अबु-अल-फ़तह-जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर Abū al-Fatḥ Jalāl al-Dīn Muḥammad Akbar

महान मुग़ल सम्राट 

जलाल-उद्-दिन मुहम्म्द भारत के सभी मुगल सम्राटों में सबसे अधिक शक्तिशाली और सहिष्णु शासक था। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। अकबर का जन्म 15 अक्तूबर सन् 1542 में ‘हमीदा बानू’ के गर्भ से अमरकोट (सिंध,वर्तमान पाकिस्तान) के राणा वीरसाल के महल में हुआ था। यहां बादशाह हुमायुं अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए थे।

हुमायूँ मुश्किल के नौ वर्ष के शासन के बाद, 26 जून, 1539 को गंगा किनारे चौसा (शाहबाद ज़िले) में उसे शेरख़ाँ (शेरशाह) ने पराजित कर दिया। चौसा अपने ऐतिहासिक युद्ध के लिए आज उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना अपने स्वादिष्ट आमों के लिए। चौसा की हार के बाद कन्नौज में हुमायूँ ने फिर भाग्य-परीक्षा की, लेकिन शेरशाह ने 17 मई, 1740 को अपने से कई गुना अधिक सेना को हरा दिया। हुमायूँ इस बार पश्चिम की ओर भागा और काफ़ी समय तक वह भटकता रहा और उसका परिचय हमीदा बानू से हुआ। 1541 ई. के अन्त या 1542 ई. के प्रारम्भ में 14 वर्ष की हमीदा का विवाह हुमायूँ से हो गया। अपने पिछले जीवन में यही हमीदा बानू मरियम मकानी के नाम से प्रसिद्ध हुई और अपने बेटे से एक ही साल पहले  29 अगस्त, 1604 ई. में मरी।

अकबर के बचपन का नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर था। संभवतः अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए हुमायूँ ने इसका यह नाम रखा बद्र  का अर्थ होता है चंद्रमा। ‘अकबर‘ उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। बाद में हुमायूँ ने अपने इस पुत्र का नाम एक बार स्वप्न में सुनाई दिये नाम के अनुसार जलालुद्दीन मोहम्मद रखा। बाबर तैमूर लंग (तुर्क) का वंशज था और माँ का संबंध चंगेज खां (मंगोल) के ख़ानदान से था। इस प्रकार अकबर की धमनियों में एशिया की दो प्रसिद्ध जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था।

हुमायुं को शेरशाह सूरी के कारण फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था, उसने अकबर को रीवां (वर्तमान मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था। अकबर की वहां के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे। कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान अफ़गानिस्तान का भाग) में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर 1545 से काबुल में रहा।

अकबर आजीवन निरक्षर रहा। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर काबुल में एक आयोजन के दौरान अकबर का अक्षरारम्भ होना था पर ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर यह आयोजन दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। अकबर की रुचि पढ़ने-लिखने में नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी, और कुत्ते पालने में अधिक थी। जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम, मौलाना बामजीद, मौलाना अब्दुल कादिर आदि को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया पर कोई भी उसे पढ़ाने में सफल नहीं हुआ।

 मुसलमानों के लिए वह अपने अपरंपरागत धार्मिक सारसंग्रहवाद की वजह से हमेशा एक विवादास्पद व्यक्ति रहा। वह अपने पिता की अचानक मौत पर अकबर को पंजाब में चौदह वर्ष की आयु में मुगल पदिशाह (बादशाह, सम्राट) का ताज पहनाया गया था। इस समय मुगलों की स्थिति इतनी अनिश्चित थी, की बैरम ख़ान ने, जो की मुगलों का एक वफ़ादार सैनिक था को भारत छोड़कर काबुल जाने की सलाह दी। उस समय भारत में बंगाल के अफ़ग़ान अमीर मुहम्मद शाह अब्दाली, सिकंदर सूर और राजपूत राजाओं का प्रभुत्व था। इस समय सभी भारतीय राज्य स्वतंत्र राज्यों जैसा व्यवहार करते थे और अकबर केवल नाम का ही शासक था। अपने सैन्य अभियानों के माध्यम से सहिष्णु धार्मिक और सामाजिक नीतियों में हिंदुओं से शादी के गठबंधन आदि से अकबर ने अपने समय तक के एक महानतम साम्राज्य की स्थापना की। अपने नीतियों के कारण अकबर को भारतीयों द्वारा समर्थित किया गया और उसका साम्राज्य केवल एक सत्तारूढ़ विदेशी अल्पसंख्यक शासक बन कर नहीं रह गया था।


युवा अकबर के प्रथम वर्ष के शासनकाल दौरान बैरम खान, जो कि अब अब वकील-ए-मुतलक़ (प्रधानमंत्री) था, ही वास्तविक सम्राट था। इसी समय हेमू, जो शाह अब्दाली के प्रधानमंत्री था, इसने आगरा कब्जा करने के पश्चात स्वयं को राजा विक्रमजीत घोषित कर दिया और दिल्ली की ओर कूच कर दिया। नवंबर 1556 में पानीपत की दूसरी लड़ाई में, हेमू की विशाल शक्ति, मुगल सेना से हार गयी, हेमू को पकड़ लिया गया और मार डाला गया था।

1557 में सिकंदर सूर ने आत्मसमर्पण कर दिया, और मुहम्मद शाह अब्दाली बंगाल में मारा गया था। बैरम खान ने फिर 1559 में ग्वालियर और जौनपुर विजय प्राप्त की। 1560 में, हालांकि, जब बैरम खान अपने अनुग्रहों और आचरणों से नीचे गिर गया और तब उसकी हत्या कर दी गयी और कुछ समय तक दिल्ली में पेटिकोट सरकार (Petticoat Government)  जिसे अकबर की धाय माँ, माहम अनगा चलाया करती थी, ने शासन किया जब तक की अकबर ने खुद को दिल्ली के नागरिक और सैन्य प्रशासन का मुखिया घोषित नहीं कर दिया।

1561 में अकबर ने अपने पूरे साम्राज्य को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लिया और उसने राजपूतों से अपने बेहतर संबंध बनाने शुरू किए और उन्हे अपने साम्राज्य का भागीदार बनाया।  अकबर ने आमेर के कछवाहा राजपूत राजा भारमल (कुछ विद्वानों के अनुसार बिहारीमल) ने अपनी राजकुमारी हरखा बाई या जोधाबाई का विवाह अकबर से करना स्वीकार किया। जोधाबाई विवाहोपरांत मुस्लिम बनी और मरियम-उज़-ज़मानी कहलायी और इसने जहाँगीर को जन्म दिया उसे राजपूत परिवार ने सदा के लिये त्याग दिया और विवाह के बाद वो कभी आमेर वापस नहीं गयी। उसे विवाह के बाद आगरा या दिल्ली में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान भी नहीं मिला था, बल्कि भरतपुर जिले का एक छोटा सा गांव मिला था। उसकी मृत्यु 1623 में हुई थी, इस कछवाहा रानी की क़ब्र सिकन्दरा में अकबर की क़ब्र के पास एक रौजे में है। उसके पुत्र जहांगीर द्वारा उसके सम्मान में लाहौर में एक मस्जिद बनवायी गई थी। भारमल को अकबर के दरबार में ऊंचा स्थान मिला था, और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र मानसिंह भी दरबार के ऊंचे सामंत बने रहे।

अकबर के दरबार के इतिहासकार अबुल फ़ज़ल कृत आइन-ए-अकबरी में और जहाँगीर के लिखे आत्मचरित्र तुजुक जहाँगीर में उसे मरियम ज़मानी ही कहा गया है। यह उपाधि उसे सलीम के जन्म पर सन् 1569 में दी गई थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसका नाम जोधाबाई सही नहीं है, जोधाबाई जोधपुर के राजा उदयसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह सलीम के साथ सन् 1585 में हुआ था।

। 1570 तक कई राजपूतों ने उसकी निष्ठा की कसमें खाई और अकबर ने बीकानेर और जैसलमेर की राजकुमारियों से भी शादी की। 1584 में अकबर ने अपने पुत्र जहाँगीर की भी शादी एक राजपूत राजकुमारी से की। अकबर ने राजपूतों को अपनी प्रशासनिक सेवा में लिया। अकबर ने एक ईसाई और एक मुस्लिम लड़की से भी शादी कर ली थी।

अकबर ने हिंदुओं के ऊपर लगने वाले भेदभाव युक्त कराधान, तीर्थयात्री कर को 1563 में और घृणित जजिया (jizya) कर को 1579 में समाप्त कर दिया। उसने युद्ध कैदियों को ज़बरन दास बनाने और उन्हें इस्लाम क़ुबूल करवाने की प्रथा पर भी रोक लगाई। उसने हिंदुओं का अपने दरबार स्वागत किया, उन्हें अपने दरबार में नियुक्त किया, उनकी सलाह और मदद भी ली। उसने अपने दरबार में एक हिन्दी कवि भी नियुक्त किया और हिंदू कलाकारों को दरबार में संरक्षण भी दिया।

उसने राजस्व सेवा में हिंदुओं को भी कार्यरत किया और कर की दरों को अपने पिछले शासकों की तुलना में कम रखा। हिंदुओं के विवादों में अकबर ने हिंदू क़ानूनों को ही लागू किया और सूखे व अन्य कारणों से फसल के नष्ट होने पर उसने करों में छूट का भी प्रावधान किया। एक हिंदू दरबारी राजा बीरबल अकबर के प्रमुख विश्वासपात्रों में से एक बन गया और  राजा टोडर जो की हिंदू कायस्थ जाति (एक लेखक जाति) का था समस्त उत्तर भारत के राजस्व संग्रह के लिए ज़िम्मेदार था।

एक हमलावर के रूप में अकबर ने अपने दादा बाबर की तरह अपने साम्राज्य पर ख़तरा बनने वालों पर अपनी सेना का प्रदर्शन और निडर हमले करने के लिए हमेशा विख्यात रहा। 1561 में उसने भारत के दिल मालवा पर कब्जा कर लिया और 1568 में उसने मेवाड़ और रणथम्भौर पर हमला करना शुरू कर दिया। सिर्फ़ मेवाड़ ने उसे चुनौती दी। 1569 में उसने भारत के केंद्र में कालींजर के किले को जीत लिया। भारत के धनी राज्य गुजरात में सूरत जो की उस समय पश्चिम से व्यापार का एक प्रमुख बंदरगाह था को 1573 में जीत लिया। इसके बाद अकबर की सेनाओ ने बंगाल की ओर कूच किया और 1576 में वहाँ कब्जा कर लिया। कुछ वर्ष बाद अकबर 1585 में अकबर ने अफ़ग़ानिस्तान के कई भागों पर और 1586 में कश्मीर पर कब्जा कर लिया।

कश्मीर में श्रीनगर को अकबर ने अपना ग्रीष्मकालीन निवास बनाया। 1592 और 1595 के बीच सिंध और बलूचिस्तान अकबर के साम्राज्य में जुड़ गये थे। 1592 में उड़ीसा भी बंगाल का हिस्सा बन गया।

1590 में अकबर ने दक्षिण की ओर अपना विजय अभियान शुरू किया। शीघ्र ही उसने बरार और खानदेश और अहमदनगर के कुछ हिस्से को जोड़ लिया। डक्कन, अपने शक्तिशाली मराठा प्रतिरोध के कारण अधिक कठिन साबित हुआ। अपनी मृत्यु से पहले अकबर उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में गोदावरी तक 15 विशाल प्रांतों की विरासत छोड़कर गया था।

अकबर के शासन की तीसरी खास विशेषता उसके द्वारा किया जाने वाला प्रशासनिक सुधार थी। अकबर को व्यक्तिगत निष्टा वाली सामंती व्यवस्था विरासत में मिली और उसने नौकरशाही में नियमों को लागू किया। उसने शाही अधिकारियों की तैंतीस (33) पदों वाली व्यवस्था शुरू की, जिनकी एक निश्चित तनख़्वाह होती थी जो की इन्हें नकद प्रदान की जाती थी। इन अधिकारियों को मनसबदार कहा जाता था। इन अधिकारियों के पदों को इनकी घुड़सवार सेना की संख्या से आंका जाता था जो की कुछ सौ से तीस हजार से लेकर तक हो सकती थी, जो की सम्राट के बुलाने पर बाध्य होते थे। इनसे आने वाले राजस्व को इनके सैनिकों और घोड़ो के लिए इस्तेमाल किया जाता था। नागरिक और सैन्य दोनों कर्तव्यों का निर्वहन करते थे। इससे साम्राज्य के पुरुषों को इस सेवा के माध्यम से सम्मान, प्रसिद्धि और समृद्धि को प्राप्त करने के लिए मौका मिला। साम्राज्य को सरकार (जिलों) और कई जिलों को मिलाकर सूबों (राज्य) में बाँटा गया था और हर सूबे का एक सूबेदार होता था जो स्वयं और अपने सैनिकों के साथ सूबे में क़ानून और व्यवस्था के लिया ज़िम्मेदार था। एक राजस्व संग्रहकर्ता जिसे दीवान कहा जाता था भूमिकर एकत्र करके उसे दिल्ली भेजता था और पुनः केंद्र से राज्यों को सैनिकों को धन भेजा जाता था।

इस प्रकार सूबेदार के पास धन नहीं होता था और दीवान के पास सैनिक नहीं होते थे और केंद्रीय शासन को नियंत्रण बनाए रखने में मदद मिलती थी। प्रांतीय अधिकारियों का स्थानांतरण किया जाता था और 4 वर्ष से ज़्यादा कोई भी अधिकारी एक स्थान पर नहीं रह सकता था। अकबर के आख़िरी प्रशासनिक सुधारों में राजा टोडरमल की नयी भू-राजस्व व्यवस्था बंदोबस्त (arrangement) व्यवस्था लागू करना था जिसने उत्तर भारत के काफ़ी हिस्सों को बेहतर तरीके से वर्गीकृत किया। इस व्यवस्था भूमि की उत्पादकता के अनुसार कर लगाया गया था। बाद में अँग्रेज़ों ने भी इस व्यवस्था को अपनाया और यह व्यवस्था 300 वर्षों तक स्थायी बनी रही।

अकबर एक बेटे के लिए बेताब था, उसकी पत्नी 1569 में सीकरी में जहांगीर को जन्म दिया। अकबर इतना प्रसन्न था की उसने अपनी राजधानी आगरा से सीकरी स्थानांतरित कर ली और इसका नाम फतेहपुर सीकरी कर दिया। या तो सामरिक कारणों के लिए या यहाँ पर्याप्त पानी का अभाव होने के कारण उसने शीघ्र ही 1585 में अपनी लाहौर को अपनी राजधानी बना ली और फतेहपुर सीकरी एक शानदार भूतिया शहर बन कर रह गया।

अकबर के शासन का सबसे विवादास्पद पहलू उसकी धार्मिक नीति थी। 1575 में उसने फतेहपुर सीकरी में इबादत-खाना का निर्माण करवाया। यहाँ पर विभिन्न संप्रदायों मुस्लिम, जीसस, पारसी, हिंदू, और योगियों के प्रतिनिधि एकत्र हो कर अकबर के साथ धर्म पर चर्चा करते थे।

1579 में अकबर के एक मज़हर (घोषणापत्र) के अनुसार अकबर को इस्लाम की व्याख्या करने का अधिकार दे दिया गया। 1582 में अकबर ने सूफ़ी और पारसी धर्म के विचारों को मिलकर एक नया धर्म दीन-ए-इलाही बनाया, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था अकबर और स्वयं इसका अध्यातमिक प्रमुख बना। यह धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। कला और स्थापत्य कला में अकबर ने मुगल साम्राज्य को एक विशिष्ट फारसी शैली दी।

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