भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट Aryabhatt Indian Mathmatician

आर्यभट्ट का जन्म 476 ई. में अश्मक (Ashmaka) में हुआ था परंतु बाद में वह अपने टीकाकार भास्कर प्रथम के साथ पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में रहने लगे| ऐसा प्रतीत होता है, वह मगध में नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति (प्रधान) थे| अश्मक के स्थान के बारे में अभी मतभेद है कुछ लोगों के अनुसार यह दक्षिण भारत के केरल में स्थित है क्योंकि यहाँ आर्यभट्टीय विद्यालय का महत्वपूर्ण स्थान है और आर्यभट्ट दक्षिण भारत में सबसे लोकप्रिय, काली युग (3102 ईसा पूर्व) कार्यरत थे|

आर्यभट्ट ने दो किताबें लिखीं, आर्यभटीय (Aryabhatiya) और आर्यभट्ट सिद्धांत (Aryabhata-siddhanta)| आर्यभट्ट सिद्धांत का उल्लेख सिर्फ़ उनके अन्य कार्यों में दिए गये संदर्भों के द्वारा मिलता है| भास्कर प्रथम द्वारा आर्यभट्ट के कार्यों पर लिखी गयी टिकाओं से हमें आर्यभट्ट के खगोलविद शिष्यों पांडुरंग-स्वामी, लता देवा, और निशंक के बारे में पता चलता है|

आर्यभट्ट के महत्वपूर्ण कार्यों में पाई (π) की सबसे सटीक गणना 3.1416, 24 संख्याओं का समुच्चय आर्यभट की ज्या-सारणी (Aryabhaṭa’s sine table) खगोल विज्ञान में महत्वपूर्ण एक खास प्रकार के अनिश्चित समीकरण को हल करने के लिए एक विधि, शामिल हैं|

आर्यभट्ट का पृथ्वी और नक्षत्रों की गति की गणना का तरीका एकदम सटीक था| आर्यभट्ट ने सरल परिकल्पनाओं के द्वारा ग्रहों की महत्वपूर्ण संगणना की और उन्होने ग्रहों की खगोलीय अक्षांश पाने की एक विधि भी प्रस्तुत की| आर्यभटीय में आर्यभट्ट ने खगोलीय और गणितीय सिद्धांतों प्रस्तुत किया जो पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने और ग्रहों के समय सूर्य के संबंध में दिए गये थे| आर्यभटीय में आर्यभट्ट ने दिन की गणना एक सूर्योदय से लेकर अगले सूर्योदय तक की, जबकि अपनी पुस्तक आर्यभट्ट सिद्धांत में एक अर्धरात्रि से दूसरी अर्धरात्रि तक दिन की गणना की| उनके कुछ खगोलीय मानकों में इस तरह के अंतर देखे जा सकते हैं|

ऐसा प्रतीत होता है की आर्यभटीय ने प्राचीन पुस्तक पितामहः सिद्धांत (Paitamaha Siddhanta) का एक माडल के रूप में प्रयोग किया, जबकि आर्यभट्ट सिद्धांत ने सूर्य-सिद्धांत (Surya-siddhanta) में लिखे निर्देशों का पालन किया| आर्यभट्ट सिद्धांत में कुछ सुधार करके सातवीं सदी के खगोल विज्ञानी ब्रह्मगुप्त (जन्म 598 A.D.) ने उसे ख़ंड-खांडयक (Khanda-khadyaka) में मिला दिया|

बाद में केरल के खगोल विज्ञान और गणित के स्कूल ने आर्यभट्ट का अनुसरण किया| नीलकंठ सोमयाजी (Nılakantha Somayaji, 1444-1545) ने खगोल विज्ञान की आर्यभट्ट प्रणाली में महत्वपूर्ण योगदान दिया|

आर्यभटीय का अरज़बहरा (Arajbahara) के रूप में अरबी में अनुवाद किया गया था, और इसने पश्चिमी खगोलविदों को प्रभावित किया| ख़ंड-खांडयक का भी अरबी में ज़िज-अल-अरकंद और अज़-ज़िज-खंड्कतिक अल-अरबी (Zij-al-Arkandand & Az-Zij Kandakatik al-Arabi) किताबों के रूप में अनुवाद किया गया| अरब दुनिया से, यह किताब यूरोप तक पहुंच गयीं|


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