जैव-विविधता संधि Convention on Biological Diversity
जून 1992 में रियो डी जेनिरो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में जैव-विविधता संधि पर हस्ताक्षर किए गए। यह संधि दिसम्बर 1993 में प्रभावी हुई। पृथ्वी सम्मेलन में इस बात पर सहमति बनी कि जीव तथा पादप संसाधनों पर उन देशों का स्वामित्व होना चाहिये जहां वे विकसित होते हैं। साथ ही, सम्मेलन में यह उल्लेख किया गया कि इन देशों के संसाधनों से नये उत्पाद उत्पन्न करने वाले देशों को क्षतिपूर्ति प्रदान करनी चाहिये। इस संधि के अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान हैं-(i) पारम्परिक ज्ञान, कौशल और अन्वेषणों से उत्पन्न लाभों में समान हिस्सेदारी; (ii) पारस्परिक सहमति से बनी शर्तों पर आनुवंशिक संसाधनों तक पहुंच तथा इसके लिये दाता देश की पूर्व सहमति तथा ग्राही देश के द्वारा लाभ में हिस्सेदारी की प्रतिबद्धता आवश्यक (अनुच्छेद 19), (iii) विकसित देशों द्वारा दक्षिणी आनुवंशिक संसाधनों की सहायता से विकसित नई तकनीकों में तृतीय विश्व की हिस्सेदारी (अनुच्छेद 15 और 16); (iv) अभिसमय के उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में उठाये गये कदमों के लिये वित्तीय संसाधनों का प्रावधान (अनुच्छेद 20), तथा; (iv) अनुदान या रियायती आधार पर विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन प्रदान करने के लिये वित्तीय तंत्र की स्थापना (अनुच्छेद 21)। भारत ने भी इस संधि को अभिपुष्ट कर दिया है।
अधिकांश औद्योगिक देश अभी भी संधि की सभी धाराओं को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि इन देशों पर सीमा पार निगमों का ऐसा न करने का दबाव है। यह निगम पहले दक्षिण के रोगाणु-जीव द्रव्य (germplasm) का निर्बाध उपयोग करते थे।
औद्योगिक देशों का मानना है कि संधि की कुछ धाराएं, विशेषकर तकनीक स्थानान्तरण और क्षतिपूर्ति अधिकारों से संबंधित, स्वीकार योग्य नहीं हैं।