औरंगजेब: 1658-1707 ई. Aurangzeb: 1658-1707 AD.
शाहजहाँ के चार पुत्र थे। चारों उस समय बालिग थे। दारा शुकोह की आयु तेंतालीस वर्ष की थी, शुजा की इक्तालीस, औरंगजेब की उनतालिस तथा मुराद की तेंतीस वर्ष की आयु थी। सभी भाइयों को उस समय तक प्रांतों के शासकों तथा सेनाओं के सेनापतियों के रूप में गैर-सैनिक एंव सैनिक को लेकर भेद था। उनमें सबसे बड़े भाई दारा शुकोह पर उसका पिता विश्वास करता था तथा उसे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। दारा शुकोह सब दर्शनों के सार का संग्रह करने वाला विचार रखता था। वह उदार स्वभाव तथा पंडितोचित प्रवृत्तियों का था। वह अन्य धर्मावलम्बियों के साथ मिलता था। उसने वेदान्त, तालमुद एंव बाइबल के सिद्धांतों तथा सूफी लेखकों की रचनाओं का अध्ययन किया था। उसने कुछ ब्राह्मण पंडितों की सहायता से अथर्ववेद एवं उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करवाया। उसका लक्ष्य था बाहरी तौर पर विरोधी मालूम पड़ने वाले धमों के बीच सामंजस्य का आधार खोजना। इसके लिए उसके सहधर्मियों के कट्टर सदस्यों का उससे अप्रसन्न हो जाना स्वाभाविक था तथा वे उसके विरुद्ध हो गये। परन्तु वह पांखडी नहीं था उसने कभी इस्लाम के सारभूत सिद्धातों का परित्याग नहीं किया। उसने केवल सूफियों की, जो इस्लाम-धर्मावलम्बियों की एक स्वीकृत विचारधारा थी, सर्वदर्शन सार संग्रहकारी प्रवृत्ति दिखलायी। दूसरा भाई शुजा, जो उस समय बंगाल का सूबेदार था, बुद्धिमान तथा एक वीर सैनिक था। पर अत्यंत आरामतलब होने के कारण वह दुर्बल, आलसी, असावधान और निरन्तर चेष्टा, चौकस,सावधानी तथा दूसरे से मिलकर काम करने के अयोग्य बन गया था। सबसे छोटा मुराद, जो उस समय गुजरात का सूबेदार था, निस्सन्देह स्पष्ट वक्ता, उदार एंव वीर था, परन्तु वह भारी पियक्कड़ था। अत: वह नेतृत्व के लिए आवश्यक गुणों का विकास नहीं कर सका। तीसरा भाई औरंगजेब सबसे योग्य था। वह असाधारण उद्योग और गहन कूटनीतिक तथा सैनिक गुणों से सम्पन्न था। उसमें शासन करने की असंदिग्ध रूप में योग्यता थी। और भी, एक उत्साही सुन्नी मुसलमान के रूप में उसने स्वभावत: कट्टर सुन्नियों का समर्थन प्राप्त कर लिया था। प्रतिद्वन्द्वी शाहज़ादों के चरित्र की भिन्नता का युद्ध की गति पर बहुत प्रभाव पड़ा। दारा शुकोह, जो एक उदार मनुष्य परन्तु अयोग्य सेनापति तथा राजनीतिज्ञ था, धूर्त एंव बुद्धिमान औरंगजेब की बराबरी में तुच्छ था। शुजा तथा मुराद को भी औरंगजेब के उच्चतर सेनापतित्व एवं चतुराई के समक्ष अपनी अयोग्यता के कारण घाटा उठाना पड़ा।
जब सितम्बर, 1657 ई. में शाहजहाँ बीमार पड़ा, तब चारों भाइयों में केवल दारा शुकोह ही आगरे में उपस्थित था। रोग वास्तव में भयानक था। तीनों अनुपस्थित भाइयों को संदेह हुआ कि उनका पिता वास्तव में मर चुका है तथा दारा शुकोह ने इस समाचार को दबा दिया है। एकतंत्री राज्य की स्थिति इतनी संकटपूर्ण होती है कि बादशाह की बीमारी तक से राज्य में गड़बड़ी एवं अव्यवस्था फैल गयी, जो भाइयों के बीच युद्ध छिड़ने पर और भी प्रचण्ड हो गयी। शुजा ने बंगाल की तत्कालीन राजधानी राजमहल में अपने को बादशाह घोषित कर लिया तथा साम्राज्य की राजधानी की ओर सेना लेकर बढ़ा। परन्तु बनारस के निकट पहुँचने पर वह दारा शुकोह के पुत्र सुलेमान शुकोह के अधीन अपने विरुद्ध भेजी गयी एक सेना द्वारा हरा दिया गया। वह बंगाल लौट जाने को विवश हो गया। मुराद ने भी अहमदाबाद में अपना राज्याभिषेक किया (5 दिसम्बर, 1657 ई.) उसने मालवा में औरंगजेब से मिलकर उससे एक संधि कर ली। उन्होंने, साम्राज्य का विभाजन करने का इकरारनामा किया, जो अल्लाह एवं पैगम्बर के नाम पर स्वीकृत किया गया। उस इकरारनामें की शर्तें इस प्रकार थीं-
1. लूट के माल की एक तिहाई मुराद बख्श को तथा दो तिहाई औरंगजेब को मिलेगी।
2. साम्राज्य की विजय के बाद पंजाब, अफ़गानिस्तान, कश्मीर एवं सिंध मुराद को मिलेंगे, जो वहाँ बादशाहत का झंडा गाड़ेगा, सिक्के चलाएगा तथा बादशाह के रूप में अपना नाम घोषित करेगा।
औरंगजेब एवं मुराद की मिलीजुली फौज उत्तर की ओर बढ़ी तथा धरमत पहुँची, जो उज्जैन से चौदह मील दक्षिण-पश्चिम में है। बादशाह ने उनका बढ़ना रोकने के लिए जोधपुर के राजा जसवन्त सिंह तथा कासिम खाँ को भेजा। 15 अप्रैल, 1658 ई. को धरमत में विरोधी सेनाओं की मुठभेड़ हुई जहाँ शाही दल असाधारण रूप से पराजित हुआ। इसका कारण कुछ अंशों में विभाजित परामर्श की बुराइयाँ तथा हिन्दू एवं मुस्लिम सैनिकों में द्वेष था और कुछ अंशों में औरंगजेब की, जिसकी उम्र लड़ाई में ही बीती थी, सैनिक कुशलता की तुलना में जसवन्त सिंह की निम्नतर कोटि की सैनिक कुशलता थी। राठौरों ने नैराश्यजनित वीरता के साथ युद्ध किया तथा उन्होंने भारी क्षति उठायी, जबकि कासिम खाँ ने अपने स्वामी के लिए करीब-करीब कुछ भी नहीं किया। जब जसवन्त सिंह जोधपुर भाग आया, तब उसकी गर्विणी पत्नी ने, उसके रणक्षेत्र से पीठ दिखाकर भागने के कारण उसके लिए दुर्ग के द्वार बन्द करवा दिये। धरमत के युद्ध से औरंगजेब के साधनों तथा उसकी प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। जैसा डाक्टर यदुनाथ सरकार लिखते हैं- दक्कन के युद्धों का सूरमा तथा धरमत का विजेता केवल बिना हानि के ही नहीं, बल्कि भारत में सर्वथा प्रतिद्वंद्विताहीन सैनिक प्रसिद्धि के साथ विश्व के सम्मुख उपस्थित हुआ।
विजयी शाहजादों ने एक उपेक्षित छिछले भाग से होकर चम्बल को पार किया तथा सामूगढ़ के मैदान में पहुँचे, जो आगरे के दुर्ग से आठ मील पूर्व है। दाराशुकोह भी मई के अन्त में अपने विरोधियों से मुठभेड़ करने के लिए पचास हजार सैनिकों की एक फौज लेकर वहाँ पहुँच गया। यह फौज केवल देखने में ही भयानक लगती थी। यह विभिन्न वर्गों एवं स्थानों की एक विविध सेना थी, जो शीघ्रता से एकत्रित की गयी थी तथा जिसे उचित रूप से सम्बद्ध नहीं किया गया था और न मिलकर काम करना ही सिखलाया गया था। 29 मई को युद्ध आरम्भ हुआ। इसमें प्रचण्डता के साथ संघर्ष हुआ। दोनों दल वीरता से लड़े। मुराद के चेहरे पर तीन घाव लगे। दारा शुकोह की ओर से युद्ध करने वाले राजपूत अपनी जाति की परम्परा के प्रति सच्चे थे। उन्होंने अपने वीर युवक नेता, रामसिंह के नेतृत्व में वीरतापूर्वक मुराद की टुकड़ी पर निराशाजनित वीरता के साथ आक्रमण किया। उनका एक-एक आदमी मर मिटा। दारा शुकोह दुर्भाग्य से अपने हाथी के, एक तीर से बुरी तरह घायल हो जाने के कारण उस पर से उतर कर एक घोडे पर चढ़ गया। अपने स्वामी के हाथी का हौदा खाली देख बची हुई फौज उसे मरा समझ कर अत्यन्त घबड़ाहट के साथ मैदान से तितर-बितर हो गयी। निराशा में भरा हुआ दारा शुकोह, अपने पड़ाव एवं बन्दूकों को अपने शत्रु अकथनीय रूप से दीन व्यवस्था में पहुँचा। दारा शुकोह की हार वास्तव में उसके सेनापतियों की युद्ध कौशल सम्बन्धी कुछ भूलों तथा उसकी तोपों की दुर्बल अवस्था के कारण हुई, न कि उसकी सेना के दाहिने अंग के अधिकारी खलीलुल्लाह के कपटपूर्ण परामर्श के कारण जैसा कि कुछ वृत्तान्त हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं।
सामूगढ़ की लड़ाई ने शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के युद्ध का व्यवहारिक रूप से निर्णय कर दिया। दारा की पराजय के कारण, जिसमें उसके बहुत-से सैनिक नष्ट हुए, औरंगजेब के लिए अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करना और भी सुगम हो गया। यह बहुत अच्छी तरह कहा जा सकता है कि हिन्दुस्तान के राजसिंहासन पर औरंगजेब का अधिकार सामूगढ़ में प्राप्त उसकी विजय का तर्कसंगत परिणाम था। इस विजय के शीघ्र बाद वह सेना लेकर आगरे गया। उसने शाहजहाँ के मित्रतापूर्ण समझौते के लिए किये गये सभी प्रयासों का अनादर किया तथा दुर्ग के शाही दलीय प्रतिरक्षकों द्वारा इसका अपहरण रोकने के लिए की गयी सभी चेष्टाओं को विफल कर दिया। 8 जून को औरंगजेब ने अधिकार कर लिया।
आगरे से औरंगजेब 13 जून, 1658 ई. को दिल्ली की ओर रवाना हु में वह मथुरा के निकट रूपनगर में अपने भाई मुराद के, जो भाई की योजना को समझ कर उससे द्वेष करने लगा था, विरोध को कुचलने के लिए ठहर गया। खुले मैदान में उसका सामना करने के बदले औरंगजेब ने उसे एक जाल में फँसा लिया। पहले उस हतभाग्य शाहजादे दुर्ग में बन्दी बनाकर रखा गया। जनवरी, 1659 ई. में उसे वहाँ से ग्वालियर के किले में ले जाया गया। 4 दिसम्बर, 1661 ई. की दीवान अली नकी की हत्या करने के अभियोग में उसे फाँसी पर लटका दिया गया। मुराद को गिरफ्तार करा लेने के बाद ही औरंगजेब दिल्ली पर अधिकार कर चुका था, जहाँ 21 जुलाई, 1658 ई. को वह बादशाह के रूप में राजसिंहासन पर बैठा। 1659 में पुन: उसका सिंहासनावरोहण किया गया था।
अब औरंगजेब अपने अन्य प्रतिद्वंद्वियों से निपटने चला। धर्मत एवं सामूगढ़ में डरा शुकोह की पराजय से शुजा शक्ति प्राप्त करने की एक बार पुनः चेष्टा करने को प्रोत्साहित हुआ। परन्तु जब 5 जनवरी, 1659 ई. को इलाहाबाद के निकट खजवा में औरंगजेब ने उसे असाधारण ढंग से परास्त कर डाला, तब उसकी आशाएँ चूर हो गयीं। मीर जुमला ने उसका पश्चिम बंगाल होकर ढाका तक और वहाँ से अराकान तक पीछा किया (मई, 1660 ई.)। फिर शुजा के विषय में कुछ नहीं सुना गया। शायद अराकानियों ने परिवार सहित उसका वध कर दिया। औरंगजेब का ज्येष्ठ पुत्र शाहजादा मुहम्मद, मीर जुमला से लड़कर, कुछ समय के लिए शुजा से जा मिला। परन्तु इसका दण्ड उसे आजन्म कारावास के रूप में मिला तथा लगभग 1676 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
जब भाग्य दारा शुकोह से विमुख हो गया, तब उसके पुत्र सुलेमान शुकोह को भी उसके सेनापतियों तथा सैनिकों ने छोड़ दिया। उन्होंने समझा कि अब हारते हुए पक्ष का अनुसरण करने से कोई लाभ नहीं है। सुलेमान शुकोह एक स्थान से दूसरे स्थान को भागता फिरा। अंत में उसने अपनी पत्नी, कुछ अन्य स्त्रियों, अपने दूध-भाई मुहम्मद शाह एवं केवल सत्रह अनुगामियों के साथ गढ़वाल की पहाड़ियों के एक हिन्दू राजा के यहाँ शरण ली। वह राजा, विपत्ति पड़े इस शाहज़ादा अतिथि के प्रति बहुत दयापूर्ण एवं सचेत रहा। पर औरंगजेब के दबाव में आकर, उसके मेज़बान के पुत्र ने 27 दिसम्बर, 1660 ई. को उसे धोखा देकर शत्रुओं के हाथ में सौंप दिया। अन्त में मई, 1662 ई. में वह अपने रखवालों के परिश्रम से परलोक भेज दिया गया। दारा शुकोह के कनिष्ठ पुत्र सिपह शुकोह तथा मुराद के पुत्र एजिद् बख्श को भयानक प्रतिद्वन्द्वी नहीं समझा गया तथा उन्हें जीवनदान मिला। बाद में उनका क्रमश: औरंगजेब की तीसरी तथा पाँचवीं पुत्रियों के साथ विवाह कर दिया गया।
दारा शुकोह के अन्त की कहानी उसके भाई मुराद अथवा उसके पुत्र सुलेमान शुकोह के अंत की कहानी से कम विवादपूर्ण तथा मर्मस्पर्शी नहीं है। औरंगजेब द्वारा आगरे की विजय करने तथा शाहजहाँ के बंदी बनाये जाने के बाद, दारा शुकोह दिल्ली से लाहौर भाग गया। वहाँ औरंगजेब का पीछा करने वाली सेना का सामना करने की तैयारियों में लग गया। उसने सतलज के घाटों पर पहरा देने के कुछ उपाय किये तथा आशा की कि वर्षा ऋतु के प्रारम्भ हो जाने के कारण औरंगजेब को लाहौर पहुँचने में कुछ समय लग जायेगा। दारा को बीजापुर तथा गोलकुंडा के शिया सुल्तानों से समर्थन की आशा थी। यह उसके लिए उचित नीति होती। परन्तु जसवन्त सिंह ने, जिसे औरंगजेब पहले ही अपने पक्ष में कर चुका था, उसे सहायता देने का वादा करके अजमेर की ओर बढ़ने के लिए फुसला लिया। राजपूत नायक, जिसका आचरण उत्तराधिकार के लिए युद्ध के समय सन्देह युक्त था, अपने वादों से मुकर गया तथा दारा को अत्यंत अपेक्षित राजपूत सहायता न मिल सकी। उसे विवश होकर औरंगजेब के साथ, जो अजमेर के निकट पहुँच चुका था, युद्ध करना पड़ा। अपने अल्प साधनों को ध्यान में रखते हुए दारा ने लेख के मैदान के व्यवस्थित युद्ध में अपनी शत्रु सेना की अत्याधिक शक्ति से मुठभेड़ करना अनुचित समझा। अत: उसने अजमेर के चार मील दक्षिण देवराई की घाटी में एक प्रबल एवं प्रशंसनीय रूप से चुने हुए स्थान में अपने को दृढ़ कर लिया तथा तीन दिनों तक (12 से 14 अप्रैल, 1659 ई.) लड़ता रहा। परन्तु अन्त में वह पराजित हुआ। उसने शीघ्र भागकर अपनी रक्षा की। जयसिंह एवं बहादुर खाँ के अधीन औरंगजेब की सेना ने दारा का एक स्थान से दूसरे स्थान तक (राजस्थान, कच्छ और सिंध) पीछा किया तथा भारत में उसे कहीं शरण नहीं मिली। जून, 1659 ई. में वह शीघ्रता से उत्तर-पश्चिम सीमा की ओर बढ़ा। उसने दादर (बोलने घाटी से नौ मील पूर्व एक स्थान) के अफ़गान नायक जीवन खाँ से शरण की प्रार्थना की, जिसकी उसने कुछ वर्ष पहले शाहजहाँ के द्वारा मृत्यु दंड दिये जाने पर रक्षा की थी। पर उसके दुर्भाग्य का यहीं अंत नहीं था। अविश्वासी अफ़गान नायक के उसे धोखा दिया तथा उसे अपनी दो पुत्रियों और अपने द्वितीय पुत्र सिपिह शुकोह के साथ बहादुर खाँ के हवाले कर दिया। बहादुर खाँ इन बंदियों को 23 अगस्त, 1659 ई. को दिल्ली ले आया। उसी महीने की 29 तारीख को उन्हें सम्पूर्ण नगर में घुमाया गया। 30 अगस्त की रात को जल्लादों ने सिपिह को अपने पिता के आलिंगन से छीन लिया और दारा का सिर काट डाला। औरंगजेब की आज्ञा से उसके शव को सारे नगर में घुमाया गया जिससे लोगों को मालूम हो जाए कि अब उनका प्रिय नहीं रहा।
औरंगजेब का राज्याभिषेक दो बार किया गया- पहली बार आगरे पर अधिकार करने के शीघ्र बाद 21 जुलाई, 1658 ई. को तथा फिर खजुवा तथा देवराई की उसकी निर्णयात्मक विजयों के बाद अत्यंत जयजयकार के साथ जून 1559 ई. में उसके नाम से खुत्बा पढ़ा गया। उसने आलनमगीर की उपाधि धारण की जिसमें बादशाह तथा गृाजी भी जोडे गये। कुछ अन्य मुस्लिम शासकों की तरह औरंगजेब ने अपना राज्यकाल लोगों का कष्ट दूर करने की चेष्टाओं से आरम्भ किया। यह कष्ट उत्तराधिकार के लिए युद्ध के समय सामान्यत: प्रशासनिक अव्यवस्थाओं तथा वस्तुओं के अत्याधिक मूल्य के कारण हुआ था। उसने बहुत-सी कष्टप्रद चुगियों और करों को उठा दिया। परन्तु पूर्वगामी शासकों की तरह उसके निषेध का एक या दो बातों को छोड़कर अन्यत्र कोई परिणाम न निकला।
मुगल साम्राज्य का भौमिक विस्तार, जो दो सदियों तक चलता रहा, औरंगजेब के राज्य-काल में शीघ्रता से बढ़ा। यदि पिछले शासनकाल की कधार एवं मध्य एशिया की हानियों को अलग कर दें, तो बादशाहों के जीते हुए प्रदेश अखंड रहे तथा दक्षिण में मराठा राज्य के उत्कर्ष के पहले औरंगजेब के महत्त्वाकांक्षी तथा साहसी अफसरों ने सफलतापूर्वक अपने स्वामी के राज्य का विस्तार किया।
बिहार के सूबेदार दाऊद खाँ ने 1661 ई. में पलामू को जीत लिया। साम्राज्य की पूर्वी सीमा पर औरंगजेब के अफसरों को अपनी शक्ति के लिये काफी कार्यक्षेत्र मिला। 1661 ई. में बंगाल का शासक मीर जुमला एक सुसज्जित सेना लेकर अहोमों के आक्रमणों को रोकने के लिए इस सीमा की ओर बढ़ा। यों तो मुग़लों को पहले भी अहोमों के साथ भयंकर युद्ध करना पड़ा था, जब अहोमों ने शाहजहाँ के राज्यकाल में साम्राज्य की पूर्वी सीमा पर आक्रमण कर दिया था तथा 1639 ई. के प्रारम्भ में एक संधि हुई थी। परन्तु उत्तराधिकार के युद्ध से लाभ उठाकर अहोमों ने 1658 ई. में गौहाटी जीत ली। इन आक्रमणकारियों को दण्ड देने के लिए मीर जुमला नवम्बर, 1661 ई. के प्रारम्भ में ढाका से एक प्रबल सेना लेकर चला। उसके प्रारम्भिक सैनिक कार्य सफल रहे। उसने कूचबिहार तथा आसाम, दोनों पर अधिकार कर लिया। उसकी विजय-यात्रा के समय प्रकृति तथा मनुष्य के विरोध ने बहुत कठिनाइयाँ उपस्थित कीं। उन सभी कठिनाइयों को साधारण सेना के साथ झेलते हुए वह 17 मार्च, 1662 ई. को अहोम राज्य की राजधानी गढ़गाँव पहुँचा। इस बार अहोमों ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। उन्होंने अपनी राजधानी तथा सम्पत्ति को शाही दल की मजीं पर छोड़ दिया।
परन्तु प्रकृति ने शीघ्र अहोमों की ओर से युद्ध किया। वर्षा ऋतु के आरम्भ हो जाने से अस्वास्थ्यकर जलवायु तथा भोजन की सामग्री एवं औषधि के अभाव के कारण मीर जुमला की सेना को भयानक कष्ट हुआ। इससे प्रोत्साहित होकर अहोमों ने, जो कुचले नहीं गये थे, बल्कि डराकर भगा दिये गये थे, फिर तुरंत आक्रमण करना आरम्भ कर दिया तथा मुग़लों को क्लेश देने लगे। मुग़लों के अपने पड़ाव में महामारी तथा दुर्मिक्ष हो जाने के कारण उनकी तकलीफ बढ़ गयी, परन्तु बाधाओं से भयभीत हुए बिना मुग़ल सूबेदार लड़ता रहा तथा वर्षा ऋतु के बाद पुनः आक्रमण आरम्भ कर दिया। यह विचार कर कि और प्रतिरोध से कोई लाभ नहीं है, अहोमों ने शाही दल के साथ संधि कर ली। इस प्रकार सैनिक पराक्रम की दृष्टि से आसाम पर मीर जुमला का आक्रमण सफल रहा। अहोम राजा जयध्वज ने वार्षिक कर देने तथा युद्ध की विशाल क्षति-पूर्ति करने की प्रतिज्ञा की। क्षति-पूर्ति का एक भाग तुरंत देना था तथा शेष को अगले बारह महीनों में तीन बराबर किश्तों में चुकाना था। मुग़लों को हाथियों से परिपूर्ण दरंग प्रान्त के आधे से अधिक भाग पर अधिकार करना था किन्तु यह सफलता बहुत महँगी पड़ी। इस कारण मुग़लों को बहुत कष्ट हुआ तथा बहुत-से लोगों की जानें गयीं। मीर जुमला की जान भी इसी में गयी। वह औरंगजेब का एक अत्यन्त योग्य सेनापति था। ढाका लौटते समय रास्ते में 30 मार्च, 1663 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी। यह सफलता क्षणिक भी थी। कुछ वर्षों के बाद अहोमों ने कामरूप को पुनः जीत लिया। मुग़ल सरकार बहुत समय तक अनियमित रूप से युद्ध चलाती रही, पर कोई स्थायी लाभ न हुआ।
मीर जुमला की मृत्यु के तुरंत बाद एक अस्थायी राजप्रतिनिधि का अल्पकालीन और असफल शासन रहा। उसके बाद आसफ खाँ के पुत्र तथा औरंगजेब के मामा शाइस्ता खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया। वह इस पद पर लगभग तीस वर्षों तक रहा; सिर्फ एक बार तीन से कुछ कम वर्षों के लिए यह सिलसिला टूट गया था। नब्बे वर्षों से अधिक की आयु में आगरे में 1694 ई. में उसकी मृत्यु हुई। उसने पुर्तगीज सामुद्रिक डाकुओं को दण्ड दिया, बंगाल की खाड़ी में स्थित सोनद्वीप पर अधिकार कर लिया, जो सामुद्रिक डाकुओं का गढ़ था, तथा उनके मित्र अराकान के राजा से चटगाँव जीत लिया (1666 ई.)।
परन्तु सामुद्रिक डकैती की बुराई का पूर्णत: निर्मूल नहीं किया जा सका। इससे अठारहवीं सदी में बहुत बाद तक पूर्वी बंगाल के लोग क्लेश पाते रहे।
राजनैतिक तथा आर्थिक विचारों से औरंगजेब को उत्तर-पश्चिम सीमा पर अग्रगामी नीति का अनुसरण करना पड़ा। वहाँ उपद्रवकारी मुस्लिम जातियाँ सदा से मुग़ल-साम्राज्य के लिए महान् चिन्ता का साधन बनी हुई थीं। उस प्रदेश के खेतों की अल्प उपज के कारण वहाँ की साहसी अफ़गान जातियों की बढ़ती हुई जन-संख्या को आम सड़कों पर डकैती करने तथा उत्तर पश्चिमी पंजाब के समृद्ध नगरों के लोगों को डर दिखलाकर, उनसे धन ऐंठने को विवश होना पड़ा। उत्तर-पश्चिमी दरों को खुला ना रखने तथा उनके नीचे की घाटियों को सुरक्षित रखने के लिए औरंगजेब की सरकार ने पहले रुपये देकर इन पहाड़ी आदमियों को अपनी ओर मिला लेने की कोशिश की। परन्तु राजनैतिक पेशने सदैव आज्ञाकारिता प्राप्त करने में कार्यसाधक नहीं हुई। 1667 ई. के प्रारंभ में गड़बड़ी शुरू हो गयी। यूसुफजाइयों ने भागू नामक अपने एक नेता के अधीन सशस्त्र विद्रोह कर दिया। उनकी एक विशाल संख्या ने अटक के ऊपर सिन्धु को पार कर हजारा जिले पर आक्रमण कर दिया। अन्य गिरोह पश्चिमी पेशावर तथा अटक जिलों को लूटने लगे। फिर भी कुछ ही महीनों के अन्दर यूसुफूजाई विद्रोह दबा दिया गया।
परन्तु 1672 ई. में अफरीदियों ने अकमल खाँ नामक अपने नायक के अधीन मुग़लों को विरुद्ध कर दिया। अकमल खाँ ने सुल्तान के रूप में अपना राज्याभिषेक करवाया और सभी पठानों को एक प्रकार के राष्ट्रीय युद्ध के लिए संगठित करने के लिए बुलाया। मई महीने में विद्रोहियों ने अली मस्जिद में मुहम्मद अमीन खाँ को करारी हार दी। मुहम्मद अमीन तथा उसके कुछ बड़े अफसर निकल भागे, परन्तु मुगल बाकी सब कुछ खो बैठे। इस विजय से अकमल खाँ की प्रतिष्ठा तथा साधन बढ़ गये तथा अधिक रंगरूट उसके पक्ष में प्रलोभित होकर चले आये, जिससे अटक से लेकर कंधार तक के सम्पूर्ण पठान देश ने विद्रोह कर दिया। पठानों की खट्टक जाति भी अफ्रीदियों से मिल गयी। खट्टकों का कवि तथा वीर खुशहाल खाँ राष्ट्रीय विद्रोह का प्रमुख व्यक्ति बन गया तथा कबायिलियों को अपनी लेखनी एंव तलवार दोनों से समान रूप में प्रोत्साहित करने लगा। अप्रैल, 1674 ई. में अफगानों ने एक शाही फौज पर हमला किया। शाही फौज शुजाअत खाँ के अधीन थी, जो मार डाला गया। पर उसकी फौज के शेष भाग का उद्धार एक राठौर दस्ते ने किया जिसे जसवन्त सिंह ने मुगलों के समर्थन के लिए भेजा था।
इस दुर्घटना से औरंगजेब को विश्वास हो गया कि उत्तर-पश्चिम में मुग़लों की प्रतिष्ठा पुन: स्थापित करने के लिए अधिक गम्भीर चेष्टाओं की आवश्यकता है। जुलाई, 1674 ई. के प्रारम्भ में वह स्वयं पेशावर के निकट हसन अब्दाल गया तथा कूटनीति एंव शस्त्रों के चतुर संयोग से बड़ी सफलता प्राप्त की। बहुत सी अफगान जातियों को भेटें, पेंशनें, जागीरें और पद देकर अपने पक्ष में कर लिया गया। अधिक अविनीत जातियों को हथियार से दबा दिया गया। जब परिस्थिति काफी सुधर गयी, तब दिसम्बर, 1675 ई. में बादशाह पंजाब से दिल्ली के लिए रवाना हुआ। औरंगजेब की सफलता अफगानिस्तान के सुयोग्य शासक अमीन खाँ की विवेकपूर्ण नीति से दृढ़ हो गयी, जो इस पद पर 1677 ई. से लेकर 1698 ई. तक रहा। उसने अपनी स्त्री साहिबजी के, जो अली मदर्शन खाँ की पुत्री थी, विवेकपूर्ण परामर्श के अनुसार, चतुराई के साथ मेलजोल वाली नीति का अनुसरण किया। इस प्रकार मुगल बादशाह उत्तर-पश्चिम में अफगान विद्रोहों का दमन और शाही प्रतिष्ठा की पुन: स्थापना करने में समर्थ हुआ। इस काम में उसने आर्थिक सहायता देने अथवा एक जाति को दूसरी के विरुद्ध खड़ा करने अथवा (यदि उसी की उपमा का प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि) दो हड्डियों को आपस में टकरा कर उन्हें तोड़ने की नीति का अनुसरण किया। खट्टक वीर खुसहाल और कई वर्षों तक लड़ता रहा। अन्त में उसका अपना ही पुत्र उसका सबसे बुरा शत्रु सिद्ध हुआ तथा उसे मुग़लों के हाथों में सौंप दिया।
इसमें सन्देह नहीं मुगलों के सीमा-युद्धों का अंत सफलता के साथ हुआ। परन्तु उनके अप्रत्यक्ष परिणाम साम्राज्य के लिए अहितकर हुए। जैसा डाक्टर यदुनाथ सरकार कहते है, अफगान युद्ध शाही वित्त के लिए घातक तो था ही, इसका राजनैतिक परिणाम और भी अधिक हानिकारक हुआ। इससे आगामी राजपूत युद्ध में अफगानों का इस्तेमाल असम्भव हो गया, यद्यपि अफगान ठीक उसी कोटि के सैनिक थे, जो उस ऊबड़खाबड़ एंव वीरान देश में विजय प्राप्त कर सकते थे। दक्कन से सर्वोत्तम मुगल फौज को उत्तर-पश्चिम सीमा पर लड़ने के लिए ले जाने के कारण शिवाजी दबाव से मुक्त हो गया। मराठा नायक ने अपने शत्रु की शक्ति के इस विभाजन से लाभ उठाकर दिसम्बर, 1675 ई. के बाद के पंद्रह महीनों के अन्दर गोलकुंडा होकर कर्णाटक तक तथा फिर वापस आकर मैसूर एवं बीजापुर होकर रायगढ़ तक झपट्टा मारा और चकाचौंध कर देने वाली विजयों का ताँता लगा दिया। यह उसके जीवन में उत्कर्ष की पराकाष्ठा थी। परन्तु अफरीदियों तथा खट्टकों ने ही उसकी अटूट सफलता को सम्भव बनाया था।