अजंता बौद्ध वास्तुकला, शिल्पकला का धरोहर Ajanta Buddhist Architecture, Sculptures Heritage
महाराष्ट्र में औरंगाबाद शहर से लगभग 107 किलो मीटर की दूरी पर अजंता की ये गुफाएं पहाड़ को काट कर विशाल घोड़े की नाल के आकार में बनाई गई हैं। अजंता में 29 गुफालाओं का एक सेट बौद्ध वास्तुकला, गुफा चित्रकला और शिल्प चित्रकला के उत्कृष्तम उदाहरणों में से एक है। इन गुफाओं में चैत्य कक्ष या मठ है, जो भगवान बुद्ध और विहार को समर्पित हैं, जिनका उपयोग बौद्ध भिक्षुओं द्वारा ध्यान लगाने और भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन करने के लिए किया जाता था। गुफाओं की दीवारों तथा छतों पर बनाई गई ये तस्वीरें भगवान बुद्ध के जीवन की विभिन्न घटनाओं और विभिन्न बौद्ध देवत्व की घटनाओं का चित्रण करती हैं। इसमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण चित्रों में जातक कथाएं हैं, जो बोधिसत्व के रूप में बुद्ध के पिछले जन्म से संबंधित विविध कहानियों का चित्रण करते हैं, ये एक संत थे जिन्हें बुद्ध बनने की नियति प्राप्त थी। ये शिल्पकलाओं और तस्वीरों को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करती हैं जबकि ये समय के असर से मुक्त है। ये सुंदर छवियां और तस्वीरें बुद्ध को शांत और पवित्र मुद्रा में दर्शाती हैं।
यूनेस्को द्वारा 1983 से विश्व विरासत स्थल घोषित किए जाने के बाद अजंता और एलोरा की तस्वीरें और अजंता की गुफाओं में बौद्ध धर्म द्वारा प्रेरित और उनकी करुणामय भावनाओं से भरी हुई शिल्पकला और चित्रकला पाई जाती है जो मानवीय इतिहास में कला के उत्कृष्ट अनमोल समय को दर्शाती है। बौद्ध तथा जैन सम्प्रदाय द्वारा बनाई गई ये गुफाएं सजावटी रूप से तराशी गई हैं। फिर भी इनमें एक शांति और अध्यात्म झलकता है तथा ये दैवीय ऊर्जा और शक्ति से भरपूर हैं।
तीस अजंता गुफाओं पश्चिम मध्य भारत के पहाड़ों में वघोरा नदी के किनारे बनाया गया है| लगभग 200 वर्ष पहले तक इन गुफ़ाओं को भुला दिया गया था और इनकी कोई जानकारी नही थी| परंतु अब इसे सयुंक्त राष्ट्र द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किया जा चुका है| उस समय इन गुफ़ाओं को खोजने का मौका एक अँग्रेज़ सैनिक को मिला जब वह बाघ का शिकार करते हुए यहाँ तक पहुँचा| इनकी चौकाने वाली खोज की पुष्टि यहाँ स्थित 10 नंबर की गुफा में एक स्तंभ पर उकेरी खरोंच से हुई है यहाँ लिखा है “John Smith, 28th Cavalry, 28 April, 1819”.
अजंता गुफ़ाओं का संरक्षण दो अलग-अलग अवधियों में हुआ- पहला बौद्ध चरण या हीनयान चरण 50 ई.पू. से लेकर 100 ईसवी तक था| इस अवधि में बड़े चैत्य हॉल 9 और 10 का इस्तेमाल पूजा करने के लिए और 12,13.15A विहारों का निर्माण बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए किया गया था| यहाँ शिलालेखों पर उत्कीर्ण अभिलेखों से पता चलता है यह गुफ़ाएँ पश्चिम भारत में विभिन्न समुदायों का सम्मिलित प्रयास थी, जब सातवाहन शासकों के शासन के दौरान बुद्ध धर्म फल-फूल रहा था|
दूसरे चरण की खुदाइयां लगभग तीन शताब्दियों की स्थिरता के बाद की गयीं। इस चरण को महायान चरण बौद्ध धर्म का दूसरी सबसे बड़ी शाखा, जिसे उदारवादी शाखा भी कहते है इसमें एवं बुद्ध को सीधे गाय आदि रुप में चित्रों या शिल्पों में दर्शित करने की अनुमति दी गयी है। कई लोग इस चरण को वाकाटक चरण कहते हैं। यह वत्सगुल्म शाखा के शासित वंश वाकाटक के नाम पर है। इस द्वितीय चरण की निर्माण तिथि कई शिक्षाविदों में विवादित है। हाल के वर्षों में, कुछ बहुमत के संकेत इसे पाँचवीं शताब्दी में मानने लगे हैं। वॉल्टर एम.स्पिंक (Walter M Spink), एक अजंता विशेषञ के अनुसार महायन गुफाएं 462-480 ई. के बीच निर्मित हुईं थीं। महायान चरण की गुफाएं संख्या हैं 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 11, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 23, 24, 25, 26, 27, 28, एवं 29। गुफा संख्या 8 को लम्बे समय तक हीनयान चरण की गुफा समझा गया, किन्तु वर्तमान में तथ्यों के आधार पर इसे महायान घोषित किया गया है।
100 ई.पू. के पश्चात अजंता की गुफ़ाएँ तीन शताब्दियों तक निष्क्रिय पड़ी रहीं| 400 ईसवी में चीनी यात्री फ़ाहसियन ने लिखा है की बौद्ध भिक्षुओं के यहाँ रहते हैं और यहाँ रहने वाले स्थानीय लोगों के विचार ग़लत हैं और वे बुद्ध के विचारों के बारे में नहीं जानते|
460 ईस्वी में यहाँ की परिस्थिति में नाटकीय बदलाव तब आया जब यह गुफ़ाएँ शक्तिशाली वाकाटक राजवंश के राजा हरिसेन के संरक्षण में आ गयी| 477 ईस्वी में राजा हरिसेन की अप्रत्याशित मौत के समय तक उसका राज्य संपूर्ण मध्य भारत में पश्चिम से पूर्वी समुद्रि तटों तक फैल चुका था|
हरिसेन के 20 वर्ष के संक्षिप्त शासन काल के दौरान अजंता गुफ़ाओं का स्वर्णकाल रहा| 465 ईस्वी तक 5 वर्ष के अंदर यहाँ 20 बड़ी गुफ़ाओं का निर्माण हो रहा था| इसके निर्माण के लिए दरबारियों के एक समूह का चयन किया गया जिन्होने स्वेच्छा से इस धार्मिक कार्य के लिए वित्तीय संसाधनों का प्रबंध किया|देश के प्रमुख शहरों से हज़ारों कारीगरों,मूर्तिकारों और चित्रकारों को यहाँ स्वेच्छा से कम करने के लिए भेजा गया| यहाँ के शिलालेखों से पता चलता है किस प्रकार यहाँ ठोस आग्नेय चट्टानों को काटकर यहाँ ‘इनको देवताओं के महलों से अधिक सुंदर’ और ‘जब तक सूर्य और चंद्रमा हैं’ तबतक इनका अस्तित्व बने रहने के लिए बनाया जायेगा|
सम्राट हरिसेन ने स्वयम् यहाँ की वैभवशाली और बेहतरीन गुफा न. 1 का निर्माण कराया| हरिसेन के प्रधानमंत्री वराहदेव जो हरिसेन का प्रधानमंत्री था ने यहाँ प्रभावशाली केंद्रीय गुफा न. 16 का निर्माण कराया और राजा उपेन्द्रगुप्त ने जो की ऋषिका (प्राचीन अजंता क्षेत्र) पर शासन करता था, इसने यहाँ बहुत पैसा कर्च किया और लगभग 5 गुफ़ाओं का निर्माण कराया|
इसी समय, महत्वाकांक्षी भिक्षु बुद्धभद्र ने एक दर्जन गुफाओं के निर्माण का निरीक्षण किया और इसके इसके निर्माण को पूरा करने के लिए लगने वाले भव्य धन का इंतज़ाम अस्मक राज्य के प्रधानमंत्री द्वारा भी कराया| 468 ईस्वी में अस्मक राज्य से धमकी मिलने पर समस्या पैदा हो गयी और सैन्य उद्देश्यों के संसाधनों को जुटाने के लिए राजा की गुफा न. 1 को छोड़कर सभी गुफ़ाओं का निर्माण कार्य रोक दिया गया| 472 ईस्वी तक इस क्षेत्र में युद्ध भड़क उठा और यहाँ शाही गुफा के साथ सभी गुफ़ाओं पर कम बंद हो गया|
475 ईस्वी मे अस्मक और ऋषिका के बीच युद्ध समाप्त होने के बाद अस्मक यहाँ के नये जागीरदार बने| इसके पश्चात राजा यहाँ पर निर्माण कार्य में और तेजी आ गयी और यहाँ के स्थानीय राजा उपेन्द्रगुप्त का नाम कभी नहीं सुना गया| 477 ईस्वी तक अजंता में आख़िरी चरण के निर्माण में भित्तिचित्र बनाने का काम भी लगभग पूरा हो गया था|
सन् 477 ईस्वी में महान सम्राट हरिसेन की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी| संभवतः इसका कारण अस्मक लोगों द्वारा की गयी साजिश और और विद्रोह था फलस्वरूप इन गुफ़ाओं का निर्माण शीघ्र ही रुक गया| इससके पश्चात हरिसेन का अयोग्य पुत्र सर्वसेन तृतीय गद्दी पर बैठा जिसने ही यह साजिश असम्कों के साथ मिलकर रची थी| परंतु शीघ्र ही विशाल वकाटक सम्राज्य पर कब्जा करने की साजिशें और युद्ध शुरू हो गये और सर्वसेन की युद्ध में मृत्यु हो गयी और वकाटक राज्य अपने विद्रोहियों से कभी निपट नही पाया|
धीरे-धीरे इन गुफ़ाओं को इनके संरक्षकों के उपर ही छोड़ दिया गया| 478 ईस्वी तक यहाँ बौद्ध भिक्षु रहा करते थे, 480 ईस्वी के पश्चात यहाँ किसी भी प्रकार का काम नहीं हुआ| युद्ध के बाद वाकटक साम्राज्य बुरी तरह से बिखर गया था| बाद के किसी भी हिंदू राजाओं ने इन स्थलों के निर्माण व संरक्षण में रूचि नहीं दिखाई| 5वीं शताब्दी के अंत तक यहाँ कुछ ही भिक्षु रह गये थे परंतु शीघ्र ही उन्होने यह स्थान पूरी तरह से अनाथ और निर्जन छोड़ दिया| अजंता अब अपने दूरदराज के खड्ड में पड़ा रहा और धीरे धीरे भुला दिया गया|