सरकारी नीतियों का अभिकल्पन एवं कार्यान्वयन एवं उससे उत्पन्न विषय Design And Implementation Of Government Policies And The Resulting Topics

किसी नीति का निर्माण कुछ उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। किसी नीति का अभिकल्पन एवं कार्यान्वयन का निर्गत सकारात्मक प्रभाव वाला होना चाहिए।

दरअसल, नीति वह माध्यम या साधन है जिसके सहारे लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है। किसी भी राष्ट्र के सामने आंतरिक और बाह्य कई तरह की समस्याएं होती हैं। इन समस्याओं से निबटने के लिए उन समस्याग्रस्त क्षेत्रों से संबद्ध नीतियां बनानी पड़ती हैं। नीतियों के अभाव में न तो वर्तमान समस्याओं से निबटा जा सकता है और न ही भावी-संकट को चिन्हित कर उसका समाधान किया जा सकता है। नीतियों का अभाव अंततः अराजकता को ही आमंत्रित करता है।

नीति गतिशील और लचीली होती है। जरूरत को देखते हुए नीति में आसानी से परिवर्तन किया जा सकता है, जबकि नियम अपेक्षाकृत जटिल और कठोर होते है। नीतियां सामान्यतः नियमों की अपेक्षा विस्तृत होती हैं। एक व्यापक नीति के अंतर्गत ही नियम बनाए जाते हैं। नियम नीति के अंतर्गत मूलतः मार्गदर्शक की तरह होते हैं जो करने और न करने योग्य कायों में अंतर करते हैं।

लोकनीति प्रधानतः सरकारी क्षेत्र से संबद्ध है। गैर-सरकारी क्षेत्र इससे प्रभावित हो सकते हैं और इसे प्रभावित भी कर सकते हैं। नीतियां मूलतः मार्गदर्शक हैं जो योजना बनाने, संविधान के अनुरूप कार्य करने तथा वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता देती हैं। नीतियां अपने स्वरूप में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकती हैं। सकारात्मक रूप में इसमें किसी प्रश्न या समस्या के संदर्भ में सरकारी हस्तक्षेप का निर्णय शामिल हो सकता है जबकि किसी प्रश्न या समस्या के संदर्भ में अहस्तक्षेप की नीति भी अपनाई जा सकती है। यह इसका नकारात्मक स्वरूप है।

चूंकि लोकनीतियां राष्ट्र के सभी नागरिकों के जीवन से संबद्ध होती हैं, उनके जीवन के लगभग प्रत्येक पहलू को छूती हैं, इसलिए नीति निर्माण की प्रक्रिया में समूची राजनीतिक व्यवस्था शामिल रहती है। अतः इस प्रक्रिया में सरकार के विभिन्न अंगों के साथ-साथ गैर सरकारी माध्यमों की भूमिका भी होती है। नीति निर्माण के लिए कई बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। मार्टिनस्टारके अनुसार सामान्य रूप से प्रयोग में लाई जाने वाली नीतियों के निर्माण के लिए निम्नलिखित तीन नियमों की आवश्यकता होती हैं-

  1. संतुलन को प्राप्त करने का प्रयास करें न कि श्रेष्ठता को।
  2. नीति और सामाजिक मूल्यों को आधार मानकर प्रयोग करें। बड़े आकार की व्यवस्था को ध्यान से दूर रखें।
  3. स्वीकृत परंपरा पर चलें और नवीनीकरण से बचे।

नीति-निर्माण की विशेषताएं इस प्रकार हैं

  • लोकनीति निर्माण की प्रकृति भविष्योन्मुखी होती है अतः इसके निर्माण के समय भविष्य की अनिश्चितताओं, आशंकाओं एवं समस्याओं का संभावित अनुमान लगाना पड़ता है।इसलिए लोकनीतियों के विविध उपबंधों में ऐसा लचीलापन रखा जाता है ताकि भविष्य में आवश्यकतानुसार कुछ घटाया-बढ़ाया जा सके।
  • नीति-निर्माण का मुख्य चिंतन लोकहित की पूर्ति पर केंद्रित रहता है अतः लोकनीति निर्माण के समय जनहित के विविध पक्षों को ध्यान में रखा जाता है।
  • किसी देश की अर्थव्यवस्था, समाज, शासन तथा प्रशासन में उपलब्ध बहुत सारी उपसंरचनाएं लोक नीति की संरचना को प्रभावित करती हैं।
  • लोकनीति निर्माण सरकारी निर्णयों की परिणति कहलाती है अर्थात् निर्णय ही कालांतर में नीति का रूप धारण करते हैं।
  • स्वयं लोकनीति तथा इसके निर्माण की प्रक्रिया परिवर्तनकारी होती है क्योंकि प्रत्येक समाज, सरकार एवं उसके पर्यावरण में निरंतर परिवर्तन आते रहते हैं। किसी एक पक्ष या स्थान का परिवर्तन, अन्य संबंधित आयामों को अवश्य प्रभावित करता है।
  • लोकनीति निर्माण को एक जटिल प्रक्रिया माना जाता है क्योंकि इसमें कई प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तत्व एवं आयाम सहसम्बद्ध होते हैं।

भारत में नीति-निर्माण (अभिकल्पन) संबंधी विषय


ढांचागत विखण्डन

भारत का नीति-निर्माण ढांचा बेहद विखण्डित है। उदाहरणार्थ, भारत सरकार में परिवहन क्षेत्र पांच विभागों/मंत्रालयों द्वारा देखा जाता है जबकि ब्रिटेन एवं अमेरिका में इसके लिए एक विभाग (अमेरिका में परिवहन एवं लोक निर्माण विभाग और ब्रिटेन में पर्यावरण, परिवहन एवं प्रदेश विभाग) है। इसी प्रकार की स्थिति ऊर्जा,उद्योग एवं सामाजिक कल्याण क्षेत्र में भी है।

नीति-निर्माण एवं क्रियान्वयन के बीच अंतर्व्याप्ति

भारत के मंत्रालयों में नीति-निर्माण निदेशक और ऊपर के स्तर परघटित होता है, जबकि बेहद महत्वपूर्ण स्तर भारत सरकार के सचिव स्तर पर है, जो उनके मंत्रियों के मुख्य नीति-परामर्शक होते हैं। इस प्रकार नीति-निर्माण, जहांनागरिकों की जरूरतों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है, समस्याएं उत्पन्न करता है।

नीति-पूर्व कमजोर परामर्श प्रक्रिया

अक्सर लोक नीति सरकार के वाहर के पर्याप्त आगतको शामिल किए बिना बना ली जाती है और न ही इनमें शामिल मुद्दों पर पर्याप्त चर्चा की जाती है। अधिकतर क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञ सरकार के बाहर होते हैं। अभी भी सरकार की नीति प्रक्रिया एवं व्यवस्था में बाहरी आगतों को प्राप्त करने के लिए कोई व्यवस्थागत तरीका नहीं है, न ही जो इस नीतियों से प्रभावित होने वाले हैं या विकल्पों पर चर्चा और विभिन्न समूहों पर उनके प्रभावों पर विचार किया जाता है।

नीति-निर्माण पर अपर्याप्त समय देना

नीति निर्माण पर अपर्याप्त समय देनेका मुख्य कारण नीति-निर्माण एवं क्रियान्वयन में अत्यधिक अंतर्व्याप्त एवं क्रियान्वयन प्राधिकरण का अत्यधिक केंद्रीकरण है।

नीति-निर्माताओं का अपर्याप्त कौशल

एक संप्रदाय जिसका मानना है कि नीति-निर्माण में अप्रशिक्षित समान्यज्ञों की अत्यधिक संलग्नता लचर नीतियों एवं क्रियान्वयन हेतु मुख्य कारण है। हालांकि, जब वास्तविक नीति-निर्माण और कार्य की बात होती है। तो इसे बुद्धिमान, बेहतर सूचना वाले व्यक्ति द्वारा बनाया गया बताया जाता है।

भारत में नीति क्रियान्वयन संबंधी विषय

संवैधानिक स्थिति तो यही है कि विधायिका नीति-निर्माण करती है और कार्यपालिका उसे लागू करती है। लेकिन संसदीय व्यवस्था के संदर्भ में यह अलगाव व्यावहारिक नहीं हो पाता क्योंकि संविधान में ही कार्यपालिका को विधायिका के प्रति उत्तरदायी ठहराया गया है। इतना ही नहीं इस व्यवस्था में विधायिका के सदस्य ही कार्यपालिका के सदस्य होते हैं। इसलिए नीति क्रियान्वयन में विधायिका की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका होती है। नीति-क्रियान्वयन में अप्रत्यक्ष रूप से सही, पर न्यायपालिका भी अपनी भूमिका निभाती है। संवैधानिक नीतियों की व्याख्या का अधिकार न्यायपालिका को है और उसे अंतिम माना जाता है। न्यायालय किसी नीति का उचित क्रियान्वयन नहीं होने पर क्रियान्वयन के लिए आवश्यक आदेश दे सकता है।

नीति क्रियान्वयन मूलतः सरकार का दायित्व है। लेकिन इसमें गैर-सरकारी अभिकरणोंकी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। इसमें विभिन्न तरह केएन.जी.ओ., दबावसमूह, मानवाधिकार संगठन, विभिन्न तरह के नागरिक संगठन इत्यादि को रखा जा सकता है। आर्थिक उदारीकरण के युग में जैसे-जैसे राज्य की भूमिका सीमित होती जा रही है, वैसे-वैसे नीति क्रियान्वयन के क्षेत्र में इन गैर-सरकारी अभिकरणों की भूमिका बढ़ती जा रही है। ये अभिकरण लोक नीतियों को लेकर जनता को जागरूक भी कर रहे हैं और उनके ठीक ढंग से क्रियान्वयन के लिए आवश्यक संघर्ष भी कर रहे हैं। विभिन्न तरह के सामाजिक, आर्थिक कार्यक्रमों में इनकी सक्रिय भागीदारी हो रही है। आम धारणा है कि नीतियां तो बेहद अच्छी होती हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं हो पाता। ठीक ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पाने के कारण ही आजादी के बाद से अपनाई गई तमाम नीतियों ने बारंबार अपने घोषित उद्देश्यों के विपरीत ही परिणाम दिए हैं। अथाह धन खर्च करने के बावजूद भी अधिकांश योजनाएं अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाई हैं। दरअसल भारतीय परिप्रेक्ष्य में नीति क्रियान्वयन एक बड़ी चुनौती है जिस कारण इससे संबंधी कई विषय हमारे सामने उत्पन्न हो गए हैं। ये विषय इस प्रकार हैं

त्रुटिपूर्ण नीति

किसी भी नीति के क्रियान्वयन की प्रथम शर्त है उसका त्रुटिरहित होना। अगर नीति के बुनियादी स्वरूप ही दोषपूर्ण हो तो उसे क्रियान्वित करने में असंख्य बाधाएं आएंगी। कई बार नीतियां बिना गहन अध्ययन एवं शोध के ही तैयार कर ली जाती हैं। इस संबंध में दूसरी बात यह है कि किसी भी नीति के पीछे एक सोच काम करती है। अगर उस सोच में ही बुनियादी कमी हो तो उसका असर नीति पर भी पड़ता है। नीति भी उस कमी की शिकार हो जाती है। ऐसी स्थिति में उसे लागू करना बेहद जटिल हो जाता है और नीति भी अपने वांछित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाती है। सरकारें प्रायः समस्याओं के ऊपरी कारणों पर ध्यान देती हैं उसके बुनियादी कारणों पर नहीं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। नक्सलवाद देश में एक गंभीर समस्या का रूप ले चुका है। इसे आंतरिक सुरक्षा के लिए बेहद बड़ा खतरा माना जा रहा है। इस समस्या से निबटने के लिए अबतक अत्यधिक संसाधन झोंके जा चुके हैं। बावजूद इसके नक्सल आंदोलन कमजोर पड़ने की अपेक्षा शक्तिशाली होता जा रहा है। इसका मूल कारण है कि सरकार इसे कानून एवं व्यवस्था की समस्या अधिकमानती है जबकि यह समस्या अधिकांश रूप से बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा एवं शोषण इत्यादि से जुड़ी है। इस प्रकार यह राजनीतिक-आर्थिक समस्या अधिक है और इससे दोनों मोचाँ पर निबटा जाना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि नक्सल समस्या से निबटने वाली नीति के पीछे सोच काम कर रही है और उसमें वर्तमान समय के अनुरूप परिवर्तन किए बिना वांछित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

क्रियान्वयन प्राधिकारियों का जमीनी हकीकत से अपरिचय

नीति क्रियान्वयन के सम्मुख एक और चुनौतीपूर्ण विषय है जिम्मेदार अधिकारियों का विशिष्ट वर्गीय चरित्र। गौरतलब है कि लोकनीतियां तो आमजन के लिए बनाई जाती हैं और उन्हीं के लिए उनका क्रियान्वयन होता है। लेकिन दुखद बात यह है कि जिन अधिकारियों के हाथ में इन नीतियों का क्रियान्वयन होता है वे जनता के सीधे संपर्क में नहीं होते। वे न तो जनता की भाषा और न उसका सामाजिक मनोविज्ञान समझते हैं। क्षेत्र विशेष की जनता के सामाजिक मनोविज्ञान को समझे विना किसी भी नीति का क्रियान्वयन मुश्किल है। जनता की भावनाओं को न समझने के कारण कई बार अचठी नीतियों को भी क्रियान्वित करना असंभव हो जाता है। इस समस्या को दूर करने हेतु पंचायती राज को सशक्त किया गया है और विकास के कई कार्य प्रत्यक्ष रूप से पंचायतों को सौंपे जा रहे हैं।

जागरूकता की कमी

जागरूकता के अभाव के कारण भी नीतियों का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पाता। कुछ मामलों में तो आम जनता को योजनाओं का पता ही नहीं चलता। जनता के अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं रहने से क्रियान्वयन अभिकरण गैर-जिम्मेदार हो जाते हैं। वे नीतिका क्रियान्वयन मनमाने तरीके से करते हैं या उसे मात्र कागजी कार्रवाई तक सीमित कर देते हैं। किसी भी नीति के क्रियान्वयन के लिए एक जागरूक समाज का होना बेहद जरूरी है, क्योंकि नीतियों से अंततः जनता ही प्रभावित होती है और उसे ही इसके प्रति सचेत होना होगा।

बुनियादी अवसंरचना का अभाव

नीतियों के उचित क्रियान्वयन में एक और बड़ी बाधा नीतियों के अनुकूल बुनियादी ढांचे का न होना भी है। यह अक्सर होता है कि नीतियों को बनाते समय और उन्हें लागूकरते समय उस नीति के आवश्यक बुनियादी ढांचे की चिंता नहीं की जाती जिसके कारण नीतियों का क्रियान्वयन प्रभावी नहीं हो पाता या उसमें काफी देर लग जाती है। सुदूर गांवों में बिजली, सड़क, यातायात आदि जैसे बुनियादी ढांचे की बेहद कमी है। इस बात की अनदेखी करके कई बार नीतियां घोषित कर दी जाती हैं। उदाहरणार्थ,

जिस गांव में सड़क और बिजली नहीं है वहां उसे टेलीफोन एक्सचेंज लगाकर टेलीफोन से जोड़ दिया जाता है। लेकिन बिजली के अभाव में इनका सुचारू रूप से काम करना लगभग असंभव है। इसी तरह कई और मामले होते हैं। जमीनी हकीकत को परखे बिना नीतियों की क्रियान्वित नहीं किया जा सकता।

विशिष्ट वर्गों की अवरोधक भूमिका

नीति क्रियान्वयन के सामने एक जटिल विषय समाज में अभिजात वगाँ से आता है। यह अभिजात वर्ग सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक किसी भी प्रकार का हो सकता है। समाज का यह तबका तमाम सरकारी नीतियों एवं योजनाओं का फायदा खुद ही हड़प लेता है और उसे निचले तबकों तक पहुंचने ही नहीं देता। विकास संबंधी अधिकांश योजनाओं पर इन्हीं तबकों का वर्चस्व होता है। इसमें इनके साथ संबंधित अधिकारियों की भी मिलीभगत होती है। यह बात ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलती है, क्योंकि विभिन्न कारणों से ग्रामीण विशिष्ट वर्ग निर्णायक स्थिति में रहता है। गरीबों के नाम पर चलने वाली तमाम योजनाओं का वह अपने पक्ष में प्रयोग कर लेता है और गरीबों की स्थिति में सुधार नहीं आ पाता।

आंतरिक सुरक्षा की समस्या

भारत में नीति क्रियान्वयन के मार्ग में एक महत्वपूर्ण बाधा एवं चुनौती देश में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति है। देश के आतंकवाद और नक्सल प्रभावित किसी भी क्षेत्र में कोई भी नीति ठीक ढंग से क्रियान्वित नहीं हो पाती। इन क्षेत्रों में कोई अधिकारी या कर्मचारी जाने से कतराता है। वस्तुतः आतंकवाद और नक्सलवाद प्रभावित वही क्षेत्र हैं जो विकास की दृष्टि से बेहद पिछड़े हैं।

1960 के उत्तरार्द्ध में नक्सलवाड़ी जिले में काफी बड़े पैमाने पर किसान आंदोलन का आयोजन हुआ, जिसमें सामंतवादी जमीदारों को साम्यवादी शत्रु घोषित करते हेतु उनके निराकरण हेतु हिंसक उपायों का सहारा लेने की वकालत की गई।

नक्सलवाड़ी जिले से निकलकर नक्सलवादी आंदोलन अन्य राज्यों में भी फैला। इस आंदोलन का आधार भूमिहीन किसानों के गुरिल्ला दल थे, जिन्होंने 1969-1972 की अवधि में अनेक छापामार कार्यवाहियां करके सम्पूर्ण राजनीतिक परिदृश्य पर कारगर प्रभाव डाला। इस विद्रोह का संचालन माओवादी विचारधारा के मुख्य चारू मजूमदार ने किया। 1973 से सरकार द्वारा किए गए सुधारवादी उपायों के कारण किसानों की दशा में काफी सुधार आयातथा हिंसा के प्रसारको रोकने में भी काफी सहायता प्राप्त हुई।

1990 में नक्सलवादी आंदोलन ने आंध्र प्रदेश, बिहार एवं झारखण्ड। के कुछ क्षेत्रों में पुनः जोर पकड़ा। इस बार इसकी जड़ें और अधिक गहरी थीं।इस बार आंदोलन के विभिन्न समूहों के मध्य बेहतर तालमेल, सामंजस्य, संवाद प्रेषण था ताकि देश के विभिन्न भागों से आंदोलन को संचालित किया जा सके। इसका परिणाम तीन बड़े नक्सलवादी समूहों-माओवादी साम्यवादी केंद्र, पीपुल्स वॉर ग्रुप तथा भारतीय साम्यवादी दल (एम-एल)-के संगठन के रूप में सामने आया। बाद में 21 सितंबर 2004 में इन तीनों समूहोंने संयुक्त होकर एक समूह भारतीय साम्यवादी दल (माओवादी) का गठन किया। इस विलय से पूर्व इन तीनों समूहों के मध्य भीषण हिंसा जारी थी, जिसमें इनके अनेक कार्यकर्ता मारे गए थे।

आरंभ में इस आंदोलन का केंद्र पश्चिम बंगाल था, परंतु वर्तमान में नक्सलवाद देश के 630 जिलों में से 180 जिलों में फैल चुका है और अपने खूनी खेल को अंजाम दे रहा है। नक्सलवाद 16 राज्यों की कानून व्यवस्था के लिए चुनौती बन चुका है। लगभग 40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इन्होंने अपनी समानांतर सरकारें, अदालतें एवं सेनाएं स्थापित की हैं। गौरतलब है कि 180 नक्सल प्रभावित जिलों में से 58 जिले इससे अत्यंत रूप से प्रभावित हैं तथा यहां पर भारत सरकार के कानून की बजाए नक्सलियों के अपने कायदे-कानून चलते हैं।

नक्सलियों के आय के स्रोत काफी व्यापक हैं। गृह मंत्रालय के आकलन के अनुसार इस समय नक्सलियों का सालाना बजट 15,000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा का है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में यह बजट 20,000 करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है। नक्सली; कोयले, हीरे, सोने, खनिज अयस्क, व बालू की खानों के साथ-साथ पेट्रोल पम्पों एवं ईट भट्टों तक में वसूली करते हैं। लगभग 40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के लाल गलियारे में कोई भी उद्योग एवं व्यापार इनको चढ़ावा दिए बगैर नहीं चल सकता। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं ओडीशा में होने वाली अफीम एवं गांजा की खेती पर इनका नियंत्रण है।

आज इस संगठन के पास तकरीबन 50 हजार सदस्य हैं जिनमें 22 हजार हथियारबंद हैं एवं विभिन्न राज्यों में 100 प्रशिक्षण शिविर हैं वर्तमान में आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम बंदरगाह से ओडीशा के मलकान गिरि एवं कोरापुट के घने जंगलों से होते हुए छतीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले तक इन माओवादियों ने अपना लाल गलियारा बना लिया है। इन्होंने अपने नियंत्रित क्षेत्र को ब्यूरो में वर्गीकृत किया है। केंद्रीय ब्यूरो में आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं ओडीशा का दक्षिणी क्षेत्र आता है। ओडीशा- छत्तीसगढ़ क्षेत्रीय ब्यूरो में इन राज्यों का उत्तरी क्षेत्र आता है। असम, पश्चिम बंगाल, झारखंड एवं समुद्र तटीय क्षेत्र पूर्वी क्षेत्रीय ब्यूरो के अंतर्गत आता है। केरल, तमिलनाडु महाराष्ट्र व कर्नाटक दक्षिण-पश्चिम क्षेत्रीय ब्यूरो के अधीन है। बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा व पंजाब उत्तर क्षेत्रीय ब्यूरो के अंतर्गत आते हैं।

राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौती बन चुके नक्सलवाद हेतु केंद्र सरकार ने नई रणनीति बनाई है। इसके अंतर्गत माओवादियों के खिलाफ अभियान की कमान राज्य पुलिस संभालेगी और केंद्रीय पुलिस सहायक का कार्य करेगी। जंगल युद्ध के लिए 26 हजार जवानों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। जंगल की जरूरतों के अनुसार प्रशिक्षित और साजो-सामान से लैस 70 कंपनियों को नक्सलियों से सीधी लड़ाई के लिए उतारा जा रहा है। नक्सलियों के खिलाफ, इस अभियान का सूत्र घेरो, रोको एवं हथियार न छोड़े तो मारो रखा गया है। यह अभियान भारत के नक्सल प्रभावित राज्यों विशेषकर झारखंड, बिहार, ओडीशा, छतीसगढ़ एवं आंध्रप्रदेश के 40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में चलाया जाएगा। प्रमुख नक्सल उन्मूलन अभियान इस प्रकार हैं-

  • ग्रे हाउंड्स- यह ऑपरेशन 1989 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा चलाया गया।
  • सलवा जुडूमसलवा जुडूम का अर्थ है शांति मार्च। छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य के वस्तर और दांतेवाड़ा जिलों में नक्सलवादियों से निपटने के लिए वर्ष 2005 में यह अभियान आरंभ किया था। इसमें आम लोगों को हथियारों का प्रशिक्षण देकर नक्सलवाद से मुकाबला करने की रणनीति अपनाई गई थी।
  • कोबरा- इस ऑपरेशन का गठन ओडीशा में वर्ष 2009 में किया गया। वर्तमान में इसमें 2000 जवान शामिल हैं।
  • ग्रीन हंट झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल एवं ओडीशा में चार सर्वाधिक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नक्सलवाद के संपूर्ण उन्मूलन के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों का संयुक्त अभियान।

इसके अंतर्गत सरकार ने नक्सलियों को समाज की मुख्य धारा में लाने हेतु एक पुनर्वास नीति लागू की है। इस नीति के तहत आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली को 1.50 लाख रुपए एक मुश्त व 2500 रुपये प्रतिमाह सहायता राशि प्रदान की जाएगी। सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को एवं अन्य विकास योजनाओं को नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में लागू किया जा रहा है। नक्सलवाद पनपने के मुख्य कारण पिछड़ापन, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव आदि को दूर करने की सरकार द्वारा प्राथमिकता दी जा रही है।

नक्सली और आतंकवादी अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में किसी भी तरह की विकास योजनाओं को क्रियान्वित नहीं होने दे रहे हैं। जिन हिस्सों में इस तरह की समस्या नहीं है वहां भी आंतरिक सुरक्षा की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। सुदूर क्षेत्रों में स्थानीय दबंग जातियों और असामाजिक तत्वों का आतंक कायम है। इनके रहते कोई अधिकारी वहां सुरक्षित महसूस नहीं करता। फलस्वरूप वह इन के दबाव में काम करने को मजबूर हो जाता है। जब तक अपराध को नियंत्रित नहीं किया जाएगा तब तक किसी भी नीति का उचित क्रियान्वयन नहीं हो सकता।

इस प्रकार नीति क्रियान्वयन में असफलताओं ने उपरोक्त विषयों को उत्पन्न किया है जिनका यथाशीघ्र समाधान करना होगा ताकि विकास प्रक्रिया को वांछित गति प्रदान की जा सके।

एक बात जो बेहद महत्वपूर्ण है कि नीतियों को लागू करने के पश्चात् उससे पड़ने वाले प्रभावों का वस्तुनिष्ठ ढंग से मूल्यांकन आवश्यक है। नीतियों के मूल्यांकन से ही इस बात का पता लगाया जाता है कि जिन लक्ष्यों और उद्देश्यों के लिए नीतियों की शुरुआत हुई उसमें कहां तक सफलता मिली? नीतियों का मूल्यांकन इसलिए भी जरूरी है ताकि यह पता लगाया जा सके कि जिन तबकों और समूहों के लिए नीति का निर्माण और उसका क्रियान्वयन किया गया, उन तक इन नीतियों का कितना लाभ पहुंचा? इसी के साथ-साथ मूल्यांकन के द्वारा यह भी देखा जाता है कि अगर लक्षित समूहों की नीतियों का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पा रहा है तो उसमें कौन से सुधार लाए जाएं कि नीतियां अपने वांछित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें। मूल्यांकन में नीतियों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों का विस्तृत विवेचन कर आगे का मार्ग तैयार किया जाता है।

आज दुर्भाग्य यह है कि 6 दशक बाद भी लोकनीति की समस्त प्रक्रिया से समाज का बहुलांश गायब है। आज भी नीति-निर्माण प्रक्रिया में उन वंचित तबकों के लिए कोई जगह नहीं है। यह विडंबना ही है कि जो तवका नीतियों से सर्वाधिक प्रभावित होता है और जिसके लिए अधिकांश नीतियां बनाई जाती हैं, वही इस नीति-निर्माण प्रक्रिया से बाहर है। देश की बहुसंख्यक आबादी को दर किनार कर बनाई गई नीति कभी कारगर नहीं हो सकती। यदि नीतियों की सफल एवं प्रभावी बनाना है तो इसके लिए नीति-निर्माताओं को इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।

केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं पर बी.के. चतुर्वेदी समिति की रिपोर्ट

भारत में राज्यों द्वारा केंद्र प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) की लोचशीलता के अभाव पर चिंता जताई जा रही है। सभी स्टेकहोल्डर्स की चिंताओं पर विचार करते हुए योजना आयोग ने केंद्र प्रायोजित योजनाओं की लोचशीलता एवं क्षमता बढ़ाने के लिए मार्च 2011 में योजना आयोग के सदस्य श्री बी.के.चतुर्वेदी की अध्यक्षता में एक उप समिति गठित की। उपसमिति ने विभिन्न केंद्रीय मंत्रियों के साथ व्यापकविचार-विमर्श किया। इसने बारहवें पंचवर्षीय योजना की तैयारी के लिए प्रादेशिक स्तरीय आयोजित परामर्श में भी हिस्सा लिया, जहां पंचायती राज संस्थान, विद्वान, जाहिर कीं। उपसमिति ने सितंबर 2011 में अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली। रिपोर्ट ने, अनुशंसाओं के अतिरिक्त, सीएसएस के ढांचे एवं कार्यप्रणाली से उत्पन्न विषयों पर गहरी समझ प्रदान की। सीएसएस के विभिन्न पहलुओं पर उपसमिति की अनुशंसाएं निम्न हैं-

  • समिति ने सीएसएस की भारी भरकम संख्या को देखते हुए इसे तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करने की सिफारिश की जैसे श्रेणी-1 (फ्लैगशिप कार्यक्रम), श्रेणी-2 (उप-क्षेत्रीय योजनाएं); श्रेणी-3 (अम्ब्रेला स्कीम्स)।
  • सीएसएस पूरे देश को सम्मिलित करती हैं और इसलिए अत्यधिक रूप से विविघ, जनांकिकीय, भौगोलिक, आर्थिक एवं ग्रामीण और शहरी जरूरतों को शामिल करती हैं। इसलिए सभी श्रेणी-2 और श्रेणी-3 की सीएसएस के लिए 20 प्रतिशत वित को फ्लेक्सी फण्ड के तौर पर रखने का प्रस्ताव किया गया।
  • सीएसएस की भौतिक एवं वित्तीय मानदंडों में लोचशीलता हेतु समिति ने कई सुझाव दिए।
  • समिति ने मौजूदा सीएसएस के फॉडंग प्रारूप में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की अनुशंसा नहीं की।
  • समिति ने सीएसएस के प्रभावी एवं अर्थपूर्ण मूल्यांकन के लिए एक स्वतंत्र अभिकरण द्वारा निगरानी की अनुशंसा की जो क्रियान्वयन प्रक्रिया का हिस्सा न हो।
  • सभी सीएसएस के दो भाग होंगे। पहला कि नियमित निगरानी के लिए एक तंत्र होगा और इसके कार्यों को मंत्रालय की बेबसाइट पर डाला जाएगा। दूसरा, मूल्यांकन स्वतंत्र होना चाहिए।
  • तकनीकी प्रकृति की सीएसएस में इस प्रकार की क्षमता का निर्माण किया जाना चाहिए।
  • योजना आयोग को संगठनों की एक सूची तैयार करनी चाहिए जो राज्यों में निगरानी एवं मूल्यांकन कर सकें।

स्वास्थ्, शिक्षा, मानव संसाधन के विकास एवं प्रबंधन से संबंधित विषय

सामाजिक क्षेत्र के कई नाम हैं जिसे गैर-लाभकारी क्षेत्र और गैर-सरकारी क्षेत्र के विकल्पों के तौर पर भी जाना जाता है। स्वैच्छिक क्षेत्र, तीसरा क्षेत्रं, स्वतंत्र क्षेत्र और मिशन आघारित क्षेत्र अन्य ऐसे वैकल्पिक नाम हैं जिन्हें प्रस्तावित किया जाता रहा है।

भारत की नई आर्थिक नीति तीव्र आर्थिक वृद्धि के लिए अनुकूल माहौल उत्पन्न करने में बेहद सफल रही, लेकिन इस बात पर बहस बनी रही कि सामाजिक क्षेत्र जैसे- मूलभूत शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि के विकास पर पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं दिया गया। इस बात की जांच करना बेहद महत्वपूर्ण है कि क्या अपर्याप्त सामाजिक क्षेत्र व्यय ने भारत के मानव पूंजी निर्माण को बाधित किया है। संवृद्धि का सिद्धांत स्पष्ट करता है कि उत्पादन संवृद्धि की महत्वपूर्ण आगत में भौतिक पूंजी और श्रम के अतिरिक्त, मानव पूंजी एक अन्य महत्वपूर्ण आगत है। इसलिए विकासशील देशों को अपने संसाधनों का एक महत्वपूर्ण भाग स्वास्थ्य एवं शिक्षा में निवेश करना चाहिए।

हालांकि, भारत में जहां जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सार्वजनिक व्यवस्था पर अत्यधिक निर्भर है, सार्वजनिक निवेश न केवल बेहद महत्वपूर्ण है अपितु इस संदर्भ में इसके उच्च निवेश की आशा की जाती है। हालांकि, भारत में, स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट 2005 के अनुसार, भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति व्यय (96 रुपए) चीन, अमेरिका (क्रमशः 261 रुपए और 5274 रुपए) जैसे देशों से बेहद निम्न है। वास्तव में, सभी राज्यों द्वारा कुल सामाजिक क्षेत्र व्यय में स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर व्यय का हिस्सा 1990-91 के दौरानक्रमशः 16प्रतिशत एवं 52.2प्रतिशत से।। 2006-07 में क्रमशः 11.7 प्रतिशत एवं 45.8 प्रतिशत तक गिर गया। अंतरराज्यीय विश्लेषण दर्शाते हैं कि सामाजिक क्षेत्र पर प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी राज्यों के बीच असमानता है। केरल, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र में प्रति व्यक्ति व्यय बिहार, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की तुलना में बेहद अधिक है।

हालांकि, गरीब राज्यों में अधिकतर लोग स्वास्थ्य एवं शिक्षा के लिए सार्वजनिक क्षेत्र पर निर्भर हैं, प्रति व्यक्ति व्यय की भिन्नता ने न केवल स्वास्थ्य एवं शिक्षा तक पहुंच में कमी की है अपितु अंतरराज्यीय असमानता में भी वृद्धि की है। उदाहरणार्थ महाराष्ट्र,तमिलनाडु मेंशिशु मृत्युदर उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की अपेक्षा बेहद कम है।

भारत के सामाजिक क्षेत्र में भयावह स्थिति दृष्टिगत होती है। यदि सामाजिक क्षेत्र पर व्यय में अपर्याप्तता एवं असमानता बनी रहती है, तो यह न केवल भारत की मानव पूंजी निर्माण को बाधित करेगा अपितु दीर्घावधि में इसकी आर्थिक संवृद्धि को भी प्रभावित करेगा। हालांकि मात्र सामाजिक क्षेत्र में व्यय में वृद्धि हमारा जहेश्य पूरा नहीं करेगी।

नीति-निर्माताओं को जनसंख्या के वास्तविक जरूरतमंद वर्ग को लक्षित करके संसाधनों का दक्षतापूर्ण आबंटन करने की तरफ भी ध्यान देना होगा, ताकि बढ़े हुए व्यय का लाभ जनसंख्या के निम्नतम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक पहुंच सके। इसके अतिरिक्त, लोगों में सामान्य जागरूकता फैलाने की भी आवश्यकता है। गैर-सरकारी समूहों जैसे विभिन्न सभ्य समाजों को जन शिक्षा कार्यक्रमों या जागरूकता सृजन शिविरों के माध्यम से लोगों को उनकी स्वास्थ्य एवं शिक्षा की स्थिति के बारे में जागरूक करना चाहिए। यदि लोग अधिक जागरूक होंगे, तो बेहतर स्वास्थ्य एवं शिक्षा की उनकी मांग बढ़ेगी, जो भारत में सामाजिक क्षेत्र के प्रोत्साहन केलिए। भारत सरकार पर अधिक निवेश हेतु दबाव उत्पन्न करेगा।

स्वास्थ्य संबंधी विषय

स्वास्थ्य मात्र रोगों की अनुपस्थिति नहीं है अपितु सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक खुशहाली तथा स्वास्थ्य की दशा है। विभिन्न स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच एवं वैयक्तिक जीवन शैली पसंद, निजी पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों की स्थिति अच्छे स्वास्थ्य के निर्धारक तत्व होते हैं।

वर्तमान में, भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य सेवाओं के प्रदाताओं का मिश्रण शामिल है। प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं का संजाल है जिसे मुख्य रूप से राज्य सरकारों द्वारा चलाया जाता है और जो मुफ्त या बेहद कम कीमत पर चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध कराता है। भारत में एक व्यापक निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र भी है जिसमें व्यक्तिगत चिकित्सक एवं उनके क्लिनिक,अस्पताल एवं सुपरस्पेशिएलिटी अस्पताल शामिल हैं। स्वास्थ्य के विकास एवं प्रबंधन से संबंधित मुख्य विषय हैं- समावेशी स्वास्थ्य, अवसंरचना, वित्त, मानव संसाधन विकास, स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना व्यवस्था; स्वास्थ्य जागरूकता, स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता एवं जिम्मेदारी, स्वास्थ्य बीमा; चिकित्सा सेवाओं का विनियमन; औषधि विनियमन एवं अनुसंधान।

समावेशी स्वास्थ्य का अभाव

समावेशी शब्द का प्रयोग प्रायः व्यापक संवृद्धि सर्वहितैषी या निर्धन हितैषी के संदर्भ में किया जाता है। इन्हीं कार्यों के साथ, स्वास्थ्य के संदर्भ में, समावेश में निहित है, समाज के प्रत्येक वर्ग के लाभ प्राप्ति हेतु स्वास्थ्य संसाधनों का एकसमान आवंटन।

भारत में,इस अवधारणा का अर्थ है समस्त जनसंख्या को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना, इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो फिलहाल स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं। इस चुनौती को पूरा करने के क्रम में उपलब्धता, वहनीयता एवं स्वास्थ्य प्रदायन एवं सेवाओं की गुणवत्ता जैसी मुश्किल चुनौतियों से धारणीय तरीके से दीर्घावधिक तौर पर निपटने की आव्श्याकता होगी। समावेशी स्वास्थ्य धरनिय विकास को तभी आगे बढ़ा सकता है जब प्रत्येक को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया हों। भारत में समावेशी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रदायन की उपलब्धता, वहनीयता, एवं गुणवत्ता पर ध्यान देता है। स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता के संदर्भ में भारत की कई प्रकार की चुनौतियां हैं। इसमें शामिल हैं- अवसंरचना की कमी, दयनीय परिवहन व्यवस्था एवं संसाधनों का अभाव। अवसंरचनागत चुनौतियों के संदर्भ में हम जानते हैं कि, भारत में प्रति हजार व्यक्तियों पर मात्र 0.9 बिस्तर ही उपलब्ध हैं।

निम्न जातियों एवं महिलाओं जैसे कुछ सामाजिक समूहों पर रोक एवं प्रतिबंध भी देश के कुछ हिस्सों में व्याप्त है और समाज के इन वर्गों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता लगभग अनुपस्थित है।

कुशल मानव संसाघन की कमी

भारत में विभिन्न राज्य वर्तमान में मानव संसाधन के विकास पर घटते व्यय, मौजूदा स्वास्थ्यकर्मी की अतिरिक्त मांग, निरंतर स्वास्थ्य सेवाओं हेतु मानव संसाधन की कमी, असमान वितरण एवं कौशल सम्बन्धी असंतुलन जैसी जटिल समस्याओं से जूझ रहे हैं।

विगत् ग्यारह पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान भारत ने अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि एवं उसे उन्नत किया है। देश में वर्तमान में 1,47,069 उप स्वास्थ्य केंद्र (एसएचसी), 23673 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी), 4535 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) एवं 12760 सरकारी अस्पताल हैं।

मानव संसाधन, नियोजन एवं विकास पर बजाज समिति ने सर्वप्रथम भारत में स्वस्थ्य मानव संसाधन की उपलब्धता का मूल्यांकन किया। इसने बताया कि स्वास्थ्य व्यवस्था एवं मानव संसाधन विकास एक-दूसरे से पृथक् रहे हैं। समिति ने प्रक्षेपित किया कि शताब्दी में ग्रामीण स्वास्थ्य मानव संसाधन की आवश्यकता के साथ-साथ शैक्षिक संस्थानों में मानव संसाधन निर्माण की आवश्यकता होगी।

स्वास्थ्य सेवाओं में गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए, बजाज समिति ने एक क्षमता आधारित पाठ्यक्रम, रिफ्रेशर एवं ब्रिज कोर्स, सेवाकालीन प्रशिक्षण, सभी श्रेणियों के लिए करियर ढांचा एवं पूरे देश में एक समान वेतनमान की अनुशंसा की। बजाज समिति ने स्वस्थ्य मानव संसाधन तैयार करने के लिए राज्यवार समन्वित योजना की भी अनुशंसा की और आठवीं योजना के दौरान प्रत्येक राज्य में एक स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय स्थापित करने की अनुशंसा भी की।

सार्वभौमिक स्वास्थ्य सम्मिलन पर उच्च स्तरीय विशेषश दल (एचएलईजी) ने विस्तृत एवं महत्वपूर्ण अनुशंसाएं दी। जबकि केंद्र एवं राज्य स्तर पर स्वास्थ्य मंत्रालयों के नेतृत्व ने कभी भी इन समितियों की अनुशंसाओं, सुझावों, तार्किक मानदंडों को स्वीकार या क्रियान्वित नहीं किया जो निरंतर स्वस्थ्य मानव संसाधन नियोजन एवं मानव निर्माण के आधार हैं।

भारत में विश्व के मुकाबले सर्वाधिक संख्या में मेडिकल कॉलेज हैं जिसमें 30,000 डॉक्टरों एवं 18,000 विशेषज्ञों का वार्षिक उत्पादन होता है। हालांकि, भारत को प्रति मेडिकल कॉलेज वार्षिक औसत उत्पादन 100 मेडिकल स्नातक है जबकि उत्तरी अमेरिका में यह 110, मध्य यूरोप में 125, पश्चिम यूरोप में 149, पूर्वी यूरोप में 220 है। चीन में 188 मेडिकल कॉलेज है जो वार्षिक 1,75,000 डॉक्टर का उत्पादन करते हैं जिसका प्रति मेडिकल कॉलेज वार्षिक औसत 930 मेडिकल स्नातक है।

भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में मानव संसाधन विकास में निम्न व्यवस्थागत कमियां हैं-

  1. तथ्यों का अभाव
  2. स्वास्थ्य मानव संसाधन का विषम उत्पादन
  3. स्वास्थ्य मानव संसाधन की असमान नियुक्ति एवं वितरण
  4. शिक्षा एवं प्रशिक्षण में सामयिक जरूरतों का अभाव

स्वास्थ्य पर अपर्याप्त वित्त पोषण

भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र के वित पोषण में कमियों के चलते स्वास्थ्य सेवाओं में असमानता, पिछड़ापन, अपर्याप्त उपलब्धता, असमान पहुँच, क्षीण गुणवत्ता एवं महंगी स्वास्थ्य सेवाएं जैसी चुनौतियां बनी हुई हैं।

वर्ष 2009 में भारत का कुल स्वास्थ्य व्यय सकल घरेलू उत्पाद का 4.2 प्रतिशत था जबकि श्रीलंका का 4 प्रतिशत, थाइलैण्ड का 4.3 प्रतिशत, और चीन का 4.6 प्रतिशत था।

भारत का स्वास्थ्य पर लोक व्यय जीडीपी के अनुपात में 1.2 प्रतिशत था जो विश्व में सर्वाधिक निम्न है। श्रीलंका में यह प्रतिशत 1.8, चीन में 2.3 और थाईलैण्ड में 3.3 है।

भारत के राज्यों में भी स्वास्थ्य व्यय को लेकर भारी अंतर है। 2008-09 में, उदाहरणार्थ, स्वास्थ्य पर लोक व्यय केरल में 498 रुपए, और तमिलनाडु में 411 रुपए था जबकि मध्य प्रदेश और विहार में यह क्रमशः 229 एवं 163 रुपए था। स्वास्थ्य पर लोक व्यय में इस अंतर से स्पष्ट होता है कि स्वास्थ्य अवसंरचना तक पहुंच एवं क्षमता और साथ ही स्वास्थ्य निर्गत एवं परिणामों में भी राज्यवार अंतर है।

स्वास्थ्य बीमा के विस्तार की कमी

चिकित्सीय व्ययों से वित्तीय संरक्षण का सार्वभौमीकरण बेहद क्षीण है। 2004-05 में सामाजिक बीमा पर व्यय कुल स्वास्थ्य खर्च का 1.13 प्रतिशत था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2005-06 के अनुसार, भारत में मात्र 10 प्रतिशत परिवारों का कम से कम एक सदस्य का स्वास्थ्य बीमा था। विगत् कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) एवं अन्य राज्य प्रयोजित बीमा योजनाओं के तीव्र विस्तार के बावजूद, चिकित्सा व्यय हेतु वित्त संरक्षण बेहद निम्न था।

औषधियों तक पहुंच का अभाव

भारत न केवल घरेलू उपभोग के लिए पर्याप्त औषधियों का उत्पादन करता है। अपितु जेनरिक एवं ब्रांडेड औषधियों के बड़े निर्यातकों में से एक है, और दक्षिण की वैश्विक फार्मेसी के तौर पर भी जाना जाता है। इस प्रशंसनीय निष्पादन के बावजूद लाखों भारतीय परिवारों को औषधि नहीं मिल पाती। यह दो बाधाओं वित्तीय (आवश्यक क्रय शक्ति का अभाव) एवं भौतिक (लोक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव) का परिणाम है।

1980 के दौरान, लगभग 25 प्रतिशत लोगों को अस्पताल में भर्ती के दौरान लिखी गई दवाइयां मुफ्त दी जाती थीं। 2004 तक यह प्रतिशत तेजी से गिरकर मात्र 9 प्रतिशत रह गया। बाह्यरोगी हेतु मुफ्त दवा आपूर्ति भी इसी समयावधि के दौरान गिरकर 18 प्रतिशत से लगभग 5 प्रतिशत रह गयी।

औषधियों तक पहुंच में बाधाएं हैं-

  1. अविश्वसनीय औषधि आपूर्ति व्यवस्था;
  2. दवाइयों की निम्न गुणवत्ता;
  3. अतार्किक सुझाई गई दवाइयां एवं प्रयोग;
  4. पहुंच से बाहर औषधि कीमत;
  5. दोषपूर्ण स्वास्थ्य वित्तपोषण तंत्र;
  6.  उपेक्षित रोगों में अपर्याप्त वित्तपोषण एवं अनुसंधान, और
  7. 7. कठोर उत्पाद पेटेंट तंत्र।

लोक स्वास्थ्य विनियमन हेतु समन्वित तंत्र की अनुपस्थिति

समस्या मानकों (ढांचागत, गुणवत्ता प्रसंस्करण, तार्किकता एवं देखभाल लागत, उपचार प्रोटोकॉल एवं नैतिक व्यवहार) की स्थापना हेतु एकात्मक तंत्र के अभाव में छुपी है, जो लोक एवं निजी दोनों क्षेत्रों पर लागू होते हैं। संस्थानों एवं संगठनों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए इस प्रकार के तंत्र का होना बेहद जरूरी है।

स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों का निर्णयन में प्रयोग नहीं

सरकार विभिन्न राज्यों के स्वास्थ्य संबंधी रूपरेखा से सम्बद्ध आंकड़ों को एकत्रित करती है, लेकिन निर्णयन में इस सूचना का प्रभावशाली तरीके से इस्तेमाल नहीं करती।सूचना की गुणवत्ता का पर्याप्त रूप से मूल्यांकन नहीं किया जाता और सूचना तंत्र का कभी भी अंकेक्षण नहीं किया जाता। यहतंत्र सूचना एकत्रण प्रोटोकॉल का शायद ही अनुसरण करता है और इसकी समीक्षा दुर्लभतः ही की जाती है।

सूचना एकत्रण,संकलन एवं विश्लेषण की अवसंरचना इस प्रकार की जानी चाहिए जिससे वास्तविक समयबद्ध निगरानी, प्रक्रिया संशोधन, मूल्यांकन, स्पष्ट निदेशों के साथ निगरानी संभव हो सके।

जवाबदेही का अभाव

समुदाय एवं उपयोगकर्ता स्वास्थ्य सेवाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते जब तक कि उनके पास निगरानी की जाने वाली सेवाओं की विश्वसनीय एवं सही जानकारी नहीं होगी। उदाहरणार्थ, भारत सरकार ने एक सेवा चार्टर प्रकाशित किया है जो सरकारी सेवा प्रदायन अभिकरण द्वारा प्रदान की गईसेवाओं हेतु न्यूनतम मानदंड निर्धारित करता है। लेकिन इस बात की कोई सूचना प्रदान नहीं की गई है कि यदि मानदंडों के अनुरूप सेवा मुहैया नहीं कराई गई है तो क्या किए जाने की आवश्यकता है, और सेवा प्रदाताओं के निष्पादन पर उन्हें किसी प्रकार का अभिप्रेरण नहीं दिया गया है। इसमें सुधार किए जाने की आवश्यकता है।

क्लीनिकल एवं समुदाय स्तर पर सेवाओं के सफलतापूर्वक मूल्यांकन के लिए सरकार, गैर-सरकारी संगठनों एवं शोधार्थियों के बीच साझेदारी का होना बेहद आवश्यक है।

लोक स्वास्थ्य व्यवस्था की सफलता के लिए लोक जागरूकता में वृद्धि एवं सामाजिक सहयोग का निर्माण किया जाना बेहद जरूरी है। इनके अतिरिक्त, यह नीतियों एवं कार्यक्रमों के लिए जनसमर्थन एवं निर्वाचन क्षेत्रों का निर्माण करता है, विनियमन के साथ संतुष्टि उत्पन्न करता है, और वैयक्तिक स्वस्थ व्यवहार उत्पन्न करने में मदद करता है।

समुदाय सहभागिता का महत्व समझना

विभिन्न राष्ट्रीय एवं प्रांतीय नीतियां एवं विधियाँ प्रदायन, जवाबदेयता एवं स्वास्थ्य एवं सम्बद्ध सेवाओं में वृद्धि में समुदायों, गैर-सरकारी संगठनों एवं पंचायती राज संस्थानों की सहभागिता को सुनिश्चित एवं संबोधित करता है।

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के माध्यम से सामुदायिक निगरानी एवं सहभागिता मूलक स्वास्थ्य शासन में सिविल सोसायटी संगठनों की संलग्नता ने रचनात्मक सामुदायिक गतिशीलता पर सकारात्मक प्रभाव दर्शाया है और स्वास्थ्य अधिकारों के दावों हेतु क्षमता निर्माण किया है, और बेहतर सेवाओं की मांग में भी समर्थन किया है। इसने सेवाओं की गुणवत्ता, सेवा उपयोगिता, समावेश एवं स्वास्थ्य परिणामों पर प्रदर्शनीय प्रभाव डाला है।

सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मी उपागम (सीएचडब्ल्यू) के अंतर्गत अधिकृत सामाजिक स्वास्थ्यकर्मी (आशा) कार्यक्रम एवं अन्य पहलों ने सामुदायिक सदस्यों के साथ संपर्क में सुधार किया और स्वास्थ्य व्यवस्था एवं समुदाय के बीच एक संपर्क सूत्र प्रदान किया।

पंचायती राज संस्थाओं ने जल एवं स्वच्छता, व्यवहार परिवर्तन, सम्बद्ध सरकारी कार्यक्रमों में सेवा प्रदायन एवं अपशिष्ट निपटान जैसे क्षेत्रों में अंतरक्षेत्रीय गतिविधियों के समर्थन से स्वास्थ्य को प्रोत्साहित एवं बढ़ावा दिया है। केरल का उदाहरण प्रमाण प्रस्तुत करता है कि स्थानीय लोगों की सरच्नात्मक कार्यवाही ने, जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधि एवं लोक संगठन भी शामिल हैं, सेवाओं एवं कार्यक्रमों को स्थानीय स्वास्थ्य जरूरतों एवं अधिमानों के अनुरूप अधिक प्रत्युत्तरदायी बनाया और समग्र निष्पादन को मजबूत किया।

स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारको पर कार्यवाही

सामाजिक निर्धारकों पर कार्यवाही का जन्म इस मान्यता से हुआ कि वर्गों एवं जातियों के बीच अत्यधिक विभेद हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था द्वारा रोग भार एवं प्रत्युत्तर दोनों में लिंग अंतराल एवं वृहद् प्रादेशिक भिन्नताओं को लेकर व्यापक विभेद है। सामाजिक निर्धारकों में शामिल तत्व हैं-

  1. पोषण एवं खाद्य समाज
  2. जल एवं स्वच्छता
  3. सामाजिक वंचना

शिक्षा संबंधी विषय

शिक्षा एक राष्ट्र की संवृद्धि के स्तरों में मानव संसाधन विकास एवं सशक्तिकरण हेतु अत्यावश्यक है। सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए शिक्षा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनितिक परिवर्तन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। सुशिक्षित जनसंख्या, जो प्रासंगिक ज्ञान, दृष्टिकोण एवं कौशल से विभूषित है, 21वीं शताब्दी में आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए अपरिहार्य है। शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता का बेहद शक्तिशाली उपकरण है और समानतापरक एवं न्यायसंगत समाज के निर्माण का मुख्य यंत्र है। शिक्षा आर्थिक समृद्धि के लिए कौशल एवं क्षमताएं प्रदान करती है।

भारत में, शिक्षा क्षेत्र में शामिल विषय एवं चुनौतियां हैं– स्कूल छोड़ने की उच्च दर, निम्न विद्यार्थी उपस्थिति, अध्यापकों की उपलब्धता, विद्यार्थी के सीखने की लचरस्थिति, शिक्षा की निम्न गुणवत्ता, एवं अध्यापक अनुपस्थिति।

भारत में शिक्षा कई चुनौतियों का सामना करती है। देश की स्कूली शिक्षा औसत 5.12 वर्ष है जो अन्य उदीयमान बाजार अर्थव्यवस्थाओं से अच्छा खासा कम है। चीन में यह 8.17 वर्ष, और ब्राजील में 7.54 वर्ष है। सभी विकासशील देशों में यह स्तर 7.09 वर्ष है। एक बेहद चिंता का विपय है प्राथमिक शिक्षा के स्तर के बाद स्कूल छोड़ने की तीव्र दर। माध्यमिक स्कूल स्तर पर नामांकन में कमी एवं प्राथमिक से माध्यमिक में नामांकन में बढ़ता अंतराल दर्शाता है कि प्राथमिक स्तर पर प्राप्त उपलब्धि अभी भी समग्र तौर पर स्कूल क्षेत्र को प्रभावित नहीं कर पाई है। वंचित समूहों की स्थिति अधिक बदतर है इसमें अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की स्कूल छोड़ने की दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है।

जबकि प्राथमिक स्तर पर नामांकन स्तर सामान्यतः उच्च होता है, विद्यार्थियों की उपस्थिति का अध्ययन प्रकट करता है कि नामांकित विद्यार्थियों के प्रतिशत में राज्यवार बेहद अंतर है। चिंता का विषय है कि कुछ शैक्षिक रूप से बेहद पिछड़े राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश एवं झारखंड) में निम्नतम विद्यार्थी उपस्थिति दर (60 प्रतिशत से नीचे) है।

इस संदर्भ में, राज्यों को अर्थपूर्ण दृष्टि से उपस्थिति दर्ज करने के लिए पारदर्शी एवं विश्वसनीय तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है और पूरे स्कूली वर्ष में उच्च उपस्थिति दर या स्तर बनाए रखने और उपस्थिति को प्रोत्साहित करने के लिए प्रभावी रणनीतियों पर कार्य करना होगा।

स्कूल से बाहर बच्चे (आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रन्स)

हालांकि स्कूल से बाहर बच्चों के प्रतिशत में सभी लिंगों एवं सामाजिक श्रेणियों में कमी आई है, मुस्लिम, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चों पर अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। स्कूल से बाहर कई बच्चे जो शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग हैं, चिंता का एक बड़ा विषय है। स्कूल से बाहर विकलांग बच्चों का प्रतिशत वर्ष 2009 में 34.12 प्रतिशत था और उसमें कोई कमी नहीं आई थी। यह गौरतलब है कि स्कूल से बाहर अधिकतम बच्चे मानसिक रूप से विकलांग (48 प्रतिशत) हैं, जिसमें बोलने में अक्षम बच्चे (37 प्रतिशत) भी हैं।

छात्र-शिक्षक अनुपात

विगत् वर्षों में प्राथमिक स्तर पर अध्यापक की उपलब्धता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है और सभी शिक्षक पद सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए) एवं राज्य बजट दोनों के तहत् अनुमोदित किए एवं भरे गए, राष्ट्रीय स्तर पर छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर) लगभग 27:1 होगा। हालांकि, चुनौती शिक्षक की नियुक्ति में असंतुलन को सुधारने की है। अधिकतर स्कूल जो शिक्षा के अधिकार अधिनियम के मानदंडों में अपेक्षित छात्र-शिक्षक अनुपात को पूरा नहीं करते, संख्या बेहद अधिक है। जिला शिक्षा सूचना तंत्र (डीआईएसई),2009-10 पर आधारित विद्यालयवार विश्लेषण संकेत करता है कि 46 प्रतिशत प्राथमिक एवं 36 प्रतिशत उच्च प्राथमिक स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात की दयनीय स्थिति हैं।

अप्रशिक्षित शिक्षक

जैसाकि शिक्षा के अधिकार अधिनियम में अपेक्षित है, अधिकतर शिक्षक राष्ट्रीय शिक्षक प्रशिक्षण परिपद् (एनसीटीई) द्वारा अनुमोदित पेशेवर योग्यताएं नहीं रखते,जो एक बड़ी चुनौती है। देश के चार राज्यों- बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, एवं पश्चिम बंगाल में 8.1 लाख अप्रशिक्षित शिक्षक हैं, जो कुल शिक्षकों का 72 प्रतिशत हैं।

शिक्षा हेतु अवसंरचनागत कमी

विद्यालय स्तर पर व्यापक ढांचागत विकास के बावजूद, अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे विद्यालय मौजूद हैं जो न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं रखते। शिक्षा के अधिकार अधिनियम में उल्लिखित 9 सुविधाओं के अंतर्गत मात्र 4.8प्रतिशत सरकारी विद्यालय सभी ५ सुविधाओं वाले हैं, लगभग एक-तिहाई सभी स्कूल सात सुविधाओं वाले हैं, और लगभग 30 प्रतिशत विद्यालय यहां तक कि पांच सुविधाएं भी नहीं रखते हैं। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के उपबंधों के अनुरूप इन सभी सुविधाओं को समयबद्ध तरीके से सभी विद्यालयों में मुहैया कराना होगा।

कमजोर अघिगम स्तर

प्राथमिक शिक्षा में बढ़ा चिंता का विषय है, विद्यार्थीका कमजोर अधिगम स्तर चाहे वह शैक्षिक हो या असंज्ञानात्मक हो। साक्ष्य प्रकट करते हैं। कि भारतीय विद्यालयों में बच्चों हेतु अधिगम परिणाम अन्य देशों की तुलना में बेहद निम्न हैं। स्पष्ट रूप से विद्यालय में विद्यार्थी द्वारा बिताया गया अतिरिक्त समय, जैसाकि उन्हें एक कक्षा से दूसरी कक्षा में भेज दिया जाता है, अधिगम स्तर में अधिक सुधार नहीं करता।

गुणवत्तापरक शिक्षा

गुणवत्ता विषय के केंद्र में लचर शिक्षण प्रक्रिया एवं शिक्षक तथा अधिगमकता के बीच उचित अंतक्रिया का न होना है जो न तो बाल-केन्द्रित है और न ही इसमें बालकेन्द्रित या बाल मित्रवत पाठ्यक्रम उपागम को अपनाया गया है। विद्यार्थी के अधिगम परिणामों में सुधार के लिए शिक्षक की गुणवत्ता परक शिक्षा प्रदान करने की क्षमता, अभिप्रेरण एवं जिम्मेदारी को तुरंत एवं आवश्यक रूप से संबोधित किए जाने की आवश्यकता है। माध्यमिक एवं उच्चशिक्षा में भी अधिगम गुणवत्ता की समान चुनौतियां मौजूद हैं। माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा में स्कूल छोड़ने की दर लगातार ऊंची बनी हुई है, विशेष रूप से सामाजिक रूप से वंचित एवं आर्थिक रूप से सीमांत अधिगम समूहों की।

शिक्षा के सभी स्तरों पर नामांकन में उच्च स्तर के बावजूद, और अवसंरचना में बेहद बढ़ोतरी के बावजूद, औपचारिक शिक्षा द्वारा गुणवत्ता संलग्नता अभी भी लचर है। गुणवत्तापरक शिक्षा में सुधार भौतिक स्थान, पथ्युस्तक सामग्री, कक्षा प्रक्रियाओं, अध्यापक को अकादमिक समर्थन, मूल्यांकन प्रक्रिया एवं समुदाय संलग्नता के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी है।

शिक्षा में समानता

शिक्षा में समानता के संदर्भ में हमइसेवृहद् श्रेणियों जैसे अनुसूचितजाति, अनुसूचित जनजाति, मुस्लिम, महिलाओं तक सीमित करने का प्रयास करते हैं। लेकिन ये समजातीय समूह नहीं हैं। सामाजिक वास्तविकताएं बेहद जटिल हैं और इन समूहों के भीतर भी ऐसे समूह हैं, जो विभिन्न कारणों से समग्र श्रेणी की तुलना में अधिक वंचित हैं। सार्वभौमिक पहुंच के लक्ष्य को पूरी तरह प्राप्त करने के लिए, इन सामाजिक एवं आर्थिक वास्तविकताओं से उपजी बाघाओं एवं जटिलताओं को समाप्त करने की आवश्यकता होगी। बढ़ते शहरीकरण के संदर्भ में गृह-संघर्ष से प्रभावित क्षेत्रों में शैक्षिक पहुंच के सुनिश्चितिकरण पर विशेष ध्यान देना होगा। जबकि वंचित समूहों एवं सामान्य लोगों के बीच औसत नामांकन में अंतर में कमी आई है, ऐतिहासिक रूप से वंचित एवं आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के अधिगम स्तर में अभी भी सोचनीय रूप से व्यापक अंतर है। इसलिए, यदि बारहवीं पंचवर्षीय योजना के शिक्षा में समानता के लक्ष्य को प्रभावी रूप से प्राप्त करना है तो यह आवश्यक है कि प्राथमिक स्तर पर अधिगम अंतर को पाटना होगा।

शिक्षा व्यवस्था (गवर्नेस) की चुनौतियां

शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियों में जटिलता एवं वृद्धि शिक्षक अनुपस्थिति, विद्यालयों को वित्त प्रवाह में विलम्ब एवं विद्यालयी स्तर पर प्रशासनिक क्षमताओं ने की है। अध्ययन से पता चला है कि बेहतर उपाय एवं शिक्षक के निष्पादन प्रबंधन ने विद्यार्थियों के अधिगम परिणामों पर महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव डाला है। शिक्षक,विद्यालय एवं विद्यालयी व्यवस्था के साथ-साथ वियार्थी अधिगम के विशिष्ट एवं लक्षित उपाय इन अधिगम परिणामों के लिए जिम्मेदार हैं जो शिक्षा व्यवस्था को अधिगम उन्मुखी बनाकर शिक्षा गवर्नेंस में सुधार करने में दूरगामी प्रभाव वाली है।

उच्च शिक्षा में चुनौतियां

राजव्यवस्था के विकास हेतु आवश्यक है। यह युवाओं को श्रम बाजार एवं सामाजिक गतिशीलता के अनुरूप कौशलप्रदान करती है। यह पहले से रोजगाररत लोगों को कौशल से सुसज्जित करती है ताकि तेजी से बदलते परिदृश्य की आवश्यकताओं के साथ समन्वय किया जा सके। यह जिम्मेदार नागरिक तैयार करते हैं जो लोकतांत्रिक एवं बहुल समाज को संगठित करते हैं। इस प्रकार, देश की जरूरतों को पूरा करने और इसके भविष्य को आकार देने के लिए राष्ट्र मानव पूंजी के बौद्धिक भंडार-गृह का सृजन करता है। शायद, उच्च शिक्षा वह मुख्य क्षेत्र है जहां पर हमारे राष्ट्रीय लक्ष्य, विकासपरक अधिमान्य्तएं और नागरिक मूल्य परिष्कृत एवं जांचे-परखे जा सकते हैं।

एक प्राक्कलन के अनुसार, विकसित अर्थव्यवस्थाओं यहां तक कि चीन की भी वर्ष 2020 तक तकरीबन 40 मिलियन प्रशिक्षित मानव श्रम की कमी का सामना करना पड़ेगा, जबकि उच्च शिक्षा के वर्तमान प्रक्षेपण पर आधारित, भारत में संभवतः वर्ष 2020 में स्नातकों का अधिशेष गोगा। इस प्रकार, भारत वैश्विक ज्ञान आधारित कार्य का एक बड़ा हिस्सा हासिल क्र सकता है।

भारत में उच्च शिक्षा की वृद्धि के महत्वाकांक्षी लक्ष्य प्राप्त करने के मार्ग में कुछ मुख्य चुनौतियां पायी गई हैं। देश के जनांकिकीय लाभ की शक्ति को उन्मुक्त करने के लिए पहुंच को वहनीयता के साथ जोड़ना एवं उच्चगुणवत्ता परक स्नातक एवं स्नातकोत्तर शिक्षा को सुनिश्चित करना आवश्यक है। भविष्य की विस्तार की नीति को योजनाबद्ध तरीके से इस प्रकार नियोजित करना होगा जिससे क्षेत्रीय एवं सामाजिक असंतुलनों को सही किया जाए, मानकों के अनुरूप संस्थानों को सशक्त करना एवं उत्कृष्टता के अंतरराष्ट्रीय पैमाने तक पहुंचा जा सके।

राज्यों, शहरों एवं गांवों के मध्य नामांकन प्रतिशत को लेकर वृहद् असमानताएं मौजूद हैं जबकि समाज के वंचित वर्ग एवं महिलाओं का नामांकन राष्ट्रीय औसत की तुलना में महत्वपूर्ण रूप से निम्न है।

साथ ही साथ, शिक्षा की गुणवत्ता में भी उल्लेखनीय समस्याएं मौजूद है। यह क्षेत्र भली-भांति प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, लचर ढांचागत व्यवस्था एवं असामायिक एवं अप्रासंगिक पाठ्यक्रम के रोग से ग्रसित है। उच्च शिक्षा में तकनीकी का इस्तेमाल सीमित है और भारतीय विश्वविद्यालयों में अनुसंधान एवं शिक्षक का मानक अंतरराष्ट्रीय मानकों से बेहद नीचा है। वैश्विक रूप से सर्वोच्च 200 संस्थानों में किसी-भी भारतीय विश्वविद्यालय का नाम नहीं है।

उच्च शिक्षा एवं बारहवीं पंचवर्षीय योजना

बारहवीं पंचवर्षीय योजना शिक्षा में तीन उद्देश्यों- विस्तार, समानता एवं उत्कृष्टता को प्राप्त करना चाहती है। उच्च शिक्षा के लिए बारहवीं पंचवर्षीय योजना की रणनीतिक रूपरेखा विस्तार, समानता,उत्कृष्टता, गवर्नेस एवं वितीयन से सम्बद्ध निम्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय परिवर्तन की पहचान करती है-

  • मौजूदा संस्थानों में क्षमता विकास द्वारा पहुंच का विस्तार करना।
  • विभिन्न प्रकार के वियार्थियों की जरूरतों एवं नियोक्ताओं की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संस्थागत विभेद की व्यवस्था स्थापित करना।
  • गुणवत्ता में सुधार, लागत में कमी, प्रसंस्करण एवं क्षमता सुधार के लिए नई तकनीकियों की परिवर्तनीय क्षमता का इस्तेमाल करना।
  • लक्षित, समन्वित एवं प्रभावी समानता संबंधी योजनाओं के माध्यम से समानता सम्बद्ध उपायों के लिए बजट में उल्लेखनीय वृद्धि प्रदान करना।
  • गुणवत्तापरक लोगों की बढ़ती जरूरत, मौजूदा मानव श्रम के कौशल विकास के लिए योग्य लोगों की उपलब्धता, भर्ती एवं स्थिरता को सुनिश्चित करना।
  • संस्थानों के प्रोत्साहन एवं समर्थन द्वारा अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देना।
  • सरकार के आदेश एवं नियंत्रण की भूमिका को संचालक एवं मूल्यांकन की भूमिका में परिवर्तित करके संस्थागत स्वायत्तता को सशक्त करना।
  • उच्च शिक्षा प्रणाली की व्यापक एवं समन्वित विनियमन सुधार द्वारा क्षमता सुधार करना।
  • दाखिला, शुल्क, शिक्षण कर्मी ,कार्यक्रम, नियोजन, गवर्नेंस, वित्त, व्यवसायिक गठजोड़ एवं स्वामित्व से सम्बद्ध महत्वपूर्ण मानकीय सूचना को मुहैया कराने की आवश्यकता द्वारा सार्वजानिक एवं निजी दोनों संस्थानों में पारदर्शिता को बढ़ावा देना।

मानव संसाधन सम्बन्धी विषय

मानव संसाधन विकास का अर्थ है मानव पूंजी में निवेश द्वारा मानव की कार्यक्षमता में वृद्धि करना। मानव पूंजी से तात्पर्य है लोग पूंजी की तरह काम कर सकते हैं जो उनके कार्यशील जीवन में अर्जित की जाती है। लोगों की मानसिक क्षमता, कौशल, एवं भौतिक क्षमता में सुधार मानव पूंजी में वृद्धि करता है, चूंकि यह मानव को अधिक उत्पादन करने में दक्ष बनाती है। दो प्रकार का व्यय मानव पूंजी में निवेश कहा जा सकता है। पहला शिक्षा में निवेश, जिसमें सामान्य शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा दोनों शामिल है और दूसरा व्यय स्वास्थ्य सेवाओं जैसे अस्पताल, औषधि इत्यादि का प्रावधान।

मानव संसाधन विकास के संदर्भ में वर्तमान में भारत द्वारा सामना की जा रही चुनौतियां हैं- माध्यमिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण और सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार उपलब्ध कराना, वयस्कों हेतु पूर्ण साक्षरता प्राप्त करना, उच्चतर एवं तकनीकी शिक्षा को उन्नत करना, और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए अवसरों का विस्तार करना।

इसके अतिरिक्त, सरकार प्रादेशिक, सामाजिक, लैंगिक एवं आर्थिक असमानताओं को समरूप करने की समावेशी योजनाओं की रूपरेखा बनाने की चुनौतियों का भी सामना कर रही हैं जो अवसरों की समानता प्रदान करने साथ-साथ सभी को उत्पादक एवं अर्थपूर्ण जीवन भी प्रदान करेंगी। एक सम्बद्ध चुनौती है- लक्षित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षा की ढांचागत व्यवस्था को मजबूत एवं उन्नति सुनिश्चित करने के लिए वित्त की उपलब्धता सुनिश्चित करना।

फरवरी 2010 में नई दिल्ली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कसल्टेशन भारत में मानव विकास: उदित विषय एवं नीति परिदृश्य में मानव विकास हेतु निम्न कदमों को उठाने की अनुशंसा की गई।

शिक्षा के क्षेत्र में उठाए जाने वाले कदम

  • शिक्षा नीति को अपना ध्यान नामांकन से हटाकर विद्यालय के कार्यकरण में सुधार पर केंद्रित करना चाहिए और साथ ही साथ शिक्षा परिणामों की गुणवत्ता बढ़ाने की तरफ भी ध्यान देना चाहिए।
  • देश में वंचित एवं सीमांत समूहों की विद्यालयतक पहुंच बनाने के लिए विशेष रणनीति अपनाए जाने की आवश्यकता है।
  • शिक्षा प्रदायन में निजी क्षेत्र को सरकारी स्कूल के साथ-साथ विद्यालय खोलने की अधिकाधिक अनुमति दी जानी चाहिए।
  • लिंग अंतराल को पाटने के लिए दीर्घावधिक लक्ष्यों को निर्धारित करने की आवश्यकता है।
  • शिक्षा क्षेत्र को सकल राष्ट्रीय उत्पाद के मौजूदा 4 प्रतिशत आवंटन को बढ़ाकर 6 प्रतिशत किया जाना चाहिए।
  • शिक्षण आगतों में मौजूद अंतरालों को भरने की जरूरत है।
  • बाल श्रम पर प्रभावी अंकुश लगाए जाने की आवश्यकता है जैसाकि इसके बिना विद्यालय में बाल सहभागिता में कोई सुधार नहीं किया जा सकता।

स्वास्थ्य संबंधी पहले

  • स्वास्थ्य के वृहद् निर्धारकों जैसे भोजन एवं आजीविका, सुरक्षा, पेयजल, महिला साक्षरता, बेहतर पोषण एवं स्वच्छता, एवं सबसे ऊपर सामुदायिक कार्रवाई में विश्वास पर ध्यान केंद्रीकृत किया जाना चाहिए।
  • लोक स्वास्थ्य नीति को रोगों से लड़ने हेतु एंटीबायोटिक्स प्रशासित करने की अपेक्षा रोगों की रोकथाम पर ध्यान देना चाहिए।
  • स्वास्थ्य के वित्तीयन पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए।
  • सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं, भारत के आकार एवं जनसंख्या को देखते हुए, निजी स्वास्थ्य प्रदाताओं को भी इस क्षेत्र में अनुमति देनी चाहिए।
  • लोक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में अधिकार आधारित उपागम की आवश्यकता है।

पोषण (न्यूट्रीशन) संबंधी उपाय

  • कुपोषण को समाप्त करने के क्रम में, यह जरूरी है कि खाद्य उत्पादकता बढ़ाने की नीतियों को प्रोत्साहित किया जाए और साथ ही साथ भूमि उपयोग एवं इच्छित फसल प्रारूप अपनाया जाए।
  • कुपोषण एक बहुआयामी विषय होने के कारण, समन्वित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) जैसे राष्ट्रीय स्तरीय कार्यक्रमों को सुधारने की आवश्यकता है।
  • भूख एवं खाद्य सुरक्षा विषयों से निपटने और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए खाद्य आपूर्ति कार्यक्रमों को लाना अपरिहार्य है।
  • कुपोषण में कमी लाने के लिए महिला सशक्तीकरण एक बड़ा योगदान कर सकता है।
  • सामाजिक गतिशीलता देश के पोषण उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक अन्य मार्ग है।

कौशल विकास

जबकि, मांग एवं आपूर्ति परिप्रेक्ष्य से, कौशल को विकसित एवं उन्नत किए जाने की आवश्यकता है, उयोग विशिष्ट एवं तकनीकी उन्मुख कौशल भी साथ-साथ प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है। इसके लिए बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण संस्थानों एवं प्रशिक्षकों के विकास की आवश्यकता है, विशेष रूप से उदित होते ट्रेइस में, जहां वर्तमान में कुशल कामगारों की बेहद कमी है।

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