बुन्देलखण्ड के चन्देल Chandel of Bundelkhand
प्रतिहार साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर खड़े हुए राज्यों में जैजाकभुक्ति (बुन्देलखण्ड) के चन्देलों का राज्य सबसे अधिक शक्तिशाली था। विन्सेन्ट स्मिथ का मत है कि चन्देलों का उद्भव गोंड और भरों के कबीलों से हुआ था और उनका मूल छतरपुर राज्य में केन नदी के तट पर मनियागढ़ था। परन्तु चन्देल लोग अपने को ऋषि चन्द्रात्रेय की सन्तान मानते हैं। उनका कथन है कि ऋषि चन्द्रात्रेय का जन्म चन्द्रमा द्वारा हुआ था। चन्देल राजाओं ने अपने अभिलेखों में चन्द्रात्रेय को अपना आदि पुरुष माना है। सम्भवत: इसी नाम के आधार पर उनका नाम चन्देल पड़ा। अभिलेखों में चन्देल राजे जैजाकभुक्ति के चन्देल कहे गये हैं। जैजाकभुक्ति के प्रमुख नगर थे- छतरपुर, महोबा (महोत्सव-नगर आधुनिक हमीरपुर), कालिंजर और खजुराहो। खजुराहो चन्देल राज्य की राजधानी थी।
नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नन्नुक ने छतरपुर के निकट अपना एक राज्य स्थापित कर लिया। उसने खजुराहो को अपनी राजधानी बनाया। नन्नुक के पौत्र जयशक्ति (जेंजा या जेजाक) और विजयशक्ति (विजा या विज्जक) थे। जयशक्ति के ही नाम के आधार पर चन्देल राज्य का नाम जैजाकभुक्ति पड़ा। इस वंश का प्रथम राजकुमार, जिसने वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त की, हर्ष था। इसने महीपाल को 916 के राष्ट्रकूट आक्रमण के उपरान्त कन्नौज पर फिर से अधिकार करने में सहायता प्रदान की। उसने महीपाल-प्रथम या क्षितिपाल का उसके गृह-कलह में भी साथ दिया और उसके सौतेले भाई भोजराज-द्वितीय को सिंहासनच्युत कर दिया। हर्ष के समय में चन्देलों की शक्ति यमुना तक फैल गई जो उनके और कन्नौज राज्य के बीच की सीमा बन गई। हर्ष ने चाहमान वंश की एक कन्या के साथ विवाह किया था। उसे ही चन्देलों की शक्ति और महानता का वास्तविक संस्थापक कहा जा सकता है।
यशोवर्मन- यशोवर्मन हर्ष का पुत्र था। उसने अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर दिया। उसने गुर्जरों को काफी क्षति पहुँचाई। वह एक महत्त्वाकांक्षी नरेश था।
प्रतिहार साम्राज्य की गिरती हुई अवस्था ने उसकी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अवसर दिया। चेदियों के विरुद्ध आक्रमण करने में वह बड़ा भाग्यवान् प्रमाणित हुआ क्योंकि इसी आक्रमण के फलस्वरूप उसे कालिंजर का प्रसिद्ध गढ़ प्राप्त हुआ। उत्तर में यमुना तक यशोवर्मन ने अपने राज्य का विस्तार किया। इसके उपरान्त उसने अपना विजय-अभियान आरम्भ किया और अभिलेखों के अनुसार उसने गोड़ों, कौशलों, कश्मीरियों, मैथिलों, मालवों, चेदियों और गुर्जरों को परास्त किया। यह निश्चित है कि अभिलेखों की यह उक्ति अतिरंजनापूर्ण है। परन्तु फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि यशोवर्मन ने उत्तर भारत में काफी महत्त्वपूर्ण विजयें प्राप्त की और चन्देलों को काफी शक्तिशाली बना दिया। चन्देल राज्य की शक्ति कालिंजर के गढ़ में केन्द्रित हो गई। यद्यपि चन्देल-लेखों में अब भी प्रतिहार राजा को सम्राट् स्वीकार किया जाता था, तथापि यशोवर्मन व्यवहारिक रूप में शासन के विषय में पूर्ण स्वतन्त्र था। यशोवर्मन ने खजुराहो के एक प्रसिद्ध मन्दिर का निर्माण कराया और इसमें विष्णु भगवान की उस प्रतिमा को प्रतिष्ठित कराया जो उसने देवपाल से प्राप्त की थी। यशोवर्मन की मृत्यु के उपरान्त धंग राजा हुआ।
धंग- दसवीं शताब्दी के अन्त में धग उत्तर भारत का सबसे प्रतापी और शक्तिशाली नरेश हो गया। धंग ने अधीनता के इस छद्मवेश को भी उतार फेंका और अपनी पूर्ण स्वाधीनता घोषित कर दी। उसके शासन-काल में चन्देलों की शक्ति का बड़ी तीव्र गति से विकास हुआ। 954 ई. तक उसका राज्य उत्तर में यमुना तक, उत्तर-पश्चिम में ग्वालियर तक और दक्षिण-पश्चिम में भिलसा तक फैल गया। ग्वालियर और कालिंजर उसके हाथ में आ जाने से मध्य भारत में उसकी शक्ति काफी सुदृढ़ हो गई। उसने सम्भवत: इलाहाबाद पर भी अपना अधिकार जमाया। अपने पचास वर्ष के सुदीर्घकालीन शासन में धग ने प्रतिहार साम्राज्य के भूभागों को विजित करना प्रारम्भ किया और यमुना के उत्तर में दूर तक और पूर्व में बनारस तक अपना राज्य बढ़ा लिया। अभिलेखों में उसकी अन्य विजयों का भी उल्लेख किया गया है, परन्तु उन विजयों का वर्णन सत्य के ऊपर समाधारित न हो कर प्रशस्ति-मात्र जान पड़ता है। सुबुक्तगीन के विरुद्ध पंजाब के शाही नरेश जयपाल के पक्ष में हिन्दू राजाओं का जो संघ निर्मित किया गया था उसमें चन्देल राजा धंग भी सम्मिलित हुआ था। खजुराहो में उसने शिव-मन्दिरों का निर्माण कराया जिनका नाम मार्कटेश्वर और प्रमथनाथ पड़ा। एक विद्वान् का कथन है कि खजुराहों के कुछ सुन्दरतम मन्दिरों का निर्माता धंग ही था। धंग बड़ा दीर्घायु था। वह सौ वर्ष से अधिक जीवित रहा। 1002 में प्रयाग में उसका शरीरान्त हो गया। कहा जाता है कि धंग ने रूंगम पर चिताग्नि में बैठकर अथवा संगम में डूब कर अपने जीवन का अंत किया था।
गण्ड और विद्याधर- धंग के उपरान्त उसका पुत्र गण्ड चन्देल राज्य का स्वामी हुआ। उसने भी अपने पिता की भांति महमूद गजनवी के विरुद्ध संगठित किये गये हिन्दू राजाओं के संघ में भाग लिया था। आनन्द पाल (जयपाल) के अनुरोध पर महमूद के आक्रमणों का सामना करने के लिए हिन्दू राजाओं ने अपना संघ बनाया था, परन्तु यह संघ भी महमूद के प्रसार को रोकने में सफल न हो सका। उसके बाद विद्याधर जैजाकभुक्ति राज्य का अधिकारी हुआ। विद्याधर ने, महमूद के प्रति आत्मसमर्पण करने के कारण राज्यपाल प्रतिहार को घोर दण्ड दिया और कन्नौज के साम्राज्य को नष्ट करने का प्रयत्न किया। परमार नरेश भोज-प्रथम और कलचुरि राजा कोक्कल-द्वितीय के साथ विद्याधर की शत्रुता थी परन्तु उसके सामने इन राजाओं की शक्ति तुच्छ थी। उसका प्रभाव चम्बल से लेकर नर्मदा तक फैला हुआ था। अतएव मुस्लिम लेखकों ने उसे अपने समय का सबसे प्रभावशाली राजकुमार कहा है। गजनी के महमूद ने जब 1021 में भारत पर आक्रमण किया और विद्याधर के सामने आया तो कुछ लेखकों के अनुसार, विद्याधर रणक्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। परन्तु विद्याधर के रणभूमि से भागने के विवरण पर कुछ विद्वान विश्वास नहीं करते। डॉ. रे ने इस बात का खण्डन किया है कि विद्याधर बिना लड़े ही रणभूमि से भाग निकला था। अधिक प्राचीन लेखकों के विवरण को अपने विश्वास का आधार बनाते हुए रे महोदय ने लिखा है कि एक भयंकर, किन्तु अनिश्चयात्मक संग्राम हुआ और चन्देल नरेश रात्रि के अंधकार में रणनीति के दृष्टिकोण से पीछे हट गया। अगले वर्ष उन दोनों में पुन: संघर्ष हुआ, किन्तु महमूद को ग्वालियर तथा कालिंजर के विरुद्ध सफलता प्राप्त न हो सकी। इसमें कोई संदेह नहीं की महमूद को इस बात का अनुभव हो गया कि विद्याधर के अधीन चन्देल राज्य, राज्यपाल के अधीन प्रतिहार राज्य से, काफी भिन्न और अधिक शक्तिशाली था। महमूद ने दो बार चंदेलों पर आक्रमण किए, परन्तु लम्बे घेरों के बाद भी उनके दुर्गों पर अधिकार ने कर सकने के कारण उसे लौट जाना पड़ा। उसने विद्याधर के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिया। डॉ. मजूमदार ने लिखा है की विद्याधर ही ऐसा अकेला भारतीय नरेश था जिसे इस बात का गौरव प्राप्त है की उसने सुल्तान महमूद की विजय पिपासा प्रवृत्ति को दृढ़ता पूर्वक रोका और उस सहानुभूतिशून्य विजेता के द्वारा विवेकशून्य विनाश से अपने राज्य को बचा लिया। 1029 ई. में विद्याधर का देहान्त हो गया।
चन्देलों की शक्ति के विकास में चेदि नरेश गांगेय के उत्थान ने बाधा पहुंचाई। उसके पुत्र लक्ष्मीकर्ण कलचुरि की शक्ति ने भी चन्देलों की शक्ति को पर्याप्त क्षति पहुँचाई। गण्ड के पौत्र विजयपाल को विवश होकर बुन्दलेखण्ड की पहाड़ियों में शरण लेनी पड़ी और उसके पुत्र देववर्मन को गांगेय के पुत्र कर्ण ने सिंहासनच्युत् कर दिया। परन्तु ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कीर्तिवर्मन ने ब्राह्मण योद्धा गोपाल की सहायता से अपने वंश की लुप्तप्राय शक्ति और मर्यादा को पुन: प्रतिष्ठापित किया।
कीर्तिवर्मन, मदनवर्मन और परमार्दि- कीर्तिवर्मन की शक्ति के उत्थान का विवरण संस्कृत के प्रबोधचन्द्रोदय नाटक से मिलता है। यह नाटक कृष्ण मिश्र ने लिखा था और कीर्तिवर्मन की विजय के उपलक्ष्य में यह सबसे पहले अभिनीत किया गया था। कीर्तिवर्मन ने कृष्ण मिश्र को अपना राजाश्रय प्रदान करने के अतिरिक्त और भी सांस्कृतिक कार्य किये। उसने महोबा में शिवमन्दिर और कालिंजर तथा आजमगढ़ में भी भवन बनवाये। कीर्तिवर्मन ने महोबा और चन्देरी में झीलें भी खुदवाई। उसने कालचुरी नरेश लक्ष्मीकर्ण को पराजित किया। महमूद ने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया था। किन्तु कीर्तिवर्मन ने उसके सभी प्रयत्नों को विफल कर दिया। लगभग 1100 ई. में कीर्तिवर्मन का निधन हो गया।
कीर्तिवर्मन के उपरान्त सल्लक्षण वर्मन (1100-1115 ई.) नरेश हुआ। वह एक पराक्रमी योद्धा तथा कुशल सेनानायक था। मऊ अभिलेख के अनुसार वह एक उदार, परोपकारी विद्वान तथा कला प्रेमी सम्राट था। सल्लक्षण वर्मन के उपरान्त जयवर्मन, मदनवर्मन, परमार्दिदेव तथा त्रिलोकवर्मन चन्देल नरेश हुए। परमार्दिव कालिंजर का 1165 में शासक था। किन्तु पृथ्वी राज चौहान द्वारा वह पराजित हो गया था। उसके उपरान्त कुतुबुद्दीन ऐबक ने परमार्दिदेव को पराजित कर बुन्देलखण्ड के अधिकांश भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। परमार्दिदेव के दो अत्यन्त निष्ठावान सेनानी थे जिनके शौर्य और बलिदान की कथा जगनिक द्वारा प्रणीत आल्ह खण्ड काव्य में संपुरित है। यह आल्हा-अदल के शौर्य का वर्णन करने वाला, वहां की आंचलिक भाषा में लिखा गया, यह काव्य आज भी बुंदेलखंड, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में अत्यंत लोकप्रिय है। परमार्दि की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र त्रिलोक्वार्मन मुस्लिम आक्रान्ताओं से लड़ता रहा। 1205 ई. में उसने कालिंजर पर पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसके उत्तराधिकारी 16वीं शती तक बुन्देलखण्ड के कुछ भाग पर शासन करते रहे।