फिरोज शाह तुगलक: 1351-1388 ई. Firuz Shah Tughlaq: 1351-1388 AD.
थट्टा के निकट मुहम्मद बिन तुगलक की अचानक मृत्यु हो जाने के कारण नेतृत्वविहीन सेना में, जो खेमे में स्त्रियों एवं बच्चों की उपस्थिति के कारण पहले से ही व्यग्र थी, गडबड़ी एवं अव्यवस्था फैल गयी। ऐसी अवस्था में सरदारों ने फ़िरोज़ से राजसिंहासन पर बैठने एवं हतोत्साह सेना को नष्ट होने से बचाने के लिए आग्रह किया। फ़िरोज राजमुकुट स्वीकार करने में कुछ हिचकिचाहट के बाद, जो शायद सच थी, सरदारों की इच्छा के सामने झुक गया तथा 23 मार्च, 1351 ई. को छियालीस वर्षों की अवस्था में सुल्तान घोषित हुआ। वह सेना में व्यवस्था की पुन: प्रतिष्ठा करने में सफल हुआ तथा इसके साथ दिल्ली के लिए चल पड़ा। पर वह सिंध के बाहर भी नहीं आया था कि स्वर्गीय सुल्तान के प्रतिनिधि ख्वाजा-ए-जहाँ ने दिल्ली में एक लड़के को मुहम्मद बिन तुगलक का पुत्र एवं उत्तराधिकारी घोषित कर उसे गद्दी पर बैठा दिया। फ़िरोज़ के लिए स्थिति वास्तव में संकटपूर्ण हो गयी। उसने मुल्तान पहुँचकर सरदारों एवं मुस्लिम कानून विदों से परामर्श लिया। सरदारों ने यह स्वीकार ही नहीं किया कि मुहम्मद बिन तुगलक के कोई पुत्र भी है। मुस्लिम कानून विदों ने ख्वाजा-ए-जहाँ के उम्मीदवार को नाबालिग होने के कारण अयोग्य ठहराया। इस विषय पर कानून के दृष्टिकोण से विचार नहीं हुआ। ऐसा करना असंगत भी होता, क्योंकि मुस्लिम कानून में राजसत्ता परम्परा प्राप्त अधिकार की चीज नहीं समझी जाती थी। बालक सुल्तान के पक्ष के अत्यंत कमज़ोर होने के कारण ख्वाजा-ए-जहाँ शीघ्र फिरोज़ की शरण में आ गिरा। फिरोजू ने उसकी पिछली सेवाओं को ध्यान में रखकर उसे क्षमा कर दिया तथा उसे समाना की जागीर में जाकर वहाँ एकान्तावस्था में अपने अन्तिम दिन व्यतीत करने की आज्ञा दी। पर सुनाम एवं समाना के सेनापति शेर खाँ के एक अनुचर ने अपने स्वामी, अन्य सरदारों तथा सेना के नायकों द्वारा उकसाये जाने के कारण राह में उसका (ख्वाजा-ए-जहाँ का) काम तमाम कर डाला। फ़िरोज़ ने इस वृद्ध अधिकारी को, जिसकी निर्दोषिता का उसे विश्वास हो चुका था, सरदारों के प्रतिशोध का शिकार बनने देकर अपनी दुर्बलता का परिचय दिया।
फिरोज़ के समक्ष वस्तुत: बड़ा कठिन कार्य दिल्ली सल्तनत को शक्तिहीनता एवं आचार-भ्रष्टता की अवस्था से उठाना था जो, उसके पूर्वगामी के शासनकाल के अन्तिम वर्षों से गिर गयी थी। किसानों और अमीर वगों का असंतोष उभर रहा था। साम्राज्य विघटन की समस्या से जूझ रहा था। मुहम्मद बिन तुगलक की नीतियों के कारण उलेमा वर्ग भी असंतुष्ट था। खजाना भी खाली था। पर नया सुल्तान अक्षम था। वह कमजोर, विचलित होने वाला तथा लगातार परिश्रम करने में अक्षम था। उसमें उत्तम सेनापति के आवश्यक गुणों का अभाव था। उसने साम्राज्य के खोये हुए प्रान्तों को पुनः प्राप्त करने का कभी हार्दिक प्रयास नहीं किया तथा उसके सैनिक कार्य अधिकतर असफल रहे। अपने आक्रमणों के समय संकटपूर्ण क्षणों में जब वह करीब-करीब जीतने को होता था, तब अपने सहधर्मियों के रक्तपात से बचने के लिए वहाँ से लौट पड़ता था।
पूर्व में बंगाल का स्वतंत्र शासक हाजी इलियास, जिसने शम्सुद्दीन इलियास शाह की उपाधि धारण कर ली थी, विभिन्न दिशाओं में अपने राज्य की सीमाएँ बढ़ाने में व्यस्त था तथा दिल्ली राज्य की सीमाओं का भी उल्लंघन कर रहा था। इस पर सत्तर हजार घुड़सवारों को लेकर नवम्बर, 1353 ई. में दिल्ली से फिरोज़ उसे पीछे हटाने के लिए विदा हुआ। उसके आने के विषय में सुनकर इलियास इकदाला के दुर्ग में लौट आया, जो पांडुआ से शायद दस या बारह की दूरी पर था। लेकिन वहाँ पर दिल्ली की सेना ने उस पर आक्रमण कर पराजित कर दिया। किन्तु फ़िरोज़ ने इस कठिनाई से प्राप्त की हुई विजय लाभ नहीं उठाया, क्योंकि वह बंगाल को अपने साम्राज्य में बिना मिलाये , जिसके लिए उसका सेनापति तातरि खाँ आग्रह कर रहा था, पहली सितम्बर,13 54 ई. को दिल्ली लौट आया। उसके अपमानपूर्ण ढंग से पीछे हटने के कारण विषय में दो विभिन्न मत हैं। फ़िरोज़ के शासन-काल के अधिकारी इतिहासकार शम्से-सिराज अफूीफ के लेखानुसार, सुल्तान घिरे हुए दुर्ग की स्त्रियों के रोने और कराहने से द्रवित होकर लौट पड़ा। पर कुछ उत्तरकालीन लेखकों ने इसका कारण वर्षा ऋतु के आरम्भ होने पर विपत्तियों का भय बतलाया है। उसके लौटने का जो भी कारण रहा हो, हमें टॉमस के कथन से सहमत होना पड़ता है कि- इस आक्रमण का परिणाम केवल दुर्बलता को स्वीकार करना ही हुआ।
कुछ वर्षों में फ़िरोज ने बंगाल को वशीभूत करने का पुन: प्रयत्न किया। उसे इसके लिए बहाना भी मिल गया। जब पूर्वी बंगाल के फखरुद्दीन मुबारक शाह के दामाद जफूर खाँ ने सोनारगाँव से समुद्र मार्ग द्वारा भाग कर, उसके दरबार में आकर बंगाल के शासक के अत्याचार के विषय में उससे शिकायत की। वीर एवं योग्य शासक शम्सुद्दीन इलियास की मृत्यु से फ़िरोज़ बंगाल के विरुद्ध आक्रमण का संगठन करने को प्रोत्साहित हुआ। सभी पिछली संधियों एवं मित्रता के आश्वासनों को तिलांजलि देकर एक विशाल सेना ले वह 1359 ई. में शम्सुद्दीन इलियास के पुत्र एवं उत्तराधिकारी सिकन्दर शाह के विरुद्ध बढ़ा। राह में गोमती के किनारे जूफराबाद में वह छः महीनों के लिए ठहरा तथा इसके पाश्र्व में अपने चचेरे भाई फखरुद्दीन जौन (मुहम्मद बिन तुगलक) की स्मृति में जौनपुर नगर की नींव डाली। वर्षा-ऋतु के बीत जाने पर उसने पुन: बंगाल की ओर बढ़ना जारी किया। उसने सिकन्दर शाह द्वारा भेजे गये मित्रता के सन्देशों का कुछ उत्तर नहीं भेजा। इसलिए सिंकदर शाह अपने पिता के दृष्टान्त का अनुकरण कर, एकदाला के मिट्टी के किले में जा छिपा। दिल्ली की सेना ने इस दुर्ग पर घेरा डाल दिया, पर इस पर अधिकार करना बच्चों का खेल नहीं सिद्ध हुआ। बंगाल की सेना तब तक वीरतापूर्वक अपने गढ़ की प्रतिरक्षा करती रही जब तक वर्षा ऋतु निकट नहीं आ गई थी तथा बाढ़ घेरा डालने वालों के विरुद्ध उसके पक्ष की सहायता के लिए नहीं आ गयी। शीघ्र सिकन्दर के पक्ष में ही अच्छी शतों के साथ एक संधि हो गयी। इस प्रकार दिल्ली के सुल्तान द्वारा किया गया बंगाल पर दूसरा आक्रमण भी पहले की ही तरह निष्फल रहा। इसने पुन: एक बार केवल उसके कमजोर एवं विचलित होने वाले स्वभाव का परिचय दिया।
दिल्ली लौटते समय सुल्तान कुछ समय के लिए जौनपुर में ठहर गया और तब जाम नगर (आधुनिक उड़ीसा) के विरुद्ध सेना लेकर बढ़ा। इस जगह का राय, दिल्ली सेना के आते ही, तेलंगाना की ओर भाग गया तथा शीघ्र उसने, कुछ हाथियों को समर्पित कर तथा कर के रूप में प्रतिवर्ष कुछ हाथियों को दिल्ली भेजने का वचन देकर, उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। फ़िरोज़ अढ़ाई वर्षों की अनुपस्थिति के बाद अत्यंत कठिनाई एवं कष्ट सहकर दिल्ली लौटा।
अपने दिल्ली लौटने के शीघ्र बाद फिरोजू का ध्यान नगरकोट के गढ़ के पराजय की ओर गया, जिसको मुहम्मद बिन तुगलक ने 1337 ई. में जीता था, पर जो सुल्तान के शासन काल के अन्तिम वर्षों में दिल्ली के अधिकार से निकल गया था। नगर पहुँच कर वह छः महीनों तक किले पर घेरा डाले रहा। छह माह के घेरे के बाद नगरकोट का गद्य क्षमा मांगने के लिए बाध्य हुआ। फ़िरोज़ का नगरकोट पर आक्रमण रोचक है, क्योंकि उसने विभिन्न विषयों पर तीन सौ संस्कृत पुस्तकों का, जो ज्वालामुखी के मन्दिर में सुरक्षित थीं, खालिद खानी नामक राजकवि द्वारा दलाइले-फ़िरोज शाही के नाम से फारसी-पद्य में अनुवाद करवाया।
1361-1362 ई. में फ़िरोज़ ने सिंध-विजय के कार्य को पुन: आरम्भ किया, जो लगभग 11 वर्ष पहले मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु होने पर त्याग दिया गे था। वह 90 हजार, घुड़सवारों, बहुत से पैदल सिपाहियों, 480 हाथियों तथा हजार नावों को लेकर सिंध के जामों की राजधानी थट्टा की ओर चला। सिंध के शासक जाम बाबनिया ने उसका सामना करने का निर्णय तथा बीस हजार घुड़सवारों एवं चार लाख पैदल सिपाहियों से एक -सेना का निर्माण किया। दुविधा पड़ने तथा संक्रामक पशुरोग फैल जाने दिल्ली की सेना को बहुत हानि उठानी पड़ी। रोग के कारण लगभग तीन चौथाई सेना का अंत हो गया। पुनः सेनापति नये सैनिकों की भर्ती करने वह गुजरात लौट गया। पर किन्हीं विश्वासघात मार्ग-प्रदर्शकों द्वारा हो वह कच्छ के मैदान (रन) में बहक गया तथा उसकी सेना की में छः महीनों तक कुछ नहीं मालूम हो सका। लेकिन उसके योग्य मंत्री खाने-जहाँ-मकबूल ने दिल्ली से और सेना भेजी। तब सुल्तान ने 13.. ई. में पुन: सिंधियों पर आक्रमण किया तथा उन्हें संधि करने को बाध्य किया। सुल्तान को प्रतिवर्ष कई लाख टके कर के रूप में देना स्वीकार किया तथा उसकी अधीनता भी मान ली। पर उसके बंगाल के आक्रमणों की तरह, उसके सिंधी आक्रमणों से भी उसमें सैनिक योग्यता एवं व्यूह-रचना की कुशलता का अभाव परिलक्षित हुआ।
फ़िरोज़ के शासन-काल में मंगोलों के आक्रमण नहीं हुए। यहिया हमें बताता है कि राज्य की सीमाएँ विशाल सेनाओं एवं सुल्तान के शुभचिंतको के अधीन सुरक्षित कर ली गयी थीं। पर फ़िरोजूने दक्कन को दिल्ली सल्तनत के अधीन लाने का कोई प्रयास नहीं किया जब उसके आधकारियों ने उसे दौलताबाद पर आक्रमण करने को कहा, तो जैसे शम्से-सिराज अफ़ीम कहता है, वह- दु:खी दिखलाई पड़ा, उसके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गए तथा उनके तर्कों को स्वीकार करते हुए उसने कहा कि मैंने इस्लाम धर्म के लोगों से आगे कभी युद्ध नहीं करने का निश्चय कर लिया है।
फ़िरोज़ में धार्मिक कट्टरता थी और उसने हिन्दुओं को सताया। मिस्र के खलीफा के प्रति उसे बड़ी श्रद्धा थी। मुस्लिम भारत के इतिहास में सर्वप्रथम उसने अपने को उसका प्रतिनिधि कहा। अपने शासन-काल के प्रथम छ: वर्षों में उसे दो बार शासक के विशिष्ट अधिकार-पत्र तथा सम्मान के परिधान प्राप्त हुए। उसके सिक्कों पर उसका अपना नाम खलीफा के नाम के साथ खुदा हुआ था। उसने राज्य के काम अपने धर्म के धर्मराज्यीय सिद्धान्तों पर चलाने का प्रयत्न किया। उसने अपनी विभिन्न मतावलम्बी प्रजा को उस धर्म का आलिंगन करने को प्रोत्साहित किया जिसमें उसे स्वयं शान्ति मिलती थी। उसने ऐसे नियम बनाये, जो उसके पूर्वगामियों द्वारा अनुसरण की हुई धार्मिक नीति से भिन्न थे।
शायद सरदारों एवं अधिकारियों को शान्त रखने की इच्छा से फ़िरोज जागीर-प्रणाली को पुनर्जीवित किया, जो अलाउद्दीन द्वारा उठा दी गयी उसने, उन्हें अधिक वेतन एवं भत्ता देने के अतिरिक्त; सारे राज्य को उन में ठीके पर बाँट दिया। यद्यपि प्रकट रूप से इन कामों से नये सुल्तान की मजबूत हुई, पर इनसे अन्त में निष्केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गयी, केन्द्रीय सरकार के अधिकार पर गुप्त रूप से क्षति पहुँची। राजकीय पदों उसने वंशानुगत कर दिया। असैनिक ही नहीं सैनिक पद भी वंशानुगत कर दिये गए। इस कार्य में क्लर्क को घुस देने के लिए उसने स्वयं एक सैनिक को पैसा दिया अर्थात् उसने भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित किया।
परंतु इन सब उपरलिखित दोषों के बावजूद फ़िरोज़को कुछ परोपकारी कार्यों को करने का श्रेय प्राप्त है। उसका लगभग सैतीस वर्षों का लम्बा शासन-काल तुलनात्मक रूप से लोगों के लिए सुख का युग था। उसने बहुत से कष्टप्रद एवं अनुचित करों को उठा दिया, जो पहले के शासन कालों में लोगों पर लगाये गये थे। उसने कुरान के नियमों को दृष्टि में रखकर कर-निर्धारण किया। उसने कुरान द्वारा अनुमोदित चार प्रकार के कर लगाने की अनुमति दी- खराज अथवा खेती की हुई भूमि पर दसवाँ भाग, जकात अथवा भिक्षा, जजिया अथवा गैर-मुसलमानों एवं अन्य नास्तिकों पर हर आदमी के हिसाब से लगाया जाने वाला कर तथा खुम्स अथवा लूट के माल एवं खानों की आय का पाँचवाँ भाग। फ़िरोज़प्रथम मुस्लिम शासक था जिसने जजिया को खराज से पृथक कर दिया। धार्मिक नियमों के विद्वानों से परामर्श कर उसने खेतों की उपज के दस प्रतिशत की दर से सिंचाई-कर (शुर्ष) भी लगाया। भू-राजस्व के लिए उसने एक अधिकारी ख्वाजा हिसामुद्दीन को नियुक्त किया। कुरान की आज्ञानुसार लड़ाई में लूटे हुए माल को राज्य एवं सैनिकों के बीच विभक्त होना था-राज्य को लूटे हुए माल का पाँचवाँ भाग मिलना था तथा सैनिकों को बाकी अस्सी प्रतिशत पाना था। व्यापारियों को कुछ अव्यवस्थित एवं कष्टप्रद कर देने से मुक्त कर दिया गया, जिनसे देश के एक भाग से दूसरे भाग में माल के निर्विघ्न परिभ्रमण में बाधा उपस्थित हो रही थी। राज्य के अधिकारियों को कड़ी चेतावनी दे दी गयी कि वे निश्चित रकम के अतिरिक्त कुछ भी न माँगें। अनुचित रूप से रुपये ऐंठने के लिए उन्हें दण्ड दिया जाता था। व्यापार एवं कृषि के लिए इन कार्यों के परिणाम वस्तुत: लाभदायक हुए। शम्स-ए-सिराज अफ़ीफ़ जो सुल्तान का प्रशंसक था तथा जिसका सम्बन्ध प्राय: सुल्तान के दरबार से रहता था, बहुत सच लिखता है कि इन नियमों के परिणामस्वरूप रैयत समृद्ध एवं सन्तुष्ट थी। उनके घर अन्न, सम्पत्ति, घोड़ों एवं साज-सामान से परिपूर्ण रहते थे। प्रत्येक मनुष्य के पास प्रचुर मात्रा में सोना-चाँदी थे। कोई भी स्त्री बिना आभूषणों के नहीं थी तथा कोई भी घर बिना अच्छे बिछावनों एवं दीवानों के न था। धन भरपूर था तथा आराम सब को था। इस शासन काल में राज्य आर्थिक दिवालियापन से पीड़ित नहीं रहा। दोआब का राजस्व अस्सी लाख टका होता था तथा दिल्ली के क्षेत्रों का राजस्व छ: करोड़ पचासी लाख टका था। सामान्य उपयोग की वस्तुओं के मूल्य भी कम ही हो गये।
सिंचाई की नहरों के निर्माण से कृषि की उन्नति में बड़ी सहायता मिली। शम्स-ए-सिराज अफीफ़ ने फ़िरोज़ की आज्ञा से खोदी गयी दो नहरों का उल्लेख किया है- पहली सतलज से तथा दूसरी यमुना से। पर यहिया, जिसे सरहिन्द का निवासी होने के कारण नहर-प्रणाली का अधिक ज्ञान था, उसके राज्यकाल में निर्मित चार नहरों के विषय में लिखता है-
- पहली सतलज से घाघरा नदी तक
- दूसरी मंडवी एवं सिरमूर पहाड़ियों के आसपास से निकाली, सात धाराओं द्वारा मिलायी गयी और हाँसी तक तथा वहाँ से अरसनी तक बढ़ायी गयी, जहाँ पर हिसार फ़िरोज़ा के दुर्ग की नींव पड़ी
- तीसरी घाघरा से निकल कर सिरसुती (सरस्वती दुर्ग) होती हुई हिरनी खेड़ा गाँव तक गयी
- चौथी यमुना से निकाली जाकर फिरोज़ाबाद तक ले जायी गयी तथा वहाँ से और आगे गयी।
फ़िरोज़ ने नहरों के अधीक्षण तथा विशेष रूप से वर्षा ऋतु में उनकी जाँच करने एवं उनके विषय में सूचना देने के लिए कुशल अभियन्ताओं (इंजिनियरों) को नियुक्त किया। उसका एक दूसरा परोपकारी कदम था, बंजर भूमि को पुनः प्राप्त करना, जिससे प्राप्त आमदनी को धार्मिक एवं शैक्षिक कार्यों पर व्यय किया जाता था।
फ़िरोज के निर्माण एवं उद्यान सम्बन्धी कार्यों से अप्रत्यक्ष रूप में जनसाधारण को लाभ हुआ। उसे नये नगरों को निर्माण करने एवं प्राचीन नगरों का पुनः नामकरण करने का बड़ा चाव था। वह स्वयं कहता है- उन अनेक दानों में, जो अल्लाह ने अपने मुझ जैसे मामूली सेवक को प्रदान किया, सार्वजनिक भवनों के निर्माण करने की इच्छा भी थी। इसलिए मैने अनेक मस्जिदों, कालेजों एवं मठों का निर्माण किया, ताकि विद्वान् एवं वृद्ध तथा धर्मात्मा लोग इन भवनों में बैठकर अल्लाह की इबादत कर सके और दयालु निर्माण कर्ता की अपनी उपासना से सहायता करें। उसने जौनपुर का नगर, फ़तहाबाद, हिसार, बदायूँ के निकट फ़िरोजपुर तथा अपनी राजधानी से दस मील की दूरी पर फ़िरोजाबाद की स्थापना की। अपने बंगाल के आक्रमणों के समय उसने एकदाला का नाम आजादपुर तथा पाँडुआ का फिरोजाबाद रखा। उसने बहुत-सी मस्जिदों, पुलों का निर्माण अथवा मरम्मत करवायी। राज्य का प्रमुख कारीगर था मलिक गाजी शहना, जिसकी सहायता अब्दुल हक करता था। उसका एक अन्य शिष्य अहमद था। बागवानी में अपनी अभिरुचि के कारण सुल्तान ने दिल्ली के निकट बारह सौ नये बाग लगाये तथा अलाउद्दीन के तीस पुराने बागों को फिर से लगवाया। वह अशोक के दो खुदे हुए पत्थर के स्तंभों को भी दिल्ली ले गया-एक ऊपरी यमुना के तट पर खिज्राबाद के निकट के एक गाँव से तथा दूसरा मेरठ से। उसने दिल्ली स्थित इल्तुतमिश के मदरसा की मरम्मत करायी। साथ ही उसने फिरोजाबाद में एक मदरसा का निर्माण भी करवाया। इसने इल्तुतमिश द्वारा निर्मित हौज-ए-खास की मरम्मत करायी।
फ़िरोज ने नये प्रकार के सिक्के भी चलाये। उसके राज्यकाल में चलने वाले सिक्के मुहम्मद-बिन-तुगलक के समय में भी प्रचलित थे। शशगनी (छ: जीतलों का एक सिक्का-विशेष) का भी, जिसका सम्बन्ध अफ़ीफ़ ने विशेषरूप से उसके साथ जोडा, मुहम्मद बिन तुगलक के समकालीन इब्नबतूता ने उल्लेख किया है। पर अद्धा एवं बिख नामक क्रमश: आधे एवं एक चौथाई जीतल के ताम्बा और चाँदी मिश्रित दो सिक्कों को चलाने का श्रेय उसी को देना चाहिए। इन मिश्रित धातुओं के सिक्कों से जनसाधारण को लेनदेन में बड़ी सुविधा हुई तथा सिक्कों को भी धातु-सम्बन्धी पर्याप्त बल मिला। पर टकसालों की कार्यवाही में छल एवं गबन के कारण उनकी बहुत-कुछ उपयोगिता नष्ट हो गयी।
राज्य की सेना का संगठन सामन्तवादी आधार पर किया गया। सेना के स्थायी सैनिकों को जमीन मिलती थी, जो उनके सुख से रहने के लिए पर्याप्त थी। अस्थायी सैनिकों (गैरवझ, गैरवज) को सीधे राजकीय कोष से वेतन दिया जाता था। जिन्हें इन दोनों में किसी प्रकार से वेतन नहीं मिलता था, उन्हें राजस्व वाली चीज मिलती थी, जो समयानुसार बदली जा सकती थी। वेतन देने का यह अन्तिम तरीका दुरुपयोग का एक भारी साधन सिद्ध हुआ। राजधानी में कुछ मध्यस्थ आदमी राजस्व वाली चीज को तिहाई मूल्य पर खरीद लेते थे तथा वे जिलों में सैनिकों के हाथ इन्हें आधे मूल्य पर बेच देते थे। इस प्रकार लोगों का एक वर्ग बिना परिश्रम किये तथा सैनिकों को हानि पहुँचा कर गुप्त रूप से नफा कमा रहा था। राज्य की सेना में अस्सी या नब्बे हजार अश्वारोही थे, जिसमें सरदारों के सेवक भी अतिरिक्त रूप में भतीं किये जा सकते थे। पर इसमें सन्देह है कि सेना वास्तव में कार्यक्षम थी। अवश्य ही इसकी शक्ति, सैनिकों के प्रति सुल्तान की विवेकहीन उदारता के कारण, अधिकांशत: नष्ट हो गयी होगी। उसने एक नया नियम बनाया, जिसके अनुसार जब कोई सैनिक वृद्धावस्था के कारण मैदान में लड़ने के योग्य न रहे, उसका पुत्र अथवा दामाद या दास उसका स्थान ले ले। सैनिक सेवा में योग्यता का बिना कोई विचार किये, वंश-परम्परा सम्बन्धी अधिकार की स्वीकृति निस्सन्देह एक अपकारक प्रथा थी।
फ़िरोज के राज्य-काल में दासों की संख्या में अभूतपूर्व उन्नति हुई, जिनके लिए सरकार ने एक अलग विभाग ही खोल दिया। राज्य के विभिन्न भागों के जागीरदार सुल्तान को दास भेट किया करते थे, जिसके बदले उनके द्वारा सरकार को दिये जाने वाले कर में उसी हिसाब से कमी कर दी जाती थी। इस प्रकार दासों की संस्था के कारण केन्द्रीय राज धनागार को भारी क्षति हुई।
यद्यपि फ़िरोज भड़कीले दिखावटीपन के साधारणतया विरुद्ध था, पर अपने पूर्व-गामियों की तरह शानदार तथा ऐश्वर्यवान् दरबार रखता था, जो शम्से-सिराज अफ़ीफ़ के कथनानुसार, ईद एवं शबेरात जैसे त्यौहारों के अवसर पर विशेषरूप से सजाया जाता था। छत्तीस राजकीय विभाग भी थे, जिनमें प्रत्येक के लिए इसके मामलों की देखभाल के निमित्त अधिकारियों का एक अलग दल रहता था। सुल्तान के दरबार तथा घरेलू विभागों के निर्वाह का खर्च अवश्य ही काफी रहा होगा। उसने मुस्लिम गरीबों के कल्याण के लिए दीवान-ए-खैरात नामक विभाग की स्थापना की। यह विभाग गरीब मुसलमानों की पुत्री की शादी के लिए धन भी देता था। उसी तरह उसने मुस्लिम बेरोजगारों के कल्याण के लिए, एक रोजगार ब्यूरो की स्थापना करायी। उसने दिल्ली में एक राजकीय अस्पताल की स्थापना करायी जिसका नाम दर-उल-सफा था। उसने 36 राजकीय कारखाने स्थापित कराए और उनमें दासों को नियुक्त किया। उसने दासों के निर्यात पर पाबंदी लगायी।
फ़िरोज के मंत्री खाने-जहाँ मकबूल का राज्य के कार्यों पर प्रबल प्रभाव था। वह मूलरूप में तेलंगाना का एक हिन्दू था, पर बाद में उसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। फ़िरोज के शासन-काल में इस महत्त्वपूर्ण स्थान को प्राप्त करने के पहले वह मुहम्मद बिन तुगलक के अधीन एक पदाधिकारी था। 1370 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पद एवं वेतन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र जूना शाह बना, जिसे उसकी उपाधि भी मिली। अगले साल गुजरात के सूबेदार जफ़र खाँ के मरने पर उसका पुत्र दरया खाँ उसके पद का उत्तराधिकारी बना। आगे चलकर 23 जुलाई, 1374 ई. को उसके ज्येष्ठ पुत्र फ़तह खाँ की मृत्यु हो जाने के कारण सुल्तान को कठोर आघात पहुँचा। इससे उसके मन एवं शरीर दोनों पर बुरा असर पड़ा। जैसा कि दिल्ली के अधिकतर सुल्तानों के साथ हुआ था, फ़िरोज के अन्तिम दिन शान्ति से दूर रहे। बढ़ती हुई आयु के साथ उसके विवेक ने जवाब दे दिया तथा सरकार की कार्यक्षमता घटने लगी। उसने अपने सबसे बडे जीवित पुत्र मुहम्मद खाँ को शासन-कार्य में भाग देने का प्रयत्न कर भारी भूल की। मुहम्मद खाँ एक अयोग्य युवक था। राज्य के शासन-प्रबन्ध की देखभाल करने के बदले वह विषय-सुख में लिप्त रहने लगा। सुल्तान के जीवन काल में ही एक गृह-युद्ध आरम्भ हो गया। मुहम्मद खाँ सिरमूर की पहाड़ियों की ओर भाग गया। तब फ़िरोज़ ने मुहम्मद खाँ की राजकीय उपाधि, अपनी मृत्यु से पहले अपने पौत्र तथा स्वर्गीय फतह खाँ के पुत्र तुगलक खाँ को दे दी। 20 सितंबर, 1388 ई. को उसकी मृत्यु हुई।
समकालीन भारतीय लेखक एक स्वर से फ़िरोज़ शाह के गुणों की प्रशंसा करते हैं। उनके विचार में नसिरुद्दीन महमूद के बाद कोई सुल्तान इतना न्यायशील, दयावान्, शिष्ट एवं अल्लाह से डरने वाला अथवा वैसा निर्माण करने वाला नहीं हुआ था, जैसा फ़िरोज। वास्तव में फ़िरोज हृदय के अत्युत्तम गुणों से सम्पन्न था, जैसे स्नेह एवं परोपकारिता। उसके शासन-काल में शान्ति एवं समृद्धि रही। पर उसकी विचार-शून्य उदारता एवं रियायतों ने अन्त में चलकर दिल्ली सल्तनत के पतन में अपना पूरा योग दिया। उसके जागीर-प्रथा को पुनर्जीवित करने से भी विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई तथा राज्य की पूर्णता को धक्का पहुँचा।
फ़िरोज़ के उत्तराधिकारी- फ़िरोज़ शाह का पौत्र तुगलक शाह उसका निकटतम उत्तराधिकारी था, उसने ग्यासुद्दीन तुगलक शाह द्वितीय की उपाधि धारण की। वह शीघ्र ही 19 फरवरी, 1369 को कुछ अधिकारियों एवं सरदारों के षड्यंत्र का शिकार बन गया। तब दिल्ली के सरदारों ने उसके चचेरे भाई अबूबकर को सुल्तान घोषित किया। इसी समय फ़िरोज़ के पुत्र नसिरुद्दीन मुहम्मद के दल के लोगों ने समाना में 24 अप्रैल, 1369 को उसे सुल्तान घोषित कर दिया। अबूबकर को अपने प्रतिद्वन्दी के सामने आत्मसमर्पण करने को विवश किया गया तथा उसे दिसंबर 1390 ई. में गद्दी से उतार डाला गया। अधिकतर विभिन्न बाधाओं से संघर्ष करते रहने की थकान से नसिरुद्दीन मुहम्मद का स्वास्थ्य गिर गया तथा जनवरी, 1394 में उसकी मृत्यु हो गयी। तब उसके पुत्र हुमायूँ का छोटा शासन-काल आया। उसकी मृत्यु अगली 8 मार्च को हो गयी। तुगलक वंश का अगला एवं अन्तिम शासक मुहम्मद का कनिष्ठ पुत्र नसिरुद्दीन महमूद था। उसके प्रतिद्वन्दी नसरत शाह ने, जो फ़िरोज के ज्येष्ठ पुत्र फतह खाँ का लड़का था, कुछ सरदारों द्वारा उकसाये जाने पर राजसिंहासन पर अधिकार करने का प्रयत्न किया, पर यह निष्फल रहा तथा वह धोखे से मार डाला गया।
फ़िरोज़ के सभी उत्तराधिकारी दुर्बल एवं दिल्ली सल्तनत को विघटन से बचाने में पूर्णतया अयोग्य थे, जिसके लक्षण पहले से ही दिखलाई पड़ने लगे। थे। वे कुछ सिद्धांत-शून्य सरदारों के हाथों में पुतले-मात्र थे। इन सरदारों के स्वार्थसाधक षड्यंत्र दिल्ली की गद्दी के प्रतिद्वन्द्वी हकदारों के बीच बहुधा गृह-युद्धों को प्रोत्साहित करते रहते थे। ये राज्य की प्रतिष्ठा एवं साधनों को बुरी तरह ले डूबे। परिणाम यह हुआ कि प्रायः सब जगह मुस्लिम सूबेदार एवं हिन्दू नायक इसकी प्रभुता की अवहेलना करने लगे। हिजड़ा मलिक सरवर ने, जिसने नसिरुद्दीन महमूद को फुसलाकर मलिकुश्शर्क (पूर्वाधिपति) की उपाधि ले ली थी, जौनपुर के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। उत्तर में खोकरों ने विद्रोह कर दिया। गुजरात, मालवा तथा खानदेश के प्रान्त स्वतंत्र राज्य बन बैठे। बियाना एवं कालपी में मुस्लिम राज्य तथा ग्वालियर में हिन्दू राज्य स्थापित हो गये। मेवात का नायक इच्छानुसार अपनी नाम-मात्र की अधीनता एक राजा से दूसरे के प्रति बदलने लगा। दोआब के हिन्दू प्राय: निरन्तर विद्रोह करने लगे।