उत्पीड़न के विरुद्ध अभिसमय Convention Against Torture
उत्पीड़न तथा अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार अथवा दण्ड के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसम्बर, 1984 का अपनाया गया। यह अभिसमय 26 जून, 1987 को प्रभाव में आया जब 20 सदस्य देशों ने इसका अनुमोदन किया। 1 सितम्बर, 1996 तक संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन 185 सदस्यों में से 99 ने इसको अनुमोदित कर दिया था।
अभिसमय के अनुच्छेद 1 में उत्पीड़न को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- कोई ऐसा कार्य, जिसके माध्यम से किसी व्यक्ति पर जान-बूझकर कठोर पीड़ा या तकलीफ (शारीरिक या मानसिक) आरोपित की जाती है। अनुच्छेद उत्पीड़न को परिभाषित करने के क्रम में आगे कहता है कि, इसका उद्देश्य उस व्यक्ति अथवा किसी तीसरे व्यक्ति से सूचना या अपराध-स्वीकरण प्राप्त करना, गैर-कानूनी कार्य करने या करने के संदेही होने के कारण उस व्यक्ति या किसी तीसरे व्यक्ति को दंडित करना या भेदभाव पर आधारित कोई अन्य उद्देश्य हो सकता है। ऐसी पीड़ा या तकलीफ किसी लोक अधिकारी या लोक अधिकारी की क्षमता में कार्य कर रहे किसी व्यक्ति की सहमति या प्रेरणा से आरोपित होनी चाहिये।
अतः उत्पीड़न में शारीरिक और मानसिक दोनों उत्पीड़न सम्मिलित होते है, यद्यपि मानसिक उत्पीड़न शारीरिक उत्पीड़न से स्वतंत्र हो सकता है।
उत्पीड़न के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय सभी सदस्य देशों से सभी प्रकार के उत्पीड़क कार्यों को अपने देश के फौजदारी कानून के अंतर्गत दण्डनीय अपराधों के रूप में सम्मिलित करने का आग्रह करता है। अभिसमय कहता है कि, सदस्य देश इन अपराधों के लिये उपयुक्त दण्डों का प्रावधान करेंगे, जो अपराध की गंभीरता के आधार पर तय होंगे।
उत्पीड़न की न्यायोचित ठहराने के लिये युद्ध या लोक आपातकाल जैसे कठोर कदमों का सहारा नहीं लिया जा सकता है (अनुच्छेद 2)। परिषद अधिकारी या लोक सेवक के आदेश के पालन की अनिवार्यता को भी उत्पीड़न को न्यायोचित ठहराने के लिये प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
अभिसमय की धारा 14 के अनुसार- उत्पीड़न के शिकार व्यक्ति को पर्याप्त और न्यायपूर्णक्षतिपूर्ति का प्रवर्तनीय अधिकार है। अभिसमय में निर्दिष्ट अन्य प्रकार के क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक दण्डों, जो किसी व्यक्ति द्वारा अपनी आधिकारिक क्षमता में आयोजित किया जा सकता है, को भी प्रतिबंधित घोषित किया गया है।