अयोध्या भूमि विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर सर्वोच्च न्यायालय ने लगाई रोक Ayodhya land dispute, the Supreme Court’s stays the decision of the Allahabad High Court
अयोध्या भूमि विवाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर सर्वोच्च न्यायालय ने लगाई रोक
सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के तीन जजों के 8000 से अधिक पृष्ठों वाले रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद के 30 सितंबर, 2010 के फैसले को स्थगित ही नहीं कर दिया है बल्कि उसे अजीब और अचरज भरा बताया है। सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि जो किसी पक्ष ने मांगा ही नहीं था, उच्च न्यायालय उस विवादित स्थल के विभाजन तक पहुंच गया। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि इससे जुड़े 67.780 एकड़ भूमि पर कोई धार्मिक गतिविधि नहीं की जायेगी। लखनऊ उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में यह मान लिया था कि यहां 1528 में राममंदिर तोड़कर मस्जिद बनायी गई थी और 1992 में उसे तोड़कर रामलला विराजमान का अस्थाई मंदिर का निर्माण किया गया।
रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद एक राजनीतिक परिणति थी। विवाद अदालत पहुंचा और 60 वर्षों बाद इसका यह फैसला आया जबकि यह प्रश्न 1885 में भी उसके एक हिस्से पर छत डालने पर उठा था, जिसे तत्कालीन अवध चीफ कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया था। रामलला विराजमान का वाद भी 1 जुलाई, 1989 को 40 वर्ष बाद इस तर्क के साथ दायर किया गया था कि हिन्दू देवताओं में भी आत्माएं विद्यमान होती हैं और उनकी मूर्तियों के लिए विधिवत प्राण प्रतिष्ठा आवश्यक नहीं है। केदारनाथ मंदिर और गया का विष्णुपाद मंदिर इसके उदाहरण हैं। यह मामला भी उन 5 वादों में शामिल हो गया था जो न्यायालय में विचाराधीन थे। न्यायालय के फैसले का आधार क्या हो, इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय में जो अपीलें दायर हुई थी और जिसकी अनुमति अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने ही दी थी उसमें मुख्य आपति इस बात को लेकर थी कि निर्णय आस्थाओं के आधार पर नहीं, वास्तविकताओं और साक्ष्य कानून के आधार पर होने चाहिए।
यदि आस्था मौलिक अधिकार है तो अनुच्छेद-55 में यह कहा गया है कि अंत:करण और धर्म को अबाध रूप से मानने तथा प्रचार करने की स्वतंत्रता दी गयी है वहीं उनमें किसी प्रकार का भेदभाव न करने, धार्मिक आचरण से सम्बद्ध किसी धार्मिक वित्तीय राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रिया कलाप का विनियमन या निर्बन्धन करती है। इसीलिए संविधान के संकल्प में सामाजिक, आर्थिक, न्याय विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए उन सबमें व्यक्ति, गरिमा (राष्ट्र की एकता और अखण्डता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर इसे आत्मसमर्पित किया गया है। यानी इसमें किसी की आस्था को महत्व और किसी को कम नहीं दर्शाया गया है।
अयोध्या विवाद के लखनऊ उच्च न्यायालय के निर्णय की एक परिभाषा यह भी थी कि इसमें किसी को खारिज नहीं किया गया था।
अयोध्या विवाद का अंतिम फैसला क्या होगा, अभी तो यह अपील दो सदस्यीय पीठ के समक्ष दायर करने की भी मांग उठ सकती है। मूल प्रश्न तो यह होगा कि हम समाज को आगे की ओर ले जायेंगे या इस रथचक्र को घुमाकर पीछे की ओर। यदि ऐसा किया गया तो क्या उससे पूरा ढांचा तो नहीं गड़बड़ा जायेगा। समाज के रथचक्र को पीछे की ओर ले जाना संभव भी नहीं है। अयोध्या प्रश्न मूल रूप से राजनीतिक लाभ के लिए जन्मा, आगे बढ़ा और समय-समय पर इसका उपयोग किया गया इसके मुद्दे छीने गए कुछ लोग इसमें लोक भावनाएं जोड़कर आगे बढ़ गए। अब सर्वोच्च न्यायालय को यह निर्णय करना है कि वर्तमान संवैधानिक मान्यताओं के अनुसार निर्णय की संभावनाएं क्या हो सकती हैं। जहां तक राजनीति का प्रश्न है, जब बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद समाधान के लिए धार्मिक स्थल सहित कुछ क्षेत्रं का अधिग्रहण किया गया था तो उसकी प्रस्तावना में यही कहा गया था कि लम्बे समय से चल रहे विवाद को समाप्त करने के लिए यह विधेयक लाया जा रहा है। इस परिसर को विकसित किया जायेगा। इसमें मंदिर, मस्जिद, संग्रहालय, पुस्तकालय, वाचनालय और जन सुविधाओं का निर्माण किया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में इस विधेयक को संविधान सम्मत माना था और कहा था कि धार्मिक स्थलों के अधिग्रहण में कोई बाधा नहीं है। जब सर्वोच्च न्यायालय ही यह सिद्धांत तय कर चुका है कि अधिग्रहण में धर्म और विश्वास बाधा नहीं होगा, तब मूल रूप से यह निर्णय संसद और सरकार की ही करना है कि उसमें बताये गये निर्माण कहां होंगे। अयोध्या विवाद का फैसला जिसके पक्ष में होगा उसे उस स्थल सहित और भूमि दी जायेगी लेकिन जो हारेगा उसके पूजास्थल भी बनेंगे।
सर्वोच्च न्यायालय के पास विधायी अधिकार नहीं है वह इस विधेयक में कोई कमी नहीं देखती है इसलिए उसके निर्देशों के अनुसार पालन ही शेष है क्योंकि अब तो विवादित स्थल पर न तो मस्जिद है न राम चबूतरा, न सीता रसोई, न विवादित स्थल की दीवार और न ही इसे इनर कोर्टयार्ड और आउटर कोर्टयार्ड में विभाजित करने वाली 1855 में बनी दीवार ही। रामलला विराजमान की पूजा तो अवश्य हो रही है लेकिन वह भी अदालत के आदेश से किसी पक्ष द्वारा नहीं बल्कि रिसीवर द्वारा नियुक्त पुजारियों द्वारा। इसमें वही परिवर्तन भी करता रहा है और पूजा सामग्री भी उपलब्ध कराता है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले के अनुसार उस स्थल पर किसी पक्ष को जाने की अनुमति नहीं दी है। वहां जो लोग जाते है सुरक्षा कारणों से उनके मोबाइल और कलम तक रखवा लिए जाते है लेकिन पवित्र स्थल मानकर जुटे नहीं उतरने पड़ते जिससे लोगों को यह न लगे कि वे किसी मंदिर मस्जिद पूजा या उपासना स्थल या किसी धार्मिक स्थल में प्रवेश कर रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट की लखनऊ खण्डपीठ का फैसला अजीब व अचरजभरा बताकर स्थगित कर दिया है। अब इस टिप्पणी के बाद सर्वोच्च न्यायालय को ही नीचे की अदालत की सकल सुनवाई प्रस्तुत साक्ष्य और उसके परिणामों के आधार पर अंतिम निर्णय देना है। लोगों की भी अपेक्षा है कि जिस प्रकार इसके चारों ओर कैदखाना जैसा बना है, वह समाप्त हो । वास्तव में उसका लोग अपनी आस्था और विश्वास के अनुसार उपयोग कर सके, विवादित स्थल की स्थिति हटे। अब चूंकि इसमें अयोध्या सर्टन एरिया एक्वीजिशन एक्ट बन चुका है, अब उन्हीं मान्यताओं के आधार पर इस पूरे स्थल पर नयी रचना और निर्माण के कार्य सम्भावित हैं। राजनीतिक इच्छाशक्ति लाभ उठाने की भावना से परे हटकर लोकभावनाओं का सम्मान और संविधान की मर्यादाओं की रक्षा कैसे करती है यह तो उसे ही तय करना होगा क्योंकि इस स्थल के लिए इसी कानून पर अमल होना है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को भी ध्यान में रखा जायेगा। हमने राज्य की कल्पना ही शांति व्यवस्था और समृद्धि तथा विकास के लिए किया था जिससे कोई व्यक्ति शक्ति के बल पर दूसरे को हानि न पहुंचाए।
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