अपरदन के अभिकर्ता Agents Of Erosion
पृथ्वी के धरातल की काटछांट और उसके रूप परिवर्तन करने वाले प्राकृतिक घटकों को अपरदन के अभिकर्ता कहा जाता है। ये अभिकर्ता निम्न हैं-
- बहता हुआ जल या नदियां Running Water or Rivers
- भुमुगत जल Underground water
- हिमानियां या हिमनद Glaciers
- पवने Wind
- समुद्री तरंगे Oceanic Waves
प्रवाहित जल या नदियों के कार्य Work of Running Water or River
भूतल के अपरदन एवं समतल स्थापना की शक्ति या अभिकर्ता के रूप में नदियों का महत्व सबसे अधिक है। नदियां जल को प्रवाहित कर अपने उद्गम स्थान से लेकर ढालों के अनुरूप बहती हैं। नदी में जल सामान्यतः तीन स्रोतों से प्राप्त होता है-
- वर्षा से प्राप्त जल
- हिम के पिघलने से प्राप्त जल, तथा
- भूमिगत जल संचय से
किन्तु नदियों में अधिकांशतः जल की मात्रा वर्षा से ही प्राप्त होती है। प्रो. मरे (Murray) के अनुसार, “भू-पृष्ठ पर प्रतिवर्ष 46,400 घन किमी वर्षा होती है। इसका से भाग नदियां बहा ले जाती हैं और शेष जल या तो वाष्प बनकर उड़ जाता है अथवा भूमि द्वारा सोखकर भूगर्भित जल बन जाता है”।
बहता हुआ जल या नदी तीन प्रकार से कार्य करती है :
- अपरदनात्मक कार्य Erosional Work- अपरदन द्वारा किनारों व तली को काटनाछांटना, इसे नदी का अपरदन कार्य कहा जाता है।
- परिवहन कार्य Transportational Work- काटे गए अवसादों को घुलनशील या भौतिक अवस्था में बहा ले जाना, उसे नदी का परिवहन का कार्य कहा जाता है।
- निक्षेपात्मक कार्य Depositional Work- बहाकर लाए गए पदार्थ को उपयुक्त स्थानों पर जमाने के कार्य को निक्षेपण कहते हैं।
अपरदन कार्य Erosional Work
नदी की धारा में अनेक प्रकार के छोटे बड़े पदार्थ वहते रहते हैं। ये नदी के तल और किनारों से रगड़ खाकर उन्हें गहरा और चौड़ा करते हैं तथा चट्टानों को काटते और घिसते रहते हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप नदी की घाटी गहरी और चौड़ी होती जाती है। इस प्रकार नदी का अपरदन दो प्रकार का होता है : लम्बवत् (vertical) जिसमें तलहटी गहरी की जाती है और पार्श्विक (Lateral) जिसमें किनारे क्रमानुसार काटे जाते हैं। इसी के द्वारा नदियां टेढ़ा-मेढ़ा मार्ग बनाकर बहती हैं।
नदियों का अपरदन कार्य दो प्रकार से होता है : यान्त्रिक तथा रासायनिक। यान्त्रिक प्रक्रिया में नदी अपने किनारों और तली को काटती है तथा रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा घुलनशील पदार्थ उसके जल में घुलकर बहते हैं। नदी द्वारा अपरदन की प्रक्रिया इन विधियों से होती है-
- जलीय क्रिया Hydraulic Action- इसमें नदी का जल अपने भार द्वारा दबाव डालकर तली एवं किनारों की चट्टानों को ढीला करके वहाँ से हटाता रहता है।
- अपघर्षण Abrasion- इसमें नदी अपने बोझिल पदार्थ से तल एवं किनारों को घिसती है।
- संनिघर्षण Attrition- इसमें नदी के जल में मिले हुए बड़े और सूक्ष्म पदार्थ लुढ़कते हुए टूटकर चूर्ण बन जाते हैं अर्थात् स्वयं पदार्थ भी आपस में रगड़ खाकर गोलाकार एवं महीन होते जाते हैं। बालू का विकास इसी क्रिया का परिणाम है।
- संक्षारण Corrosion- इस क्रिया में किनारों की चट्टानों के घुलनशील तत्व जल में घुलकर वह जाते हैं।
नदी अपरदन के लिए परिस्थितियां Conditions for Rivers Erosional Work
नदी की घाटी में अपरदन का कार्य मुख्यतः निम्न बातों पर निर्भर करता है-
i.) जल का आयतन (Volume), ii) जल का वेग, iii) चट्टानों की प्रकृति, व संरचना, एवं iv) कोणीय अवसाद की मात्रा।
जब नदी मार्ग के किनारों और नितल की कांट-छांट करती है तो शैलों के टुकड़े टूट-टूटकर इसमें मिल जाते हैं। यही पदार्थ नदी का भार (Load of Rivers) कहलाते हैं। यह भार अनेक रूपों में प्राप्त होता है-
- नदीघाटी में ढालों अथवा किनारों से वर्षा अथवा पिघले हिम द्वारा पदार्थ का बहकर जाना
- ऋतु अपक्षय द्वारा टूटे हुए पर्वत खण्डों के टुकड़ों का जल में मिलकर बहना
- मिट्टी रेत, बजरी, कंकड़, पत्थर, आदि का अपक्षय द्वारा प्रवाह में बहना
- घाटी के धरातल की कठोर चट्टानों के टुकड़ों का बहना।
उपर्युक्त भार या अवसाद ही अपरदन के औजार (Tools of Erosion) होते हैं, जिनकी सहायता से वे नदी के प्रवाह क्षेत्र की काया पलट करते हैं।
नदी पर्दान द्वारा घाटियों का विकास Development of River Valleys By Stream Erosion
नदियाँ जिन मार्गों में होकर बहती हैं उन्हें उनकी घाटियाँ कहा जाता है। ये नदियों द्वारा बनायी जाती हैं। पर्वतीय ढालों पर वर्षा का जल अपने ढाल के अनुरूप धाराओं के रूप में बहता है। धीरे-धीरे ये धाराएँ नालियाँ (Gullies) बनाना आरम्भ करती हैं और कालान्तर में कई सहायक धाराएँ भी इनमें आकर मिलने लगती हैं, फिर ये सम्मिलित रूप से अपना मार्ग विस्तीर्ण करती हुई आगे बढ़ती हैं। उससे घाटी क्रमशः अधिक गहरी, चौड़ी और लम्बी होती जाती है। कई बार दो समानान्तर घाटियों में बहने वाली धाराएं अपने बीच की बाधा को या जल विभाजक को नष्ट-भ्रष्ट करके आपस में मिल भी जाती हैं। ज्यों-ज्यों नदी की धारा चौड़ी होती जाती है, उसकी शक्ति और वेग बढ़ता जाता है और घाटी विकसित होती जाती है। नदी अपनी घाटी का विकास इन दो प्रक्रियाओं से करती है-
घाटी का लम्बा करना Valley Lengthening– नदी अपनी घाटी की लम्बाई में वृद्धि अपरदन द्वारा करती है यह प्रारम्भिक अवस्था में दोनों दिशाओं में अपरदन करके लम्बाई बढ़ाती है। यह कार्य वह तब तक करती है जब तक आधारतल को प्राप्त नहीं कर लेती। ये दो अपरदन निम्नवत् हैं
- शीर्ष अपरदन अर्थात् उद्गम की ओर अपरदन Headward erosion
- मुख अर्थात मुहाने की ओर अपरदन Mouthward erosion
घाटी को चौड़ा करना Valley Widening– विसर्पण (Meandering) तथा सतह या किनारों का अपरदन (Lateral erosion) करके अपनी घाटी की चौड़ा करती है। यह नदी में प्रवाहित जल के आयतन (water volumes) पर निर्भर करता है।
नदी जिस घाटी में बहती है उसका विकास उस प्रदेश की जलवायु, नदी तल की शैलों, धरातल की प्राकृतिक अवस्था तथा अपक्षय कीक्रियाशीलता पर निर्भर करता है। घाटी के भिन्न-भिन्न भागों में भी नदी का कार्य भिन्न होता है। अतः उद्गम से लेकर मुहाने तक नदी को अपने कार्यों के अनुसार तीन भागों में विभक्त किया जाता है-
- पर्वतीय भाग अथवा युवावस्था
- मैदानी भाग या प्रौढ़ावस्था
- डेल्टाई भाग या वृद्धावस्था
पर्वतीय भाग अथवा यौवनावस्था Mountainous or Youth Stage– में नदी का उद्गम स्थान होता है। यहाँ नदी की धारा पतली और संकीर्ण होती है, नदी में जल और भार दोनों की मात्रा कम होती है। इस समय कोई सहायक नदी भी नहीं होती, अतः इस अवस्था में नदी अधिक शक्तिशाली नहीं होती। किन्तु आगे चलकर ढालू भूमि के कारण यहाँ नदी का प्रवाह वेग अधिक होता है। तेज प्रवाह के कारण यह अपनी तलहटी को गहरा काटती जाती है जिससे नदी घाटी गहरी हो जाती है। घाटी की गहरा करने में नदी के साथ निरन्तर बहकर आने वाले शिलाखण्ड बहुत सहायक होते हैं। शिलाखण्ड नदी की तलहटी को काटने में यन्त्र का काम करते हैं। इस प्रकार पर्वतीय अवस्था में लम्बवत् अपरदन ही नदी का प्रमुख कार्य है। इसी से पहाड़ी अवस्था में नदी की घाटी में गार्ज व केनियन (नदकन्दरा) तथा V-आकार की घाटी का विकास होता है, किन्तु लम्बवत् अपरदन की भी एक सीमा होती है। यह सीमा नदी का आधार तल (Base level) होता है। इस तल तक पहुंचने के बाद नदी अपनी घाटी को और अधिक गहरा नहीं कर सकती।
नदी अपरदन के भू आकार Land forms due to Erosion
V- आकर की घाटी V-Shaped Valley- लम्बवत अपरदन (Vertical Erosion) नदी की घाटी गहरी और संकीर्ण अर्थात् V के आकार की बन जाती है, किन्तु धीरे-धीरे समय के साथ नदी का प्रवाहक्षेत्र बढ़ता जाता है जिससे नदी में जल की मात्रा और भार की अधिकता हो जाती है। ऐसी अवस्था में नदी घाटी को गहरा करने के साथ-साथ पाश्वों को भी काटने लगती है। पाश्वों को काटने में अपक्षय, वायु और वर्षा भी सहायक होते हैं। इससे नदी की घाटी चौड़ी होने लगती है और उसका आकार अंग्रेजी के V के आकार के समान (V-shaped ) होता जाता है। जिन भागों में शैलें कम होती हैं वहाँ पर V काफी चौड़ी और विस्तृत होती हैं, परन्तु जहां शैलें कठोर होती हैं वहाँ पर V गहरी और संकीर्ण होती हैं। नदी की ऐसी गहरी और संकरी घाटी, जिसके दोनों किनारे खड़े होते हैं, नदकन्दरा या गार्ज (Gorge) कहलाती है। ब्रह्मपुत्र, सिन्धु और नदियों ने पर्वतीय भागों में ऐसी गहरी कन्दराओं की रचना की है।
जब किसी पठारी भाग में शैले आड़ी बिछी हों और वर्षा भी कम होती हो तो उस स्थान पर बहने वाली नदी की घाटी बहुत गहरी और तंग होती है। ऐसी गहरी तंग घाटी को प्रपाती खड्ड अथवा कैनियन (Canyon) कहा जाता है। संयुक्त राज्य अमरीका में कोलोरेडो नदी का प्रपाती खड्ड विश्व प्रसिद्ध है। यह खड्ड 320 किलोमीटर लम्बा, 8 से 20 किलोमीटर चौड़ा एवं 1,800 मीटर गहरा है। भारत में कृष्णा नदी ने भी महाबलेश्वर के समीप 600 मीटर गहरे गड्ढे की रचना की है । सिन्ध नदी का 6,000 मीटर से भी अधिक गहरा है।
जल प्रपात Waterfall– जब ऊंचे पहाड़ी भागों से नदी बहकर आती है तो धरातल की प्रारम्भिक असमानता के कारण उसके मार्ग में जलप्रपात बन जाते हैं। नदी में जब मुलायम और कठोर शैलें बिछी रहती हैं तो नदी मुलायम शैलों को शीघ्र काट डालती है, किन्तु कठोर शैलें खड़ी रह जाती हैं। अतः नदी का जल उनके ऊपर से नीचे गिरने लगता है। जल के ऊपर से नीचे गिरने को ही जलप्रपात कहते हैं। जब कठोर शैलों का झुकाव नदी के साथ होता है तो क्षिप्रिका (Rapids) बन जाते हैं। जब सीढ़ीदार दीवार के किनारे कई प्रपातों में जल गिरता है तो उनको सोपानी प्रपात (Cascades) कहते हैं। जब नदी का जल कठोर शैलों पर इतने जोर से बहता है कि शैलें दिखायी नहीं पड़तीं तो उसे महाप्रपात (Cataract) कहा जाता है।
युवावस्था में नदी निरंतर समतल स्थापना में (Levelling) के कार्य में संलग्न रहती है और यदि भूगर्भ के किसी परिवर्तन के कारण भूतल पर कोई नयी बाधा या आकृति न बने तो कालान्तर में मुख्य नदी और सहायक नदियों का तल समान होता जाता है, घाटी चौड़ी होने लगती है तथा प्रपात विलुप्त हो जाते हैं। दूसरे अर्थों में नदी की युवावस्था के लक्षणों के स्थान पर अब नदी घाटी में प्रौढ़ावस्था के एवं परिवहन कार्यों से बने लक्षणों का विकास होने लगता है।
संकीर्ण घाटी की रचना के अतिरिक्त पहाड़ी अवस्था में भी नदी कई अन्य भू-आकारों को जन्म देती है। इन भू-आकारों में जल-गर्तिका, झीलें एवं जलप्रपात विशेष उल्लेखनीय हैं। तीव्र प्रवाह के कारण धारा के साथ बहने वाले पत्थर नदी की ऊबड़-खाबड़ तलहटी में गोल गड्ढे बना देते हैं। इन गोल गड्ढों को जलगर्तिका (Pothole) कहा जाता है। ये गर्त छोटे-बड़े अनेक आकार एवं प्रकार के होते हैं।
यदि नदी के मार्ग में मुलायम और कठोर चट्टानों की परतें एकान्तर क्रम (Alternately arranged) में पायी जाती हों तो उस प्रदेश में विकसित होने वाली घाटी के दोनों ओर सीढ़ियां सी बन जाती हैं। ऐसे धरातल स्वरूप को शिलासोपान (Rock Benches) कहा जाता है। पहाड़ी भाग में कभी भी भू-स्खलन (Land slide) के कारण भारी शिलाखण्ड टूटकर नदी की घाटी में जमा हो जाते हैं, जिससे नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है और वह एक झील में बदल जाती है।
नदी परिवहन का कार्य Transportational Work of River
नदी अपनी यौवनावस्था में उसके जल में मिले पदार्थों को वहाकर ले जाती है। वहाकर ले जाने की शक्ति उसके बहाव की गति पर निर्भर करती है। यदि नदी में बहाव तिगुना तेज हो जाता है तो नदी में भार ढोने की शक्ति 36 अर्थात् 729 गुना और यदि यह बहाव 2 गुना हो तो शक्ति 26 अर्थात् 64 गुना हो जाती है। नदी सामान्यतः तीन प्रकार से पदार्थों को बहाकर ले जाती है-
- जब नदी किन्हीं घुलनशील शैलों के ऊपर होकर बहती है तो उसका कुछ अंश जल में घुल जाता है। इस प्रकार नदी में कुछ पदार्थ घुले हुए रूप में आगे बढ़ते हैं।
- कई पदार्थ जैसे मिट्टी और बालू के कण तथा वनस्पति अंश नदी जल में तैरते हुए जाते हैं।
- बड़े-बड़े कंकड़ पत्थर नदी की तलहटी के साथ लुढ़कते और धिसते हुए जाते हैं। ये आपस में रगड़ खाकर घिसते हैं और नदी के नितल और तटों को भी खरोंचते और घिसते जाते हैं। इस प्रकार प्रौढ़ावस्था के प्रारम्भ में कटाव एवं बहाव दोनों ही क्रिया होती रहती हैं, किन्तु परिवहन का कार्य सबसे महत्वपूर्ण रहता है। उपर्युक्त पदार्थों का परिवहन मुख्यतः नदीजल के वेग पर निर्भर करता है।
नदी के प्रवाह में शैलों के छोटे और महीन टुकड़े प्रवाह के ऊपरी धरातल पर रहते हैं और भारी तथा मोटे टुकड़े नितल के साथ लुढ़कते हैं। प्रायः सभी नदियाँ बहुत बड़ी मात्रा में यह पदार्थ बहाकर ले जाती हैं। उदाहरणार्थ, संयुक्त राज्य की नदियाँ प्रतिवर्ष 100 करोड़ टन पदार्थ, इंग्लैण्ड की टैम्स नदी 5.4 लाख टन और भारत की गंगा नदी ही 10 करोड़ टन पदार्थ बहाकर ले जाती है।
नदी घाटी की मैदानी या परिपक्वावस्था एवं नदी का निक्षेपण कार्य Plain or Mature Stage and Depositional Work of River River
पहाड़ी भाग को छोड़कर जब नदी मैदान में प्रवेश करती है तो इसके ढाल में परिवर्तन आ जाता है। मैदान में ढाल धीमा होने से नदी का प्रवाह भी मन्द पड़ने लगता है। मन्द प्रवाह के कारण यहां अपरदन की तीव्रता नष्ट हो जाती है। नदी अपनी तलहटी को गहरा करना बन्द कर देती है। यहां नदी के किनारे मुलायम मिट्टी के होते हैं। अत: इस भाग में नदी अपने तल की शैलों को काटने के स्थान पर किनारों की शैलों को अधिक काटती है। फलस्वरूप नदी घाटी चौड़ी हो जाती है। इस प्रकार घाटी का गहरा होने की अपेक्षा चौड़ा होना ही, नदी की पर्वतीय और मैदानी अवस्था के बीच मुख्य अन्तर है।
इस भाग में नदी सीमित अपरदन, परिवहन और निक्षेपण तीनों ही कार्य करती है। यहाँ ढाल कम होने से अपरदन और निक्षेपण दोनों साथ-साथ होते रहते हैं, किन्तु नदी का प्रवाह वेग मन्द होने से अपरदन कम और निक्षेपण अधिक होता है। निक्षेपण की प्रधानता के कारण नदी घाटी के इस भाग में विभिन्न भू-आकृतियों की रचना होती है। जलोढ़ पंख, विसर्पण, छाड़न झील, तटबांध, वेदिका, बाढ़ के मैदान एवं नदी की चौड़ी घाटी इन भागों के प्रमुख भू-आकार हैं।
जलोढ़ पंख Alluvial Fan– नदी पर्वतीय भाग छोड़कर मैदान में प्रवेश करती है तो ढाल में कमी के कारण उसका प्रवाह वेग मन्द हो जाता है। मन्द प्रवाह से नदी की परिवहन शक्ति क्षीण होने लगती है। फलस्वरूप नदी द्वारा परिवहित, बालू, वजरी, मिट्टी एवं शिलाखण्ड शंकु के आकार के टीले के रूप में जमा हो जाते हैं, तो उनकी आकृति पंखे के समान लगती है। कैलीफोर्निया की मध्य घाटी का दक्षिण-पूर्वी मैदान, मध्य एंडीज के पूर्व का मैदान, पश्चिमी हिमालय के दक्षिण और उत्तर-पश्चिम में बना भारत का भावर का मैदान (तराई क्षेत्र) इसके अच्छे उदाहरण हैं। जब यह क्रिया लघु पैमाने पर होती है तो उसे जलोढ़ शंकु कहते हैं।
विसर्पण Meandering– नदी मैदानी भाग में ढाल कम होने के कारण मन्द गति से बहती है, लेकिन यहां जल आयतन अधिक होता है। वहता हुआ जल अपने उत्तल किनारे (Convex shore) में जमाव तथा अवतल किनारे ( Concave Shore) में कटाव करता है। यह क्रिया सर्वव्यापी तथा सदैव होती है जिससे नदी का मार्ग सीधा न होकर टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता है। नदी के इस प्रकार के प्रवाह को विसर्पण कहते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में ये विसर्पण कम विकसित होते हैं, परन्तु बाद में ज्यों-ज्यों घाटी चौड़ी होती जाती है, विसर्पण जटिल होते जाते हैं। बाढ़ के मैदानों में ये विसर्पण अधिक होते हैं। इस प्रकार के विसर्पण निचली मिसिसिपी, नील, ह्वांगहो और यांग्टिसिक्यांग नदियों में अधिक पाए जाते हैं।
गोखुर या छाड़न झील Ox-Bow Lake- मैदानी भाग में विसर्पण के कारण जलधारा नदी के अवतल किनारे से बड़े वेग से टकराती है। इससे वहां के मोड़ बढ़ते जाते हैं। जलधारा अवतल किनारे के कटे हुए पदार्थों को उत्तल (Convex) किनारे पर जमा करती है। इस प्रकार निरन्तर अवतल किनारे पर अपरदन और उत्तल किनारे पर निक्षेप से विसर्पण इतना बढ़ जाता है कि नदी की आकृति बिल्कुल वृत्ताकार हो जाती है। इसी अवस्था में नदी वाढ़ के समय कभी-कभी अपने मार्ग को छोड़कर मोड़ के निकट वाले भाग को काटकर सीधा मार्ग अपना लेती है। अतः नदी द्वारा छोड़ा हुआ मोड़दार भाग बाद में झील बन जाता है। ऐसी झील को ही गोखुर या छाड़न झील कहा जाता है। निचली मिसीसिपी के बाढ़कृत मैदान और डेल्टा प्रदेश में अनेक छाड़न झीलें मिलती हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में गण्डक, कोसी तथा घाघरा नदियों में भी अनेक गोखुर झीलें मिलती हैं।
तट-बाँध Levees- भारी वर्षा के उपरान्त नदी की मध्यवर्ती घाटी में प्रायः बाढ़े आ जाती हैं। इस समय नदी में भार की मात्रा अधिक होती है, किन्तु प्रवाह वेग के कम होने से वह अपने भार पदार्थ (बजरी, बालू, मिट्टी, आदि) को किनारों पर जमा कर देती है। इस प्रकार निक्षेपण से धीरे-धीरे नदी के किनारे बाढ़ के मैदान के साधारण तल से ऊँचे हो जाते हैं। नदी के इन ऊँचे तटों को ही तट-बाँध कहा जाता है। निचली मिसीसिपी, यांग्टिसिक्यांग, नील नदी तथा ह्वांगहो नदियों में ऐसे तटबाँध देखे जा सकते हैं। साधारणतः ये तटबाँध नदी के बाढ़ के जल को तट से बाहर फैलने से रोकते हैं, परन्तु कभीकभी दाढ़ से तटबांध टूट जाते हैं जिससे समीपवर्ती क्षेत्र में बाढ़ आ जाती है और धन-जन की अपार क्षति होती है। इन्हें रोकने के लिए एवं निचले क्षेत्रों को सुरक्षित करने के लिए प्राकृतिक तटबन्धों पर और ऊँचे तटबन्ध बनाकर नदी का बहाव मार्ग पूरी तरह निश्चित किया जाता है। चीन की झांगहो एवं भारत कोसी नदी के दोनों तट पर दूर-दूर तक ऐसे ही ऊँचे तटबन्ध, वाढ़ से सदा के लिए सुरक्षा हेतु बनाए गए हैं।
बाढ़कृत मैदान Flood Plain– मैदानी भाग में भूमि समतल होती है। अत: नदी में जब वाढ़ आ जाती है तो बाढ़ का जल नदी के समीपवर्ती समतल प्रायः भाग में फैल जाता है। इस जल में बालू एवं मिट्टी मिली हुई रहती है। बाढ़ के हटने के बाद यह मिट्टी वहीं जमा हो जाती है। मिट्टी के निक्षेपण से सम्पूर्ण मैदान समतल और लहरदार प्रतीत होता है। ऐसे मैदानों को बाढ़कृत मैदान कहा जाता है। नदियों द्वारा लाई हुई बारीक मिट्टी के मैदान मिट्टी के मैदान कहलाते हैं। उत्तरी भारत का उपजाऊ मैदान इसका उत्कृष्ट उदाहरण है जो गंगा-यमुना तथा इनकी सहायक नदियों से निर्मित हुआ है।
डेल्टाई भाग या वृद्धावस्था Delta Stage or Old Stage- यह नदी की अन्तिम अवस्था होती है। इस भाग में भूमि का ढाल अत्यन्त मन्द होता है। अतः यहां नदी का प्रवाह बहुत ही धीमा पड़ जाता है। यहां नदी में भार की मात्रा यद्यपि बहुत कम रहती है, किन्तु गति बहुत ही मन्द होने से यह कम भार भी अधिक ही होता है। इसको नदी की शक्तिहीन धारा ले जाने में असमर्थ होती है। इसलिए नदी जहाँ-तहाँ अपने अवसाद छोड़ती चलती है। अत: निक्षेपण ही इस भाग की प्रमुख क्रिया होती है। इस भाग में तलहटी को गहरा करने का कार्य प्राय: समाप्त हो जाता है। परन्तु नदी अपने किनारों को कुछ सीमा तक काटती रहती है। फलस्वरूप इस भाग में घाटी बहुत चौड़ी हो जाती है, क्योंकि नदी के डेल्टा का तल आधार तल प्राप्त कर चुका होता है।
इस भाग में भूमि के मन्द ढाल और धारा की मन्द गति के कारण नदी जल में मिली हुई मिट्टी नदी के तल में जमा होने लगती है। धीरे-धीरे धारा के मार्ग में इतनी अधिक बालू और मिट्टी जमा हो जाती है कि धारा का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। ऐसी अवस्था में नदी कई शाखाओं में बँट जाती है। इन धाराओं के बीच में त्रिभुज के आकार का स्थलखण्ड बन जाता है, जिसको डेल्टा कहा जाता है। बाढ़ के समय की मिट्टी के निक्षेपण से डेल्टा का विस्तार होता जाता है। इस प्रकार डेल्टाई प्रदेश में अत्यन्त उपजाऊ मैदानों की रचना होती है। नील, नाइजर, मीनाम, मीकांग, इरावदी, यांग्टिसिक्यांग, ह्वांगहो, मिसीसिपी, यूकन, ओरीनिको, सिन्धु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, वोल्गा, रोन, पी, डैन्यूब तथा मैकेंजी नदियों के डेल्टे विश्व प्रसिद्ध हैं।
भूमिगत जल का कार्य The Work of The Underground Water
भूतल के ऊपर और उसके नीचे प्राप्त जल राशि वर्षा की ही देन है। जब भूमि पर वर्षा होती है तो उसका कुछ अंश वाष्प बनकर उड़ जाता है, कुछ बहकर नष्ट हो जाता है और कुछ भूमि द्वारा सीख लिया जाता है। अतः वर्षा जल का वह भ्रंश, जो भूमि द्वारा सोख लिया जाता है, भूमिगत जल कहलाता है। दूसरे शब्दों में, वह जल जो धरातल के नीचे मिट्टी और आधार शैलों में पाया जाता है, भूमिगत जल कहलाता है। अनुमान लगाया गया है कि भूमि के नीचे जल इतनी मात्रा में उपलब्ध है कि यदि इसे धरातल पर फैलाया जा सके तो वह 1,000 मीटर की गहराई तक भर जाएगा।
भूमिगत जल के स्रोत Sources of Underground Water
भूमिगत जल, जो कि भूमि की निचली सतहों में पाया जाता है, के निम्नलिखित प्रमुख स्रोत हैं-
- वर्षा का जल जो कि जमीन द्वारा सीखने के बाद संतृप्त क्षेत्र में इकट्ठा होता है जिसे कुओं तथा नलकूपों से बाहर निकाला जाता है।
- नदियों, जलाशयों, झीलों, तालाबों आदि का पानी सतह तथा तली से रिसकर भूमि के अन्दर जाकर एकत्र होता है।
- हिमनदियों के पिघलने से परतदार चट्टानों की सन्धियों से होकर पानी चूना क्षेत्रों में रासायनिक क्रिया करके अपरदन कार्य करता है।
- भूमि के अन्दर की कन्दराओं, अन्धी घाटियों तथा संचय स्थानों पर समीपवर्ती स्रोतों का पानी निरन्तर पहुँचता रहता है।
भूमिगत जल को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting Underground water
यद्यपि भूमि के नीचे जल का प्रचुर भण्डार पाया जाता है, परन्तु प्रत्येक स्थान पर आन्तरभौम जल की राशि भिन्न होती है। वर्षा के उपरान्त जो जल अन्तःस्त्रवण (Percolation) द्वारा भूमि में पहुँचता है उसकी मात्रा सर्वत्र एक सी नहीं होती। इसके मुख्य कारण हैं-
- उच्चावच का प्रकार पर्वतीय, पठारी, मैदानी या तटीय, आदि
- भूमि का ढाल
- वर्षा की मात्रा और तीव्रता
- शैलों की सरन्ध्रता
- मिट्टी में जल की उपस्थिति
- वनस्पति की मात्रा
- वायु की नमी
- अधोभूमि जल की गति
- चट्टानों में चूने की मात्रा या चट्टानों की रासायनिक संरचना
भूमिगत जल–तल Underground Water Level
भूपटल के नीचे कुछ गहराई के उपरान्त सभी शैलरन्ध्र (Rock Pores) जल से संतृप्त (Saturated) रहते हैं। भूमि में इस संतृप्तता की ऊपरी सीमा को ही भूमिगत जल-तल अथवा संतृप्तता का तल (Level of saturation) कहा जाता है। प्रो. सेलिसबरी के अनुसार, “किसी प्रदेश की अधोभूमि का वह तल, जिसके नीचे शैलें जल से ओत-प्रोत रहती हैं, उस प्रदेश का भूमिगत जल-तल कहलाता है। भूमि में इस जल-तल की कोई समतल रेखा नहीं पायी जाती। सामान्यतः जलरेखा धरातलीय बनावट का अनुसरण करती है। पहाड़ियों के नीचे जल-रेखा मेहराबनुमा (Dome-shaped) और घाटियों में यह नीचे झुकी हुई रहती है। वस्तुतः इसका विस्तार कहीं भी एकसा नहीं होता। वर्षा काल में जल रेखा ऊँची उठ जाती है और शुष्क ऋतु में नीचे हो जाती है।
यदि धरातल के ऊपरी भाग से नीचे की ओर जाया जाए तो संतृप्तता की दृष्टि से निम्नांकित तीन भाग मिलेंगे-
असंतृप्त क्षेत्र Zone of Non-saturation- यह क्षेत्र कभी भी जल से भरा नहीं रहता। इस क्षेत्र में होकर जल रन्ध्रों द्वारा निचले धरातल को चला जाता है। यहां भूमि जल का कुछ भ्रंश रोक लेती है जो पौधों की जड़ों के उपयोग में आता है।
सामायिक संतृप्त क्षेत्र Zone of Intermittent Saturation- जल तल की ऊपरी सीमा रहती है। लम्वी वर्षा ऋतु के बाद यह सम्पूर्ण भाग संतृप्त हो जाता है, किन्तु शुष्क ऋतु में जलतल की रेखा यहां से नीचे खिसक जाती है।
स्थायी संतृप्त क्षेत्र Zone of Permanent saturation- यह भूमिगत जल-तल का सबसे नीचा तल है। यह क्षेत्र सदैव जल से ओत-प्रोत रहता है। जहाँ कहीं स्थायी संतृप्त तल भूमि तल से ऊपर आ जाता है तो निस्यन्दन (seepage), झीलें और नदियों का आविर्भाव होता है।
भूमिगत जल के स्वरूप Forms of Underground Water
कुएँ Wells- स्थाई जल तल या जल मंच (water table) की गहराई तक खोदे गए छिद्र को कुआँ कहते हैं। इस प्रकार कुओं का सम्बन्ध सदैव भूमिगत जल तल से रहता है। अत: कहीं भी कुएँ खोदने में जल तल की स्थिति ही मुख्य बात होती है। जब भूमि में समाने वाला जल कुछ ही गहराई पर अन्ध चट्टान के जाने से वहीं ठहर जाता है, ऐसे स्थान पर कुएँ खोदने पर कुछ ही गहराई पर जल प्राप्त होने लगेगा, किन्तु ऐसे कुएँ स्थायी नहीं होते, क्योंकि इनका सम्बन्ध भूमिगत जल तल से नहीं होते। ये छिछले एवं शुष्क कुँए होते हैं।
पाताल तोड़ कुएं Artesian Wells- ये विशेष प्रकार के कुएँ होते हैं जो सर्वप्रथम यूरोप के फ्रांसीसी प्रदेश आर्टोस में खोदे गए थे। तभी इस प्रकार के कुओं को आर्टीजन कुएँ (Artesian ) कहा जाने लगा। जब दो अपारगम्य (अभेद्य) शैलों के बीच में पारगम्य (भेद्य) शैलें होती हैं और पारगम्य (भेद्य) शैल के क्षेत्र से बाहर निकले भाग वर्षा के जल को प्राप्त करते हैं और वहाँ वह जल एकत्रित हो जाता है और जल दबाव बढ़ने के कारण यह स्वतः ही तेजी से बाहर निकलने लगता है। ये कुएँ सामान्यतः 150 से 300 मीटर गहरे होते हैं। इनकी उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित दशाएँ होना आवश्यक है-
- ऊपरी परतें सरन्ध्र शैलों से सुसज्जित होनी चाहिए जिससे धरातल का जल रिसकर निचले स्तरों में प्रवेश कर सके
- शैल की अभिनति वर्षा मध्य की ओर होना आवश्यक है जिससे केन्द्रीय क्षेत्र में दबाव की प्रचुरता रहे।
- जल संग्रहालय का नितल सरन्ध्र शैलो का होना चाहिए, जिससे जल उस पर रुका रह सके।
- वर्षा पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए जिससे जल स्तर ऊँचा रह सके।
इस प्रकार के कुएं मुख्यतः आस्ट्रेलिया में कारपेण्ट्रिया के मैदान (उ.आस्ट्रेलिया), क्वीन्सलैण्ड, न्यूसाउथवेल्स और दक्षिणी आस्ट्रेलिया में बनाए गए हैं। ये लन्दन बेसिन, सहारा, फ्रांस, लीबिया, भारत में तराई तथा गुजरात में और संयुक्त राज्य अमरीका में दक्षिणी डकोटा में पाए जाते हैं। आस्ट्रेलिया में विश्व का सबसे बड़ा आर्टीजन बेसिन है, जिसका क्षेत्रफल लगभग 13 लाख वर्ग किलोमीटर है, इस क्षेत्र में 10 हजार से भी अधिक पाताल तोड़ कुएं पाए जाते हैं जिनसे बड़े भाग में सिंचाई की जाती है।
सोता Springs– पृथ्वी के धरातल पर बहने वाले भूमिगत जल का प्राकृतिक प्रवाह सोता कहलाता है। यह धरातल के नीचे से बड़े वेग से फूट सकता है या धीरे-धीरे निकल कर फैलता है। सोतों की उत्पत्ति किसी क्षेत्र की शैलों के स्वभाव और पारस्परिक सम्वन्ध पर निर्भर करती है। जल-मंच जिस स्थान पर पृथ्वी के ऊपरी धरातल तक आ जाती है वहीँ इन सोतों का जन्म हो जाता है। पर्वतीय भागों में यदि अरन्ध्र शैलें सरन्ध्र शैलों के ऊपर बिछी हो तो उनके धरातलीय मिलन बिंदु पर सोता उत्पन्न हो सकता है। ये सोते मीठे या खरी जल के होते हैं। उत्तरांचल में देहरादून के समीप, सहस्त्रधारा में इस प्रकार के अत्यधिक स्रोत हैं। इनमें से कुछ में गन्धक युक्त गर्म पानी निकलता है। यह स्थान पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है।
चूनायुक्त या कार्स्ट प्रदेशों में भूमिगत जल के अपरदन की भू-आकृतियाँ Topography due to Erosional Work in Karst Region
भूमिगत जल अपेक्षतया उष्ण रहता है एवं उसकी गति बहुत धीमी होती है अतः ऐसे जल में अधिकतर पदार्थों को घुला देने की शक्ति है। कार्बनयुक्त जल चूने की शैलों, खड़िया और सेलखड़ी पर शीघ्र प्रभाव डालता है, जब कभी जल चूने की शैलों अथवा खड़िया प्रदेश से होकर बहता है तो उन शैलों के निर्माणक तत्वों को बड़ी मात्रा में घोलकर अपने अन्दर मिला लेता है। इस क्रिया के फलस्वरूप चूने अथवा खड़िया प्रदेशों में विशेष स्थलाकृतियां बन जाती हैं। उन्हें कार्स्ट भू-रचना कहा जाता है क्योंकि ऐसी अनेक भू-आकृतियाँ, गहरी कन्दराएं, परस्पर जुड़ी दीर्घाएँ, विशाल कक्ष, भूमिगत नदियाँ, आदि यूरोप के एड्रियाटिक सागर के पूर्वी तट के सहारे यूगोस्लाविया में 480 किलोमीटर लम्बे और 80 किमी. चौड़े प्रदेश में पायी जाती हैं, यह प्रदेश कार्स्ट प्रदेश कहलाता है, इसी के कारण विश्व में जहां कहीं इस प्रकार की आकृतियाँ मिलती हैं उन्हें कार्स्ट प्रदेश कहा जाता है। इसके अपरदन से निम्नलिखित स्थलाकृतियाँ बनती हैं-
घोल रन्ध्र Sink or Solution Holes- चूने की चट्टानों वाले प्रदेशों में ऊपरी सतह पर जब वर्षा का जल आता है तो कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के साथ मिलकर सक्रिय घोलक बन जाता है। चट्टानों की संधियों में जल घुलकर उसके घुलनशील तत्वों को घुलाकर निकाल लेता है। इस घुलन क्रिया के कारण सन्धियों का विस्तार हो जाने से असंख्य छिद्रों (Holes) का विकास हो जाता है। इन छोटे-छोटे छिद्रों को घोल रन्ध्र (Sink Holes) कहते है। विस्तृत छिद्रों को डोलाइन (Doline) कहते हैं।
अवकूट या लैपीज Lappies– जब चूनायुक्त शैलों पर जल पड़ने से खड़ी सन्धियों पर विलयन क्रिया तेजी से होने लगती है तो चूना घुल जाने से वहां गड्ढे बन जाते हैं, जिनकी दीवारें सीधी होती हैं। ऐसी रचनाएं एक-दूसरे के समानान्तर दिखायी पड़ती हैं। इन्हें अवकूट (Lappies) कहा जाता है। जब ये घोल छिद्र चौड़े हो जाते हैं, सर्बिया में इन्हें डोलिनास (Dolinas) कहा जाता है।
सकुण्ड Uvalas- जब कुण्डों से धरातल का सम्पूर्ण जल भीतरी क्षेत्र तक पहुँच जाता है जिससे धरातलीय जलप्रवाह की व्यवस्था लुप्त हो जाती है तथा उनके स्थान पर भूमिगत जलप्रवाह की व्यवस्था विकसित होने लगती है। जब अनेक कुण्ड टूट-टूटकर मिलने लग जाते हैं तो उससे एक विस्तृत गर्त या निम्नन (Depression) बनता है जिसे वृहद कुण्ड (Uvalas) कहते हैं।
राजकुण्ड Polje- जब कई यूवाला मिल जाते हैं तो अत्यन्त विशाल खाइयाँ बन जाती हैं। इन विस्तृत खाइयों को राजकुण्ड (Poljes) कहते हैं। इसकी तली या फर्श समतल तथा दीवारें खड़ी होती हैं। इनका निर्माण चूना पत्थर शैल वाले क्षेत्र में नीचे की ओर अंशित (Down Faulted) तथा अव-वलित (Down Folded ) भागों में घुलन क्रिया द्वारा परिवर्तनों के फलस्वरूप होता है। ये विशालाकार कुण्ड कई वर्ग किलोमीटर में फैले होते हैं। पश्चिमी बालकन क्षेत्र (यूरोप) का सबसे बड़ा पोलिये ‘लिवनो पोल्जी’ (Livno Polje ) है जिसकी लम्बाई 64 किलोमीटर तथा चौड़ाई 5-11 किलोमीटर तक है।
कन्दरा या गुफा Caves or Caverns- भूमिगत जल द्वारा निर्मित कन्दराएँ घुलन क्रिया तथा अपघर्षण (solution and Corrasion) से होती है। सर्वप्रथम घुलन क्रिया द्वारा सिंक होल्स तथा गर्त बनते हैं। इन गतों की छतें यदि घुलनशील शैलों से बनी हुई हों तो ये शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं, किन्तु यदि छत की शैलें कठोर और मोटी हों तो ये स्थायी रूप से बनी रहती हैं। धरातल के नीचे लम्बेचौड़े खोखले भाग बन जाते हैं जिन्हें कन्दरा या गुफाएँ (Caverns) कहते हैं। चूने के प्रदेश में ऐसी कन्दराएँ 12 से 15 किलोमीटर लम्बी और 3 से 5 किलोमीटर चौड़ी मिलती हैं। एड्रियाटिक तट पर दिनारिक आल्पस में ऐसी गुफाएं आदर्श दशा में पाई जाती हैं।
प्राकृतिक पुल Natural Bridges– भूमिगत जल की घुलन क्रिया के कारण विस्तृत कन्दराएँ बनती हैं जब इन कन्दराओं की छत नीचे धंस जाती है और कुछ अपने ही स्थान पर स्थिर रहती है, तो इन में प्राकृतिक पुल (Natural Bridges) बन जाते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका के यूटाह राज्य का पुल इसका अच्छा उदाहरण है।
विलय रन्ध्र Swallow Holes– जल की प्रक्रिया के कारण भूमि के अन्दर अदृश्य रूप से शैलों के परत साफ हो जाते हैं और भूमि के ऊपर बने गर्त भी बहुत बड़ा रूप ले लेते हैं। ऐसे गतों में वर्षा का जल भर जाता है और बड़ी तेजी से विलीन हो जाता है। इन गर्तों को विलय रन्ध्र (Swallow holes) कहा जाता है।
अन्धी घाटी Blind Valley– जब विलय रन्ध्र (Swallow Holes) नदी के प्रवाह मार्ग के बीच में आ जाते हैं, तो पूरी नदी ही उनमें गिरकर विलीन हो जाती है। ये विलुप्त जलधाराएँ बाद में पातालीय नदियों का रूप ले लेती हैं और अन्दर ही अन्दर बहती हुई सागर तक पहुँच जाती हैं। अतः शेष शुष्क घाटी को अन्धी घाटी (Blind valley) कहते हैं।
कार्स्ट झीलें Karst Lakes– चूने के प्रदेशों में अनेक कार्स्ट झीलों का निर्माण भी अपरदन के कारण होता है। फ्लोरिडा (संयुक्त राज्य अमरीका) में झलाभुआ झील उत्तम उदाहरण है। यह झील सन् 1871 में मात्र एक डोलाइन, जिसका अन्दर के छिद्र के बन्द हो जाने से 12 किलोमीटर लम्बी तथा 6 किमीं चौड़ी झील का निर्माण हो गया।
भूमिगत जल के निक्षेपात्मक स्थल रूप Depositional Landforms of Underground water
ग्रंथिकाएँ Nodules- चुना सिलिका, डोलोमाइट, लौह-ऑक्साइड आदि के जमाव से बने गोल कंकड़ ग्रंथिकाएँ कहलाते हैं।
जियोड Geode– गोल आकृतियाँ खोखली कोटरें (Hollow cavities) होती हैं जो 2 सेण्टीमीटर से 30 सेण्टीमीटर तक के व्यास की होती हैं।
गुफा में निक्षेपित भूस्वरूप Cave Deposits– इनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-
आश्चुताश्म या स्टैलैक्टाइट Stalactite– जब कन्दराओं की छत से जल रिसकर नीचे निरन्तर टपकता है तो छत से नीचे की ओर लम्ब पतले लटकते हुए निक्षेपण होता है। इन्हें स्टैलैक्टाइट कहते हैं।
निश्चुताश्म या स्टैलैग्माइट Stalagmite- कन्दरा की छत से जल सीधे नीचे टपकने पर इसकी फर्श पर निक्षेपण होता है। इनकी निरन्तर बढ़ती जाती है। यह नीचे मोटे तथा ऊपर नुकीले होते हैं। इन्हें स्टैलैग्माइट कहते हैं।
कन्दरा स्तम्भ Cave Pillars- जब निरंतर निक्षेपण के फलस्वरूप स्टैलैक्टाइट तथा स्टैलैग्माइट बढ़ते हुए फर्श तथा चाट से एक दूसरे से मिल जाते हैं तो स्तंभों की रचना होती है। सं राज्य अमेरिका की कार्ल्सवाद कन्दरा (न्यूमेक्सिको) में हजारों कन्दरा स्तम्भ देखे जा सकते हैं। छोटे पैमाने पर सहस्र धारा (देहरादून) तथा पोखरा (नेपाल) में भी उपर्युक्त भू-आकृतियाँ देखी जा सकती हैं।
विश्व के प्रमुख कार्स्ट क्षेत्र Karst Area od The World
यूगोस्लाविया के कार्स्ट प्रदेश में सर्वत्र चूने का पत्थर बिछा पाया जाता है। अतः इस जिले के चूने के प्रदेश में विकसित भू-दृश्य को कार्स्ट स्थलाकृति (Karst Topography) कहा जाता है। पृथ्वी के धरातल पर चूने की चट्टानें प्राय: सभी भागों में पायी जाती हैं। अतः कार्स्ट दृश्य विश्व के अनेक भागों में देखने को मिलते हैं, किन्तु इसका सबसे अधिक विकास भूतपूर्व यूगोस्लाविया में दिनारिक आल्पस क्षेत्र में ही पाया जाता है। इसके अतिरिक्त संयुक्त राज्य अमरीका में कैण्टकी, वर्जीनिया, मध्य टैनेसी और फ्लोरिडा यूरोप में जूरा, ऐपेनाइन्स, मध्य फ्रांस के चाकक्षेत्र, मैक्सिको में यूकाटन, एशिया में उत्तरी मलेशिया, नेपाल में पोखरा का क्षेत्र और भारत में कश्मीर, कांगड़ा की घाटी, शिवालिक पर्वतीय क्षेत्र (देहरादून, मसूरी का क्षेत्र), मध्य प्रदेश में भेड़ाघाट और आन्ध्र प्रदेश के कर्नूल जिले में भी ऐसे भू-आकार देखे जाते हैं।
हिमानी का कार्य Work Of Glaciers
शीत प्रधान प्रदेशों, ऊंचे अक्षांशों में स्थित क्षेत्रों अथवा समुद्रतट से अधिक ऊँचाई पर स्थित पहाड़ी प्रदेशों में वर्षा प्रायः हिम के रूप में होती है। शीतकाल में पड़ी हिम ग्रीष्म ऋतु में भी नहीं पिघल पाती। अतः प्रतिवर्ष हिमराशि में निरन्तर वृद्धि होती जाती है और इन प्रदेशों में वर्ष भर हिम जमा रहता है और वहां हिम क्षेत्र (Snow fields) बनते जाते हैं। प्रो. सेलिसबरी और चेम्बरलेन (Chamberlain) के अनुसार, “भूमण्डल के अवशिष्ट ऐसे हिमक्षेत्रों में लगभग 41 लाख घन किलोमीटर हिम संचित है। यदि वह समस्त राशि पिघलने लगे तो समुद्र का तल वर्तमान से 27 मीटर ऊँचा उठ जाएगा।” अभी भी ग्रीनलैण्ड का 16 लाख वर्ग किलोमीटर और अण्टार्कटिका महाद्वीप का लगभग 130 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र सैकड़ों मीटर मोटे हिम आवरण से ढका है।
हिम रेखा Snow Line
हिम आवरण वाले क्षेत्र में जिस उंचाई पर सदा हिम जमा रहता है उसे उसकी हिम रेखा कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु में भी हिम रेखा की ऊँचाई भिन्न-भिन्न होती है। भूमध्य रेखा पर एण्डीज पर यह 5,500 मीटर, हिमालय में 4,300 से 4,500 मीटर, पिरेनीज पर 2,000 मीटर, आल्पस 3,000 मीटर की ऊँचाई पर हिम रेखा पायी जाती है। ध्रुव प्रदेशों में तो यह समुद्रतट पर ही है।
हिमनद या हिमनदी Glacier
स्थाई हिम क्षेत्रों से बर्फ की मोटी चादर का भार, ढाल के प्रभाव एवं गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रभाव से ढाल की ओर खिसकने लगता है। इसी खिसकते हुए हिम खण्ड को हिमानी या हिमनदी कहते हैं। हिमानी बहुत धीमी गति से खिसकती है। सामान्यतः इनकी प्रतिदिन 2.5 सेण्टीमीटर से लेकर 30 सेण्टीमीटर तक की होती है। शीत ऋतु की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में इनकी गति तेज होती है तथा मध्य में इसकी गति किनारों की अपेक्षा अधिक होती है।
जब हिमानी हिम रेखा को पार कर नीचे की ओर उतरती है तो तापमान में वृद्धि होने से यह पिघलने लगती है। इसी को हिमानी का अन्त कहा जाता है।
हिमानियों के प्रकार Types Glaciers
अलमैन (Ahlmann) ने हिमनदी को निम्नलिखित तीन प्रकार का बताया है-
- घाटी हिमानी Valley Glaciers
- पर्वतपदीय हिमानी Piedmont Glacier
- महाद्वीपीय हिमानी Continental Glacier
घाटी हिमानी- ऊँचे पर्वतों पर जमा हुआ हिम जब निचले ढालों की ओर बहने लगता है उसे पर्वतीय हिमानी कहते हैं। पर्वतीय ढालों से खिसककर हिमानी घाटियों से होकर बहती है, अतः इन्हें घाटी वाली हिमानी (Valley Glacier) अथवा अल्पाइन हिमानी भी कहते हैं। पर्वतीय हिमानियों का आकार घाटी के अनुरूप रहता है। इसकी लम्बाई 1-2 किलोमीटर से लेकर 80 किलोमीटर होती है।
पर्वतपदीय हिमानी- किसी पर्वतीय क्षेत्र से जब कई हिमानियां पर्वत की तलहटी पर आकर एक-दूसरे से मिल जाती हैं तो उससे विशाल हिमानी का जन्म होता है। ऐसी हिमनदी को पर्वतपदीय हिमानी कहते हैं। ऐसी हिमानियाँ प्रायः शीतप्रधान प्रदेशों में मिलती हैं। इनकी गति मन्द होती है। अलास्का में मैलास्पिना हिमानी इसका अच्छा उदाहरण है। यह हिमानी 3,800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में विस्तृत है।
महादीपीय हिमानी- जब किसी विस्तृत प्रदेश में इतनी हिम वर्षा होती है कि ग्रीष्म ऋतु में भी हिम नहीं पिघल पाती तो सम्पूर्ण प्रदेश हिमाच्छादित हो जाता है। ऐसी दशा में वहाँ अलग-अलग घाटियों में बहने वाली हिमानियों का अस्तित्व नष्ट हो जाता है। उसके स्थान पर वहां का समस्त क्षेत्र एक विशाल हिमानी के रूप में होता है। ग्रीनलैण्ड की हिमानी 18,00,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर विस्तृत है। प्लीस्टोसीन हिम युग में आज से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व उत्तरी अमरीका के उत्तरी भाग में एवं उतर-पश्चिमी यूरोप में गतिशील महाद्वीपीय हिमानियों का विस्तार था।
हिमानी अपरदन का कार्य Erosional Work of Glacier
हिमानी मुख्यतः दो प्रकार के अपरदनकार्य करती है 1) शैलों के उत्खनन द्वारा (by plucking), एवं 2) शिलाओं के घर्षण द्वारा।
जव हिमानी की तली में बर्फ चट्टानी सन्धियों में जम जाती है तो वह शैलों को बड़े-बड़े टुकड़ों में तोड़ देती है, जो हिम प्रवाह से आगे खिसका दिए जाते हैं। उत्पाटन (Plucking) की इस क्रिया में उपरी हिम का लम्ववत् दवाव तथा हिमानी की प्रवाह दिशा में प्रवाह दबाव (flow pressure) का हाथ होता है। इस दबाव से चट्टानों में खिंचाव उत्पन्न होता है जिससे उनकी सन्धियाँ चौड़ी हो जाती हैं। हिम के पिघलने से जल सन्धियों में भर जाता है और चट्टानों को तोड़कर खोखला करता रहता है। धीरे-धीरे इस क्षय क्रिया से चट्टान का खोखला स्थान झील में परिणत हो जाता है। हिम के जमने और पिघलने से होने वाली इस अपरदन क्रिया को नीवेशन (Nivation) कहा जाता है।
हिमानी का अधिकांश अपरदन कार्य घर्षण क्रिया द्वारा होता है। घर्षण का कार्य अकेले हिम द्वारा ही नहीं हो सकता। यह कार्य हिम में जमे हुए शिलाखण्डों एवं चट्टानी पदार्थों के द्वारा होता है। हिमानी की तली में उत्खनन से प्राप्त छोटे-बड़े शिलाखण्ड हिम के साथ खिसकते जाते हैं। हिम अवधार (Avalanche), भू-स्खलन और अपक्षय के कारण भी बड़ी मात्रा में चट्टानी पदार्थ हिम घाटी के पाश्वों से आकर हिमानी में मिलते रहते हैं। हिमानी के साथ मिले हुए ये विभिन्न आकार-प्रकार के चट्टानी पदार्थ जब आगे बढ़ते हैं तो घाटी की तली एवं उसके किनारों को घिसते रहते हैं। इस कार्य में हिम से पिघलता हुआ जल भी बड़ी सहायता करता है। हिमानी की रगड़ से उसकी तलहटी की चट्टानों पर खरोंचे बन जाती हैं और घाटी तल सपाट, चमकीला तथा चिकना हो जाता है। घाटी के तल में घिसने से हिमानी शिलाखण्ड भी निरन्तर रगड़ खाने से पतले, चिकने और गोल हो जाते हैं।
हिमानी का अपरदन कार्य निम्न बातों पर निर्भर करता है : i) हिमानी की मोटाई, ii) हिमानी में पड़े शिलाखण्ड, iii) हिमानी का वेग, और iv) हिमानी की सतह के हिमोढ़ मोरेन।
हिमानी के अपरदन कार्य द्वारा निर्मित भू-आकार Landforms Caused by Erosional work of Glacier
हिमानी के अपरदन कार्य से बनने वाले प्रमुख भू-आकार निम्नलिखित हैं-
मेष शिला या भेड़ पीठ शैल Sheep Rocks- हिमानी की क्षयात्मक प्रक्रिया प्रणाली मुख्यतः शिलाखण्डों और शैलों को घिसने तथा उन्हें उखाड़कर अलग कर देने या दूर हटा देने की है। तली में जमे हुए रोड़े, कंकड़, पत्थर शैलों को रगड़ते तो हैं ही, साथ ही उन्हें खोखला तथा कहीं-कहीं घिसकर चमकाते भी जाते हैं। मार्ग की समतल और ऊबड़खाबड़ सभी शैलें इनकी रगड़ से घिसकर चिकनी हो जाती हैं। इस प्रकार से धिसी हुई शैलों का रूप विचित्र हो जाता है, जिन्हें फ्रेंच भाषा में सुमार्जित टीला या मेष टीला (Roches moutonnees) कहते हैं। इनका आकार भेड़ों की पीठ की तरह होता है। इनके पिछले किनारों का ढाल मन्द और अगले किनारों का तेज होता है। अगला भाग किनारे पर टूटफूट होने के कारण सीढ़ीनुमा आकृति वाला हो जाता है।
U- आकार और लटकती घाटियाँ U–shaped and Hanging Valleys- हिमानी द्वारा घाटियों की रचना नहीं होती, परन्तु पुरानी घाटियों का रूप परिवर्तन अवश्य होता है। ज्यों-ज्यों हिमानी घाटी में आगे बढ़ती है त्योंत्यों शैलें घिसती जाती हैं और शैल बाहुओं के अग्र भाग एवं तीव्र धारें घिस-घिसकर चिकनी और सीधी हो जाती हैं। V-आकार की घाटियाँ (जो जलधारा की प्रक्रिया से बनी थीं) U-आकार में बदल जाती हैं। इन्हें U- आकार की घाटी कहते हैं। इनमें हिमानी बिना रुकावट बहती रहती है। शैल बाहुओं के घिस जाने से उनके बीच की सहायक नदियों की घाटी का रूप भी बदल जाता है। इन सहायक नदियों की घाटियों के मुख हिमानी द्वारा घर्षण के फलस्वरूप घिसते और पीछे हटते जाते हैं, परन्तु इनमें बहने वाली नदी इतनी शीघ्रता से अपना नितल गहरा नहीं कर पाती। अत: धीरे-धीरे सहायक नदी के प्रवेश द्वारा ढाल नष्ट हो जाता है और नदी को ऊँचाई से एकदम मुख्य घाटी में गिरना पड़ता है। जब हिमानी नष्ट हो जाती है तब उन लटकती हुई नदियों का जल झरने के रूप में बहता है। इस प्रकार की घाटियों को लटकती हुई घाटियाँ कहते हैं। इस प्रकार घाटियां स्विट्जरलैण्ड, नावें और अलास्का में पायी जाती हैं।
हिमज गह्वर या सर्क Cirque- जिस स्थान से हिमानी प्रारम्भ होता है, उसे सर्क या हिमज गह्वर कहते हैं। यह दैत्याकार कुर्सी की भाँति या रोमन (Amphitheatre Like ) होते हैं। इनका क्षेत्रफल कई वर्ग किमी में फैला हुआ है। निरन्तर पर्वतों के ढालों पर हिम व जल के अपक्षय के प्रभाव से ऐसे गड़े विकसित होते जाते हैं। अतः यहाँ का छोटा सा गर्त भविष्य में विशाल हिमखड्ड का रूप धारण कर लेता है। बाद में यहाँ टार्न झील (Tarn Lake) भी बन जाती है। इस प्रकार बनी झीलों को पिरेनीज में ओली (Ouli), स्कैण्डेनेविया में कैसेल (Classel), जर्मनी में कारेन (karren), कारपेथियन में जनोगा(Zanoga) और कैल्डर (Calder), आदि कहते हैं।
दर्रा या कोल Col- जब किसी पर्वत श्रेणी के दोनों किनारों पर सर्क का विकास होता है तो धीरे-धीरे उनके चौड़ा होने से बीच की पर्वत श्रेणी का ह्रास होने लगता है। यदि दोनों सर्क एक ही ऊँचाई तथा धरातल पर होते हैं तो बीच की पर्वतीय उच्च भूमि एक काठी के रूप में उठी रहती है। इस भौतिक रूप को कोल (Col) कहते हैं। कई स्थानों पर इनका दरों जैसा प्रयोग किया जाता है।
नूनाटक Nunatak– विशाल हिमक्षेत्र या महाद्वीपीय हिमानी के मध्य में जो ऊँचा-सा टीला दिखायी देता है, उसे नूनाटक (Nunatak) कहते हैं। घर्षण द्वारा यह टीला खण्डित हो जाता है। ग्रीनलैण्ड एवं अण्टार्कटिका के हिम क्षेत्रों में ऐसे टीले या नूनाटक मिलते हैं।
श्रृंग पुच्छ Crag and Tail- हिमचादरों के विस्तार करते हुए प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के शैलपुंज होते हैं, जिनमे किसी आगे की ओर बढती हुई हिमचादर के मार्ग में यदि कोई शैलपुन्ज इस प्रकार व्यवस्थित होता है कि वह अपने प्रति पवन दिशा (Leeward) में स्थित अधिक कोमल शैलों को अपरदित होने से बचा देता है। तब यहां धीमी ढाल का शैल पुंज बचा रहता है। इसमें रक्षा करने वाले अवशिष्ट शैल पुच्छ को श्रृंग (Crag) तथा धीमे ढाल वाले अवशिष्ट शैल को पुच्छ (Tail) कहते हैं।
रॉशमुटोने या भेड़ पीठ शैल Roche Moutonee– हिमानीकृत क्षेत्रों में हिम अपरदित शिलाएं हिमनदी के प्रवाह की दिशा दूर से देखने पर ऐसी दिखती हैं मानो मुलायम ऊन वाली भेड़े बैठी हैं। इन्हें रॉशमुटोने या भेड़ पीठ शैल कहते हैं। डी. सासर ने सन् 1804 में इन टीलों को रॉशमुटोने की संज्ञा प्रदान की थी। हिमनद जब आगे बढ़ता है तो उसके मार्ग में कभी-कभी कठोर चट्टानों के टीले पड़ जाते हैं, ये टीले हिमनद के अपघर्षण से चिकने व हल्के ढाल के हो जाते हैं और भेड़ पीठ शैल कहलाते हैं।
हिम शैल Iceberg– जब किसी प्रदेश का हिम आवरण या कोई हिम नदी बहती-बहती समुद्र तक पहुँच जाती है तो समुद्र की लहरों से टूटकर उसके कुछ भाग समुद्र में तैरते हैं। इस प्रकार तैरते हुए हिम के बड़े-बड़े टुकड़ों को हिम शैल कहते हैं। इन हिम शैलों के प्रधान स्रोत ग्रीनलैण्ड और अण्टार्कटिका हैं। अण्टार्कटिका के विशाल हिम शैल 64 किलोमीटर से भी अधिक लम्वे तथा 100 मीटर जल के ऊपर निकले रहते हैं, जबकि हिमशिलाओं का मात्र दसवाँ हिस्सा ही जल पर दिखायी देता है, अतः नौवहन में यह बहुत ही खतरनाक बाधाएँ मानी जाती हैं। ग्रीनलैण्ड के हिम शैल 2 से 3 किलोमीटर तक लम्वे एवं 10 से 30 किलोमीटर तक मोटे हो सकते हैं।
इसके आलावा आधारी खनन (Based Sapping), घूर्णी सर्पण (Rotational Slip), गिरिश्रृंग (Horn), अरेत (Arete or Serrate) ,फियोर्ड (Fiords), हिमनदीय सोपान (Glacial Stairways), झील माला (Peternoster Lakes) आदि भूस्वरूप भी बनते हैं।
हिमानियो के परिवहन तथा निक्षेपात्मक कार्य Transportational and Depositional Work of Glaciers
हिमनदी भी अन्य अपरदन के कारकों की तरह परिवहन कार्य करती है, लेकिन नदी और हिमनद के परिवहन में अन्तर मिलता है। नदी अपने साथ छोटे-बड़े टुकड़े बहाकर ले जाती है जबकि हिमनद में विशाल शिलाखण्ड साथ चलते हैं। जहाँ तापमान बढ़ता है वहाँ हिमनद का हिम पिघल जाता है और परिवहित पदार्थ वहीं निक्षेपित हो जाते हैं। निक्षेपण से निम्नलिखित प्रमुख भू-आकृतियाँ विकसित हो जाती हैं।
हिमोढ़ Moraines- जब हिमनदियाँ पर्वतों से खिसककर हिम-रेखा से नीचे उतरती हैं तो तापमान बढ़ जाने से वे पिघलती हैं और अपने साथ बहाए हुए अवसाद का निक्षेप कर देती हैं। यह निक्षेप विभिन्न आकार और रूप के होते हैं। इनको हिमोढ़ कहा जाता है। हिमनदी नदियों की भाँति अपने अवसाद की छंटनी नहीं करती अतः हिमनदियों द्वारा निक्षेपित हिमोढ़ में मिट्टी एवं बालू जैसे बारीक पदार्थ से लेकर कंकड़, पत्थर, रोड़े तथा बड़े शिलाखण्ड तक सम्मिलित रहते हैं। हिमोढ़ का निक्षेप घाटी के विभिन्न स्थानों पर होता है। अतः स्थान के अनुसार हिमोढ़ चार प्रकारों में विभक्त किए जा सकते हैं-
- पार्श्विक हिमोढ़ Lateral Moraines– जो कंकरीट, बजरी, गोलाशम, आदि हिमनदी द्वारा किनारों पार्श्वों में जमा की जाती है उसे पार्श्विक हिमोढ़ कहते हैं।
- तलस्थ हिमोढ़ Bottom Moraines– हिमानी शीघ्रता से पिघलने अथवा पीछे हटने लगती है तो त्नीट वह अपने द्वारा लाए गए अवसाद को घाटी तल पर विना किसी क्रम के जमा देती है इसे तलस्य हिमोड़ कहते हैं।
- मध्यस्थ हिमोढ़ Medial Moraines– दो हिमनदियाँ मिलती हैं तो मिलनस्थल पर अन्दर तक पदार्थ निक्षेपित हो जाते हैं उसे मध्यस्थ हिमोढ़ कहते हैं।
- अंतिम हिमोढ़ Terminal Moraines- हिमानी परिवहित पदार्थ अपने अन्तिम छोर पर अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में जमा देती है उन्हें अन्तिम हिमोढ़ कहते हैं।
वाह्यवाहित मैदान Outwash Plains– हिम के पिघलने से हिमानी के अन्तिम भाग में जल प्राप्त होता है। जल में विभिन्न शैलों के हिमानी द्वारा बहाए हुए टुकड़े मिल जाते हैं और उसका चूर्ण जल में मिल जाता है। यह मैदान में रेत, बजरी, आदि विभिन्न परतों के रूप में जमती है। ये जमाव प्रायः प्राचीन घाटियों में मिलते हैं। ऐसे दृश्य को वैली ट्रेन (Valley Train) कहते हैं। कभी-कभी इन मैदानों में गड्ढे (Kettle-pits) भी पाए जाते हैं, जिनमें जल भर जाने पर गड्ढेनुमा झीलें (Kettle-lakes) बन जाती हैं।
हिमोढ़ टीला या दीर्घ कूटिका Drumlins- पहाड़ियों के रूप में हिमानीकृत जमाव के ये विचित्र प्रकार के रूप होते हैं जो मुख्य रूप से भूमि हिमोढ़ द्वारा निर्मित होते हैं। ये विशिष्ट प्रकार की सीधी, गोल टीलों वाली पहाड़ियाँ होती हैं जिनका आधार दीर्घ वृत्ताकार होता है। एक उल्टी नाव के समान ही इनकी आकृति हो जाती है। ये प्रायः 15 से 60 मीटर तक उँची तथा से एक किलोमीटर तक लम्बी होती हैं।
मृदु कटक या एस्कर्स Askers- ये लम्बी, प्रायः घुमावदार, कम ऊँचाई की श्रेणियाँ होती हैं जो रेत तथा बजरी के जम जाने से बनती हैं। इनकी ऊँचाई 30 मीटर से अधिक नहीं होती। ये सँकरी होती हैं। आस्ट्रिया के दलदली भागों में यह ऊँचे मार्ग या पगडण्डी का काम देती हैं। इनकी लम्बाई कुछ किमी. तक होती है।
कंकत गिरी या केम Kames– ये अवसादी जमाव की पहाड़ियाँ होती हैं जिनकी ऊँचाई 15 से 45 मीटर के बीच होती है तथा शिखर गोल टीलों की भाँति होता है। ये पृथक-पृथक् पहाड़ियाँ या छोटे से समूह के रूप में पायी जाती हैं।
पवन के कार्य Work of Wind
पवन भी धरातल के अपरदन का एक महत्वपूर्ण साधन है। जिस प्रकार आर्द्र प्रदेशों में बहता जल एवं बफीले प्रदेशों में हिमानी प्रभावशाली कारक है, उसी भांति शुष्क प्रदेशों में पवन का कार्य भी बड़ा प्रभावशाली है। पवन के कार्य मुख्यतः अर्द्धशुष्क तथा मरुस्थलीय क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलते हैं।
भूस्थल के लगभग एक तिहाई भाग में मरुस्थलीय अथवा अर्द्धमरुस्थलीय दशाएँ पायी जाती हैं। इन भागों में वर्षा इतनी कम होती है कि वनस्पति का प्राय: अभाव पाया जाता है। यहाँ वर्षा का वार्षिक औसत वाष्पीकरण की क्षमता से कहीं कम रहता है। वस्तुतः मरुस्थल सीमित वर्षा के सीमित क्षेत्र हैं जो निम्नांकित दो समूहों में पाए जाते हैं-
- शुष्क प्रदेशों के अन्तर्गत एक वे भाग हैं, जो विषुवत् रेखा के दोनों ओर 15° से 30° अक्षांशों के मध्य महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में स्थायी पवनों के क्षेत्र में स्थित हैं। ये उष्ण मरुस्थल कहलाते हैं। इनका सर्वाधिक विस्तार उत्तर-पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, पश्चिमी भारत एवं पश्चिमी आस्ट्रेलिया में पाया जाता है। इसके अन्तर्गत लीबिया, सहारा, अरब, थार, विक्टोरिया, कालाहारी और आटाकामा के मरुस्थल आते हैं।
- शुष्क प्रदेशों का दूसरा समूह मध्य अक्षांशों (30° और 55°) के बीच महाद्वीपों के भीतरी भागों में पाया जाता है। ये मुख्यतः उच्च पर्वतीय प्रदेशों के बीच वृष्टिछाया क्षेत्र हैं। इनमें एशिया में गोबी और तुर्किस्तान के मरुस्थल तथा उत्तरी अमरीका में ग्रेटबेसिन व कोलोराडो प्रमुख क्षेत्र हैं।
वायु अपरदन के कार्य Erosive Work of The Wind
शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क भागों में वायु अपरदन का शक्तिशाली साधन है। मरुस्थलीय प्रदेशों में वर्षा एवं वनस्पति का अभाव तापमान की अधिकता, वाष्पीकरण की तीव्रता, ऊँचा दैनिक तापान्तर और मेघ रहित आकाश, आदि बातों से वायु के अपरदन कार्य को बड़ी सहायता मिलती है। जिस प्रकार बहता हुआ जल कंकड़, पत्थर, बालू एवं जल में घुली हुई मिट्टी की सहायता से अपरदन कार्य करता है, उसी प्रकार वेग से बहती हुई वायु भी बालू-कणों अथवा धूलकणों की सहायता से महान अपरदन कार्य को सम्पन्न करती है।
वनस्पतिहीन शुष्क प्रदेशों की मिट्टी असंगठित होती है। वहां बालू के कणों की अधिकता होती है। अतः इन प्रदेशों में जब पवनें चलती हैं तो वह बालू के कणों को उड़ा ले जाती हैं। पवन के साथ उड़ते हुए बालू के कण जब शैलों से टकराते हैं तो उनका शैलों पर रेगमाल (Sandpaper) के समान प्रभाव होता है, रगड़ के द्वारा वे शैलों को घिस डालते हैं। धूल कण शैलों को घिसने के साथ-साथ पारस्परिक रगड़ के द्वारा स्वयं भी छोटे एवं चिकने होते रहते हैं। पवन द्वारा अपरदन कार्य निम्नलिखित दशाओं पर निर्भर करता है
i) पवन का वेग, ii) पवन में धूल कणों की मात्रा और उनका आकार. (iii) शैल की कठोरता, एवं (iv) जलवायु।
पवन द्वारा अपरदन कार्य तीन प्रकार से होता है-
- पवन अपवाहन Wind Defiation- जब पवन अपक्षय द्वारा विखण्डित चट्टानों के कणों को अपने साथ उड़ा कर ले जाती है।
- पवन अपघर्षण Wind Abrasion- जब पवन में उड़ते हुए कण किसी चट्टान से टकराते हैं, तो उस पर रेगमाल की भाँति प्रहार कर उसे खुरचते रहते हैं।
- पवन सन्निघर्षण Wind Attrition- जब पवन में चट्टानों के कण उड़ते हैं तो वे आपस में टकराकर धिसते हैं, जिससे उसका आकार गोल, किन्तु छोटा हो जाता है।
पवन अपरदन द्वारा निर्मित भू-आकार निम्नलिखित हैं-
इन्सेलबर्ग Inselberg- उच्च मरुस्थलीय प्रदेशों में यत्रतत्र कुछ ऊँचे टीले दिखाई पड़ते हैं। ये ग्रेनाइट शैल के अपरदन के कारण बनते हैं। इनका आकार पिरामिड तथा गुम्बद की तरह होता है। इनको इन्सेलबर्ग कहते हैं। भारत में रायपुर के पास कूपघाट में ऐसे गुम्बदाकार टीले मिलते हैं। दक्षिण और मध्य अफ्रीका में भी ऐसे टीले मिलते हैं। दक्षिण अफ्रीका की प्रसिद्द Three Sisters पहाड़ी गुम्बद ऐसे ही इन्सेलबर्ग हैं।
छत्रक या छतरीनुमा स्तम्भ Gara or Mushroom– पवन द्वारा धिसाव का कार्य नीचे की ओर अधिक तीव्र होता है, क्योंकि पवन के निचले स्तर में बालू के कणों की प्रचुरता होती है। अतः मरुस्थल में ऊपर उठे हुए चट्टानी टीलों के निचले भाग ऊपरी भागों की अपेक्षा घिस जाते हैं। इसमें टीले की आकृति कुकुरमुता नामक पौधे की भाँति हो जाती है। इसकी छतरीनुमा स्तम्भ अथवा छत्रक कहा जाता है।
जालीदार शैल Stone Lattice– पवन में उड़ते हुए धूल के कणों के प्रहार से शैलों के टुकड़े घिसकर चिकने हो जाते हैं अथवा उनमें खरोचे एवं गड़े पड़ने से चट्टानें जालीदार बन जाती हैं। रॉकी पर्वत में ऐसे दृश्य बहुत मिलते हैं।
भू-स्तम्भ Demoiselles– शुष्क प्रदेशों में जहाँ पर असंगठित तथा कोमल शैल के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी शैल का आवरण होता है वहाँ पर इस आवरण के नीचे की कोमल शैल को संरक्षण मिल जाने के कारण अपरदन नहीं हो पाता जबकि समीपवर्ती कोमल शैलों का अपरदन होता रहता है। कठोर आवरण वाला भाग एक स्तम्भ के रूप में दिखायी देता है जिसे डिमोइसेलेस या भू-स्तम्भ कहते हैं।
ज्यूजेन या ज्यूगेन Zuegen– मरुस्थलीय भागों में यदि कठोर तथा कोमल चट्टानों की परतें ऊपर नीचे एक-दूसरे के समानान्तर होती हैं तो अपक्षय (Weathering) तथा वायु द्वारा अपरदन के कारण अनोखे प्रकार के स्थलरूप विकसित होते हैं। ये ढक्कनदार दवात की तरह होते हैं अर्थात् इनका ऊपरी भाग कम चौड़ा तथा निचला भाग अधिक चौड़ा होता है। इनकी रचना रात के समय तुषार के कारण ऊपरी चट्टानों के टूटने तथा पवन द्वारा कोमल चट्टानों के अपरदन से होती है। कोमल भाग अपरदित हो। जाते हैं तथा कठोर चट्टानी भाग शेष रहते हैं।
यारडंग Yardang– यारडंग की रचना ज्यूज़ेन के विपरीत होती है। जब कोमल तथा कठोर चूट्टानों की परतें लम्बवत् (Vertical) दिशा में मिलती हैं तो पवन कठोर चट्टानों की अपेक्षा मुलायम चट्टानों को शीघ्र अपरदित करके उड़ा ले जाती है। कोमल चट्टानों के अपरदन के बाद कठोर चट्टानों के भाग खड़े रह जाते हैं। इन शैलों के पाश्र्व में पवन द्वारा कटाव से गहरी खरोंचे नालियों के रूप में बन जाती हैं। इन्हें यारडंग कहते हैं। ये प्रायः पवन की दिशा में समानान्तर रूप से मिलते हैं। इनकी ऊँचाई 20 फीट तक तथा चौड़ाई 30 से 120 फीट तक होती है।
त्रिकोणखण्ड Dreikanter– मरुस्थलों में विभिन्न प्रकार के शिलाखण्ड पवन द्वारा तीन ओर से प्रहार पाकर गहरी खरोंच वाले बन जाते हैं तो उन्हें त्रिकोणखण्ड कहते हैं।
वातछिद्र या तश्तरीनुमा खड्ड Blow Out- मरुभूमि में पवन के सतत प्रहार से जहाँ-तहाँ गड्ढे बन जाते हैं। इन्हें तश्तरीनुमा गड्ढे कहा जाता है। इसमें जल भर जाने पर झीलें बन जाती हैं। संयुक्त राज्य अमरीका के अरकंसास राज्य एवं मिस्र के पश्चिमवतीं मरुस्थल में ऐसे अनेक गड्ढे पाए जाते हैं।
पवन का परिवहन कार्य Transportational Work of Wind
पवन अपवहन, अपघर्षण और संनिघर्षण क्रियाओं द्वारा बालू और मिट्टी के कण धरातल से प्राप्त करती है। इन्हें वह एक स्थान से उड़ाकर दूसरे स्थान को ले जाती है। धूल में सूक्ष्म कण पवन में लटके हुए रहते हैं। खड़े आकार के कण धरातल पर लुढ़कते हुए चलते हैं। मध्यम आकार एवं कम भार के कण कभी पवन में उड़ते हुए और कभी भूमि पर लुढ़कते हुए परिवर्तित होते हैं। पवन में परिवहन कार्य का महत्व इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिवर्ष लगभग 1,30,000 टन नमक के कण कच्छ की खाड़ी से राजस्थान की ओर हवा के साथ उड़कर जाते हैं। पवन के परिवहन कार्य को निम्नलिखित दशाएं प्रभावित करती हैं- 1) पवन का वेग, 2) ऊपरी धरातल की प्रकृति- बालूयुक्त या कठोर तल, 3) शुष्क प्रदेशों में वनस्पतियों के विस्तार या अभाव की स्थिति, 4) तापमान का वितरण, आदि।
पवन का निक्षेपण कार्य Depositional Work of Wind
पवनों की गति मन्द होने अथवा उनके मार्गों में अवरोध आने से पवन द्वारा उड़ाए गए धूल के कणों का धरातल पर निक्षेपण होता है। यह निक्षेपण बालूकणों के आकार एवं भार के अनुसार क्रमबद्ध होता है। बालू के एकत्र होने से तरंग चिह्नों, बालुकास्तूपों और लोयस के मैदानों (sand-dunes) का निर्माण होता है।
तरंग चिह्न Ripple Marks– मरुभूमि, सागर तटों तथा नदियों के किनारे जहाँ बालू ही बालू दूरदूर तक फैला होता है वहां बालू की ऊपरी सतह पर सागरीय या जल तरंगों की तरह लहरंदार चिह्न बन जाते हैं जिन्हें उर्मिचिन्ह या तरंगचिन्ह कहते हैं। पवन की दिशा और वेग में परिवर्तन के फलस्वरूप इनका स्वरूप भी बदलता रहता है।
बालुका स्तूप Sand Dunes– पवन द्वारा बालू के निक्षेप से निर्मित टीले बालू के टीले या स्तूप कहलाते हैं। वैगनाल्ड के अनुसार, बालुका स्तूप रेत के गतिशील ढेर होते हैं जिनका अस्तित्व तथा स्वरूप धरातलीय रूप से स्वतन्त्र होता है।”
इनका निर्माण होना निम्नलिखित बातों पर निर्भर करता है- 1) रेत की अधिकता, 2) पवन वेग, 3) पवन मार्ग में अव्ररोध, 4) उचित निर्माण स्थान।
आकार और रचनानुसार यह निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
- लम्बे या अनुदैर्घ्य बालुका स्तूप Longitudinal Dunes– ये स्तूप बालू की प्रचुरता वाले स्थानों में वायु की प्रवाह की दिशा में समानान्तर बनते हैं। इनकी आकृति लम्बी पहाड़ी की भांति होती है। ये पहाड़ियां प्रायः समानान्तर होती है औए दांत जैसे प्रतीत होते हैं। मरुस्थलों में प्रायः कई किलोमीटर लम्बाई में फैली रहती हैं। इन्हें सहारा में सीफ (Seifs), राजस्थान में धोरे या टिब्बे कहते हैं। ये प्रायः स्थिर रहते हैं। इस प्रकार के स्तूपों की लम्बी कतारें सहारा, लीबिया, दक्षिणी इराक, थार मरुस्थल और पश्चिमी आस्ट्रेलिया के मरुस्थलों में पायी जाती हैं।
- अनुप्रस्थ बालुका स्तूप Transverse Sand Dunes– जब बालुका स्तूपों का निर्माण प्रचलित पवन की दिशा के समकोण पर होता है तो उसे आड़े या अनुप्रस्थ बालुका स्तूप कहते हैं। इनका निर्माण हल्की पवन द्वारा मरुभूमि सीमान्तों तथा सागर तटीय भागों में होता है। यह प्रायः लहरदार होते हैं।
- बरखान Barkhans– अर्द्धचन्द्राकार स्तूपों को वरखान कहते हैं। ये स्तूप तुर्किस्तान में अधिक मिलते हैं। इन स्तूपों में उपरोक्त दोनों प्रकार के स्तूपों की विशेषता पायी जाती है। ये स्तूप पवन की आड़ी दिशा में पाए जाते हैं। इन स्तूपों के किनारे पर बहुत कम पदार्थ हटाने को रहता है, अतः पवन की दिशा में इन स्तूपों के सींग निकल आते हैं। बरखान 160 किलोमीटर लम्बे और 80 मीटर तक ऊँचे पाए जाते हैं। पवन की दिशा में इनका ढाल मन्द और उसके विपरीत दिशा में तीव्र होता है।
बालुका स्तूपों का आकार पवन की गति पर निर्भर करता है। जिस ओर से पवन आती है, उस ओर इनका ढाल साधारण और उसके दूसरी ओर अधिक होता है। धरातल पर वनस्पति के अभाव में ये पवन के साथसाथ आगे बढ़ते रहते हैं। सामान्यतः ये स्तूप 30 मीटर प्रतिवर्ष की गति से खिसकते हैं। इनके द्वारा समीपस्थ गाँव, नगर, खेत, आदि नष्ट हो जाते हैं। मिस्र और सीरिया के अनेक आबाद क्षेत्र प्राचीनकाल में सहारा की भेंट चढ़ चुके हैं।
- लोयस मिट्टी Loess Soil- मरुस्थलों से प्रतिवर्ष वड़ी मात्रा में धूल पवन द्वारा उड़ाकर ले जायी जाती है। विश्व के विभिन्न भागों में इस धूल के विस्तृत निक्षेप पाए जाते हैं। मरुस्थली क्षेत्रों के बाहर वायु द्वारा अपवाहित इस सूक्ष्मकणीय धूल के बृहत् निक्षेपों को ही लोयस कहते हैं। चीन का लोयस मैदान विश्व विश्व के प्रसिद्ध उदाहरणू। ऐसी पीली भूरे रंग की मिट्टी के लोयस के उपजाऊ कृषि प्रदेशों की भांति सर्वत्र विकास किया गया है।
मानव के लिए महत्व Importance to Man
भूतल पर कार्यरत समतल स्थापक शक्ति के विविध अभिकर्ताओं अथवा कारकों द्वारा जो अनेक प्रकार की आकृतियाँ बनायी जाती हैं, उनमें से अनेक का मानव के लिए विशेष महत्व है। संक्षेप में इसकी व्याख्या निम्नांकित है-
नदी द्वारा निर्मित झरने एवं झीलों के किनारों से जल विद्युत् पैदा की जाती है। यहाँ अनेक भ्रमण केन्द्र भी बन गए हैं। नदियों द्वारा निर्मित जलोढ़ पंख, पर्वत पदीय व दलदली क्षेत्र सुरक्षित कृषि क्षेत्र हैं। मैदानी भागों में बाढ़ के मैदान विश्व के सबसे उपजाऊ एवं सघन बसाव के प्रदेश हैं। छाड़न झीलों से स्थानीय रूप से नदियों से नहरें निकाल कर जल की आर्थिक उपयोगिता बढ़ायी जाती है। डेल्टा प्रदेश विश्व के सबसे उपजाऊ प्रदेशों में से हैं। नदियों के सागर तल जैव-अजैव पदार्थों के जमाव से वहां विभिन्न चट्टानें बनती हैं जो कि अनेक प्रकार से उपयोगी हैं।
पवनें लोयस का उपजाऊ मैदान बनाती हैं। उत्तरी चीन का पीला मैदान आदि लोयस निर्मित है। आस्ट्रिया के दलदली भागों में हिमानी निर्मित एस्कर एवं केम महत्वपूर्ण मागों का काम देते हैं। इसी भाँति मरुस्थलों में जो जल रेत द्वारा सोख लिया जाता है वह अनेक प्रकार के लवण, क्षार, आदि के जमाव के लिए उत्तरदायी है। जिप्सम, , खाने का व औद्योगिक नमक इसी विधि से प्राप्त होते हैं। इसी भाँति पर्वतीय प्रदेश में नदियां और हिमनदियां जो आकृतियाँ बनती हैं वहां अनेक मनोहारी दृश्य होने से भ्रमण एवं भारत में धार्मिक स्थल बन गए हैं।