कैबिनेट मिशन योजना,1946 Cabinet Mission Plan,1946
फरवरी 1946 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय उच्च-स्तरीय शिष्टमंडल भेजने की घोषणा की। इस शिष्टमंडल में ब्रिटिश कैबिनेट के तीन सदस्य- लार्ड पैथिक लारेंस (भारत सचिव), सर स्टेफर्ड क्रिप्स (व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष) तथा ए.वी. अलेक्जेंडर (एडमिरैलिटी के प्रथम लार्ड या नौसेना मंत्री) थे। इस मिशन को विशिष्ट अधिकार दिये गये थे तथा इसका कार्य भारत को शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिये, उपायों एवं संभावनाओं को तलाशना था।
अंग्रेजों की भारत से वापसी क्यों अपरिहार्य प्रतीत होने लगी?
- सरकार-विरोधी संघर्ष में राष्ट्रवादियों की सफलता से उनकी विजय निर्णायक स्थिति में पहुंच चुकी थी। राष्ट्रवाद, अब समाज के उन वर्गों और क्षेत्रों तंक पहुंच-चुका था, जो कि अब तक इस प्रक्रिया से अछूते थे।
- प्रथम विश्व युद्ध से लेकर 1939 के अंत तक भारतीय सिविल सेवा में यूरोपियों की जो सर्वोच्चता स्थापित थी, वह धीरे-धीरे समाप्त हो रही थी। इसका प्रमुख कारण इन सेवाओं में भारतीयों का बढ़ता प्रतिनिधित्व तथा सेवाओं का भारतीयकरण था। इन सेवाओं के भारतीयकरण से यूरोपियों में असंतोष बढ़ने लगा तथा धीरे-धीरे उनकी रुचि इन सेवाओं के प्रति कम होने लगी। इसके साथ नौकरशाही एवं सरकार भक्त तबके में भी असंतोष बढ़ने लगा। लंबे विश्व युद्धों के कारण भारत में आर्थिक कठिनाइयां बढ़ रही थीं तथा देश धीरे-धीरे दिवालियेपन की ओर अग्रसर हो रहा था।
- अंग्रेज सरकार की समझौतावादी एवं दमनकारी नीति की अपनी कुछ सीमायें थीं। साथ ही इसमें विरोधाभास प्रकट होने लगा था। जैसे कि-
क्रिप्स मिशन के उपरांत सरकार पूर्ण स्वतंत्रता को छोड़कर केवल सीमित समझौते की नीति पर ही चल रही थी।
जब अहिंसक असहयोग आंदोलन को दबाने के लिये सरकार ने दमन का सहारा लिया तो उसका फासीवादी चेहरा अनावृत हो गया तथा जब सरकार ने आंदोलनों के विरुद्ध दमन का सहारा लेने से बचने की कोशिश की तो नौकरशाही हताश हुयी तथा सरकार की प्रतिष्ठा में भारी गिरावट आयी।
सरकार द्वारा कांग्रेस के प्रति प्रेम दिखाये जाने से उसके भक्त असंतुष्ट हो गये।
सरकार की इन विरोधाभासी नीतियों के कारण नौकरशाही असमंजस की स्थिति में फंस गयी, जो कि अभी तक सर्वश्रेष्ठता की भावना पाले हुये थी तथा किसी भी स्थिति में भारतीयों के समक्ष झुकने को तैयार नहीं थी। चुनावों के उपरांत विभिन्न प्रांतों में कांग्रेस सरकारों के गठन से यह स्थिति और जटिल हो गयी तथा नौकरशाही एवं राजभक्त असमंजस के दलदल में आकंठ डूब गये।
- संविधानवाद या कांग्रेस राज ने भारतीयों में जुझारूपन की प्रवृत्ति को और सशक्त बना दिया तथा राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रसार को और तेज कर दिया।
- आजाद हिन्द फौज के युद्धबंदियों के समर्थन में पूरे राष्ट्र ने जिस अभूतपूर्व एकता का परिचय दिया उससे सरकार सकते में आ गयी। तदुपरांत रायल इंडियन नेवी के नाविकों के विद्रोह से सरकार के सम्मुख यह बात स्पष्ट हो गयी कि अब वह सेना पर भी पूर्ण विश्वास नहीं कर सकती। उसने महसूस किया कि यदि कांग्रेस ने अब कोई आंदोलन प्रारंभ किया तो उसे प्रांतीय कांग्रेसी सरकारें भी खुलकर सहयोग प्रदान करेंगी।
- तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीयों के पूर्ण दमन का एक ही उपाय था- अंतरिम शासन व्यवस्था। किंतु अब यह व्यवस्था असंभव प्रतीत होने लगी थी क्योंकि सरकार के पास अब पर्याप्त संख्या में दक्ष अधिकारी नहीं थे।
- ब्रिटिश सरकार अब यह सोचने पर विवश हो गयी कि जन आंदोलन के भविष्य में भारत-ब्रिटिश संबंधों को अच्छा बनाये रखने का एकमात्र यही उपाय है। ब्रिटेन में भी सरकार एवं उच्च नीति-नियामक यह महसूस करने में लगे अंग्रेजों की सम्मानपूर्वक वापसी का यही एक उपाय है कि भारतीयों से समझौता कर लिया जाये तथा शांतिपूर्ण ढंग से उन्हें सत्ता सौंप दी जाये।
कैबिनेट मिशन योजना की पूर्व संध्या
कैबिनेट मिशन योजना की पूर्वसंध्या पर कांग्रेस ने मांग की कि वह एकीकृत केंद्र में ही सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को स्वीकार करेगी। अल्पसंख्यकों की मांग के संबंध में उसकी नीति थी कि मुस्लिम बहुल प्रांतों को आत्मनिर्णय द्वारा केंद्र में विलय का होने का अधिकार है। किंतु उसने स्पष्ट किया कि यह प्रक्रिया अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के उपरांत ही पूर्ण होगी।
ब्रिटेन की मंशा भी यही थी कि वह संयुक्त एवं मैत्रीभाव वाले भारत को सत्ता हस्तांतरित करे तथा राष्ट्रमंडल की सुरक्षा हेतु भारत को सक्रीय साझेदार बनाए क्योंकि ब्रिटेन का मानना था कि विभाजित भारत से राष्ट्रमंडल की शक्ति क्षीण होगी तथा ब्रिटिश सर्वोच्चता की उसकी नीति प्रभावित होगी।
1946 में ब्रिटेन की संयुक्त भारत के संबंध में स्पष्ट नीति थी, जो कि उसकी पूर्ववर्ती नीतियों से सर्वथा भिन्न थी। 15 मार्च 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने कहा कि “……अल्पसंख्यकों की मांगे विचारणीय हैं….परंतु उन्हें बहुसंख्यकों के हितों की उपेक्षा करके पूरा नहीं किया जा सकता”। यह घोषणा शिमला सम्मेलन में सरकार द्वारा अपनायी गयी उस घोषणा से बिल्कुल भिन्न थी, जिसमें वायसराय वैवेल ने जिन्ना को संतुष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया था।
भारत मे कैबिनेट मिशन का आगमन
24 मार्च 1946 को कैबिनेट मिशन दिल्ली पहुंचा। मिशन ने विभिन्न दलों एवं समूहों के नेताओं से निम्न मुद्दों पर कई दौर की बातचीत की-
- अंतरिम सरकार।
- भारत की स्वतंत्रता देने एवं नये संविधान के निर्माण हेतु आवश्यक सिद्धांत एवं उपाय।
जब एकता या विभाजन के आधारभूत मुद्दे पर कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग दोनों ने आपस में कोई सहमति नहीं हो सकी तो मिशन ने अपनी ओर से संवैधानिक समस्या के समधान हेतु मई 1946 में योजना प्रस्तुत की।
कैबिनेट मिशन योजना-मुख्य बिन्दु
पूर्ण पाकिस्तान के गठन की मांग अस्वीकार कर दी क्योंकि-
- पाकिस्तान के गठन से बड़ी संख्या में गैर-मुस्लिम जनसंख्या उसमें सम्मिलित हो जायेगी। जैसे- उत्तर-पश्चिम में 38 प्रतिशत जनसंख्या तथा उत्तर-पूर्व में 48 प्रतिशत जनसंख्या।
- साम्प्रदायिक आत्म-निर्णय के सिद्धांत से नयी-समस्यायें खड़ी हो सकती थीं। जैसे पश्चिमी-बंगाल में हिन्दू बहुसंख्या में थे तथा पंजाब के जालंधर व अम्बाला डिवीजन में हिन्दू व सिख बहुसंख्यक थे, अतः वे भी विभाजन की मांग कर सकते थे। दूसरी ओर कुछ सिख नेता पहले से ही राग अलाप रहे थे कि यदि देश का विभाजन किया गया तो वे भी पृथक राज्य की मांग उठायेंगे।
- पंजाब एवं बंगाल के विभाजन से क्षेत्रीय संधियां खतरे में पड़ सकती थीं।
- विभाजन से प्रशासनिक एवं आर्थिक समस्यायें खड़ी हो सकती थीं। जैसे कि- पाकिस्तान के पूर्वी एवं पश्चिमी भागों के मध्य सचार की समस्या।
- सशस्त्र सेनाओं का विभाजन अत्यंत खतरनाक हो सकता था।
- प्रातीय विधानमंडलों का तीन समूहों में विभाजन-
- समूह-कः मद्रास, बंबई, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बिहार एवं उड़ीसा (हिन्दू बहुसंख्यक प्रांत)।
- समूह-खः पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत एवं सिंध (मुस्लिम बहसंख्यक प्रांत)।
- समूह-गः बंगाल एवं असम (मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत)।
- कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका का त्रिस्तरीय- केन्द्रीय, प्रांतीय एवं समूह स्तरों में विभाजन।
- संविधान सभा का निर्वाचन, प्रांत की विधानसभाओं के सदस्य तथा प्रांत की जनसंख्या के अनुपात के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के द्वारा किया जायेगा। निर्वाचन मंडल में केवल तीन वर्ग माने गये- मुस्लिम, सिख और अन्य (हिन्दू सहित)। प्रस्तावित संविधान सभा में 389 सदस्य होने थे; जिनमें से 292 सदस्य भारतीय प्रांतों से, 4 मुख्य आयुक्तों के राज्यों से तथा 93 देशी रियासतों से चुने जाने थे। यह एक उपयुक्त एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था थी, जो कि परिमाण पर आधारित नहीं थी।
- इस संविधान सभा में- समूह क ख एवं ग तीनों के सदस्य प्रांतों का संविधान बनाने हेतु पृथक-पृथक बैठकर विचार-विमर्श करेंगे और यदि संभव हुआ तो समूहों के लिये संविधान निर्माण का भी प्रयास करेंगे। तत्पश्चात तीनों समूहों के सदस्य (अर्थात संपूर्ण संविधान सभा) एक साथ बैठकर संघीय संविधान का निर्माण करेंगे।
- ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों को मिलाकर एक भारतीय परिसंघ बनाया जायेगा। एकीकृत संघ- रक्षा, संचार एवं विदेशी मामलों पर नियंत्रण रखेगा।
- केंद्रीय व्यवस्थापिका में साम्प्रदायिक प्रश्नों का हल दोनों समुदाय के उपस्थिति एवं मत देने वाले सदस्यों के सामान्य बहुमत के आधार पर किया जायगा।
- हर प्रांत को पृथक-पृथक कार्यपालिका और विधायिका के साथ समूह बनाने का अधिकार होगा तथा प्रत्येक समूह को अपने अधीन रखे जाने वाले प्रांतीय विषयों के संबंध में निर्णय का अधिकार होगा।
- सत्ता हस्तांतरण के पश्चात भारतीय राज्यों से संबद्ध सर्वोच्च शक्ति न इंग्लैंड के पास रहेगी और न ही भारत के पास। भविष्य में 552 देशी रियासतों का भारत में क्या स्थान होगा, इस विषय में ये रियासतें संविधान सभा से बातचीत करेंगी और इस बीच इन रियासतों का संविधान सभा में प्रतिनिधित्व होगा।
- केंद्रीय संविधान सभा और इंग्लैंड में सत्ता-हस्तांरण से उत्पन्न विवादों के निराकरण के लिये एक संधि के संदर्भ में बातचीत की आवश्यकता दशयिी गयी थी।
- सभी दलों की सहायता से एक अंतरिम सरकार की स्थापना की जायेगी, जिसमें सभी विभाग भारतीय नेताओं के पास रहेंगे।
समूह व्यवस्था के संबंध में भिन्न-भिन्न व्याख्याएं-
प्रत्येक पार्टी या समूह ने समूह व्यवस्था की अवधारणा को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा तथा उसकी अलग-अलग व्यवस्था की-
कांग्रेस जब तक समूह व्यवस्था की अवधारणा वैकल्पिक है तब तक कैबिनेट मिशन योजना पाकिस्तान निर्माण के विरुद्ध है। एकल संविधान सभा का गठन विचारणीय है; मुस्लिम लीग का वीटो पावर समाप्त हो गया है।
मुस्लिम लीग अनिवार्य समूहीकरण की व्यवस्था में पाकिस्तान का निर्माण अंर्तभूत है।
कैबिनेट मिशन योजना के संबंध में मुख्य आपत्तियां
विभिन्न दलों ने भिन्न-2 आधारों पर कैबिनेट मिशन का विरोध किया-
कांग्रेस
- प्रथम आम चुनावों होने तक समूह के रूप में प्रांतों का इंतजार करना उचित व्यवस्था नहीं है। प्रांतों को यह छूट होनी चाहिए कि वे समूह में सम्मिलित हों या नहीं।
- समूहों में सम्मिलित होने की अनिवार्यता प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धांत के विपरीत है।
- संविधान सभा में देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के लिये निर्वाचन की व्यवस्था न होने की बात स्वीकार नहीं की जा सकती। (विदित है कि देशी रियासतों के प्रतिनिधि राजाओं द्वारा मनोनीत किये जाने थे)।
मुस्लिम लीग
समूहीकरण की शर्त समूह ख एवं ग के लिये अनिवार्य होनी चाहिये तभी भविष्य में पाकिस्तान के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। लीग का सोचना था कि कांग्रेस, कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर देगी तब सरकार अंतरिम सरकार के गठन के लिये लीग को आमंत्रित करेगी।
स्वीकार्यताः 6 जून को मुस्लिम लीग ने और 24 जून 1946 को कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन योजना के दीर्घ अवधि के प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया।
जुलाई 1946: संविधान सभा के गठन हेतु प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं में चुनाव संपन्न हुये।
कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों के आधार पर पहले तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सरकार में भागीदारी से इंकार कर दिया पर संविधान निर्मात्री सभा में शामिल होना स्वीकार कर लिया। मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को आरंभ में तो स्वीकार कर लिया किंतु बाद में उससे अपनी स्वीकृति वापस ले ली। कांग्रेस द्वारा संविधान सभा में शामिल होने और मुस्लिम लीग द्वारा अपनी स्वीकृति वापस ले लेने के कारण वायसराय ने लीग के प्रतिनिधित्व के बिना ही कार्यकारिणी का गठन कर लिया। वायसराय द्वारा उठाये गये इस कदम को अनुचित बताते हुये लीग ने 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ का आह्वान किया।
2 सितम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू और उनके सहकर्मियों ने वायसराय की काउंसिल के सदस्यों के रूप में शपथ ली। यह काउंसिल नेहरू के नेतृत्व में एक प्रकार से मंत्रिमंडल के रूप में काम करने लगी। नेहरू के नेतृत्व में काउंसिल के राष्ट्रसमर्थक कार्यों और कांग्रेस की शक्ति में वृद्धि को देखते हुये वायसराय लार्ड वैवेल ने घबराकर मुस्लिम लीग को काउंसिल में शामिल होने के लिये राजी कर लिया। मुस्लिम लीग को काउंसिल में शामिल करना इसलिये आपेक्षित था क्योंकि उसके बिना काउंसिल असंतुलित थी। मुस्लिम लीग ने अब भी संविधान सभा में शामिल होने से अस्वीकार कर दिया था। लेकिन जवाहरलाल नेहरू को लार्ड वैवेल ने यह सूचना दी कि मुस्लिम लीग ने काउंसिल में शामिल होना स्वीकार कर लिया है।
वैवेल के इस कार्य से मंत्रिमंडल (काउंसिल) में असहयोग का वातावरण उत्पन्न हो गया और लीग द्वारा यह घोषणा कर दिये जाने पर कि उसने संविधान सभा में शामिल होने का कोई वायदा नहीं किया था, वैवेल के लिये असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गयी। 9 दिसम्बर, 1946 को मुस्लिम लीग के सदस्यों की अनुपस्थिति में ही डा. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन कर दिया गया। मुस्लिम लीग ने इस संविधान सभा का विरोध किया और पृथक पाकिस्तान की मांग को और अधिक प्रखर रूप में सामने रखा।
मुस्लिम लीग की गतिरोध उत्पन्न करने की मानसिकता तथा भविष्य की रणनीति
9 दिसम्बर 1946 को आयोजित संविधान सभा की प्रथम बैठक में मुस्लिम लीग सम्मिलित नहीं हुयी। तत्पश्चात लीग की अनुपस्थिति में बैठक में जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार किये गये एक मसौदे को पारित किया गया, जिसमें “एक स्वतंत्र, पूर्ण प्रभुसत्तासंपन्न गणराज्य की स्थापना का आदर्श लक्ष्य था। जिसे स्वायत्तता, अल्पसंख्यकों को पर्याप्त संरक्षण देने का अधिकार तथा सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त होगी”।
मुस्लिम लीग ने मंत्रिमंडल द्वारा निर्णय लिये जाने के लिये आहूत की गयी अनौपचारिक बैठक में भी भाग नहीं लिया।
मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के सदस्यों द्वारा लिये गये निर्णय तथा नियुक्तियों पर सवाल उठाये। वित्तमंत्री के रूप में लियाकत अली खान मत्रिमंडल के अन्य मंत्रियों के कार्य में बाधक बन रहे थे।
मुस्लिम लीग का उद्देश्य किसी भी तरह पृथक पाकिस्तान का निर्माण करना था तथा उसकी समस्त गतिविधियां तथा निर्णय इसी भावना से ओत-प्रोत थीं। उसके लिये यह गृहयुद्ध जैसी प्रक्रिया थी। दूसरी ओर कांग्रेस ने सरकार से मांग की कि वह या तो मुस्लिम लीग को अंतरिम सरकार को सहयोग देने के लिये कहे या सरकार से अलग होने की कहे।
फरवरी 1947 में, मंत्रिमंडल के नौ कांग्रेस सदस्यों ने वायसराय को पत्र लिखकर मांग की कि वे लीग के सदस्यों को त्यागपत्र देने के लिये कहें अन्यथा वे मत्रिमंडल से अपना नामांकन वापस ले लेंगे। तत्पश्चात लीग द्वारा संविधान सभा को भंग करने की मांग से स्थिति और बिगड़ गयी। इस प्रकार गतिरोध सुलझने के स्थान पर और बढ़ता हुआ प्रतीत होने लगा।
प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस 16 अगस्त, 1946 Direct Action Day 16 August 1946
जुलाई 1946 में संविधान सभा के लिये हुये चुनावों में कांग्रेस को शानदार सफलता मिली। इससे मुस्लिम लीग भयभीत हो गयी तथा उसने कैबिनेट मिशन योजना को ठुकरा दिया। इतना ही नहीं जिन्ना ने ‘पाकिस्तान’ प्राप्त करने के लिये ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही’ की धमकी दी तथा 16 अगस्त 1946 का दिन ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ के रूप में ‘मनाने का निश्चय किया। इस अशुभ दिन पर देश के अनेक स्थानों में भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुये। अकेले कलकत्ता में 7 हजार से अधिक लोग सामूहिक कत्लेआम में मारे गये। नोआखाली, सिलहट, गढ़मुक्तेश्वर, त्रिपुरा, बिहार तथा अन्य स्थानों में भी भीषण सांप्रदायिक दंगे हुये जिनमें हजारों लोग मौत के घाट उतार दिये गये।
एटली की घोषणा- 20 फरवरी 1947 Atlee’s Declaration – February 20, 1947
20 फरवरी 1947 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली द्वारा की गयी घोषणा के मुख्य बिंदु निम्नानुसार हैं-
- अंग्रेज सरकार 30 जून 1948 तक भारतवासियों को सत्ता सौंप देगी।
- यदि इस तिथि तक संविधान नहीं बन सका तो उस स्थिति में ब्रिटिश सम्राट की सरकार यह विचार करेगी कि निश्चित तिथि को ब्रिटिश शासित भारत की केंद्रीय सरकार की सत्ता किसको सौंपी जाये। क्या ब्रिटिश भारत की केंद्रीय सरकार के किसी रूप को अथवा कुछ भागों में वर्तमान प्रांतीय सरकारों को अथवा किसी अन्य ढंग से जो सर्वाधिक न्यायसंगत एवं भारतीयों के सर्वाधिक हित में हो, सत्ता दी जाये।
- लार्ड वैवेल के स्थान पर लार्ड मांउटबेटन को भारत का नया वायसराय नियुक्त किया गया।
एटली की उपर्युक्त घोषणा में पाकिस्तान के निर्माण का भाव निहित था। साथ हिम यह घोषणा राज्यों के बल्कनीकरण एवं क्रिप्स प्रस्तावों के समर्थन का आभास दे रही थी।
सरकार ने भारतीयों की सत्ता हस्तांतरित करने के लिये तिथि निधारित क्यों की-
- सरकार को आशा थी कि सत्ता हस्तांतरण के लिये तिथि निर्धारित करने पर भारत के राजनीतिक दल मुख्य समस्या के समाधान हेतु सहमत हो जायेगें।
- सरकार तत्कालीन संवैधानिक संकट को टालना चाहती थी।
- सरकार इस बात को स्वीकार कर चुकी थी कि भारत से उसकी वापसी तथा भारतवासियों को सत्ता हस्तांतरण अपरिहार्य हो चुका है।
कांग्रेस की प्रतिक्रिया
कांग्रेस ने स्वायत्तशासी उपनिवेशों को सत्ता हस्तांतरित करने की योजना को इसलिये स्वीकार कर लिया क्योंकि इससे भारत के अधिक विखंडित होने की संभावना समाप्त हो गयी। इस योजना में प्रांतों एवं देशी रियासतों को अलग से स्वतंत्रता देने का कोई प्रावधान नहीं था। साथ ही तत्कालीन प्रांतीय व्यवस्थापिकाएं स्वयं अपने क्षेत्रों के लिए संविधान का निर्माण कर सकती थीं तथा इससे गतिरोध को समाप्त करने में मदद मिलने की उम्मीद थी।
लेकिन शीघ्र ही मुस्लिम लीग के प्रयासों से कांग्रेस की यह उम्मीद धूल-धूसरित हो गयी। लीग ने पंजाब की गठबंधन सरकार के विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ कर दिया तथा समझौते की संभावनायें नगण्य दिखने लगीं।