निर्वाचन Elections
निर्वाचन संबंधी सांविधानिक उपबंध
भारतीय संविधान ने राष्ट्रपति एवं उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए स्पष्ट प्रावधान किया है किंतु संघ तथा राज्य विधानमंडलों की निर्वाचन प्रक्रिया विधायिका पर छोड़ दी गई है। संविधान ने इस संबंध में कुछ सिद्धांतों का प्रावधान किया है, जो इस प्रकार हैं-
अनुच्छेद- 325 के अनुसार प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए एक साधारण मतदाता सूची होती है तथा इसमें सांप्रदायिक, पृथक् या विशेष प्रतिनिधित्व के लिए कोई प्रावधान नहीं है। साथ ही संविधान के अनुच्छेद-326 के अनुसार निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है जिसके लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष निश्चित की गई है (संविधान के 61वें संशोधन अधिनियम, 1989 द्वारा 21 वर्ष की आयु-सीमा को घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया) परंतु संविधान द्वारा अनिवासी, पागल, अपराधी, भ्रष्ट अथवा अवैध आचरण वाले व्यक्तियों को मताधिकार के लिए अयोग्य घोषित किया गया है।
अनुच्छेद-327 में विधानमंडलों के लिए निर्वाचनों के संबंध में उपबंध करने की संसद को शक्ति प्रदान की गई है। जबकि अनुच्छेद-328 में किसी राज्य के विधानमंडल के लिए निर्वाचनों के संबंध में उपबंध करने की उस विधानमंडल की शक्ति प्रदान की गई है।
अनुच्छेद-329 निर्वाचन संबंधी मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप का वर्जन करता है और प्रावधान करता है कि इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी-
- अनुच्छेद-327 और 328 के अधीन बनाई गई या बनाई जाने के लिए तात्पर्यित किसी ऐसी विधि की विधिमान्यता, जो निर्वाचन-क्षेत्रों के परिसीमन या ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों के स्थानों के आवंटन से संबंधित है, किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं की जाएगी।
- संसद के प्रत्येक सदन या किसी राज्य के विधानमंडल के सदन या प्रत्येक सदन के लिए कोई निर्वाचन ऐसी निर्वाचन अर्जी पर ही प्रश्नगत किया जाएगा, जो ऐसे प्राधिकारी को और ऐसी रीति से प्रस्तुत की गई है जिसका समुचित विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन उपबंध किया जाए, अन्यथा नहीं।
इस अनुच्छेद का निर्वचन करते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह पुन्नुस्वामी बनाम रिटर्निंग अधिकार तथा महिन्दर सिंह बनाम मुख्य निर्वाचन आयुक्त के मामले में अधिकथित किया कि यह खंड निर्वाचनों से संबंधित कोई भी विषय ग्रहण करने से न्यायालयों को वर्जित करता है। ऐसे विषयों को समुचित विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधि के अधीन निर्वाचन शब्द को बेहद व्यापक अर्थ दिया गया है, इसमें सभी प्रक्रियाएं आ जाती हैं और प्रारंभ से लेकर अभ्यर्थी के निर्वाचित घोषित किए जाने तक सभी प्रक्रम आ जाते हैं।
1966 से केवल उच्च न्यायालय को निर्वाचन अर्जी की सुनवाई करने की अधिकारिता है। इसकी अपील उच्चतम न्यायालय में होती है। उसी उच्च न्यायालय में एकल न्यायपीठ से खंड न्यायपीठ को अपील नहीं होती।
संविधान का अनुच्छेद-329 ख जो 1976 में अंतःस्थापित किया विधानमण्डल के प्रत्येक सदन के निर्वाचन के बारे में अधिकरणों की नियुक्ति के लिए विधि अधिनियमित की जा सकती है। खंड (घ) में यह भी उपबंध है कि ऐसी विधि उच्चतम न्यायालय के सिवाय अन्यन्यायालयों की अधिकारिता का अपवर्जन कर सकेगी। अभी तक ऐसी कोई विधि अधिनियमित नहीं की गयी है। गौरतलब है कि एलं चन्द्रकुमार बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि उच्च न्यायालय की अधिकारिता का अपवर्जन असांविधानिक और शून्य है। इसका परिणाम यह है कि यदि कभी निर्वाचन अधिकरण का सृजन करने के लिए कोई विधि अधिनियमित की जाती है तो ऐसे अधिकरण की अपील उच्च न्यायालय में होगी।
उल्लेखनीय है कि 39वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1975 द्वारा अनुच्छेद-329 (क) अंतःस्थापित किया गया जिसमें प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के संसदीय निर्वाचन के बारे में विवादों का निपटारा करने के लिए उपबंध किया गया था। जिसे जनता पार्टी सरकार ने 44वें संविधान संशोधन द्वारा 1978 में निरसित कर दिया।
संसदीय प्रावधान
निर्वाचन के सम्बन्ध में भारतीय संसद ने निम्नलिखित प्रावधान बनाये हैं-
- जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 में मतदाताओं की योग्यता, मतदाता सूची तथा ने’ सम्बंधित विषयों का प्रावधान किया गया है।
- जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में चुनाव तथा उप-चुनावों के लिए प्रशासनिक व्यवस्था से संबंधित विषयों का प्रावधान किया गया है।
- परिसीमन आयोग अधिनियम, 1952 ने चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन (सीमाबद्ध करना) तथा आरक्षण का प्रावधान किया है। (परिसीमन आयोग का कार्य है- जनसंख्या के नये आंकड़ों के अनुसार चुनाव क्षेत्रों का नये रूप में विभाजन करना)।
- परिसीमन अधिनियम 2002
- परिसीमन (संशोधन) अधिनियम 2003
- राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम, 1952
- दलों का पंजीकरण नियम 1960
- निर्वाचन चिन्ह (आरक्षण एवं आबंटन) आदेश, 1968
वयस्क मताधिकार के अतिरिक्त, भारतीय निर्वाचन पद्धति की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
- यह पद्धति, भौगोलिक प्रतिनिधित्व पर आधारित होती है।
- एक चुनाव क्षेत्र से एक उम्मीदवार का चुनाव होता है।
- प्रत्येक चुनाव क्षेत्र से साधारण बहुमत के द्वारा प्रतिनिधि का चुनाव होता है। दूसरी ओर उच्च सदन के लिए अप्रत्यक्ष मतदान प्रणाली अपनाई गई है।
- मतदाता प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करते हैं।
- निर्वाचन प्रक्रिया में गुप्त मतदान की व्यवस्था होती है जिससे किसी भी मतदाता के संबंध में यह ज्ञात न हो सके कि उसने किस उम्मीदवार के पक्ष में अपने मताधिकार का प्रयोग किया है।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की मुख्य विशेषताएं
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 संसद के सदनों और प्रत्येक राज्य के विधानमण्डल के सदनों के चुनावों को आयोजित करने, उन सदनों के सदस्यों की अर्हताओं एवं निर्रहताओं, चुनावों में या ऐसे चुनावों से संबंधित दुराचारों या अन्य अपराधों और ऐसे चुनावों से या इनके संबंध में उत्पन्न संदेहास्पद निर्णयों और विवादों के संबंध में प्रावधान करता है।
अर्हताएं एवं निर्रहताएं
इस अधिनियम के अनुसार, एक व्यक्ति किसी भी राज्य या संघ शासित क्षेत्र की विधान परिषद् के प्रतिनिधि चुने जाने के लिए अर्ह नहीं होगा, जब तक कि वह भारत की संसदीय क्षेत्र का एक निर्वाचक नहीं है।
एक व्यक्ति लोकसभा का सदस्य बनने के लिए अर्ह नहीं होगा, किसी राज्य में एक सीट का अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने की स्थिति में, जब तक कि वह उस राज्य या किसी अन्य राज्य के अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं है और किसी संसदीय क्षेत्र से चुना हुआ नहीं है; और सीट के अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होने की स्थिति में (असम के स्वायत्त जिलों को छोड़कर), वह उस राज्य के या किसी अन्य राज्य (असम के जनजाति क्षेत्रों को छोड़कर) के अनुसूचित जनजाति का सदस्य होना चाहिए, और एक सनादीय क्षेत्र से चुना हुआ होना चाहिए। वह तब भी अर्ह नहीं होगा, यदि वह किसी संसदीय क्षेत्र से चुना हुआ है।
कोई व्यक्ति किसी राज्य की विधानसभा में एक सीट हेतु चुने जाने के लिए अर्ह होगा जब तक की वह राज्य के किसी विधानसभा क्षेत्र से चुन नहीं लिया जाता और सीट के अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित होने की स्थिति में, वह किसी जाति या जनजाति का सदस्य है और उस राज्य में किसी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुना गया है।
कोई व्यक्ति राज्य की विधानपरिषद् का सदस्य बनने के अर्ह नहीं होगा जब तक की वह उस राज्य के किसी विधानसभा क्षेत्र से चुन नहीं लिया जाता। राज्यपाल द्वारा नामनिर्दिष्ट करने की स्थिति में उसे उस राज्य का सामान्य रूप से निवासी होना चाहिए। यह अधिनियम इसके अंतर्गत सूचीबद्ध विधियों के तहत किसी अपराध के लिए दोषी ठहराए जाने पर संसद एवं राज्य विधानमण्डल की सदस्यता हेतु निर्रहित किए जाने का प्रावधान करता है। इसके अंतर्गत आने वाले अधिनियम हैं- नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955, विदेशी विनिमय (नियमन) अधिनियम, मादकद्रव्य एवं नशीले तत्व अधिनियम्, भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम, एवं आातंकवाद रोकथाम अधिनियम। इस अधिनियम के तहत् दोषी व्यक्ति निर्रहत किया जाएगा-
- केवल जुर्माने के साथ 6 वर्ष के लिए
- कारावास की स्थिति में, कारावास का समय और छूटने के बाद 6 वर्ष के लिए
आम चुनावों की अधिसूचना
राज्य सभा के सदस्यों के चुनाव हेतु राष्ट्रपति, चुनाव आयोग द्वारा अनुशंसित तिथि या तिथियों को भारत के राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना द्वारा, विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों का आह्वान करता है या जैसी कि स्थिति हो सकती है, प्रत्येक सम्बद्ध राज्य के निर्वाचक मंडल के सदस्यों को बुलाता है और इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार और इसमें अंतर्निहित नियमों एवं आदेशों के तहत् सदस्यों का चुनाव होता है।
आम चुनाव का आयोजन का उद्देश्य मौजूद सदन के नियत समय के समाप्त होने या इसके विघटन से पूर्व नए सदन का गठन करना होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राष्ट्रपति, चुनाव आयोग द्वारा अनुशंसित ऐसी तिथि या तिथियों पर भारत के राजपत्र में एक या अधिक अधिसूचनाओं के प्रकाशन द्वारा, इस अधिनियम के अनुसार एवं इसमें उल्लिखित नियमों एवं आदेशों के अनुरूप सदस्यों का चुनाव करने हेतु सभी संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का आह्वान करते हैं।
हालाँकि जहाँ आम चुनाव होने होना है, मौजूद सदन के विघटन की स्थिति को छोड़कर, ऐसी अधिसूचना सदन के नियतकाल समाप्त होने के 6 माह से पूर्व जारी नहीं की जाएगी।
राज्यपाल या प्रशासक, जैसी स्थिति हो, राज्य विधानमण्डल के सदस्यों के चुनाव हेतु सभी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का आह्वान करेगा। राज्यपाल राज्य विधान परिषद् के दो वर्ष में एक बार सदस्य चुने जाने के लिए राज्य विधानसभा के सदस्यों और सभी परिषद् निर्वाचन क्षेत्रों का आहान करेगा।
चुनावों के आयोजन हेतु प्रशासनिक तंत्र चुनाव
आयोग के कार्यों जिन्हें चुनाव आयुक्त को करने हेतु प्रदत्त किया गया है, चुनाव उपायुक्त या चुनाव आयोग के सचिव द्वारा भी निष्पादित किया जाता है। इस अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक राज्य का मुख्य निर्वाचन अधिकारी, चुनाव आयोग के पर्यवेक्षण, निर्देश और नियंत्रण के अधीन रहते हुए, सभी निर्वाचनों के आयोजन का पर्यवेक्षण करेगा। मुख्य निर्वाचन अधिकारी के पर्यवेक्षण, निर्देशन एवं नियंत्रण के अधीन रहते हुए, जिला निर्वाचन अधिकारी संसद एवं राज्य विधान सभा के सभी चुनावों को, उसके आयोजित कराने के संबंध में, उसके अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी कार्यों का, समन्वय एवं पर्यवेक्षण करेगा। जिला निर्वाचन अधिकारी समय-समय पर चुनाव आयोग एवं मुख्य निर्वाचन अधिकारी द्वारा उसे सौंपे गए कार्यों का निष्पादन भी करेगा।
चुनाव आयोग एक पर्यवेक्षक को नियुक्त कर सकता है जो एक सरकारी अधिकारी होगा और निर्वाचन क्षेत्रों में आयोजित चुनावों की निगरानी करेगा तथा चुनाव आयोग द्वारा सौंपे गए अन्य कार्य भी कर सकेगा।
प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए, प्रत्येक चुनावराज्य परिषद्या राज्य विधान सभा में सीट या सीटों को भरता है और प्रत्येक चुनावों में, चुनाव आयोग, राज्य सरकार से परामर्श करके, एक रिटर्निग अधिकारी कों पद्नामित करेगा जो सरकार का या स्थानीय प्राधिकरण का अधिकारी होगा। किसी चुनाव में रिटनिंग अधिकारी इस अधिनियम के अंतर्गत प्रभावकारी चुनाव आयोजित कराने के लिए उसे प्रदान किए गए कार्यो को करने का दायित्व पूरा करेगा।
जिला चुनाव अधिकारी प्रत्येक मतदान केंद्र के लिए एक प्रीसाइडिंग अधिकारी की नियुक्ति करेगा। पोलिंग ऑफीसर इस अधिनियम के तहत् या किसी नियम के अंतर्गत सभी या किसी कार्य को पूरा करेगा। मतदान केंद्र पर प्रीसाइडिंग ऑफीसर का कर्तव्य होगा कि वह निष्पक्ष चुनाव कराने हेतु मतदान केंद्र की निगरानी करे। मतदान केंद्र पर पोलिंग अधिकारी, प्रीसाइडिंग अधिकारी को उसके कार्यों का निर्वहन करने में मदद करेगा।
राजनीतिक दलों का पंजीकरण
इस अधिनियम के उद्देश्यों हेतु भारत के नागरिकों का कोई निकाय या संगठन, जो राजनीतिक महत्व का हो, राजनीतिक दल के रूप में स्वयं को पंजीकृत करने के लिए चुनाव आयोग को आवेदन करेगा।
सभी पहलुओं एवं दस्तावेजों पर विचार करने के पश्चात् चुनाव आयोग निर्धारित करेगा कि संगठन या निकाय का राजनीतिक दल के तौर पर पंजीकरण किया जाए या नहीं।
राजनीतिक दल का कोषाध्यक्ष या दलद्वारा प्राधिकृत अन्य व्यक्ति, प्रत्येक वित्तीय वर्ष में, किसी व्यक्ति से राजनीतिक दल को 20,000 रुपए से अधिक की योगदान राशि के संबंध में एक रिपोर्ट तैयार करेगा; और किसी कम्पनी (सरकारी कम्पनी के अतिरिक्त) से उस वित्तीय वर्ष में प्राप्त 20,000 रुपए से अधिक राशि का भी रिपोर्ट में उल्लेख करेगा। यह रिपोर्ट चुनाव आयोग को सौंपनी होगी।
चुनाव का आयोजन
चुनाव की अधिसूचना, जारी होने के पश्चात् चुनाव आयोग नामांकन भरने की अंतिम तिथि जारी करता है, नामांकनों की जाँच-पड़ताल की तिथि जारी करता है, उम्मीदवार द्वारा नाम वापिस लेने की अंतिम तिथि जारी करता है, चुनाव होने की तारीख या तिथियां जारी करता है, और वह तिथि जारी करता है जिससे पूर्व चुनाव संपन्न किए जाएंगे।
कोई व्यक्ति उम्मीदवार के रूप में नामांकित किया जा सकता है यदि वह विधि के तहत्चुने जाने के लिए अर्ह है। गैर-पंजीकृत राजनीतिक दल के सदस्य के नामांकन पत्र का दस समर्थकों का समर्थन होना चाहिए।
आम चुनाव में कोई व्यक्ति दो से अधिक संसदीय, राज्य विधानसभा एवं राज्य विधानपरिषद् निर्वाचन क्षेत्रों से उम्मीदवार नामित नहीं किया जाएगा।
एक उम्मीदवार की अन्य सूचनाओं की तरह यह सूचना देनी होगी कि क्या उसे किसी दंडनीय अपराध के लिए जिसमें दो वर्ष का कारावास है या दो वर्ष से अधिक की सजा वाले लंबित मामले में सक्षम न्यायालय ने आरोप तय किए हैं या दोषी ठहराया है।
संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव की स्थिति में एक उम्मीदवार को 10,000 रुपए जमा कराने होगे या उम्मीदवार के अनुसूचित जाति या जनजाति से संबंधित होने की स्थिति में 5,000 रुपए जमा करने होंगे, प्रावधान किया गया है जहां उम्मीदवार को एक ही निर्वाचन क्षेत्र के लिए एक से अधिक नामांकन पत्रों के लिए नामित किया गया है, इस उपधारा के तहत् उसे एक बार से अधिक धनराशि जमा नहीं करनी होगी।
कोई भी उम्मीदवार लिखित में सूचना देकर अपनी उम्मीदवारी वापिस ले सकता है।
चुनाव आयोग एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल की चुनावों के दौरान विगत् स्थिति को देखते हुए, केबल टेलीविजन एवं अन्य इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर प्रचार हेतु उसे एक समान समय आवंटित करता है ताकि वह चुनाव संबंधी प्रचार कर सके या चुनाव से संबंधित सूचना के बारे में लोगों को सूचित कर सके।
उम्मीदवार अनुशंसित तरीके से किसी व्यक्ति को अपना चुनाव एजेंट नियुक्त कर सकता है और जब इस प्रकार की नियुक्ति की जाती है, तो इस नियुक्ति की सूचना रिटनिंग अधिकारी को दी जाएगी। चुनाव उम्मीदवार या उसका चुनाव एजेंट एक या अधिक व्यक्तियों को मतदान की गणना के समय उपस्थित रहने के लिए काउंटिंग एजेंट नियुक्त कर सकते हैं, और जब ऐसी नियुक्ति की जाती है, तो इसकी सूचना रिटर्निग अधिकारी को दी जाएगी।
चुनाव की सामान्य प्रक्रिया
यदि एक मान्यता प्राप्त दल के उम्मीदवार की नामांकन भरने की अंतिम तिथि को सुबह 11 बजे के बाद किसी भी समय मृत्यु हो जाती है और संबद्ध धारा के तहत् उसके नामांकन को वैध पाया जाता है और उसकी मृत्यु की खबर मतदान शुरू होने से पूर्व प्राप्त हो जाती है, तो रिटर्निग अधिकारी, उम्मीदवार की मृत्यु की सूचना से संतुष्ट हो जाने के बाद, आदेश द्वारा बाद में अधिसूचित तिथि तक मतदान को स्थगित करने की घोषणा करेगा और इसकी सुचना क्गुनव आयोग और अन्य उपयुक्त प्राधिकारी को भी देगा।
चुनाव आयोग मतदान के लिए घंटों का निर्धारण करता है। उपबंध है कि संसदीय या विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव के लिए नियत दिन में कुल आवंटित समयावधि आठ घंटों से कम नहीं होगी। आपातकालीन स्थिति में (जैसे, दंगा-फसाद, हिंसा, प्राकृतिक आपदा, इत्यादि) मतदान केंद्र का प्रीसाइडिंग अधिकारी या ऐसे स्थान का रिटर्निग अधिकारी, जैसी भी स्थिति हो, बाद में अधिसूचित मतदान की तिथि तक, मतदान स्थगित करने की घोषणा करेगा।
यदि किसी चुनाव में, किसी मतदान केंद्र पर प्रयोग में मतदान पेटी की अवैध रूप से प्रीसाइडिंग अधिकारी या रिटनिंग अधिकारी की संरक्षा से ले लिया जाता है, या दुर्घटनावश या जानबूझकर नष्ट कर दिया जाता है, तो ऐसे मतदान केंद्र के मत परिणामों को माना या स्वीकार नहीं किया जाएगा, या किसी ईवीएम में मतदान दर्ज करने के दौरान तकनीकी गड़बड़ी हो जाती है; या ऐसी कोई त्रुटि या अनियमितता जिससे मतदान केंद्र पर प्रतिबद्ध चुनाव में गड़बड़ी पेश आए, तो रिटर्निग अधिकारी इसकी सूचना चुनाव आयोग को प्रेषित करेगा। उस पर, चुनाव आयोग या तो मतदान को शून्य घोषित कर सकता है या रिटनिंग अधिकारी ऐसे निर्देश जारी कर सकता है जो आगामी चुनावों के आयोजन हेतु उचित लगे।
बूथ कैप्चरिंग की स्थिति में चुनाव आयोग, रिटनिंग अधिकारी से प्राप्त रिपोर्ट पर सभी स्थितियों को ध्यान में रखते हुए, या तो एक निश्चित तिथि को फिर से मतदान आयोजित करने की घोषणा करता है या इसके लिए स्थान या तिथि या घंटों को इस प्रकार अधिसूचित करता है जो बेहद उपयुक्त हो सके; या इस बात का निश्चय होता है कि बड़ी संख्या में मतदान केंद्र या स्थानों में बूथ कैप्चरिंग हुई है और जिससे चुनाव के प्रभावित होने की संभावना है, या बूथ कैप्चरिंग ने मतों की गिनती को इस प्रकार प्रभावित किया है जिससे चुनाव का परिणाम प्रभावित होता है, उस निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव को रद्द कर सकता है।
अधिनियम प्रावधान करता है कि कोई भी मत प्रच्छन्न तरीके से नहीं डाला जाएगा। राज्य सभा की सीटों के लिए मतदान खुले मतदान द्वारा किया जाएगा।
यदि किसी व्यक्ति का नाम निर्वाचन क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में दर्ज नहीं है, तो उसे मत देने का अधिकार नहीं है। इस अधिनियम के तहत् वह मतदान के लिए अनर्ह होगा। कोई व्यक्ति आम चुनाव में एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान नहीं कर सकता। कोई व्यक्ति किसी चुनाव में एक ही निर्वाचन क्षेत्र में एक से अधिक बार मतदान नहीं कर सकता। कोई व्यक्ति किसी चुनाव में मतदान नहीं कर सकता, यदि वह कारागार में है, या पुलिस की वैधानिक संरक्षा में है। हालांकि यह उपबंध ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होता जिसे किसी विधि के अंतर्गत एक समय विशेष के लिए निवारक निरोध में रखा गया हो।
मतों की गिनती रिटर्निंग अधिकारी द्वारा, या उसके पर्यवेक्षण एवं निर्देशन में की जाएगी, और प्रत्येक चुनावी उम्मीदवार, उसका चुनाव एजेंट और गणक एजेंट की गिनती के समय वहां पर उपस्थित रहने का अधिकार होगा।
जब मतों की गिनती पूरी हो जाती है, तो रिटर्निंग अधिकारी इस अधिनियम के तहत् प्रावधानों या नियमों के अनुसार चुनाव के परिणाम की घोषणा करता है।
चुनाव के परिणाम की घोषणा के पश्चात् रिटनिंग अधिकारी-
यथासंभव इस परिणाम की सुचना उचित अधिकारी एं चुनाव आयोग को प्रेषित करता है, और संसद के एक सदन या राज्य की विधानसभा के चुनाव की स्थिति में इसकी सूचना सम्बद्ध सदन के सचिव को भी प्रेषित करेगा।
सम्बद्ध प्राधिकारी चयनित उम्मीदवारों के नाम को राजपत्र में प्रकाशित करवाता है। जिस तिथि को रिटर्निग अधिकारी द्वारा एक उम्मीदवार को चयनित किए जाने की घोषणा की जाती है, वह उस उम्मीदवार के चुने जाने की तिथि होती है। यदि कोई उम्मीदवार लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों सदनों के लिए चुन लिया जाता है और उसने किसी भी सदन में सीट नहीं ली है, उस तिथि से 10 दिनों के भीतर लिखित में सूचना चुनाव आयोग के सचिव को प्रेषित करेगा, या तिथि के पश्चात्, जिस तिथि को उसने सीट ग्रहण की है, सूचित करेगा कि वह जिस सदन में सीट लेना चाहता है, और तत्पश्चात् जिस सदन में उसने सीट ग्रहण नहीं की है, रिक्त हो जाती है। उपर्युक्त उल्लिखित समयावधि के भीतर सूचित न करने की स्थिति में, राज्य सभा में उसकी सीट, रिक्त हो जाती है।
यदि कोई व्यक्ति संसद के प्रत्येक सदन में एक से अधिक सीट पर चयनित होता है या किसी राज्य के विधानमण्डल में चुना जाता है, तब जब तक की संस्तुत समयावधि के भीतर वह त्यागपत्र नहीं देता, एक सीट को छोड़कर सभी स्थान रिक्त हो जाते हैं।
संपत्ति एवं देयताओं की घोषणा
संसद के सदन के लिए चयनित’ प्रत्येक उम्मीदवार उसके द्वारा संसद के किसी सदन में सीट लेने के लिए जिस तिथि की शपथ या प्रतिज्ञान लेता है, से 90 दिनों के भीतर अपनी संपत्ति एवं देयताओं से सम्बद्ध सूचना प्रदान करता है, जिसमें शामिल हैं-
- चल एवं अचल संपत्ति जिसे वह, उसकी पत्नी, और उस पर निर्भर बच्चे संयुक्त रूप से या स्वामित्व रूप से या लाभार्थियों के रूप में प्रयोग करते हैं;
- किसी सार्वजनिक वित्तीय संस्थान को उसकी देयताएं; और
- केंद्र सरकार या राज्य सरकार, राज्य सभा के सभापति या लोकसभा के अध्यक्ष को उसकी देयताएं।
चुनाव व्यय
लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनावों के संबंध में प्रत्येक उम्मीदवार उसके चुनाव से सम्बद्ध उसके नामांकन की तिथि से परिणामों की घोषणा की तिथि के बीच चुनावी व्यय का सही ब्यौरा रखेगा। उम्मीदवार चुने जाने के तीस दिनों के भीतर जिला चुनाव अधिकारी के पास अपने चुनाव व्यय का ब्यौरा दर्ज कराएगा।
चुनाव संबंधी विवाद
निर्वाचन क्षेत्र के सम्बद्ध उच्च न्यायालय को चुनाव याचिका पर संज्ञान लेने की अधिकारिता है। चुनाव होने की तिथि से 40 दिनों के भीतर उच्च न्यायालय में चुनाव संबंधी याचिका दायर करके चुनाव को प्रश्नगत किया जा सकता है। चुनाव याचिका के ट्रायल निष्कर्ष पर उच्च न्यायालय आदेश दे सकता है-
- चुनाव याचिका को रद्द करना; या
- किसी एक उम्मीदवार या सभी का चुनाव शून्य घोषित करना; या
- किसी एक उम्मीदवार या सभी का चुनाव शून्य घोषित करना और याचिका कर्ता या किसी अन्य उम्मीदवार को चयनित करना।
चुनाव शून्य घोषित किया जा सकता है यदि उच्च न्यायालय का विचार है कि-
- अपने चुनाव की तिथि को निर्वाचित उम्मीदवार सीट भरे जाने हेतु अर्ह नहीं था, या अनर्ह किया गया था।
- कि निर्वाचित उम्मीदवार या उसके चुनाव एजेंट या निर्वाचित उम्मीदवार या उसके चुनाव एजेंट के साथ सहमति पर अन्य व्यक्ति द्वारा गलत तरीका अपनाया गया है।
- कि कोई नामांकन अनुचित तरीके से निरस्त किया गया है; या
- कि चुनाव का परिणाम, जैसाकि यह निर्वाचित उम्मीदवार से सम्बद्ध है, आर्थिक रूप से प्रभावित किया किया गया है
- किसी नामांकन के अनुचित स्वीकरण द्वारा, या
- निर्वाचित उम्मीदवार के हित में अपनाया गया अनुचित तरीका, या
- किसी मत का अनुचित स्वीकरण, निषेध या निरस्त करना या शून्य मत को स्वीकार करना, या
- संविधान के प्रावधानों या इस अधिनियम या इस अधिनियम के अंतर्गत नियमों या आदेशों के प्रतिकूल कोई तथ्य।
उच्च न्यायालय निर्वाचित उम्मीदवार के अतिरिक्त किसी उम्मीदवार को चयनित घोषित कर सकता है और निर्वाचित उम्मीदवार के चयन को शून्य घोषित करता है यदि न्यायालय का मानना है-
- वस्तुतः अन्य उम्मीदवार को बहुमत में वैध मत प्राप्त हुए; या
- निर्वाचित उम्मीदवार द्वारा अनुचित तरीके से मत प्राप्त किए गए अन्यथा अन्य उम्मीदवार को बहुमत में वैध मत प्राप्त होते।
चुनाव याचिका से सम्बद्ध उच्च न्यायालय के किसी फैसले के संदर्भ में, उच्चतम न्यायालय में, उच्च न्यायालय के विधि या तथ्य के किसी प्रश्न पर आदेश की तिथि के तीस दिनों के भीतर अपील की जा सकती है।
अनुचित तरीके एवं चुनावी अपराध
निम्न तरीकों को अनुचित माना जाता है-
- रिश्वत कहा जाता है-
- उम्मीदवार या उसके एजेंट या उम्मीदवार की मदद से अन्य किसी व्यक्ति द्वारा कोई उपहार, भेंट या वादे से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करना-
- एक व्यक्ति को चुनाव में एक उम्मीदवार के रूप में खड़ा होना या नहीं होना, या अपना नाम वापस लेना या न लेने के लिए,
- चुनाव में मतदान करने या न करने के लिए प्रेरित करना।
- किसी पारितोषिक की प्राप्ति, या प्राप्ति का समझौता, चाहे उत्प्रेरण के तौर पर हो या पुरस्कार रूप में।
- उम्मीदवार, या उसके एजेंट, या उम्मीदवार की सहमति पर कोई अन्य व्यक्ति या उसका चुनाव एजेंट, स्वतंत्र मताधिकार का प्रयोग करने में किसी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप या हस्तक्षेप का प्रयास करने के लिए अनावश्यक प्रभाव डालते हैं।
- किसी उम्मीदवार या उसके एजेंट द्वारा या उम्मीदवार की सहमति पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या उसके चुनाव एजेंट द्वारा किसी व्यक्ति को उसके धर्म, जाति, प्रजाति, समुदाय या भाषा के आधार पर मतदान करने की आज्ञा देना या मना करना, या धार्मिक चिन्ह प्रयोग करने की अपील करना, या राष्ट्रीय चिन्ह, जैसे राष्ट्रीय ध्वज या राष्ट्रीय गान, का प्रयोग उस उम्मीदवार के विजयी होने की संभावनाओं को बढ़ने के लिए करना या पक्षपात्पूर्ण तरीके से किसी उम्मीदवार के चयनित होने की प्रभावित करना।
- भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच धर्म, जाति, प्रजाति, समुदाय, या भाषा के आधार पर शत्रुता या द्वेष की भावना फैलाना या फैलाने का प्रयास करना।
- किसी प्रथा का प्रचार करना या सती प्रथा को लागू करना या इसका महिमामण्डन करना।
- किसी तथ्य का प्रकाशन जो असत्य है, और जिसे वह या तो झूठ समझता है या उसके सत्य होने का विश्वास नहीं करता, जो किसी उम्मीदवार के व्यक्तिगत चरित्र या व्यवहार के बारे में है।
- किसी वाहन या गाड़ी को, भुगतान करके या जबरदस्ती लेना।
- इस अधिनियम के प्रतिकूल चुनाव व्यय करना या उसे सही ठहराना।
- सरकारी सेवा में रत् व्यक्ति से उम्मीदवार के चुनावी लाभ लेने के लिए किसी प्रकार की मदद प्राप्त या रोकने का प्रयास करना।
चुनाव संबंधी अपराध
अधिनियम में निम्नलिखित कृत्य चुनाव संबंधी अपराध माने जाते हैं-
- चुनाव के संबंध में विभिन्न वर्गों के बीच धर्म, जाति, प्रजाति, समुदाय या भाषा के आधार पर शत्रुता एवं द्वेष फैलाना।
- यदि एक उम्मीदवार विधि के तहत् आवश्यक किसी सूचना देने में असफल होता है या असत्य सूचना प्रदान करता है; या तथ्यों को छुपाता है।
- चुनाव से पूर्व 48 घंटों के दौरान किसी प्रकार की सभा या सम्मेलन करता है।
- किसी चुनावी सभा में हुड़दंग करता है।
- इस प्रकार के पेम्फलेट्स, पोस्टर इत्यादि छपवाता है जिस पर प्रकाशक और मुद्रक का नाम एवं पता नहीं है।
- किसी अधिकारी, क्लक, एजेंट या अन्य व्यक्ति द्वारा मतदान की गोपनीयता के प्रबंधन को भंग करना, जो मतदान प्रक्रिया के संबंध में किसी कर्तव्य का निर्वहन करता है।
- जिला चुनाव अधिकारी या एक चुनाव अधिकारी, या एक सहायक चुनाव अधिकारी, या एक मतदान केंद्र अधिकारी या एक अधिकारी या क्लर्क जिसे चुनाव कराने के लिए नियुक्त किया गया है, द्वारा कोई ऐसा कार्य (मतदान के अतिरिक्त) करता है जिससे एक उम्मीदवार के चयनित होने की संभावना बढ़ती है।
- चुनाव की तिथि को मतदान केंद्र में या उसके पास प्रचार करता है।
- मतदान केंद्र पर या उसके नजदीक किसी प्रकार का अभद्र व्यवहार किया जाता है।
- मतदान केंद्र पर अनुचित व्यवहार करना।
- मतदान के लिए निर्धारित प्रक्रिया को नहीं अपनाना।
- चुनाव से सम्बद्ध कर्तव्यों को भंग करना।
- सरकारी कर्मचारी का किसी उम्मीदवार के चुनाव एजेंट, पोलिंग एजेंट या काउंटिंग एजेंट के तौर पर कार्य करना।
- आर्म्स एक्ट, 1959 में उल्लिखित तथ्यों के तहत् मतदान केंद्र में या उसके नजदीक हथियार लेकर जाना।
- मतदान केंद्र से मत पत्र ले जाने का प्रयास करना।
- बूथ कैप्चरिंग करना। बूथ कैप्चरिंग करने वाले को कम से कम एक वर्ष कारावास की सजा दी जाएगी जिसे जुर्माने सहित तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और जहां पर ऐसा अपराध किसी सरकारी सेवा में रत् व्यक्ति ने किया हो, उसे कम से तीन वर्ष कारावास की सजा, लेकिन जिसे जुर्माने सहित पांच वर्ष किया जा सकता है।
- मतदान के दिन मदिरा को बेचना, देना या वितरित करना।
निम्न भी अपराध में शामिल किया जाता है, यदि एक व्यक्ति-
- किसी नामांकन पत्र को जानबूझकर गंदा या नष्ट करता है; या
- चुनाव अधिकारी के अधीन किसी सूची, नोटिस या अन्य दस्तावेज को जानबूझकर गंदा, नष्ट या हटाता है; या
- जानबूझकर किसी मतपत्र या मतपत्र पर आधिकारिक चिन्ह या पहचान की घोषणा या डाक द्वारा मतदान में प्रयुक्त आधिकारिक लिफाफे को गंदा या नष्ट करना; या
- बिना किसी उचित प्राधिकार के किसी व्यक्ति को मतपत्र की आपूर्ति करना या किसी व्यक्ति से मतपत्र प्राप्त करना या किसी मतपत्र को अपने स्वामित्व में रखना; या
- विधि द्वारा प्राधिकृत नियम के अतिरिक्त जानबूझकर किसी मतपेटी को रखना; या
- चुनाव के उद्देश्य हेतु प्रयोग करने के लिए मत पेटी या मत पत्रों को बिना किसी उचित प्राधिकार के न्सह्त काटना, रखना, खोलना या अन्य किसी प्रकार का हस्तक्षेप करना; या
- जानबूझकर या बिना किसी उचित प्राधिकार के उपर्युक्त लिखित कार्यों को करने का प्रयास करना या ऐसे कार्य में मदद करना।
अनर्ह करने संबंधी चुनाव आयोग की शक्ति
भारत के राष्ट्रपति या राज्यपाल के किसी विचार पर कार्य करते हुए यदि चुनाव आयोग समझता है कि इसके लिए आवश्यक या उचित है कि जांच की जाए, और आयोग संतुष्ट है कि पार्टी द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज एवं शपथ पत्र के आधार पर जांच किए जा रहे मामले के निर्णायक मत पर नहीं पहुंचा जा सकता तो, आयोग को, इस जांच के उद्देश्य हेतु, निम्न मामलों पर दीवानी न्यायालय की शक्तियां, प्राप्त होगों, नामतः –
- किसी व्यक्ति को सम्मन भेजना और उसकी उपस्थिति अनिवार्य करना और शपथ दिलाकर उसका परीक्षण करना;
- किसी दस्तावेज का प्रकाशन एवं खोज या अन्य वस्तु जिसे साक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत किया जा सके;
- शपथ पत्र पर साक्ष्य प्राप्त करना;
- किसी सार्वजनिक रिकार्ड की मांग करना या किसी न्यायालय या कार्यालय से उसकी छाया प्रति प्राप्त करना;
- साक्ष्यों या दस्तावेजों के परीक्षण हेतु समिति बनाना।
अन्य तथ्य
- राज्य विधानसभाओं के सदस्यों की सूची और निर्वाचक मण्डल को सम्बद्ध चुनाव अधिकारी द्वारा व्यवस्थित किया जाता है।
- चुनाव आयोग किसी भी चुनाव की समयावधि को बढ़ाने की शक्ति रखता है।
- किसी उम्मीदवार की जमानत राशि जब्त हो जाती है, यदि जहां चुनाव हुआ है, वहां से उम्मीदवार का चयन नहीं हुआ है और उसे प्राप्त संख्या का ⅙ से अधिक नहीं है या एक निर्वाचन क्षेत्र से एक से अधिक उम्मीदवारों के चयन की स्थिति में चयनित उम्मीदवारों को प्राप्त वैध मतों के विभाजन से प्राप्त संख्या का ⅙ हिस्सा नहीं है।
- राज्य का क्षेत्रीय आयुक्त या मुख्य चुनाव अधिकारी किसी भी चुनाव अधिकारी को चुनाव सम्बन्धी कर्तव्यों के निर्बाध निष्पादन हेतु आवश्यक कर्मी उपलब्ध कराता है।
- राज्य सरकार चुनाव कराने के उद्देश्य हेतु स्थान, वाहन इत्यादि के भुगतान की क्षतिपूर्ति की आवश्यकता को पूरा करता है।
- केंद्र सरकार चुनाव आयोग से परामर्श करने के पश्चात् इस अधिनियम के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए नियम बना सकती है।
- इस अधिनियम के तहत् चुनाव के संबंध में नियुक्त चुनाव अधिकारी या अन्य व्यक्ति के किसी कृत्य या निर्णय की वैधता को प्रश्नगत करने की अधिकारिता किसी भी दीवानी न्यायालय को नहीं होगी।
निर्वाचन आयोग
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-324 से 329 के अंतर्गत निर्वाचन तंत्र से सम्बन्धित सम्पूर्ण व्यवस्था की गई है। संविधान के अनुच्छेद-324 के अनुसार, निर्वाचन आयोग के नाम से एक स्वतंत्र संस्था की व्यवस्था है जो स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव का संचालन करती है। आयोग निर्वाचन के लिए मतदाता सूची तैयार कराने का कार्य करता है तथा सभी निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करता है। निर्वाचन आयोग मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्तों, जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करता है, से मिलकर बनता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा राष्ट्रपति करता है। संविधान ने निर्वाचन आयोग के आयुक्तों की संख्या का कोई निश्चित निर्धारण नहीं किया है तथा इस कार्य को राष्ट्रपति पर छोड़ दिया गया है। 1989 में दो और आयुक्तों को नियुक्त करके निर्वाचन आयोग को बहु-सदस्यीय आयोग बना दिया गया। परंतु राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने 1990 में निर्वाचन आयोग को पुनः एक सदस्यीय बना दिया था। 1993 में निर्वाचन आयोग को पुनः संसदीय अधिनियम द्वारा तीन सदस्यीय बना दिया गया।
14 जुलाई, 1995 को सर्वोच्च न्यायालय ने बहु-सदस्यीय निर्वाचन आयोग की संवैधानिक वैधता को अपनी स्वीकृति दे दी। सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य निर्वाचन आयुक्तको निर्वाचन आयोग के प्रशासनिक प्रमुख के रूप में स्वीकार कर लिया। साथ ही यह व्यवस्था भी दी कि चुनाव आयुक्तों को संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही पद से हटाया जा सकता है। न्यायालय ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद के बराबर रखने के केंद्र के निर्णय को भी अस्वीकार कर दिया।
भारतीय संविधान ने निर्वाचन आयोग के सदस्यों के लिए कोई योग्यता का निर्धारण नहीं किया है, बल्कि राष्ट्रपति किसी व्यक्ति को नियुक्त करने के लिए स्वतंत्र है। साथ ही संविधान में निर्वाचन आयुक्तों की सेवा अवधि के लिए भी कोई प्रावधान नहीं किया गया है सामान्यतः उनका कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार अन्य निर्वाचन आयुक्तों को अपने पद से राष्ट्रपति, मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सहमति से हटा सकता है परंतु मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पदच्युत करने के लिए वही विधि अपनाई जाती है जिस विधि से सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पदच्युत किया जाता है अर्थात् संसद के दोनों सदनों में महाभियोग प्रस्ताव दो-तिहाई बहुमत से पारित हो जाने पर ही मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से हटाया जा सकता है।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त के वेतन तथा भत्ते समय-समय पर निर्धारित किए जाते हैं। परंतु उनके वेतन तथा भत्तों में उनकी सेवा अवधि के बीच कोई परिवर्तन नहीं किए जा सकते हैं।
आयोग के कृत्य
भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा प्रमुख रूप से निम्नलिखित कार्य संपादित किए जाते हैं-
- निर्वाचन आयोग का सर्वप्रथम कार्य निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन अथवा सीमांकन (Delimitation of Constituencies) कराना होता है। 1952 में संसद ने परिसीमन आयोग अधिनियम पारित करके यह प्रावधान किया कि प्रत्येक 10 वर्ष के अंतराल पर होने वाली जनगणना के पश्चात् निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाना चाहिए। इस आयोग में एक अध्यक्ष, जो कि मुख्य चुनाव आयुक्त होता है, दो सर्वोच्च अथवा उच्च न्यायालयों के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश तथा प्रत्येक राज्य से दो से सात तक सहायक सदस्य हो सकते हैं। इन सहायक सदस्यों का चयन सम्बन्धित राज्य से लोक सभा अथवा राज्य विधान सभा हेतु निर्वाचित सदस्यों में से किया जाता है। जन-साधारण द्वारा अपने सुझाव एवं आपत्तियां व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से आयोग के समक्ष रखे जा सकते हैं। प्राप्त सुझावों एवं आपत्तियों पर आयोग द्वारा अनिवार्य रूप से खुली बैठकों में चर्चा की जाती है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के पश्चात् ही आयोग परिसीमन सम्बन्धी आदेश प्रदान करता है। आयोग का निर्णय अंतिम होता है और इसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती। परिसीमन आयोग की यह व्यवस्था गैरीमेण्डरिंग (Gerrymandering- निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन इस प्रकार किया जाना कि जिससे किसी विशेष राजनीतिक दल अथवा वर्गको लाभ पहुंचे) जैसी बुराइयों पर अंकुश लगाने हेतु ही की गई है।
- आयोग राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, संसद एवं राज्य विधानमण्डलों के चुनावों का अधीक्षण, नियंत्रण एवं निदेशन करता है।
- आयोग विभिन्न राजनीतिक दलों को मान्यता प्रदान करता है। इस सम्बन्ध में उसके द्वारा कुछ मापदण्ड निर्धारित किए जा सकते हैं। इन मापदण्डों में आयोग द्वारा समय-समय पर परिवर्तन किए जा सकते हैं।
- आयोग प्रत्येक लोक सभा अथवा विधान सभा निर्वाचनों से पूर्व मतदाता सूचियां तैयार करता है। इस कार्य के पूर्ण होने पर ही निर्वाचन कराए जाते हैं।
- आयोग निर्वाचनों हेतु सामान्य नियमों का निर्धारण करता है। साथ ही वह नामांकन-पत्रों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है।
- आयोग मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को आरक्षित चुनाव चिन्ह प्रदान करता है। चुनाव चिन्ह के प्रश्न पर दो राजनीतिक दलों के मध्य किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में आयोग से विवाद का निष्पक्ष एवं न्यायिक ढंग से निपटारा करने की अपेक्षा की जाती है। इस सम्बन्ध में आयोग के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
- आयोग चुनाव के समय राजनीतिक दलों एवं प्रत्याशियों हेतु आचार-संहिता का निर्धारण करता है।
- आयोग संसद सदस्यों एवं राज्य विधानमंडल के सदस्यों के अयोग्यता सम्बन्धी मामलों में क्रमशः राष्ट्रपति एवं सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल को परामर्श प्रदान करता है।
- आयोग द्वारा किन्हीं विशिष्ट कारणों से चुनावों का स्थगन अथवा उन्हें रद्द किया जा सकता है।
- आयोग विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा रेडियो तथा टेलीविजन पर चुनाव प्रचार हेतु समय एवं दिन का निर्धारण करता है।
- चुनावों अथवा इनसे उत्पन्न विवादों की जांच हेतु निर्वाचन अधिकारियों की नियुक्ति निर्वाचन आयोग द्वारा ही की जाती है।
- आयोग मतदाताओं को आवश्यक राजनीतिक प्रशिक्षण प्रदान करता है।
निर्वाचन प्रक्रिया
निर्वाचन आयोग संसद अथवा राज्य विधानमंडल के लिए सम्बद्ध सरकार की सहमति से चुनाव-कार्यक्रम निर्धारित करता है। सामान्यतः निर्वाचन आयोग चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करता है परंतु वास्तविक रूप में इसकी शुरुआत राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल की अधिसूचना से होती है। उम्मीदवारों को नामांकन-पत्र दाखिल करने के लिए आठ दिनों का समय दिया जाता है। उम्मीदवार को देश का नागरिक होना अनिवार्य है। साथ ही उम्मीदवार के नाम के प्रस्तावक को उम्मीदवार के चुनाव क्षेत्र का मतदाता होना आवश्यक है। स्वतंत्र उम्मीदवार किसी क्षेत्र से चुनाव लड़ सकता है। नामांकन-पत्र दाखिल करने की तिथि के बाद, निर्वाचन अधिकारी नामांकन पत्रों की जांच करता है। इस प्रक्रिया में किसी गड़बड़ी की वजह से वह नामांकन-पत्र को अस्वीकार कर सकता है। उसके बाद उम्मीदवारों को अपना नाम वापस लेने के लिए दो दिन का समय दिया जाता है। फिर निर्वाचन अधिकारी उम्मीदवारों की अंतिम सूची जारी कर देता है और राजनीतिक पार्टियों तथा स्वतंत्र उम्मीदवारों को चुनाव-चिन्ह प्रदान किया जाता है। सुरक्षित चुनाव-चिन्ह मान्यता प्राप्त पार्टियों को तथा स्वतंत्र चुनाव चिन्ह अन्य उम्मीदवारों को दिया जाता है।
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नामांकन-पत्र वापसी के दिन से कम से कम 20 दिन चुनाव प्रचार के लिए दिये जाते हैं। चुनावी खर्चे चुनाव क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या के आधार पर निर्धारित किये जाते हैं। परंतु इस खर्चे में पार्टियों द्वारा अपने उम्मीदवारों के लिए किए जाने वाले खर्च शामिल नहीं होते हैं। कंपनियों द्वारा राजनितिक पार्टियों को दिए जाने वाले अनुदानों की स्वीकृति नहीं है। चुनाव प्रचार मतदान की तिथि के 48 घंटे पहले बंद कर दिया जाता है। निर्वाचन आयोग समय-समय पर आचार-संहिता जारी करता है तथा राजनीतिक नेताओं द्वारा इसे पालन करने की अपेक्षा की जाती है परंतु इसकी अवहेलना भी की जाती रही है।
चुनाव आदर्श आचार संहिता
चुनाव आयोग ने सर्वप्रथम पांचवें आम चुनाव (1971) में चुनाव से संबंधित आदर्श आचार संहिता से जुड़े कुछ निर्देशों की घोषणा की। वैसे आदर्श आचार संहिता की शुरुआत वस्तुतः 1960 में केरल के विधानसभा चुनाव से मानी जाती है।
चुनाव आदर्श आचार संहिता विभिन्न राजनीतिक दलों व उनके उम्मीदवारों के मार्गदर्शन के लिए कतिपय निर्देशों का एक समुच्चय है जो देश के उन राजनीतिक दलों के मतैक्य के पश्चात् तैयार किया गया है जो कि संहिता द्वारा उल्लिखित सिद्धांतों को मानने के प्रति अपनी सहमति प्रदान करते हैं।
आदर्श आचार संहिता का उद्देश्य सभी राजनीतिक दलों के लिए चुनाव में एक समान आधार स्तर उपलब्ध कराने के साथ-साथ प्रचार को निष्पक्ष व स्वस्थ रखना, राजनीतिक दलों के बीच संघर्ष व विवाद से बचाव तथा शांति व व्यवस्था सुनिश्चित करना है। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि केंद्र या राज्य में सत्तारूढ़ दल किसी चुनाव में अनुचित लाभ के लिए अपने आधिकारिक पद का दुरुपयोग न कर पाए।
चुनाव आचार संहिता का कानूनी आधार
वर्ष 1992 में चुनाव आयोग ने आदर्श चुनाव संहिता को कानूनी आधार देने का प्रस्ताव किया था, लेकिन वर्ष 1998 में उसने अपना प्रस्ताव वापिस ले लिया। चुनाव आयोग की राय थी कि इस संहिता को कानूनी आधार दिए बिना इसे लागूकर सफलतापूर्वक चुनाव संपन्न कराया जा सकता है। हालांकि वर्ष 2005 में राज्यसभा में एक प्रश्नके जवाब में, गोस्वामी समिति की अनुशंसा के आधार पर, सरकार ने आदर्श आचार संहिता को कानूनी शक्ल देने के लिए चुनाव आयोग के विचार मांगे थे, लेकिन चुनाव आयोग ऐसे किसी प्रस्ताव के पक्ष में नहीं था। चुनाव आचार संहिता को कानूनी आधार मिल जाने के पश्चात् इसका उल्लंघन एक चुनावी अपराध माना जाता। वैसे एक-एक चुनाव में आचार संहिता उल्लंघन के सैकड़ों मामले दर्ज किए जाते हैं। तब चुनाव संचालन भी कठिन हो सकता था।
वर्ष 1978 में मोहिंदर सिंह गिल मामले में उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने यह व्यवस्था दी थी कि जहां संसद एवं राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानून हैं वहां तो आयोग उन कानूनों के अनुरूप काम करेगा, लेकिन जिन मसलों पर कोई कानून नहीं है वहां आयोग को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए आवश्यक कार्यवाही करने का व्यापक अधिकार है। फिलहाल चुनाव आयोग के पास चुनाव आचार संहिता को लागू करने के लिए व्यापक शक्तियां हैं।
दरअसल चुनावों की घोषणा होते ही, आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है जिससे चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शिता के साथ संपन्न हो सकें। आदर्श आचार संहिता राजनीतिक दलों एवं उनके उम्मीदवारों के लिए होती है।
चुनाव आचार संहिता के प्रमुख प्रावधान
- कोई दल ऐसा काम न करे, जिससे जातियों और धार्मिक या भाषाई समुदायों के बीच मतभेद बढ़े या घृणा फैले।
- राजनीतिक दलों की आलोचना कार्यक्रम व नीतियों तक सीमित हो, न कि व्यक्तिगत।
- धार्मिक स्थानों का उपयोग चुनाव प्रचार के मंच के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
- मत पाने के लिए भ्रष्ट आचरण का उपयोग न करें। जैसे-रिश्वत देना, मतदाताओं की परेशान करना आदि।
- किसी की अनुमति के बिना उसकी दीवार, अहाते या भूमि का उपयोग न करें।
- राजनीतिक दल ऐसी कोई भी अपील जारी नहीं करेंगे, जिससे किसी कि धार्मिक या जातीय भावनाएं आहत होती हों।
- सभा के स्थान व समय की पूर्व सूचना पुलिस अधिकारियों की दी जाए।
- दल या अभ्यर्थी पहले ही सुनिश्चित कर लें कि जो स्थान उन्होंने चुना है, वहां निषेधाज्ञा तो लागू नहीं है।
- सभा स्थल में लाउडस्पीकर के उपयोग की अनुमति पहले प्राप्त करें।
- जुलूस का समय, शुरू होने का स्थान, मार्ग और समाप्ति का समय तय कर सूचना पुलिस को दें।
- अधिकृत कार्यकर्ताओं को बिल्ले या पहचान पत्र दें।
- मतदान के दिन और इसके 24 घंटे पहले किसी को शराब वितरित न की जाए।
- मतदाताओं को दी जाने वाली पर्ची सादे कागज पर हो और उसमें प्रतीक चिन्ह, अभ्यर्थी या दल का नाम न हो।
- सत्ताधारी दल कार्यकलापों में शिकायत का मौका न दें।
- मंत्रीगण शासकीय दौरों के दौरान चुनाव प्रचार के कार्य न करें।
- इस काम में शासकीय मशीनरी तथा कर्मचारियों का इस्तेमाल न करें।
- सत्ताधारी दल सरकारी धन पर विज्ञापनों के जरिए उपलब्धियां न गिनवाएं।
- सत्ताधारी दल विश्राम गृह, डाक बंगले या सरकारी आवासों पर एकाधिकार न करें और इन स्थानों का इस्तेमाल प्रचार कार्यालय के लिए नहीं होगा।
- मुख्यमंत्री या मंत्री शासकीय दौरा न कर सकेंगे।
- विवेकाधीन निधि से अनुदान या स्वीकृति चुनाव उद्घोषणा के दौरान नहीं हो सकेगी।
- शासकीय सेवक किसी भी अभ्यर्थी के निर्वाचन, मतदाता या गणना एजेंट नहीं बनेंगे।
- मंत्री यदि दौरे के समय निजी आवास पर ठहरते हैं तो अधिकारी बुलाने पर भी वहां नहीं जाएंगे।
- राजनीतिक दलों की सभा के लिए स्थान देते समय शासकीय अधिकारी भेदभाव नहीं करेंगे।
- चुनाव की घोषणा हो जाने से परिणामों की घोषणा तक सभाओं और वाहनों में लगने वाले लाउडस्पीकर के उपयोग के लिए दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं। इनके मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र में सुबह 6 से रात 11 बजे तक और शहरी क्षेत्र में सुबह 6 से रात 10 बजे तक इनके उपयोग की अनुमति होगी।
परिसीमन आयोग
परिसीमन का शाब्दिक अर्थ एक देश में या एक प्रांत में, जिसमें एक विधायी निकाय है, प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं या सीमा रेखा को निश्चित करने के काम या प्रक्रिया से है। परिसीमन का कार्य एक उच्च शक्ति के निकाय से सम्बद्ध है। यह निकाय परिसीमन आयोग या सीमा आयोग के तौर पर जाना जाता है।
भारत में, ऐसे परिसीमन आयोगों का गठन 4 बार किया जा चुका हे। 1952 में परिसीमन आयोग अधिनियम, 1952 के तहत् सर्वप्रथम आयोग का गठन किया गया । तत्पश्चात् 1963, 1973 और 2002 में परिसीमन आयोगों का गठन किया गया।
भारत में परिसीमन आयोग उच्च शक्ति प्राप्त निकाय है जिसके आदेशों को कानून द्वारा लागू कराया जाता है और किसी भी न्यायालय के सम्मुख इन्हें प्रश्नगत नहीं किया जा सकता, ये आदेश भारत के राष्ट्रपति द्वारा इस उद्देश्य से विशिष्टीकृत करने की तिथि से प्रचलन में आते हैं। आदेशों की प्रतियों को लोक सभा और सम्बद्ध राज्यों की विधानसभा के सम्मुख रखा जाता है, लेकिन इस पर उनके द्वारा किसी प्रकार का संशोधन स्वीकार्य नहीं है।
2002 के चौरासीवें संशोधन अधिनियम के अनुरूप 2002 में परिसीमन आयोग की व्यवस्था की गई। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में 12 जुलाई, 2002 को परिसीमन आयोग का गठन किया गया। भारत के एक निर्वाचन आयुक्त व राज्य के निर्वाचन आयुक्तों को इसका पदेन सदस्य नामित किया गया। आयोग का प्रमुख कार्य लोकसभा व राज्य विधानसभाओं हेतु क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण करना है। इसके अतिरिक्त आयोग अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों हेतु सीटों का पुनर्निर्धारण भी करेगा।
इससे पूर्व 1991 की जनगणना को आधार बनाया जाता था किंतु 87वें संशोधन अधिनियम, 2003 के पश्चात् 2001 के जनगणना संबंधी आंकड़ों को परिसीमन का आधार बनाया जाएगा। 13 जुलाई, 2007 को आयोग के कार्यकाल में 1 वर्ष की और वृद्धि की गई है। उल्लेखनीय है की गठन के पश्चात् इसके कार्यकाल को दो बार बढ़ाया गया है।
फरवरी 2008 में संघीय मंत्रिमण्डल ने परिसीमन आयोग की सिफारिशों का समर्थन करने का निर्णय लिया। राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने संविधान के अनुच्छेद-82 के दूसरे परन्तुक एवं अनुच्छेद-170 वहीं आगामी चुनाव-विधानमण्डलीय एवं साधारण-नए परिसीमन के अनुसार कराने का भी निर्णय लिया।
राष्ट्रपति द्वारा जारी अधिसूचना में 24 राज्य एवं संघ शासित राज्य सम्मिलित थे।झारखण्ड, असम, अरुणाचलप्रदेश, मणिपुर एवं नागालैण्ड में स्थानीय बाधाओं के चलते परिसीमन का कार्य नहीं हो पाया। विगत 32 वर्षों में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या में हुई वृद्धि को देखते हुए आयोग द्वारा इन वर्गों हेतु आरक्षित निर्वाचन सीटें 119 से बढ़ाकर 132 कर दी गई हैं (इस प्रकार अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों को पहले की अपेक्षा क्रमशः 5 एवं 6 सीटें अधिक प्राप्त होंगी।
राज्यों का संसदीय एवं राज्य विधानमण्डल निर्वाचन क्षेत्रों में बंटवारा
प्रत्येक राज्य का संसदित एवं विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन प्रत्येक राज्य विधानसभा में मौजूद कुल सीटों की संख्या और प्रत्येक राज्य में वर्तमान में विधानसभा (हाउस ऑफ पीपुल्स) में कुल सीटों की संख्या को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा।
प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र, जहां तक यथासाध्य हो, भौगोलिक रूप से समन्वित क्षेत्र हों, और इनके परिसीमन में भौतिक लक्षणों, प्रशासनिक इकाई की मौजूदा सीमाएं, संचार की सुविधाओं और सार्वजानिक सुविधा को ध्यान में रखा जाएगा।
जनसंख्या
- सभी विधानसभाओं और संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों को 2001 की जनगणना के आधार पर परिसीमित किया जाएगा। इस उद्देश्य के लिए जनगणना अयुिक्त द्वारा प्रकाशित किए गए जनगणना आंकड़े एकमात्र स्रोत हैं।
- एक राज्य में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र को इस प्रकार परिसीमित किया जाएगा कि, जहां तक यथासाध्य हो, पूरे राज्य में सभी निर्वाचन क्षेत्रौं की जनसंख्या समान हो।
- इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु, राज्य की कुल जनसंख्या (जनगणना 2001) को राज्य में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की कुल संख्या से विभाजित किया जाएगा और इस प्रकार प्रत्येक विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र का राज्य औसत प्राप्त कर लिया जाएगा। यह राज्य में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की कुल संख्या से विभाजित किया जाएगा और इस प्रकार प्रत्येक विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र का राज्य औसत प्राप्त कर लिया जाएगा। यह राज्य औसत इस मायने में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन में एक मार्गदर्शक होगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में, जहां तक यथासाध्य हो, एकसमान जनसंख्या होगी।
- परिसीमन आयोग ने, हालांकि, एक आंतरिक निर्णय लिया कि ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन नहीं किया जा सकता जो सभी मामलों में बिल्कुल एक समान जनसंख्या रखते हैं, राज्य और जिला औसत से 10 प्रतिशत अधिक और कम जनसंख्या की सीमा का विचलन आयोग को स्वीकार्य होगा, यदि भौगोलिक लक्षण संचार के साधन लोक सुविधा, क्षेत्र की सुघटता और प्रशासनिक इकाई के तौर पर अलग करने को नजरअंदाज करने की आवश्यकता की मांग होती है।
प्रशासनिक इकाइयां
हालांकि परिसीमन के लिए जनसंख्या का आधार 2001 की जनगणना है, आयोग ने निर्णय किया कि निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन 15 फरवरी, 2004 को अस्तित्व में रहीं प्रशासनिक इकाइयों, जोकि जिला/उपजिला/तहसील/पटवारी सर्कल/पंचायत समिति/पंचायत इत्यादि हैं, को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा।
जिलों के विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के आवंटन की पद्धति और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन
- परिसीमन आयोग ने निर्णय किया कि, जहां तक यथासाध्य हो, एक जिले में सभी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र उस जिले की क्षेत्रीय सीमा के अंदर सीमित किए जाएंगे। अन्य शब्दों में, साधारण तौर पर एक विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र का विस्तार एक से अधिक जिलों तक नहीं किया जाएगा।
- परिसीमन आयोग के उपर्युक्त आतंरिक निर्णय को ध्यान में से जिले की कुल जनसंख्या के विभाजन के आधार पर प्रत्येक जिले को राज्य औसत से विसंगति रखता है, वहां पर 1½ से अधिक विसंगति को 1 समझा जाएगा और जहां यह 1½ से कम होगी वहां इसे नजरअंदाज कर दिया जाएगा।
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण
- अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए राज्य की कुल जनसंख्या में उनके अनुपात के आधार पर सीटों का आरक्षण होगा।
- अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए सीटों का यह आवंटन प्रत्येक राज्य में, 2001 की जनगणना के आधार पर विधानसभा और संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों दोनों के लिए पृथक् रूप से काम करेगा।
- परिसीमन अधिनियम, 2002 की धारा 9(1)(d) के तहत्, निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण उस निर्वाचन क्षेत्र के हिसाब से होगा जहां कुल जनसंख्या में उनका प्रतिशत सर्वाधिक होगा।
- परिसीमन अधिनियम, 2002 की धारा 9(1)(c) के अनुसार, राज्य के विभिन्न हिस्सों में अनुसूचित जाति के लिए निर्वाचन क्षेत्रों का वितरण किया जाएगा एवं निर्वाचन क्षेत्रों में जहाँ अनुसूचित जाति की जनसंख्या कुल जनसंख्या का तुलनात्मक रूप से बड़ा प्रतिशत है, अनुसूचित जाति के लिए सीटों का आरक्षण किया जाएगा।
राजनीतिक दल
राजनीतिक दल, निर्वाचन प्रक्रिया के अपरिहार्य अंग होते हैं। भारत में बड़ी संख्या में राजनीतिक दल हैं। जबकि भारत में एकल पार्टी प्रथा अधिक प्रभावशाली रही है। राजनीतिक पार्टियां अपनी विचारधारा के प्रति समर्पित रही हैं, परंतु विचलन प्रक्रिया भी साथ-साथ चलती रही है, इसी का परिणाम है-दल-बदल की प्रथा। अधिकतर पार्टियां व्यक्तित्व से प्रभावित रही हैं।
राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय पार्टियां
जन-प्रतिनिधित्व संशोधन अधिनियम, 1988 के अनुसार, राजनीतिक पार्टियों के पंजीकरण के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक हैं-
- यदि इस संशोधित अधिनियम के लागू होने के समय कोई संगठन अथवा संस्था अस्तित्व में है तो इसे लागू होने की तिथि से 60 दिनों के अंदर पंजीकरण के लिए आवेदन करना चाहिए, तथा;
- यदि इस संशोधित अधिनियम के लागू होने के समय के बाद कोई संगठन अथवा संस्था अस्तित्व में आती है तो अस्तित्व में आने की तिथि से 30 दिनों के अंदर पंजीकरण के लिए आवेदन करना चाहिए। यह प्रावधान 15 जून, 1989 से लागू कर दिया गया है।
दिसम्बर 2000 में चुनाव आयोग द्वारा राजनीतिक दलों की राष्ट्रीय अथवा राज्यस्तरीय दलों की मान्यता एवं चुनाव चिन्ह के लिए निर्धारित नियमों में कुछ परिवर्तन किए गए हैं। नए नियमों के अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर के दल को दर्जा प्राप्त करने के लिए सम्बंधित राजनितिक दल को लोक सभा चुनाव अथवा विधानसभा चुनावों में किन्हीं चार अधवा अधिक राज्यों में कुल डाले गए वैध मतों के 6 प्रतिशत मत प्राप्त करने के साथ ही किसी राज्य अथवा राज्यों में लोकसभा को कम-से-कम 4 सीटें जीतनी होंगी अथवा लोक सभा में उसे कम-से-कम दो प्रतिशत सीटें (मौजूदा 543 सीटों में से कम-से-कम 11 सीटें) जीतनी होगीं जो कम-से-कम तीन राज्यों से प्राप्त की गई हो।
इसी प्रकार राज्य स्तरीय दल का दर्जा प्राप्त करने के लिए सम्बंधित दल को लोक सभा अथवा विधान सभा चुनाव में डाले गये कुल वैध मतों का कम-से-कम 6 प्रतिशत मत प्राप्त करने के साथ ही राज्य विधान सभा में कम-से-कम दो सीटें जीतना अथवा तीन सीटें जीतना आवश्यक होगा।
14 मई, 2005 को चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के मान्यता संबंधी नियमों में परिवर्तन के लिए चुनाव चिन्ह (आरक्षण एवं आवंटन) आदेश 1968 में संशोधन किया गया है, इस संशोधन के अनुसार यदि कोई राजनीतिक दल राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तरीय दल के रूप में अपनी मान्यता खो देता है तो 6 वर्ष तक उसे चुनाव चिन्ह रखने की अनुमति प्रदान की जाएगी, किन्तु मान्यता प्राप्त दल को मिलने वाली विशेष सुविधाएं, जैसे- चुनावों के दौरान रेडियो अथवा टीवी पर निःशुल्क चुनाव-प्रसार, आदि, की सुविधा उसे प्रदान नहीं की जाएगी।
दल-बदल निरोधक कानून
भारतीय राजनीति में दल-बदल की समस्या स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के आरंभिक वर्षों से ही बनी हुई है। राजनीतिक अर्थों में दल-बदल का अर्थ है- किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह का उस राजनीतिक दल को छोड़कर, जिसकी टिकट पर वह निर्वाचित हुआ है, किसी अन्य दल में सम्मिलित हो जाना। दल-बदल को डिफेक्शन और फ्लोर क्रॉसिंग आदि नामों से भी जाना जाता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में राजनीतिक प्रशासन के लिए संसदीय शासन प्रणाली अपनाई गई और इसके लिए दलीय व्यवस्था का विकास किया गया। वर्ष 1967 तक दल-बदल की छिटपुट घटनाएं घटी, इसलिए उस ओर ध्यान आकृष्ट नहीं किया गया, परन्तु 1967 के बाद से दल-बदल व्यापक पैमाने पर होने लगा और इसने भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ी समस्या खड़ी कर दी। देश में कांग्रेस का जब तक एकाधिकार रहा, तब तक दल-बदल की घटनाएं कम हुईं, परन्तु चौतर आम चुनावों के बाद राजनितिक परिस्थितियां बदलीं और कांग्रेस का राजनीतिक एकाधिकार समाप्त हो गया। इसके बाद से व्यापक पैमाने पर गठबंधन राजनीतिक दल टूटने लगे और सदस्यों का दल-बदल शुरू हो गया। 1980 के दशक से तो राजनेताओं की पदलोलुपता सारी सीमाएं तोड़ने लगीं, अब उनके लिए मर्यादा नाम की कोई चीज नहीं रह गई, वे मौके की तलाश में रहने लगे कि किस ओर से बुलावा आ रहा है और वहां जाने के क्या-क्या लाभ हैं।
दल-बदल का विस्तार
1977 के पूर्व तक दल-बदल की जितनी घटनाएं घटित हुई थीं, वे या तो व्यक्तिगत स्तर पर या फिर विधायकों के छोटे समूहों द्वारा हुई थीं, परन्तु 1977 और 1980 में तो दल-बदल की दो घटनाओं ने सभी को चोंका दिया-पहली घटना घटी 1977 में जब केंद्र में जनता पार्टी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के गठन के बाद सिक्किम की कांग्रेसी सरकार ने पूर्ण परिवर्तन कर जनता पार्टी के नाम से सरकार बना ली और दूसरी घटना भी सिक्किम में ही उस समय घटी, जब 1980 में केंद्र में कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने के बाद एक बार फिर सरकार के सभी सदस्यों ने दल-बदल करते हुए कांग्रेस पार्टी के नाम से सरकार की स्थापना कर दी। 22 जनवरी, 1980 की एक ऐसी ही घटना हरियाणा में घटी, जब सत्तारूढ़ दल जनता पार्टी के 37 सदस्य कांग्रेस से जा मिले और उन्होंने नयी सरकार की स्थापना की।
केंद्रीय स्तर पर दल-बदल की पहली घटना 1979 ई. में घटी, जब चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी से अलग होकर एक नए दल का गठन किया था। उसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर और पूर्व उप-प्रधानमंत्री देवीलाल के नेतृत्व में 1990 में, अजीत सिंह के नेतृत्व में 1992 में तथा 1997 में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में केंद्रीय राजनीति में व्यापक दल-बदल का नया अध्याय जोड़ा गया।
वर्ष 1997 में उत्तर प्रदेश में दल-बदल का जो स्वरूप प्रकट हुआ, उसने सभी राजनीतिक दलों, राजनीतिज्ञों तथा जन-साधारण को एक बार फिर से इस समस्या से मुक्ति पाने का मार्ग तलाशने को विवश कर दिया है। दल-बदल की प्रक्रिया की शुरूआत के साथ ही उसे रोकने के भी अनेक प्रकार के प्रयास किए जा चुके हैं।
दल-बदल को रोकने के लिए उठाए कदम
दल-बदल की समस्या को गम्भीरता से लेते हुए सर्वप्रथम लोकसभा में एक प्रस्ताव वेंकट सुबैय्या द्वारा लाया गया, जिसमें दल-बदल की समस्या पर सविस्तार विचार करने और उसे नियंत्रित करने के उपाय ढूंढ़ने के उद्देश्य से एक उच्चस्तरीय समिति के निर्माण का सुझाव दिया गया। वेंकट सुबैय्या का यह प्रस्ताव 8 दिसम्बर, 1967 को लोकसभा द्वारा पारित किया गया और उसके तीन महीने बाद वाई.बी. चहाण की अध्यक्षता में 19 सदस्यों की एक समिति का गठन किया गया। यद्यपि इस समिति की सिफारिशें कांग्रेस-विभाजन के कारण लागू नहीं की जा सकीं, परन्तु दल-बदल को रोकने की दिशा में सरकार द्वारा उठाया गया यह पहला कदम था।
16 मार्च, 1973 की लोकसभा में संविधान का 32वां संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया, जिसका उद्देश्य दल-बदल पर प्रतिबंध लगाना था। परन्तु, दुर्भाग्यवश तीन वर्षों की लंबी अवधि तक संयुक्त प्रवर समिति के अधीन रहने के बाद यह विधेयक समाप्त हो गया। 1977 में जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के बाद एक बार फिर दल-बदल को प्रतिबंधित करने की कोशिश की गई। 28 अगस्त, 1978 को लोकसभा में इस आशय का एक विधेयक भी प्रस्तुत किया गया, किन्तु जनता पार्टी के सांसदों में ही घोर विरोध होने के कारण बाद में विधेयक वापस ले लिया गया।
8वीं लोकसभा के गठित होने के अड़ संसद के प्रथम संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति द्वारा यह घोषणा की गई कि नई सरकार दल-बदल रोकने के लिए एक विधेयक प्रस्तुत करेगी और कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने 24 जनवरी, 1985 को 52वां संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य दल-बदल को नियंत्रित करना था। 30 जनवरी, 1985 को संसद के दोनों सदनों में इसे स्वीकृति मिल गई। बाद में 15 फरवरी, 1985 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद दल-बदल निरोधक कानून के रूप में 52वां संविधान संशोधन अधिनियम लागू हुआ। इस अधिनयम द्वारा स्थानों के रिक्त होने एवं संसद तथा राज्य विधानमंडलों की सदस्यता से निर्रहता के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 101, 102, 190 और 191 में संशोधन कर दिया गया तथा संविधान में एक नई अनुसूची (10वीं अनुसूची) शामिल की गई जिसमें दल-बदल के आधार पर निरर्हता के लिए कतिपय उपबंधों का वर्णन किया गया।
दसवीं अनुसूची के उपबंध
दसवीं अनुसूची में यह व्यवस्था दी गई है कि निम्न परिस्थितियों में संसद अथवा राज्य विधानमंडलों के सदस्य या सदस्यों की सदस्यता समाप्त हो जाएगी-
- यदि कोई सदस्य उस दल से, जिसकी टिकट पर वह निर्वाचित हुआ है, स्वेच्छा से त्याग-पत्र दे देता है अथवा सदन में पार्टी के व्हिप (सचेत कर देने के बावजूद) के विरुद्ध वोट देता है अथवा अपने दल की पूर्वानुमति के बिना मतदान के समय सदन में अनुपस्थित रहता है। ऐसे सदस्य को उपर्युक्त कार्रवाई से बचाया जा सकता है, यदि उसकी अनुचित गतिविधियों के लिए 15 दिन के भीतर संबद्ध दल उस सदस्य या सदस्य-समूह को माफ कर दे।
- यदि कोई निर्दलीय सदस्य चुनाव के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर ले।
- यदि कोई मनोनीत सदस्य, सदस्यता की शपथ लेने के छह महीने बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर लेता है, तो उसकी सदस्यता का अंत हो जाएगा।
- इस अनुसूची के उपबंधों को कार्यान्वित करने के लिए सदन के सभापति या अध्यक्ष को नियम बनाने की शक्ति प्रदान की गई है। नियम सदन के समक्ष रखे जाने अपेक्षित हैं और सदन द्वारा उनमें परिवर्तन किए जा सकते हैं।
- इसके अंतर्गत सदन के किसी सदस्य की निर्रहता के बारे में किसी प्रश्न के संबंध में सभी कार्यवाहियों के बारे में यह समझा जाएगा कि वे यथास्थिति, अनुच्छेद 122 के अर्थ में संसद की कार्यवाहियां हैं या अनुच्छेद 212 के अर्थ में राज्य के विधानमंडल की कार्यवाहियां हैं।
- संविधान में किसी बात के होते हुए भी, किसी न्यायालय की सदन के किसी सदस्य की निर्रहता से संबंधित किसी विषय के बारे में कोई अधिकारिता नहीं होगी।
गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने किहोटी होलीहान बनाम जाचिल्लहू विवाद में पाया कि दल-बदल निरोधक कानून के इस पैरे में वैधिक शैथिल्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायालयों की अधिकारिता का वर्जन करने वाले दसवीं अनुसूची के पैरा 7 का विखंडन कर दिया एवं घोषणा की कि दल-बदल रोक कानून के अधीन कार्य करते हुए अध्यक्ष एक अधिकरण की स्थिति में होता है और इसलिए उसके विनिश्चय सभी अधिकरणों की तरह न्यायिक पुनर्विलोकन के अंतर्गत हैं।
91वां संविघान संशोधन अधिनियम, 2003
इस संविधान संशोधन द्वारा एक राजनीतिक दल से दूसरे में दल-बदल कर जाने की प्रक्रिया पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके तहत् 1985 में निर्मित दल-बदल कानून के तीसरे परिच्छेद को हटा दिया गया है, जिसके अंतर्गत एक-तिहाई सदस्यों के साथ दल-बदल किया जा सकता था।
इस संविधान संशोधन में केंद्र या राज्य की मंत्रिपरिषद के आकार को निम्न सदन के सदस्यों की संख्या के पन्द्रह प्रतिशत करने की भी व्यवस्था की गई है। इसमें दल-बदल करने वाले सदस्यों को लाभ का राजनैतिक पद पाने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है। इस संविधान संशोधन में छोटे राज्यों- मिजोरम व सिक्किम आदि को कम से कम 12 मंत्रियों को नियुक्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है, भले ही यह संख्या निम्न सदन की सदस्य संख्या के पन्द्रह प्रतिशत से अधिक क्यों न ही।
सदस्यता समाप्ति का अपवाद
- यदि कोई विधानमंडल या संसद के किसी सदन में एक राजनीतिक दल के एक-तिहाई (⅓) या उससे अधिक सदस्य मूल दल से अलग होकर नए राजनीतिक दल का गठन कर लेते हैं।
- यदि दो या दो से अधिक दल अपनी कुल सदस्यता के दो-तिहाई बहुमत (⅔) से आपस में विलय का निर्णय ले लें।
- जब संसद, विधान सभा या राज्य सभा का कोई सदस्य अध् यक्ष, उपाध्यक्ष, सभापति, उप-सभापति के पद पर अपने चुनाव से पूर्व, दलीय निष्पक्षता की दृष्टि से अपने दल से त्याग-पत्र देता है। ध्यातव्य है कि, ऐसा सदस्य अपने पद से मुक्त होने के बाद फिर से अपने दल की सदस्यता प्राप्त कर सकता है और पद पर रहते हुए भी दल-हित में कार्य करने से उसे रोका नहीं जा सकता।
संविधान के 52वें संशोधन द्वारा जो व्यवस्था की गई है, उसके अनुसार दल-बदल के संदर्भ में सदस्यों की लापरवाही या नियमों के उल्लंघन की जांच का अधिकार संबद्ध सदन के अध्यक्ष या सभापति को ही है। इस अधिनियम में यह स्पष्ट वर्णित है कि सदस्यों के दल-बदल संबंधी मामलों में सदन के अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होगा और इस संदर्भ में न्यायालय द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। इस अधिनियम में यह भी व्यवस्था दी गई है कि इस अधिनियम के उपबंधों को कार्यान्वित करने के लिए सम्बद्ध सदन के अध्यक्ष को सदन की स्वीकृति से नियम और उप-नियम बनाने का अधिकार होगा।
दल-बदल को नियंत्रित करने के लिए निर्मित यह कानून सैद्धांतिक दृष्टिकोण से तो महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, परन्तु यथार्थ में इसके द्वारा दल-बदल को पूर्ण रूप से नहीं रोका जा सकता क्योंकि, इसमें यह भी उपबंध है कि किसी राजनीतिक दल के एक-तिहाई से अधिक सदस्य यदि पृथक् दल का निर्माण कर लें, तो उन पर किसी भी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती है और सदस्य का व्यवहार दोषपूर्ण है अथवा नहीं, इसका निर्णय संबद्ध सदन का अध्यक्ष ही कर सकता है।
दल-बदल को नियंत्रित करने के लिए जब से यह कानून बनाया है, तब से एक-तिहाई सदस्यों के साथ अनेक बार राजनीतिक दलों का विभाजन हो चुका है और अनेक नए दलों की स्थापना भी हो चुकी है। एक-तिहाई सदस्यता को ही आधार बनाकर चन्द्रशेखर और देवीलाल ने समाजवादी जनता दल का गठन किया तथा लालू प्रसाद यादव ने राष्ट्रीय जनता दल का। समय-समय पर इस आधार पर दल-बदल होते रहे हैं, परन्तु जब उत्तर प्रदेश में इसी आधार पर एक ही समय तीन बड़े राजनीतिक दलों का विभाजन हुआ और तीन नए दलों का गठन हुआ, तब राष्ट्रीय राजनीति में खलबली मच गई। नरेश अग्रवाल के नेतृत्व में 1997 में उत्तर प्रदेश विधान सभा में कांग्रेस विधायकों के एक-तिहाई से अधिक सदस्यों ने लोकतांत्रिक कांग्रेस का गठन किया, जबकि इसी विधानसभा में बहुजन समाज पार्टी के एक-तिहाई से थोड़े-से कम विधायकों ने अलग दल का गठन किया और जनता दल से भी एक अलग दल जनता दल (राजाराम) का गठन हुआ। इन तीनों नए दलों की स्थापना ने बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों के कण खड़े कर दिए, क्योंकि इन तीनों दलों का गठन भारतीय जनता पार्टी के समर्थन के लिए किया गया था, जो उस समय तक अछूत मानी जा रही थी। इस संदर्भ में जो घटना सर्वाधिक चौंकाने वाली थी, वह यह कि विधानसभाध्यक्ष कैलाशनाथ त्रिपाठी ने उन सभी बसपा विधायकों के मत की भी विश्वास मत के समय वैध करार दिया, जो मूल दल से एक-तिहाई से कम सदस्य लेकर अलग दल के रूप में खड़े हुए थे।
कानून की त्रुटियां
जहाँ तक दल-बदल को रोकने के लिए बने दल-बदल निरोधक कानून का सवाल है, तो इसे प्रसिद्ध राजनीतिवेत्ता डॉ. सुभाष कश्यप न तो कोई विधि मानते हैं और न ही अधिनियम। उनके अनुसार, इसे कानून की संज्ञा देना अशुद्ध और भ्रामक है। संविधान में जब पहली बार 1985 में 52वें संशोधन अधिनियम द्वारा दसवीं अनुसूची जोड़ी गयी, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि इसमें परिवर्तन की काफी संभावनाएं हैं। विशेषकर 10वीं अनुसूची के तीसरे और सातवें अनुच्छेद में जो दल-बदल संबंधी प्रावधान हैं, वे तर्कसंगत नहीं प्रतीत होते हैं। 10वीं अनुसूची के तीसरे अनुच्छेद में उपबंधित है कि एक-तिहाई सदस्यों द्वारा नए दल का गठन किया जा सकता है किन्तु, इस संख्या का कोई तार्किक आधार नहीं जान पड़ता। सुभाष कश्यप के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति सिद्धांतों, नीतियों और कार्यक्रमों के मामलों में मतभेद के कारण दल-बदल करता है, तो वह सही है या फिर गलत, इसका निर्धारण करना मुश्किल हो जाता है। यह नहीं हो सकता है की उसके साथ एक तिहाई के अंतर्गत आने वाले अन्य सदस्य भी वही कार्य करें, तभी वह सही है, वरना गलत। सुभाष कश्यप ने दल-बदल के इतिहास की दृष्टिगत करते हुए कहा है कि संविधान और कानून के द्वारा बन्धन लगाने से राजनीतिक दलों के स्वाभाविक विकास का क्रम और व्यवस्था का लचीलापन कुंठित हो जाता है। अतः, दलों के विभाजन के मापदंड को कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता।
दल-बदल से सम्बद्ध 10वीं अनुसूची का सातवां अनुच्छेद भी त्रुटिपूर्ण है। इसमें दल-बदल के मामलों में निर्णय देने का दायित्व संबद्ध सदन के अध्यक्ष को सौंपा गया है। यदि दल-बदल निरोधक कानून के दायरे में स्वयं सदन का अध्यक्ष आता है, तो सदन के द्वारा अधिकृत कोई अन्य व्यक्ति इस मामले में निर्णय करेगा, जिसे अंतिम माना जाएगा। दल-बदल के मामलों में सदन के पीठासीन अधिकारी को उलझाना उसके पद की गरिमा के विपरीत है। अधिकांश समय यह देखा गया है कि संबद्ध सदन के अध्यक्ष निष्पक्ष निर्णय ले पाने में असमर्थ रहे हैं।
फिर, 10वीं अनुसूची के अनुच्छेद 3 के आधार पर किसी दल के एक-तिहाई सदस्यों के अलग होने पर मूल दल के रूप में मान्यता प्रदान कर देना भी अवैध है, क्योंकि किसी भी दल की मान्यता के लिए कुछ आवश्यक शर्ते होती हैं, जिनका यहां पर ध्यान नहीं रखा जाता है। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि बहुत-से दल ऐसे होते हैं, जिनकी सदस्य-संख्या दहाई अंक में भी नहीं होती (दस से भी कम होती है)। यदि किसी दल में मात्र तीन सदस्य ही हैं, तो फिर दल-बदल कानून के प्रावधानों के अंतर्गत एक सदस्य मात्र ही नए दल का गठन कर सकता है, जो प्रावधान की हास्यास्पद बना देता है।
सुधारों की आवश्यकता
दल-बदल कानून की अस्पष्टता या उसके त्रुटिपूर्ण प्रावधानों के कारण भारत में दल-बदल की प्रक्रिया को अभी तक नियंत्रित नहीं किया जा सका है। इसलिए, इस संदर्भ में अपेक्षित सुधार की आवश्यकता है।
नए दल के निर्माण के लिए एक-तिहाई सदस्यों की अनिवार्यता के प्रावधान को संशोधित किया जाना चाहिए। दल-बदल के संदर्भ में यह व्यवस्था करनी होगी कि ऐसे सदस्यों को मंत्रिमण्डल या सरकारी विभागों में स्थान न दिया जाए। दल-विभाजन सम्बद्ध दल के स्तर पर हो, न कि विधायकों के स्तर पर। दल-बदल संबंधी मामलों पर निर्णय के लिए सदन के अध्यक्ष के बदले निर्वाचन आयोग या न्यायालयों के स्वतंत्र अभिकरण को अधिकार दिया जाना चाहिए। सदन के अध्यक्ष के इस अधिकार पर भी अंकुश लगाना आवश्यक है कि वह कभी भी किसी को दल से निकाल न सके (सामान्य परिस्थितियों में)। दल-बदल को रोकने के लिए संविधान में राजनीतिक दलों के पंजीकरण, दल-बदल की स्पष्ट शर्ते, विधि के अंतर्गत चुनाव (उनकी आमदनी और व्यय की जांच-पड़ताल की स्पष्ट व्याख्या) कराने की व्यवस्था करने सम्बन्धी प्रावधान करने आवश्यक हैं। इन सबसे बढ़कर दलीय व्यवस्था में आांतरिक लोकतंत्र स्थापित करना भी आवश्यक है।
वंशागत राजनीति: लोकतंत्र का विरोधाभास
दक्षिण एशिया में, राजनीति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशागत करिश्मा संसार के किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में अत्यधिक चरम स्तर पर होता है। भारत में कई राजनीतिक दल गांधी-नेहरू परिवार प्रतिमान की तर्ज पर वंशागत नेतृत्व के सिद्धांत का अनुसरण करते हैं। पाकिस्तान में भुट्टो परिवार ने वंशागत नेतृत्व को व्यापक अर्थों में दोहराया है। बेनजीर भुट्टो ने अपने पिता प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो, जिनकी हत्या कर दी गई थी, का स्थान लिया। स्वर्गीय बेनजीर भुट्टो का अपने बेटे को पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का उत्तराधिकारी नियुक्त करना वंशागत नेतृत्व का एक बड़ा उदाहरण है। बांग्लादेश में 1981 में राष्ट्रपति जिया-उर-रहमान की हत्या के पश्चात् उनकी पत्नी खालिदा जिया को बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का उत्तराधिकारी बनाया गया। खालिदा जिया न केवल देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनीं अपितु सबसे लम्बे समय तक देश की प्रधानमंत्री रहीं। दक्षिण एशिया में जिस प्रकार राजनीतिक दलों एवं उनके नेतृत्व का निर्माण हो रहा है उससे जाहिर है कि यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन है। राजनीतिक दल, दल के किसी शक्तिशाली व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करते, रहते हैं और उनके उत्तराधिकारी यह समझते हैं कि दल विशेष उनकी निजी संपत्ति है।
भारत में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा वंशानुगत नेतृत्व का अनुसरण करते हुए देखा जा सकता है। इंदिरा गांधी ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पुत्री होने के कारण राजनीतिक विरासत का अनुसरण किया। 1964 में अपने पिता की मृत्यु पश्चात् श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपना राजनीतिक कौशल दिखाया। उन्होंने न केवल कांग्रेस पार्टी पर नियंत्रण हासिल किया अपितु प्रधानमंत्री पद भी हासिल किया। वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात्, उनके कैम्ब्रिज शिक्षित पुत्र, राजीव गांधी ने पार्टी अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। वर्ष 1991 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के पश्चात् उनकी इटेलियन पत्नी सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष पद सौंपा गया, जिसे पहले तो उन्होंने अस्वीकार कर लिया लेकिन 1998 में इसे स्वीकार कर लिया। सोनिया गांधी, नेहरू-गांधी परिवार की तीसरी पीढ़ी एवं चौथी व्यक्ति हैं जिन्होंने राजनीतिक शक्ति एवं सत्ता प्राप्त की है। अत्यधिक रुचिकर है कि राजीव गांधी के पुत्र राहुल गांधी को 19 जनवरी, 2013 को कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। इससे पहले उन्हें सितम्बर 2007 में कांग्रेस पार्टी का महासचिव नियुक्त किया गया था। कांग्रेस पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता राहुल गांधी को पार्टी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर दिखा रहे हैं।
गौरतलब है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों में भी यही स्थिति है। वर्ष 2007 में, द्रविड़ मुनेत्र कषगम दल में करुणानिधि के उत्तराधिकारी को लेकर संघर्ष तीव्र हो गया जब उनके दो बेटे स्टालिन एवं अझगिरि आमने-सामने आ गए। नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने इशारा किया कि आगामी पार्टी अध्यक्ष उनका भतीजा अजित नहीं बल्कि उनकी बेटी राज्य सभा सदस्य सुप्रिया सुले होगी। यही हाल शिव सेना पार्टी का है जिसमें पार्टी अध्यक्ष बाल ठाकरे का उत्तराधिकार बेटा बनाम भतीजा (उद्धव ठाकरे बनाम राज ठाकरे) को लेकर संघर्ष की स्थिति थी। अंततः उद्धव ठाकरे पार्टी अध्यक्ष बने। इसी प्रकार उद्धव ठाकरे के बेटे भी राजनीति में सक्रिय हो गए हैं।
वर्ष 1997 में ओडीशा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक की मृत्यु के पश्चात्, उनके गैर-राजनीतिक बेटे नवीन पटनायक ने संयुक्त राज्य अमेरिका से लौटकर ओडीशा में अपने पिता के निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा। नवीन पटनायक, बीजू जनता दल के अध्यक्ष बने एवं राज्य का मुख्यमंत्री पद हासिल किया। नवीन पटनायक का इस तरह राजनीति में आना क्या राजनीतिक वंशागत नेतृत्व नहीं है?
प्रोफेसर नीरजा गोयल जयाल ने इण्डियन एक्सप्रेस में अपने लेख में कहा कि, गणतंत्र के अंतर्गत, लोक सेवा में पदार्पण करना त्याग से संबंधित है न कि वंशागत लाभ लेने से। राजनीति एवं लोक सेवा भी अन्य व्यवसायों, जैसे-कानून, चिकित्सा, एवं, फिल्म उद्योग की तरह हो गया है जहाँ आमतौर पर बच्चों द्वारा अपने माता-पिता के व्यवसाय को अपनाया जाता है।
यह फेहरिस्त दिनोंदिन लंबी होती जा रही है।
हमारे देश में राजनीतिक नेतृत्व, राजनीतिक वंशवाद को संस्थागत करता प्रतीत हो रहा है। राजनीतिक नेता एवं दल अपने ही अंदर एक वंशवाद के वृक्ष को मजबूत करा रहे हैं। अच्छा नहीं होगा की प्रत्येक आमजन अपनी काबिलियत एवं सेवा-भाव के बल पर प्रतिनिधित्व हासिल करे बनिस्पत् इसके कि विशिष्ट जन अपनी राजनीतिक विरासत के बलबूते इसे अपनी बपौती समझे।
वस्तुतः राजनीति में वंशागत नेतृत्व लोकतांत्रिक भावना की छिन्न-भिन्न करता है। वंशवाद के विस्तार से लोकतांत्रिक व्यवस्था का कल्याणकारी स्वरूप, सर्वाधिकारी स्वरूप अख्तियार कर सकता है। अतः लोकतंत्र की रक्षा एवं विस्तार हेतु इस पर सोचे जाने एवं राष्ट्रीय बहस की आवश्यकता है ताकि इसके नियंत्रण के उपाय सामने आ सकें।
दलीय राजनीति एवं लोकतांत्रिक भावना
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अन्य बातों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों से एक महत्वपूर्ण अपेक्षा होती है कि, वे जनता को लोकतांत्रिक मूल्यों एवं भावनाओं से अवगत कराएं; विशेषतः भारत जैसे देश में, जहां विकासशील अथवा अल्प-विकसित अवस्था में ही नागरिकों को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का भाग्य-विधाता बना दिया गया हो। यहां अशिक्षित, भूखी-नंगी जनता को एक सपाट व्यस्क मताधिकार के अंतर्गत एक उत्तरदायी विधायिका एवं उसके द्वारा एक कल्याणकारी कार्यपालिका के गठन का अधिकार सौंप दिया गया। एक ओर जहां भेदभावरहित पूर्ण लोकतांत्रिक अधिकारों के समान वितरण का स्वागत किया गया, वहीं यह आशंका भी व्यक्त की गई कि निरक्षर-अशिक्षित बहुल भारत में सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो पाएगी, क्योंकि निरक्षर लोग योग्य एवं अयोग्य प्रतिनिधियों में अंतर कर पाने में असमर्थ होंगे। ऐसे में यह आशा की गई कि विभिन्न राजनीतिक दल निरक्षर जनता को लोकतांत्रिक मूल्यों की दीक्षा देंगे।
भारत में अब तक 15 बार लोकसभा का गठन हो चुका है, राज्यों में कई बार विधानसभाएं गठित हुई, किंतु दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों में ऐसी लोकतांत्रिक भावना हमें अब तक नजर नहीं आई। इसके विपरीत राजनीतिक दलों ने अपने आपको मात्र सत्ता प्राप्त करने तक ही सीमित रखा है और वे जनता की राजनीतिक दृष्टि से शिक्षित करने के स्थान पर उसे मूर्ख बनाने में ही रुचि लेते रहे। राजनीतिक दलों ने भारत की निर्धन जनता के समक्ष भी सदैव वोट लेने की ही मंशा का प्रदर्शन किया है, जैसे- हमें वोट दी, उसे वोट मत दो।
भारत का संविधान नागरिकों को समुदाय अथवा संघ बनाने की स्वतंत्रता देता है और इसी आधार पर राजनीतिक दलों का गठन भी संवैधानिक अधिकार है- यहां तक कि हमारा संविधान जाति एवं धर्म के आधार पर भी समुदाय अथवा संघ के गठन से नागरिकों को निवारित नहीं करता। स्पष्ट है कि, राजनीतिक दलों का गठन भी इन आधारों पर हो सकता है और इस आधार पर वोट भी मांगे जा सकते हैं। भारत एक बहुदलीय व्यवस्था वाला देश है। परन्तु, भारत में बहुदलीयता अतिदलीयता की हद को भी पार कर चुकी है, जो हमारे हित साधनों के स्थान पर प्रशासनिक परेशानियों एवं राजनीतिक संघर्षों को ही जन्म देती है। संवैधानिक अधिकारों के दुरुपयोग का इससे बड़ा उदाहरण और कुछ नहीं हो सकता।
किसी भी राजनीतिक दल का गठन कुछ सिद्धांतों के आधार पर होता है। उसके कुछ लक्ष्य होते हैं, नीतियां होती हैं और अपने इन सिद्धांतों, लक्ष्यों एवं नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए वह सत्ता पर नियंत्रण करने का पूर्ण प्रयत्न करता है। अर्थात् सत्ता एक साधन होती है साध्य तक पहुंचने के लिए, परन्तु दुर्भाग्यवश आज साधन ही साध्य बन गया है- समस्त सिद्धांत, लक्ष्य एवं नीतियां केवल सत्तासीन होने के लिए ही बनते-बिगड़ते दिखाई देते हैं। 1996 के साधारण निर्वाचनों के पश्चात् के राजनीतिक गठजोड़ इस बात के स्पष्ट प्रमाण है। इससे पूर्व भी राजनीतिक गठजोड़ हुए थे, पर उतने निर्लज्जतापूर्ण नहीं, जितने आज के हैं। 1977 के चुनावों में अथवा 1989 के चुनावों में चुनाव-पूर्व राजनीतिक गठजोड़ हुए थे। किंतु, 1996 के चुनावों में सारी राजनीतिक मर्यादाएं ही नीलाम कर दी गई- जो राजनीतिक दल चुनाव के दौरान एक-दूसरे को नीचा साबित करने को ही मुद्दा बनाकर प्रचार कर रहे थे- चुनावों के बाद सरकार बनाने के लिए वे सारे विरोधी दल एक-दूसरे से नख से लेकर शिखर तक मिला रहे थे। इस संपूर्ण प्रकरण में सबसे शर्मनाक पक्ष यह है कि, सत्ता प्राप्त करने की अंधी दौड़ में शामिल कुछ राजनीतिक दलों द्वारा भारतीय लोकतंत्र के प्रतीकात्मक संप्रभु राष्ट्रपति एवं वास्तविक संप्रभु जनता का अपमान किया जा रहा है। त्रिशंकु संसद में सरकार बनाने के अपने संवैधानिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत अपने विवेकाधीन अधिकार एवं सनादीय परंपरा के आधार पर महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सबसे बड़े राजनीतिक दल की सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। प्रायः कुछ राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रपति के इस निर्णय की आलोचना संवैधानिक मर्यादाओं से बाहर जाकर और भद्दे रूप में की जाती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनादेश का सम्मान करना प्रत्येक राजनीतिक दल का कर्तव्य होता है। किंतु, हार से बौखलाए राजनीतिक दल जनता को भी गाली देने से बाज नहीं आते और वह भी धर्म एवं जाति के नाम पर। कुछ इसे जनता का गवांरूपन कहते हैं तो कोई इसके बहकावे में आ जाने का परिणाम बताता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन दोनों ही स्थितियों के लिए ये राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं।
एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, क्या सारे लोकतांत्रिक मूल्यों को समझने और उनका पालन करने का दायित्व जनता पर ही है? बार-बार कहा जाता है कि जनता योग्य उम्मीदवार का चयन करे, अपराधियों को मत न दे, जाति एवं धर्म के आधार पर मतदान न करे, प्रलोभन, भय अथवा दबाव में न जाए, आदि-आदि। क्या आज ऐसा कोई राजनीतिक दल है, जो योग्यतावाद का समर्थन करता हो? और यदि ऐसा करता भी है तो योग्यता की अपनी परिभाषा के आधार पर। क्या ऐसा कोई राजनीतिक दल है, जो अपराधियों की टिकट न देता हो अथवा जीतने के लिए अपराधियों से साठ-गांठ न करता हो? क्या ऐसा कोई राजनीतिक दल है, जो एक भी टिकट जातीय अथवा धार्मिक समीकरण का ध्यान दिए बिना प्रत्याशी की योग्यता के आधार पर देता ही? एक प्रकार से देश का प्रत्येक संसदीय अथवा विधानमण्डलीय क्षेत्र अघोषित रूप से सुरक्षित क्षेत्र हो गया है। किसी क्षेत्र विशेष में किसी धर्म या जाति विशेष के मतदाता सर्वाधिक हैं, इसलिए उसी जाति अथवा धर्म के व्यक्ति की उम्मीदवार बनाना है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह तथ्य जितना शर्मनाक है, उतना ही खतरनाक भी। इसके पश्चात् रही बात प्रलोभन, भय अथवा दबाव में आने की, तो ऐसा कौन-सा राजनीतिक दल है, जिसने इसका सहारा नहीं लिया है? अर्थशास्त्र का कौन-सा नियम आज की तारीख में दो रुपए चावल को विवेकसम्मत बता सकता है? निश्चित रूप से यह घिनौनी राजनीति का वीभत्स खेल है-जनता को सदैव निकम्मा एवं बेवकूफ बनाए रखने का। भय और दबाव भी किसी एक राजनीतिक दल का हथकण्डा नहीं, प्रत्येक राजनीतिक दल अपने सामर्थ्य एवं स्तर से इन हथकण्डों के प्रयोग से चूकना नहीं चाहता। जिस देश की जनता दो जून की रोटी नहीं जुटा पाती, उस देश की जनता से प्रलोभन में न आ पाने की अपेक्षा बेमानी है। जिस देश में मंत्री से लेकर होम गार्ड का जवान तक नागरिकों की इज्जत एवं जान की कीमत कुछ भी न समझता हो, उस देश की जनता से भय अथवा दबाव में न आने की अपेक्षा करना बेमानी है।
इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न 1999 में उस समय सामने आया जब 17 अप्रैल, 1999 की कांग्रेस, वाम मोर्चा, क्षेत्रीय एवं जातिवादी दलों की एकजुटता के कारण वाजपेयी सरकार ने मात्र एक वोट से विश्वास मत खोया। स्वार्थ के दलदल में आकण्ठ धंसे इन राजनीतिक दलों की एक बार भी यह ध्यान नहीं आया कि भारत जैसे निर्धन देश में साल-दर-साल चुनाव कितने हानिकारक और खर्चीले हैं। जिस देश की लगभग आधी जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे जीवन-यापन के लिए अभिशप्त हो, जहां 33 करोड़ निरक्षरों की विशाल फौज विद्यमान हो और जहां अधिकांश लोगों को स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी आधारभूत सुविधाएं भी उपलब्ध न हो, उस देश की जनता आखिरकार कैसे चुनावों की आकांक्षी होगी? आज अचानक ऐसा क्या हो गया है कि जनता चुनाव चाहने लगी? इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रश्न यह भी उठता है कि, उनके पास ऐसा कौन-सा उपादान है, जिसके माध्यम से वे यह जान जाते हैं कि जनता चुनाव चाहती है अथवा नहीं? वस्तुतः जनता तो एक बहाना है। जिस भी दल को ऐसा अनुभव होता है कि यदि चुनाव हुए तो उसे कोई राजनितिक लाभ नहीं मिलेगा, वह दल कहना शुरू कर देता है कि जनता चुनाव नहीं चाहती और जिन दलों को चुनावी सफलता की सम्भावना दिखाई देती है, वे जनता का हवाला देकर चुनाव कराए जाने की वकालत करते हैं। जनता की इच्छा अथवा अनिच्छा से वस्तुतः उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। क्या जनता की इच्छा से वे गैर-जिम्मेदाराना आचरण करते हैं? स्पष्ट है कि इन समस्त प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक ही होगा। सच तो यह है कि चाहे सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष- कोई भी अपने नीतिगत निर्णयों में जनता की इच्छा अथवा अनिच्छा की परवाह नहीं करता। राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं के लिए जनता की अहमियत वोट बैंक से अधिक कुछ नहीं है। अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उन्होंने चुनावों को बेमानी बना ही दिया है और इसके साथ ही उन्होंने लोकतंत्र की भी बेमानी बना दिया है। लोकतंत्र अराजकता नहीं अपितु एक व्यवस्था है, जीवन पद्धति है। दुर्भाग्य केवल यही है कि अपने आचरण एवं सोच से हमारे राजनेता उसे अराजकता में परिवर्तित कर रहे हैं।
वर्तमान चुनावी परिदृश्य
चुनाव सुधार को एक व्यापक दृष्टिकोण के तहत समझना चाहिए। इसके अंतर्गत वह सभी उपाय शामिल होने चाहिए जो कि चुनाव प्रक्रिया की जवाबदेही की व्यक्ति की इच्छा एवं आशाओं के संदर्भ में परखा जा सके। अर्थात यह चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता, पारदर्शिता सटीकता एवं प्रतिष्ठा को स्थापित करें। जिससे देश की एकता एवं अखण्डता एवं विकास की जड़ें मजबूत हो सकें।
चुनाव सुधार के तहत कानून सुधार, प्रशासकीय सुधार,राजनीतिक सुधार एवं तकनीकी सुधार जैसे समस्त पहलुओं पर काम करना होगा।
वर्तमान भारत में सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था ही दोषपूर्ण हो गई है और कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जिसमें निर्दोषता सिद्ध की जा सके। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के शुरू के वर्षों में नेता मतदाताओं से मत मांगते थे, परन्तु हाल के वर्षों में नेताओं को मतदाताओं से कोई मतलब नहीं रह गया है। उन्हें अपनी कार्यवधि में मतदाताओं की कोई सुध नहीं रहती है, पर निर्वाचन की घोषणा होते ही वे अपने-अपने क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं और मत पाने की हर संभावनाओं का पता लगाने लगते हैं। मत की खरीदने से लेकर छीनने तक के सभी उपायों पर विचार करते हैं तथा उनके लिए जो सुविधाजनक होता है, उसे अपनाते हैं। वे मत प्राप्ति के लिए धन की नदी तो बहाते ही हैं, खून की नदी बहाने से भी नहीं चूकते हैं। उनके सामने केवल जीत का लक्ष्य रहता है- देश, समाज या मानवता उन्हें दूर-दूर तक नजर नहीं आती है। यदि किसी कारणवश ऐसे नेता चुनाव जीत नहीं पाते हैं, तो चुनाव के बाद भी हिंसा करवाने में हिचकते नहीं हैं। नेताओं की इस दुर्भावना ने संपूर्ण देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न कर दी है और लोकतंत्र मजाक-सा बन गया है।
हाल के वर्षों में भारतीय राजनीति में जो एक तथ्य तेजी से उभरा है, वह है- धार्मिक और जातीय भेदभाव। राजनेताओं ने वोट की राजनीति वर्गों में बंट गई है। वे धर्म के आधार पर तो बंटे ही हैं, जाति के आधार पर भी उनमें ऐसी विषाक्त भावना आ गई है कि वे एक-दूसरे को मारने पर उतारू हो जाते हैं। आज के राजनेताओं ने भारत में अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की कुटिल नीति की राजनीति में अक्षरशः समाविष्ट कर दिया है। आज वे जनता को कभी भाषा के आधार पर, तो कभी धर्म के आधार पर, कभी क्षेत्र के आधार पर, तो कभी जाति के आधार पर बांटते हैं।
आजकल भारतीय राजनीति में जो एक और प्रमुख तत्व हावी हो रहा है, वह है भाई-भतीजावाद। प्रत्येक राजनेता अपने परिवार के सदस्यों को बढ़ाने के क्रम में देश के विकास और जनता के हित की बात ताक पर रख देते हैं। जो पुराने राजनीतिज्ञ होते हैं, वे अपने दबदबे के कारण अपने परिवार के अयोग्य सदस्यों को भी निर्वाचित कराने में सफल होते हैं। हमारे देश के नागरिक अशिक्षित होने के कारण भावना में बहुत जल्दी बह जाते हैं। अपनी भावनात्मक कमजोरी के कारण वे अपने योग्य प्रतिनिधि का चयन करने में अक्षम होते हैं। जब हमारे देश में राजनेताओं की धर्म और जाति के विभाजन से भी क्षुधा नहीं मिटी, तब उन्होंने वर्ग-विभाजन की उभारने की कोशिश की। उन्होंने आरक्षण रूपी रोटी का टुकड़ा फेंककर जहां एक ओर स्वामिभक्त मतदाता-वर्गस्थापित करने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर सम्पूर्ण देश को उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में विभाजित कर दिया। यही नेता जब देश में एकता और अखंडता कायम रखने की कसम खाते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि देश एवं जनता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। निर्वाचन-प्रणाली और राजनीति में आयी इन विसंगतियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए सरकार द्वारा हमेशा आश्वासन दिया जाता है और संसद द्वारा कानून बनाए जाने की बात की जाती है। परन्तु, इन नए कानूनों के निर्माण से किसी प्रकार का लाभ नहीं होने वाला है, क्योंकि पुराने कानूनों का क्रियान्वयन तो हो ही नहीं रहा है।
चुनाव सुधार के लिए गठित विभिन्न समितियां एवं उनकी सिफारिशेंतारकुण्डे समिति
दिनेश गोस्वामी समिति दिनेश गोस्वामी समिति द्वारा मई 1990 में प्रस्तुत की गई सिफारिशें इस प्रकार थीं-
इंद्रजीत गुप्त समिति चुनावी व्यय के संबंध में गठित इंद्रजीत गुप्त समिति द्वारा भी वर्ष 2000 में काफी महत्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत की गयी जो संक्षेप में इस प्रकार हैं-
के. संथानम् समिति
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भारत में संसदीय परम्परा संविधान की भावना के अनुरूप नहीं चल रही है। यहां संविधान की उपेक्षा किसी-न-किसी तरह से हमेशा होती रही है। जिन-जिन रूपों में संविधान की उपेक्षा होती है, उन्हें वर्णित करना अपेक्षित नहीं है, परन्तु यह तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि निर्वाचन के समय ही संविधान की सर्वाधिक उपेक्षा होती है। पिछले वर्षों में कई प्रमुख घोटाले उजागर हुए हैं और उन घोटालों में देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेता संलिप्त हैं। ये घोटाले राजनेताओं की संकुचित मानसिकता को दर्शाते हैं। वे चुनावों के समय रुपयों की जो नदी बहाते हैं, उसका उद्गम स्रोत ये घोटाले ही तो हैं। नेताओं के लिए राजनीति देश हित साधने की अपेक्षा स्वहित साधने का एक माध्यम बन गई है, यह इन घोटालों से बिल्कुल स्पष्ट है।
हमारे यहां जो निर्वाचन प्रक्रिया अपनायी गयी है, उसमें उम्मीदवारों की जीत-हार के लिए जिस तरीके का सहारा लिया गया है, वह दोषपूर्ण है। यहां मतगणना के समय अधिकतम मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित कर दिया जाता है, भले ही उसे अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वी से एक मत ही अधिक क्यों न प्राप्त हो। भारत में कोई उम्मीदवार यदि कुल मतदान का 5 प्रतिशत मत भी प्राप्त करता है, तो भी वह जीतने की उम्मीद रख सकता है क्योंकि, यहां इतने ज्यादा राजनीतिक दल स्थापित हो गए हैं कि एक ही निर्वाचन क्षेत्र से 50 से भी अधिक उम्मीदवार चुनावी मैदान में रहते हैं। ऐसे में मतों का विभाजन विभिन्न उम्मीदवारों में हो जाता है और उम्मीदवारों के बीच मतों का ज्यादा अंतर नहीं रह पाता है। बहुत-से लोकतांत्रिक देशों में निर्वाचन के दौरान विजयी उम्मीदवार होने के लिए मतों की एक निश्चित सीमा निर्धारित कर दी गयी है। भारत में सरकार के गठन के समय भी सभी राजनीतिक दलों को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता। यदि किसी दल ने दूसरे दल से एकमात्र अधिक सीट जीत ली, तो वह सत्ताधारी दल बन जाएगा और एक सीट कम पाने वाला दल विपक्ष की भूमिका निभाएगा। क्या यह लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप है?
हमारे देश में जो निर्वाचन प्रणाली अपनाई गई है, उसमें निश्चित तौर पर विसंगतियां हैं। उन विसंगतियों या त्रुटियों की आलोचना राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमेशा होती रही है। निर्वाचन प्रणाली से इन विसंगतियों को दूर करने के लिए समय-समय पर विभिन्न आयोगों और समितियों का गठन होता रहा है। इन आयोगों और समितियों ने अलग-अलग प्रतिवेदन भी प्रस्तुत किए हैं, परन्तु उन प्रतिवेदनों की सिफारिशों पर किसी-न-किसी कारण से अमल नहीं किया जा सका है। विभिन्न समितियों ने समय-समय पर जो प्रतिवेदन दिए हैं, उनका सार है- निर्वाचन के दौरान सरकार और राजनीतिक दलों (उम्मीदवारों) की ओर से होने वाले खर्च में कमी लाना, काले धन के उपयोग पर रोक लगाना, राजनीति का अपराधीकरण तथा अपराध का राजनीतिकरण न होने देना, निर्वाचन के दौरान निष्पक्ष कुशल प्रशासन की व्यवस्था करना मतदान के दौरान या मतगणना के दौरान या सम्पूर्ण-प्रक्रिया के दौरान कानून और व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले को दण्डित करना आदि।
चुनाव सुधार
निष्पक्ष चुनाव कराना वस्तुतः एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। सावधानीपूर्वक इसका आयोजन करने के बावजूद चुनाव पूर्व एवं पश्चात् इसमें गड़बड़ी होने के आरोप लगते रहे हैं, इसलिए समय-समय पर चुनाव सुधारों की आवश्यकता पड़ती रहती है। चुनाव सुधारों को साकार करने हेतु चुनाव सुधार समिति गठित की जाती रही है। चुनाव सुधार के प्रश्न पर विचार एवं अध्ययन करने हेतु 1980 के दशक में महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश एवं प्रसिद्ध तात्विक मानववादी (Radical Humanist) वी.एम. तारकुण्डे की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। यह समिति सरकार द्वारा गठित न होकर एक सिटिजन्स फॉर डेमोक्रेसी नामक संगठन की ओर से जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित की गई थी। इसने सिफारिश की कि मताधिकार की आयु सीमा 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष की जाए; सभी राजनीतिक दलों के लिए आय के स्रोतों का उल्लेख तथा आय-व्यय का पूर्ण दलों द्वारा प्रत्याशियों पर किया जाने वाला व्यय प्रत्याशियों के हिसाब में जोड़ा जाए; प्रत्येक प्रत्याशी की सरकार की ओर से मतदान कार्ड निःशुल्क प्रदान किए जाएं और मतदाता के नाम का कार्ड बिना टिकट लगाए डाक से भेजने की छूट दी जाए; चुनावों के दौरान मंत्रिमण्डल के सदस्य सरकारी खर्च पर यात्रा न करें, सरकारी वाहन एवं विमानों का प्रयोग न करें, उनकी सभाओं हेतु सरकारी मंच न बनाए जाएं और न ही उनके दौरों के समय सरकारी कर्मचारी ही नियुक्त किए जाएं, राज्यों में निर्वाचन आयोग स्थापित किए जाएं, संघीय निर्वाचन आयोग बहु-सदस्यीय हो तथा उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा केवल प्रधानमंत्री के परामर्श से नहीं, अपितु एक तीन सदस्यीय समिति की सिफारिश पर की जाए। प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा लोक सभा में विपक्ष का नेता अथवा उसका प्रतिनिधि इस तीन सदस्यीय समिति के सदस्य हो; तारकुण्डे समिति द्वारा प्रस्तुत उल्लिखित सिफारिशों में से अधिकांश सिफारिशें सरकार द्वारा मान ली गई, जैसे- मताधिकार की आयु 18 वर्ष करना, राज्यों में निर्वाचन आयोगों की स्थापना करना, संघीय निर्वाचन आयोग को बहु-सदस्यीय बनाना, इत्यादि।
1981 में चुनाव आयुक्त श्यामलाल शकधर ने सर्वप्रथम मतदाताओं को परिचय पत्र देने की सिफारिश की थी।
वर्ष 1990 में विधि मंत्री दिनेश गोस्वामी को चुनाव सुधार संबंधी सुझाव देने को कहा गया। दिनेश गोस्वामी समिति ने सिफारिश की कि कब्जा किए गए मतदान केन्द्रों पर पुनर्मतदान कराया जाए; सीटों के आरक्षण हेतु चक्रानुक्रम पद्धति अपनाई जाए; मतदान इलैक्ट्रॉनिक मशीनों द्वारा कराया जाए; मतदाताओं को परिचय पत्र उपलब्ध कराया जाए।
के. संथानम समिति ने भी इस दिशा में कुछ सुझाव दिए जैसे- चुनाव में भाग लेने वालों की न्यूनतम शैक्षिक अर्हता निर्धारित की जाए; समय-समय पर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाए; निर्वाचक नामावलियों को हमेशा अद्यतन करने की व्यवस्था होनी चाहिए।
इस दिशा में वर्ष 1992 में त्त्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने सुझाव दिया कि चुनाव प्रचार की अवधि 14 दिन की जाए; राजनीतिक दलों के आय-व्यय का लेखा संपरीक्षण निर्वाचन आयोग द्वारा कराया जाए; आचार संहिता का पालन न करने वाले प्रत्याशियों की 5 वर्ष के लिए अयोग्य घोषित किया जाए आदि।
22 मई, 1998 को सर्वदलीय सम्मेलन की सिफारिश पर कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ सांसद श्री इंद्रजीत गुप्त की अध्यक्षता में समिति गठित की गई जिसने कहा कि राजनीतिक दलों को चुनाव में व्यय की जाने वाली राशि सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जानी चाहिए; चुनाव खचों के लिए सार्वजनिक कोष की स्थापना होनी चाहिए जिसमें प्रति वर्ष केंद्र एवं राज्यों को 600-600 करोड़ रुपए का योगदान देना चाहिए।
संविधान के 61वें संशोधन अधिनियम, 1988 द्वारा अनुच्छेद-326 में संशोधन करके मतदान करने की 21 वर्ष की न्यूनतम आयु सीमा घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है। इसे 28 मार्च, 1989 से लागू कर दिया गया है। परिणामतः जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और 1951 को भी संशोधित कर दिया गया है। इसके फलस्वरूप अब वयस्क मताधिकार की सीमा 18 वर्ष हो गई है।
राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति निर्वाचन (संशोधन) अध्यादेश, 1997 ने 10 के स्थान पर 50 कर दी। उपराष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावकों एवं द्वितीयकों के तौर पर निर्वाचकों की संख्या की प्रत्येक पांच से बढ़ाकर 20 कर दिया गया। राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने की जमानत राशि को 2,500 से बढ़ाकर 15,000 कर दिया गया।
कुछ वर्गों के व्यक्तियों के लिए पोस्टल बैलट द्वारा मतदान करने के प्रावधान करने के लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में एक नई उपधारा (c) जोड़ने के लिए धारा 60 में संशोधन हेतु एक अध्यादेश लाया गया।
जन-प्रतिनिधित्व कानून 1951 में, 1989 में संशोधन कर धारा 6Iए जोड़ी गई है जिससे मतदान में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग किया जा सकें। इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) सर्वप्रथम 1998 में राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं दिल्ली के चुनावों में प्रयोग की गई एवं इसके उत्साहजनक परिणाम के फलस्वरूप वर्ष 1999 में गोवा विधानसभा चुनाव में पूर्ण रूप से ई.वी.एम. का प्रयोग किया गया।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में 1989 के एक्ट द्वारा धारा 58ए जोड़ी गयी है जिसमें प्रावधान किया गया है कि बूथ कैप्चरिंग के कारण मतदान की स्थगित किया जा सकता है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 135ए में बूथ कैप्चरिंग को परिभाषित किया गया है। बूथ कैप्चरिंग में अन्य बातें शामिल होती हैं-
- किसी व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा मतदान के लिए निर्धारित केंद्र या स्थान पर कब्जा करना, मतदान केंद्र पर प्राधिकारियों को मतपत्र या ईवीएम सौंपने को कहना या अन्य गतिविधि जिससे निर्वाचन के सुव्यवस्थित तरीके से संचालन में बाधा उत्पन्न होती हो;
- मतदान करने की अनुमति देना और बाकी लोगों को मतदान करने से रोकना;
- किसी मतदाता की धमकी देना और उसे मतदान केंद्र तक जाने से रोकना।
बूथ कैप्चरिंग के कारण, मतदान केंद्र का परिणाम माना नहीं जा सकता, और रिटनिंग अधिकारी इसकी सूचना चुनाव आयोग को देगा। इस रिपोर्ट पर चुनाव आयोग या तो इस मतदान केंद्र पर हुए मतदान को शून्य घोषित कर सकता है और पुनर्मतदान की नई तिथि निर्धारित कर सकता है या उस निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव को रद्द कर सकता है।
धारा 135ए बूथ कैप्चरिंग के लिए दंड प्रदान करती है जिसमें छह माह से कम कारावास नहीं होगा और जिसे जुर्माने सहित 2 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने चुनाव आचार संहिता 1961 में संशोधन करते हुए चुनाव खर्च की सीमा में वृद्धि को 28 फरवरी 2014 को मंजूरी प्रदान की। इस संशोधन के तहत कुछ क्षेत्रों को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा खर्च की जाने वाली राशि की सीमा 40 लाख से बढ़ाकर 70 लाख रुपर कर दी गई।
अरुणाचल प्रदेश, गोवा, सिक्किम, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ, दादर और नागर हवेली, दमन और दीव, लक्षद्वीप तथा पुडुचेरी में खर्च की सीमा की 54 लाख रुपए रखा गया।
चुनाव खर्च की सीमा में यह बदलाव मतदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी, मतदान केन्द्रों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ मुद्रास्फीति की दर बढ़ने के कारण की गई।
इसी के साथ अब कुछ क्षेत्रों को छोड़कर राज्य विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार 28 लाख रुपए तक का खर्च कर सकेंगे। अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा और पुडुचेरी में यह सीमा 20 लाख रुपए निर्धारित की गई है।
इससे पूर्व लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के चुनाव में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए खर्च सीमा क्रमशः 40 लाख तथा 16 लाख थी।
एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन भी चुनाव आयोग ने चुनाव करवाने में किया है कि निष्पक्ष एवं शांतिपूर्ण मतदान के लिए आरक्षियों एवं सेना की अधिक आवश्यकता के मद्देनजर सारे चुनाव एक ही तिथि को करवाने की परम्परा खत्म कर दी है और मतगणना की पारम्परिक विधि में भी व्यापक फेरबदल किए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के अनुसार यदि किसी स्थान पर दो से अधिक उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा है और निर्वाचित उम्मीदवार अयोग्य करार दिया जाता है तो दूसरे स्थान पर रहे प्रत्याशी को विजयी घोषित करने के स्थान पर फिर से चुनाव कराए जाएं।
राजनीतिक दलों द्वारा चंदा लेने की प्रक्रिया एवं चुनावी प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने हेतु संसद द्वारा निर्वाचन एवं अन्य संबंधित कानून संशोधन अधिनियम 2003 बनाया गया है।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (तीसरा संशोधनं), 2002 जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का संशोधन करता है, जिसमें प्रावधान किया गया कि-
- मतदाताओं को सूचित करने के लिए, संसद या राज्य विधानमण्डल का चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को यह उद्घाटित करना होगा कि क्या उसे किसी दो वर्ष या अधिक की सजा वाले अपराध में अभियुक्त ठहराया गया है और जिसमें न्यायालय ने चार्ज तैयार किए हैं या उसे ऐसे अपराध का दोषी सिद्ध किया गया है जिसमें सजा एक या अधिक वर्ष है।
- संसद के सदन के लिए प्रत्येक चयनित उम्मीदवार को उस सदन से सम्बद्ध प्रीसाइडिंग ऑफीसर के सामने अपनी संपत्ति एवं देनदारियों की घोषणा करनी होगी। ऐसी घोषणा में उसकी पत्नी एवं उसके आश्रित बच्चों की संपत्ति का ब्यौरा भी प्रदान कराया जाएगा।
- चुनाव लड़ने वाला उम्मीदवार झूठे शपथपत्र या किसी आवश्यक सूचना को छुपाने के लिए दंड के परिणामों के लिए जिम्मेदार होगा। रिटर्निंग अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत अपने नामांकन पत्र में दी गई एवं छुपाई गई सूचना के लिए भी वह समान परिणामों के लिए भागीदार होगा।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (संशोधन), 2003 द्वारा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 में संशोधन किया गया जिसमें शामिल किया गया कि या तो केवल जुर्माना होगा और 6 वर्ष के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया जाएगा या सजा की तिथि से कारावास का समय और जेल से छूटने के 6 वर्ष बाद तक चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने 10 जुलाई, 2013 को निर्णय दिया कि अपराध के दोष के लिए चार्जशीटिड सांसद एवं विधायक की तुरंत सदन की सदस्यता से अपील के लिए 3 महीने का समय दिए बिना (जैसी पहले स्थिति थी) अनर्हित कर दिया जाएगा। न्यायाधीश ए.के. पटनायक और एस.जे. मुखोपाध्याय की पीठ ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) की असंवैधानिक घोषित किया जो दोषी नीति निर्माताओं को उच्च न्यालय में अपील के लिए तीन माह का समय देती है और अपराध एवं सजा पर रोक का प्रावधान मुहैया कराती है।
मार्च 2003 में, सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियमः (संशोधन), 2002 की धारा 33बी को अप्रभावी एवं शून्य घोषित कर दिया। धारा 33बी में अभिकथित था कि उम्मीदवार अधिनियम में जरूरी होने के अतिरिक्त किसी सूचना का खुलासा करने की बाध्य नहीं होगा। इसने सूचना के संप्रेषण की भारी मात्रा में बाधित किया जो भविष्य की आवश्यकताओं से असंगत था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि मतदाताओं को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(9) के तहत् यह जानने का मौलिक अधिकार है कि उनका उम्मीदवार किस तरह का है, मुख्यतः ताकि वे अपने मत का औचित्यपूर्ण एवं बुद्धिमत्तापूर्ण इस्तेमाल कर सकें।
विधि एवं न्याय मंत्रालय (विधायी विभाग) ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और 1951 में कई संशोधन किए जो 1 फरवरी, 2010 से प्रवृत्त हुए।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (संशोधन), 2010 (2010 के 36) जिसने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, (1950 के 43) 1950 में संशोधन किए, जिसे 22 सितम्बर, 2010 को लागू एवं भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया गया। यह संशोधित अधिनियम भारत के उन नागरिकों को मतदान का अधिकार देता है जो रोजगार, शिक्षा या अन्य कारणों से भारत से बाहर रह रहे हैं। संशोधित अधिनियम को विस्तृत करते हुए, ऐसे नागरिक (भारत से बाहर रहने वाले) भारत में अपने निवास स्थान, जैसाकि उनके पासपोर्ट में उल्लिखित है, की संसदीय निर्वाचन क्षेत्र की निर्वाचन नामावली में अपने नाम को पंजीकृत करा सकते हैं।
चुनाव कानून संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा सैन्य कर्मियों को चुनावों में प्रॉक्सी मतदान का अधिकार प्रदान किया गया है। सैन्य कर्मों मतदाता को अपना प्रतिनिधि निर्धारित प्रपत्र पर चुनकर अधिकृत चुनाव अधिकारी को सूचित करना होगा।
परिसीमन अधिनियम, 2002 84वें संविधान संशोधन अधिनियमः के परिप्रेक्ष्य में 1991 की जनगणना के आधार पर लोक सभा एवं राज्य विधानसभा में सीटों की संख्या में परिवर्तन किए बगैर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करने का प्रावधान करता है। उल्लेखनीय है कि लोकसभा एवं विधानसभा सीटों की संख्या-निर्धारण पर लगे प्रतिबंध को 2000 से 2026 तक बढ़ा दिया है।
परिसीमन (संशोधन) अधिनियम, 2008 को 1 जनवरी, 2004 से लागूं किया है जिसके अंतर्गत मुख्य अधिनियम की धारा 4 में संशोधन हुआ है। 87वां संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा परिसीमन में जनसंख्या का आधार 1991 की जनगणना के स्थान पर 2001 की जनगणना की किया गया है।
28 अगस्त, 2003 को जन-प्रतिनिधित्व (संशोधन) अधिनियम, 2003 के अंतर्गत राज्य विधानपरिषदों के चुनाव में खुली मतदान व्यवस्था का प्रावधान किया है। प्रावधान के अंतर्गत राजनीतिक दल के सदस्य को अपना मत डालने के बाद मतपत्र संबंधित राजनीतिक दल के एजेंट को दिखाना होगा। विधानपरिषद उम्मीदवार का संबंधित राज्य का मतदाता होने की अनिवार्यता की इस अधिनियम द्वारा समाप्त कर दिया गया है। केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग के साथ परामर्श करके, 3 फरवरी, 2011 को निर्वाचक पंजीकरण (संशोधन) नियम, 2011 को तैयार एवं प्रकाशित किया। केंद्र सरकार की अधिसूचना के अनुसार, यह नियम 10 फरवरी, 2011 को प्रवृत्त हुए।
चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए जमानत राशि फरवरी 2010 से बढ़ा दी गई है। इसका प्रावधान जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 34 में वर्ष 2009 में संशोधन करके किया गया।
मतदान व्यवहार का भारतीय स्वरूप
निःसंदेह भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार एवं स्वस्थ तथा स्वतंत्र चुनाव व्यवस्था ने देश के करोड़ों वयस्क नागरिकों को देश की राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागिता का अवसर प्रदान किया है। वस्तुतः प्रजातंत्र का क्रियान्वयन बहुत सीमा तक मतदाताओं द्वारा सजगता एवं बुद्धिमता से मतदान प्रयोग पर निर्भर है। चुनाव प्रक्रिया की लोकतांत्रिक प्रणाली, लोकतंत्र की मजबूती का एवं मतदान व्यवहार राजनीतिक प्रणाली में उभरते परिवर्तन को परिलक्षित करते हैं। मतदान व्यवहार, एक बैरोमीटर की भांति यह भी मापन करता है कि किसी राजनीतिक समाज विशेष में प्रजातांत्रिक मूल्यों की अवस्थिति किस सीमा तक है।
मतदाता किस स्थिति एवं मनोदशा में किसे मतदान करता है। यह प्रवृत्ति मतदान व्यवहार को इंगित करती है। वे कौन-से मुद्दे एवं प्रेरक हैं, जो मतदान व्यवहार की दिशा प्रदान करते हैं एवं प्रजातांत्रिक संस्थाओं के वास्तविक क्रियान्वयन को स्पष्ट करते हैं।
वस्तुतः मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले कुछ अल्पावधि कारण एवं कुछ दीर्घावधि कारण होते हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1967 के आम चुनावों में मतदान द्वारा जनता ने शासक दल को मजबूर किया कि वह परिवर्तित परिदृश्य के अनुसार नीतियों, निर्णयों एवं कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करे। भारत की जनता को ऐसा प्रतीत हुआ कि इंदिरा गांधी सरकार भारत की राजनीतिक व्यवस्था की आर्थिक एवं राजनीतिक सुरक्षा प्रदान कर सकेगी, तो उसने 1971 एवं 1972 के आम चुनावों में फिर से कांग्रेस को मजबूती प्रदान की। लेकिन 1975 के आपातकालीन अधिनायिकवादी दौर के लिए श्रीमती गांधी को मतदाता ने नहीं बख्शा, और 1977 के आम चुनावों में करारी शिकस्त दी। सत्ता की बागडोर जनता पार्टी के हाथों में आ गई। यह एक गठबंधन सरकार थी और सत्ता की शक्ति को संभाल नहीं पाई। जनता सरकार को आंतरिक गुटबंदी एवं मनमुटाव से फुरसत नहीं मिली और उसने जनता का विश्वास खो दिया। जनवरी 1980 के मध्यावधि चुनाव में सत्ता फिर से श्रीमती इंदिरा गांधी को सौंप दी गई। 1977 एवं 1980 के मतदान व्यवहार से जनता ने यह स्पष्ट कर दिया कि न उसे अधिनायकवाद पसंद है और न ही राजनीतिक अस्थिरता, अपितु उसे ऐसी सरकार चाहिए जो अधिनायकवादी प्रवृति से दूर रहते हुए देश एवं जनसाधारण के हित में सुदृढ़ इकाई के रूप में प्रभावी शासन दे सके।
इसी तथ्य को ध्यान में रखकर भारतीय मतदाताओं ने 1984 के चुनावों में पुनः एक भिन्न मतादेश दिया। यह वह समय था जब महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे अहम थे और जनता बेहाल थी, परंतु श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी भावना की लहर मतदान व्यवहार का निर्णायक तत्व सिद्ध हुआ। 1989 के आम चुनावों में जनता ने मतदान सांप्रदायिकता व आत्मप्रशंसा के बजाय जनहित की दिशा में ठोस कदम उठाना भी आवश्यक है। 1990 के बाद का दशक राष्ट्रीय राजनीति में ही नहीं, अपितु प्रांतीय राजनीति में भी विशेषतः उत्तरप्रदेश में मंदिर-मंडल का रहा जिसने आगामी वर्षों में जाति के राजनीतिकरण के भयावह स्वरूप को परास्त किया। दलित चेतना भी इसी दशक में मुखर हुई।
वर्ष 2004 एवं 2009 के आम चुनावों में गठबंधन सरकार की प्रवृत्ति को स्वीकार कर लिया गया और दोनों ही समय यह काफी हद तक सफल भी रही है। अब गठबंधन सरकार भी स्थिरता एवं विकास दोनों प्रदान कर सकती है। ऐसी प्रवृत्ति स्थापित हुई है।
उपरोक्त विवरण भारतीय मतदान व्यवहार का विकासात्मक लक्षण दर्शाता है और एक जिम्मेदार नागरिकता की ओर संकेत करता है। अतः चुनावों के संस्थानिक और क्रियात्मक पहलू को अर्थपूर्ण ढंग से तभी उजागर कर सकते हैं जब हम उस राजनीतिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखते हुए अध्ययन करें जिन में वे घटित होते हैं। विकसित एवं स्थिर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक दल मतदाताओं के मतदान आचरण के प्रमुख नियामक माने जाते रहे हैं। दलीय निष्ठा के बारे में दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं- प्रथमतः दलीय निष्ठा बदलती रहती है। उम्मीदवारों का व्यक्तित्व व राष्ट्रीय प्रश्न दलीय निष्ठा में परिवर्तन लाने वाले कारक हो सकते हैं। द्वितीयतः दलीय निष्ठा सामाजिक वर्ग, प्रगति व संस्कृति आदि घटकों से निर्धारित होती है। एलेन बाल का मत है कि हर राज्य में दुलमुल मतदाताओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। ऐसे मतदाता ही चुनाव परिणाम को परिवर्तित करने के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं। अतः उनका मतदान आचरण बहुत ही अनिश्चित होता है। आज अधिकांश मतदाता भिन्न कारणों से कमोबेश इसी अवस्था में है।
इस समय आवश्यक रूप से एक नई पहल की जरूरत है। यह समझना होगा कि विकास एवं आधिनिकीकरण के बिना व्यापक राजनीतिक सहभागिता के अपूर्ण है। राजनीतिक चेतना के प्रति शिक्षित एवंबुद्धिजीवी व्यक्तियों की उदासीनता का ह्रास करना होगा। अधिकाधिक राजनीतिक भर्ती एवं समाजीकरण की प्रक्रिया की व्यापक एवं तीव्र करना होगा। अगली पीढ़ी को ध्यानगत रखते हुए इस पर भरसक कार्य करना होगा तभी नेतृत्व स्तर पर विवेक शून्यता को दूर किया जा सकेगा।
विभिन्न पक्षों की चुनाव सुधार में भूमिका चुनाव आयोग
चुनाव आयोग
चुनाव आयोग राजनितिक दलोंके पंजीयन, आपराधिक प्रवृत्ति वाले उम्मीदवारों को रोकने एवं चुनाव खचों पर लगाम रखने के संबंध में नियमन कर चुनाव सुधार को प्रश्रय देता है। चुनाव आयोग ने समय के साथ-साथ तकनीकी विकास को चुनाव क्षेत्र में इस्तेमाल कर फर्जी मतदान या बूथ कैप्चरिंग जैसे दोषों को दूर करने का प्रयास किया है तथा चुनाव प्रक्रिया को भी सरल बनाया है जैसे कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन, मतदाता पहचान पत्र इत्यादि। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को 1982 में केरल में प्रायोगिक तौर पर लाया गया था। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में पूरे भारत में इससे ही मतदान कराया गया। मतदाता पंजीयन में गड़बड़ी एवं बोकस मतदान रोकने के लिए क्रमशः 1988 में मतदाता पंजीयन का कम्प्यूटरीकरण व 1993 से फोटो पहचानपत्र जैसी व्यवस्था को लागू किया। इस तरह चुनाव आयोग चुनाव सुधार का अग्रेता भी है और इसके प्रति गंभीर भी है।
राजनीतिक दलों की भूमिका
चुनाव सुधार का मुद्दा बहुत हद तक राजनीतिक दलों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। तमाम बुराइयां जो कि लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रही हैं, कहीं न कहीं कुछ राजनितिक दलों के मौन समर्थन का परिणाम है। यदि राजनीतिक दल अपने स्तर से ही सुधार की गति को बल प्रदान करें तो फिर लगभग तमाम बुराइयां अपने आप ही समाप्त हो जाएंगी। इस संबंध में राष्ट्रीय दलों की भूमिका और जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। इन दलों को चाहिए कि खुद के आंतरिक तंत्र में लोकतंत्र का विकास करें ताकि जनता के नुमाइंदे राजनितिक दलों से जुड़े एवं जनता के हितों से सरोकार रखें। इससे राजनीति का अपराधीकरण व दल-बदल जैसी समस्याओं का स्वतः ही समाधान हो जाएगा। यदि राष्ट्रीय दल स्थानीय मुद्दों एवं समस्याओं पर संवेदनशील ढंग से विचार करें एवं हल करने का प्रयास करें तो क्षेत्रीय दलों का पनपना स्वतः ही रुक जाएगा। इन राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को विभिन्न तरीकों से मिलने वाले कोष की पारदर्शिता के संबंध में आवाज उठने लगी है। अब इन दलों को भी समझ में आना चाहिए कि परिवर्तन का समय आ गया है एवं चुनाव सुधार के लिए पहल करनी चाहिए।
सिविल सोसायटी एवं आम लोगों की भूमिका
यदि सरकार एवं राजनीतिक दल चुनाव सुधार के प्रति जागरूक नहीं हैं तो यह जिम्मेदारी सिविल सोसायटी एवं आम लोगों पर आ जाती है। कि वो चुनाव सुधार के लिए दबाव बनाए। इसी प्रकार का एक प्रयास एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा किया गया था। इसके द्वारा 1999 में दिल्ली उच्च न्यायालय से आग्रह किया गया था कि वो निर्देश दे कि चुनाव में नामांकन पत्र के साथ प्रत्याशी अपने आपराधिक मामलों की भी जानकारी दें एवं ये जानकारी आम लोगों तक भी पहुंचाई जाए। इस संबंध में उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को इस संदर्भ में निर्देश दिए। लेकिन संघ सरकार ने इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय की बातों को ही मान्यता दी। लेकिन सभी दलों ने आपसी सहमति जताई कि अधिनियम बनाकर इस निर्णय की प्रभावकारिता को रोका जाए। किंतु 13 मार्च, 2003 को सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः अपने पुराने निर्णय को दोहराया। अब यह सुधार 2004 से ही लागू हो गया है। इससे पता चलता है कि चुनाव सुधार आसान कार्य नहीं है। इसके लिए सिविल सोसायटी एवं आम जनता की कठिन परिश्रम करना होगा।
क्या आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए ?
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् संविधान सभा में चुनाव प्रणाली को अपनाने को लेकर विभिन्न विकल्पों पर चर्चा हुई थी। भारत की विविधताओं के मद्देनजर विश्व के विभिन्न देशों में तत्समय अपनायी जाने वाली प्रणालियों की अच्छाइयों एवं बुराइयों पर विचार किया था। पर अंत में फर्स्ट द पोस्ट सिस्टम को अपनाने पर सहमति बनी । इस प्रणाली को बहुमत मत प्रणाली कहा जाता है। इसे खंडित विधायिका से बचने व एक स्थायी सरकार के गठन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अपनाया गया। ब्रिटिश उपनिवेश से स्वतंत्रता के पश्चात् विकास के लिए स्थायी सरकार का होना जरूरी था। यह प्रणाली विश्व में अपनायी जाने वाली मत प्रणालियों में दूसरे स्थान पर है।
दरअसल भारतीय संसद की 60वीं वर्षगांठ पर राज्यसभा एवं लोकसभा की विशेष बैठक में कुछ मुस्लिम सांसदों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा देश निर्माण में मुस्लिम समुदाय के योगदान का हवाला देते हुए विधि निर्मात्री संसद में आलोच्य समुदाय के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग की। एआईएमआईएम के सांसद असादुद्दीन ओवैसी के अनुसार, भारतीय संसद के 60 वर्षों के इतिहास में भारत के एकमात्र विधि निर्मात्री निकाय संसद में अब तक केवल 471 मुस्लिम सांसद ही निर्वाचित हुए हैं जबकि इस समुदाय का प्रतिनिधित्व इससे दोगुना होना चाहिए था। इसलिए उन्होंने भारत में संसदीय चुनावों के लिए सहभागी लोकतांत्रिक प्रणाली की जगह आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाने की आवश्यकता जतायी। देखा जाए तो महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भी मौजूदा व्यवस्था अधिक सफल नहीं रही है। तो क्या यह मान लिया जाए कि भारत की मौजूदा चुनाव प्रणाली अप्रासंगिक हो चुकी है, और क्या वह समय आ गया है, जब इसे तिलांजली देकर नई व्यवस्था को अपना लिया जाए। इसके लिए हमें विद्यमान की समीक्षा करनी होगी, तभी जाकर हम किसी उचित निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं।
वस्तुतः भारत में लागू सहभागी लोकतांत्रिक प्रणाली एक बहुमत वाली प्रणाली है जिसमें किसी संसदीय या विधानसभा क्षेत्र में किसी उम्मीदवार की अन्य उम्मीदवारों से अधिक मत मिलने पर विजयी घोषित किया जाता है। भले ही उसके पक्ष में क्षेत्र के 20 प्रतिशत लोगों ने समर्थन किया हो। अर्थात जिस उम्मीदवार को लोगों का समर्थन प्राप्त होता है वाही विजयी होता है, इसमें कुल डाले गए वैध मतों की बहुमत (कुल का 50 प्रतिशत से अधिक) की जरूरत नहीं होती।
उल्लेखनीय है कि बहुमत मत प्रणाली संयुक्त राष्ट्र संघ के 191 सदस्य देशों में से 43 देशों में अपनायी जाती है। सामान्यतया यह प्रणाली युनाइटेड किंगडम तथा ब्रिटिश उपनिवेशों में प्रचलित हैं। युनाइटेड किंगडम के अलावा, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा व भारत इसे अपनाने वाले अन्य देश हैं।
बहुमत मत प्रणाली की विशेषताएं
- यह आसानी से समझ में आने वाली व्यवस्था है, जिसमें प्रशासनिक लागत कम आती है, और जनप्रतिनिधि को उस क्षेत्र विशेष के सभी लोगों का प्रतिनिधि मान लिया जाता है भले ही उनमें अधिकांश ने उस विजयी उम्मीदवार के पक्ष में मतदान नहीं किया हो।
- कई छोटे दल व निर्दलीय भी बड़े दलों के मुकाबले चुनाव जीतने में सफल होते हैं क्योंकि 50 प्रतिशत मत की अनिवार्यता नहीं होती। यह वैसी व्यवस्था है जिसमें किसी व्यक्ति विशेष को किसी बड़े राजनीतिक दल या किसी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं होने के बावजूद निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतने का मौका प्रदान करता है।
- इस प्रणाली के द्वारा जनता को प्रत्यक्ष विचार व्यक्त करने का अधिकार होता है कि कौन-सा दल सरकार बनाए जिससे कि एक स्थायी सरकार का मार्ग प्रशस्त होता है।
- यह प्रणाली जनप्रतिनिधियों को उनके क्षेत्र से प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित कराती है।
- इससे सामान्यतया दो दलीय प्रणाली व्यवस्था को मजबूती प्राप्त होती है। साथ ही एक मजबूत विपक्ष को भी यह व्यवस्था जन्म देती है। यह प्रणाली लोगों के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि एक निष्पक्ष प्रणाली के तहत् सर्वाधिक समर्थन वाला उम्मीदवार ही चुनाव जीत पाता है।
आलोचना का क्षेत्र
इन विशेषताओं के बावजूद यह दोषमुक्त नहीं है। आज इस प्रणाली की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी हुई है। बहुमत प्रणाली के दोष निम्नलिखित हैं-
- विजयी उम्मीदवार अल्पमत प्राप्त कर विजयी हो जाता है जबकि बहुसंख्यक उसके विरोध में होता है। वर्ष 2009 के आम चुनाव में कुल 543 विजयी उम्मीदवारों में 221 को महज कुल वैध मतों का 21 से 30 प्रतिशत ही प्राप्त हुआ था जबकि 154 विजयी उम्मीदवारों को 20 प्रतिशत से भी कम मत प्राप्त हुआ था।
- प्रत्येक संसदीय या विधानसभा क्षेत्र से केवल एक सांसद या विधायक चुना जाता है। ऐसे में जो मतदाता उस सांसद या विधायक के पक्ष में मतदान नहीं करता उसका लोकसभा या विधानसभा में प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता, तो वह मत बेकार हो जाता है।
- यह प्रणाली नकारात्मक मत प्रणाली को बढ़ावा देती है, तात्पर्य यह कि उस उम्मीदवार के खिलाफ मत जिन्हें लोग सर्वाधिक नापसंद करते हैं न कि उस उम्मीदवार के पक्ष में मत जिन्हें वे सर्वाधिक पसंद करते हैं।
- संसदीय क्षेत्रों या विधानसभा क्षेत्रों की सरकारें मनमाने तरीके से परिवर्तित कर चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकती हैं, और भारत में ऐसा होता भी रहा है। कई सरकारों पर ऐसा करने के आरोप लगे हैं।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली क्या है ?
आनुपातिक प्रतिनिधित्व, विधि निर्मात्री सभा या परिषद् के गठन हेतु मत प्रणाली की एक अवधारणा है। प्रतिनिधित्व प्रणाली का मतलब है कि मत प्राप्ति के अनुपात में किसी राजनीतिक दल या उम्मीदवारों के समूहों द्वारा सीटों की प्राप्ति उदाहरणस्वरूप यदि किसी राजनीतिक दल को कुल मतदाताओं का 30 प्रतिशत मत प्राप्त होता है तो फिर उसे विधि निर्मात्री सभा या परिषद् में कुल सीटों का 30 प्रतिशत प्राप्त होगा।
आनुपातिक प्रणाली के लाभ
- प्रत्येक मत का मूल्य ऐसा माना जाता है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में मतेदान के प्रत्येक वैध मत का मूल्य होता है।
- महिलाओं को यथेष्ट प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सकता है। 2001 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल आबादी में महिलाओं की प्रतिशतता लगभग 48 प्रतिशत है लेकिन 15वीं लोकसभा में निर्वाचित महिला सांसदों की संख्या महज 59 है।
- मतदान प्रतिशत को बढ़ाने में मदद मिलती है। जब मतदाताओं को इस बात का एहसास होगा कि उनका मतदान बेकार नहीं जाएगा तो संभव है कि वे मतदान में दिलचस्पी दिखाए जिससे कि मत प्रतिशत की बढ़ाने में मदद मिलेगी।
- चुनाव क्षेत्र की भौगोलिक सीमा प्रासंगिक नहीं रह जाती। बहुमत चुनाव प्रणाली में संसदीय क्षेत्रों की सीमा तय की जाती है जिसमें मनमाना बदलाव किया जा सकता है लेकिन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में इसका अधिक महत्त्व नहीं रह जाता क्योंकि विजयी उमीदवारों की घोषणा अधिकतम मतों के आधार पर नहीं वरन् आनुपातिक मत के आधार पर होती है।
उपर्युक्त गुणों के बावजूद इस प्रणाली की अपनी कमियां हैं। विभिन्न देशों के अनुभव बताते हैं कि इस व्यवस्था ने सरकार में अस्थायित्व को बढ़ावा दिया है क्योंकि कई छोटी-छोटी पार्टियां बड़ी संख्या में सीटें जीतने में सफल रहती हैं जिनके कारण किसी भी दल की सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता। यह सत्य है कि इस प्रणाली में कोई भी उम्मीदवार या सरकार पूर्ण बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करता जो कि इस प्रणाली की एक बड़ी खामी है। लेकिन इसके बावजूद यह सर्वाधिक जांची-परखी प्रणाली है जो कि स्थायित्व को भी बढ़ावा देने में सफल रही है। इस प्रणाली में भले ही सरकार सभी लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही हो, लेकिन संसद एवं सरकार जो कानून बनाती है वह सभी पर लागू होता है। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि मौजूदा मतदान प्रणाली से कुछ खास लोग लाभान्वित हुए हैं और कुछ खास समूह या वर्ग लाभ से वंचित रहे हैं। प्रश्न उठता है कि क्या आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अधिक बेहतर है या फिर मौजूदा व्यवस्था में अंतर्निहित कमियों को दूर करके उसे दुरुस्त किया जाए?
संघ एवं राज्य स्तरीय चुनाव में समकालिकता
भारत जैसे बड़े देश में प्रत्येक वर्ष 3 से 4 राज्यों में चुनाव होते हैं। इसमें चुनाव के परिणाम के ऊपर केंद्र की विश्वसनीयता भी दांव पर लगी रहती है। यदि परिणाम केंद्रीय सरकार की नीतियों के खिलाफ होते हैं तो सरकार भी आगे कोई ठोस एवं कठिन निर्णय लेने में हिचकिचाती है। अतः सुझाव दिए जा रहे हैं कि कुछ ऐसे सुधार किए जाएं कि केंद्र एवं राज्य स्तर पर एक ही समय में चुनाव हो। जिससे एक तो केंद्र एवं राज्य स्तरीय सरकार अधिक जिम्मेदार होगी एवं दूसरा अनावश्यक चुनाव खर्च से बचा जा सकेगा। सुझाव तो यह भी है कि इसके साथ स्थानीय स्तर के नगरपालिका एवं पंचायतों के भी चुनाव को जोड़ देना चाहिए।
अविश्वास प्रस्ताव को बनाए रखते हुए व्यवस्थापिका का निश्चित कार्यकाल
यदि कोई भी दल सरकार बनाने में असमर्थ हो तो सभी निर्वाचित सदस्य मिलकर एक कार्यकारी प्रमुख चुनें एवं एक मंत्रिमंडल का निर्माण करें जिसमें सभी दलों के निर्वाचित प्रतिनिधियों की उतना हिस्सा मिलेगा जितना कि उस दल की सदन में निर्वाचित सदस्य संख्या होगी। इस व्यवस्था से असमय निर्वाचन से मुक्ति मिलेगी एवं सरकार के स्थायित्व को बल मिलेगा।
पंजीकृत दलों की संख्या में कमी
आज मिली-जुली सरकार का युग है। ऐसे में छोटे दलों की सरकार निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती जा रही है। लेकिन भारत में ये छोटे-छोटे दल चुनावों में कुछ सीटें जीतकर सरकार निर्माण में बाधा उत्पन्न करते हैं। यह मांग जोर पकड़ती जा रही है कि चुनाव आयोग को ऐसी शक्तियां प्रदान की जाएं जिससे कि वो इन दलों की उपलब्धि के आधार पर उनकी मान्यता को रद्द कर सके। इसके लिए वह प्राथमिक सदस्यों की न्यूनतम संख्या निर्धारित कर सकता है एवं प्राप्त मतों व सीटों की संख्या को आधार बना सकता है।
जमानत राशि में वृद्धि करना
इस कदम पर इसलिए जोर दिया जा रहा है कि इससे अगंभीर उम्मीदवारों को सिर्फ चुनावों में भीड़ बढ़ाने के लिए चुनाव लड़ने से रोकना है। इस संदर्भ में कदम उठाए गए हैं एवं इसके आशाजनक परिणाम भी आ रहे हैं। लेकिन हाल के वर्षों में फिर से उम्मीदवारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि के रुझान देखे जा रहे हैं जिसके कारण एक बार फिर से यह मुद्दा जीवंत हो गया है। लेकिन इस संदर्भ में कोई भी कदम उठाने से पहले यह ध्यान में रखना होगा कि कहीं इस तरह के कदम ऐसे न हों कि योग्य एवं गंभीर उम्मीदवार भी चुनाव में भाग न ले सकें, क्योंकि भारत गरीबों का देश है।
एक से अधिक स्थानों से एक साथ चुनाव लड़ने की मनाही
इस पर काफी बहस चल रही है। वैसे उम्मीदवार एक से अधिक जगह से प्रायः चुनाव लड़ते हैं जिन्हें हारने का डर रहता है। पर इसका खामियाजा जनता को व चुनाव आयोग को उठाना पड़ता है। दोबारा चुनाव कराने में जनता को असामयिक चुनाव संबंधी परेशानी होती है एवं पुनः चुनाव पर अनावश्यक व्यय करना पड़ता है।
चुनाव शपथपत्र में घोषित सूचना का गलत होना एक अपराध
इसके तहत् यदि उम्मीदवार चुनाव शपथपत्र में अपनी आपराधिक छवि के बारे में गलत जानकारी देता है तो उसे अपराध माना जाएगा। ऐसे में उसके चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाने का प्रावधान है। अब तो उम्मीदवार को अपने शैक्षणिक एवं संपत्ति संबंधी जानकारी भी उपलब्ध करानी होती है। इससे मतदाता की यह पता चल पाएगा कि वह जिसे मत देना चाहता है उस उम्मीदवार का चरित्र किस प्रकार का है।
तटस्थ/नकारात्मक मतदान
इसके पीछे तर्क यह है कि यदि किसी मतदाता की लगे कि, कोई भी उम्मीदवार योग्य नहीं है तो वह नकारात्मक मत का प्रयोग कर सकता है। आजकल लोगों की बड़ी संख्या मतदान में भाग नहीं लेती क्योंकि वे विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की योग्य नहीं मानते। ऐसे में नकारात्मक मतदान उन दलों की आंख खोलेगा जो कि निहित स्वार्थ के कारण जनता की दृष्टि में अयोग्य उम्मीदवारों को चुनाव में टिकट देते हैं।
एक्जिट पोल पर प्रतिबंध
भारत के वृहद् आकार के कारण चुनाव कई चरणों में होता है। ऐसे में प्रथम चरण से ही एक्जिट पोल प्रसारण या प्रकाशन स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की प्रभावित कर सकता है। इसके प्रकाशन से अगले चरणों में वोटिंग पैटर्न के प्रभावित होने का खतरा रहता है। उसी तरह ओपिनियन पोल जोकि चुनाव पूर्व होता है का भी चुनाव पर प्रभाव पड़ता है। अतः इन पर प्रतिबंध की मांग की जाती रही है।
मतदान करने की बाध्यता
कई लोगों का मानना है कि चुनाव में भाग लेना एक आवश्यक कर्तव्य है। ऐसे में सभी भारतीयों को जो कि मतदान सूची में पंजीकृत हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर मतदान में भाग लेने की कानूनी बाध्यता के रूप में लागू किया जाए। देखा गया है कि चुनाव के दौरान कई मतदाता प्रायः बिना किसी कारण से मतदान के प्रति उपेक्षित रहते हैं। पर ऐसे में लोकतंत्र के इस पावन पर्व के प्रति अनिच्छा जताकर देश या राज्य के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं। इस संबंध में अभी हाल के वर्षों में गुजरात सरकार द्वारा असफल प्रयास किए गए। लेकिन इससे इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस शुरू हो चुकी है।
राइट टू रिकॉल-राइट टू रिजेक्ट
विख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे ने अपना 12 दिवसीय अनशन तोड़ने के पश्चात् चुने गए जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार व चुनाव के दौरान बहिष्कार का अधिकार के लिए आन्दोलन चलाने का आह्वान किया किया। इसके पश्चात् इस विषय पर विभिन्न राजनीतिक दलों, विधि विशेषज्ञों व चुनाव आयोग के बीच चर्चा छिड़ गई है।
राइट टू रिकॉल वह प्रक्रिया है जिसके तहत् मतदाताओं की एक निश्चित संख्या अपने किसी निर्वाचित प्रतिनिधि के कार्यों से असंतुष्ट होकर अपने जनप्रतिनिधि की निरंतरता के बारे में अपना अविश्वास प्रकट कर उसे वापस बुलाने की मांग करती है। फिलहाल भारत में राइट टू रिकॉल का प्रावधान केवल छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व बिहार के पंचायती राज संस्थाओं में किया गया है। राइट टू रिकॉल की प्रक्रिया आरंभ करने के लिए प्रावधान के अनुसार अपने क्षेत्र के चयनित पंचायती राज जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने के लिए दो-तिहाई मतदाताओं का समर्थन आवश्यक है। वापस बुलाने का समर्थन करने वाले दो-तिहाई मतदाता अपना आवेदन जिलाधिकारी को देते हैं। फिर वोटिंग कराई जाती है जिसमें पंजीकृत मतदाताओं के 50 प्रतिशत को मतदान में भाग लेना आवश्यक होता है। मतदाताओं को हां या ना का विकल्प दिया जाता है।
उपर्युक्त प्रावधान के तहत छत्तीसगढ़ के 3 गांवों के चयनित जनप्रतिनिधियों को जून, 2008 में वापस बुला लिया गया था। देश में ऐसा पहली बार हुआ था जब नगर पंचायतों के अध्यक्षों को अपना पद छोड़ना पड़ा था। म्युनिसिपल निकाय के तीन-चौथाई सदस्यों ने इन अध्यक्षों के प्रति अपना अविश्वास दर्ज किया। छत्तीसगढ़ नगरपालिका अधिनियम 1961 की धारा 47 में राइट टू रिकॉल का प्रावधान किया गया है।
भारत में पिछले दो दशकों से सिविल सोसायटी ग्रुप राइट टू रिकॉल को जनप्रतिनिधित्व कानून में शामिल करवाने के लिए प्रयासरत हैं। वहीं चुनाव आयोग एवं सरकार का मानना है की इस अधिकार का क्रियान्वयन बेहद मुश्किल होगा। फिलहाल रिकॉल इलेक्शन अमेरिका के 18 राज्यों, के छह कैंटन में लागू हैं।
राइट टू रिजेक्ट के अनुसार यदि किसी चुनाव के दौरान चुनाव में हिस्सा लेने वाले 50 प्रतिशत मतदाता चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में से किसी को अपना मत नहीं देते हैं तो फिर उस चुनाव की विधि शून्य घोषित कर दिया जाना चाहिए। भारत के चुनाव से संबंधित चुनाव आचार नियम, 1961 की धारा 49 (ओ) में मतदाता को किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में मतदान नहीं करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
वैसे राइट टू रिजेक्ट की अवधारणा भारत में नई नहीं है। सर्वप्रथम वर्ष 2001 में चुनाव आयोग ने इसका प्रस्ताव किया था। फिर वर्ष 2004 में जब टी.एस. कृष्णमूर्ति भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त थे, तब चुनाव आयोग ने भारत सरकार को चुनाव सुधार संबंधी सिफारिश करते वक्त राइट टू रिजेक्ट को भी उन सिफारिशों में शामिल किया था। जैसाकि पहले कहा गया कि धारा 49 (ओ) में नकारात्मक मतदान के रूप में पहले से ही यह मौजूद है। पर चुनाव परिणाम पर इसका कोई असर नहीं पड़ता इसलिए यह निष्प्रभावी सा है। इसलिए वर्ष 2007 में सर्वोच्च न्यायालय ने राइट टू रिजेक्ट से संबंधित एक जनहित याचिका को खारिज करते हुए कहा था कि याचिकाकर्ता को चुनाव आयोग की सिफारिशों पर भारत सरकार के निर्णय लेने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। हालांकि नेशनल इलेक्शन वाच जैसी संस्था इस मांग का समर्थन करती रही है।
इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की प्रभावोत्पादकता
जुलाई 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की प्रभावोत्पादकता संबंधी एक जनहित याचिका पर कोई निर्देश देने से मना कर दिया और कहा कि इस प्रकार की याचिका एवं प्रश्न निर्वाचन आयोग के समक्ष रखे जाने चाहिए क्योंकि चुनाव संबंधी समस्याओं के समाधान का वही उपयुक्त स्थान है। याचिकाकर्ताओं, चुनाव निगरानी अधिकारी, वी. पी. राव, अभियंता ए. कनकपति एवं वाई वैश्य ने कहा कि ई.वी.एम. में यह आशंका बनी रहती है कि मतदाता द्वारा डाले गए वोट रजिस्टर्ड हुए भी हैं या नहीं। कई निर्वाचन क्षेत्रों की ई.वी.एम. के परिणामों के विश्लेषण के पश्चात् यह निष्कर्ष निकला कि ई.वी.एम. की कार्य प्रणाली में अत्यधिक विसंगति है।
अगस्त 2009 में निर्वाचन आयोग ने भी ई.वी.एम. की भ्रमातीत कार्यप्रणाली को स्वीकार किया। ई.वी.एम. की कार्यप्रणाली को लेकर विवाद उस समय उत्पन्न हुआ जब दिल्ली के भूतपूर्व मुख्य सचिव ओमेश सहगल ने निर्वाचन आयोग के समक्ष ई.वी.एम. की कार्यप्रणाली का प्रदर्शन किया एवं दिखाया कि यह किस प्रकार परिणाम को गलत तरीके से प्रभावित कर सकती है।
तत्पश्चात् राजनीतिक दलों ने मामले को राष्ट्रीय मंच प्रदान किया। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता ने सुझाया कि बेलेट पेपर को फिर से कार्यान्वयन में लाया जाये, जिस पर उन्हें उनके विरोधी दलों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनता दल (सेकुलर) एवं लोक जन शक्ति पार्टी का भी समर्थन प्राप्त हुआ।
इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का विरोध करने वाले तर्क देते हैं कि अधिकतर विकसित देशों ने इसका प्रयोग बंद कर दिया है। विशेषज्ञों के अनुसार, भारतीय ई.वी.एम. में वोटिंग परिणामों की समग्रता बनाए रखने हेतु किसी प्रकार के रक्षोपाय नहीं किए गए हैं।
जर्मनी के सर्वोच्च न्यायालय ने मार्च-2009 में ई.वी.एम. को असंवैधानिक बताया क्योंकि आम नागरिक इसमें निहित रिकॉर्डिंग एवं टेलिंग के सिद्धांत की नहीं समझ सका।
नीदरलैंड ने अक्टूबर 2006 में ई.वी.एम. प्रयोग को प्रतिबंधित कर दिया क्योंकि एक जनहित समूह ने वीडियो के माध्यम से दिखाया कि किस प्रकार यह मतदाता एवं चुनाव अधिकारी को पता चले बिना मतों को तेजी से काट देता है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के कम्प्यूटर विज्ञानियों ने दिखाया कि किस प्रकार गड़बड़ी करने वाले दल ई.वी.एम. को हैक कर सकते हैं और उसमें दर्ज मतों को चुरा सकते हैं।
ई.वी.एम. के जोखिम को कम करने के एक तरीके के रूप में सुझाव दिया गया कि मतदान के समय ई.वी.एम. द्वारा प्रत्येक दर्ज मत की प्रिन्ट पेपर रसीद निकाली जाए, जिसे मतदाता बेलेट पेटी में डाल दे। किसी प्रकार के विवाद की स्थिति में यह पेपर स्लिप मत की प्रामाणिकता की सिद्धि में सहायक होगी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 से यह व्यवस्था संयुक्त राज्य अमेरिका के 27 राज्यों में प्रचलन में है।
इसके समर्थन में कहा जाता है कि हालांकि कोई भी मशीन एवं उपकरण अपने आप में सम्पूर्ण नहीं होता। इसलिए इसे निर्वाचन व्यवस्था से हटाने की बजाए इसमें सुधार किए जाएं।
भारत एक विशाल देश है और इसमें 700 मिलियन से अधिक मतदाता (वर्ष 2009 के चुनाव में) है। इतने विशाल लोकतंत्र में मतपत्र द्वारा चुनाव सम्पन्न कराना अत्यधिक समय साध्य है। महत्वपूर्ण है कि ई.वी.एम. द्वारा कम समय में चुनाव गतिविधि सम्पन्न हो जाती है। इसके माध्यम से तीव्र गति से मतों की गिनती होती है, और 3 से 4 घंटों में परिणाम की घोषणा संभव है जबकि परम्परागत तरीके से इसमें 30-40 घंटों का समय लगता है। ई.वी.एम. द्वारा बड़ी मात्रा में कागज की बचत होती है। इसके साथ-साथ उसके प्रिटिंग, परिवहन, रख-रखाव एवं वितरण में लगने वाले धन एवं समय की बचत होती है।
ई.वी.एम. के द्वारा बूथ कैप्चरिंग एवं गड़बड़ी जैसी घटनाओं पर भी अंकुश लगा है। ई.वी.एम. द्वारा फर्जी मतदान भी संभव है लेकिन तुलनात्मक रूप से इसमें सुरक्षा अधिक है। बूथ कैप्चरिंग की स्थिति में ई.वी.एम. 1 मिनट में अधिकतम 5 मतों की रजिस्टर्ड करती है। अतः मतदान केंद्र पर आधे घंटे में पुलिस आने तक अधिकतम 150 मत ही डाले जा सकते हैं। जबकि मानवीय रूप से अधिकतम 1000 फर्जी मत डाले जा सकते हैं। दूसरी ओर ऐसी स्थिति में निर्वाचन अधिकारी द्वारा ई.वी.एम. का क्लोज बटन दबाने से मशीन मत रजिस्टर्ड करना बंद कर देती है। इसके अतिरिक्त राजनीतिक दल वोटिंग शुरू होने से पहले एवं वोटिंग के समाप्त होने के बाद की गड़बड़ियां नहीं कर सकते।
स्वागतयोग्य बात यह है कि ई.वी.एम. ने अवैध मतों की संख्या पर नियंत्रण किया है। साथ ही पृथक् रूप से मतदान केंद्रों पर डाले गए वोटों से मतदान व्यवहार की जानकारी मिलती है। इसमें ई.वी.एम. मतों का वर्गीकरण कर, क्रमवार मतदान केंद्र के मतदान रुझान को बताने में सक्षम होती है।
ई.वी.एम. की लोकप्रियता इससे सिद्ध होती है कि इसे भारत के बाद भूटान एवं नेपाल ने भी अपनी चुनाव प्रणाली में अपना लिया है। फिर भी प्रत्येक प्रणाली में कुछ गुणों के साथ-साथ अवगुण भी विद्यमान होते हैं। अतः हमें यह कोशिश करनी होगी कि ई.वी.एम. के दोषों को किस प्रकार कम एवं दूर किया जा सकता है।
सांसदों एवं विधायकों का आपराधिक दोषसिद्धि पर सदस्यता से अयोग्यता
10 जुलाई, 2013 को उच्चतम न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (4) को असंवैधानिक एवं शून्य घोषित किया, जो दोषसिद्ध नीति निर्माताओं को उच्च न्यायालय में अपील करने के लिए तीन महीने का समय देता है और उनकी सजा पर रोक लग जाती है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपराध के लिए दोषसिद्ध सांसद एवं विधायक सदन की सदस्यता से तुरंत अयोग्य हो जाएंगे। न्यायपीठ ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय भावी होगा और जो सदस्य पहले ही विभिन्न उच्च न्यायालयों या उच्चतम न्यायालय में अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील कर चुके हैं, इस निर्णय से उनको उन्मुक्ति होगी।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 कुछ विशेष अपराधों की दोषासिद्धि पर अयोग्यता का प्रावधान करती है। कोई व्यक्ति किसी अपराध में दोषसिद्ध होता है और जेल की सजा पाता है तो अधिनियम की धारा 8(1), (2) और (3) के अंतर्गत उस तिथि से अयोग्य घोषित किया जाएगा और जेल से छूटने की तिथि से 6 वर्षों तक अयोग्य रहेगा। लेकिन अधिनियम की धारा 8(4) सांसदों एवं विधायकों को उन्हें पद पर बने रहने के लिए संरक्षण देती है यदि उच्च न्यायालय में तीन महीनों के भीतर अपील कर दी जाती है।
न्यायपीठ ने इसे असंवैधानिक माना कि दोषसिद्ध व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया जा सकेगा लेकिन एक बार निर्वाचित होने पर संसद एवं राज्य विधानमण्डल का सदस्य बना रहता है। अधिवक्ता लिली थॉमस एवं लोक प्रहरी की दायर याचिका का संज्ञान लेते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि- संविधान के अनुच्छेद 102(1)(e) और 191(1)(e) में दो प्रावधानों का पठन इस बात की पर्याप्त रूप से स्पष्ट करता है कि संसद किसी व्यक्ति के निर्वाचित होने से निरर्हित करने के लिए कानून बनाती है।
इस प्रकार संसद को संविधान के अनुच्छेद 102(1)(e) तथा 191(1)(e) के तहत् किसी व्यक्ति को सदस्य चुने जाने से निरर्हित करने संबंधी और एक व्यक्ति के संसद या राज्य विधानसभा का सदस्य बने रहने से निरर्हित करने के लिए अलग-अलग विधि बनाने की शक्ति नहीं है। निर्णय देते हुए न्यायाधीश पटनायक ने कहा कि- संविधान के अनुच्छेद 102(1)(e) और अनुच्छेद 191(1)(e) की भाषा इस प्रकार है कि किसी व्यक्ति के संसद या राज्य विधानसभा सदस्य चुने जाने और संसद या राज्य विधानसभा के सदस्य बने रहने से निरर्हित करने की विधि एक ही होगी।
न्यायालय का यह निर्णय बेहद दूरगामी प्रभाव वाला है और भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को दुरुस्त करने हेतु विस्तृत निहितार्थों वाला है। लेकिन इस निर्णय की विख्यात अधिवक्ताओं एवं भूतपूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी द्वारा निंदा की गई। उनका तर्क था कि निम्न अदालतों का प्रत्येक निर्णय सही नहीं होता। सोमनाथ चटर्जी ने कहा कि यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सांसदों/विधायकों को उनकी अपील सुनने के अवसर की अनुमति नहीं दी।
गौरतलब है कि यह फैसला तीन जनहित याचिकाओं (एक अधिवक्ता थॉमस लिली की; एक अधिवक्ता एस.एन. शुक्ला की; एक गैर-सरकारी संगठन लोक प्रहरी की) पर आया है। थॉमस के मामले को संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ अधिवक्ता फाली एस. नरीमन ने लड़ा।
देखा जाना है कि सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय कितना सकारात्मक प्रभावी कार्य कर पाएगा और क्या यह राजनीतिक स्वार्थों को पूरा करने का हथियार बनकर रह जाएगा।
जेल या पुलिस संरक्षा में रहते चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के तहत् वे व्यक्ति, जो जेल या पुलिस संरक्षा में हैं, विधायी निकाय के चुनाव नहीं लड़ सकते। इस निर्णय ने विचाराधीन राजनीतिज्ञों के जेल से चुनाव लड़ने के अवसर को समाप्त कर दिया है। अपने इस मील के पत्थर निर्णय में, जो अपराधी तत्वों को संसद और राज्य विधानमण्डलों में जाने से रोकेगा, न्यायालय ने कहा कि, केवल एक निर्वाचक ही चुनाव लड़ सकता है और उसे जेल में या पुलिस संरक्षा में होने के कारण मत देने से प्रतिबंधित किया जाता है।
हालांकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि निर्रहता उन लोगों पर अभिभावी नहीं होगी जो किसी विधि के अधीन निवारक निरोध की स्थिति में हैं। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम का हवाला देते हुए न्यायाधीश ए.के. पटनायक एवं एस.जे. मुखोपाध्याय की पीठ ने कहा कि अधिनियम की धारा 4 और 5 लोकसभा एवं राज्य विधानसभा की सदस्यता हेतु अर्हताएं निर्धारित करता है और इनमें से एक अर्हता है कि व्यक्ति को निर्वाचक होना चाहिए।
बेंच ने कहा कि अधिनियम की धारा 65(5) प्रावधान करती है कि कोई व्यक्ति किसी चुनाव में मत नहीं देगा यदि वह जेल में है या पुलिस की वैध संरक्षा में है। धारा 4, 5 और 62(5) को एक साथ पढ़े जाने पर उच्चतम न्यायालय इस निर्णय पर पहुंचा कि कोई व्यक्ति, जो जेल या पुलिस संरक्षा में है, चुनाव नहीं लड़ सकता।
पटना उच्च न्यायालय के निर्णय, कि पुलिस संरक्षा में रहते हुए व्यक्ति को सुनते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया। निश्चित रूप से यह ऐतिहासिक निर्णय चुनाव सुधार में मील का पत्थर साबित होगा।