मौलिक कर्तव्य Fundamental Duties
अर्थ एवं परिचय
अधिकारों एवं कर्तव्यों का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। अधिकारों का अभिप्राय है की मनुष्य को कुछ स्वतंत्रताएं प्राप्त होनी चाहिए, जबकि कर्तव्यों का अर्थ है कि समाज के व्यक्ति के ऊपर कुछ ऋण है। समाज का उद्देश्य किसी एक व्यक्ति का विकास न होकर सभी मनुष्यों के व्यक्तित्व का समुचित विकास है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के साथ कुछ कर्तव्य जुड़े हुए हैं।
1950 में लागू किए गए भारतीय संविधान में केवल अधिकारों का ही उल्लेख किया गया था। 1976 तक हमारे संविधान में व्यक्ति के कर्तव्यों का अधिकथन करने वाले कोई उपबंध नहीं थे, हालांकि परम्पराओं तथा भारतीय चिंतन की धारा ने सदियों से कर्तव्यों पर अत्यधिक बल दिया है। प्रत्येक अधिकार के लिए, उसके अनुरूप एक कर्तव्य है। कर्तव्य अधिकार का एक अभिन्न अंग हैं, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
विश्व के बहुत-से देशों, यथा- जापान, चीन और इटली सहित अनेक यूरोपीय देशों के संविधानों में अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का भी उल्लेख है। कर्तव्यों की संविधान में समाविष्ट करने के लिए कांग्रेस ने सरदार स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इस समिति के सुझावों के आधार पर दिसम्बर 1976 में 42वां संशोधन अधिनियम पारित कर संविधान में क्रमशः मूल अधिकारों भाग-3 तथा निदेशक तत्वों (भाग-4) के बाद मूल कर्तव्य शीर्षक से एक नया भाग-4(क) जोड़ा गया। हालांकि सरदार स्वर्णसिंह कमेटी ने आठ मौलिक कर्तव्यों को शामिल किए जाने की संस्तुति की थी लेकिन सरकार ने 42वें संविधान द्वारा दस मौलिक अधिकारों को लागू किया। इस नए भाग-4(क) में एक नया अनुच्छेद-51(क) सम्मिलित कर लिया गया, जिसमें मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था की गई है।
संविधान में उल्लिखित मौलिक कर्तव्य हैं-
- भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे और उसके आर्दार्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान आदर करे।
- स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे।
- भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का परम-पवित्र कर्तव्य है।
- देश की रक्षा करे और जब कभी राष्ट्र सेवा का आह्वान हो, तो राष्ट्र की सेवा के लिए तत्पर रहे।
- भारत में धार्मिक, भाषायी, प्रादेशिक और वर्गीय विभिन्नताएं मौजूद हैं। इसलिए विभिन्न समुदायों के बीच सामंजस्य और भ्रातृत्व बनाए रखना प्रत्येक नागरिक का दायित्व है। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे उन प्रथाओं का बहिष्कार करें जो महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध हैं।
- हमारी समन्वित संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझें और उनका परिरक्षण करें।
- प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और अन्य जीव भी हैं, रक्षा और उनका संवर्धन करें तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखें।
- नागरिकों का यह भी कर्तव्य है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं तथा मानववाद और अन्वेषण व् सुधार की भावना का विकास करें।
- नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करें और हिंसा से दूर रहें।
- व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों से सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें, जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रगति और उपलब्धि की नवीन ऊंचाइयों को छू सके।
- प्रत्येक माता पिता या संरक्षक द्वारा 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना (86वां संशोधन)।
86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा अनुच्छेद 51(क) में ग्यारहवें मौलिक कर्तव्य को जोड़ा गया है। इसके अनुसार अभिभावकों का यह कर्तव्य होगा कि वे अपने छह से चौदह वर्ष की आयु के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करें।
मौलिक कर्तव्यों का प्रवर्तन
मौलिक कर्तव्यों को न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित कराने का संविधान में कोई उपबंध नहीं है। उनका पालन कराने अथवा उल्लंघन किये जाने पर दंड देने का भी संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। किंतु यह प्रत्याशा की जा सकती है कि किसी विधि की संवैधानिकता अवधारित करते हुए, यदि कोई न्यायालय यह पाता है कि वह इन कर्तव्यों में से किसी को प्रभावी करने के लिए है तो वह ऐसी विधि को अनुच्छेद 14 या 19 के संबंध में युक्तियुक्त मानेगा।
उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि मूल कर्तव्य नागरिकों पर आबद्धकर हैं। पर्यावरण के संरक्षण से संबंधित अनुच्छेद-51(क)(vii) विशेष रूप से न्यायालयों के समक्ष आया है। उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य के कुछ क्षेत्रों में खनन के काम को रोक देने के मौखिक आदेश जारी किए थे। कुछ विवादग्रस्त क्षेत्रों को आरक्षित वन घोषित करने के संबंध में भी आदेश जारी किए गए थे (मुंबई कामगार सभा बनाम अब्दुल भाई-1976), (वनवासी सेवा आश्रम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य-1987)।
मौलिक कर्तव्यों पर वर्मा समिति की रिपोर्ट
वर्ष 1999 में मौलिक कर्तव्यों पर गठित वर्मा समिति ने पहले से मौजूद कुछ कानूनी प्रावधानों की पहचान की एवं उन्हें चिन्हित किया, जो मौलिक कर्तव्यों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करते हैं-
- जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (1951), सांसदों एवं विधायकों को धर्म के आधार पर गलत तरीके से नागरिकों के मत इकट्टे करने एवं विभिन्न वर्गों के लोगों के मध्य धर्म, जाति एवं भाषा के आधार पर वैमनस्य उत्पन्न करने के आधार पर विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य घोषित कर सकता है।
- राष्ट्रीय सम्मान अपमान निवारक अधिनियम (1971), देश के संविधान, राष्ट्रीय ध्वज एवं राष्ट्रीय गान के प्रति अनादर को दंडनीय घोषित करता है।
- नागरिक अधिकार अधिनियम (1955), जो बाद में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम 1976 के नाम से जाना गया, धर्म एवं जाति के आधार पर छुआछूत के व्यवहार को दण्डनीय बनाता है।
- अवैधानिक गतिविधि (निवारक) अधिनियम (1967) सांप्रदायिक संगठनों की अविधिमान्य संस्था घोषित करता है।
- वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (1972), विलुप्तप्राय एवं संकटमय प्रजातियों के व्यापार का प्रतिषेध करता है।
- वन संरक्षण अधिनियम (1980), अंधाधुंध वनोन्मूलन एवं वनभूमि के गैर-जंगलात उद्देश्य के लिए प्रयोग का प्रतिषेध करता है।
- भारतीय दंड संहिता ऐसे आरोपणों या कथनों को जो राष्ट्रीय अखण्डता के प्रतिकूल हो, दण्डनीय अपराध घोषित करता है।
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना
अनुच्छेद 51(क)(vii) में यह आदेश है कि वन संरक्षण, वन्य जीव और पर्यावरण की रक्षा से सम्बद्ध मामलों में न्यायालय उपयुक्त आदेश जारी कर सकता है। इस प्रकार संविधान के इस भाग की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है-
कुछ कर्तव्य सर्वथा अस्पष्ट हैं
इस परिप्रेक्ष्य में आलोचकों का अभिप्राय ये है कि संविधान में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए जिनका अर्थ पूर्णतः स्पष्ट हो, परंतु कर्तव्यों वाले भाग में कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जिनके अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं। समन्वित संस्कृति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, अन्वेषण और सुधार की भावना तथा मानववाद आदि ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ सर्वथा अस्पष्ट है। इसी प्रकार यह कर्तव्य भी भ्रम पैदा करता है कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हमारे कौन-कौन से आदर्श व लक्ष्य थे। इन विवादों के कारण मौलिक कर्तव्यों का महत्व बहुत सीमित हो गया है।
कुछ कर्तव्यों की मात्र दोहराया गया है चाहिए; लगभग वही बात चौथे कर्तव्य के अंतर्गत इन शब्दों में रखी गई है कि नागरिकों को देश की रक्षा करनी चाहिए। छठे कर्तव्य के अंतर्गत जिस समन्वित संस्कृति की बात कही गई, लगभग वही बात पांचवें कर्तव्य में भी आ जाती है।
दण्डात्मक व्यवस्था का अभाव
सरदार स्वर्ण सिंह समिति के अनुसारमौलिक कर्तव्यों की अवहेलना करने वालों को उचित दंड दिया जाना चाहिए और उसके लिए संसद को उचित कानूनों का निर्माण करना चाहिए। परंतु अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया गया है। वास्तव में कर्तव्यों के वर्तमान रूप को देखते हुए दण्ड की व्यवस्था करना अत्यंत कठिन कार्य है। कर्तव्यों का स्वरूप नितांत अस्पष्ट है। अतः नागरिकों को किस आधार पर दण्ड दिया जा सकता है? अभिप्राय यह है कि कर्तव्योंकी अवज्ञा करने वालों को दण्डित कैसे किया जा सकता है? उसके लिए तो कर्तव्यों के स्वरूप में परिवर्तन करना होगा।