केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो Central Bureau of Investigation – CBI
केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो की स्थापना अप्रैल 1963 में हुई थी। इससे पूर्व इस संगठन को विशेष पुलिस प्रतिष्ठान के रूप में जाना जाता था, जिसे दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 के अंतर्गत बनाया गया था और जो इसी अधिनियम के अनुसार परिचालित होता था। 1963 में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की स्थापना के बाद इस संगठन के कार्यकलापों को विस्तृत कर दिया गया। यह भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय तथा विश्वसनीयता प्राप्त प्रशासनिक संस्था है। परिश्रम, निष्पक्षता, सच्चरित्रता के ध्येय वाक्य को लेकर कार्यरत सी.बी.आई. एक केंद्रीय पुलिस जांच एजेंसी है। देश की इस शीर्षस्थ जांच एजेंसी का मुख्य लक्ष्य सार्वजनिक जीवन में मूल्यों के संरक्षण तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप बनाए रखना है। देश का यह अभिजात्य बल इण्टरपोल के साथ समन्वय भी स्थापित करता है। नितांत पेशेवर कार्यशैली से युक्त सी.बी.आई. ने सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों, संसद तथा आमजन का विश्वास की जांच सी.बी.आई. को सौंपने की मांग की जाती है।
उल्लेखनीय है की केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो को राज्य की सुरक्षा सम्बन्धी मामलों के साथ-साथ राष्ट्रीय महत्व के मामलों की जांच का कार्य भी सौंपा गया है। सन् 1985 में सी.बी.आई. को गृह मंत्रालय से हटाकर नए बने कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के अधीन किया गया। ऐसा इसलिए किया गया कि यह मंत्रालय प्रायः प्रधानमंत्री के प्रत्यक्ष नियंत्रण में होता है। सन् 1991 में राजीव गांधी हत्या सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहने तथा सन् 1993 में मुम्बई बम विस्फोटों के पश्चात् इनकी जांच संबंधी विशेष जांच टीम भी गठित हुई। आर्थिक उदारीकरण के दौर में बड़े आर्थिक अपराधों की जांच हेतु सन् 1994 में आर्थिक अपराध संभाग की स्थापना हुई।
वर्तमान में सी.बी.आई. का मुख्यालय कार्य संचालन की दृष्टि से निम्नांकित सात संभागों में विभक्त है-
- अभियोजन निदेशालय
- केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला;
- भ्रष्टाचार निरोधी संभाग;
- आर्थिक अपराध संभाग;
- विशेष अपराध संभाग;
- प्रशासन संभाग;
- नीति एवं समन्वय संभाग
सी.बी.आई. का कार्यक्षेत्र
सी.बी.आई. के कार्य समय के साथ बढती इसकी उपयोगिता एवं कार्यक्षेत्र के अनुरूप विकसित एवं विस्तारित हुए हैं। सी.बी.आई. के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-
- विशेष अपराधों, जैसे- आतंकवाद, बम विस्फोट, आत्मघाती हमले, फिरौती हेतु अपहरण तथा माफिया एवं अण्डरवर्ल्ड से जुड़े अपराधों इत्यादि की जांच करना;
- केंद्रीय विभागों, केंद्रीय लोक उपक्रमों तथा केंद्रीय वित्तीय संस्थानों के कार्मिकों द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार तथा धोखेबाजी प्रकरणों की जाँच करना
- अपने सामान्य कार्यक्षेत्र से बाहर ऐसे प्रकरणों की भी जांच करना जो उसे सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा राज्य सरकारों द्वारा सौंपे गए हैं
- इण्टरपोल से संबंधित कार्यों में भाग लेकर राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय अपराधों से संबंधित सूचनाओं का आदान-प्रदान तथा तत्संबंधी जांच भी करना
- विदेशी मुद्रा विनिमय, शासकीय गोपनीयता तथा भारत की प्रतिरक्षा से जुड़े मुद्दों तथा अपराधों की जांच करना
- केंद्रीय सरकार द्वारा अनुरोध करने पर उनसे संबंधित कर्मचारियों एवं अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही करना
- आर्थिक अपराधों जैसे- बैंकिंग धोखाधड़ी, आयात-निर्यात विनिमय उल्लंघन, नशीले पदार्थों तथा पुरामहत्व की वस्तुओं औरसांस्कृतिक सम्पदा सहित प्रतिबंधित वस्तुओं की तस्करी इत्यादि की जांच करना;
- राष्ट्रीय स्तर पर अपराधों के आंकड़े एकत्र करना और अपराधों एवं अपराधियों के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त करना एवं अन्य एजेंसियों को सूचनाएं प्राप्त करना
- रेलवे एवं डाक-तार से जुड़े अपराध, समुद्री एवं हवाई अपराध, पेशेवर आपराधिक घटनाएं, संयुक्त पूंजी कंपनियों में गबन तथा अन्य गैगवार अपराधों की जांच करना
- उन अपराधों की जांच एवं अन्वेषण करना जो राज्य सरकार द्वारा नहीं सुलझाए जा सकते हैं
- विभिन्न अपराधों में यह संख्या जो अनुसंधान करती है उनमें सरकार की अपनी राय भी देना।
सीबीआई का राजनीतिकरण: सीबीआई का राजनीतिकरण इंदिरा गांधी के समय में शुरू हो गया था और उनके बाद के सभी प्रधानमंत्रियों ने सीबीआई द्वारा अन्वेषित भ्रष्टाचार मामलों की जांच को प्रभावित किया या तो शासित दल के मामलों को दबाने के लिए या राजनीतिक विरोधियों को डराने के लिए किया गया। राजीव गांधी के शासनकाल में बोफोर्स मामले की छानबीन को दबाने का कथित प्रयास किया गया। अन्य प्रधानमंत्रियों के समय में भी जांच प्रक्रिया के राजनीतिकरण के मामले शामिल हैं। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बाद कोई प्रधानमंत्री ऐसा नहीं रहा जो जांच प्रक्रिया के राजनीतिकरण से दूर रहा हो।
सीबीआई और इसकी जांच प्रक्रिया का राजनीतिकरण उत्तरोत्तर सीबीआई निदेशकों का राजनीतिक हस्तक्षेप के प्रति विरोध का अभाव रहा है।
सीबीआई की राजनीतिक तटस्थता को सुनिश्चित करने के लिए एल.पी. सिंह समिति ने कुछ महत्वपूर्ण अनुशंसाओं को रखा-
- सीबीआई के कार्यकरण के पर्यवेक्षण हेतु संसद द्वारा एक पृथक् निगरानी समिति का गठन किया जाना चाहिए।
- सीबीआई के मुखिया के तौर पर केवल भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी की नियुक्ति की प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिए और किसी भी क्षेत्र से ऐसे व्यक्ति को इस पद के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए जो इसके लिए बेहद उपयुक्त हो। समिति में कथित तौर पर यह महसूस किया कि भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी, अपने कार्य के दौरान राजनेताओं के साथ घनिष्ट सम्बन्ध बना लेते है, जिससे राजनीतिक वर्ग द्वारा इन्हें आसानी से अपने निहित स्वार्थों के लिए सहमत कर लिया जाता है। धर्मवीर के अंतर्गत स्थापित राष्ट्रीय पुलिस आयोग, ने एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग के गठन की सिफारिश की जिसे सीबीआई के कार्यो के पर्यवेक्षण का काम सौंपा जाए।
इन अनुशंसाओं को भी बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एवं उनके उत्तराधिकारियों ने क्रियान्वित नहीं किया।
सीबीआई में लोगों का विश्वास यूपीए सरकार के दौरान विगत् कुछ वर्षों से क्षीण हुआ है क्योंकि सीबीआई कांग्रेस के विरोधियों के खिलाफ तीव्र कार्रवाई करती दिखाई दी है जबकि इसके सहयोगियों (सरकार में) के प्रति इसने नरम रुख दिखाया है। सीबीआई को व्यापक तौर पर एक गैर-पेशेवर और राजनीतिक संस्था के तौर पर देखा जा रहा है, जिसमें इसे सौंपे गए मामलों की गुणवत्ता या प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करने की न तो इच्छा शक्ति है और न ही क्षमता। सीबीआई ने विगत् कुछ वर्षों से राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में कोई अच्छा कार्य नहीं किया है चाहे वह राष्ट्रमण्डल खेलों की बात हो या नीरा राडिया टेप काण्ड का मामला रहा हो। सीबीआई के राजनीतिकरण के परिणामस्वरूप शक्तिशाली लोगों से जुड़े जांच मामले बाधित किए जाते हैं और एजेंसी में अच्छा काम करने वाले लोगों की हतोत्साहित किया जाता है। यह सब देश के हित में नहीं है। केंद्र सरकार को सीबीआई के स्वतंत्र रूप से कार्यकरण को सुनिश्चित करना चाहिए और सीबीआई का राजनीतिकरण समाप्त करना चाहिए तथा इसकी एकात्मकता को बनाए रखना चाहिए ताकि यह अपने प्राथमिक उद्देश्यों पर अडिग रह सके।
जहां तक जांच प्रक्रिया का संबंध है, समूचे विश्व में, जांच एजेंसी देश के कानून एवं न्यायपालिका के प्रति जिम्मेदार होती है। इन मामलों में न तो कार्यपालिका की और न ही विधायिका की भूमिका मानी जाती है। वैधानिक रूप से भारत में भी ऐसा ही है, लेकिन वस्तुतः कार्यपालिका जांच प्रक्रिया में हस्तक्षेप करती है और राजनीतिक रूप से इसे प्रभावित करने का प्रयास करती है। राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने का एक संभव समाधान है कि सीबीआई की जांच प्रक्रिया पर पर्यवेक्षण की शक्तियां लोकपाल को दी जाएं या भ्रष्टाचार के मामलों में इसकी एक पृथक् जांच विंग बनाई जाए जो लोकपाल के नियंत्रण में हो।