वायुदाब पवनें और वर्षा Air Pressure, Wind And Rainfall
वायुदाब का अर्थ Meaning of Air Pressure
वायुमण्डल में पायी जाने वाली विभिन्न गैसें एवं अन्य तत्व भी भौतिक पदार्थ हैं, अतः इनमें भार होता है। भूपृष्ठ पर वायुमण्डल के दाब या भार को वायुमण्डलीय दाब या वायुदाब या वायुभार कहते हैं। पृथ्वी के चारों ओर कई सौ किलोमीटर की ऊँचाई तक वायु का आवरण फैला है। वायु के इस आवरण का धरातल पर भारी दबाव पड़ता है। अनुमान लगाया गया है कि समुद्रतल के समीप प्रति वर्ग सेण्टीमीटर भूमि पर 1.25 किलोग्राम वायुदाब होता है। अत: हम सदैव ही 112 किलोग्राम वायु का भार अपने ऊपर लादे फिरते हैं, किन्तु फिर भी हमें वायु का कोई दबाव अनुभव नहीं होता। इसका कारण यह है कि हमारे चारों ओर वायु का दबाव समान रूप से पड़ता है। हम वायु के इस महासागर के नीचे उसी प्रकार रह रहे हैं जैसे कि समुद्र के अन्दर जल-जीव निवास करते हैं।
वायुदाब को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting Air Pressure
धरातल पर वायु का दाव न तो सर्वत्र समान ही होता है और न यह सदैव ही एक समान रहता है, वरन् स्थान और समय के अनुसार उसमें परिवर्तन आता है। वायुदाब में इस परिवर्तन पर निम्न तथ्यों का विशेष प्रभाव पड़ता है।
तापमान Temperature
वायुदाब और तापमान में घनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है। वायु का तापमान बढ़ जाने पर उसका आयतन बढ़ जाता है और उसके भार और दबाव में कमी हो जाती है। जब वायु का तापमान घटता है तो वायु सिकुड़ती है, जिससे वहां निकटवर्ती भागों से और वायु जाती है। फलस्वरूप वायु का घनत्व बढ़ जाता है और उसका दबाव अधिक हो जाता है। इस प्रकार तापमान के परिवर्तन के साथ वायुदाब भी घटता-बढ़ता है। ध्यान रखें कि सामान्य दशाओं में वायुदाब और तापमान में विलोम सम्बन्ध है यदि वायु का तापमान अधिक होता है तो वायुदाब कम होता है और यदि तापमान कम होता है तो वायुदाब अधिक होता है। ध्रुवों पर अधिक वायुदाब तथा विषुवत् रेखा पर कम वायुदाब पाए जाने का यही कारण है।
ऊँचाई Height
वायु का अधिकांश भार उसकी नीचे की परतों में होता है, क्योंकि धरातल की निकटवर्ती वायु पर ऊपरी तहों का भार पड़ता है। जलवाष्प, धूल के कण तथा भारी गैसें भी घरातल से कुछ ही ऊँचाई तक सीमित रहती हैं, अतः धरातल के समीप की वायु घनी और भारी होती है। ऊपर जाने पर वायु हल्की और पतली होती जाती है। इसलिए ज्यों-ज्यों हम ऊपर जाते हैं, वायुदाब कम होता जाता है। सामान्यतः समुद्रतल पर वायुदाव 1013.2 मिलीवार रहता है 300 मीटर की ऊँचाई पर 976.5 एवं 600 मीटर की ऊंचाई पर गिरकर 942 मिलीबार रह जाता है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि 5500 मीटर की ऊंचाई पर वही वायुदाब गिरकर 506 मिलीवार रह जाता है। अधिकं ऊँचाई पर वायु इतनी हल्की हो जाती है कि न केवल सांस लेना कठिन हो जाता है, वरन् मूर्च्छा भी जाती है। इसलिए पर्वतारोही और वायुयान चालक अपने साथ सदैव ऑक्सीजन के थैले रखते हैं।
जलवाष्प Water Vapour
यह वायु से हल्की होती है। अतः वायु में जितनी ही वाष्प मिली रहती है, वायु उतनी ही हल्की होती है। फलस्वरूप वायु जितनी हल्की होती है, उसका दाब उतना ही कम होता है। मौसम के अनुसार वायु में वाष्प की मात्रा बदलती रहती है, इस कारण वायुदाब भी घटता-बढ़ता रहता है। वर्षा काल में वायुदाब कम तथा शुष्क मौसम में अधिक होता है।
पृथ्वी की पूर्णन गति Earth’s Rotation Speed
पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण अपकेन्द्रीय (Centrifugal Force) उत्पन्न होता है, जिससे प्रभावित होकर विषुवत् रेखा एवं ध्रुवों के आसपास की वायु अपने स्थान से हटकर मध्यवर्ती अक्षांशों की ओर चलने लगती है। परिणामस्वरूप विषुवत् रेखा पर एवं ध्रुवों के आसपास कम वायुदाब की मेखलाएँ बन जाती हैं और मध्यवर्ती अक्षांश (30° -35°) अधिक वायुदाब के क्षेत्र बन जाते हैं।
वायुदाब के माप के यंत्र Instruments forMeasuring Air Pressure
वायुदाबमापी Barometer
पृथ्वी के वायुदाब के मापने के लिए वायुदाबमापी यन्त्र का उपयोग किया जाता है। इस यन्त्र में यह माना जाता है कि यन्त्रं एक मीटर लम्बी नली के मुंह के बराबर समतल क्षेत्र पर वायु का दाब उतना ही होता है जितना कि उस नली में भरे पारे का भार होता है। समुद्रतल पर नली में पारे की औसत ऊँचाई 76 सेण्टीमीटर होती है। यदि किसी कारणवश वायु का दबाव कम हो जाता है तो नली में पारे की लम्बाई भी उसी अनुपात में कम हो जाती है। वायुदाब को की विधि का आविष्कार सबसे पहले सन् 1643 मेंगैलिलियो के शिष्य टेरिसिली ने किया था।
वायुदाब इंच, मिलीमीटर एवं मिलीबार तीनों ही इकाइयों में पढ़ा जाता रहा है, किन्तु वर्तमान में विश्व के अधिकांश देशों में मिलीबार से ही वायुदाब मापते हैं। वैसे समुद्रतल पर औसत वायुदाब 1,013 मिलीवार या 76 सेण्टीमीटर अथवा 29.9 (29.92) इंच होता है। वायुदाबमापी दो प्रकार के होते हैं-
फोर्टिन बैरोमीटर Fortins Barometer
यह साधारण वैरीमीटर का ही सुधरा हुआ रूप है। इसे फोर्टिन (J. Fortin, 1750-1831) ने बनाया था। इसमें पारा भरी हुई नली के नितल को एक पेच की सहायता से ऊपर-नीचे किया जा सकता है। पैमाने का शून्य हाथी-दांत के एक निर्देशक की सीध में होता है। पेंच के द्वारा पारे के धरातल को इस प्रकार ऊँचा-नीचा करते हैं कि पारा पैमाने के शून्य की सीध में आ जाए। तब वायुदाब का घटनावढ़ना पैमाने के द्वारा ज्ञात हो जाता है।
निर्दव या एनेराइड बैंरोमीटर Aneroid Barometer
यह एक घड़ीनुमा यन्त्र है, जो फोर्टिन बैरोमीटर की अपेक्षा अधिक सुगमता से प्रयोग में लाया जा सकता है। यह यन्त्र धातु की चद्दर का बना होता है। इसकी सतह लहरदार होती है। इस यन्त्र में कोई द्रव वस्तु नहीं भरी जाती। यन्त्र की सारी वायु पम्प द्वारा बाहर निकाल दी जाती है। वायु के दबाव से जब ढक्कन ऊपर से नीचे होता है तो उत्तोलकों (Lever) के सहारे सुई भी घूमती है और डायल (Dial) पर बने पैमाने के द्वारा वायु दवाव को प्रकट कर देती है। डायल पर वर्षा, आँधी, शुष्कता, आर्द्रता, आदि शब्द व चिह्न बने होते हैं, जिन पर संकेतक की स्थिति से मौसम का ज्ञान भी हो सकता हैं।
वायुदाब लेखी Barograph
यह वायुदाब को मापने का स्वयंलेखी यन्त्र होता है, इसमें कई एनेराइड बैरोमीटर होते हैं, जो एक दूसरे के ऊपर रखे होते हैं। इनकी गति से एक निर्देशक घूमता है। निर्देशक के साथ एक कलम जुड़ी रहती है, जो एक घूमते हुए ढोल को छूती है। ढोल पर ग्राफ कागज लिपटा रहता है। निर्देशक के घूमने के साथ-साथ उससे जुड़ी हुई कलम भी ऊपरनीचे घूमती है और ढोल पर लिपटे कागज पर चिह्न बना देती है। इस प्रकार कागज पर वायुदाब का स्वयं चित्रण हो जाता है।
भूतल पर वायुदाब का वितरण Distribution of Air Pressure on the Earth
पृथ्वी के गोले पर वायुदाब की सात पेटियां पायी जाती हैं, उनमें से चार उच्च वायुदाब और तीन न्यून वायुदाब की मेखलाएँ हैं-
विषुवत रेखीय न्यून दाब पेटी Equatorial Low Pressure Belt
यह विषुवत रेखा के समीप 5° उत्तर और दक्षिण के बीच पायी जाती हैं। यहाँ वर्ष भर सूर्य की किरणे सीधी पड़ने के कारण तापमान ऊँचा रहता है, अतः निम्न वायुदाब पाया जाता है। इस क्षेत्र में गरम भूमि के सम्पर्क से वायु भी गरम हो। जाती है और हल्की होकर ऊपर उठती है तथा वायुमण्डल के ऊपरी स्तरों से ठण्डी वायु पृथ्वी के धरातल पर नीचे उतरती है। इस प्रकार वायुमंडल में संवहन धाराएँ ( convectional currents) उत्पन्न हो जाती हैं। पवन धरातल के समान्तर नहीं चलती। इसी कारण इस क्षेत्र को शान्त खण्ड (Doldrums) भी कहते हैं। यहां दोनों ओर से आने वाली स्थायी पवनों का मिलन या अभिसरण (convergence) होता है, अतः इस मेखला को अन्तः उष्णकटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र (Inter-tropical Convergence zone) भी कहते हैं। इस कटिबन्ध में प्रतिदिन वर्षा होती है अतः इसका भी प्रभाव वायुदाब पर पड़ता है।
उपोष्ण उच्च वायुदाब पेटियाँ Tropical High Pressure belt
उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध में 30° और 35° अक्षांशों के बीच में उच्च वायुदाब की मेखलाएँ स्थित हैं। वायुदाब की ये मेखलाएँ पृथ्वी की गति के कारण उत्पन्न होती हैं। इन मेखलाओं में वायु सदा ऊपर से नीचे उतरती है, अतः उनका दाव बढ़ जाता है। इन मेखलाओं को अश्व अक्षांश (Horse Latitudes) भी कहा जाता है, क्योंकि मध्ययुग में पालदार जलयानों से यात्रा करते समय अपनेअपने साथ घोड़े, आदि ले इन मेखलाओं में आने पर जलयान शान्त पेटियों के कारण आगे चल नहीं पाते थे, अतः जहाजों का भार हल्का करने के लिए घोड़ों को समुद्र में फेंक दिया करते थे। इस कारण इन मेखलाओं को अश्व अक्षांश कहा जाता है। पवनों की गति अधोमुखी होने के कारण इन कटिबन्धों में पवन संचार बहुत धीमा रहता है, अतः इन कटिबन्धों को शान्त कटिबंध (Belt of Calm) भी कहते हैं।
उपध्रुवीय न्यून वायुदाब पेटियां Sub Polar Low Pressure Belts
ये 60° से 66½° के बीच पायी जाती हैं। इनमें न्यून वायुदाब पाया जाता है। इन वृतों के समीप न्यून वायुदाब की मेखलाओं के बनने के सम्भावित कारण हैं-
- इन मेखलाओं के दोनों ओर अधिक वायुदाब मिलता है, ध्रुवों की ओर शीत के कारण और विषुवत् रेखा की ओर मध्य अक्षांशों के समीप पृथ्वी की गति के कारण
- इन मेखलाओं में स्थित सागरों में गरम जलधाराएँ चला करती हैं जिनसे यहाँ तापमान बढ़ जाता है और वायुदाव कम हो जाता है।
- पृथ्वी की परिभ्रमण गति के कारण ध्रुवों के ऊपर भंवर (Eddies) उत्पन्न हो जाते हैं। वायु की इस भंवर से ध्रुवों पर गड्ढा बन जाता है। फलस्वरूप वायु की कमी से न्यून वायुदाब की आवृति उत्पन्न हो जाती है, परन्तु यहाँ इतनी प्रचण्ड शीत पड़ती है कि उसके प्रभाव के सम्मुख पृथ्वी की गति का प्रभाव नगण्य हो जाता है। प्रचण्ड शीत के प्रभावों से ध्रुवों पर उच्च वायुदाब बना रहता है और न्यून वायुदाब की मेखला अन्ततः ध्रुव वृतों के ऊपर अथवा ठीक उनके बाहर ही बनती है।
इस प्रकार यहाँ ये मेखलाएँ पृथ्वी की परिभ्रमण गति और तापमान दोनों के सम्मिलित प्रभाव से बनती हैं।
ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटियाँ Polar High Pressure Belts
ध्रुव वृतों से ध्रुवों की ओर जाने पर वायुदाब बढ़ता जाता है। ध्रुवों के निकट तो उच्च वायुदाब का एक विशेष क्षेत्र बन जाता है। जिस प्रकार विषुवत् रेखा के निकट न्यून वायुदाब का कारण तापमान की अधिकता है, उसी प्रकार ध्रुवों के समीप उच्च वायुदाब का कारण तापमान की न्यूनता है।
दक्षिणी गोलार्द्ध में ध्रुव के ऊपर हिम से ढका हुआ एण्टार्कटिक महाद्वीप है और उसके चारों ओर बाधारहित सागर फैले हुए हैं। इन सब कारणों से वायुदाब एक समान पाए जाते हैं। एण्टार्कटिक महाद्वीप के ऊपर सदा उच्च वायुदाब रहता है और उसके चारों ओर बाधारहित सागर फैले हुए हैं, अतः उसके चारों ओर उपधुवीय न्यून वायुदाब की मेखला रहती है। इसके विपरीत, उत्तरी गोलार्द्ध में वायुदाब की ऐसी सरल व्यवस्था नहीं दिखायी पड़ती। उत्तरी ध्रुव के समीप उत्तरी सागर है जो अधिकांश समय हिम से ढका रहता है। उत्तरी ध्रुव सागर के समीप यूरेशिया और उत्तरी अमरीका के महाद्वीप फैले हुए हैं, जहां ऋतुओं के साथ और तापमान में बड़ा भारी अन्तर पड़ता है। वायुदाब और तापमान में यह परिवर्तन ध्रुव प्रदेश के भीतरी भागों को प्रभावित करते हैं। शीत ऋतु में ध्रुवों की अपेक्षा उत्तरी यूरेशिया और उत्तरी अमरीका पर सघन उच्च वायुदाब रहता है। हिम से ढका हुआ ग्रीनलैण्ड प्रदेश ध्रुव की अपेक्षा आर्कटिक प्रदेश में उच्च दाब का स्थायी केन्द्र है। उत्तरी अन्ध महासागर में आइसलैण्ड और उत्तरी प्रशान्त में एल्यूसिन द्वीप समूह में न्यून वायुदाब केन्द्र, उपध्रुवीय न्यून वायुदाब मेखला के भाग हैं, फिर भी उत्तरी ध्रुव के निकट तो वर्ष भर उच्च भार की स्थिति बनी रहती है।
वायुदाब पतियों का खिसकना Shifting Off Pressure Belts
पृथ्वी का अपनी धुरी पर 23½° के कोण बनाने तथा उसके वार्षिक परिक्रमण के फलस्वरूप ग्रीष्म काल में सूर्य की सीधी किरणें कर्क रेखा पर पड़ती हैं, अतः 21 जून को तापीय विषुवत् रेखा उत्तर की ओर खिसक जाती है, जबकि शीत काल में सूर्य की सीधी किरणें मकर रेखा पर पड़ती हैं, अत: 22 दिसम्वर को तापीय विषुवत् रेखा वास्तविक विषुवत् रेखा से दक्षिण की ओर होती है, अतः तापीय विषुवत् रेखा का उत्तर और दक्षिण को खिसकना वायुदाब की पेटियों को तथा उसके परिणामस्वरूप स्थलीय पवनों की पेटियों को मौसम के अनुसार 5° से 10° उत्तर और दक्षिण में खिसका देती हैं।
21 मार्च और 23 सितम्बर सूर्य विषुवत् रेखा पर लम्बवत् चमकता है। 21 जून को जब सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है, अतः सभी वायुदाब की पेटियों एवं पवन पेटियां 5° से 10° उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। इसके विपरीत, शीत ऋतु में 21 दिसम्बर को सूर्य मकर रेखा पर सीधा चमकता है, अतः इस अवस्था में सभी वायुदाब की पेटियाँ (वास्तविक स्थिति 23 सितम्बर से) 5° से 10° दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।
वायुदाब पेटियों के खिसकने के प्रभाव Effects of Pressure Belt’s Shifting
वायुदाब पेटियों के खिसकने का प्रभाव स्थायी तथा स्थानीय पवनों, आर्द्रता, वर्षा और मौसम की अन्य घटनाओं पर स्पष्ट रूप से पड़ता है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-
- उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य कर्क रेखा पर सीधा चमकता है, वायु पेटियाँ तथा वायुदाब पेटियाँ 5° से 10° उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। भूमध्यरेखीय शान्त वायु की पेटी उत्तर से 5° उत्तर से 5° दक्षिण अक्षांश न रहकर 0° अक्षांश से 10° उत्तरी अक्षांश के बीच हो जाती है। कर्क और मकर रेखाओं पर स्थित शान्त वायु की पेटियाँ 10° उत्तर की ओर खिसक जाती हैं, अर्थात् 25° से 35° अक्षांशों के बीच न रहकर उत्तरी गोलार्द्धों में 30° से 40° उत्तर अक्षांशों और दक्षिणी गोलार्द्ध में 30° से 20° दक्षिणी अक्षांशों के बीच हो जाती हैं।
- जब सूर्य मकर रेखा पर सीधा चमकता है तो वायुदाब पेटियाँ इसी क्रम में 5° से 10° अक्षांश दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।
- भूमध्यरेखीय शान्त वायु की पेटी 0° से 10° दक्षिणी अक्षांश के बीच तथा मकर रेखा पर स्थित उच्च भार की पेटी 25° से 35° अक्षांशों के मध्य न रहकर यह 30° से 40° दक्षिणी अक्षांश के बीच हो जाती है। इसी प्रकार उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवीय वृत्त पर स्थित निम्न वायुदाब की पेटियाँ भी इसी क्रम में लगभग 5° ध्रुवों की ओर खिसक जाती हैं।
- इन वायुदाब की पेटियों के खिसकने के परिणामस्वरूप हवाओं की पेटियों में भी परिवर्तन हो जाता है, और-
- उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म में जब सूर्य कर्क रेखा पर सीधा चमकता है, तब भूमध्यरेखीय शान्त वायु की पेटी 0° से 10° उत्तरी अक्षांश तथा कर्क रेखा पर स्थित शान्त वायु की पेटी 30° से 40° उत्तरी अक्षांश पर स्थित रहती है, अतः ग्रीष्म ऋतु में उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ 30° से 10° उत्तर अक्षांश तक चलती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ 20° दक्षिण अक्षांश से विषुवत् रेखा तक चलती हैं।
- पछुआ हवाएँ उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु में कुछ भागों में 40° से 65° उत्तरी अक्षांश के बीच एवं कुछ भागों में 35° से 60° तक चलती हैं। यह परिवर्तन स्थल तथा जल की स्थिति के कारण होता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में पछुआ हवाएँ 35° दक्षिणी अक्षांश से चलने लगती हैं।
- 22 दिसम्बर को जब सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है, वायुभार पेटियां 10° दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप वायु पेटियां भी खिसक जाती हैं। दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ 30° दक्षिण से विषुवत् रेखा तक तथा पछुआ हवाएँ 40° दक्षिण से चलने लगती हैं, क्योंकि दक्षिण गोलार्द्ध में इन अक्षांशों में समुद्रों का विस्तार अधिक होने से पछुआ हवाएँ निर्वाध गति से तेज आवाज करती चलती हैं, अतः यहाँ इन्हें गरजने वाला चालीसा एवं दहाड़ता पचासा कहा जाता है।
- उत्तर और दक्षिण दोनों गोलार्द्धों के 30° से 40° अक्षांशों के बीच के प्रदेश ग्रीष्मकाल में व्यापारिक हवाओं के प्रभाव में रहते हैं। शीतकाल में यहीं प्रदेश पछुआ हवाओं के क्षेत्र में आ जाते हैं। अत: यहां शीतकाल में अच्छी वर्षा हो जाती है।
समदाब रेखाएँ Isobars
ये वे कल्पित रेखाएँ हैं जो पृथ्वी के धरातल पर समान वायुदाब वाले स्थानों को जोड़ती हैं। मानचित्रों में वायुदाब इन्हीं रेखाओं द्वारा प्रकट किया जाता है। मानचित्रों में इन रेखाओं को बनाने के पूर्व वायुदाब को सागर तल के वायुदाब में बदल लेते हैं, क्योंकि ऊँचाई के अनुसार वायुदाब कम हो जाता है, अतः यदि किसी स्थान का वायुदाब 650 मिलीबार है और यह सागरतल से 2,750 मीटर ऊँचा है तो उस स्थान का वास्तविक वायुदाब 330 मिलीबार कम है,( ऊपर जाने पर प्रति 100 मीटर पर 12 मिलीबार वायुदाब घटता है) अतः सागरतल पर उसका वायुदाब 980 मिलीबार (650 + 330) होगा।
जनवरी और जुलाई की समदाब रेखाएँ january and July Isobars
जनवरी की समदाब रेखाओं को देखने से विदित होता है कि इस समय सबसे अधिक वायुदाब मध्य एशिया में मिलता है। यह 1,032 मिलीबार से भी अधिक हो जाता है। उत्तरी गोलार्द्ध में उच्च वायुदाब के अन्य क्षेत्र इस समय 30° उत्तरी अक्षांश के निकट कैलीफोर्निया के पश्चिम में प्रशान्त महासागर तथा अटलाण्टिक महासागर में कनारी द्वीप समूह के निकट पाए जाते हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में इस ऋतु में उच्च दाब के क्षेत्र चिली के पश्चिमी तट के समीप प्रशान्त महासागर, अफ्रीका के पश्चिमी तट के पास अटलाण्टिक महासागर तथा दक्षिणी हिन्द महासागर में पाए जाते हैं। इस समय कम दाब के क्षेत्र उत्तरी गोलार्द्ध में, उत्तरी अटलाण्टिक महासागर में आइसलैण्ड और उत्तरी प्रशान्त महासागर में एल्यूशियन द्वीप में पाए जाते हैं। यहां का वायुदाब 1,008 और 1,004 मिलीबार के लगभग रहता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में कम वायुदाब के क्षेत्र विषुवत् रेखा के समीप दक्षिणी अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और पूर्वी द्वीप समूह के भीतरी भागों में पाए जाते हैं।
जुलाई की समदाब रेखाओं को देखने से यह पता चलता है इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में वायुदाब बहुत बढ़ा हुआ है। 30° दक्षिणी अक्षांश के आस-पास उच्च दाब की मेखला विना किसी रुकावट के विस्तृत भाग में फैली हुई पायी जाती है। उत्तरी गोलार्द्ध में इस ऋतु में उच्च दाब के क्षेत्र उत्तरी अटलांटिक महासागर में एजोर्स द्वीप और उत्तरी अमरीका के पश्चिमी तट के समीप उत्तरी प्रशान्त महासागर में स्थित हैं। इसके विपरीत, न्यून वायुदाब यूरेशिया के मध्य भाग, आइसलैण्ड, कनाडा के उत्तर में वैफिन खाड़ी, उत्तरीपश्चिमी भारत, पश्चिमी पाकिस्तान, आदि क्षेत्रों में फैले हैं।
पवन-संचार Blowing of Wind
पृथ्वी के धरातल पर वायुदाब की भिन्नता के कारण ही वायु में गति उत्पन्न होती है। इस गतिशील वायु को पवन (wind) कहते हैं। फिन्च एवं ट्रिवार्था के अनुसार, “पवन प्रकृति का वह प्रयत्न है जिसके द्वारा वायुदाब की असमानता दूर होती है”। It (wind) represents natures attempt correct pressure in equalities. पवनें अधिक दाब के क्षेत्र से कम दाब के क्षेत्रों की ओर बहती हैं। वायुदाब की भिन्नता के आधार पर पवनों की है क्युबाव में स्थिता जितनी अधिक होती है, पवते उतनी ही तीव्र गति से वहती हैं। पवन का नाम जिस दिशा से वह वहती है, उस दिशा के अनुसार होता है। यदि पवन उत्तर की ओर से दक्षिण की ओर बह रही है तो उसे उत्तरी पवन Northern Wind कहेंगे।
धरातल की पवनों का सीधा सम्बन्ध वायुदाब के अन्तर से होता है। वायुदाब के अन्तर को वायुदाब का ढाल या प्रवणता कहा जाता है। धरातल पर चलने वाली पवनों की प्रवाह-दिशा और गति वायुमण्डल के ढाल से ही ज्ञात होती है। वायुदाब और पवनों के सम्बन्ध में दो बहुत ही महत्वपूर्ण नियम हैं- पहला, पवन-प्रवाह सदैव उच्च दाब से निम्न दाब की ओर होता है। दूसरा, पवन की प्रवाह-गति वायुदाब के अन्तर की न्यूनाधिकता (दाब की प्रवणता) पर निर्भर करती है। जब वायुदाब का ढाल तीव्र होता है तो पवनें तेज गति से चलेंगी और जब वायुदाब का ढाल कम होगा तो पवनें धीमी चलेंगी। यदि समदाब रेखाएँ पास-पास हो तो ढाल तीव्र होगा और पवनें तीव्र गति से चलेंगी, किन्तु यदि समदाब रेखाएँ काफी दूर-दूर हुई तो वायुदाब का दाल बहुत मन्द होगा, जिससे पवनों की गति धीमी होगी।
धरातल पर बहने वाली स्थायी पवनों की दिशा पर पृथ्वी के परिभ्रमण का गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि पृथ्वी स्थिर होती, तो पवनें उतरी गोलार्द्ध में ठीक उत्तर से दक्षिण की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण से उत्तर की ओर बहतीं, परन्तु पृथ्वी अपने अक्ष पर झुकी रहकर अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर परिभ्रमण करती है। उसकी परिभ्रमण गति पृथ्वी के सभी भागों में समान नहीं है। ध्रुवीय भागों की अपेक्षा भूमध्य सागरीय भागों की परिभ्रमण गति बहुत तीव्र है। पृथ्वी के साथ उससे सम्बद्ध सभी वस्तुएँ भी उसी गति से चलती हैं। अत: जब पवनें पृथ्वी की अधिक गति वाले भाग से कम गति वाले भाग की ओर आती हैं तो वे आगे निकल जाती हैं, किन्तु जब वे कम गति वाले भाग से अधिक गति वाले भाग की ओर आती हैं तो पीछे छूट जाती हैं। फलस्वरूप पवनों की दिशा में परिवर्तन जाता है। इस बात का सर्वप्रथम ज्ञान 1855 ई. में अमरीकी वैज्ञानिक फेरल (Ferrel) को हुआ। उसने पृथ्वी के परिभ्रमण एवं वायु की दिशा सम्बन्धी एक नियम बनाया जिसको फैरल का नियम (Ferrel’s Law) कहते हैं।
पवनें जब जल से थल या थल से जल को, उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिणी गोलार्द्ध या द. गोलार्द्ध से उत्तरी गोलार्द्ध की ओर बहती हैं तो उनके मार्ग में परिवर्तन हो जाता है। इसे मुख्य रूप से फैरल तथा बैलेट नामक विद्वानों ने नियमों के अन्तर्गत स्पष्ट किया है-
फैरल का नियम Farrell’s law
इस नियम के अनुसार, “धरातल पर रूप से चलने वाली सभी हवाएं पृथ्वी की गति के कारण उत्तरी गोलार्द्ध में दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं।” यह नियम बड़े क्षेत्रों पर चलने वाली स्थायी पवनों, छोटे चक्रवातों और प्रतिचक्रवातों पर लागू होता है। इस नियम का प्रभाव महासागरीय धाराओं, ज्वारीय गतियों, राकेटों, आदि पर भी देखा जाता है।
बाइस बैलेट का नियम Buys Ballot’s law
नीदरलैण्ड निवासी बाइस बैलेट नामक एक अन्य वैज्ञानिक ने सन् 1857 में वायुदाब सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। यह सिद्धान्त उसने सदा दिशा बदलने वाली पवनों के विषय में प्रमाणित किया था। उसके अनुसार, यदि हम चलती हुई वायु को पीठ देकर खड़े हों तो उत्तरी गोलार्द्ध में हमारे दायीं ओर निम्न दाब और बायीं ओर उच्च दाब होगा”।
ग्रह सम्बन्धी या आदर्श पवनों का नियम- यदि पृथ्वी पर जल ही हो अथवा सारा स्थल ही हो और उसमें कहीं ऊँचाई-नीचाई न हो तो सूर्याभिताप और पृथ्वी की परिभ्रमण गति के कारण भूमध्य रेखा और उपध्रुवीय प्रदेशों पर निम्न वायुदाब और कर्क तथा मकर रेखाओं तथा ध्रुवों पर उच्च वायुदाब होगा। वायु सदा उच्च दाब से निम्न दाब की ओर बहेगी। वायुप्रवाह के इस साधारण चक्र को ग्रह सम्बन्धी वायु नियम कहा जाता है। इनमें सन्मार्गी, पछुआ और ध्रुवीय पवनें सम्मिलित की जाती हैं। ये पवनें धरातल पर वायुदाब की स्थायी मेखलाओं के बीच वर्ष-पर्यन्त नियत दिशा में चला करती हैं, अत: इन्हें स्थायी या ग्रहीय पवनें कहा जाता है।
पवनों के प्रकार Types of Winds
ग्रहीय या सनातनी (स्थायी) पवनें Planetary or Permanent Winds
सन्मार्गी या व्यापारिक पवनें Trade Winds
यह अयनवृतीय उच्चदाब मेखलाओं से विषुवत रेखीय कम-दाब वाली मेखलाओं की ओर चलती हैं। इनका विस्तार विषुवत् रेखा के दोनों ओर 5°-10° अक्षांशों से 30°-35° अक्षांशों के बीच है। फैरल के नियमानुसार उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्वी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्वी होती है। ये पवनें सामान्यतः वर्ष भर नियमित रूप से एक ही दिशा में बहती हैं इसलिए इनको सन्मार्गी पवनें कहा जाता है। प्राचीन समय में इन हवाओं के द्वारा व्यापार हुआ करता था, अतः इन्हें व्यापारिक पवनें कहा जाता है। दोनों गोलाद्धों में पूर्वी महासागरों से ये पवनें वर्ष भर अबाध रूप से निश्चित दिशा और गति से बहती रहती हैं। इन पवनों से महाद्वीप के पूर्वी किनारों पर प्रायः वर्ष भर पर्याप्त वर्षा होती है, किन्तु पश्चिमी किनारे प्रायः सूखे रहते हैं। इसी कारण यहां पर पवनें भूमि से सागर की ओर बहती हैं। यही कारण है कि महाद्वीपों के पश्चिमी तट पर 15° से 30° अक्षांशों के मध्य मरुस्थल पाए जाते हैं। सन्मार्गी पवनों के प्रदेशों में प्रायः बहुत ही परिवर्तनशील मौसम रहता है।
पछुआ पवनें Westerlies
अयनवृतीय उच्च वायुदाब की मेखला से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब की मेखला की ओर बहने वाल को पछुआ पवनें कहा जाता है। उत्तरी तथा दक्षिणी गोलाद्धों में ये पवनें 35°-40° अक्षांशों से 60°-66½° अक्षांशों के बीच बहती रहती हैं। पृथ्वी की परिभ्रमण गति के कारण उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी प्रवाह दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर होती हैं। ये प्रायः शीतोष्ण कटिबन्ध और शीत शीतोष्ण में चला करती हैं। न तो इनकी प्रवाह गति एक-सी रहती है और न ही यहाँ सम्बन्धित मौसम शान्त रह पाता है, अर्थात् मौसम की परिवर्तनशीलता ही इनकी विशेषता है। इन पवनों के प्रदेश में शीतोष्ण चक्रवात और प्रतिचक्रवात चलते रहने के कारण बड़ी अनियमित अवस्था उत्पन्न हो जाती है। उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा दक्षिणी गोलार्द्ध में पवनों का प्रवाह अधिक स्थायी ओर निश्चित होता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में 40°-60° अक्षांशों के बीच स्थलखण्ड पवनों के प्रवाह मार्ग में कोई रूकावट पैदा नहीं होती है। इन अक्षांशों के बीच फैले विशाल सागरों पर पवनें ग्रीष्म ऋतु और शीत ऋतु में समान रूप से प्रचण्ड गति से बहती रहती हैं। यहाँ के प्रचण्ड वेग के कारण ही यह गरजने वाली चालीसा (Roaring Forties) या वीर पछुवा पवनें (Brave West Winds) कहलाती हैं।
पछुआ पवनें गरम अक्षांशों से एवं गर्म धाराओं के सागरों से ठण्डे अक्षांश की ओर बहती हैं, अतः मार्ग में अपने साथ काफी नमी ले लेती हैं और शीतलता पाकर पश्चिमी तट के आसपास पर्याप्त वर्षा कर देती हैं। इन अक्षांशों 35° से 60° वाले महाद्वीपों के पश्चिमी तटों पर वर्ष भर वर्षा होती है और पूर्वी तट प्रायः शुष्क रहते हैं।
वायुदाब पेटियों के खिसकने से इन पवनों का प्रभाव 30° अक्षांश तक सर्दियों में रहता है, अतः वहाँ सर्दियों में वर्षा होने से भूमध्यसागरीय जलवायु पायी जाती है।
ध्रुवीय पवनें Polar Winds
वे ठण्डे ध्रुव प्रदेशों से ध्रुव-वृतीय कम दाब की मेखलाओं की ओर बहती हैं। इनका क्षेत्र 60° से 70° अक्षांशों तक विस्तृत है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये उत्तर-पूर्व की दिशा से चलती हैं और दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी दिशा दक्षिण-पूर्व होती है। ये पवनें अत्यन्त ठण्डी होती हैं, इसलिए इनके सम्पर्क में आने वाले क्षेत्रों का तापमान बहुत नीचे गिर जाता है। पछुआ से मिलकर ये चक्रवातों और प्रतिचक्रवातों को जन्म देती हैं।
अस्थायी अथवा सामयिक पवनें Temporary or Seasonal Winds
स्थायी रूप से तापमान एवं वायुदाब की विशेष दशाओं के कारण जब पवनें किसी निश्चित अवधि में बहती हैं तो उन्हें अस्थायी (Temporary) या सामयिक (Seasonal) पवनें कहा जाता है। ये पवनें तीन प्रकार की होती हैं-
मानसूनी पवनें Mansoon winds
ऐसी पवनें जो मौसम के अनुसार अपनी प्रवाह-दिशा बदल देती हैं, मानसून पवनें कहलाती हैं। मानसून अरबी शब्द मौसम से निकला है। इनका सर्वप्रथम प्रयोग अरब सागर पर चलने वाली पवनों के लिए किया गया था, जो 6 महीने उत्तर-पूर्व से और 6 महीने दक्षिण-पश्चिम से चला करती थीं। इन पवनों के चलने का कारण धरातल पर जल और स्थल का पाया जाना है और जल और स्थल असमान रूप से गरम और ठण्डे होते हैं। तापमान में मौसम के अनुसार भिन्नता बनी रहने से वायुदाब में भी अन्तर आ जाता है, जिससे पवनों की प्रवाहदिशा पलट जाती है, मानसून पवनें अयन रेखाओं के भीतर सागर की ओर से स्थल की ओर बहती हैं, परन्तु पूर्वी एशिया में ये पवनें अयन रेखाओं के बाहर 60 उत्तरी अक्षांश तक भी प्रभावी रहती हैं। इन पवनों को मुख्य रूप से दो प्रकारों में बाँटा जा सकता है-
- ग्रीष्म ऋतु का मानसून summer Monsoon– सूर्य 21 जून को कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है। इस कारण मध्य एशिया एवं राजस्थान के अन्तःस्थित भागों में प्रगाढ़ निम्न दाब क्षेत्रों का विकास होता है। इसके विपरीत अरब सागर, हिन्द महासागर तथा प्रशान्त महासागर में अपेक्षाकृत उच्च दाब रहता है, जिससे इन महासागरों से दक्षिण-पश्चिमी तथा दक्षिण-पूर्वी पवनें स्थल भागों की ओर बहती हैं। महासागरों से आने के कारण ये पवनें जल-वाष्प से पूर्ण होती हैं तथा पर्वतों के पवनामुखी (winds ward slopes ) ढालों से टकराकर भारी वर्षा करती हैं। चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया, भारत, आदि देशों की लगभग तीन-चौथाई से अधिक वर्षा इन्हीं ग्रीष्मकालीन मानसून से प्राप्त होती है। मध्य एशिया का निम्न दाब क्षेत्र भी प्रगाढ़ होता है, इसी कारण प्रशान्त महासागर से उठने वाली पूर्वी पवनें वेग से बहती हैं तथा पूर्वी चीन के तटवर्ती पर्वतों से टकराकर भारी वर्षा करती हैं। कभी-कभी यहां टाइफून (Typhoon) नामक तूफानों से प्रबल विनाश भी हो जाता है। ये तूफान मानसून के प्रारम्भ से पूर्व (अप्रैल-मई) तथा मानसून की समाप्ति के बाद (अक्टूबर-नवम्बर) में आते हैं। पूर्वी ब्राजील, दक्षिण-पूर्वी संयुक्त राज्य, पूर्वी अफ्रीका, उत्तरी आस्ट्रेलिया, आदि अन्य क्षेत्र भी इसके प्रभाव में आते हैं।
- शीत ऋतु का मानसून Winter Monsoon– शीत ऋतु में सूर्य 22 दिसम्बर को मकर रेखा पर लम्ववत् चमकता है। उत्तरी गोलार्द्ध में इस समय कम ताप के कारण मध्य एशिया में उच्च दाब क्षेत्र स्थापित हो जाता है। इसकी अपेक्षा अरब सागर, हिन्द महासागर व प्रशान्त महासागर में तापमान के अपेक्षाकृत ऊँचे रहने के कारण वहां निम्न दाब क्षेत्र रहता है। फलस्वरूप स्थल के उच्च दाब क्षेत्रों से महासागरों के निम्न दाब क्षेत्रों की ओर (उत्तरी गोलार्द्ध में) पवनें बहने लगती हैं। स्थल भागों से आने के कारण ये पवनें अत्यधिक ठण्डी तथा शुष्क होती हैं। मध्य एशिया का उच्च दाब क्षेत्र अधिक प्रगाढ़ होने के कारण वहाँ से चलने वाली पवनें अधिक शक्तिशाली तथा ठण्डी होती हैं। उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तरी चीन में विशाल भू-भाग पर फैल जाती हैं और प्रचण्ड सर्दी पड़ती है। इसके दूसरी ओर दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तरी आस्ट्रेलिया, दक्षिण-पूर्वी अफ्रीका एवं मध्य पूर्वी ब्राजील के तटीय भागों में इस मौसम में पर्याप्त वर्षा हो जाती है।
सामयिक पवनें Periodic Winds
- समुदी या सागरीय समीर Sea Breeze– दिन के समय सूर्य की गर्मी से स्थल भाग जल भाग की अपेक्षा अधिक गरम हो जाता है। अत: स्थल भाग पर अधिक ताप से उत्पन्न निम्न वायुदाब तथा जल भाग पर कम तापमान होने से अधिक वायुदाब स्थापित हो जाता है। परिणामस्वरूप दिन को सागर से स्थल की ओर पवनें बहने लगती हैं। ये पवने दिन के दस बजे से सूर्यास्त तक बहती हैं और कभी-कभी 30-40 किमीं तक स्थल भाग में भीतर प्रवेश कर जाती हैं। इस पवनों से स्थल भाग का तापमान गिर जाता है और कुछ वर्षा भी होती है। इस प्रकार मौसम की दैनिक अवस्थाओं पर इनका बड़ा प्रभाव पड़ता है। सागर से बहने के कारण इनको सागरीय समुदी) पवन कहा जाता है।
- स्थलीय समीर Land Breeze– रात्रि के समय स्थल भाग में तापमान की कमी और समुद्री भाग पर तापक्रम की अधिकता (जल स्थल की अपेक्षा धीरे-धीरे ठण्डा होता है) के कारण स्थलीय भाग में अधिक वायुदाब तथा समुद्री भाग पर न्यून वायु भार रहता है, इस कारण प्रायः समुद्री तटों पर सूर्यास्त से प्रातः 8 बजे तक स्थल की ओर से हवाएँ समुद्र की ओर बहती हैं। इनको स्थलीय पवन कहते हैं।
- पर्वतीय घाटी तथा पवनें Mountain and valley Breezes- ये भी तापमान के दैनिक परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती हैं। रात्रि के समय पर्वत शिखर से जो पवने घाटी के तल की ओर चलती हैं, उन्हें पर्वतीय पवनें कहा जाता है। दिन के समय जो पवने घाटी के तल से पर्वत शिखर की ओर बहती हैं, उन्हें घाटी पवनें कहा जाता है। सूर्योदय के साथ सूर्य की किरणे सर्वप्रथम पर्वत शिखरों का स्पर्श करती हैं। इसी कारण घाटी की अपेक्षा वे शीघ्र गर्म हो जाते हैं तथा संवाहन के कारण उनकी वायु ऊपर उठ जाती है। परिणामस्वरूप घाटी के तल से अपेक्षाकृत ठण्डी पवनें शिखर की ओर आने लगती हैं। इन्हें घाटी समीर कहते हैं जबकि रात्रि के समय तीव्र विकिरण के कारण पर्वतशिखर शीघ्र ठण्डा हो जाता है तथा घाटी अपेक्षाकृत गरम रहती है। फलतः पर्वतशिखर की वायु सघन तथा भारी होने के कारण नीचे उतरती है, जबकि घाटी की वायु अपेक्षाकृत हल्की होने के कारण ऊपर उठ जाती है। इन्हें पर्वतीय समीर कहते हैं।
स्थानीय पवनें Local Winds
- सिमूम Simoom- शुष्क तथा धूलयुक्त हवाएँ सहारा मरुस्थलू में बहती हैं। काफी तेजी से बहने के कारण अपने साथ रेत उड़ाकर ले जाती हैं, इस कारण मानव को सांस लेने में कठिनाई होती है। सांस के साथ बजरी, बालू, रेत नाक और मुँह में घुस जाती है। ये हवाएँ अपने प्रभाव क्षेत्र से बालू के टीलों को स्थानान्तरित करती हैं।
- लू Loo- ग्रीष्म ऋतु में उष्ण प्रदेशों में बहने वाली शुष्क हवाओं को लू कहते हैं। भारत में लू उन अति तप्त हवाओं को कहते हैं, जिनका कि तापक्रम 38° सेण्टीग्रेड से 49° सेण्टीग्रेड तक होता है। इस प्रकार की हवाएँ उत्तरी भारत में मई के अन्तिम सप्ताह से जून के अन्तिम सप्ताह तक वहती हैं।
- मिस्ट्रल Mistral- इटली, फ्रांस और स्पेन में ध्रुवीय क्षेत्रों में आने वाली ठण्डी हवाएँ होती है तथा इनका प्रभाव भूमध्य सागर के तट पर आकर समाप्त हो जाता है।
- खमसिन Khamsin– अफ्रीका में मिस्त्र की ओर अप्रैल से जून के महीनों में बहने वाली उष्ण और शुष्क हवा है।
- सिरोको Sirroco- सहारा मरुस्थल से भूमध्यसागर की ओर चलने वाली उशन शुष्क हवाएं हैं, परन्तु भूमध्य सागर पर पहुंचने पुर नमी प्राप्त कर लेती हैं और सिसली, इटली, फ्रांसू और स्पेन में प्रवेश कर धुल युक्त वर्षा करती हैं।
- बोरा Bora– बोरा भी मिस्ट्रल की भांति ठण्डी और शुष्क हवाएँ हैं। ये आद्र हवाएँ एड्रियाटिक सागर के पूर्वी किनारे से होती हुई उत्तर-पश्चिम में इटली के पूर्वी तथा उत्तरी क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। वे हवाएँ बहुत तेज गति (128 से 200 किलोमीटर प्रति घण्टा) से वहने के कारण अधिक हानि पहुंचाती हैं।
- हरमट्टान Harmattan– अफ्रीका के सहारा प्रदेश में उत्तर-पूर्व एवं पूर्व से वहने वाली उष्ण, शुष्क तथा धूल से भरी होती हैं। इन हवाओं के कारण सारा वातावरण धूल युक्त हो जाता है। आस्ट्रेलिया में इस प्रकार की हवाओं को ब्रिकफील्डर कहते हैं।
- चिनूक Chinook- रॉकी पर्वतीय प्रदेश में जब कोई आर्द्र वस्तु या चक्रवात प्रवेश करता है तो उस प्रदेश की शुष्क हवा को अपनी ओर खींचती है और वर्षा करती है। वर्षा के उपरान्त यही हवाएँ पर्वतों के पूर्वी भागों में उतरती हैं तो यह शुष्क और गरम होती हैं, यही कारण है कि संयुक्त राज्य अमरीका और कनाडा के रॉकी पर्वतों के पूर्वी ढाल वृष्टिछाया प्रदेश हैं।
- फॅान Fohn- हवाओं के समान ही यूरोप के आसपास प्रदेश में ये हवाएँ दक्षिणी भाग में प्रवेश कर उत्तर की ओर उतरती हैं तो तापक्रम बढ़ जाता है। ये गर्म तथा शुष्क पवनें होती हैं।
ऋतुवार पवन प्रवाह Seasonal Wind Flow
जनवरी की पवनें Winds of Jaunary– उत्तरी गोलार्द्ध में जनवरी अत्यन्त शीतल तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अत्यन्त गरम महीना होता है। अत: जनवरी में दक्षिणी-पूर्वी सन्मार्गी पवनों का विस्तार सीमित हो। जाता है, क्योंकि ये विषुवत् रेखा को पार नहीं कर पाती, अतः दक्षिणी-पूर्वी द्वीप समूह में मानसूनी पवनों का प्रभाव अधिक रहता है। पछुआ पवनों की मेखलाएँ दक्षिण की ओर खिसक कर भूमध्यसागर के क्षेत्र तक अपना प्रभाव डालती हैं, जिससे यहां शरद ऋतु में वर्षा होती है। ध्रुवों से आने वाली पवनें शरद ऋतु में अधिक ठण्डी हो जाती हैं, इससे यूरेशिया महाद्वीप एवं उत्तरी अमेरिका के तापमान तेजी से गिरते हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थल के अभाव से पछुआ अथवा सन्मार्गी पवनों का मार्ग बिना अवरोध के होता है। ये पवनें तीव्रगामी होती हैं।
जुलाई की पवनें winds July– ऋतु के बदलने पर जुलाई में पवनों में परिवर्तन जाता है। तब वायुदाब की सारी मेखलाएँ उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। ध्रुवीय पवनों का क्षेत्र संकुचित हो जाता है और गर्मियों में भूमध्यसागरीय प्रदेशों में पछुआ पवनें वर्षा नहीं करती। भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में उत्तर-पूर्वी पवनों का प्रभाव स्पष्ट होने लगता है। ये पवनें स्थलीय होने के कारण वर्षा नहीं करती। दक्षिण-पूर्वी सन्मार्गी पवनें विषुवत् रेखा को पार करके दक्षिण-पश्चिमी पवन के रूप में मानसूनी प्रदेशों में भारी वर्षा करती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में अन्य पवनों के मार्ग में कोई अन्तर उत्पन्न नहीं हो पाता, क्योंकि इनका अधिकांश मार्ग बिना किसी स्थानीय अवरोध के सागर के ऊपर से होता है।
चक्रवात एवं प्रतिचक्रवात Cyclones And Anticyclones
पृथ्वी के धरातल पर नियमित रूप से कुछ पवनें चलती हैं, किन्तु इन पवनों के अतिरिक्त धरातल पर नियमित रूप से कुछ पवनें चलती हुई देखी जाती हैं, जिनका समय और स्थान निश्चित नहीं है। ये पवनें एक प्रकार की वायु की भंवरें हैं जो अस्थिर होती हैं। ये प्रायः दो प्रकार की होती हैं। एक में पवनें वायु के निम्न दाब के कारण भंवर के केन्द्र की ओर वेगपूर्वक दौड़ती हैं और दूसरी में वायु के अधिक दाब के कारण पवनें भंवर के केन्द्र से बाहर की ओर जाती हैं। वायु की यही भंवर क्रमशः चक्रवात और प्रतिचक्रवात कहलाती हैं।
चक्रवात Cyclones
सामान्यतया चक्रवात निम्न (Low) वायुदाब का केन्द्र होता है। केन्द्र से बाहर की ओर सभी ओर वायुदाब बढ़ता जाता है। यहाँ पवनें बाहर से केन्द्र की ओर बहती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में ये घड़ी की सुइयों के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के अनुरूप चलती हैं। मध्य अक्षांशों में 35° से 65° उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों के बीच आने वाले चक्रवात शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात तथा उष्ण कटिबन्ध में महाद्वीपों के पूर्वी किनारों पर 15° – 30° उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों के मध्य आने वाले चक्रवात उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात कहलाते हैं।
शीतोष्ण चक्रवात Temperate Cyclones
साधारणत: शीतोष्ण चक्रवात अंडाकार होते हैं। इसमें निम्न दाब ठीक केन्द्र के समीप रहता है। केन्द्र से बाहर की ओर सब दिशाओं में वायुदाब क्रमशः बढ़ता जाता है। चक्रवात में इस कारण समदाब रेखाएँ भी लगभग अण्डाकार होती हैं। कई बार यह V के समकक्ष आकृति के भी होते हैं।
विस्तार Extent– चक्रवात सदा भिन्न-भिन्न विस्तार के होते हैं। मध्य अक्षांशों उतरी गोलार्द्ध में ये शीतोष्ण चक्रवात कहलाते हैं एवं इनका विस्तार 320 से 480 किलोमीटर और कभी-कभी 3,200 वर्ग किलोमीटर तक भी देखा जाता है। इनका क्षेत्रफल लाखों वर्ग किलोमीटर में भी हो सकता है। ये चक्रवात सामान्यतया 35° से 65° उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों के मध्य आते हैं।
दिशा Direction– चक्रवात शायद ही कभी स्थिर रहते हैं। ये प्राय: प्रचलित पवनों की दिशा में आगे बढ़ते रहते हैं। इस प्रकार पछुआ पवनों के प्रदेश में ये चक्रवात प्रायः पूर्व की ओर चलते हैं। व्यापारिक पवनों के क्षेत्र में इनकी दिशा प्रायः पूर्व से में पवन दिशा पश्चिम की ओर रहती है, परन्तु कभी-कभी उष्ण प्रदेश वाला चक्रवात पछुआ पवनों के प्रदेश में पहुंच जाता है तो उसकी दिशा पश्चिम से पूर्व की ओर बदल जाती है।
गति Speed- इनकी गति भी सदैव एक-सी नहीं रहती है। शीतोष्ण प्रदेश में इनकी गति 30 और 60 किलोमीटर प्रति घण्टा के बीच रहती है। उष्ण प्रदेश के चक्रवात इससे भी धीमे चलते हैं। उनकी गति 3 से लेकर 16 किलोमीटर प्रति घण्टे से अधिक नहीं होती है।
चक्रवात के भाग Parts of Cyclone
चक्रवात के सामने वाले भाग को अग्रभाग या वाताग्र (Front) और पीछे वाले भाग को पृष्ठभाग (Rear) कहा जाता है। चक्रवात में निम्न दाव ठीक मध्य में नहीं होता, वरन् कुछ पीछे हटा हुआ होता है। साधारणतः यही विन्दु चक्रवात का मध्य भाग कहलाता है।
जब शीतोष्ण चक्रवात किसी स्थान से होकर निकलता है तो पहले उस स्थान का वायुदाब क्रमशः कम होने लगता है। वायुदाब में कमी उस समय तक होती रहती है जब तक कि चक्रवात का केन्द्र उस स्थान तक नहीं पहुंच जाता। इसके पश्चात् पुनः वायुदाब बढ़ने लगता है।
पवनें Winds
ऐसे चक्रवात में निम्न दाब केन्द्र के समीप स्थित रहता है। इस कारण सब दिशाओं से पवनें भीतर केन्द्र की ओर बहती हैं, किन्तु फैरल के नियमानुसार ये पवनें सीधी केन्द्र तक नहीं पहुँचती। उत्तरी गोलार्द्ध में ये पवनें दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं। अतः ये केन्द्र तक पहुँचने की अपेक्षा उसकी परिक्रमा करने लगती हैं। चक्रवात के अग्रभाग में पवनें दक्षिण की ओर से बहती हैं अतः वे गर्म और आर्द्र होती हैं, किन्तु पृष्ठ भाग में ये उत्तर से चलती हैं, इस कारण शुष्क और ठण्डी होती हैं। चक्रवात में ऊपर उठती हुई हवाएँ मुख्यतः अग्रभाग की ओर बहती हैं। अतः अग्रभाग पृष्ठभाग की अपेक्षा हवाओं से अधिक प्रभावित रहता है। इसी कारण अग्रभाग में चक्रवाती वर्षा अधिक होती है।
तापमान Temperature
चक्रवात में तापमान परिवर्तन दिन और वर्ष के समय के अनुसार होता है। शीतकाल में अग्रभाग गरम रहता है और पृष्ठ भाग अधिक ठण्डा। ग्रीष्म ऋतु में यह परिवर्तन पिछले दिनों के निर्भर करता है। साधारणतया चक्रवात का अग्रभाग सभी ऋतुओं में उष्णाद्र रहता है। पृष्ठ भाग में आकाश स्वच्छ रहता है।
मेघ और वर्षा Clouds and Rainfall
चक्रवात के आगमन से पूर्व आकाश के श्वेत मेघाँ की लम्बी, किन्तु पतली टुकड़ी दिखायी पड़ती है। मेघों की इन लम्बी टुकड़ियों से ही चक्रवात के आगमन सम्वन्धी सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। मेघों की टुकड़ियाँ प्रायः एक-दूसरे के समान्तर होती हैं, परन्तु दृष्टि भेद के कारण ये सब क्षितिज से ऊपर उठती हुई मालूम पड़ती हैं। चक्रवात ज्यों-ज्यों समीप आता है, मेध फैलते और घने होते जाते हैं। अन्तत: कुछ ही समय में ये सम्पूर्ण आकाश में छा जाते हैं और धीमी-धीमी बौछार करने लगते हैं। शनैः शनैः वर्षा की मात्रा बढ़ जाती है और वायु तीव्र हो उठती है। चक्रवात के अग्रभाग में घनघोर वर्षा होती है और प्रचण्ड वायु के झोंके आते हैं। पृष्ठ भाग में भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न वायु-दशा पायी जाती है। मेघ पीछे हटते समय कभी कभी जोर से गर्जना करते हैं और विद्युत चमकती है। शीतल वायु के आने से तापमान एकदम गिर जाता है जिससे वर्षा हो जाती है। ये सब दशाएँ चक्रवात के अन्त की सूचक होती हैं। चक्रवात के निकल जाने पर मेघ शीघ्र ही हटने लगते और आकाश फ्री से स्वच्छ हो जाता है।
शीतोष्ण चक्रवातों की उत्पत्ति Origin of Temperate Cyclones
चक्रवातों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न वैज्ञानिकों ने भिन्न मत प्रस्तुत किए हैं, पर नार्वे के जर्कनीज (Bjerknes) का ही मत सर्वमान्य है। जर्कनीज ने प्रथम महायुद्ध के समय ध्रुवीय वाताग्र सिद्धान्त (Polar Front Theory ) का प्रतिपादन किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, शीतोष्ण चक्रवात की उत्पत्ति दो भिन्न ताप बाली राशियों (ध्रुव प्रदेश की शीतल वायु राशि और उष्ण प्रदेश की वायु राशि) की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है। शीतोष्ण कटिबन्ध में ध्रुवों से आने वाली शीतल वायु और उष्ण प्रदेशों से आने वाली उष्ण वायु दोनों आपस में मिलती हैं। कभी-कभी उष्ण वायु का कुछ भाग इनकी सीमा पर पृथक्करण (Line of Discontinuity) को पार कर शीतल वायु में घुसने की चेष्टा करता है। इसी से वाताग्रों (Fronts) एवं चक्रवातों की उत्पति होती है। वीयर केनस ने इसमें सुधार की नई संकल्पना तरंग सिद्धान्त (Wave Theory) प्रस्तुत की।
शीतोष्ण चक्रवातों के प्रदेश Regions of Temperate Cyclones
विश्व में 30° से 40° अक्षांशों के मध्य महाद्वीपों के पश्चिमी भाग में चक्रवात केवल शीत ऋतु में ही चला करते हैं परन्तु 40° से 60° अक्षांशों के बीच ये चक्रवात साल भर पछुआ पवनों की पेटी में चलते हैं। पछुआ पवनें पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं अतः ये चक्रवात भी पश्चिम से पूर्व की और चलते हैं। पश्चिमी यूरोप में वसन्त ऋतु में इनकी शक्ति सबसे कम होती है ज्यों-ज्यों ये चक्रवात स्थल की ओर बढ़ते हैं उनकी शक्ति कम होती जाती है और वर्षा भी कम होती जाती है। यहाँ तक कि महाद्वीप के पूरव में इन्हीं अक्षांशों में चक्रवातों से वर्षा नहीं के बराबर होती है, किन्तु उत्तरी अमरीका में ऐसी स्थिति नहीं रहती।
इन चक्रवातों से रॉकी के पश्चिमी भाग में वर्षा होती है पर जब ये रॉकी पर्वत को पार करके पूर्वी तट के निकट पहुँचते हैं तो समुद्र की ओर से वाष्प भारी पवनें इनसे वाताग्र (Fronts) बनाती हैं। ये पवनें दक्षिण-पूर्व से बहती हैं और ठण्डी होकर वर्षा करती हैं। उत्तरी अमरीका में मिशीगन, ओण्टेरियो और पश्चिमी न्यूयार्क के भागों में वर्षा होने का कारण यही है। प. रूस तथा भूमध्यसागरीय देशों में भी इनका प्रभाव रहता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में ये चक्रवात वर्ष भर बनते हैं। इनके उत्पति स्थान महासागर होते हैं। इनका मार्ग मध्य चिली, दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिण पश्चिमी आस्ट्रेलिया, दक्षिण-पूर्वी आस्ट्रेलिया, तस्मानिया तथा न्यूजीलैण्ड हैं।
अटलाण्टिक महासागर में उत्पन्न चक्रवात शीत ऋतु में भूमध्यसागरीय प्रदेशों को पार करते हुए एशियाई टर्की में प्रवेश करते हैं और यहां ईरान, इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को पार करते हुए उत्तरी भारत में भी अपना प्रभाव दिखाते हैं।
उष्णकटिबंधीय चक्रवात Tropical Cyclones or Storms
उषण प्रदेश के चक्रवात प्रदेशों के से कई बातों में भिन्न होते हैं। उष्ण प्रदेशीय चक्रवात प्रायः विस्तार में छोटे और गति में धीमे होते, परन्तु इनमें पवनें प्रचण्ड रूप से बहती हैं और घनघोर वर्षा करती हैं। इनके अतिरिक्त ये चक्रवात अपने आकार तथा वर्षा व तापमान के वितरण में अधिक समान होते हैं। इनकी समताप रेखाएँ लगभग गोलाकार होती हैं और निम्नदाब ठीक मध्य में रहता है। इसके अग्रभाग और पृष्ठभाग की अवस्थाओं में पवन दिशा के अतिरिक्त कोई मुख्य भेद नहीं होता। किसी भी ओर के केन्द्र तक पहुंचने पर वायु मेघ और वर्षा की मात्रा में बाहर से भीतर की ओर वृद्धि होती जाती है। केन्द्र स्वयं एक शान्त क्षेत्र होता है। इसे चक्रवात का चक्षु (eye of storm) कहते हैं। इस 15 से 30 किलोमीटर के क्षेत्र में पवनें शान्त, आकाश प्रायः स्वच्छ एवं वर्षा रहित मौसम रहता है। इसके पश्चात् चक्रवात का रौद्र रूप पुनः प्रभावी हो जाता है।
उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों के प्रभाव Effects Tropical cyclones
ये बड़े भीषण होते हैं। जब ये आगे बढ़ते हैं तो मार्ग की समस्त वस्तुओं को नष्ट करते हुए आगे बढ़ते हैं। सागरों में ये निरन्तर रौद्र बने रहते हैं जिससे बड़ा ही विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। इसके कारण सागर में ऊँची ऊँची लहरें उठती हैं और जहाजों को भारी क्षति पहुंचती है। सागर में उठी हुई लहरें कभी-कभी तट पर आकर फैल जाती हैं। इनमें पवनों की गति 80 से 200 किलोमीटर रहने से 10 से 15 मीटर ऊँची लहरें तट से टकरा कर भारी वर्षा के साथ प्रलय मचा देती हैं। सभी ओर विनाश लीला का ताण्डव नृत्य देखा जा सकता है।
ऐसे चक्रवात प्रायः उन स्थानों पर उत्पन्न होते हैं जहाँ जल और स्थल एवं विभिन्न वायु राशियाँ आपस में मिलती हैं। ये चक्रवात उत्तर मानसून समय (उ. गोलार्द्ध में अक्टूबर-नवम्बर) तथा पूर्व मानसून समय (उ. गोलार्द्ध में अप्रैल-मई) में आते हैं। इन चक्रवातों के प्रमुख प्रदेश एशिया के दक्षिण-पूर्वी भाग (चीन सागर और बंगाल की खाड़ी), उत्तरी अमरीका का दक्षिण-पूर्वी भाग (मैक्सिको की खाड़ी तथा कैरेबियन सागर) हैं। इसके अतिरिक्त न्यूफाउण्डलैण्ड, दक्षिण चीन, थाईलैण्ड, म्यांमार, जापान और पश्चिमी द्वीपसमूह में भी अधिकतर ऐसे चक्रवात आया करते हैं। इसी भाँति मेडागास्कर व मोजाम्बिक तट पर भी यह कभी-कभी आते हैं।
इन चक्रवातों का कोई निश्चित मार्ग नहीं होता। यह विषुवत् रेखा और 15° अक्षांशों के बीच में निश्चित दिशा की ओर चलते हैं। 15° से 30° अक्षांशों के बीच मार्ग बड़ा अनिश्चित रहता है, किन्तु उत्तरी गोलार्द्ध में प्रायः उत्तर की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण की ओर चला करते हैं। इन चक्रवातों का व्यास 160 से 320 किलोमीटर तक होता है। अपने उद्गम से पश्चिम की ओर ये 16 से 24 किलोमीटर प्रति घण्टा की चाल से 30° अक्षांशों तक जाते हैं।
भिन्न-भिन्न स्थानों पर इन चक्रवातों को भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। इन्हें चीन सागर में टाइफून (typhoon). मैक्सिको की खाड़ी में एवं पश्चिमी द्वीप समूह में हरीकेन (Hurricane) और उत्तर-पश्चिमी आस्ट्रेलिया के तट पर विली विलीज (Willy Willies), दक्षिण-पूर्वी अफ्रीका के तट पर इन्हें टोरनेडो (Tomadocs) एवं बंगाल की खाड़ी में तूफान को चक्रवात (Cyclone) कहते हैं।
प्रतिचक्रवात Anticyclones
प्रतिचक्रवात उच्चदाब का एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें केन्द्र में उच्च वायुदाब होता है। परिधि की ओर घटता जाता है। इसकी समदाब रेखाएँ भी लगभग गोलाकार होती हैं। सबसे अधिक दाब वाली रेखा मध्य में होती है। प्रतिचक्रवातों का कोई निर्दिष्ट पथ नहीं होता। ये किसी भी दिशा की ओर स्वतन्त्र रूप से बढ़ सकते हैं। कभी-कभी ये एक ही स्थान पर लगातार कई दिनों तक बने रहते हैं और कभी-कभी धीरे-धीरे दूर हटते हुए बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं। इनके भीतर जो भी परिवर्तन आते हैं वे बहुत ही धीरे-धीरे आते हैं।
पवने winds- प्रतिचक्रवात में उच्च दाब केन्द्र में रहता है। इसलिए पवनें केन्द्र से बाहर की ओर चलती हैं। केन्द्र से बाहर चलते समय फेरल के नियमानुसार ये अपनी दिशाएँ बदल देती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में ये दायीं ओर घड़ी की सुई की दिशा में तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में इसके ठीक विपरीत बायीं ओर मुड़ जाती हैं। प्रतिचक्रवात में समदाब रेखाएँ काफी दूरदूर होती हैं। इसके मध्य भाग में ये विशेषतः बहुत दूर होती हैं। इस कारण प्रतिचक्रवात में पवनें बड़ी मन्द गति से चलती हैं। केन्द्र के समीप शान्त क्षेत्र रहता है। यहाँ बहुत ही हल्की और अस्थिर पवनें चला करती हैं। केन्द्र में वायु प्रवाह का पूर्ण अभाव और शान्ति प्रतिचक्रवात की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
शीतोष्ण प्रदेशों के प्रतिचक्रवात प्राय: दो चक्रवातों के बीच स्थित होते हैं जिसका कोई निर्दिष्ट पथ नहीं होता। यह किसी भी दिशा की ओर स्वतन्त्र रूप से बढ़ सकता है। इसका प्रभाव बड़ा ही अनिश्चित रहता है। यह कभी आगे बढ़कंर फैल जाता है और पुनः सिकुड़ जाता है। प्रतिचक्रवात प्रायः बहुत विस्तृत होते हैं और इनकी गति 10 से 30 किलोमीटर प्रति घण्टा तक होती है, किन्तु इसके भीतर चलने वाली हवाओं की गति 5 से 10 किलोमीटर प्रति घण्टा ही रहती है।
मौसम एवं वर्षा Weather And Rainfall
प्रतिचक्रवात में प्रायः मौसम स्वच्छ और सुहावना रहता है। आकाश में मेघ नहीं रहते हैं। अतः मेघों के अभाव में दिन में सूर्य बड़ी प्रचण्डता से तपता है, परन्तु रात्रि में गर्मी पुनः नष्ट हो जाती है। ग्रीष्मकाल में इस कारण दिन बड़े गर्म होते हैं। सूर्यास्त के बाद तापमान फिर गिरने लग जाता है। रात्रि के पिछले प्रहर में तापमान इतना नीचे चला जाता है कि सूर्योदय के समय कुहरा और धुन्ध सा छा जाते हैं। पतझड़ ऋतु में कुहरा और धुन्ध की मात्रा और भी बढ़ जाती है। शीतकाल में सूर्य से बहुत कम गर्मी प्राप्त होती है। रात्रि लम्बी-लम्बी होती हैं जिससे तापमान अधिक गिर जाता है और परिणामस्वरूप प्रायः पाला गिरता है एवं कभी घना कुहरा छा जाता है जो कि कभी-कभी कई दिनों तक लगातार बना रहता है। उत्तरी भारत के पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में शीतकाल में प्रतिचक्रवातों से वर्षातथा ओलावृष्टि होती है। कभी-कभी कई सप्ताह मौसम अति ठण्डा तथा फुहारों वाला हो जाता है।
आार्द्रता एवं वृष्टि Humidity And Rainfall
भूमण्डल पर जल-प्राप्ति का प्रधान स्रोत वर्षा है। वर्षा वायुमण्डल में मिली हुई जलवाष्प के कारण होती है। जलवाष्प वायुमण्डल में सम्मिलित अनेक तत्वों में से एक है। वायुमण्डल में पायी जाने वाली जलवाष्प की मात्रा कई बातों पर निर्भर करती है-
- जलाशयों अथवा सागरों के निकटवर्ती स्थानों में जलवाष्प की अधिकता होती है।
- गरम पवन में जलवाष्प धारण करने की क्षमता ठण्डी पवन की अपेक्षा अधिक होती है।
- पर्वतीय बाधाओं से घिरे स्थानों तक जलवाष्प नहीं पहुंच पाती, फलतः वे प्रायः शुष्क रहते हैं।
आर्द्रता Humidity
वायुमंडल में निहित जलवाष्प विशाल महासागरों, झीलों, नदियों अथवा पेड़-पौधों से प्राप्त होती है। प्रतिदिन धरातल का जल सूर्य की गर्मी से वाष्प के रूप में परिवर्तित होता रहता है। वायु में विद्यमान वाष्प ही उसकी आर्द्रता कहलाती है।
वायु में वाष्प ग्रहण करने की शक्ति बहुत अंशों में उसके तापमान पर निर्भर करती है। वायु का तापमान जितना ही अधिक होगा उसमें वाष्प धारण करने की शक्ति उतनी बढ़ जाएगी। उदाहरणत: यदि एक घन फुट वायु के तापमान को 0° से 5° सेण्टीग्रेड अर्थात् 5° सेण्टीग्रेड बढ़ा दिया जाए तो उस वायु में केवल 1 ग्रेन वाष्प धारण करने की शक्ति बढती है, परन्तु यदि 32° सेण्टीग्रेड बढ़ाकर 5.5° सेण्टीग्रेड कर दिया जाए तो वह 5 ग्रेन वाष्प धारण करने योग्य हो जाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वायु में वाष्प ग्रहण करने की क्षमता उसके तापमान की वास्तविक स्थिति पर निर्भर करती है।
प्रायः जलवाष्प की वर्तमान मात्रा वायु की उसको ग्रहण करने की क्षमता से कम होती है। जब वह अधिक हो जाती है तो वर्षा के रूप में बरस जाती है। जब वायु में जलवाष्प की टीक उतनी ही मात्रा होती है जितनी कि उसमें ग्रहण करने की क्षमता हो तो उस वायु को सन्तृप्त (saturated) वायु कहा जाता है। वायुमण्डल के प्रत्येक भाग में निश्चित आयतन के क्षेत्र में पायी जाने वाली नमी को निरपेक्ष आर्द्रता (Absolute Humidity) कहा जाता है। इसके विपरीत निश्चित आयतन एवं तापमान वाली वायु की आर्द्रता ग्रहण करने की क्षमता और उसमें उपस्थित आर्द्रता की कुल मात्रा के अनुपात को सापेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity ) कहा जाता है। इसे सदैव प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है। सापेक्ष आर्द्रता निम्न सूत्र के अनुसार ज्ञात की जाती है-
सापेक्ष आर्द्रता = वायु में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा / उसी वायु में जलवाष्प धारण करने की क्षमता X 100
सापेक्षिक आर्द्रता सदैव प्रतिशत में प्रदर्शित की जाती है।
घनीभवन Condensation
जिस ताप पर वायु संतृप्त हो जाती है उस दशा को वायु का ओसांक विन्दु (Dew point) कहते हैं। जब वाष्प की मात्रा और अधिक हो जाती है तो जलवाष्प जलकणों और तुषार कणों में परिवर्तित होने लगती है। इस क्रिया को घनीभवन या द्रवण कहते हैं। घनीभवन तीन प्रकार से हो सकता है-
- जब पवन किसी ठंडे धरातल के सम्पर्क में आकर ठण्डी हो जाती है।
- संवाहन द्वारा गरम वायु अधिक ऊँचाई पर पहुंचकर फैलती है और ठंडी हो जाती है।
- गरम क्षेत्रों में प्रवाहित वायु ठंडे क्षेत्रों से आने वाली पवन के संपर्क में आकर ठंडी हो जाती है।
घनीभवन के रूप Forms Condensation
घनीभवन के कारण जलवाष्प कई रूपों में बदल जाती है, जैसे-, धुन्ध, कुहरा, पाला, तुषार, मेघ, ओला और वर्षा।
ओस Dew– शीतकाल में रात्रि को जब घरातल उससे लगी हुई वायु से भी अधिक शीतल हो जाता है तो उसमें निहित वाष्प घनीभूत हो जाती है और वह छोटी-छोटी बूंदों के रूप में धरातल पर जमा हो जाती है। घासफूस, फूलपतियों तथा भूमि पर एकत्रित जल बूंदों को ओस कहा जाता है।
पाला Frost– जब वायु का तापमान 32° फरेनहाइट अथवा 0° सेण्टीग्रेड से भी कम हो जाता है तो वायु में निहित वाष्प जल-कणों में न बदलकर हिमकणों में परिणत हो जाती है। इस प्रकार हिम के रूप में जमी हुई ओस को ही पाला कहा जाता है। शीत में जब रात्रि लम्बी होती है, आकाश स्वच्छ होता है और वायु शान्त होती है तो पाले की क्रिया अधिक होती है। पाले से पौधों एवं फसलों को बड़ी हानि होती है। उन्नरी भारत में शीतकाल में अक्सर पाला पड़ता है।
कुहरा Fog- रात्रि के समय जब कभी उष्ण और आर्द्र वायु का तापमान ओसांक बिन्दु से नीचे चला जाता है तो उसमें व्याप्त जल-कणों में बदल जाती है। ये जल-कण अत्यन्त छोटे होने के कारण वायु में ही तैरते रहते हैं जिससे वायुमण्डल में धुएँ जैसा मेघ प्रतीत होने लगता है। आकाश में छाया धुएँ जैसा व धरती के निकट का यह मेघ ही कुहरा कहलाता है। घने कुहरे के समय कुछ दूर की वस्तुओं को देखना भी कठिन हो जाता है। जब रात को विकिरण द्वारा धरातल पर टिकी शान्त और आर्द्र वायु की परत ठण्डी हो जाने पर कुहरा फैलता है तो उसे विकिरण कुहरा (Radiation Fog) कहते हैं। यह सामान्यतः सूर्योदय के बाद समाप्त हो जाता है। जब ठण्डी और गर्म समुद्री धाराएँ मिलें और उष्णाद्र वायु ठण्डे धरातल पर से निकलें तो अभिवहण कुहरा अथवा सम्पकीय विकिरण कुहरा (Advection Fog) उत्पन्न होता है। यह सामान्यतः सागरों पर तथा मध्य एवं उच्च अक्षांशों से अधिक बनता है।
धुन्ध या कुहासा Mist- धुन्ध कुहरे का ही एक रूप है। जब कुहरा घना न होकर हल्का-पतला होता है तो उसे धुन्ध कहते हैं। धुन्ध में 2 किलोमीटर तक की दूरी की वस्तुएँ प्रायः साफ दिखायी पड़ती हैं।
हिमपात Snowfall- जब कभी घनीभवन क्रिया के समय वायु का तापमान हिमांक बिन्दु से काफी नीचे गिर जाता है तो जल वाष्प हिमकणों के रूप में बदल जाती है जिससे धरातल पर हिमपात (Snowfall) हो जाता है। हिमपात प्रायः ऊँचे पर्वतीय भागों तथा ठण्डे देशों में अधिक होता है।
ओलावृष्टि Hailstorm- कभी-कभी वायुमण्डल में सुविकसित कपासी मेघों में तीव्र संवाहन धाराएँ चला करती हैं। इन संवाहन धाराओं के साथ उष्ण एवं आर्द्र वायु भी ऊपरी भागों में पहुंच जाती है। ऐसे संवाहन से ऊँचे भाग की आर्द्र पवनों का तापमान हिमांक बिन्दु से बहुत नीचा गिर जाता है, इसी कारण उसमें निहित वाष्प हिमकणों में बदल जाती है। जब इन हिम कणों का रूप काफी बड़ा हो जाता है और संवाहन धाराएँ इन्हें संभाल नहीं पाती तो ये नीचे बर्फ के बड़े कणों या ओलों के रूप में गिर पड़ते हैं। इसे ओलावृष्टि Hailstorm) कहा जाता है।
मेघ Clouds- धरातल से कुछ ऊँचाई पर होने वाली संघनन क्रिया से जलवाष्प जलकणों में बदल जाती है और मेघ बनने लगते हैं। मेघों की रचना ऊँचाई, वाष्प की मात्रा, अक्षांश, तापमान, आकाशीय स्थिति, आदि पर निर्भर है। अतः मेघ कई प्रकार के होते हैं।
सामान्यत: बादलों अथवा मेघ का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है-
- ऊँचाई के अनुसार
- अन्तर्राष्ट्रीय वर्गीकरण
ऊँचाई के अनुसार- साधारण रूप से बादल धूल के कणों पर स्थित जल बिन्दुओं के विशाल रूप ही हैं जो कि वायुमण्डल के अक्षांशों के अनुसार भिन्न-भिन्न ऊँचाइयों पर पाए जाते हैं। ऊँचाई के अनुसार मेघ तीन प्रकार के होते हैं-
नीचे मेघ अथवा परतदार मेघ Low or Stratus Clouds- धरातल के निकट 1,830 मीटर की ऊँचाई तक के बादलों को नीचे मेघ कहा जाता है। इन मेघों में पतली-पतली परतें बनती हैं, परन्तु ये मेघ आकाश के अधिक भाग में फैले होते हैं, इस प्रकार के मेघों के अन्तर्गत स्तरी कपासी मेघ तथा स्तरी मेघ, कपासी मेघ समिलित किए जाते हैं।
माध्यमिक मेघ Medium Clouds- इस प्रकार के मेघों का निर्माण गर्म वायु के ऊपर उठकर फैलने से घनीभवन की क्रिया के कारण होता है। इन मेघों की उत्पत्ति 1,830 मीटर से 6,100 मीटर की ऊँचाई तक होती है। इस भाग के मेघों को कुन्तल मेघ भी कहते हैं। इस प्रकार के मेघों को एल्टोसिरस (Altocirrus) मेघ भी कहते हैं।
उच्च मेघ High Clouds- इस प्रकार के मेघ 6,100 से 12,000 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इस प्रकार के मेघों में पक्षाभ, पक्षाभ कपासी मेघ तथा पक्षाभ स्तरी मेघ सम्मिलित किए जाते हैं।
मेघों का अन्तर्राष्ट्रीय वर्गीकरण International Classification Of Clouds
सन् 1932 में मेघों को चार भागों में विभाजित किया गया-
पक्षाभ मेघ Cirrus Clouds– वायुमंडल में सर्वाधिक ऊंचाई पर पाए जाने वाले इन मेघों की रचना हिम कणों से होती है। इस प्रकार के मेघ दिन में पृथ्वी से पंख की भांति रेशों से निर्मित दिखायी देते हैं। ये मेघ अत्यन्त कोमल और सफेद रेशम के समान होते हैं। इन मेघों की ऊँचाई 8 से 10 किलोमीटर होती है। इनकी उपस्थिति से स्वच्छ मौसम की आशा की जाती है।
कपासी मेघ Cumulus Clouds- इस प्रकार के मेघ 1,000 से 5,000 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इनका रूप घुनी रूई के ढेर के समान दिखायी देता है। इनके खण्ड आकाश में गुम्बद के आकार के दिखायी देते हैं, जिनके शीर्ष जैसी आकृति के होते हैं। यह अपने आधार से कई हजार मीटर ऊँचाई तक फैले होते हैं।
स्तरी मेघ stratusclouds Clouds- ये मेघ वायुमण्डल में सबसे नीचे के भाग में विकसित होते हैं। ये मेघ आकाश में समानान्तर परतों से एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तार में दिखायी देते हैं। इनका रंग भूरा, गहरा भूरा अथवा काला होता है। इन मेंघों की धरातल से ऊँचाई 1½ से 3 किलोमीटर होती है। इन मेघों का निर्माण कोहरे की निचली परतों के विसरण अथवा उनके उत्थान के कारण होता है। इन मेघों के शीर्ष भाग से विकिरण द्वारा ऊष्मा के क्षय के कारण इनके ऊपर वायु की परतों में संघनन होने से इनका विकास ऊपर की ओर होता है। इस प्रकार के मेध शीतोष्ण कटिबन्ध में प्रायः शीत ऋतु में अधिक बनते हैं।
वर्षी मेघ Nimbus Clouds- ये मेघ घने और काले पिण्ड के समान होते हैं। इनकी सघनता के कारण सूर्य की किरणे इनमें प्रवेश नहीं कर पाती हैं। ये मेघ धरातल से एक किलोमीटर की ऊँचाई पर निर्मित होते हैं। ये मेघ वायुमण्डल में सबसे नीचे के भाग में होने से ऐसा प्रतीत होता है कि ये धरती को छू रहे हों।
इन मेघों के अतिरिक्त कई मेघ एक-दूसरे से मिले होने के कारण इनके संयुक्त रूप में भी पाए जाते हैं-
पक्षाभ स्तरी मेघ Cirro Stratus Clouds- जब पक्षाभ मेघ चिड़िया के पंख के समान न होकर महीन सफ़ेद चादर के समान सम्पूर्ण आकाश में छाए रहते हाँ तो आकाश का रंग दूधिया हो जाता है। इन बादलों के समय सूर्य और चन्द्रमा के चरों ओर एक प्रभा मंडल बन जाता है। यह मेघ 7,700 मी. की ऊंचाई तक पाए जाते हैं। इस प्रकार के मेघ तूफान की पूर्व सूचना होते हैं।
पक्षाभ कपासी मेघ Cirro Cumulus Clouds- ये मेघ कपासी और पक्षाभ मेघों के आपसी मिलन से बनते हैं। ये मेघ सदैव पंक्तियों और समूहों में पाए जाते हैं। इस प्रकार के मेघों का आकार गोलाकार धब्बों के समान और कभी-कभी सागर तट की बालू पर पड़ी लहरों के समान होता है। इस प्रकार के मेघ 7,500 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं।
उच्च कपासी मेध High Cumulus Clouds- ये मेघ पतले गोलाकार धब्बों की तरह दिखायी देते हैं। ये मेघ श्वेत और भूरे रंग के होते हैं। ये मेघ पंक्तिबद्ध या लहरों के आकार में पाए जाते हैं।
उच्चस्तरीय मेघ अथवा स्तरी मध्य मेघ High Stratus Clouds –ये भूरे अथवा नीले रंग के छोटे स्तरों के मेघ होते हैं। ये मेघ लगातार चादर की तरह फैले दिखायी देते हैं। ये मेघ 5,400 से 7,500 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं।
स्तरी कपासी मेघ Strato Cumulus Clouds- ये मेघ 3,000 मीटर की ऊँचाई तक समूहों और पंक्तियों अथवा लहरों में दिखायी पड़ते हैं। इनका रंग कुछ काला होता है। में ये मेघ सम्पूर्ण आकाश को ढके रहते हैं।
कपासी वर्षी मेघ Cumulo Nimbus Clouds- ये मेघ लम्ववत् विकास, काले रंग वाले भारी बादल होते हैं। इन्हें गरजने वाले मेघ भी कहते हैं। ये 7,500 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। इस प्रकार के मेघों से भारी वर्षा या ओले के रूप में वर्षा होती है।
वर्षा को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting Rainfall
जब घनीभवन के कारण जलवाष्प की आर्द्रता जल के रूप में उससे पृथक् हो जाती है तब उसे वर्षा कहते हैं।
वर्षा होने के लिए पर्याप्त मात्रा में जलवाष्प उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए पवनें तथा उनके घनीभवन होने के लिए न्यून तापमान एवं नाभिक कणों की आवश्यकता होती है। घनीभवन के लिए तापमान घटने और वायु के ठण्डे होने की क्रिया निम्न प्रकार से हो सकती है-
- गर्म वाष्पयुक्त वायु संवाहन धाराओं के कारण ऊपर उठ जाए और फैलकर ठण्डी हो जाए
- गर्म वाष्पयुक्त वायु के मार्ग में कोई ऊँची बाधा उपस्थित हो जिससे टकराकर या जिसे पार करने के लिए वह ऊँची उठ जाए जिससे उसका तापमान शीघ्र कम हो जाए
- गर्म वाष्पयुक्त वायु ठण्डे क्षेत्रों की ओर या ठण्डी हवाओं की ओर बहे जिससे उसका तापमान तेजी से घट जाए।
इनके अलावा किसी स्थान में होने वाली वर्षा को निम्नलिखित कारक व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं-
- वायु में जलवाष्प की मात्रा,
- समुद्र से दूरी
- अक्षांशीय स्थिति
- भाप भरी हवाओं में बाधा (पर्वत आदि) का विस्तार,
- जलाशयों का विस्तार,
- वनस्पतियों का आवरण आदि
वर्षा के प्रकार Types of Rains
धरातल पर सामान्यतः निम्नांकित तीन प्रकार की वर्षा होती है-
संवाहनीय वर्षा Convection Rainfall- जब वायु गरम हो जाती है तो वह संवाहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है और ऊपर उठकर फ़ैल जाती है जिससे इसका तापमान गिर जाता है और घनीभवन की क्रिया आरम्भ हो जाती है। इस घनीभूत क्रिया से मेघ बन जाते हैं और घनघोर वर्षा होती है यह वर्षा गरज और चमक के साथ होती है। विषुवत् रेखीय प्रदेशों में साल भर इसी प्रकार की वर्षा होती है।
चक्रवातीय वर्षा Cyclonic Rainfall- चक्रवात के आतंरिक भाग में जब भिन्न तापमान वाली पवने आपस में मिलती हैं तो ठण्डी पवन गरम पवनों को ऊपर की ओर धकेलती हैं। ऊपर उठने पर पवन ठण्डी हो जाती है और वर्षा कहा जाता है। यह वर्षा बड़ी धीरे-धीरे होती है। अयन रेखाओं तथा मध्य अक्षांशों में अधिकतर वर्षा चक्रवातों द्वारा होती है।
पर्वतीय वर्षा Mountainous Rainfall– उष्ण और आर्द्र पवनों के मार्ग में जब कोई पर्वत, पठार अथवा ऊँची पहाड़ियां आ जाती हैं तो पवन को बाध्य होकर ऊपर चढ़ना पड़ता है। ऊपर उठने पर वह ठण्डी हो जाती है व वर्षा कर देती है। इस प्रकार की वर्षा को ही पर्वतीय वर्षा कहा जाता है। यह उस ढाल पर अधिक होती है जो ठीक पवनों के सामने पड़ता है। जो ढाल आने वाली पवनों के विपरीत होता है बहुत कम वर्षा प्राप्त करता है। इसे मानसूनी वर्षा भी कहते हैं। यहाँ पर्वतों के पवनामुख (windward) ढालों पर अधिक वर्षा होती है, किन्तु पवनाभिमुख ढाल (Leeward Slope) वर्षा से अछूते रहते हैं, क्योंकि जब पवनें पर्वतों के दूसरी ओर नीचे उतरती हैं तो शुष्क होती जाती हैं। यह वर्षा विहीन भाग दृष्टिछाया प्रदेश (Rain shadow Area) कहलाता है।
वर्षा का वितरण Distribution Rainfall
विश्व के वर्षा-वितरण मानचित्र का अध्ययन करने से निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं-
- ज्यों-ज्यों विषुवत् रेखा से उत्तर या दक्षिण की ओर बढ़ते हैं त्यों-त्यों वर्षा की मात्रा में कमी होती जाती है। ध्रुवों पर अधिक शीत होने से पवनों में नमी बहुत ही कम रहती है, फलतः वर्षा कम होती है।
- पर्वत के पवनामुखी ढालों (Windward slopes) पर वर्षा अधिक होती है। जबकि पृष्ठ भागों (Leeward ) में अल्प वर्षा या वर्षा नहीं होती है।
- समुद्र से ज्यों-ज्यों दूर हो जाते हैं वर्षा की मात्रा में कमी आती है। महाद्वीप के भीतरी भागों गोवी, थार, सहारा, पश्चिमी आस्ट्रेलिया, आदि के मरुस्थलों में सागर से दूर होने के कारण वर्षा बहुत ही कम होती है।
- 30° उत्तरी और 40° दक्षिणी अक्षांशों के बीच में स्थायी या व्यापारिक पवनों के चलने के कारण महाद्वीपों के पूर्वी भागों पर (जापान, दक्षिण-पूर्वी एशिया, पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका) अधिक वर्षा होती है 40° और 65° अक्षांशों के बीच पछुआ पवनों के कारण महाद्वीपों के पश्चिमी भागों (पश्चिमी द्वीपसमूह, पश्चिमी यूरोप) पर अधिक वर्षा होती है। शीतोष्ण कटिबन्धों में चक्रवातों द्वारा उत्तरी और मध्य यूरोप तथा अमरीका में भी कुछ वर्षा हो जाती है।
- भूमध्य सागर के तटीय भाग, दक्षिणी आस्ट्रेलिया और दक्षिणी अमरीका में ग्रीष्म-ऋतु में सन्मार्गी पवनों के मार्ग में होने के कारण शुष्क रह जाते हैं, किन्तु शीतकाल में ये प्रदेश पछुआ पवनों के मार्ग में आ जाने के कारण शीतकालीन वर्षा प्राप्त करते हैं।
- भूमध्य रेखा पर संवाहनिक वर्षा होती है, किन्तु शीतोष्ण कटिबन्ध के अक्षांशों में प्रायः चक्रवातिक वर्षा होती है।
- ग्रीष्म ऋतु में समुद्र की ओर से आने वाली पवनों (मानसून पवनों) द्वारा भारत, चीन, जापान और इण्डोनेशिया में पार्वत्य या धरातलीय वर्षा होती है।
- उष्ण कटिबन्ध के चक्रवातों द्वारा हिन्द महासागर एवं चीन सागर के तटीय भागों में (जिसका प्रभाव फिलीपीन द्वीपों और जापान तक पहुंचता है) वर्षा होती है। इस प्रकार की वर्षा मैक्सिको की खाड़ी एवं मेडागास्कर के आसपास भी होती है।
वर्षा मापी Rain Gauge
वर्षा को मापने के लिए वर्षामापी यन्त्र काम में लाया जाता है। यद्यपि ये कई प्रकार के होते हैं, परन्तु सबका कार्य एक ही है। इसमें धातु का एक बेलनाकार खोल होता है जिसमें कीप लगी रहती है। इस कीप का व्यास बेलनाकास् खोल के व्यास के बराबर होता है। इस कीप पर पड़ने वाली वर्षा की बूंदें खोल के अन्दर रखी बोतल में एकत्र होती रहती हैं। बोतल में वर्षा जल को नापने वाले पात्र जिस पर नापने के लिए इन्च या सेण्टीमीटर के चिह्न मिमी में) बने होते हैं से माप लेते हैं। वर्तमान काल में स्वचालित तथा कम्प्यूटर नियन्त्रित वर्षामापी यन्त्र प्रयोग में लाए जाते हैं।