चालुक्य Chalukya
चालुक्य राजवंश इतिहास जानने के प्रामाणिक साधन चालुक्यों के अभिलेख हैं। ये शिलाओं, स्तम्भों, ताम्रपत्रों और मंदिरों की दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। इनकी भाषा संस्कृत, कन्नड़ व तेलुगू है। अभिलेखों में शक संवत् का प्रयोग हुआ है। चालुक्यों का महत्त्वपूर्ण अभिलेख एहोल है जो पुलकेशिन द्वितीय के दरबारी कवि रविकीर्ति द्वारा लिखा गया है। अभिलेखों का विवरण परस्पर विरोधी है। चालुक्यों के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। बहुत से साहित्यिक ग्रन्थों से भी चालुक्यों से सम्बन्धित जानकारी मिलती है। चीनी यात्री ह्वेनसांग व ईरानी इतिहासकार टाबरी के विवरण भी उल्लेखनीय हैं। अजन्ता की गुफा के चित्रों की पहचान करवाने में टाबरी के प्रयास महत्त्वपूर्ण है। विल्हण कृत विक्रमांकदेवचारित चालुक्यों का इतिहास जानने का प्रमुख साहित्यिक साधन है। इससे प्राचीन भारतीयों के इतिहास प्रेम का भी बोध होता है।
वाकाटकों के बाद दक्षिण के इतिहास में चालुक्यों का स्थान आता है। चालुक्यों की उत्पत्ति का प्रश्न काफी विवादास्पद रहा है। कुछ विद्वान् उन्हें शूलिक जाति से उत्पन्न मानते हैं जिसका उल्लेख वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में किया है। कुछ इतिहासकार इनका उद्गम स्थल उत्तरप्रदेश को मानते हैं जो दक्षिण में आकर बस गये। निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि ये उत्तरी भारत के क्षत्रिय थे जो राजस्थान में बस गये थे। छठी शताब्दी में ये दक्षिण में आकर एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरे। कालान्तर में इनकी कई शाखाएँ बनी जैसे वातापी के चालुक्य, कल्याणी के चालुक्य तथा वेंगी के चालुक्य। स्पष्ट साक्ष्य न होने के कारण किसी एक शाखा के मूलवंश को स्वीकारना कठिन है। गोत्र व नामों में भिन्नता होने से इन शाखाओं की वंशगंत भिन्नता स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है। चालुक्य का पहला राजा जयसिंह था। कैरा ताम्रपत्र (472-73 ई.) के अनुसार बादामी के चालुक्य राजवंशों का प्रथम ऐतिहासिक शासक जयसिंह था। अपनी प्रतिभा के बल पर वह आन्ध्र प्रदेश के बीजापुर क्षेत्र का सामंत शासक बन गया। जयदेव मल्ल के दौलताबाद लेख में जयसिंह को कदम्ब नरेशों के ऐश्वर्य का विनाशकत्ता कहा गया है। कोथेम एवं अन्य अभिलेखों में उसे राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तथा उसके पुत्र कृष्ण को पराजित करने वाला कहा गया है। उसके पुत्र रणराग के समय में चालुक्यों की शक्ति में वृद्धि हुई। रणराग के शासन काल का कोई अभिलेख तो उपलब्ध नहीं हुआ है फिर भी उसका शासन काल 520 ई. के लगभग माना जा सकता है। छठी शताब्दी के मध्य में तीसरा शासक पुलकेशिन प्रथम था जिसने चालुक्य सत्ता का प्रसार किया। उसके समय में भी वातापीपुर चालुक्यों की राजधानी बनी। उसने अश्वमेध यज्ञ का संपादन किया जिसका उल्लेख 543 ई. के एक वादामि के अभिलेख में हुआ है। वह 540 ई. के लगभग शासक बना। महाकूट सांभलेख के अनुसार पुलकेशिन प्रथम ने अश्वमेघ यज्ञ के अतिरिक्त बाजपेय, अग्निहोम, अग्निचयन, पौंडरीक, बहुसुवर्ण तथा हिरण्यगर्भ आदि यज्ञों का संपादन कराया। स्पष्ट है कि वैदिक धर्म में उसकी गहन आस्था थी। मंगलरसराज के नेरूर-अभिलेख के अनुसार पुलकेशिन प्रथम रामायण, महाभारत, पुराण आदि का ज्ञाता होने के साथ-साथ राजनीति में भी पारंगत था। विभिन्न अभिलेखों से उसके चरित्र की कतिपय विशेषताओं का भी बोध होता है। उसे दृढ़प्रतिज्ञ, सत्यवादी तथा ब्राह्मण कहा गया है। उसके लिए धर्ममहाराज विरुद्ध का प्रयोग हुआ है। पुलकेशिन प्रथम ने रणविक्रम, सत्याश्रय, धर्ममहाराज, पृथ्वीवल्लभराज राजसिंह आदि की उपाधियाँ धारण कीं। विभिन्न चालुक्य शासकों में उसे एक योग्य एवं सफल शासक कहा जा सकता है जिसकी साहित्य एवं धर्म में गहन अभिरुचि थी।
पुलकेशिन प्रथम के बाद उसका पुत्र कीर्तिवर्मन प्रथम शासक बना जिसका काल 566 ई. के लगभग है। महान् विजेता विभिन्न अभिलेखों में उसे कहा गया है, जिसने मगध, बंग, कलिंग, मुद्रक, गंग, मषक, पाण्ड्य, चौलिय, द्रमिल, नल, कदम्ब, मौर्य आदि राज्यों पर विजय पायी। ऐतिहासिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि उसने कोंकण, उत्तरी कनारा, उत्तरी दक्षिण के प्रदेशों को विजित किया जिसमें दक्षिण महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा तमिलनाडु के प्रदेशों तक उसके साम्राज्य का विस्तार हो गया। कोंकण पर अधिकार से गोआ (रेवती द्वीप) भी उसके क्षेत्राधिकार में आ गया था। गोआ एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था जिससे चालुक्यों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। उनका अन्तप्रदेशीय व अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बढ़ा। अपनी विभिन्न उपलब्धियों के उपलक्ष्य में कीर्तिवर्मन ने पृथ्वीवल्लभ, पुरुरणपराक्रम एवं सत्याश्रय आदि अनेक उपाधियाँ धारण कीं, विभिन्न यज्ञों का संपादन किया। अपने शासन काल में उसने कई कलात्मक निर्माण कायों को प्रोत्साहन दिया।
कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के उपरान्त मंगलेश चालुक्य शासक बना जो कीर्तिवर्मन प्रथम का छोटा भाई था। वह लगभग 597 ई. में मनोनीत किया गया। वह भी शक्तिशाली शासक बना जिसने कलचुरि वंश के राजा से युद्ध किया और खानदेश व उसके आसपास के क्षेत्र को जीत कर चालुक्य राज्य में शामिल किया। ऐहोल अभिलख में उल्लेख हुआ है कि जो विजयश्री अब तक कलचुरि राजवंश को वरण करती थी, वही अब मंगलेश के पौरुष एवं वीरता पर प्रसन्न हो गयी थी। बाद में उसने कदम्बों को उखाड़ फेंका। वातापी के चालुक्यों की शक्ति के कारण ही यह शाखा इतिहास में वातापी चालुक्यों के नाम से प्रसिद्ध हुई।