चोल साम्राज्य में कृषि, वाणिज्य और व्यापार Chola Empire Agriculture, Commerce and Trade
भारत आरम्भ से कृषि-प्रधान देश रहा है। देश की अधिकतर जनता ग्रामों में रहती है जिसका प्रमुख उद्यम खेती है। इस काल में भी अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार कृषि ही थी। खेती करने का ढंग पुराना था। कृषि में हल-बैल का प्रयोग किया जाता था। नहरों, तालाबों और कुओं से सिंचाई होती थी। किसान कई प्रकार के अन्न की फसलें, जैसे गेहूँ, जौ, चना, चावल, मोटा अनाज और उसके साथ गन्ना, फल एवं सब्जियां भी उगाया करते थे। वर्षा न होने की स्थिति में अकाल पड़ते रहते थे और अकाल के समय जनता को कष्ट उठाना पड़ता था।
भूमि काश्तकारी दो प्रकार की होती थी। भूमि या तो पंचायती राज के अधिकार के अंतर्गत होती थी अथवा भूमिधरों किसान के निजी अधिकार में। ये भूमिधर अपना भुगतान राजा को देते थे। सेवावधि की भी पद्धति थी। जहां कुछ सेवा के बदले आंशिक या पूर्ण राशि माफ कर दी जाती थी। परन्तु साधारणतया ऐसा वहीं होता था जहां भूमि राजस्व की राशि कम होती थी, जैसे देवता के स्नान के लिए जल लाने पर मंदिर के देय से वह व्यक्ति मुक्त हो जाता था। अधिकार पत्रों द्वारा व्यापारी वाणिज्य पर नगरों की स्थापना करते थे तथा अपने भाई के सिपाहियों द्वारा उसकी रक्षा कर सकते थे। विनिमय के रूप में वे चिट्टिरामेलि पेरिपान्डु से कृषि उत्पादों को प्राप्त करतेथे। चिट्टिरामेलि पेरिपान्डु किसानों का एक संगठन था। इसकी उत्पत्ति तमिल क्षेत्र में हुई थी। आगे की शताब्दियों में इस सेवावधि का उपयोग सैनिक सेवा लिए भी खूब होने लगा। इस काल के प्रारंभ में गांव आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर थे। 11वीं सदी से जब चोल काल में व्यापार का विकास हुआ तो नगरों का भी विकास हुआ एवं गांव की स्थिति भी बदली। ग्राम अर्थ-व्यवस्था की पूर्ण इकाई था। किसान के अतिरिक्त गांव में कुम्हार, लुहार, बढ़ई, नाई, धोबी आदि भी होते थे। कुम्हार को कुंभकार कहते थे। गांवों के आर्थिक जीवन में इनका बड़ा महत्त्व था। सामाजिक और धार्मिक जीवन में पुरोहित और नाई का महत्वपूर्ण स्थान था।
वाणिज्य और व्यापार
विदेशी व्यापार- इस काल में व्यापार के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। विदेशी व्यापार स्थल और जल मार्गों द्वारा होता था। विदेशी व्यापार चीन, पूर्वी द्वीप समूह, पश्चिम द्वीप समूह, पश्चिम एशिया, यूरोप और अफ्रीका से होता था। स्थल मार्ग से व्यापारी कश्मीर होते हुए लद्दाख के रास्ते मध्य एशिया और चीन को जाते थे। मध्य एशिया में काशगर, यारकंद और खेतान मुख्य व्यापारिक केन्द्र थे, जहां भारतीय व्यापारी पहुंचते थे। चीन जाने के लिए दूसरा स्थल मार्ग आसाम होते हुए दक्षिण चीन को जाता था। स्थल मार्ग द्वारा ही अफगानिस्तान होते हुए पश्चिम एशिया के देशों को माल जाता था।
समुद्री मार्ग द्वारा भी बड़ी मात्रा में विदेशी व्यापार होता था। पश्चिमी भारत से समुद्रतटीय बन्दरगाहों से माल ईरान की खाड़ी होते हुए अरब के बन्दरगाहों और मिस्र को पहुँचता था। वहां से यह माल अफ्रीका और यूरोप तक जाता था। गुजरात में खम्भात (कैम्बे), महाराष्ट्र में थाना और सोपारा, मालाबार तट पर कालीकट और सिंध में देवल प्रसिद्ध बंदरगाह था। इसी प्रकार बंगाल में ताम्रलिप्ति के बन्दरगाह से माल बंगाल की खाड़ी होते हुए पूर्वी द्वीपसमूह के देशों और चीन को पहुँचता था। विदेश व्यापार चोल वणिकों की शक्ति थी। पूर्वीतट पर महाबलिपुरम् कावेरी पट्टनम् शालियुर, कोर्कई महत्त्वपूर्ण बंदरगाह थे तथा मालाबार तट पर क्विलोन में बडे प्रतिष्ठान थे। एक व्यापारिक संघ ऐण्णडूडवार था। इसे आयावोलेपुर (एहोल) के 500 स्वामियों के नाम से भी जाना जाता था। चोल देश में अनेक बस्तियों में वीरपट्टन होते थे। यहाँ पर ये व्यापारी स्थानीय सत्ता और केन्द्रीय सरकार की मंजूरी से व्यापार के मामले में विशेषाधिकार का प्रयोग करते थे। नानादेश-तिसैयायरितु अयन्नुवर नामक एक विशाल व्यापारिक श्रेणी का उल्लेख मिलता है जिसका व्यापार बर्मा, सुमात्रा आदि देशों से होता था। एक अन्य व्यापारिक श्रेणी अंजुवण था। लगभग 1200 ईं तक के मैसूर अभिलेख में 18 देशों में व्यापार करने वाले देशसल्लातुगुंडा नामक एक व्यापारिक संगठन का उल्लेख मिलता है। पश्चिम से व्यापार करने वालों के लिए फारस तथा अरब गंतव्य स्थान था। फारस की खाडी में स्थित सिराफ महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। इस काल में चीन के साथ व्यापार में वृद्धि हुई। चीन में फारमोसा के सामने मुख्यभूमि में एक भारतीय बस्ती थी। द. भारत कपड़ा, मसाले, औषधियां, जवाहरात, हाथी दांत, सींग, आबनूस की लकडी तथा कपूर चीन को निर्यात करता था। इसी प्रकार की वस्तुएं पश्चिम में भी भेजी जाती थीं। माकोंपोलो अरबों द्वारा घोड़े के व्यापार से अर्जित होने वाली भारी धनराशि तथा द. भारत के उन व्यापारियों पर टिप्पणी करता है जिन्होंने अरबों के साथ मिलकर घोड़ों के व्यापार पर एकाधिकार जमा रखा था।
निर्यात की प्रमुख वस्तुएं कपड़ा, नील, विभिन्न प्रकार के मसाले ( दालचीनी, जायफल, काली मिर्च, लौंग और इलायची इत्यादि), कपूर, चन्दन, केसर, हाथीदाँत थी। भारत में जिन वस्तुओं का आयात होता था, उनमें प्रमुख थीं- अरबी घोड़े, मूंगा, शराब, खजूर और सिल्क। अरबों की बढ़ती हुई समुद्री शक्ति, समुद्र पर उनके एकाधिकार की चेष्टा और समुद्री डकैती के कारण भारतीय व्यापारियों के विदेशी व्यापार पर नियन्त्रण में इस काल में कमी आयी।
आतंरिक व्यापार- सड़कों और नदियों द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग में माल जाता था। प्रमुख राष्ट्रीय मार्ग देश के विभिन्न भागों को एक दूसरे से जोड़ते थे। नदियों द्वारा नावों में भी माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाया जाता था। गंगा नदी इस प्रकार की प्रमुख नदी में से थी। सडकों द्वारा माल बैलगाड़ियों, ऊँटो, बैलों और गधों पर ढोकर ले जाया जाता था। सुरक्षा की दृष्टि से व्यापारी काफिलों में यात्रा करते थे। काफिलों में चलने वाले व्यापारियों को सार्थवाह कहते थे। इनका एक मुखिया होता था जिसका काफीके पर नियन्त्रण होता था। कभी-कभी डाकू काफिलों को लूट लेते थे। डाकुओं से रक्षा के लिए काफिलों के साथ सशस्त्र रक्षक चलते थे। द. भारत में दो प्रकार के सिक्के चलते थे, उद्यान एवं मद्यान। सबसे भारी सोने का सिक्का मद्यान या कल्याणजु था। चोल काल में मानक स्वर्ण सिक्का कलंजु या कल्याणजु था। कलंजु 20 मणजारी के बराबर होता था। काशु भी एक स्वर्ण सिक्का था जो कलजु के आधे के बराबर होता था किन्तु निचले स्तर पर छोटी लेन-देन में वस्तु विनिमय प्रणाली भी प्रचलित थी। विशेषत: ग्रामीण क्षेत्रों में तथा आर्थिक जीवन के केन्द्र मंदिर होते थे। मंदिर के अधिकारियों के लिए नियमित आय का होना आवश्यक था। अत: मंदिर विविध व्यापारिक पूंजी लगाते थे। मंदिर सूद पर रुपये भी उधार देते थे। ब्याज की दर 12 प्रतिशत वार्षिक थी। गोदामों तथा विक्रयकेन्द्रों को एरिविरप्पातन कहा जाता था। विनिमय के रूप में व्यापारी चिट्टिरामेलि पेरिपान्डु से कृषि उत्पादों को प्राप्त करते थे। चिट्टिरामेलि किसानों का एक संगठन था। इसकी उत्पत्ति तमिल क्षेत्र में हुई। वणिक श्रेणियों में मणिग्रामम् तथा वलंजियार महत्त्वपूर्ण थी। नानदेशी भी एक महत्त्वपूर्ण श्रेणी थी।
इस काल में नगरों की संख्या में भी वृद्धि हुई। नगर के लोग विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए थे। व्यवसाय संघों या गिल्डों के रूप में संगठित थे जिन्हें श्रेणियां कहा जाता था। इन श्रेणियों के अपने मुखिया होते थे जो श्रेणी के कार्यों का संचालन करते थे। नगर के प्रशासन में भी यह अपनी श्रेणी के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेते थे। कारीगरों, दुकानदारों, गाड़ीवानों और की अलग-अलग श्रेणियां थीं। महाजन ब्याज पर रुपया उधार देते थे और ब्याज की दर 9 से 12 प्रतिशत थी। क्रय-विक्रय में सिक्कों का प्रयोग होता था। सोना चांदी और तांबे के सिक्के बनते थे, परन्तु सोने की अपेक्षा चांदी के का अधिक प्रचलन था। विनिमय में कौड़ियों का भी प्रयेाग होता था विदित होता है कि वस्तुएं सस्ती थीं। बंगाल में कौड़ियों का खूब प्रचलन था।