनिक और न्यायिक निकायों के बीच उत्प्रेषण लेख के संबंध में इस भेद को मिटा दिया। अधिकार पृच्छा: इसका अर्थ है- तुम्हें क्या अधिकार है? जब कोई व्यक्ति किसी सार्वजनिक पद को गैर-कानूनी तरीके से प्राप्त कर लेता है या गैर-कानूनी तरीके से किसी पद पर बना रहता है तो न्यायालय पूछ सकता है कि उसे उसके पद पर बने रहने का क्या हक है? और जब तक वह इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं देता, वह कार्य नहीं कर सकता। इसके लिए कुछ आवश्यक शर्ते हैं-
इस प्रकार व्यक्तियों के द्वारा साधारण परिस्थितियों में ही न्यायालयों की शरण लेकर अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सकती है, लेकिन युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह जैसी परिस्थितियों में, जबकि राष्ट्रपति के द्वारा संकटकाल की घोषणा कर दी गई हो, मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कोई व्यक्ति किसी न्यायालय से प्रार्थना नहीं कर सकता। अतएव संविधान के द्वारा संकटकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकारों (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को छोड़कर) को स्थगित करने की व्यवस्था की गई है। |
संवैधानिक उपचारों का अधिकार स्वयं में कोई अधिकार न होकर अन्य मौलिक अधिकारों का रक्षोपाय है। इसके अंतर्गत व्यक्ति मौलिक अधिकारों के हनन की अवस्था में न्यायालय की शरण ले सकता है। |
अंतर्निहित अधिकार
मौलिक अधिकारों के अतिरिक्त भारत के नागरिकों को अन्य अधिकार भी प्राप्त हैं जो समय-समय पर संविधान के प्रावधानों की व्याख्या के फलस्वरूप अस्तित्व में आए, जैसे, प्रेस की स्वतंत्रता, एकान्तता का अधिकार, न्यायिक परीक्षण का अधिकार आदि।
आपसी सहमति से स्थापित समलैंगिक संबंध
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में 2 जुलाई, 2009 की व्यस्कों के मध्य आपसी सहमति से एकांत में बनाए गए समलैंगिक संबंधों को वैध केअर दिया है एवं इसे अवैध बताने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 व 21 का उल्लंघन बताते हुए इसे मौलिक अधिकारों का हनन कहा है।
गैर-सरकारी संगठन नाज फाउण्डेशन व समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ रहे अन्य लोगों की जनहित याचिकाओं को मंजूर करते हुए उच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि इस फैसले का परिणाम आई.पी.सी. की धारा 377 के तहत उन आपराधिक मामलों को फिर से खोले जाने के रूप में नहीं निकलेगा जिन्हें पहले ही अंतिम रूप दिया जा चुका है।
गौरतलब है कि समलैंगिकता को अपराध करार देने वाला कानून 149 वर्ष पुराना है, जो तत्कालीन पहले विधि आयोग के अध्यक्ष लार्ड मैकाले की संस्तुति पर 1860 में कार्नल इंटरकोर्स को दण्डनीय अपराध के रूप में आई.पी.सी. में शामिल किया गया था।
प्रेस स्वातंत्र्य
हमारे संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता की प्रत्याभूति देने के लिए कोई विनिर्दिष्ट उपबंध नहीं है क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) में प्रत्याभूत अभिव्यक्ति की व्यापक स्वतंत्रता में सम्मिलित है। अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य से अभिप्रेत है किसी भी साधन द्वारा जिसमें मुद्रण भी सम्मिलित है अर्थात् केवल अपने विचार ही नहीं बल्कि दूसरों के विचार भी अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता।
किंतु अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य आत्यंतिक नहीं है। यह अनुच्छेद 19 के खंड (2) में अंतर्विष्ट परिसीमाओं के अधीन है। राज्य, प्रेस की स्वतंत्रता पर राज्य की सुरक्षा, भारत की प्रभुता और अखण्डता, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार अथवा न्यायालय अवमान, मानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में विधियां बना सकता है।
भारत में प्रेस को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता के लिए भी वही मापदंड हैं, जो सामान्य नागरिक के लिए हैं। इस तथ्य से कई प्रस्थापनाएं उत्पन्न होती हैं-
प्रेस को:
- सामान्य रूप से कराधान से,
- औद्योगिक संबंधों से संबंधित साधारण विधि से लागू होने से, तथा;
- कर्मचारियों की सेवाओं की शर्तो के विनियमन से, उन्मुक्ति नहीं है।
किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रत्याभूति को देखते हुए राज्य के लिए यह विधिपूर्ण नहीं होगा कि वहः
- प्रेस पर ऐसी विधियां लागू करे जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को क्षीण करती हैं या समाप्त करती हैं या जो उसके परिचालन को कम करेगीं, जिससे सूचना के प्रसार का क्षेत्र संकुचित हो जाएगा या जिससे उसके अपने अधिकार के प्रयोग के साधन को चुनने पर बंधन लग जाए या वह सरकार से सहायता प्राप्त करने के लिए विवश हो जाए और इस प्रकार उसकी स्वाधीनता का हनन हो जाए।
- प्रेस की सबसे अलग करके उस पर अत्यधिक और प्रतिबद्धकारी भार लगाए जिससे उसका परिचालन सीमित हो जाए या उसके प्रयोग के उपकरणों को चुनने से अथवा आनुकल्पिक माध्यम खोजने के अधिकार पर शक्ति अधिरोपित हो जाए।
- प्रेस पर विनिर्दिष्ट कर अधिरोपित करे जो जानबूझकर सूचना के परिचालन को सीमित करने के लिए हो।
जब विशेष रूप से प्रेस के विरुद्ध बनाई गई किसी अधिनियमित की सांविधानिकता पर आक्षेप किया जाता है तो न्यायालय को, जैसे ऊपर बताया जा चुका है, अधिष्ठायी औरप्रक्रियात्मक युक्तियुक्तता की कसौटी पर उसकी परीक्षा करनी होगी। इसी प्रकार के अधिनियम पंजाब विशेष शक्ति (प्रेस) अधिनियम, 1956 पर उच्चतम न्यायालय ने वीरेन्द्र बनाम पंजाब राज्य वाद में विचार किया।
प्रेस अधिनियम, 1951 के पर्यवसान के पश्चात् 1956 में प्रेस नियंत्रण के लिए कोई अखिल भारतीय अधिनियम नहीं था। किंतु 1976 में संसद ने आक्षेपणीय सामग्री प्रकाशन निवारण अधिनियम, 1976 अधिनियमित किया, जो स्थायी भी था और जिसमें और भी कठोर उपबंध थे। अप्रैल 1977 में जनता सरकार ने इसे निरसित कर दिया। बाद में संवैधानिक (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद अनुच्छेद 361क जोड़कर इस स्थिति को और सुदृढ़ कर दिया गया।
मौलिक अधिकारों का निलम्बन
मौलिक अधिकारों का निलम्बन निम्न प्रकार से किया जा सकता है-
- मौलिक अधिकारों पर युक्तियुक्त निर्बंधन अधिरोपित किये जाने के संदर्भ में अनुच्छेद 19(2) से 19(6) में उल्लेख किया गया है।
- अनुच्छेद 15(1) तथा (4) के अनुसार सामाजिक उद्देश्यों के प्रवर्तन, जैसे- महिलाओं, बच्चों तथा पिछड़ी जातियों के कल्याण के लिए राज्य मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप कर सकता है।
- अनुच्छेद 34 के अनुसार जब किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवर्तन में हो, तब संसद विधि द्वारा मौलिक अधिकारों पर निबंधन अधिरोपित कर सकती है।
- जब देश में अनुच्छेद 352 के अधीन राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई हो, तब अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का स्वतः निलंबन हो जाता है और राष्ट्रपति अधिसूचना जारी करके अन्य मूल अधिकारों को समाप्त कर सकता है, लेकिन अनुच्छेद 20 तथा 21 द्वारा प्रदत्त अधिकार कभी भी समाप्त नहीं किये जा सकते।
- संसद संविधान में संशोधन करके मौलिक अधिकारों को निलंबित कर सकती है, लेकिन ऐसा करते समयवह संविधान के मूल ढांचे को नष्ट नहीं कर सकती।
मौलिक अधिकारों के उपांतरण की शक्ति
अनुच्छेद-33 द्वारा संसद की उपांतरण की शक्ति प्रदान की गई है। संसद अपनी इस शक्ति के प्रयोग से निम्नलिखित व्यक्तियों के संबंध में मौलिक अधिकारों को उपांतरित करके यह व्यवस्था कर सकती है की किस सीमा तक इन व्यक्तियों को मौलिक अधिकार प्राप्त होंगे-
- सशस्त्र बलों के सदस्यों को,
- लोक व्यवस्था बनाये रखने के लिए उत्तरदायी सुरक्षा बलों के सदस्यों को,
- आसूचना या प्रति आसूचना के उद्देश्य के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी ब्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों को, तथा;
- उक्त तीनों में निर्दिष्ट किसी बल, ब्यूरो या संगठन के प्रयोजनों के लिए स्थापित दूरसंचार प्रणाली या उसके संबंध में नियोजित व्यक्तियों की।
सम्पत्ति का अधिकार—जो अब मूल अधिकार नहीं रह गया है
44वें संशोधन अधिनियम से पहले की स्थिति: मूल संविधान द्वारा प्रदत्त कोई भी अधिकार इतना विवादित नहीं रहा जितना कि संपत्ति का अधिकार। 44वें संवैधानिक संशोधन (30 अप्रैल, 1979) के पूर्व तक सम्पत्ति का अधिकार मूल अधिकार के रूप में प्राप्त था। संविधान के पांच अनुच्छेद – 19(1), 31, 31(क)ए 31(ख) और 31(ग) संपत्ति के अधिकार और उस पर लगाई गई सीमाओं की व्याख्या करते थे। 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा अनुच्छेद – 19(1)(च) और अनुच्छेद-31 के अंतर्गत प्रदत्त सम्पत्ति के मौलिक अधिकार का लोप कर दिया गया। इसे अब संविधान के भाग-12 के अंतर्गत एक नया अध्याय-4 अंतःस्थापित करके उसमें अनुच्छेद-300(क) बना दिया गया है। इस प्रकार सम्पति का अधिकार संवैधानिक अधिकार तो है किंतु मौलिक अधिकार नहीं है, अर्थात इस अधिकार के उल्लंघन की अवस्था में पीड़ित व्यक्ति अनुच्छेद-32 के अधीन सीधे उच्च या सर्वोच्च न्यायालय की शरण नहीं ले सकता। 1950 से लेकर 1978 तक इस अधिकार के संबंध में अनेक संवैधानिक संशोधन हुए। इन संशोधनों का उद्देश्य जमीदारी, विधियों की रक्षा करना और उन्हें वैधानिक करना था तथा कृषि भूमि सुधार एवं अन्य इसी प्रकार के कानून न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिए गए।
संविधान द्वारा प्रदत्त सम्पत्ति के इस मूल अधिकार में वर्ष 1951 से ही विभिन्न संशोधन किए गए जो इस प्रकार हैं:
प्रथम संशोधन, 1951: मूल संविधान में जो सम्पत्ति के अधिकार की व्यवस्था की गई थी, उसके अनुसार ऐसे कानून का निर्माण नहीं किया जा सकता था, जिसके अंतर्गत किसी की भी व्यक्तिगत सम्पत्ति को बिना उचित मुआवजे के लेने की व्यवस्था हो। किंतु 1951 के संवैधानिक संशोधन द्वारा इस व्यवस्था को परिवर्तित करके यह निश्चित कर दिया गया कि जमीदारी के अंत से संबंधित विधेयक मुआवजे की व्यवस्था के न होते हुए भी वैध समझे जायेंगे। इस प्रकार इस संविधान के अनुसार राज्य बिना मुआवजे के भी व्यक्ति की भूमि ले सकता है।
चतुर्थ संशोधन, 1955: अनुच्छेद 31 के अंतर्गत राज्य सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निजी संपत्ति पर कब्जा कर सकता था पर उसके लिए यह जरूरी था कि जिस व्यक्ति की संपत्ति से वंचित किया जाए उसे उसका मुआवजा मिले। अनुच्छेद 31 की व्याख्या करते हुए न्यायपालिका ने निर्णय दिया था कि संपति से वंचित किए जाने पर एक व्यक्ति को जो मुआवजा दिया जाता है, वह पर्याप्त होना चाहिए अर्थात् मुआवजे की रकम इतनी होनी चाहिए जिससे कि उसकी क्षतिपूर्ति हो सके। इस निर्णय के पश्चात् संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई। संकट यह था कि मुआवजा देने के लिए उतना धन कहां से आए। इसलिए संविधान के चौथे संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि मुआवजे की रकम पर्याप्त है अथवा नहीं, इसके सम्बन्ध में न्यायालयों को निर्णय देने का कोई अधिकार नहीं होगा।
25वां संवैधानिक संशोधन, 1971: इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 को संशोधित कर तथा अनुच्छेद 31(ग) के बाद कुछ शब्दों को जोड़कर यह व्यवस्था की गई है कि सम्पत्ति को सार्वजनिक दृष्टि से अर्जन और उसके मुआवजे की राशि को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
29वां संवैधानिक संशोधन, 1972: इस संशोधन द्वारा केरल राज्य के भूमि सुधार से संबंधित दो कानूनों को 9वीं सूची में शामिल कर लिया गया और अब इन्हें न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा यह निश्चित किया गया कि यदि भूमि के सीमाकरण से व्यक्तिगत जोत की भूमि भी प्रभावित होती है तो राज्य के द्वारा वह भूमि अधिगृहीत की जा सकती है और व्यवस्थापिका द्वारा इस भूमि के बदले में निश्चित किया गया मुआवजा संतुलित न होने की स्थिति में न्यायालय को मुआवजे की धनराशि पर विचार करने का अधिकार नहीं होगा। 34वां संवैधनिक संशोधन, 1974 और 40वां संवैधानिक संशोधन, 1976 भी इसी संदर्भ में थे।
44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 के पूर्व सम्पत्ति के मूल अधिकार के विषय में संविधान के भाग-3 में स्थूल रूप में निम्नलिखित चार प्रत्याभूतियां विद्यमान थीं-
- सभी नागरिकों की सम्पत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन का अधिकार होगा जिस पर राज्य युक्तियुक्त निर्बंधन लगा सकेगा।
- विधि के प्राधिकार के बिना किसी भी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
- राज्य केवल सार्वजनिक प्रयोजन के लिए ही व्यक्ति की सम्पत्ति का वैवश्यक अर्जन अथवा अधिग्रहण करने की विधि बना सकेगा।
- ऐसी विधि में सम्पत्ति के मालिक की उसकी सम्पत्ति के अर्जन या अधिग्रहण के बदले में एक धनराशि देने का उपबंध होगा, परंतु इस धनराशि की पर्याप्तता के विषय में किसी न्यायालय के समक्ष प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।
क्या संपत्ति के अधिकार की मौलिक अधिकार के रूप में पुनर्स्थापना होनी चाहिए?
संविधान लागू किए जाने के बाद से ही संपत्ति का अधिकार विवादित रहा। न्यायपालिका के समक्ष भी संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई। सम्पत्ति का मूल अधिकार सामाजिक-आर्थिक न्याय की प्राप्ति में बाधक बनने लगा। इसलिए 1977 के चुनाव में जनता पार्टी के घोषणा-पत्र में कहा गया था। कि, सम्पति का अधिकार एक मूल अधिकार के रूप में नहीं रहेगा वरन् यह केवल एक कानूनी अधिकार होगा। जनता पार्टी की सरकार बनने के पश्चात् 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 के अंतर्गत संविधान में एक नया अनुच्छेद-300-क शामिल किया गया जो यह घोषणा करता है कि, कानून के आदेश के बिना किसी को भी उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।
संपत्ति के अधिकार से संबंधित सभी उपबंधों की निरस्त करके संविधान के भाग-12 में एक नया अध्याय-4 जोड़ दिया गया है। इस नये अध्याय में केवल एक ही अनुच्छेद है, अनुच्छेद-300-क। अब सम्पत्ति के अधिकार को अन्य मूल अधिकारों की भांति संवैधानिक संरक्षण प्राप्त नहीं है। केवल इसे एक कानूनी अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है, संवैधानिक अधिकार के रूप में नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि राज्य की वैयक्तिक सम्पत्ति लेने का अधिकार प्राप्त है, किन्तु ऐसा करने के लिए उसे किसी विधि का प्राधिकार प्राप्त होना चाहिए। कार्यपालिका के आदेश द्वारा किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता।
उल्लेखनीय है कि 18 अप्रैल, 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संपत्ति का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है और सरकार मनचाहे तरीके से किसी व्यक्ति को उसकी भूमि से वंचित नहीं कर सकती।
अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और सरकार द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) की स्थापना की पहल ने किसानों के विरोध को जन्म दिया जिससे संपत्ति के अधिकार को फिर से मूल अधिकार में शामिल करने की आवाज बुलंद हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की एक नोटिस भेजकर पूछा कि संपत्ति के अधिकार को दोबारा मूल अधिकार क्यों नहीं बनाना चाहिए, लेकिन 2010 में न्यायालय ने जनहित याचिका (पीआईएल) को निरस्त कर दिया। जैसाकि 2007 में सर्वोच्च न्यायालय ने बेबाक तौर पर कहा था कि मौलिक अधिकार संविधान का मूलभूत ढांचा है और जिन्हें हटाया या नष्ट नहीं किया जा सकता।
संसद की संविधान संशोधन शक्ति और मौलिक अधिकार
संविधान की प्रारंभिक अवस्था से ही मूल अधिकारों का अस्तित्व है। मूल अधिकारों के संशोधन की प्रक्रिया के संदर्भ में संविधान में भी कोई प्रावधान नहीं किया गया है। संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया का उल्लेख स्वयं संविधान के अनुच्छेद 368 में किया गया है। लेकिन मौलिक अधिकारों के संशोधन के संदर्भ में अनुच्छेद 368 के उपयोग पर सदैव विवाद रहा है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 13(2) में यह भी निर्देश दिया गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा, जो मूल अधिकारों को सीमित करती हो।
संविधान का सर्वोच्च निर्वचनकर्ता उच्चतम न्यायालय है, इसलिए उसके समक्ष सर्वप्रथम 1951 में शंकरी प्रसाद बनाम बिहार राज्य के मामले में यह प्रश्न उठाया गया कि मौलिक अधिकारों का संशोधन संसद कर सकती है अथवा नहीं। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 368 में निहित प्रक्रिया के अनुसार में संशोधन कर सकती है।
1966 में संविधान के 17वें संशोधन पर निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा भी इस पर सहमति व्यक्त की गई थी, लेकिन 17 फरवरी, 1967 को गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि मौलिक अधिकारों की संविधान में सर्वोपरि स्थिति प्रदान की गई है, इसलिए संसद मौलिक अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती।
उक्त निर्णय से आर्थिक और सामाजिक प्रगति की दिशा अथवा संविधान में दिए गए नीति-निदेशक तत्वों को कार्य रूप में परिणित करने के संदर्भ में संसद के समक्ष संकट की स्थिति पैदा हो गई। अतः विचार-विमर्श के उपरांत 1971 में 24वें संशोधन द्वारा यह निश्चित किया गया कि संसद को संविधान के किसी भी उपबंध को (जिसमें मौलिक अधिकार भी आते हैं) संशोधित करने का अधिकार होगा।
24वें संविधान संशोधन की संवैधानिकता को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 के मामले में चुनौती दी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई के लिए 13 सदस्यीय खण्डपीठ का गठन किया। इस खण्डपीठ ने 7 : 6 के बहुमत से यह निर्णय दिया कि-
- संसद को मूल अधिकारों में संशोधन की शक्ति प्राप्त है और संवैधानिक संशोधन अनुच्छेद 13(2) में प्रयुक्त विधि के अंतर्गत शामिल नहीं है।
- संसद की संविधान में संशोधन करने की व्यापक शक्ति प्राप्त है लेकिन वह इस शक्ति का प्रयोग करके संविधान के मूल ढांचे को नष्ट नहीं कर सकती। इस प्रकार न्यायालय द्वारा संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा की स्पष्ट किया गया।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिए गए निर्णय से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने के लिए संविधान में 1976 में 42वां संशोधन करके यह व्यवस्था की गयी कि
- संसद द्वारा किये गये संविधान संशोधन की वैधता को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, तथा;
- संसद की संविधान संशोधन शक्ति पर कोई परिसीमा नहीं होगी।
संविधान के 42वें संशोधन को 1979 में सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। इस संबंध में प्रस्तुत याचिका की पैरवी करते हुए प्रसिद्ध विधिवेत्ता एन.ए. पालकीवाला ने कहा था कि- 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान के बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया गया है, अतः इसे अवैध घोषित किया जाना चाहिए।
मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ के मामले में 5 न्यायाधीशों की एक संवैधानिक खण्डपीठ ने सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया कि संविधान में संशोधन करके की जाने वाली उक्त व्यवस्था असंवैधानिक है, तथा संसद संविधान के माध्यम से संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। इस निर्णय के द्वारा 42वें संवैधानिक संशोधन के दो प्रावधानों खण्ड-4 और खण्ड-55 की अवैध घोषित कर दिया गया क्योंकि इससे संविधान के मूल ढांचे को आघात पहुंचता था और ये केशवानंद भारती विवाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय का उल्लंघन करते थे। 42वें संवैधानिक संशोधन के जिन खण्डों को अवैध घोषित किया गया। वे इस प्रकार हैं-
खण्ड-4 में यह व्यवस्था की गई थी कि निदेशक तत्वों को लागू पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि ये कानून संविधान में दिए गए किसी अधिकार को सीमित या समाप्त करते हैं।
खण्ड-55 में यह व्यवस्था थी कि- संसद द्वारा संविधान में किए गए किसी भी संशोधन को (जिसमें संविधान का भाग 3 भी शामिल है) इसके अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी कि इसमें अनुच्छेद 368 द्वारा बतलाई गई प्रक्रिया को नहीं अपनाया गया है।
इस प्रकार संसद की कानून निर्माण की शक्ति को सीमित कर दिया गया है और संसद द्वारानिर्मित कानूनों तथा संवैधानि संशोधनों की न्यायपालिका द्वारा जांच की जा सकती है। इस बात पर पुनः विवाद खड़ा हो गया है कि किसी प्रश्न की संवैधानिकता अथवा असंवैधानिकता के संदर्भ में अंतिम निर्णय की शक्ति संसद को प्राप्त होनी चाहिए अथवा सर्वोच्च न्यायालय की।
आधारिक लक्षणों का संशोधन सम्भव नहीं
संविधान के कुछ आधारिक लक्षण हैं, जिन्हें अनुच्छेद-368 के अधीन संशोधित नहीं किया जा सकता। यदि संविधान संशोधन अधिनियम लाने का उद्देश्य संविधान की आधारिक संरचना अथवा ढांचे में परिवर्तन लाना हो तो न्यायालय को उक्त अधिनियम को शक्ति बाह्य के आधार पर शून्य घोषित करने की शक्ति होगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुच्छेद-368 में संशोधन का अभिप्राय ऐसे परिवर्तन से है, जो संविधान की संरचना को प्रभावित नहीं करता है। ऐसा करना नया संविधान बनाने के तुल्य होगा। संविधान के आधारिक लक्षण हैं-
- संविधान की सर्वोच्चता;
- विधि का शासन,
- शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत;
- संविधान की प्रस्तावना में घोषित उद्देश्य;
- न्यायिक पुनर्विलोकन, अनुच्छेद-32;
- परिसंघवाद;
- पंथनिरपेक्षता;
- प्रभुत्वसम्पन्न; लोकतांत्रिक गणराज्य की संरचना;
- व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा;
- राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता;
- समता का सिद्धांत;
- भाग-III के अन्य मौलिक अधिकारों का सार;
- सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की संकल्पना-लोक कल्याणकारी राज्य का सृजन; सम्पूर्ण भाग-IV;
- मौलिक अधिकार और निदेशक तत्वों के मध्य संतुलन;
- संसदीय प्रणाली का शासन;
- स्वतंत्रता एवं निष्पक्ष निर्वाचन का अधिकार;
- अनुच्छेद-368 के द्वारा संशोधनकारी शक्ति पर लगाए गए निर्बन्धन
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता, तथा;
- न्याय का वास्तव में सुलभ होना।
मौलिक अधिकारों से संबंधित संवैधानिक सिद्धांत
संविधान के अनुच्छेद 13 में मौलिक अधिकारों से संबंधित निम्नलिखित सिद्धांतों को सम्मिलित किया गया है। ये निम्नानुसार हैं-
न्यायिक पुनर्विलोकन
जब राज्य जीके अंतर्गत संसद, विधान मंडल, स्थानीय प्राधिकारी एवं अन्य प्राधिकारी शामिल हैं, कोई अधिनियम अथवा अध्यादेश जारी करते हैं और इनमें अंतर्विष्ट प्रावधान संविधान के भाग 3 में व्यक्तियों को प्रदान किए गये अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, तो याचिका दाखिल किये जाने पर न्यायालय उनका पुनर्विलोकन कर सकते हैं। न्यायालय ऐसे निर्णयों का भी न्यायिक पुनर्विलोकन कर सकते हैं, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धांत को संयुक्त राज्य अमेरिका से अधिगृहीत किया गया है।
भावी प्रवर्तन का सिद्धांत
मौलिक अधिकार का प्रभाव भूतलक्षी नहीं है बल्कि इसका भावी प्रभाव है। भारतीय संविधान के प्रवर्तन के पूर्व प्रवृत्त विधियों पर मौलिक अधिकारों का प्रभाव उस तिथि से होगा, जिस तिथि से इन्हें लागू किया गया। संविधान के प्रवर्तन के पूर्व किये गये कार्यों के संबंध में संविधान पूर्व विधियां लागू होगी। इसलिए संविधान पूर्व प्रवृत्त विधियों के अधीन संविधान के प्रवर्तन के पूर्व उत्पन्न अधिकार एवं दायित्व का प्रवर्तन मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के बावजूद भी कराया जा सकता है।
पृथक्करण का सिद्धांत
यदि राज्य द्वारा निर्मित किसी कानून का कोई भाग मौलिक अधिकारों से असंगत अथवा मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हो, तो उसे पूर्णतः असंवैधानिक और शून्य नहीं घोषित किया जाएगा, शर्त यह है कि वह भाग पृथक्करणीय हो। यदि वह भाग पृथक्करणीय नहीं है, तो उस पूरे कानून को शून्य घोषित कर दिया जाएगा।
अधित्यजन का सिद्धांत
मौलिक अधिकारों के संबंध में प्रतिपादित सिद्धांतों में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत अधित्यजन का सिद्धांत है। इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति, जिसे मौलिक मौलिक अधिकार प्रदान किया गया हो, वह इनका परित्याग नहीं कर सकता।
आच्छादन का सिद्धांत
संविधान के प्रवर्तन के पूर्व भारत में प्रवृत्त विधियां, जो मूलाधिकारों से असंगत है या उनके विरुद्ध हैं, समाप्त नहीं होती बल्कि निष्क्रिय हो जाती हैं और ऐसी विधियाँ मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित हो जाती हैं।
वस्तुतः मौलिक अधिकार सरकार के अवांछित हस्तक्षेप से विधायिका,कार्यपालिका एवं न्यायपालिका पर अंकुश लगाते हैं। मौलिक अधिकार राजनीतिक समानता एवं कानून के शासन को सुनिश्चित करता है साथ ही नागरिकों हेतु सरकार पर इनके सुचारू कार्यान्वयन के लिए दावा स्थापित करता है। गौरतलब है कि इनके न्याययोग्य होने के कारण इनके सुचारू संचालन के लिए न्यायपालिका की जिम्मेदारी भी अहम होती है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भगवती ने मेनका गांधी बनाम भारतीय संघ के मामले में कहा था कि- मौलिक अधिकार उन मूल्यों की प्रतिबिम्बित करते हैं जो वैदिक काल से चले आ रहे हैं तथा जिनका पालन जनता करती आ रही है। इनका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के सम्मान की रक्षा करना एवं ऐसी परिस्थितियां प्रदान करना है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके।