गुप्त काल में अर्थव्यवस्था Economy in the Gupta period
गुप्तकाल में समाज, धर्म, कला, साहित्य व विज्ञान के विकास के साथ ही एक मजबूत आर्थिक ढाँचे का गठन हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में गुप्तकाल की उपलब्धियों के कारण ही इसे क्लासिकल एज की संज्ञा दी गई है। गुप्तकाल के सांस्कृतिक विकास में इसकी आर्थिक समृद्धि का प्रमुख योगदान रहा है। कृषि, उद्योग और व्यापार में इस काल में काफी वृद्धि हुई। कई इतिहासकारों ने गुप्तकाल के अंतिम चरण में सामंतवाद का उदय बताया है और सामन्तीय व्यवस्था को देश की अर्थव्यवस्था के विघटन का संकेत माना जाता है। गुप्तकाल क्लासिकल युग था अथवा अर्थव्यवस्था के धीरे-धीरे ह्रास का काल, यह एक अत्यन्त विवादास्पद तथ्य है।
कृषि- सामान्यतः भूमि पर कृषक का ही स्वामित्व माना जाता है। मनु और गौतम जैसे स्मृतिकारों ने राजा को भूमि का स्वामी माना है, परन्तु मनु दूसरी जगह कहते हैं कि भूमि उसकी होती है जो उसे आबाद करता है। दूसरी तरफ बृहस्पति और नारद भूमि का स्वामी उसे मानते हैं जिसके पास कानूनी दस्तावेज हो। शबरस्वामि के अनुसार साधारण मनुष्य खेत के स्वामी होते हैं। राजा भी पूरी भूमि का स्वामी नहीं होता है, उसकी भी निजी भूमि होती है। प्राचीन काल में राजा सामान्यतः उपज के 1/6 भाग का अधिकारी माना गया है। यह भाग प्रजा की सुरक्षा करने के लिए, राजा को प्रजा द्वारा प्रदान किया जाने वाला कर था। राजा अपनी निजी भूमि में से ही भूदान आदि करता था। राजा द्वारा लिया जाने वाला कर भाग, भोग कर आदि कहलाता था। लगान के निर्धारण व की प्रतिष्ठा के संदर्भ में व्यापक विवरणों का अभाव है। कर के निर्धारण में भूमि की प्रकृति का ध्यान रखा जाता होगा।
स्मृतियों एवं बृहतसंहिता, अमरकोश, कालिदास की रचनाओं आदि से गुप्तकालीन कृषि के बारे में जानकारी मिलती है। गुप्तकाल में कृषि परम्परागत तरीकों से ही होती थी। हल में लोहे के फाल का प्रयोग किया जाता था। बृहस्पति व नारद की स्मृतियों में उनके लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गयी है जो कृषि उपकरणों को क्षति पहुँचाते थे। कृषि में हल के महत्त्व के कारण ही उसे पवित्र माना जाने लगा। सीर-यज्ञ के आयोजन से भी इसका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। कृषि में अच्छे बीजों का महत्त्व माना गया था। वराहमिहिर ने बृहतसंहिता में बीजों की गुणवत्ता बढ़ाने व धरती की उर्वरा शक्ति में वृद्धि के तरीके बताए हैं। गुप्तकाल में कृषि व्यवस्था में राजा का हस्तक्षेप पहले की तुलना में बढ़ गया था। अमरकोश में बारह प्रकार की भूमि का उल्लेख है- उर्वरा, ऊसर, मरू, अप्रहत, सद्वल, किल जलप्रायमनुपम, कच्छा, शर्करा, शकविती, नदीमातृक, देवमातृक। आर्थिक उपयोगिता की दृष्टि से भूमि को कई भागों में विभाजित किया गया है- 1. वास करने योग्य भूमि-वास्तु, 2. चारागाह भूमि, 3. खेती के उपयुक्त भूमि-क्षेत्र, 4. नहीं जोती जाने वाली भूमि-सील, 5. बिना जोती गयी जंगल भूमि-अप्रहत। गुप्तकालीन अभिलेखों में भू धारण पर प्रकाश डालने वाली पाँच शब्दावलियाँ हैं
1. नीवीधर्म- इसके अन्तर्गत दानग्रहिता को सदा के लिए भूमि दे दी जाती थी।
2. अक्षयनीवी धर्म- संभवत: सबसे पहले कुषाणों ने किसानों को अक्षयनीवी पद्धति पर भूमि दी थी। इसके अनुसार किसान उस भूमि से प्राप्त आय का उपभोग कर सकता था। किन्तु वह उस जमीन का हस्तातरण नहीं कर सकता था। गुप्तकाल में भूमि खरीदकर अक्षयनीवी पद्धति पर ब्राह्मणों को दान में भी दी जाने लगी।
3. नीवी धर्म अक्षयन- इसके अनुसार नीवी धर्म समाप्त कर यह भूमि दूसरे को दी जा सकती थी।
4. अप्रदानीवी धर्म- दानग्रहिता को इस भूमि पर प्रशासनिक अधिकार नहीं था और न वह किसी अन्य व्यक्ति को भूमि दे सकता था।
5. भूमि-न्याय- कौटिल्य के अर्थशास्त्र में एक संपूर्ण अध्याय ही इस पर लिखा गया है। इसके अन्तर्गत बंजरभूमि को आबाद करने के ऐवज में किसी व्यक्ति को उस भूमि पर लगान माफ कर दिया जाता था।
राजस्व– सामान्यतः भू-राजस्व को भाग कहा जाता था। मनुस्मृति में एक कर भोग की चर्चा है। भोग में राजा के प्रत्येक दिन की आवश्यकता शामिल थी। यथा-फल-फूल, सब्जी आदि। उद्रग भी भूमि कर का ही एक रूप था। उपरिकर उन रैयतों पर लगाया जाता था जो भूमि के स्वामी नहीं थे। भू-राजस्व नकद (हिरण्य) और अनाज (मेय) दोनों में लिया जाता था। नकद कर वसूलने वाला अधिकारी हिरण्य सामुदायिक कहलाता था। अनाज में कर वसूलने वाला अधिकारी औद्रगिक कहलाता था।
अन्य कर– 1. धान्य, 2. भूत, 3. बैष्ठिका- बलात् श्रमिक, 4. भत या भट्ट (पुलिस कर), 5. प्रणय- ग्रामवासियों पर लगाया गया एक अनिवार्य कर, 6. चारासन- चारागाहों पर शुल्क, 7. चाट- लुटेरे द्वारा उत्पीड़न से मुक्ति का कर, 8. दशापराध- दस प्रकार के अपराधों के लिए किए गए जुर्माने, 9. हलदण्ड- यह हल पर लगाया जाता था। सातवाहन काल से भूमि दान की प्रथा शुरू हुई थी। गुप्तकाल तक आकर प्रशासनिक अधिकार भी दान ग्रहिता को सौंप दिया गया। हर्षकाल में राज्य अधिकारियों को भी अनुदान में वेतन दिया जाने लगा।
भूमि की माप– माप का पैमाना, 1. निर्वतन, 2. कुल्यावाप, 3. द्रोणवाप, 4. आढ़वाप।
1 कुल्यावाप = 8 द्रोणवाप = 32 आढ़वाप
बंगाल में पाटक प्रचलित था। इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न क्षेत्र में यह भिन्न-भिन्न था। अमरकोष में हलों की बनावट का वर्णन है। बृहस्पति के अनुसार हल का फाल का वजन 12 पल होना चाहिए और यह आठ अंगुल लंबा और चार अंगुल चौड़ा होना चाहिए।
प्राचीन काल में प्रजा को कृषि हेतु सिंचाई की सुविधाएँ मुहैया करवाना राजा का कर्त्तव्य माना गया है। कालिदास के ‘रघुवंश’ से भी राजा के इस रूप का बोध होता है। बृहत्संहिता में दकार्गलाध्याय नामक पूरा अध्याय पृथ्वी के नीचे जल खोजने की विधियों से संबंधित है। प्राचीन काल में इस प्रकार के अध्ययन का प्रयोग कुओं और तालाबों के खोदने में निश्चित रूप से किया जाता होगा। अमरकोश में भी इस प्रकार का विवरण है। जूनागढ़ अभिलेख से प्राचीन भारतीय शासकों की सिंचाई व्यवस्था के प्रति गहन रुचि जाहिर होती है। सुदर्शन झील जो मौर्यकाल में सुरक्षित थी, स्कंदगुप्त के राज्यकाल में क्षतिग्रस्त होने से समस्या बन गयी थी। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार सुदर्शन झील अधिक वर्षा के कारण उफन पड़ी तथा उसका जल समुद्र की तरह हो गया। इससे गिरनार नगर की सुरक्षा को भय उत्पन्न हो गया तथा नागरिक किकर्त्तव्यविमूढ़ होकर भय और विषाद से भर उठे। ऐसे समय गिरनार नगर के अधिकारी चक्रपालित ने अनुपम साहस दिखाकर दो महीने तक सहस्रों लोगों को दिन रात लगाकर, अपार धन व्यय करके झील के बाँध का पुनरूद्धार किया।
गुप्त काल में कृषि में मध्यस्थों की संख्या में वृद्धि होने लगी थी। इसी आधार पर इतिहासकार गुप्तकाल को भारतीय सामंतवाद के उदय का काल मानते हैं। आर्थिक संबंधों के आधार में परिवर्तन आने था। इस काल में यह एक नया विकास हुआ कि गाँव की भूमि दान में दिये जाने के सैनिक एवं प्रशासनिक अधिकारियों को भी उनके वेतन के बदले में दी जाने लगी। इस भूपति को ही कृषक अपने कर देता था। भूपति कृषकों व उसके परिवार से बेगार ले सकता था, लेकिन उनको बेदखल नहीं कर सकता था। राजनैतिक शक्तियों के साथ-साथ मध्यस्थों की आर्थिक शक्तियों का विकास हुआ। विकेन्द्रित कर-प्रणाली की प्रवृत्ति में विकास के कारण अनेक नवीन वित्तीय इकाइयों का उद्भव हुआ। कृषक के ऊपर करों का दबाव भी बढ़ने लगा था। यह तो स्पष्ट है की भूपतियों की विशाल भूमि में कृषिक मजदूर ही करते थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में उल्लेख है की खेत में कार्य करने वाले श्रमिक को फसक का दसवां हिस्सा प्राप्त होता था। ग्रामीण जीवन में कृषक मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी थी। कृषकों द्वारा कई फसलें बोयी जाती थी। वराहमिहिर ने फसलों के 3 प्रकार बताएं हैं- गर्मी (रबी), पतझड़ (खरीफ) और साधारण समय में होने वाली फसलें। अमरकोश में भी उन वस्तुओं के नाम मिलते हैं जो सरसों, अलसी, अदरक, कालीमिर्च आदि। धान के कई नाम थे जैसे नीवार, शालि और कमल। चावल की फसल लगभग 60 दिन में तैयार हो जाती थी। बाण के अनुसार श्रीकण्ठ जनपद में चावल, गेहूँ, ईख, सेम, अंगूर आदि पैदा थे। इत्सिंग के यात्रा-विवरण से भी तत्कालीन फसलों की जानकारी मिलती है। केला, आम, द्राक्षा, कटहल, केसर आदि की भी खेती की जाती थी।
पशुपालन- प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार पशु थे। पशुपालन को भी कृषि के साथ स्वतंत्र व्यवसाय माना गया है। अमरकोश, बृहतसंहिता, कामन्दकीय नीतिसार के पशु संबंधी उल्लेखों से स्पष्ट है कि गुप्तकाल में भी पशु अर्थव्यवस्था के आधार थे। गाय और बैल की आर्थिक उपयोगिता के कारण ही उन्हें पवित्र माना गया। उनके साथ दुव्र्यवहार करने पर दण्ड का विधान था। स्मृतियों में पशुओं से संबंधित अलग अध्याय (स्वामिपाल विवाद) मिलता है। पशुओं की सुरक्षा के लिए चरवाहा उत्तरदायी होता था। नारद के अनुसार उसे पारिश्रमिक के रूप में सभी पशुओं का दूध प्रति आठवें दिन और प्रति वर्ष 100 पशुओं के लिए एक बछिया और 200 पशुओं के लिए एक दुधारू गाय देय थे। हाथी और घोड़ों का महत्त्व सामरिक दृष्टि से था। हाथी दाँत निर्यात की प्रमुख वस्तु थी।
उद्योग व शिल्प- गुप्तकालीन आर्थिक सम्पन्नता उद्योग व शिल्प में दिखायी देती है। कच्चे माल की अधिकता और शिल्पियों की कुशलता के कारण व्यवसाय और उद्योगों ने गुप्तकाल में बड़ी उन्नति की। गुप्तकालीन अभिलेखों व साहित्यिक ग्रन्थों से भी इसकी पुष्टि हो जाती है। इस काल में खनिज पदार्थों का बड़ी मात्रा में उत्खनन किया जाने लगा था। कालिदास ने अपनी रचनाओं में बहुत-सी धातुओं व रत्नों का उल्लेख किया है जैसे- स्वर्ण, कनकसिकता (नदियों की बालू में से निकाला गया स्वर्ण), रजत, ताम्र (तांबा), अयस (लोहा), बज्र (हीरा), पद्याराग (लाल), पुष्पराग (पुखराज), इन्द्रनील (नीलम), मरकत (पन्ना), वैदूर्य (बिल्लोर), स्फटिक, मणिशिला (संगमरमर) आदि।
जेवरों का निर्माण गुप्तकाल का प्रमुख उद्योग था। वात्सायन के कामसूत्र में धातुकर्म को 64 कलाओं में गिनाया गया है। शूद्रक के मृच्छकटिकम् में सुनारों के द्वारा अनेक प्रकार के आभूषण बनाने एवं उनमें रत्नों को जड़ने आदि का बड़ा सजीव चित्रण है। सुवर्णकार का क्षेत्र एवं महत्त्व गुप्तकाल में बढ़ गया था। वह जौहरी का भी कार्य करता था। रत्नों से संबंधित वैज्ञानिक अध्ययन भी विकसित हुआ जिसे रत्न परीक्षा के नाम से संबोधित किया गया। कामसूत्र में रूपरतनपरीक्षा व मणिरागकरज्ञानम् का संबंध रत्नों व उसके परीक्षण से था। रत्नों का प्रयोग विभिन्न प्रकार से होता था जैसे स्वर्ण की वस्तुएँ, आभूषणों और मुद्राओं को जड़ने-वस्त्रों को सजाना आदि।
वस्त्रोद्योग भी गुप्तकाल का प्रमुख उद्योग था। वराहमिहिर ने वज्रलेप का उल्लेख किया है, जिससे बोध होता है कि उस समय लोग वस्त्रों को रंगने की रासायनिक प्रक्रिया से परिचित थे। प्राचीन काल में रंग वृक्षों से तैयार किए जाते थे।
लौहकार अनेक उपयोगी अस्त्र-शस्त्र, उपकरण और वस्तुओं को बनाते थे। मेहरौली का लौह स्तंभ तत्कालीन लौहकारों के कौशल और उच्च तकनीक का एक विशिष्ट उदाहरण है। शताब्दियों की उथल-पुथल, प्राकृतिक प्रकोप भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सके हैं। इसमें अभी तक जंग भी नहीं लगी है। इस काल की 7½ फुट ऊँची महात्मा बुद्ध की मूर्ति भागलपुर जिले के सुल्तानगंज से मिली है। इससे भी धातु विज्ञान की उन्नति का बोध होता है।
कुम्हार का व्यवसाय भी प्रचलित था। उत्खनन से प्राप्त हुए बहुत से बर्तनों में से कुछ सांचे में ढले हुए हैं और कुछ चाक पर बने हुए हैं। बर्तनों को रंग कर उस पर उत्कीर्णन भी किया जाता था। पीने के बर्तनों पर हत्थे भी लगाये जाते थे। कामसूत्र में तक्षण को 64 कलाओं में एक बताया गया है। वाकाटक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि नमक बनाने पर राज्य का एकाधिकार था। नमक दो प्रकार से बनाया जाता था- समुद्र के जल से व चट्टानों से।
प्राचीन भारतीय श्रृंगार प्रेमी थे। श्रृंगार की सामग्री, सुगंधित पदार्थों, कुमकुम आदि का निर्माण भी अवश्य किया जाता होगा। बृहतसंहिता में सुगंधित पदार्थों और तेलों आदि से संबंधित विवरण प्राप्त होता हैं। गुप्तकाल में वास्तुकला का पूर्ण विकास दिखाई देता है। गुप्तकालीन कलाकृतियों से स्पष्ट है कि वास्तुशिल्पी उत्कृष्ट रहे होंगे। इस काल की विभिन्न कलाकृतियों में कल्पना व यथार्थ का अद्भुत मिश्रण है।
श्रेणी संगठन- गुप्तकाल में व्यापारिक संगठनों की संख्या व क्षेत्र में वृद्धि हो गयी थी। प्राचीन काल के व्यापारिक संगठनों को श्रेणी, निगम या निकाय कहा जाता था। वृहत्कल्पसूत्र भाष्य के अनुसार गुप्तकाल में निगम का महत्त्वपूर्ण स्थान था। निगम दो तरह के होते थे- एक महाजनी का कार्य करता था तथा दूसरा महाजनी के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करते थे। विभिन्न व्यवसायिक सम्प्रदायों की अलग-अलग श्रेणियाँ होती थीं। श्रेणी संगठनों का कार्य सिर्फ आर्थिक ही नहीं था वरन् समाज के राजनैतिक व सांस्कृतिक पक्षों से भी जुड़ा हुआ था। इन्हें सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। शूद्रक के मृच्छकटिकम् में तो न्यायाधिकरण में भी व्यापारियों को सम्मिलित किया गया है। विभिन्न अभिलेखों में इनके लिए नगर श्रेष्ठी, सार्थवाह, प्रथम कुलिक आदि नामों का उल्लेख हुआ है। वैशाली से प्राप्त मुहरों से भी श्रेणी-संगठनों के अस्तित्व का बोध होता है। बसाढ़ उत्खनन से महाजनों, व्यापारियों और सार्थवाह के संयुक्त वृत्तिसंघ की दो सौ चौहत्तर सीले मिली हैं। इन पर महाजनों, व्यापारियों तथा वणिकों के निगम या संघों के निर्देश अंकित हैं। इन लेखों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वणिकों और शिल्पियों के संघ वाणिज्यिक कारोबार के लिए बनाये गये थे।
उत्तरी भारतवर्ष के अनेक व्यापारिक नगरों में इनकी शाखायें थीं तथा सदस्य थे। ईशानदास, मृतदास और गोमिस्वामिन से संबंधित सीलों की संख्या अधिक है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि ये आर्थिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे। कुमारगुप्त और बुद्धगुप्त के अभिलेखों से स्पष्ट है कि कोटिवर्ष विषय का राज्यपाल वैत्रवर्मन एक समिति (जिसके सदस्य नगरश्रेष्ठि, सार्थवाह प्रथम, कुलिक आदि होते थे) की सहायता से राज्य करता था। स्कंदगुप्त के 465 ई. के इंदौर ताम्रपत्र लेख में इन्द्रपुर की तैलिक श्रेणी का उल्लेख मिलता है। इसमें धन जमा कराया जाता था जिसके ब्याज से सूर्य मंदिर में दीपक जलाने हेतु तेल की व्यवस्था की गई थी। गुप्तकाल में तमोलियों की श्रेणियों का भी उल्लेख मिलता है। इस युग में श्रेणियाँ स्वतंत्र इकाईयों के रूप में गतिशील बनी रहीं। इनके नियमों को राजा मान्यता प्रदान करता था। नारद के अनुसार- राजा को श्रेणियों के नियमों को मान्यता प्रदान करनी चाहिये। संगठन में फूट डालने वाले को कठोर दण्ड देना चाहिए।
इस समय तक श्रेणियों के संगठन का निर्माण हो चुका था। बृहस्पति स्मृति के अनुसार श्रेणी संगठन की एक प्रबंधकारी समिति होती थी जिसमें पाँच, तीन या दो सदस्य होते थे। उस समिति का एक प्रधान होता था। प्रबंध समिति के सदस्य कार्य-निपुण, सत्यनिष्ठ, कर्त्तव्यनिष्ठ, ज्ञाता, योग्य और उच्चकुल के होते थे। याज्ञवल्क्य के अनुसार भी अत्यन्त चरित्रवान्, कार्यचिन्तक और शुद्ध व्यक्ति ही प्रबंधकारी बनाया जाता था जो संस्था के सदस्यों की कार्यप्रणाली की देखभाल करता था। नियमों की अवमानना करने वाले सदस्यों को वह दण्डित करता था लेकिन वह निरंकुश नहीं हो सकता था।
व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि के साथ ही श्रेणियों की संख्या में वृद्धि हुई। आर्थिक संबंधों में जटिलता पैदा होने लगी। क्रेता व विक्रेताओं के झगड़ों को निबटाने के लिए स्मृतिकारों ने बहुत से नियम बनाये हैं। मनु, याज्ञवल्क्य, नारद आदि ने विवाद के वर्गीकरण में अस्वामिविक्रय, क्रयविक्रयानुशय आदि को सम्मिलित किया है, जिनका संबंध क्रय-विक्रय से है। प्रो. लल्लनजी गोपाल के अनुसार पूर्वकाल की तुलना में इस काल में सबसे अधिक उल्लेखनीय परिवर्तन यह था कि पहले राज्य मूल्य-निर्धारण करने के अधिकार का उपयोग करने के लिए तत्पर रहता था। इस काल में एक उदार और उन्मुक्त नीति अपनाई गई थी। वह संगठनों के नियमों को पालित कराता था। विपत्ति और संकट के समय राज्य को इन श्रेणियों से ऋण भी प्राप्त होता था। श्रेणियाँ आर्थिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न होती थीं। विश्रामगृह, सभागृह, आदि जनकल्याण से संबंधित निर्माण कार्य श्रेणियों द्वारा संपन्न कराये जाते थे। मन्दसौर अभिलेख में उल्लिखित है कि रेशम के व्यापारियों ने सूर्य का एक भव्य मंदिर निर्मित करवाया तथा कालान्तर में उसके भग्न होने पर पुन: उसी श्रेणी ने इसकी मरम्मत कराई थी। श्रेणियाँ अपनी स्वयं की मुद्राएँ भी प्रचलित करती थीं। नालन्दा, कौशाम्बी, वैशाली से उत्खनन में बहुत-सी मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, जो निगमों की हैं। इन पर नैगम शब्द अंकित है। प्राचीन काल में श्रेणियाँ बैंकों की भाँति भी कार्य करती थी और विभिन्न संस्थाओं व व्यक्तियों के धन को सुरक्षित रखती थीं। समय पड़ने पर ये ऋण भी प्रदान करती थीं। इनके अपने न्यायालय भी होते थे जो सदस्यों के झगड़ों का निबटारा करते थे। इनको राजा भी मान्यता प्रदान करता था। विष्णुसेन सन् 592 के एक से एक पश्चिमी भारत में राजा तथा व्यापारियों के संबंधों जानकारी मिलती है। गुप्तकाल के आर्थिक जीवन में श्रेणियाँ अत्यन्त सक्षम गयी थीं और राजसत्ता के समानांतर आकर खड़ी हो गयी थीं। फिर भी राज्य अपेक्षा की जाती थी कि वह उनके अनैतिक व अवांछित वर्गों को प्रतिबंधित करे।
श्रेणियों ने अपनी सैन्य व्यवस्था भी विकसित कर ली थी जिससे उनकी सुरक्षा की समस्या भी हल हो गयी थी। मन्दसौर अभिलेख से विदित होता है कि रेशम बुनने वाली श्रेणी के लोग धनुर्विद्या में पारंगत थे। गुप्तकाल के अंतिम चरणों में वृत्ति संघ व्यवस्था में गिरावट दिखाई देती है।
सिक्के- गुप्तकालीन सिक्के बहुतायत में प्राप्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में गुप्तकालीन सिक्कों की निधियाँ प्राप्त हुई हैं। गुप्त साम्राज्य के विभिन्न भागों में सिक्कों के 16 ढेर प्राप्त होते हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण बयाना (भरतपुर) क्षेत्र का ढेर है। चन्द्रगुप्त प्रथम और समुद्रगुप्त के प्रारंभिक सोने के सिक्के 118-122 ग्रेन के थे। इन शासकों ने कुषाणों के मानदंड को आधार बनाया था। गुप्त अभिलेख में उसे दीनार कहा गया था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पहली बार कुषाणों के मानदंडों का परित्याग किया। उसके स्वर्ण सिक्के 124-132 ग्रेन के हैं। स्कंदगुप्त ने स्वर्ण सिक्के के दीनार मॉडल को छोड़ दिया। उसके स्वर्ण सिक्कों के वजन अधिक हैं किन्तु उसमे स्वर्ण की मात्रा कम है। चांदी के सिक्के सबसे पहले चन्द्रगुप्त द्वितीय ने जारी किए। उसने शक मॉडल को छोड़कर कार्षापण मॉडल को अपनाया। अधिकतर गुप्त सिक्के सुवर्ण व् चांदी के हैं। गुप्तकाल में इनकी तौल 125 से 127 ग्रेन प्रचलित थी। स्कन्धगुप्त के सिक्के 144 ग्रेन के भी हैं। कुछ विद्वान् यह मानते हैं की गुप्तकाल में अर्थव्यवस्था में ह्रास हुआ। इसका आधार परवर्ती गुप्त शासकों की मिलावटी मुद्राएँ हैं। जिनमे स्वर्ण के अनुपात में कमी आ गयी थी। कुमारगुप्त प्रथम के अंतिम काल व स्कंदगुप्त के काल में आर्थिक ह्रास परिलक्षित होता है। संभव है इसका कारण हूण आक्रमण रहा हो। फाह्यान का तो यहाँ तक कहना है कि लोग दैनिक कार्यों के लिए कोड़ियों का प्रयोग करते थे। यह स्थिति विरोधाभास लिए हुए है कि एक तरफ सुवर्ण सिक्कों का प्रयेाग और दूसरी तरफ कोड़ियों का प्रचलन। इतिहासकार लल्लनजी गोपाल के अनुसार मूल्यों की नीची दरों के कारण चाँदी और सोने के सिक्कों का उपयेाग दैनिक जीवन में सीमित था।
व्यापार व वाणिज्य- गुप्तकाल में विदेशी आक्रमणों से मुक्ति, विशाल भू-भाग की राजनैतिक एकता और प्रशासनिक स्थिरता से व्यापार व वाणिज्य का विकास हुआ।
आांतरिक व्यापार- गुप्तकालीन आंतरिक व्यापार श्रेष्ठि, सार्थवाह, कुलिक और निगम के माध्यम से संगठित होता था। ग्रामीण क्षेत्रों में दुकानों के अलावा साप्ताहिक हाट भी लगते थे, जहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया जाता था। बाजारों को विपणि की संज्ञा प्रदान की गयी थी। पण्यवीथी (सड़क) के दोनों तरफ दुकानें होती थीं जिन पर लोगों के उपभोग की वस्तुएँ उपलब्ध रहती थीं। अमरकोश में भी सड़क के दोनों ओर दुकानें होने का उल्लेख है। भीटा के उत्खनन से भी यह जानकारी होती है कि सड़कों के दोनों ओर दुकानें होती थीं। पंचतंत्र में व्यापार को श्रेष्ठ कहा गया है तथा व्यापार के लिए माल सात विभागों में विभाजित किया गया है- (1) गंधी का व्यवसाय (2) रेहन बट्टे का कार्य (3) पशुओं का व्यापार (4) परिचित ग्राहक का आना (5) माल का झूठा दाम (6) झूठी तौल रखना तथा (7) विदेश में माल पहुँचाना। ऐसे व्यापारी जो अपनी वस्तुओं को घोड़ों, बैलों या अन्य पशुओं अथवा रथों पर लादकर समूह में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैदल जाते-आते थे तथा क्रय-विक्रय करते, सार्थ कहलाते थे। सार्थवाह व्यापारियों का नेता होता था। वैशाली से ऐसी कई प्रकार की मुहरें मिली हैं, जिन पर सार्थवाह अंकित है। राजा भी व्यापारिक गतिविधियों में रुचि लेता था और व्यापार को संरक्षण प्रदान करता था। प्रशासन भी उनके नियमों को मान्यता प्रदान करता था। नारद स्मृति में कहा गया है कि यदि यात्रा करने वाला व्यापारी माल के साथ अपने देश लौटता है और उसकी मृत्यु हो जाती है तो राजा का यह कर्त्तव्य था कि वह माल को तब तक सुरक्षित रखे जब तक उसके उत्तराधिकारी नहीं आते। सार्थ के व्यापारियों में एकता होती थीं। ये हानि लाभ के लिए समान रूप से उत्तरदायी होते थे। इनमें व्यापारी, वाहन (घोडे, ऊँट, बैल आदि), भारवाह (माल ढोने वाले लोग), औदारिका (आजीविका के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने वाले लोग), साधु और भिक्षु आदि होते थे। व्यापारिक मागों पर कहीं-कहीं दस्युओं का प्रकोप रहता था। लेकिन फाह्यान को अपनी भारत यात्रा के दौरान इसका सामना नहीं करना पडा। इससे इस काल की आन्तरिक सुरक्षा परिलक्षित होती है। आन्तरिक व्यापार स्थल व जल दोनों के माध्यम से होता था। बंगाल में नदियों का बाहुल्य था। संभव है कि वहाँ व्यापार नदियों के द्वारा ही होता होगा। कालिदास के रघुवंश में उल्लेख है कि अयोध्यावासी सरयू के द्वारा व्यापार करते थे। पश्चिम व दक्षिण भारत में व्यापारिक मार्ग अवश्य रहे होंगे। समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ विजय का मार्ग और चन्द्रगुप्त के गुजरात विजय के मार्ग आदि से भी आंतरिक व्यापार अवश्य होता होगा। सामान्यत: वैश्य ही व्यापारिक क्षेत्र में सक्रिय रहते थे लेकिन आपद्धर्म में धर्मशास्त्रकारों ने भी ब्राह्मणों को व्यापार करने की छूट दी है। धर्मशास्त्रों में व्यापार करने योग्य व न करने योग्य वस्तुओं की सूची दी गयी है।
विदेशी व्यापार- साहित्यिक स्रोतों से स्पष्ट हो जाता है कि गुप्तकाल में वैदेशिक व्यापार विकसित था और समुद्री मार्ग द्वारा होता था। छठी शती के लेखक कासमश ने अपने ग्रन्थ क्रिश्चियन टोपोग्राफी में सिन्दुस, आोरोंथा, कल्याण, चोल, मालाबार आदि बंदरगाहों का उल्लेख किया है। गुप्तकाल की स्थापना तक रोमन व्यापार का पतन हो चुका था और दक्षिण के तीन बंदरगाह मुजरिस, अरिकमेडु और कावेरी पतनम् भी अमहत्त्वपूर्ण हो चुके थे। किन्तु यह भी एक तथ्य है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद बाइजेण्टाइन साम्राज्य स्थापित हुआ। और फिर भारत का व्यापारिक संबंध उससे पुन: स्थापित हो गया। गुप्त शासकों ने इथोपिया के माध्यम से बाइजेंटाइन साम्राज्य तक पहुँचने की कोशिश की थी क्योंकि हम देखते हैं कि कॉसमश भारत एवं इथोपिया के व्यापार का उल्लेख करता है। दूसरी तरफ रोमन सम्राट् जस्टिनियन ने इथोपिया नरेश हेल्लेस्थेयास से समझौता किया ताकि वह फारसवासियों की शत्रुता का सामना कर सके। 550 ई. तक रोमवालों ने चीनी लोगों से रेशम बनाने की कला सीख ली। इसके साथ भारत की मध्यस्थ की भूमिका समाप्त हो गई। इसके साथ रोमन व्यापार को एक बार धक्का लगा। किन्तु यह भी सत्य है कि गुप्तकाल में जहाँ रोमन व्यापार का पतन हुआ वहीं चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार में वृद्धि हुई। कॉसमश कहता है कि छठी सदी के मध्य में भारत का पूर्वी एवं पश्चिमी तट श्रीलंका के माध्यम से जुड़ते थे। चीन और भारत के बीच व्यापार संभवत: वस्तुओं की अदला-बदली पर आधारित था क्योंकि न तो चीन के सिक्के भारत में मिलते हैं और न भारत के सिक्के चीन में। इथोपिया से हाथी दांत, अरब से घोडे और चीन से रेशमी वस्त्र मंगाए जाते थे। कॉसमश के अनुसार भारत के महत्त्वपूर्ण बंदरगाह निम्नलिखित थे- 1. सिन्ध, 2. गुजरात, 3. कल्याण, 4. चोल और मालाबार तट पर पाँच बंदरगाह 1. परती, 2. मंगलौर, 3. शलीपत्तन, 4. नलोपत्तन, 5. पांडोपत्तन।
कालिदास की रचनाओं जैसे अभिज्ञानशाकुन्तलम्, रघुवंश, कुमारसंभव आदि से भी गुप्तकालीन व्यापारिक जीवन की झांकी मिलती है। समकालीन विश्व के बहुत से देशों से भारत के व्यापारिक संपर्क थे। उनसे बहुत सी वस्तुएँ आयात व निर्यात की जाती श्रीं। पूर्वी देशों में ब्रह्मा, चीन, स्वर्णभूमि आदि से व्यापार किया जाता था। प्रथम सदी के पेरिप्लस नामक ग्रन्थ में भारत से आयात व निर्यात होने वाली वस्तुओं के नाम मिलते हैं। भृगुकच्छ, कल्याण, ताम्रलिप्ति, माले (मालाबार) आदि गुप्तकालीन प्रमुख बंदरगाह थे। गंगा के डेल्टा पर स्थित ताम्रलिप्ति भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। यहाँ स्थल और जल दोनों मार्ग मिलते थे। रघुवंश और दशकुमार चरित से भी स्पष्ट है कि ताम्रलिप्ति बंदरगाह से व्यापारिक वस्तुओं का आयात-निर्यात अधिक होता था। चीनी यात्री फाह्यान ने कपिशा का उल्लेख किया है जहाँ से ईरान होकर भारतीय वस्तुएँ अन्य देशों को जाती थीं। भारत से बाहर जाने वाली वस्तुओं में उल्लेखनीय थीं- रेशम, लौंग, चंदन, मोती, कपडे, चाँदी, हाथीदाँत, गैडे के सींग, केसर, सुगंधित पदार्थ, लोहे का बना सामान, प्रसाधन सामग्री आदि। रेशम के अलावा मलमल, कलिंग क्षेत्र का कालिंगम् नामक वस्त्र तथा कामरूप का महीन वस्त्र आदि भी निर्यात होता था। बाहर से आने वाली वस्तुओं में चीनांशुक नामक कौशेय वस्त्र उल्लेखनीय है जिसका आयात चीन से होता था। कम्बोज देश से घोड़े आदि भी आते थे। अरबी घोड़ों की भी भारत में मांग थी। पेरिप्लस में उल्लेख आया है, नम्बरस् के राज्य में निम्नलिखित वस्तुयें लायी जाती हैं- सुरा, लाओदिकी, अरबी, टिन, सीसा, मूंगा, महीन-मोटे विभिन्न प्रकार के वस्त्र, हाथ भर चौडे चमकीले कमरबन्द, काँच, सिंदूर, स्वर्ण-रजक की मुद्राएँ, अनेक प्रकार के मरहम (अवलेह), राजा के लिए अनेक प्रकार के उपहार, भेंट, चाँदी के मूल्यवान बर्तन, गायक लड़के, अन्त:पुर के लिए सुन्दर युवतियाँ, पुरानी मदिरा आदि।
पश्चिमी बंदरगाहों से गजदंत, गोमेद, लाल, मलमल, मोटा वस्त्र, रेशम, सूत, पीतल आदि की वस्तुयें निर्यात की जाती थीं। भारतीय मिट्टी के पात्र भी इस समय निर्यात होते थे जो विदेशों में लोकप्रिय थे। दक्षिण भारतीय बंदरगाहों से विदेशों को भेजी जाने वाली वस्तुयें थीं-काली मिर्च, मोती, गजदन्त, पारदर्शी पत्थर, हीरा, नीलम, गोमेद, मूंगा, कछुए के आवरण आदि। कस्तूरी शैलेय, काली मिर्च, सफेद मिर्च, इलायची, मालाबार के बंदरगाह से निर्यात होती थी। बाँस, बारहसिंह के सींग भी विदेश को निर्यात होते थे। लाल मोती, बिल्लौर कुरूंड, सीसा आदि पश्चिमी देशों को भेजी जाने वाली व्यापारिक वस्तुएँ थीं। भारतीयों का व्यापार चीन, शकस्थान, हिन्दूकुश, रोम, फारस, अरब, इथोपिया, मिस्र आदि देशों तक फैला हुआ था। रोम के साथ भी भारतीय विदेशी व्यापार इस समय तक प्रचलित था, परंतु पांचवीं शताब्दी के प्रारंभ में रोम साम्राज्य के पतन के पश्चात् व्यापार गिर गया। चौथी से छठी शताब्दी ई. की रोमन मुद्राएँ दक्षिण भारत के क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं, जिनसे व्यापारिक संबंधों की पुष्टि होती है। बहुमूल्य रत्न चाँदी, लौह उपकरण, ऊनी कपडे, मसाले आदि ईरान से व्यापार के माध्यम से जाते थे। अरब में दवा नामक स्थान पर वार्षिक मेला होता था। जिसमें भारतीय व्यापारी भाग लेते थे। दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों से भी व्यापार में बढ़ोत्तरी हुई, साथ ही सांस्कृतिक संपर्क भी बढ़े। दक्षिण पूर्वी एशिया से प्राप्त कलावशेषों से भी इसकी पुष्टि होती है। फाह्यान ने ताम्रलिप्ति से श्रीलंका होते हुए चीन की यात्रा एक बड़े समुद्री जहाज से की थी। चीन की तरफ जाने के लिए समुद्री मार्ग के अलावा कई स्थल मार्ग भी थे जैसे सुलेमान व कराकोरम पहाड़ी से होकर जाने वाला मार्ग।
गुप्तकाल में आन्तरिक व्यापार स्थलमार्ग व जलमार्ग (नदियों द्वारा), दोनों प्रकार से होता था। पाटलिपुत्र, मथुरा, अयोध्या, उज्जैन, भडौंच, कौशाम्बी आदि प्रमुख नगर व्यापारिक गतिविधियों के केन्द्र थे। उज्जैन और पाटलिपुत्र अपने व्यापार के लिए अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे। पादताडितकम् में उल्लेख आया है की उज्जैन के बाजारों में देशी और विदेशी व्यापारिक वस्तुओं का जमावड़ा था। यहाँ पर घोड़े, रथ, हठी आदि का विक्रय होता था। पाटलिपुत्र से भड़ौच जाने वाला प्रमुख मार्ग था। मौर्यकाल से पूर्व ही पथों व् मार्गों का विकास हो चुका था। गुप्तकालीन शासकों ने इन्हें और विकसित किया। गुप्त शासकों द्वारा किए गए विजय अभियानों से स्पष्ट होता है की आतंरिक क्षेत्र में मार्गों की समुचित व्यवस्था रही होगी। समुद्रगुप्त के दक्षिण की ओर किये गये विजय अभियानों से स्पष्ट ह उत्तर से दक्षिण तक पथों का विस्तार था।
गुप्तकाल में मार्गों की पूरी सुरक्षा की जाती थी। लोग निर्भय होकर यात्रा किया करते थे। चीनी यात्री फाह्यान ने पश्चिमी भारत से पूर्वी विभिन्न नगरों व स्थानों का भ्रमण किया था। किन्तु मार्ग में असुरक्षा महसूस नहीं की। गुप्तों के शासन के उपरांत स्थिति पूर्णतः परिवर्तित हो चुकी थी। देश से सुरक्षा और भय का वातावरण समाप्त हो चुका था पुष्टि ह्वेनसांग के यात्रा विवरण से भी होती है। उसे अपने यात्रा-काल में सी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। गुप्तकाल में जलमार्ग का भी अधिक प्रचलन था। नदियों (सिंधु, रावी, चिनाब, गंगा, यमुना, सरयु, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा व कावेरी आदि) द्वारा व्यापार किया जाता था। वैदेशिक व्यापार में बड़े-बड़े समुद्री जलपोतों का उपयोग किया जाता था। फारस, मिस्र, बाली, सुमात्रा, जावा, सुवर्णभूमि आदि देशों से व्यापार समुद्री मार्ग से ही होता था।