वनस्पति विज्ञान Botany
वनस्पति विज्ञान पौधों के जीवन से सम्बंधित विज्ञान है। इसमें हम पौधों के आकार, वाह्य एवं आतंरिक संरचना, कोशकीय संरचना, कोशकीय विभाजन, शारीरिक क्रिया-जैसे श्वसन, प्रकाश संश्लेषण आदि, उनके जीवन चक्र आनुवंशिकता, वातावरण के अनुसार अनुकूलता, प्रजनन, एक दुसरे से सम्बन्ध और संसार के विभिन्न भागों में वितरण आदि का अध्ययन करते हैं।
वनस्पति कोशिका Plant Cell
कोशिका एक जीव में संरचना एवं जैविक क्रियाओं की इकाई है, जो अवकलीय पारगम्य कला (Differentially permeable membrane) से घिरी होती हैऔर जिसमें प्रायः स्वजन की सामर्थ्य होती है। विभिन्न पदार्थों का वह छोटे से छोटा रूप जिसमे वे सभी उपर्युक्त क्रियाएं होती हैं, सामूहिक रूप से हम जीवन कहते हैं।
प्रत्येक जीव का जीवन एक कोशिका से आरम्भ होता है। यदि वह इसी एक कोशिका के माध्यम से अपना जीवन चलता रहता है तो उसे एककोशकीय (Unicellular) जीव कहते हैं, उदाहरण के लिए- यीस्ट, डाइएटम्स, बैक्टीरिया। परन्तु अधिकांश पौधों में यह कोशिका विभाजन करती है और अंत में बहुकोशकीय (Multicellular) जीव बन जाता है।
कोशिकाओं के प्रकार Types of Cell
जीवधारियों में दो प्रकार की कोशिकाओं पाई जाती हैं-
1- प्रोकेरियोटिक कोशिकाएं Prokaryotic Cells
2- यूकेरियोटिक कोशिकाएं Eukaryotic Cells
प्रोकेरियोटिक कोशिकाएं Prokaryotic Cells
रचना के आधार पर ये कोशिकाएं आदिम (primitive) कहलाती हैं। इन कोशिकाओं में केन्द्रक-कला (Nuclear Membrane) नहीं होती हैं। अतः केन्द्रक में पाए जाने पदार्थ, जैसे प्रोटीन, न्यूक्लीइक अम्ल (DNA and RNA) कोशाद्रव्य के संपर्क में रहते हैं। इन कोशों में पूर्ण रूप से विकसित कोशिकांग (cell organelles) जैसे लवक, गॅाल्गी तंत्र, माइटोकान्ड्रिया तथा एंडोप्लाज्मिक जालिका आदि भी नहीं होते हैं। जीवाणुओं में तथा नील हरे शैवालों (Blue-Green Algae) में इस प्रकार की कोशिकाएं पाई जाती हैं।
यूकेरियोटिक कोशिकाएं Eukaryotic Cells
इस प्रकार की कोशिकाओं में पूर्ण विकसित केन्द्रक (केन्द्रक कला सहित) और अन्य कोशिकांग होते हैं। इस प्रकार की कोशिकाएं शेष शैवालों अन्य दुसरे पौधों तथा जंतुओं में पाई जाती हैं। इनमे एंडोप्लाज्मिक रेटीकुलम, गॅाल्गी तंत्र आदि पाए जाते हैं।
पारिस्थितिकी विज्ञान या पारिस्थितिकी Ecology
जीव तथा उसके चरों ओर के पर्यावरण (Environment) के पारस्परिक संबंधों (Inter-Relation) का अध्ययन ही पारिस्थितिकी विज्ञान का विषय है। पौधे तथा प्राणी कहाँ रहते हैं, किस प्रकार रहते हैं तथा वहां क्यों रहते हैं, ऐसे ही प्रश्नों का उत्तर परिस्थिति विज्ञान के अध्ययन से प्राप्त होता है।
पौधे तथा प्राणी सर्वदा अपने चारो ओर के वातावरण तथा परिस्थितियों से प्रभावित रहते हैं। उनका समस्त जीवन पर्यावरण की अनुकूलता पर निर्भर करता है। कोई भी पौधा या जंतु अपने जीवनकाल में इसी बदलते हुए पर्यावरण का प्रतीक है और उसका शारीर पर्यावरण की संयोगिक क्रियाओं द्वारा ही निर्मित होता है।
पारिस्थितिकी Ecology
इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले एक जर्मन प्राणी शास्त्री अर्न्स्ट हेकेल (Ernst Haeckel, Greek oikos, meaning household home or place to live ) ने लिया था।
परिस्थिति विज्ञान की निम्नलिखित मुख्य शाखाएं हैं-
1- स्वपारिस्थितिकी Autoecology- किसी एक प्राणी या किसी एक जाति के प्राणियों के जीवन पर पर्यावरण के प्रभाव का अध्ययन स्वपारिस्थितिकी कहलाता है। इस प्रकार के अध्ययन में हम उन समस्त जैविक क्रियाओं अथवा पर्यावरण का अध्ययन करते हैं, जो किसी एक प्राणी या एक जाति के प्राणियों की जीवन क्रिया प्रजनन तथा वितरण को प्रभावित करता है।
2- समुदाय पारिस्थितिकी Synecology- इसमें किसी स्थान पर पाए जाने वाले समस्त जीव समूह (Community) अर्थात वहां के पौधे व प्राणियों का पर्यावरण के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन द्वारा हम अनेक जातियों के प्राणियों का पारस्परिक सम्बन्ध एवं वनस्पति पर जंतुओं के प्रभावों देखते हैं।
3- इकोसिस्टेमोलॅाजी Ecosystemology- किसी स्थान विशेष के जीवित तथा भौतिक तत्वों की रुपरेखा और उनके क्रियात्मक स्वरूप तथा भौतिक पर्यावरणीय तत्वों की चक्र गति और उर्जा (energy) प्रवाह सम्बन्धी अध्ययन इकोसिस्टेमोलॅाजी कहलाता है।
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दिप्तिकाल Photoperiod
पृथ्वी पर जीवन क्रिया को संचालित रखने के लिएसमस्त उर्जा सूर्य से प्राप्त होती है। प्रकाश पौधों के फलने फूलने तथा उनके भौगोलिक वितरण को प्रभावित करता है। प्रकाश की अवधि के अधार पर पौधों को विभिन्न वर्गों में बांटा गया है।
1- दीर्घ-प्रकाशीय पादप Long Day Plants- जो पौधे निर्णायक दिप्तिकाल (critical photoperiod) से अधिक अवधि पर पुष्पित होते हैं, जैसे हेनबेन (अजवाइन), स्पिनेच (पालक) आदि।
2- अल्प प्रकाशीय Short Day Plants- जो पौधे निर्णायक दिप्तिकाल (critical photoperiod) से कम अवधि पर पुष्प उत्पन्न करते हैं, जैसे सोयाबीन, जैन्थियम आदि।
3- प्रकाश उदासीन पादप Photoneutral Plant- इन पौधों में पुष्प उत्पन्न करने पर दिप्तिकाल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे टमाटर, मिर्च आदि।
4- मध्यवर्ती-प्रकाशीय पादप Intermediate Plants- जिन पौधों में पुष्प उत्पन्न करने के लिए13-15 घंटे के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है, जैसे मिकेनिया।
5- दीर्घ-अल्प-प्रकाशीय Long-Short-day plants- जिन पौधों में पुष्प उत्पन्न करने के लिए पहले कुछ समय के लिए दीर्घकाल की और बाद में अल्प दिप्तिकाल की आवश्यकता होती है। जैसे ब्रायोफिलम।
6- अल्प-दीर्घ-प्रकाशीय Short-Long-Day Plants- जिन पौधों में पुष्प उत्पन्न करने के लिए पहले कुछ समय तक अल्प दिप्तिकाल की और बाद में दीर्घ दिप्तिकाल की आवश्यकता होती है, जैसे गेंहूँ।
ताप (temperature) का प्रभाव पौधों की शरीरिक बनावट, जैविक क्रियाओं, प्रजनन एवं भौलिक वितरण पर पड़ता है। तापमान के अधर पर संसार की वनस्पतियों का निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकरण किया गया है-
1- मेगाथर्म्स Megatherms- वे पौधे जिन्हें अपनी वृद्धि एवं विकास के लिए लगातार अधिक तापमान चाहिए, जैसे उष्ण कटिबंध (Tropical Zone) में उगने वाले पौधे।
2- मीसोथर्म्स Mesotherms- वे पौधे जो कम तापमान में अपनी वृद्धि तथा विकास करते हैं। इसमें अधिक ऊष्मा को सहने की सामर्थ्य नहीं होती है, जैसे पहाड़ों पर उगने वाले पौधे।
3- हेकीस्टोथर्म्स Hekistotharms- वे पौधे जो केवल ऊँचे पर्वतीय स्थानों में पाए जाते हैं एवं उत्तरी ध्रुव (Artic) प्रदेशों में उगने वाले पौधे। इस पौधों में बहुत कम तापमान सहने की सामर्थ्य होती है।
वायुमंडल की गैसें
पृथ्वी के तल से लगभग 15 किमी. की ऊपर तक की वायु से मौसम इत्यादि प्रभावित होते हैं और जीवधारियों पर उनका प्रभाव पड़ता है। वायुमंडल में निम्नलिखित गैसे पाई जाती हैं। जो वायु के आयतन के निम्नलिखित प्रतिशत में रहती है-
गैस Gas | आयतन Volume | ||
नाम Name | सूत्र Formula | पीपीएम ppmv | प्रतिशत In % |
नाइट्रोजन | N2 | 780,840 | 78.084 |
ऑक्सीजन | O2 | 209,460 | 20.946 |
आर्गन | Ar | 9,340 | 0.9340 |
कार्बन डाइऑक्साइड | CO2 | 397 | 0.0397 |
नियान | Ne | 18.18 | 0.001818 |
अन्य | |||
जल वाष्प | H2O | 10–50,000 | 0.001%–5% |
इसके अतिरिक्त नोबेल गैसें, मीथेन, हाइड्रोजन आदि गैसे पाई जाती हैं।
वातारण में जल की मात्रा के अनुसार पौधे निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
1- जालोदभिद Hydrophytes- ये पौधे जल में या ऐसी मिट्टी में जो जल संतृप्त (saturated) है, में पाए जाते हैं जैसे- कमल, जलकुम्भी, सिंघाड़ा आदि।
2- कच्छोदभिद Amphibious- इन पौधों का नीचे का भाग (जड़ों व तने का नीचे का कुछ भाग) अधिक भाग वाली मृदा में फंसा रहता है, या प्रायः तने का नीचे का भाग छिछले जल में डूबा रहता है। इन पौधों के तने का उपरी भाग व पत्तियां हवा में रहते है। कभी-कभी वर्षा के समय ये दोनों भाग भी डूब सकते है। जैसे- पटेरा (Typha), जल-धनियां (Ranunculus) आदि।
3- समोदभिद Mesophytes- ये पौधे पृथ्वी पर उन स्थानों में मिलते हैं, जहाँ औसत मात्र में जल होता है। ऐसे पौधे अधिक समय तक जलीय आवास में जीवित नहीं रह सकते हैं। अत्यंत शुष्क वातावरण भी उनके लिए घातक हो सकता है। जैसे उद्यानों में लगाये जाने पौधे व खेती की फसलें।
4- मरूदभिद Xerophytes- ये पौधे शुष्क स्थानों में या बहुत कम जल की मात्रा में अपना जीवन चक्र पूर्ण कर लेते हैं\ ऐसे पौधे मरुस्थल में अथवा चट्टानों पर पाए जाते हैं। जैसे नागफनी (Opuntia), घीक्वार (Aloe), मदार (Calotropis) आदि।
कीटभक्षी पौधे Insectivorous Plants
ये पौधे ऐसे स्थानों पर उगते हैं जहाँ पर नाइट्रोजन की कमी होती है\ इन सभी पौधों के कुछ अंगों में छोटे-छोटे कीड़ों को पकड़ने के लिए विशेष रचनाएँ होती हैं, तथा विशेष प्रकार के विकर (enzymes) इस पौधों द्वारा स्रावित किए जाते हैं, जो कीटों के स्वांगीकरण (Assimilation) में विशेष रूप से सहायक होते हैं। जैसे ड्रासेरा (Drosera), यूट्रीकुलेरिया (Bladderwort), नेपेंथीस (Pitcher Plant) आदि।
पारिस्थितिक तंत्र Ecosystem
किसी क्षेत्र में काम करने वाले भौतिक और जैविक अंशों का पूर्ण योग ही पारिस्थितिक तंत्र है। कोई एक पौधा या उनके समुदाय प्रकृति में अकेले रहकर कार्य नहीं करते हैं और वे जंतुओं के साथ रहकर कार्य करते हैं और एक दुसरे पर प्रभाव डालते हैं। पारिस्थितिक तंत्र प्रकृति की एक क्रियात्मक इकाई है\ ऐसे तंत्र में समुदाय अनेक स्तर के जीवों (पौधों व जंतुओं) से बना होता है, जिसमें वे सभी अपनी खाद्य प्राप्ति के लिए प्राथमिक उत्पादक (Primary Producer) अथवा स्वपोषी (Autotropic) पौधों पर आश्रित रहते हैं। पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) की विचारधारा सर्वप्रथम एं जी. टांसले (Sir Arthur George Tansley) नामक वैज्ञानिक द्वारा 1935 में दी गयी।
खाद्य कड़ी Food Chain
ऐसे पदार्थ जिनके ऑक्सीकरण से पौधे और जंतु उर्जा प्राप्त करते हैं, खाद्य कहलाते हैं। खाद्य कड़ी विभिन्न प्रकार के जीवधारियों का क्रम है, जिसके द्वारा पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य उर्जा का प्रवाह होता है। घासस्थलीय पारिस्थितिक तंत्र में (Grassland Ecosystem) की खाद्य कड़ी में घास, शाक-भक्षी कीटाणु, मेढक, सांप, उल्लू क्रमानुसार आते हैं। एक स्वच्छ-जलस्तरीय पारिस्थितिक तंत्र (Fresh Water Ecosystem) की खाद्य कड़ी में शैवाल (Algae), जलीय पिस्सू, छोटी मछली और बड़ी मछली को खाने वाली चिड़िया और मनुष्य आते हैं।
पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य कड़ी जितनी लम्बी होती है, उतनी ही अधिक उर्जा का रूपांतरण एक खाद्य स्तर से दूसरे व तीसरे खाद्य स्तर तक पहुँचने में होता है और फलस्वरूप हर स्तर पर लगभग 10% उर्जा निम्नकोटिकरण द्वारा वातावरण में विसरित हो जाती हैखाद्य कड़ी जितनी छोटी होगी उतनी अधिक उर्जा मूल उत्पादक से उपभोक्ता को प्राप्त होगी। खाद्य कड़ी का प्रत्येक स्तर ट्रॉफिक स्तर या उर्जा स्तर कहलाता है। खाद्य-कड़ियों के परिणामस्वरूप ही भोज्य पदार्थ पदार्थों के पिरैमिड्स स्थित होते हैं।
खाद्य जाल Food web- खाद्य कड़ी में यह बतलाया गया है कि उर्जा का प्रवाह प्राणियों द्वारा एक सीधी लम्बी कड़ी के रूप में होता है। जब कई खाद्य कड़ियों के सब संबंधों के बारे में एक साथ विचार करते हैं, तो यह खाद्य-जाल (Food Web) बन जाता है। वास्तव में खाद्य जाल एक सम्पूर्ण समुदाय के सभी जीवित प्राणियों का एक दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करता है।
पारिस्थितिक पिरामिड्स Ecological Pyramids
खाद्य कड़ी (Food Chain) का क्रम किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में 5 स्तर से अधिक नहीं होता, क्योंकि खाद्य कड़ी के प्रत्येक स्तर पर संचित उर्जा का अधिक भाग ताप के रूप में विसरित हो जाता है। खाद्य कड़ी के प्रारंभिक स्तर (Primary Trophic Level) पर जीवों की संख्या अधिक होती है, और जैसे-जैसे कड़ी के अंत तक पहुँचते हैं, उपभोक्ताओं (consumers) की संख्या कम होती जाती है, जिसे प्रदर्शित करने के लिए तीन प्रकार के पारिस्थितिक पिरामिड्स हैं-
1- जीव-संख्या का पिरामिड Pyramid of Numbers- मूल उत्पादक (primary producers) और प्रथम, द्वितीय और तीसरे श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्या का सम्बन्ध दिखाने वाले चित्र जीव-संख्या का पिरामिड (Pyramid of Numbers) कहलाता है। घास के मैदान (grassland ecosystem) और फसल के पारिस्थितिक तंत्र में पिरामिड सीधा (upright) होता है, किन्तु वन के पारिस्थितिक तंत्र में यह उल्टा (Inverted) होता है।
2- जीव भार का पिरामिड Pyramid of Biomass- एक पारिस्थितिक तंत्र में जीवित प्राणियों का प्रति इकाई क्षेत्र में सम्पूर्ण शुष्क भार उसका जीव-भार (Biomass) कहलाता है। स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र (Terrestrial Ecosystem) के मूल उत्पादक का जीव भार खाद्य कड़ी के हर स्तर के उपभोक्ता से अधिक होता है। वन के पारिस्थितिक तंत्र में जीव-भार का पिरामिड सीधा (upright) बनता है, किन्तु जलीय पारिस्थितिक तंत्र में उल्टा (Inverted) होता है।
3- उर्जा का पिरामिड Pyramid of Energy- खाद्य-कड़ी के हर स्तर पर उपभोक्ता केवल 10% संचित उर्जा को अपने शरीर-भर में रूपांतरित करता है। अतः किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में मूल उत्पादकों में अत्यधिक उर्जा मिलेगी और प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता में उससे कम और सर्वश्रेष्ठ के उपभोक्ता में सबसे कम उर्जा मिलेगी। इस कारण उर्जा का पिरामिड हमेशा सीधा (Always Upright) होता है।
प्रदूषण Pollution
सभी जीव अपनी वृद्धि विकास एवं सुव्यवस्थित रूप से अपना जीवन क्रम चलने के लिए संतुलित वातावरण (Balanced Environment) पर निर्भर करते हैं। संतुलित वातावरण प्रत्येक घटक लगभग एक निश्चित मात्र एवं अनुपात में उपस्थित होता है, परन्तु कभी-कभी वातावरण में एक अथवा अनेक घटकों की मात्रा या तो आवश्यकता से अधिक बढ़ जाती है, अथवा वातावरण के अन्य हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है। जिस कारन वातावरण दूषित हो जाता है और जीवधारियों के लिए किसी ण किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है। यह प्रदूषण (Pollution) कहलाता है।
वायु, जल और स्थल की भौतिक रासायनिक और जैविक विशेषताओं का वह अवांछनीय परिवर्तन है जो मनुष्य और उसके लिए लाभदायक और दुसरे जंतुओं, पौधों औद्योगिक संस्थानों तथा दूसरे कच्चे माल इत्यादि को किसी भी रूप में हानि पहुंचता है।
जनसँख्या वृद्धि के साथ-साथ स्वच्छता की समस्या की उत्पत्ति हुई है। बड़े-बड़े देशों में मल-मूत्र तथा कारखानों के पास औद्योगिक और रासायनिक कचरे के तेजी से बढ़ने के कार जल ही नहीं, वायु और पृथ्वी भी प्रदिशन से तंग है तथा भारत जैसे देश के पास मल-मूत्र, घरेलु कचरे और गंदे जल को बहाने की प्रमुख समस्या है। इस प्रकार विकसित व विकासशील दोनों प्रकार के देश प्रदुषण से पीड़ित हैं।
आनुवंशिकी Genetics
विज्ञान की वह शाखा है जिसके द्वारा आनुवंशिक लक्षणों के माता-पिता से संतान में पहुँचने की रीतियों और किसी एक आनुवंशिक लक्षण की उपस्थितितथा अनुपस्थिति के कारणों का अध्ययन करते हैं, आनुवंशिक विज्ञानं कहलाती है।
ग्रेगर जॉन मेंडेल (1858) ने आनुवंशिकी विज्ञान की नींव डाली\ संतान में अपने माता-पिता के लक्षणों में अधिकांश समानता होते हुए भी कुछ भिन्नताएं (Variations) होती है। कुछ लक्षण माता पिता से संतान में पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचते रहते हैं, ऐसे लक्षणों को आनुवंशिक लक्षण (Hereditary Characters) कहते हैं। ऐसे लक्षणों का अध्ययन आनुवंशिकता कहलाता है।
आनुवंशिकता के आधुनिक सिद्धांत
1- गुणसूत्रों (chromosomes) में युग्मनज (Zygote) द्वारा प्रदर्शित होने वाले गुणों के सर होते हैं।
2- गुणसूत्रों की संख्या प्रत्येक प्राणी में निश्चित होती है।
3- गुणसूत्र पर जींस (Genes) होते हैं।
4- जींस डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लीक अम्ल (DNA) द्वारा निर्मित होते हैं।
5- प्रत्येक जीन एक विशेष जीन का वाहक होता है
6- जींस में स्वयं विभाजन की क्षमता होती है।
मेंडेलिज्म का आर्थिक महत्त्व Economic Importance of Mendelism
मेंडेल के नियमों के आधार पर कई दूषित लक्षणों को हटाकर अच्छे गुणों को उनके स्थान पर लाया जा सकता है\ आजकल बढती हुई जनसँख्या को देखते हुए देश के वैज्ञानिक कुछ ऐसे प्रयोगों में संलग्न हैं जिनसे फसलों की पैदावार अधिक हो सके। भारत में कृषि विश्विद्यालय व् अन्य कई ऐसे अनुसन्धान केंद्र हैं जहाँ पर संकरण द्वारा नै प्रकार की उन्नत किस्मे तैयार की जाती हैं।
जिस प्रकार फसली पौधों में इन नियमों का उल्लेख होता है, उसी प्रकार पशुओं में भी इनका उपयोग अच्छे गुणों वाले मानव उपयोगी पशु पैदा करने में किया जाता है।
आनुवंशिकी (Genetics) के सिद्धांतों को जब हम मनुष्य जाति की उन्नति के लिए प्रयोग में लाते हैं, तब हम उस विज्ञान को सुजननिकी (Eugenics) कहते हैं। इस शब्द को सबसे पहेल फ्रांसिस गाल्टन (Francis Galton) नामक वैज्ञानिक ने 1885 में प्रयोग किया था।