भारत का संविधान – भाग 6 राज्य
[1]***राज्य
अध्याय 1–साधारण
152. परिभाषा —इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, “राज्य” पद [2][के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य नहीं है ] ।
अध्याय 2–कार्यपालिका
राज्यपाल
153. राज्यों के राज्यपाल –प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा :
[3][परन्तु इस अनुच्छेद की कोई बात एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के लिए राज्यपाल नियुक्त किए जाने से निवारित नहीं करेगी ।]
154. राज्य की कार्यपालिका शक्ति –(1) राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा ।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात–
(क) किसी विद्यमान विधि द्वारा किसी अन्य प्राधिकारी को प्रदान किए गए कॄत्य राज्यपाल को अंतरित करने वाली नहीं समझी जाएगी ; या
(ख) राज्यपाल के अधीनस्थ किसी प्राधिकारी को विधि द्वारा कॄत्य प्रदान करने से संसद या राज्य के विधान-मंडल को निवारित नहीं करेगी ।
155. राज्यपाल की नियुक्ति—राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा ।
156. राज्यपाल की पदावधि –(1) राज्यपाल , राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा ।
(2) राज्यपाल, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा ।
(3) इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्यपाल अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा : परंतु राज्यपाल, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी, तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है ।
157. राज्यपाल नियुक्त होने के लिए अर्हताएं—कोई व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त होनेका पात्र तभी होगा जब वह भारत का नागरिक है और पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है ।
158. राज्यपाल के पद के लिए शर्तें–(1) राज्यपाल संसद के किसी सदन का या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या ऐसे किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का कोई सदस्य राज्यपाल नियुक्त हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान राज्यपाल के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है ।
(2) राज्यपाल अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा ।
(3) राज्यपाल, बिना किराया दिए, अपने शासकीय निवासों के उपयोग का हकदार होगा अब ऐसी उपलब्धियों , भत्तों और विशेषाधिकारों का भी, जो संसद्, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा ।
[4][(3क) जहां एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जाता है वहां उस राज्यपाल को संदेय उपलब्धियां और भत्ते उन राज्यों के बीच ऐसे अनुपात में आबंटित किए जाएंगे जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे ।]
(4) राज्यपाल की उपलब्धियां और भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किए जाएंगे ।
159. राज्यपाल द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान—प्रत्येक राज्यपाल और प्रत्येक व्यक्ति जो राज्यपाल के कॄत्यों का निर्वहन कर रहा है, अपना पद ग्रहण करने से पहले उस राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूार्ति या उसकी अनुपस्थिति में उस न्यायालय के उपलब्ध ज्येष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात् :–
ईश्वर की शपथ लेता हूं
“मैं, अमुक, —————————————कि मैं श्रद्धापूर्व क……………………………………….
सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं
(राज्य का नाम) के राज्यपाल के पद का कार्यपालन (अथवा राज्यपाल के कॄत्यों का निर्वहन) करूंगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं………….. (राज्य का नाम) की जनता की सेवा और कल्याण में विरत रहूंगा ।” ।
160. कुछ आकास्मिकताओं में राज्यपाल के कॄत्यों का निर्वहन—राष्ट्रपति ऐसी किसी आकास्मिकता में, जो इस अध्याय में उपबंधित नहीं है, राज्य के राज्यपाल के कॄत्यों के निर्वहन के लिए ऐसा उपबंध कर सकेगा जो वह ठीक समझता है ।
161. क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की राज्यपाल की शक्ति —किसी राज्य के राज्यपाल को उस विषय संबंधी, जिस विषय पर उस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, किसी विधि के विरुद्ध किसी अपराध के लिए सिद्ध दोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश में निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी ।
162. राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार—इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए किसी राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार उन विषयों पर होगा जिनके संबंध में उस राज्य के विधान-मंडल को विधि बनाने की शक्ति है : परंतु जिस विषय के संबंध में राज्य के विधान-मंडल और संसद् को विधि बनाने की शक्ति है उसमें राज्य की कार्यपालिका शक्ति इस संविधान द्वारा, या संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा, संघ या उसके प्राधिकारियों को अभिव्यक्त रूप से प्रदत्त कार्यपालिका शक्ति के अधीन और उससे परिसीमित होगी ।
मंत्रिपरिषद
163. राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि-परिषद —(1) जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कॄत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे उन बातों को छोड़ कर राज्यपाल को अपने कॄत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा ।
(2) यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं ।
(3) इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को काई सलाह दी, और यदि दी तो क्या दी ।
164. मंत्रियों के बारे में अन्य उपबंध –(1) मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल , मुख्यमंत्री की सलाह पर करेगा तथा मंत्री, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत अपने पद धारण करेंगे : परंतु बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा राज्यों में जनजातियों के कल्याण का भारसाधक एक मंत्री होगा जो साथ ही अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के कल्याण का या किसी अन्य कार्य का भी भारसाधक हो सकेगा ।
[5][(1क) किसी राज्य की मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी : परंतु किसी राज्य में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या बारह से कम नहीं होगी :
परंतु यह और कि जहां संविधान (इक्यानवेवां संशोधन) अधिनियम,2003 के प्रारंभ पर किसी राज्यकी मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या, यथास्थिति, उक्त पंद्रह प्रतिशत या पहले परंतु क में विनिर्दिष्ट संख्या से अधिक है वहां उस राज्य में मंत्रियों की कुल संख्या ऐसी तारीख[6] से, जो राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा नियत करे छह मास के भीतर इस खंड के उपबंधों के अनुरूप लाई जाएगी ।
(1ख) किसी राजनीतिक दल का किसी राज्य की विधान सभा का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का जिसमें विधान परिषद् है, कोई सदस्य जो दसवीं अनुसूची के पैरा 2 के अधीन उस सदन का सदस्य होने के लिए निरर्हित है, अपनी निरर्हता की तारीख से प्रारंभ होने वाली और उस तारीख तक जिसको ऐसे सदस्य के रूप में उसकी पदावधि समाप्त होगी या जहां वह, ऐसी अवधि की समाप्ति के पूर्व , यथास्थिति, किसी राज्य की विधान सभा के लिए या विधान परिषद वाले किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन के लिए कोई निर्वाचन लड़ता है उस तारीख तक जिसको वह निर्वाचित घोषित किया जाता है, इनमें से जो भी पूर्वतर हो, की अवधि के दौरान, खंड (1) के अधीन मंत्री के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए भी निरर्हित होगा ।]
(2) मंत्रिपरिषद राज्य की विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी ।
(3) किसी मंत्री द्वारा अपना पद ग्रहण करने से पहले , राज्यपाल तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूपों के अनुसार उसको पद की और गोपनीयता की शपथ दिलाएगा ।
(4) कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास की किसी अवधि तक राज्य के विधान-मंडल का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा ।
(5) मंत्रियों के वेतन और भत्ते ऐसे होंगे जो उस राज्यका विधान-मंडल, विधि द्वारा, समय-समय पर अवधारित करे और जब तक उस राज्य का विधान-मंडल इस प्रकार अवधारित नहीं करता है तब तक ऐसे होंगे जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं ।
राज्य का महाधिवक्ता
165. राज्य का महाधिवक्ता —(1) प्रत्येक राज्य का राज्यपाल , उच्चन्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्हित किसी व्यक्ति को राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त करेगा ।
(2) महाधिवक्ता का यह कर्तव्य होगा कि वह उस राज्य की सरकार को विधि संबंधी ऐसे विषयों पर सलाह दे और विधिक स्वरूप के ऐसे अन्य कर्तव्यों का पालन करे जो राज्यपाल उसको समय-समय पर निर्देशित करे या सौपें और उन कॄत्यों का निर्वहन करे जो उसको इस संविधान अथवा तत्समय प्रवॄत्त किसी अन्य विधि द्वारा या उसके अधीन प्रदान किए गए हों ।
(3) महाधिवक्ता , राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा और ऐसा पारिश्रमिक प्राप्त करेगा जो राज्यपाल अवधारित करे ।
सरकारी कार्य का संचालन
166. राज्य की सरकार के कार्य का संचालन–(1) किसी राज्य की सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्रवाई राज्यपाल के नाम से की हुई कही जाएगी ।
(2) राज्यपाल के नाम से किए गए और निष्पादित आदेशों और अन्य लिखतों को ऐसी रीति से अधिप्रमाणित किया जाएगा जो राज्यपाल द्वारा बनाए जाने वाले नियमों में विनिर्दिष्ट की जाएं और इस प्रकार अधिप्रमाणित आदेश या लिखत की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि वह राज्यपाल द्वारा किया गया या निष्पादित आदेश या लिखत नहीं है ।
(3) राज्यपाल, राज्य की सरकार का कार्य अधिक सुविधापूर्वक किए जाने के लिए और जहां तक वह कार्य ऐसा कार्य नहीं है जिसके विषय में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे वहां तक मंत्रियों में उक्त कार्य के आबंटन के लिए नियम बनाएगा ।
[7] * * * * * *
167. राज्यपाल को जानकारी देने आदि के संबंध में मुख्यमंत्री के कर्तव्य —प्रत्येक राज्य के मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य होगा कि वह–
(क) राज्य के कार्यों के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रिपरिषद के सभी विनिश्चय राज्यपाल को संसूचित करे ;
(ख) राज्य के कार्यों के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी जो जानकारी राज्यपाल मांगे, वह दे ;और
(ग) किसी विषय को जिस पर किसी मंत्री ने विनिश्चय कर दिया है किंतु मंत्रिपरिषद ने विचार नहीं किया है, राज्यपाल द्वारा अपेक्षा किए जाने पर परिषद के समक्ष विचार के लिए रखे ।
अध्याय 3–राज्य का विधान–मंडल
साधारण
168. राज्यों के विधान-मंडलों का गठन–(1) प्रत्येक राज्य के लिए एक विधान-मंडल होगा जो राज्यपाल और —
(क) [8]* * * बिहार, [9]* * * [10]–[11]* * * [12][महाराष्ट्र], [13][कर्नाटक] [14]* * * [15][और उत्तर प्रदेश]राज्यों में दो सदनों
से ;
(ख) अन्य राज्यों में एक सदन से, मिलकर बनेगा ।
(2) जहां किसी राज्य के विधान-मंडल के दो सदन हैं वहां एक का नाम विधान परिषद और दूसरे का नाम विधान सभा होगा और जहां केवल एक सदन है वहां उसका नाम विधान सभा होगा ।
169. राज्यों में विधान परिषदों का उत्सादन या सॄजन–(1) अनुच्छेद 168 में किसी बात के होते हुए भी, संसद् विधि द्वारा किसी विधान परिषद वाले राज्य में विधान परिषद के उत्सादन के लिए या ऐसे राज्य में, जिसमें विधान परिषद नहीं है, विधान परिषद के सॄजन के लिए उपबंध कर सकेगी, यदि उस राज्य की विधान सभा ने इस आशय का संकल्प विधान सभा की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया है ।
(2) खंड (1) में विनिर्दिष्ट किसी विधि में इस संविधान के संशोधन के लिए ऐसे उपबंध अंतर्विष्ट होंगे जो उस विधि के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए आवश्यक हों तथा ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध भी अंतर्विष्ट हो सकेंगे जिन्हें संसद् आवश्यक समझे ।
(3) पूर्वोक्त प्रकार की कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए इस संविधान का संशोधन नहीं समझी जाएगी ।
[16][170. विधान सभाओं की संरचना–(1) अनुच्छेद 333 के उपबंधों के अधीन रहते हुए , प्रत्येक राज्य की विधान सभा उस राज्य में प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुए पांच सौ से अनधिक और साठ से अन्यून सदस्यों से मिलकर बनेगी ।
(2) खंड (1) के प्रयोजनों के लिए ,प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में ऐसी रीति से विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र की जनसंख्या का उसको आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथासाध्य एक ही हो ।]
[17][स्पष्टीकरण —इस खंड में “जनसंख्या”पद से ऐसी अंतिम पूर्व वर्ती जनगणना में अभिनिाश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत है जिसके सुसंगत आंकड़े प्रकाशित हो गए हैं : परंतु इस स्पष्टीकरण में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति जिसके सुसंगत आंकड़े प्रकाशित हो गए हैं, निर्देश का, जब तक सन् [18][2026] के पश्चात् की गई पहली जनगणना के सुसंगत आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह [19][3[2001]] की जनगणना के प्रतिनिर्देश है ।
(3) प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रत्येक राज्य की विधान सभा में स्थानों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुनः समायोजन किया जाएगा जो संसद् विधि द्वारा अवधारित करे : परंतु ऐसे पुनः समायोजन से विधान सभा में प्रतिनिधित्व पद पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक उस समय विद्यमान विधान सभा का विघटन नहीं हो जाता है :
[20][परंतु यह और कि ऐसा पुनः समायोजन उस तारीख से प्रभावी होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे और ऐसे पुनः समायोजन के प्रभावी होने तक विधान सभा के लिए कोई निर्वाचन उन प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों के आधार पर हो सकेगा जो ऐसे पुनः समायोजन के पहले विद्यमान हैं :परंतु यह और भी कि जब तक सन् [21][2026] के पश्चात् की गई पहली जनगणना के सुसंगत आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं तब तक 6[इस खंड के अधीन,–
(त्) प्रत्येक राज्य की विधान सभा में 1971 की जनगणना के आधार पर पुनः समायोजित स्थानों की कुल संख्या का ;और
(त्त्) ऐसे राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजन का, जो [22][2001]की जनगणना के आधार पर पुनः समायोजित किए जाएं, पुनः समायोजन आवश्यक नहीं होगा ।]
171. विधान परिषदों की संरचना–(1) विधान परिषद वाले राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के [23][एक -तिहाई] से अधिक नहीं होगी : परंतु किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या किसी भी दशा में चालीस से कम नहीं होगी ।
(2) जब तक संसद् विधि द्वाराअन्यथा उपबंध न करे तब तक किसी राज्य की विधान परिषद की संरचना खंड
(3) में उपबंधित रीति से होगी ।
(3) किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या का–
1(क) यथाशक्य निकटतम एक -तिहाई भाग उस राज्य की नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों और अन्य ऐसे स्थानीय प्राधिकारियों के, जो संसद् विधि द्वारा विनिर्दिष्ट करे, सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा ;
(ख) यथाशक्य निकटतम बारहवां भाग उस राज्य में निवास करने वाले ऐसे व्यक्ति यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा, जो भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विश्वविद्यालय के कम से कम तीन वर्ष से स्नातक हैं या जिनके पास कम से कम तीन वर्ष से ऐसी अर्हताएं हैं जो संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि या उसके अधीन ऐसे किसी विश्वविद्यालय के स्नातक की अर्हताओं के समतुल्य विहित की गई हों ;
(ग) यथाशक्य निकटतम बारहवां भाग ऐसे व्यक्ति यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा जो राज्य के भीतर माध्यमिक फाठशालाओं से अनिम्न स्तर की ऐसी शिक्षा संस्थाओं में, जो संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएं , पढ़ाने के काम में कम से कम तीन वर्ष से लगे हुए हैं ;
(घ) यथाशक्य निकटतम एक -तिहाई भाग राज्य की विधान सभा के सदस्यों द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से निर्वाचित होगा जो विधान सभा के सदस्य नहीं हैं ;
(ङ) शेष सदस्य राज्यपाल द्वारा खंड (5) के उपबंधों के अनुसार नाम निर्देशित किए जाएंगे ।
(4) खंड (3) के उपखंड (क), उपखंड (ख) और उपखंड (ग) के अधीन निर्वाचित होने वाले सदस्य ऐसे प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में चुने जाएंगे, जो संसद् द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किए जाएं तथा उक्त उपखंडों के और उक्त खंड के उपखंड (घ) के अधीन निर्वाचन अनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होंगे ।
(5) राज्यपाल द्वारा खंड (3) के उपखंड (ङ) के अधीन नाम निर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात् :– साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और समाज सेवा ।
172. राज्यों के विधान–मंडलों की अवधि–(1) प्रत्येक राज्य की प्रत्येक विधान सभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथमअधिवेशन के लिए नियत तारीख से [24][पाँच वर्ष]तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और 1[पाँच वर्ष]की उक्त अवधि की समाप्ति का फरिणाम विधान सभा का विघटन होगा : परंतु उक्त अवधि को,जब आफात् की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, तब संसद् विधि द्वारा, ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात् किसी भी दशा में उसका विस्तार छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा ।
(2) राज्य की विधान परिषद का विघटन नहीं होगा,किंतु उसके सदस्यों में से यथासंभव निकटतम एक -तिहाई सदस्य संसद् द्वारा विधि द्वारा इस निमित्त बनाए गए उपबंधों के अनुसार, प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर यथाशक्य शीघ्र निवॄत्त हो जाएंगे ।
173. राज्य के विधान–मंडल की सदस्यता के लिए अर्हता—कोई व्यक्ति किसी राज्य में विधान-मंडल के किसी स्थान को भरने के लिए चुने जाने के लिए अर्हित तभी होगा जब–
[25][(क) वह भारत का नागरिक है और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकॄत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेता है या प्रतिज्ञान करता है और उस पर अपने हस्ताक्षर करता है ;]
(ख) वह विधान सभा के स्थान के लिए कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का और विधान परिषद के स्थान के लिए कम से कम तीस वर्ष की आयु का है ;और
(ग) उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं हैं जो इस निमित्त संसद् द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएं ।
[26][174. राज्य के विधान–मंडल के सत्र, सत्रावसान और विघटन –(1) राज्यपाल , समय-समय पर , राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर , जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए आहूत करेगा, किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तारीख के बीच छह मास का अंतर नहीं होगा ।
(2) राज्यपाल , समय-समय पर ,—
(क) सदन का या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा ;
(ख) विधान सभा का विघटन कर सकेगा ।
175. सदन या सदनों में अभिभाषण का और उनको संदेश भेजने का राज्यपाल का अधिकार–(1) राज्यपाल , विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में उस राज्य के विधान-मंडल के किसी एक सदन में या एक साथ समवेत दोनों सदनों में, अभिभाषण कर सकेगा और इस प्रयोजन के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा ।
(2) राज्यपाल, राज्य के विधान-मंडल में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश, उस राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों को भेज सकेगा और जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया है वह सदन उस संदेश द्वारा विचार करने के लिए अपेक्षित विषय पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करेगा ।
176. राज्यपाल का विशेष अभिभाषण –(1) राज्यपाल , [27][विधान सभा के लिए प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम सत्र के आरंभ में और प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरंभ में]विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में एक साथ समवेत दोनों सदनों में अभिभाषण करेगा और विधान-मंडल को उसके आह्वान के कारण बताएगा ।
(2) सदन या प्रत्येक सदन की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों द्वारा ऐसे अभिभाषण में निर्दिष्ट विषयों की चर्चा के लिए समय नियत करने के लिए [28]* * * उपबंध किया जाएगा ।
177. सदनों के बारे में मंत्रियों और महाधिवक्ता के अधिकार—प्रत्येक मंत्री और राज्य के महाधिवक्ता को यह अधिकार होगा कि वह उस राज्य की विधान सभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में दोनों सदनों में बोले और उनकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले और विधान-मंडल की किसी समिति में, जिसमें उसका नाम सदस्य के रूप में दिया गया है, बोले और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले, किन्तु इस अनुच्छेद के आधार पर वह मत देने का हकदार नहीं होगा ।
राज्य के विधान–मंडल के अधिकारी
178. विधान सभा का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष—प्रत्येक राज्य की विधान सभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब विधान सभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी ।
179. अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद रिक्त होना, पद त्याग और पद से हटाया जाना—विधान सभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य–
(क) यदि विधान सभा का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा ;
(ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य अध्यक्ष है तो उपाध्यक्ष को संबोधित और यदि वह सदस्य उपाध्यक्ष है तो अध्यक्ष को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा ;और
(ग) विधान सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा :
परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो : परंतु यह और कि जब कभी विधान सभा का विघटन किया जाता है तो विघटन के पश्चात् होने वाले विधान सभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त नहीं करेगा ।
180. अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का पालन करने या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की उपाध्यक्ष या अन्य व्यक्ति की शक्ति –(1) जब अध्यक्ष का पद रिक्त है तो उपाध्यक्ष, या यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो विधान सभा का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा ।
(2) विधान सभा की किसी बैठक से अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष , या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति , जो विधान सभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाएं , या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति , जो विधान सभा द्वारा अवधारित किया जाएं, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा ।
181. जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तबउसका पीठासीन न होना—(1) विधान सभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब अध्यक्ष, या जब उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपाध्यक्ष , उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 180 के खंड (2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वह उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे,यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनुपस्थित है ।
(2) जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विधान सभा में विचाराधीन है तब उसको विधान सभा में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा और वह अनुच्छेद 189 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर प्रथमत: ही मत देने का हकदार होगा किंतु मत बराबर होने की दशा में मत देने का हकदार नहीं होगा ।
182. विधान परिषद का सभापति और उप सभापति —विधान परिषद वाले प्रत्येक राज्य की विधान परिषद , यथाशीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना सभापति और उपसभापति चुनेगी और जब-जब सभापति या उपसभापति का पद रिक्त होता है तब-तब परिषद किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, सभापति या उपसभापति चुनेगी ।
183. सभापति और उपसभापति का पद रिक्त होना, पद त्याग और पद से हटाया जाना—विधान परिषद के सभापति या उपसभापति के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य–
(क) यदि विधान परिषद का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा ;
(ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य सभापति है तो उपसभापति को संबोधित और यदि वह सदस्य उपसभापति है तो सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा ; और
(ग) विधान परिषद के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा : परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो ।
184. सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन करने या सभापति के रूप में कार्य करने की उपसभापति या अन्य व्यक्ति की शक्ति –(1) जब सभापति का पद रिक्त है तब उप सभापति , यदि उपसभापति का पद भी रिक्त है तो विधान परिषद का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे,उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा ।
(2) विधान परिषद की किसी बैठक से सभापति की अनुपस्थिति में उप सभापति ,या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति , जो विधान परिषद की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाएं , या यदिऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति , जो विधान परिषद द्वारा अवधारित किया जाएं , सभापति के रूप में कार्य करेगा ।
185. जब सभापति या उपसभापति को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उसका पीठासीन न होना—(1) विधान परिषद् की किसी बैठक में, जब सभापति को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब सभापति , या जब उपसभापति को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उप सभापति , उपस्थित रहने पर भी पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 184 के खंड(2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंधमें वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे, यथास्थिति, सभापति या उपसभापति अनुपस्थित है ।
(2) जब सभापति को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विधान परिषद में विचाराधीन है तब उसको विधान परिषद में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा और वह अनुच्छेद 189 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर प्रथमत: ही मत देने का हकदार होगा किंतु मत बराबर होने की दशा में मत देने का हकदार नहीं होगा ।
186. अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तथा सभापति और उपसभापति के वेतन और भत्ते—विधान सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को तथा विधान परिषद के सभापति और उपसभापति को, ऐसे वेतन और भत्तों का जो राज्य का विधानमंडल, विधि द्वारा, नियत करे औरजब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतन और भत्तों का जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, संदाय किया जाएगा ।
187. राज्य के विधान-मंडल का सचिवालय–(1) राज्य के विधान-मंडल के सदन का या प्रत्येक सदन का पृथक सचिवीय कर्मचारिवॄन्द होगा : परंतु विधान परिषद वाले राज्य के विधान-मंडल की दशा में, इस खंड की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह ऐसे विधान-मंडल के दोनों सदनों के लिए साम्मिलित पदों के सॄजन को निवारित करती है ।
(2) राज्य का विधान-मंडल, विधि द्वारा, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों के सचिवीय कर्मचारिवॄंद में भर्ती का और नियुक्त व्यक्ति यों की सेवा की शर्तों का विनियमन कर सकेगा ।
(3) जब तक राज्य का विधान-मंडल खंड (2) के अधीन उपबंध नहीं करता है तब तक राज्यपाल , यथास्थिति, विधान सभा के अध्यक्ष या विधान परिषद के सभापति से परामर्श करने के पश्चात् विधान सभा के या विधान परिषद् के सचिवीय कर्मचारिवॄंद में भर्ती के और नियुक्त व्यक्ति यों की सेवा की शर्तों के विनियमन के लिए नियम बना सकेगा और इस प्रकार बनाए गए नियम उक्त खंड के अधीन बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए , प्रभावी होंगे ।
कार्य संचालन
188. सदस्यों द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान—राज्य की विधान सभा या विधान परिषद का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पहले , राज्यपाल या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा ।
189. सदनों में मतदान, रिक्तियों के होते हुए भी सदनों की कार्य करने की शक्ति और गणपूर्ति —(1) इस संविधान में यथा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन की बैठक में सभी प्रश्नों का अवधारण, अध्यक्ष या सभापति को अथवा उस रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को छोड़ कर, उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जाएगा ।
अध्यक्ष या सभापति , अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति प्रथमत: मत नहीं देगा, किंतु मत बराबर होने की दशा में उसका निर्णायक मत होगा और वह उसका प्रयोग करेगा ।
(2) राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन की सदस्यता में कोई रिक्ति होने पर भी, उस सदन को कार्य करने की शक्ति होगी और यदिबाद में यह पता चलता है कि कोई व्यक्ति , जो ऐसा करने का हकदार नहीं था, कार्यवाहियों में उपस्थित रहा है या उसने मत दिया है या अन्यथा भाग लिया है तो भी राज्य के विधान-मंडल की कार्यवाही विधिमान्य होगी ।
(3) जब तक राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का अधिवेशन गठित करने के लिए गणपूर्ति दस सदस्य या सदन के सदस्यों की कुल संख्या का दसवां भाग, इसमें से जो भी अधिक हो, होगी ।
(4) यदि राज्य की विधान सभा या विधान परिषद के अधिवेशन में किसी समय गणपूर्ति नहीं है तो अध्यक्ष या सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह सदन को स्थगित कर दे या अधिवेशन को तब तक के लिए निलंबित कर दे जब तक गणपूर्ति नहीं हो जाती है ।
सदस्यों की निरर्हताएं
190. स्थानों का रिक्त होना–(1) कोई व्यक्ति राज्य के विधान-मंडल के दोनों सदनों का सदस्य नहीं होगा और जो व्यक्ति दोनों सदनों का सदस्य चुन लिया जाता है उसके एक या दूसरे सदन के स्थान को रिक्त करने के लिए उस राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा उपबंध करेगा ।
(2) कोई व्यक्ति पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट दो या अधिक राज्यों के विधान-मंडलों का सदस्य नहीं होगा और यदि कोई व्यक्ति दो या अधिक ऐसे राज्यों के विधान-मंडलों का सदस्य चुन लिया जाता है तो ऐसी अवधि की समाप्ति के पश्चात् जो राष्ट्रपति द्वारा बनाए गए नियमों[29] में विनिर्दिष्ट की जाएं , ऐसे सभी राज्यों के विधान-मंडलों में ऐसे व्यक्ति का स्थान रिक्त हो जाएगा यदि उसने एक राज्य को छोड़ कर अन्य राज्यों के विधान-मंडलों में अपने स्थान को पहले ही नहीं त्याग दिया है ।
(3) यदि राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य–
(क) [30][अनुच्छेद 191 के खंड (2)]में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो जाता है, या
[31][(ख) यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षरसहित लेख द्वारा अपने स्थान का त्याग कर देता है और उसका त्यागपत्र , यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है,] तो ऐसा होने पर उसका स्थान रिक्त हो जाएगा :
[32][परंतु उपखंड (ख) में निार्दि−] त्यागपत्र की दशा में, यदिप्राप्त जानकारी से या अन्यथा और ऐसी जांच करने के पश्चात् , जो वह ठीक समझे,यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा त्यागपत्र स्वैाच्छिक या असली नहीं है तो वह ऐसे त्यागपत्र को स्वीकार नहीं करेगा ।]
(4) यदि किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य साठ दिन की अवधि तक सदन की अनुज्ञा के बिना उसके सभी अधिवेशनों से अनुपस्थित रहता है तो सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकेगा : परंतु साठ दिन की उक्त अवधि की संगणना करने में किसी ऐसी अवधि को हिसाब में नहीं लिया जाएगा जिसके दौरान सदन सत्रावसित या निरंतर चार से अधिक दिनों के लिए स्थगित रहता है ।
191. सदस्यता के लिए निरर्हताएं –(1) कोई व्यक्ति किसी राज्य की विधान सभा या विधान परिषद का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा–
(क) यदि वह भारत सरकारके या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़ कर जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना राज्य के विधान-मंडल ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है ;
(ख) यदि वह विकॄतचित्त है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है ;
(ग) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है ;
(घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से आर्जित कर ली है या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है ;
(ङ) यदि वह संसद् द्वारा बनाई गईकिसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है ।
[33][स्पष्टीकरण —इस खंड के प्रयोजनों के लिए ,]कोई व्यक्ति केवल इस कारणभारत सरकार के या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है ।
[34][(2) कोई व्यक्ति किसी राज्य की विधान सभा या विधान परिषद का सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा यदि वह दसवीं अनुसूची के अधीन इस प्रकार निरर्हित हो जाता है ।]
[35][192. सदस्यों की निरर्हताओं से संबंधित प्रश्नों पर विनिश्चय–-(1) यदि यह प्रश्न उठता है कि किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य अनुच्छेद 191 के खंड(1) में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं तो वह प्रश्न राज्यपाल को विनिश्चय के लिए निर्देशित किया जाएगा और उसका विनिश्चय अंतिम होगा ।
(2) ऐसे किसी प्रश्न पर विनिश्चय करने से पहले राज्यपाल निर्वाचन आयोग की राय लेगा और ऐसी राय के अनुसार कार्य करेगा ।]
193. अनुच्छेद 188 के अधीन शपथ लेने या प्रतिज्ञा करनेसे पहले या अर्हित न होते हुए या निरर्हित किए जाने पर बैठने और मत देने के लिए शास्ति —यदि किसी राज्य की विधान सभा या विधान परिषद् में कोई व्यक्ति अनुच्छेद 188 की अपेक्षाओं का अनुपालन करने से पहले ,या यह जानते हुए कि मैं उसकी सदस्यता के लिए अर्हित नहीं हूं या निरर्हित कर दिया गया हूं या संसद् या राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधिके उपबंधों द्वारा ऐसा करने से प्रतिषिद्ध कर दिया गया हूं, सदस्य के रूप में बैठता है या मत देता है तो वह प्रत्येक दिन के लिए जब वह इस प्रकार बैठता है या मत देता है, पांच सौ रुपए की शास्ति का भागी होगा जो राज्य को देय ऋण के रूप में वसूल की जाएगी ।
राज्यों के विधान–मंडलों और उनके सदस्यों की शक्तियां, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां
194. विधान–मंडलों के सदनों की तथा उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियां, विशेषाधिकार, आदि—
(1) इस संविधान के उपबंधों के और विधान-मंडल की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों और स्थायी आदेशों के अधीन रहते हुए, प्रत्येक राज्य के विधान-मंडल में वाक्-स्वातंत्र्य होगा ।
(2) राज्य के विधान-मंडल में या उसकी किसी समिति में विधान-मंडल के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और किसी व्यक्ति के विरुद्ध ऐसे विधान-मंडल के किसी सदन के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन किसी प्रतिवेदन पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में इस प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी ।
(3) अन्य बातों में राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन की और ऐसे विधान-मंडल के किसी सदन के सदस्यों और समितियों की शक्तियां, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां ऐसी होंगी जो वह विधान-मंडल, समय-समय पर , विधि द्वारा परिनिाश्चित करें और जब तक वे इस प्रकार परिनिश्चित नहीं की जाती हैं तब तक [36][ही होंगी जो संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 26 के प्रवॄत्त होने से ठीक पहले उस सदन की और उसके सदस्यों और समितियों की ।]
(4) जिन व्यक्ति यों को इस संविधान के आधार पर राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन या उसकी किसी समिति में बोलने का और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार है, उनके संबंध में खंड (1), खंड (2) और खंड (3) के उपबंध उसी प्रकार लागू होंगे जिस प्रकार वे उस विधान-मंडल के सदस्यों के संबंध में लागू होते हैं ।
195. सदस्यों के वेतन और भत्ते—राज्य की विधान सभा और विधान परिषद के सदस्य ऐसे वेतन और भत्ते, जिन्हें उस राज्य का विधान-मंडल, समय-समय पद , विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस संबंध में इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतन और भत्ते, ऐसी दरों से और ऐसी शर्तों पर, जो तत्स्थानी प्रांत की विधान सभा के सदस्यों को इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले लागू थीं, प्राप्त करने के हकदार होंगे ।
विधायी प्रक्रिया
196. विधेयकों के पुरःस्थाफन और पारित किए जाने के संबंध में उपबंध –(1) धन विधेयकों और अन्य वित्त विधेयकों के संबंध में अनुच्छेद 198 और अनुच्छेद 207 के उपबंधों के अधीन रहते हुए , कोई विधेयक विधान परिषद वाले राज्य के विधान-मंडल के किसी भी सदन में आरंभ हो सकेगा ।
(2) अनुच्छेद 197 और अनुच्छेद 198 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई विधेयक विधान परिषद वाले राज्य के विधान-मंडल के सदनों द्वारा तब तक पारित किया गया नहीं समझा जाएगा जब तक संशोधन के बिना या केवल ऐसे संशोधनों सहित, जिन पर दोनों सदन सहमत हो गए हैं, उस पर दोनों सदन सहमत नहीं हो जाते हैं ।
(3) किसी राज्य के विधान-मंडल में लंबित विधेयक उसके सदन या सदनों के सत्रावसान के कारण व्यपगत नहीं होगा ।
(4) किसी राज्य की विधान परिषद में लंबित विधेयक, जिसको विधान सभा ने पारित नहीं किया है, विधान सभा के विघटन पर व्यपगत नहीं होगा।
(5) कोई विधेयक, जो किसी राज्य की विधान सभा में लंबित है या जो विधान सभा द्वारा पारित कर दिया गया है और विधान परिषद में लंबित है, विधान सभा के विघटन पर व्यपगत हो जाएगा ।
197. धन विधेयकों से भिन्न विधेयकों के बारे में विधान परिषद की शक्तियों पर निर्बंधन–(1) यदि विधान परिषद वाले राज्य की विधान सभा द्वारा किसी विधेयक के पारित किए जाने और विधान परिषद को परेषित किए जाने के पश्चात्–
(क) विधान परिषद द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया जाता है, या
(ख) विधान परिषद के समक्ष विधेयक रखे जाने की तारीख से, उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना, तीन मास से अधिक बीत गए हैं, या
(ग) विधान परिषद द्वारा विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पारित किया जाता है जिनसे विधान सभा सहमत नहीं होती है, तो विधान सभा विधेयक को,अपनी प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों के अधीन रहते हुए , उसी या किसी पश्चात्वर्ती सत्र में ऐसे संशोधनों सहित या उसके बिना, यदि कोई हों, जो विधान परिषद ने किए हैं, सुझाएं हैं या जिनसे विधान परिषद सहमत है, पुनः पारित कर सकेगी और तब इस प्रकार पारित विधेयक को विधान परिषद को परेषित कर सकेगी ।
(2) यदि विधान सभा द्वारा विधेयक इस प्रकार दुबारा पारित कर दिए जाने और विधान परिषद को परेषित किए जाने के पश्चात् —
(क) विधान परिषद द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया जाता है, या
(ख) विधान परिषद के समक्ष विधेयक रखे जाने की तारीख से, उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना, एक मास से अधिक बीत गया है, या
(ग) विधान परिषद द्वारा विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पारित किया जाता है जिनसे विधान सभा सहमत नहीं होती है, तो विधेयक राज्य के विधान-मंडल के सदनों द्वारा ऐसे संशोधनों सहित, यदि कोई हों, जो विधान परिषद ने किए हैं या सुझाएं हैं और जिनसे विधान सभा सहमत है, उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधान सभा द्वारा दुबारा पारित किया गया था ।
(3) इस अनुच्छेद की कोई बात धन विधेयक को लागू नहीं होगी ।
198. धन विधेयकों के संबंध में विशेष प्रक्रिया–(1) धन विधेयक विधान परिषद में पुरःस्थाफित नहीं किया जाएगा ।
(2) धन विधेयक विधान परिषद वाले राज्य की विधान सभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात् विधान परिषद को उसकी सिफारिशों के लिए परेषित किया जाएगा और विधान परिषद विधेयक की प्राप्ति की तारीख से चौदह दिन की अवधि के भीतर विधेयक को अपनी सिफारिशों सहित विधान सभा को लौटा देगी और ऐसा होने पर विधान सभा, विधान परिषद की सभी या किन्हीं सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकेगी ।
(3) यदि विधान सभा, विधान परिषद की किसी सिफारिश को स्वीकार कर लेती है तो धन विधेयक विधान परिषद द्वारा सिफारिश किए गए और विधान सभा द्वारा स्वीकार किए गए संशोधनों सहित दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया समझा जाएगा ।
(4) यदि विधान सभा, विधान परिषद की किसी भी सिफारिश को स्वीकारनहीं करती है तो धन विधेयक विधान परिषद द्वारा सिफारिश किए गए किसी संशोधन के बिना, दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधान सभा द्वारा पारित किया गया था ।
(5) यदि विधान सभा द्वारा पारित और विधान परिषद को उसकी सिफारिशों के लिए परेषित धन विधेयक उक्त चौदह दिन की अवधि के भीतर विधान सभा को नहीं लौटाया जाता है तो उक्त अवधि की समाप्ति पर वह दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधान सभा द्वारा पारित किया गया था ।
199. “धन विधेयक”की परिभाषा–(1) इस अध्याय के प्रयोजनों के लिए, कोई विधेयक धन विधेयक समझा जाएगा यदि उसमें केवल निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों से संबंधित उपबंध हैं, अर्थात् —
(क) किसी कर का अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन ;
(ख) राज्य द्वारा धन उधार लेने का या कोई प्रत्याभूति देने का विनियमन अथवा राज्य द्वारा अपने ऊपर ली गई या ली जाने वाली किन्हीं वित्तीय बाध्यताओं से संबंधित विधि का संशोधन ;
(ग) राज्य की संचित निधि या आकास्मिकता निधि की अभिरक्षा, ऐसी किसी निधि में धन जमा करना या उसमें से धन निकालना ;
(घ) राज्य की संचित निधि में से धन का विनियोग ;
(ङ) किसी व्यय को राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना या ऐसे किसी व्यय की रकम
को बढ़ाना ;
(च) राज्य की संचित निधि या राज्य के लोक लेखे मद्धे धन प्राप्त करना अथवा ऐसे धन की अभिरक्षा या उसका निर्गमन ;या
(छ) उपखंड (क) से उपखंड (च) में विनिर्दिष्ट किसी विषय का आनुषंगिक कोई विषय ।
(2) कोई विधेयक केवल इस कारण धन विधेयक नहीं समझा जाएगा , कि वह जुर्मानों अन्य धनीय शास्तियों के अधिरोपण का अथवा अनुज्ञाप्तियों के लिए फीसों की या की गई सेवाओं के लिए फीसों की मांग का या उनके संदाय का उपबंध करता है अथवा इस कारण धन विधेयक नहीं समझा जाएगा कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन का उपबंध करता है ।
(3) यदि यह प्रश्न उठता है कि विधान परिषद वाले किसी राज्य के विधान-मंडल में पुरःस्थाफित कोई विधेयकधन विधेयक है या नहीं तो उस पर उस राज्य की विधान सभा के अध्यक्ष का विनिश्चय अंतिम होगा ।
(4) जब धन विधेयक अनुच्छेद 198 के अधीन विधान परिषद को परेषित किया जाता है और जब वह अनुच्छेद 200 के अधीन अनुमति के लिए राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तब प्रत्येक धन विधेयक पर विधान सभा के अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण पृष्ठांकित किया जाएगा कि वह धन विधेयक है ।
200. विधेयकों पर अनुमति—जब कोई विधेयक राज्य की विधान सभा द्वारा या विधान परिषद वाले राज्य में विधान-मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है तब वह राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और राज्यपाल घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है अथवा वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है :
परंतु राज्यपाल अनुमति के लिए अपने समक्ष विधेयक प्रस्तुत किए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र उस विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है तो, सदन या सदनों को इस संदेश के साथ लौटा सकेगा कि सदन या दोनों सदन विधेयक पर या उसके किन्हीं विनिर्दिष्ट उपबंधों पर पुनर्विचार करें और विशिष्टतया किन्हीं ऐसे संशोधनों के पुरःस्थाफन की वांछनीयता पर विचार करें जिनकी उसने अपने संदेश में सिफारिश की है और जब विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब सदन या दोनों सदन विधेयक पर तदनुसार पुनर्विचार करेंगे और यदि विधेयक सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है और राज्यपाल के समक्ष अनुमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है तो राज्यपाल उस पर अनुमति नहीं रोकेगा :
परंतु यह और कि जिस विधेयक से, उसके विधि बन जाने पर, राज्यपाल की राय में उच्च न्यायालय की शक्तियों का ऐसा अल्पीकरण होगा कि वह स्थान, जिसकी पूर्ति के लिए वह न्यायालय इस संविधान द्वारा परिकल्पित है, संकटापन्न हो जाएगा, उस विधेयक पर राज्यपाल अनुमति नहीं देगा, किंतु उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखेगा ।
201. विचार के लिए आरक्षित विधेयक—जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख लिया जाता है तब राष्ट्रपति घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है : परंतु जहां विधेयक धन विधेयक नहीं है वहां राष्ट्रपति राज्यपाल को यह निदेश दे सकेगा कि वह विधेयक को, यथास्थिति, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों को ऐसे संदेश के साथ, जो अनुच्छेद 200 के पहले परंतुक में वर्णित है, लौटा दे और जब कोई विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब ऐसा संदेश मिलने की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर सदन या सदनों द्वारा उस पर तदनुसार पुनर्विचार किया जाएगा और यदि वह सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति के समक्ष उसके विचार के लिए फिर से प्रस्तुत किया जाएगा ।
वित्तीय विषयों के संबंध में प्रक्रिया
202. वार्षिक वित्तीय विवरण–(1) राज्यपाल प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों के समक्ष उस राज्य की उस वर्ष के लिए प्राक्कलित प्राप्ति यों और व्यय का विवरण रखवाएगा जिसे इस भाग “वार्षिक वित्तीय विवरण”कहा गया है ।
(2) वार्षिक वित्तीय विवरण में दिए हुए व्यय के प्राक्कलनो में —
(क) इस संविधान में राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय के रूप में वर्णित व्यय की पूर्ति के लिए अपेक्षित राशियां, और
(ख) राज्य की संचित निधि में से किए जाने के लिए प्रस्थापित अन्य व्यय की पूर्ति के लिए अपेक्षित राशियां, पृथक -पृथक दिखाई जाएं गी और राजस्व लेखे होने वाले व्यय का अन्य व्यय से भेद किया जाएगा ।
(3) निम्नलिखित व्यय प्रत्येक राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय होगा, अर्थात् :–
(क) राज्यपाल की उपलब्धियां और भत्ते तथा उसके पद से संबंधित अन्य व्यय ;
(ख) विधान सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के तथा विधान परिषद वाले राज्य की दशा में विधान परिषद के सभापति और उपसभापति के भी वेतन और भत्ते;
(ग) ऐसे ऋण भार जिनका दायित्व राज्य पर है, जिनके अंतर्गत ब्याज, निक्षेप निधि भार और मोचन भार तथा उधार लेने और ऋण सेवा और ऋण मोचन से संबंधित अन्य व्यय हैं ;
(घ) किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतनों और भत्तों के संबंध में व्यय ;
(ङ) किसी न्यायालय या माध्यस्थम् अधिकरण के निर्णय, डिक्री या पंचाट की तुष्टि के लिए अपेक्षित राशियां ;
(च) कोई अन्य व्यय जो इस संविधान द्वारा या राज्य के विधान-मंडल द्वारा, विधि द्वारा, इस प्रकार भारित घोषित किया जाता है ।
203. विधान–मंडल में प्राक्कलनो के संबंध में प्रक्रिया –(1) प्राक्कलनो में से जितने प्राक्कलन राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय से संबंधित हैं वे विधान सभा में मतदान के लिए नहीं रखे जाएंगे, किन्तु इस खंड की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह विधान-मंडल में उन प्राक्कलनो में से किसी प्राक्कलन पर चर्चा को निवारित करती है ।
(2) उक्त प्राक्कलनो में से जितने प्राक्कलन अन्य व्यय से संबंधित हैं वे विधान सभा के समक्ष अनुदानों की मांगों के रूप में रखे जाएंगे और विधान सभा को शक्ति होगी कि वह किसी मांग को अनुमति दे या अनुमति देने से इंकार कर दे अथवा किसी मांग को, उसमें विनिर्दिष्ट रकम को कम करके, अनुमति दे ।
(3) किसी अनुदान की मांग राज्यपाल की सिफारिश पर ही की जाएगी, अन्यथा नहीं ।
204. विनियोग विधेयक–(1) विधान सभा द्वारा अनुच्छेद 203 के अधीन अनुदान किए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र, राज्य की संचित निधि में से–
(क) विधान सभा द्वारा इस प्रकार किए गए अनुदानों की, और
(ख) राज्य की संचित निधि पर भारित, किन्तु सदन या सदनों के समक्ष पहले रखे गए विवरण में दार्शित रकम से किसी भी दशा में अनधिक व्यय की, पूर्ति के लिए अपेक्षित सभी धनराशियों के विनियोग का उपबंध करने के लिए विधेयक पुरःस्थाफित किया जाएगा ।
(2) इस प्रकार किए गए किसी अनुदान की रकम में परिवर्तन करने या अनुदान के लक्ष्य को बदलने अथवा राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय की रकम में परिवर्तन करने का प्रभाव रखने वाला कोई संशोधन, ऐसे किसी विधेयक में राज्य के विधान-मंडल के सदन में या किसी सदन में प्रस्थापित नहीं किया जाएगा और पीठासीन व्यक्ति का इस बारे में विनिश्चय अंतिम होगा कि कोई संशोधन इस खंड के अधीन अग्राह्य है या नहीं ।
(3) अनुच्छेद 205 और अनुच्छेद 206 के उपबंधों के अधीन रहते हुए , राज्य की संचित निधि में से इस अनुच्छेद के उपबंधों के अनुसार पारित विधि द्वारा किए गए विनियोग के अधीन ही कोई धन निकाला जाएगा, अन्यथा नहीं ।
205. अनुपूरक , अतिरिक्त या अधिक अनुदान–(1) यदि–
(क) अनुच्छेद 204 के उपबंधों के अनुसार बनाई गई किसी विधि द्वारा किसी विशिष्ट सेवा पर चालू वित्तीय वर्ष के लिए व्यय किए जाने के लिए प्राधिकॄत कोई रकम उस वर्ष के प्रयोजनों के लिए अपर्याप्त पाई जाती है या उस वर्ष के वार्षिक वित्तीय विवरण में अनुध्यात न की गई किसी नई सेवा पर अनुपूरक या अतिरिक्त व्यय की चालू वित्तीय वर्ष के दौरान आवश्यकता फैदा हो गई है, या
(ख) किसी वित्तीय वर्ष के दौरान किसी सेवा पर उस वर्ष और उस सेवा के लिए अनुदान की गई रकम से अधिक कोई धन व्यय हो गया है, तो राज्यपाल , यथास्थिति, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों के समक्ष उस व्यय की प्राक्कलित रकम को दार्शित करने वाला दूसरा विवरण रखवाऋगा या राज्य की विधान सभा में ऐसे आधिकक़्य के लिए मांग प्रस्तुत करवाएगा ।
(2) ऐसे किसी विवरण और व्यय या मांग के संबंध में तथा राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय या ऐसी मांग से संबंधित अनुदान की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकॄत करने के लिए बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में भी, अनुच्छेद 202, अनुच्छेद 203 और अनुच्छेद 204 के उपबंध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण और उसमें वर्णित व्यय के संबंध में या किसी अनुदान की किसी मांग के संबंध में और राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय या अनुदान की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकॄत करने के लिए बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं ।
206. लेखानुदान, प्रत्ययानुदान और अपवादानुदान–(1) इस अध्याय के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य की विधान सभा को–
(क) किसी वित्तीय वर्ष के भाग के लिए प्राक्कलित व्यय के संबंध में कोई अनुदान, उस अनुदान के लिए मतदान करने के लिए अनुच्छेद 203 में विहित प्रक्रिया के पूरा होने तक और उस व्यय के संबंध में अनुच्छेद 204 के उपबंधों के अनुसार विधि के पारित होने तक, अग्रिम देने की ;
(ख) जब किसी सेवा की महत्ता या उसके अनिाश्चित रूप के कारण मांग ऐसे ब्यौरे के साथ वर्णित नहीं की जा सकती है जो वार्षिक वित्तीय विवरण में सामान्यतया दिया जाता है तब राज्य के संफत्ति स्रोतों पर अप्रत्याशित मांग की पूर्ति के लिए अनुदान करने की ;
(ग) किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का जो अनुदान भाग नहीं है ऐसा कोई अपवादानुदान करने की, शक्ति होगी और जिन प्रयोजनों के लिए उक्त अनुदान किए गए हैं उनके लिए राज्य की संचित निधि में से धन निकालना विधि द्वारा प्राधिकॄत करने की राज्य के विधान-मंडल को शक्ति होगी ।
(2) खंड (1) के अधीन किए जाने वाले किसी अनुदान और उस खंड के अधीन बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में अनुच्छेद 203 और अनुच्छेद 204 के उपबंध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण में वर्णित किसी व्यय के बारे में कोई अनुदान करने के संबंध में और राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकॄत करने के लिए बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं ।
207. वित्त विधेयकों के बारे में विशेष उपबंध –(1) अनुच्छेद 199 के खंड (1) के उपखंड (क) से उपखंड (च) में विनिर्दिष्ट किसी विषय के लिए उपबंध करने वाला विधेयक या संशोधन राज्यपाल की सिफारिश से ही पुरःस्थाफित या प्रस्तावित किया जाएगा, अन्यथा नहीं और ऐसा उपबंध करने वाला विधेयक विधान परिषद में पुरःस्थाफित नहीं किया जाएगा :
परंतु किसी कर के घटाने या उत्सादन के लिए उपबंध करने वाले किसी संशोधन के प्रस्ताव के लिए इस खंड के अधीन सिफारिश की अपेक्षा नहीं होगी ।
(2) कोई विधेयक या संशोधन उक्त विषयों में से किसी विषय के लिए उपबंध करने वाला केवल इस कारण नहीं समझा जाएगा कि वह जुर्मानों या अन्य धनीय शास्तियों के अधिरोपण का अथवा अनुज्ञाप्तियों के लिए फीसों की या की गई सेवाओं के लिए फीसों की मांग का या उनके संदाय का उपबंध करता है अथवा इस कारण नहीं समझा जाएगा कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारास्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन, परिहार , परिवर्तन या विनियमन का उपबंध करता है ।
(3) जिस विधेयक को अधिनियमित और प्रवार्तित किए जाने पर राज्य की संचित निधि में से व्यय करना पड़ेगा वह विधेयक राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन द्वारा तब तक पारित नहीं किया जाएगा जब तक ऐसे विधेयक पर विचार करने के लिए उस सदन से राज्यपाल ने सिफारिश नहीं की है ।
साधारणतया प्रक्रिया
208. प्रक्रिया के नियम—(1) इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधान-मंडल का कोई सदन अपनी प्रक्रिया और अपने कार्य संचालन के विनियमन के लिए नियम बना सकेगा ।
(2) जब तक खंड (1) के अधीन नियम नहीं बनाए जाते हैं तब तक इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले तत्स्थानी प्रांत के विधान-मंडल के संबंध में जो प्रक्रिया के नियम और स्थायी आदेश प्रवॄत्त थे वे ऐसे उपान्तरणों और अनुकूलनों के अधीन रहते हुए उस राज्यके विधान-मंडल के संबंध में प्रभावी होंगे जिन्हें, यथास्थिति, विधान सभा का अध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति उनमें करे ।
(3) राज्यपाल , विधान परिषद वाले राज्य में विधान सभा के अध्यक्ष और विधान परिषद के सभापति से परामर्श करने के पश्चात् , दोनों सदनों में पर स्फर संचार से संबंधित प्रक्रिया के नियम बना सकेगा ।
209. राज्य के विधान–मंडल में वित्तीय कार्य संबंधी प्रक्रिया का विधि द्वारा विनियमन—किसी राज्य का विधानमंडल, वित्तीय कार्य को समयके भीतर पूरा करने के प्रयोजन के लिए किसी वित्तीय विषय से संबंधित या राज्य की संचित निधि में से धन का विनियोग करने के लिए किसी विधेयक से संबंधित, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों की प्रक्रिया और कार्य संचालन का विनियमन विधि द्वारा कर सकेगा तथा यदि और जहां तक इस प्रकार बनाई गई किसी विधि का कोई उपबंध अनुच्छेद 208 के खंड (1) के अधीन राज्य के विधान-मंडल के सदन या किसी सदन द्वारा बनाए गए नियम से या उस अनुच्छेद के खंड (2) के अधीन राज्य विधान-मंडल के संबंध में प्रभावी किसी नियम या स्थायी आदेश से असंगत है तो और वहां तक ऐसा उपबंध अभिभावी होगा ।
210. विधान–मंडल में प्रयोग की जाने वाली भाषा –(1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए , राज्य के विधान-मंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या राजभाषा ओं में या हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा :
परंतु , यथास्थिति, विधान सभा का अध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो पूर्वोक्त भाषाओं में से किसी भाषा में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातॄभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा ।
(2) जब तक राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात् यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो “या अंग्रेजी में”शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया होः
[37][परंतु [38][हिमाचल प्रदेश, मणिफुर, मेघालय और त्रिपुरा राज्यों के विधान-मंडलों] के संबंध में यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले “पंद्रह वर्ष ”शब्दों के स्थान पर “पच्चीस वर्ष ”शब्द रख दिए गए हों :
[39][परंतु यह और कि [40]–[41][अरुणाचल प्रदेश, गोवा और मिजोरम राज्यों के विधान-मंडलों के संबंध में यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले “पंद्रह वर्ष ”शब्दों के स्थान पर “चालीस वर्ष ”शब्द रख दिए गए हों ।]
211. विधान–मंडल में चर्चा पर निर्बंधन—उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में राज्य के विधान-मंडल में कोई चर्चा नहीं होगी ।
212. न्यायालयों द्वारा विधान–मंडल की कार्यवाहियों की जांच न किया जाना—(1)राज्य के विधान-मंडल की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा ।
(2) राज्य के विधान-मंडल का कोई अधिकारी या सदस्य, जिसमें इस संविधान द्वारा या इसके अधीन उस विधान-मंडल में प्रक्रिया या कार्य संचालन का विनियमन करने की अथवा व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियां निहित हैं, उन शक्तियों के अपने द्वारा प्रयोग के विषय में किसी न्यायालय की अधिकारिता के अधीन नहीं होगा ।
अध्याय 4 – राज्यपाल की विधायी शक्ति
213. विधान–मंडल के विश्रांतिकाल में अध्यादेश प्रख्यापित करने की राज्यपाल की शक्ति –(1) उस समय को छोड़ कर जब किसी राज्य की विधान सभा सत्र में है या विधान परिषद वाले राज्य में विधान-मंडल के दोनों सदन सत्र में है, यदि किसी समय राज्यपाल का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी परिास्थितियां विद्यमान हैं जिनके कारण तुरंत कार्रवाई करना उसके लिए आवश्यक हो गया है तो वह ऐसे अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा जो उसे उन परिास्थितियां में अपेक्षित प्रतीत हों :
परंतु राज्यपाल , राष्ट्रपति के अनुदेशों के बिना, कोई ऐसा अध्यादेश प्रख्याफपित नहीं करेगा यदि–
(क) वैसे ही उपबंध अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक को विधान-मंडल में पुर : स्थाफित किए जाने के लिए राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी की अपेक्षा इस संविधान के अधीन होती ;या
(ख) वह वैसे ही उपबंध अंतर्विष्ट करने वाले विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखना आवश्यक समझता ; या
(ग) वैसे हर उपबंध अंतर्विष्ट करने वाला राज्य के विधान-मंडल का अधिनियम इस संविधान के अधीन तब तक अविधिमान्य होता जब तक राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखे जाने पर उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त नहीं हो गई होती ।
(2) इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित अध्यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो राज्य के विधान-मंडल के ऐसे अधिनियम का होता है जिसे राज्यपाल ने अनुमति दे दी है, किंतु प्रत्येक ऐसा अध्यादेश–
(क) राज्य की विधान सभा के समक्ष और विधान परिषद वाले राज्य में दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा तथा विधान-मंडल के पुनः समवेत होने से छह सप्ताह की समाप्ति पर या यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले विधान सभा उसके अननुमोदन का संकल्प पारित कर देती है और यदि विधान परिषद है तो वह उससे सहमत हो जाती है तो, यथास्थिति, संकल्प के पारित होने पर या विधान परिषद द्वारा संकल्प से सहमत होने पर प्रवर्तन में नहीं रहेगा ;और
(ख) राज्यपाल द्वारा किसी भी समय वापस लिया जा सकेगा ।
स्पष्टीकरण —जहां विधान परिषद वाले राज्य के विधान-मंडल के सदन, भिन्न-भिन्न तारीखों को पुनः समवेत होने के लिए , आहूत किए जाते हैं वहां इस खंड के प्रयोजनों के लिए छह सप्ताह की अवधि की गणना उन तारीखों में से पश्चातवर्ती तारीख से की जाएगी ।
(3) यदि और जहां तक इस अनुच्छेदके अधीन अध्यादेश कोई ऐसा उपबंध करता है जो राज्य के विधान-मंडल के ऐसे अधिनियम में जिसे राज्यपाल ने अनुमति दे दी है, अधिनियमित किए जाने पर विधिमान्य नहीं होता तो और वहां तक वह अध्यादेश शून्य होगा : परंतु राज्य के विधान-मंडल के ऐसे अधिनियम के, जो समवर्ती सूची में प्रगणित किसी विषय के बारे में संसद् के किसी अधिनियम या किसी विद्यमान विधि के विरुद्ध है, प्रभाव से संबंधित इस संविधान के उपबंधों के प्रयोजनों के लिए यह है कि कोई अध्यादेश, जो राष्ट्रपति के अनुदेशों के अनुसरण में इस अनुच्छेद के अधीन प्रख्यापित किया जाता है, राज्य के विधान-मंडल का ऐसा अधिनियम समझा जाएगा जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा गया था और जिसे उसने अनुमति दे दी है ।
[42]* * * * *
अध्याय 5–राज्यों के उच्च न्यायालय
214. राज्यों के लिए उच्च न्यायालय—[43]* * * प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा ।
[44]* * * * *
215. उच्च न्यायालयों का अभिलेख न्यायालय होना–प्रत्येक उच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां होंगी ।
216. उच्च न्यायालयों का गठन—प्रत्येक उच्च न्यायालय मुख्य न्यायमूार्ति और ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे ।
[45]* * * *
217. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और उसके पद की शर्तें–(1) भारत के मुख्य न्यायमूार्ति से, उस राज्य के राज्यपाल से और मुख्य न्यायमूार्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूार्ति से परामर्श करने के पश्चात्, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश [46][अपर या कार्यकारी न्यायाधीश की दशा में अनुच्छेद 224 में उपबंधित रूप में पद धारण करेगा और किसी अन्य दशा में तब तक पद धारण करेगा जब तक वह [47][बासठ वर्ष ]की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है]
परंतु —
(क) कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा ;
(ख) किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अनुच्छेद 124 के खंड
(4) में उपबंधित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा ;
(ग) किसी न्यायाधीश का पद , राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा उसे भारत के राज्यक्षेत्र में किसी अन्य उच्च न्यायालय को, अंतरित किए जाने पर रिक्त हो जाएगा ।
(2) कोई व्यक्ति , किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हित होगा जब, वह भारत का नागिरक है और—
(क) भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका है ;या
(ख) किसी [48]* * * उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवकक़्ता रहा है ;[49]* * *
2* * * * *
स्पष्टीकरण —इस खंड के प्रयोजनों के लिए —
[50][(क) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी साम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान कोई व्यक्ति न्यायिक पद धारण करने के पश्चात् किसी उच्च न्यायालय का अधिवकक़्ता रहा है या उसने किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है ;]
[51][(कक) किसी उच्च न्यायालय का अधिवकक़्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी साम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवकक़्ता होने के पश्चात् [52][न्यायिक पद धारण किया है या किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है ;]
(ख) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने या किसी उच्च न्यायालय का अधिवकक़्ता रहने की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की वह अवधि भी साम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने, यथास्थिति, ऐसे क्षेत्र में जो 15 अगस्त, 1947 से पहले भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में समावि−] था, न्यायिक पद धारण किया है या वह ऐसे किसी क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय का अधिवकक़्ता रहा है ।
[53][(3) यदि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की आयु के बारे में कोई प्रश्न उठता है तो उस प्रश्न का विनिश्चय भारत के मुख्य न्यायमूार्ति से परामर्श करने के पश्चात् राष्ट्रपति का विनिश्चय अंतिम होगा ।]
218. उच्चतम न्यायालय से संबंधित कुछ उपबंधों का उच्च न्यायालयों को लागू होना—अनुच्छेद 124 के खंड (4) और खंड (5) के उपबंध , जहां-जहां उनमें उच्चतम न्यायालय के प्रति निर्देश है वहां-वहां उच्च न्यायालय के प्रति निर्देश प्रतिस्थाफित करके, उच्च न्यायालय के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उच्चतम न्यायालयके संबंध में लागू होते हैं ।
219. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान—[54]* * * उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने के लिए नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति , अपना पद ग्रहण करने से पहले , उस राज्य के राज्यपाल या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष, तीसरी अनुसूची में इसप्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार, शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा ।
[55][220. स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात् विधि–व्यवसाय पर निर्बंधन—कोई व्यक्ति , जिसने इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात् किसी उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है, उच्चतम न्यायालय और अन्य उच्च न्यायालयों के सिवाय भारत में किसी न्यायालय या किसी प्राधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य नहीं करेगा ।
स्पष्टीकरण –-इस अनुच्छेद में, “उच्च न्यायालय”पद के अंतर्गत संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 के प्रारंभ[56] से पहले विद्यमान पहली अनुसूची के भाग ख में विनिर्दिष्ट राज्य का उच्च न्यायालय नहीं है ।]
221. न्यायाधीशों के वेतन आदि—[57][(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो संसद्, विधि द्वारा, अवधारित करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतनों का संदाय किया जाएगा जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं ।]
(2) प्रत्येक न्यायाधीश ऐसे भत्तों का तथा अनुपस्थिति छुट्टी और फेंशन के संबंध में ऐसे अधिकारों का, जो संसद् द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन समय-समय पर अवधारित किए जाएं , और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किए जाते हैं तब तक ऐसे भत्तों और अधिकारों का जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा ।
परंतु किसी न्यायाधीश के भत्तों में और अनुपस्थिति छुट्टी या फेंशन के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा ।
222. किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरण–(1) राष्ट्रपति , भारत के मुख्य न्यायमूार्ति से परामर्श करने के पश्चात्
[58]* * * किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरण कर सकेगा ।
[59][(2) जब कोई न्यायाधीश इस प्रकार अंतरित किया गया है या किया जाता है तब वह उस अवधि के दौरान, जिसके दौरान वह संविधान (पंद्रह वां संशोधन) अधिनियम, 1963 के प्रारंभ के पश्चात् दूसरे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सेवा करता है, अपने वेतन के अतिरिक्त ऐसा प्रतिकरात्मक भत्ता, जो संसद् विधि द्वारा अवधारित करे, और जब तक इस प्रकार अवधारित नहीं किया जाता है तब तक ऐसा प्रतिकरात्मक भत्ता, जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा नियत करे, प्राप्त करने का हकदार होगा ।]
223. कार्यकारी मुख्य न्यायमूार्ति की नियुक्ति —जब किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूार्ति का पद रिक्त है या जब ऐसा मुख्य न्यायमूार्ति अनुपस्थिति के कारण या अन्यथा अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तब न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से ऐसा एक न्यायाधीश, जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा ।
[60][224. अपर और कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति —(1) यदि किसी उच्च न्यायालय के कार्य में किसी अस्थायी वॄद्धि के कारण या उसमें कार्य की बकाया के कारण राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि उस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या को तत्समय बढ़ा देना चाहिए तो राष्ट्रपति सम्यक् रूप से अर्हित व्यक्ति यों को दो वर्ष से अनधिक की ऐसी अवधि के लिए जो वह विनिर्दिष्ट करे, उस न्यायालय के अपर न्यायाधीश नियुक्त कर सकेगा ।
(2) जब किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूार्ति से भिन्न कोई न्यायाधीश अनुपस्थिति के कारण या अन्य कारण से अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है या मुख्य न्यायमूार्ति के रूप में अस्थायी रूप से कार्य करने के लिए नियुक्त किया जाता है तब राष्ट्रपति सम्यक् रूप से अर्हित किसी व्यक्ति को तब तक के लिए उस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिए नियुक्त कर सकेगा जब तक स्थायी न्यायाधीश अपने कर्तव्यों को फिर से नहीं संभाल लेता है ।
(3) उच्च न्यायालय के अपर या कार्यकारी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कोई व्यक्ति [61][बासठ वर्ष ]की आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात् पद धारण नहीं करेगा ।
[62][224क. उच्च न्यायालयों की बैठकों में सेवानिवॄत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति –इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूार्ति, किसी भी समय, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति से, जो उस उच्च न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति , जिससे इस प्राकर अनुरोध किया जाता है, इस प्रकार बैठने और कार्य करने के दौरान ऐसे भत्तों का हकदार होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे और उसको उस उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सभी अधिकारिता, शक्ति यां और विशेषाधिकार होंगे, किंतु उसे अन्यथा उस उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नहीं समझा जाएगा :
परंतु जब तक यथापूर्वोक्त व्यक्ति उस उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बैठने और कार्य करने की सहमति नहीं दे देता है तब तक इस अनुच्छेद की कोई बात उससे ऐसा करने की अपेक्षा करने वाली नहीं समझी जाएगी ।]
225. विद्यमान उच्च न्यायालयों की अधिकारिता—इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए और इस संविधान द्वारा समुचित विधान-मंडल को प्रदत्त शक्ति यों के आधार पर उस विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए , किसी विद्यमान उच्च न्यायालय की अधिकारिता और उसमें प्रशासित विधि तथा उस न्यायालय में न्याय प्रशासन के संबंध में उसके न्यायाधीशों की अपनी -अपनी शक्ति यां, जिनके अंतर्गत न्यायालय के नियम बनाने की शक्ति तथा उस न्यायालय और उसके सदस्यों की बैठकों का चाहे वे अकेले बैठें या खंड न्यायालयों में बैठें विनियमन करने की शक्ति है, वही होंगी जो इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले थीं :
[63][परंतु राजस्व संबंधी अथवा उसका संग्रहण करने में आदि−] या किए गए किसी कार्य संबंधी विषय की बाबत उच्च न्यायालयों में से किसी की आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग, इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले , जिस किसी निर्बंधन के अधीन था वह निर्बंधन ऐसी अधिकारिता के प्रयोग को ऐसे प्रारंभ के पश्चात् लागू नहीं होगा ।]
[64][226. कुछ रिट निकालने की उच्च न्यायालय की शक्ति –(1) अनुच्छेद 32 में किसी बात के होते हुए भी [65]* * * प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, [66][भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवार्तित कराने के लिए और किसी अन्य प्रयोजन के लिए ]उन राज्यक्षेत्रों के भीतर किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को या समुचित मामलों में किसी सरकार को ऐसे निदेश, आदेश या रिट जिनके अंतर्गत [67][बंदी प्रत्यक्षीकरण, पर मादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, या उनमें से कोई] निकालने की शक्ति होगी ।]
(2) किसी सरकार, प्राधिकारी या व्यक्ति को निदेश, आदेश या रिट निकालने की खंड (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन राज्यक्षेत्रों के संबंध में,जिनके भीतर ऐसी शक्ति के प्रयोग के लिए वादहेतुक फूर्णत: या भागत: उत्पन्न होता है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाले किसी उच्च न्यायालय द्वारा भी, इस बात के होते हुए भी किया जा सकेगा कि ऐसी सरकार या प्राधिकारी का स्थान या ऐसे व्यक्ति का निवास-स्थान उन राज्यक्षेत्रों के भीतर नहीं है ।
5[(3) जहां कोई फक्षकार, जिसके विरुद्ध खंड (1) के अधीन किसी याचिका पर या उससे संबंधित किसी कार्यवाही में एयादेश के रूप में या रोक के रूप में या किसी अन्य रीति से कोई अंतरिम आदेश—
(क) ऐसे फक्षकार को ऐसी याचिका की और ऐसे अंतरिम आदेश के लिए अभिवाक् के समर्थन में सभी दस्तावेजों की प्रतिलिपियां, और
(ख) ऐसे पक्षकार को सुनवाई का अवसर, दिए बिना किया गया है, ऐसे आदेश को रद्ध कराने के लिए उच्च न्यायालय को आवेदन करता है और ऐसे आवेदन की एक प्रतिलिपि उस पक्षकार को जिसके फक्ष में ऐसा आदेश किया गया है या उसके काउंसेल को देता है वहां उच्च न्यायालय उसकी प्राप्ति को तारीख से या ऐसे आवेदन की प्रतिलिपि इस प्रकार दिए जाने की तारीख से दो सप्ताह की अवधि के भीतर, इनमें से जो भी पश्चात्वर्ती हो, या जहां उच्च न्यायालय उस अवधि के अंतिम दिन बंद है वहां उसके ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति से पहले जिस दिन उच्चन्यायालय खुला है, आवेदन को निफटाएगा और यदि आवेदन इस प्रकार नहीं निफटाया जाता है तो अंतरिम आदेश, यथास्थिति, उक्त अवधि की या उक्त ठीक बाद वाले दिन की समाप्ति पर रद्द हो जाएगा ।
[68][(4) इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को प्रदत्त शक्ति से, अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अल्पीकरण नहीं होगा ।]
[69]226क. [अनुच्छेद 226 के अधीन कार्यवाहियों में केन्द्रीय विधियों की सांविधानिक वैधता पर विचार न किया जाना ।]—संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 8 द्वारा (13-4-78 से) निरसित ।
227. सभी न्यायालयों के अधीक्षण की उच्च न्यायालय की शक्ति —[70](1) प्रत्येक उच्च न्यायालय उन राज्यक्षेत्रों में सर्वत्र, जिनके संबंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, सभी न्यायालयों और अधिकरणों का अधीक्षण करेगा ।]
(2) पूर्वगामी उपबंध की व्याफकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उच्च न्यायालय–
(क) ऐसे न्यायालयों से विवरणी मंगा सकेगा ;
(ख) ऐसे न्यायालयों की पद्धति औरकार्यवाहियों के विनियमन के लिए साधारण नियम और प्ररूप बना सकेगा, और निकाल सकेगा तथा विहित कर सकेगा ; और
(ग) किन्हीं ऐसे न्यायालयों के अधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों, प्रविष्टियों और लेखाओं के प्ररूप विहित कर सकेगा ।
(3) उच्च न्यायालय उन फीसों की सारणियां भी स्थिर कर सकेगा जो ऐसे न्यायालयों के शैरिफ को तथा सभी लिफिकों और अधिकारियों को तथा उनमें विधि-एयावसाय करने वाले अटार्नियों, अधिवकक़्ताओं और प्लीडरों को अनुज्ञेय होंगी :
परंतु खंड (2) या खंड (3) के अधीन बनाए गए कोई नियम, विहित किए गए कोई प्ररूप या स्थिर की गई कोई सारणी तत्समय प्रवॄत्त किसी विधि के उपबंध से असंगत नहीं होगी और इनके लिए राज्यपाल के पूर्व अनुमोदन की अपेक्षा होगी ।
(4) इस अनुच्छेद की कोई बात उच्चन्यायालय को सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण पर अधीक्षण की शक्तियां देने वाली नहीं समझी जाएगी ।
[71] * * * * *
228. कुछ मामलों का उच्च न्यायालय को अंतरण–यदि उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में लंबित किसी मामले में इस संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान् प्रश्न अंतर्वलित है जिसका अवधारण मामले के निफटारे के लिए आवश्यक है [72][तो वह [73]* * * उस मामले को अपने पास मंगा लेगा और–]
(क) मामले को स्वयं निपटा सकेगा, या
(ख) उक्त विधि के प्रश्न का अवधारण कर सकेगा और उस मामले को ऐसे प्रश्न पर निर्णय की प्रतिलिपि सहित उस न्यायालय को, जिससे मामला इस प्रकार मंगा लिया गया है, लौटा सकेगा और उक्त न्यायालय उसके प्राप्त होने पर उस मामले को ऐसे निर्णय के अनुरूप निफटाने के लिए आगे कार्यवाही करेगा ।
[74]228क. [राज्य विधियों की सांविधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों के निफटारे के बारे में विशेष उपबंध ।]—संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनयम, 1977 की धारा 10 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित ।
229. उच्च न्यायालयों के अधिकारी और सेवक तथा व्यय –(1) किसी उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्ति यां उस न्यायालय का मुख्य न्यायमूार्ति करेगा या उस न्यायालय का ऐसा अन्य न्यायाधीश या अधिकारी करेगा जिसे वह निदिष्ट करे : परंतु उस राज्य का राज्यपाल नियम [75]* * * द्वारा यह अपेक्षा कर सकेगा कि ऐसी किन्हीं दशाओं में जो नियम में विनिर्दिष्ट की जाएं , किसी ऐसे व्यक्ति को, जो पहले से ही न्यायालय से संलग्न नहीं है, न्यायालय से संबंधित किसी पद पर राज्य लोक सेवा आयोग से परामर्श करके ही नियुक्त किया जाएगा, अन्यथा नहीं ।
(2) राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए , उच्च न्ययालय के अधिकारियों और सेवकों की सेवा की शर्तें ऐसी होंगी जो उस न्यायालय के मुख्य न्यायमूार्ति या उस न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीश या अधिकारी द्वारा, जिसे मुख्य न्यायमूार्ति ने इस प्रयोजन के लिए नियम बनाने के लिए प्राधिकॄत किया है, बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाएं : परंतु इस खंड के अधीन बनाए गए नियमों के लिए , जहां तक वे वेतनों, भत्तों,छुट्टी या फेंशनों से संबंधित है, उस राज्य के राज्यपाल के 2* * * अनुमोदन की अपेक्षा होगी ।
(3) उच्च न्यायालय के प्रशासनिक व्यय , जिनके अंतर्गत उस न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों को या उनके संबंध में संदेय सभी वेतन,भत्ते और फेंशन हैं, राज्य की संचित निधि पर भारित होंगे और उस न्यायालय द्वारा ली गई फीसें और अन्य धनराशियां उस निधि का भाग होंगी ।
[76][230. उच्च न्यायालयों की अधिकारिता का संघ राज्यक्षेत्रों पर विस्तार–(1) संसद, विधि द्वारा, किसी संघ राज्यक्षेत्र पर किसी उच्च न्यायालय की अधिकारिता का विस्तार कर सकेगी या किसी संघ राज्यक्षेत्र से किसी उच्च न्यायालय की अधिकारिता का अपवर्जन कर सकेगी ।
(2) जहां किसी राज्य का उच्च न्यायालय किसी संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करता है, वहां–
(क) इस संविधान की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह उस राज्य के विधान-मंडल को उस अधिकारिता में वॄद्धि, उसका निर्बंधन या उत्सादन करने के लिए सशकक़्त करती है ; और
(ख) उस राज्यक्षेत्र में अधीनस्थ न्यायालयों के लिए किन्हीं नियमों, प्रारूपों या सारणियों के संबंध में, अनुच्छेद 227 में राज्यपाल के प्रति निर्देश का, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह राष्ट्रपति के प्रति निर्देश है ।
231. दो या अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय की स्थापना–(1) इस अध्याय के पूर्व वर्ती उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, संसद्, विधि द्वारा, दो या अधिक राज्यों के लिए अथवा दो या अधिक राज्यों और किसी संघ राज्यक्षेत्र के लिए एक ही उच्च न्यायालय स्थाफित कर सकेगी ।
(2) किसी ऐसे उच्च न्यायालय के संबंध में, —
(क) अनुच्छेद 217 में उस राज्य के राज्यपाल के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उन सभी राज्यों के राज्यफालों के प्रति निर्देश है जिनके संबंध में वह उच्च न्यायालय अधिकारिता का प्रयोग करता है ;
(ख) अधीनस्थ न्यायालयों के लिए किन्हीं नियमों, प्रारूपों या सारणियों के संबंध में, अनुच्छेद 227 में राज्यपाल के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस राज्य के राज्यपाल के प्रति निर्देश है जिसमें वे अधीनस्थ न्यायालय स्थित हैं; और
(ग) अनुच्छेद 219 और अनुच्छेद 229 में राज्य के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे उस राज्य के प्रति निर्देश है, जिसमें उस उच्च न्यायालय का मुख्य स्थान है :
परंतु यदि ऐसा मुख्य स्थान किसी संघ राज्यक्षेत्र में है तो अनुच्छेद 219 और अनुच्छेद 229 में राज्य के, राज्यपाल, लोक सेवा आयोग, विधान-मंडल और संचित निधि के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे व्रमश: राष्ट्रपति , संघ लोक सेवा आयोग, संसद् और भारत की संचित निधि के प्रति निर्देश हैं ।]
अध्याय 6–अधीनस्थ न्यायालय
233. जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति –(1) किसी राज्य में जिला न्यायाधीश नियुक्त होने वाले व्यक्ति यों की नियुक्ति तथा जिला न्यायाधीश की पद स्थाफना और प्रोन्नति उस राज्य का राज्यपाल ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय से परामर्श करके करेगा ।
(2) वह व्यक्ति , जो संघ की या राज्य की सेवा में पहले से ही नहीं है, जिला न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए केवल तभी पात्र होगा जब वह कम से कम सात वर्ष तक अधिवकक़्ता या प्लीडर रहा है और उसकी नियुक्ति के लिए उच्च न्यायालय ने सिफारिश की है ।
[77][233क. कुछ जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति यों का और उनके द्वारा किए गए निर्णयों आदि का विधिमान्यकरण—किसी न्यायालय का काई निर्णय, डिक्री या आदेश होते हुए भी,–
(क) (त्) उस व्यक्ति की जो राज्य की न्यायिक सेवा में पहले से ही है या उस व्यक्ति की,जो कम से कम सात वर्ष तक अधिवकक़्ता या प्लीडर रहा है, उस राज्य में जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की बाबत, और
(त्त्) ऐसे व्यक्ति की जिला न्यायाधीश के रूप में पद स्थाफना, प्रोन्नति या अंतरण की बाबत, जो संविधान (बीसवां संशोधन) अधिनियम, 1966 के प्रारंभ से पहले किसी समय अनुच्छेद 233 या अनुच्छेद 235 के उपबंधों के अनुसार न करके अन्यथा किया गया है, केवल इसतथ्य के कारण कि ऐसी नियुक्ति, पद स्थाफना, प्रोन्नति या अंतरण उक्त उपबंधों के अनुसार नहीं किया गया था, यह नहीं समझा जाएगा कि वह अवैध या शून्य है या कभी भी अवैध या शून्य रहा था ;
(ख) किसी राज्य में जिला न्यायाधीश के रूप में अनुच्छेद 233 या अनुच्छेद 235 के उपबंधों के अनुसार न करके अन्यथा नियुक्त , पद स्थापित, प्रोन्नत या अंतरित किसी व्यक्ति द्वारा या उसके समक्ष संविधान (बीसवां संशोधन) अधिनियम, 1966 के प्रारंभ से पहले प्रयुक्त अधिकारिता की, पारित किए गए या दिए गए निर्णय, डिक्री , दंडादेश या आदेश की और किए गए अन्य कार्य या कार्यवाही की बाबत, केवल इस तथ्य के कारण कि ऐसी नियुक्ति , पद स्थापना, प्रोन्नति या अंतरण उक्त उपबंधों के अनुसार नहीं किया गया था, यह नहीं समझा जाएगा कि वह अवैध या अविधिमान्य है या कभी भी अवैध या अविधिमान्य रहा था ।]
234. न्यायिक सेवा में जिला न्यायाधीशोंसे भिन्न व्यक्तियों की भर्ती—जिला न्यायाधीशों से भिन्न व्यक्ति यों की किसी राज्य की न्यायिक सेवा में नियुक्ति उस राज्य के राज्यपाल द्वारा, राज्यलोक सेवा आयोग से और ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय से परामर्श करने के पश्चात्, और राज्यपाल द्वारा इस निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार की जाएगी ।
235. अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण—जिला न्यायालयों और उनके अधीनस्थ न्यायालयों का नियंत्रण, जिसके अंतर्गत राज्य की न्यायिक सेवा के व्यक्ति यों और जिला न्यायाधीश के पद से अवर किसी पद को धारण करने वाले व्यक्तियों की पद स्थापना, प्रोन्नति और उनको छुट्टी देना है, उच्चन्यायालय में निहित होगा, किंतु इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह ऐसे किसी व्यक्ति से उसके अफील के अधिकार को छीनती है जो उसकी सेवा की शर्तों का विनियमन करने वाली विधि के अधीन उसे है या उच्च न्यायालय कोइस बात के लिए प्राधिकॄत करती है कि वह उससे ऐसी विधि के अधीन विहित उसकी सेवा की शर्तों के अनुसार व्यवहार न करके अन्यथा व्यवहार करे । 236. निर्वचन–इस अध्याय में,–
(क) “जिला न्यायाधीश”पद के अंतर्गत नगर सिविल न्यायालय का न्यायाधीश, अपर जिला न्यायाधीश, सयुंक्त जिला न्यायाधीश, सहायक जिला न्यायाधीश, लघुवाद न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रे], अपर मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायाधीश, अपर सेशन न्यायाधीश और सहायक सेशन न्यायाधीश है ;
(ख) “न्यायिक सेवा”पद से ऐसी सेवा अभिप्रेत है जो अनन्यतः ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनी है, जिनके द्वारा जिला न्यायाधीश के पद का और जिला न्यायाधीश के पद से अवर अन्य सिविल न्यायिक पदों का भरा जाना आशयित है ।
237. कुछ वर्ग या वर्गों के मजिस्ट्रेटों पर इस अध्याय के उपबंधों का लागू होना—राज्यपाल , लोक अधिसूचना द्वारा, निदेश दे सकेगा कि इस अध्याय के पूर्वगामी उपबंध औरउनके अधीन बनाए गए नियम ऐसी तारीख से, जो वह इस निमित्त नियत करे, ऐसे अफवादों और उफांतरणों के अधीन रहते हुए , जो ऐसी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किए जाएं , राज्य में किसी वर्ग या वर्गों के मजिस्ट्रेटों के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे राज्य की न्यायिक सेवा में नियुक्त व्यक्तियों के संबंध में लागू होते हैं ।
[1] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “पहली अनुसूची के भाग क में के”शब्दों का लोप किया गया।
[2] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “का अर्थ प्रथम अनुसूची के भाग क में उाल्लिखित राज्य है” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[3] संविधान (सातवां संशोधन)अधिनियम, 1956 की धारा 6 द्वारा जोड़ा गया ।
[4] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 7 द्वारा अंतःस्थापित ।
[5] संविधान (इकक़्यानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 3 द्वारा अंतःस्थापित
[6] 7-1-2004, देखिए का.आ. 21(अ), दिनांक 7-1-2004 ।
[7] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 28 द्वारा (3-1-1977 से) खंड 4 अंतःस्थापित किया गया था और उसका संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 23 द्वारा (20-6-1979 से) लोप किया गया ।
[8] “आंध्र प्रदेश”शब्दों का आंध्र प्रदेश विधान परिषद् (उत्सादन) अधिनियम, 1985 (1985 का 34) की धारा 4 द्वारा (1-6-1985 से) लोप किया गया ।
[9] मुंबई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 (1960 का 11) की धारा 20 द्वारा (1-5-1960 से) “मुंबई”शब्द का लोप किया गया ।
[10] इस उपखंड में “मध्य प्रदेश”शब्दों के अंतःस्थाफन के लिए संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 8(2) के अधीन कोई तारीख नियत नहीं की गई है ।
[11] तमिलनाडु विधान परिषद् (उत्सादन) अधिनियम, 1986 (1986 का 40) की धारा 4 द्वारा (1-11-1986 से) “तमिलनाडु”शब्द का लोप किया गया ।
[12] मुबंई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 (1960 का 11) की धारा 20 द्वारा(1-5-1960 से ) अंतःस्थापित ।
[13] मैसूर राज्य (नाम-परिवर्तन ) अधिनियम, 1973 (1973 का 31) की धारा 4 द्वारा (1-11-1973 से) “मैसूर”के स्थान पर प्रतिस्थापित जिसे संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 कीधारा 8(1) द्वारा अंतःस्थापित किया गया था ।
[14] फंजाब विधान परिषद् (उत्सादन) अधिनियम, 1969 (1969 का 46) की धारा 4 द्वारा (7-1-1970 से)“पंजाब”शब्द का लोप किया गया ।
[15] फाश्चिमी बंगाल विधान परिषद् (उत्सादन) अधिनियम, 1969 (1969 का 20) की धारा 4 द्वारा (1-8-1969 से) “उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[16] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 9 द्वारा अनुच्छेद 170 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[17] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 29 द्वारा (3-1-1977 से) स्पष्टीकरण के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[18] संविधान (चौरासीवां संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 5 द्वारा प्रतिस्थापित ।
[19] संविधान (सतासीवां संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 4 द्वारा प्रतिस्थापित ।
[20] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 29 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित ।
[21] संविधान (चौरासीवां संशोधन) अधिनियम 2001 की धारा 5 द्वारा क्रमशः अंकों और शब्दों के स्थान परप्रतिस्थापित ।
[22] संविधान (चौरासीवां संशोधन) अधिनियम 2001 की धारा 5 द्वारा क्रमशः अंकों और शब्दों के स्थान परप्रतिस्थापित ।
[23] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 10 द्वारा “एक चौथाई” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[24] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 24 द्वारा (6-9-1979 से) “छह वर्ष ”के स्थान पर प्रतिस्थापित । संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 30 द्वारा (3-1-1977 से) मूल शब्दों “पांच वर्ष ”के स्थान पर “छह वर्ष ”प्रतिस्थापित किए गए थे ।
[25] संविधान (सोलहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा खंड (क ) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[26] संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 8 द्वारा अनुच्छेद 174 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[27] संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 9 द्वारा “प्रत्येक सत्र” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[28] संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 9 द्वारा “तथा सदन के अन्य कार्य पर इस चर्चा को अग्रता देने के लिए ”शब्दों का लोप किया गया ।
[29] संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 9 द्वारा “तथा सदन के अन्य कार्य पर इस चर्चा को अग्रता देने के लिए ”शब्दों का लोप किया गया ।
[30] संविधान (बावनवां संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 4 द्वारा (1-3-1985 से) “अनुच्छेद 191 के खंड (1)”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[31] संविधान (तैंतीसवां संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा उपखंड (ख) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[32] संविधान (तैंतीसवां संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा अंतःस्थापित ।
[33] संविधान (बावनवां संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 5 द्वारा (1-3-1985 से) “(2) इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए ”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[34] संविधान (बावनवां संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 5 द्वारा (1-3-1985 से) अंतःस्थापित ।
[35] अनुच्छेद 192, संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 33 द्वारा (3-1-1977 से) और तत्पश्चात् संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 25 द्वारा (20-6-1979 से) संशोधित होकर उपरोक्त रूप में आया ।
[36] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 26 द्वारा (20-6-1979 से) कुछ शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[37] हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1970 (1970 का 53) की धारा 46 द्वारा (25-1-1971 से ) अंतःस्थापित ।
[38] पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 (1971 का 81) की धारा 71 द्वारा (21-1-1972 से) “हिमाचल प्रदेश राज्य के विधान-मंडल” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[39] मिजोरम राज्य अधिनियम, 1986 (1986 का 34) की धारा 39 द्वारा(20-2-1987 से) अंतःस्थापित ।
[40] अरुणाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1986 (1986 का 69) की धारा 42 द्वारा (20-2-1987 से) “मिजोरम राज्य के विधान-मंडल”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[41] गोवा, दमण और दीव पुनर्गठन अधिनियम, 1987 (1987 का 18) की धारा 63 द्वारा (30-5-1987 से) “अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[42] संविधान (अड़तीसवां संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 3 द्वारा खंड (4) (भूतलक्षी प्रभाव से) अंतःस्थापित किया गया और संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 27 द्वारा(20-5-1979 से ) इसका लोप कर दिया गया ।
[43] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा कोष्ठक और अंक “(1)”का लोप किया गया ।
[44] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा खंड (2) और (3) का लोप किया गया ।
[45] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 कीधारा 11 द्वारा परंतुक का लोप किया गया ।
[46] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 12 द्वारा “तब तक पद धारण करेगा जब तक कि वह साठ वर्ष की आयु प्राप्त न कर ले”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[47] संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा “साठ वर्ष ” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[48] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य में के”शब्दों का लोप किया गया ।
[49] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 36 द्वारा (3-1-1977 से) शब्द “या”और उपखंड (ग) अंतःस्थापित किए गए और संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) उनका लोप किया गया ।
[50] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) अंतःस्थापित ।
[51] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 28 द्वारा (20-6-1979 से) खंड (क) को खंड (कक) के रूप में पुनःअक्षरांकित किया गया ।
[52] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 36 द्वारा(3-1-1977 से) “न्यायिक पद धारण किया हो”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[53] संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से ) अंतःस्थापित ।
[54] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “किसी राज्य में”शब्दों का लोप किया गया ।
[55] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 13 द्वारा अनुच्छेद 220 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[56] 1 नवंबर, 1956 ।
[57] संविधान (चौवनवां संशोधन) अधिनियम, 1986 की धारा 3 द्वारा (1-4-1986 से) खंड (1) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[58] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 14 द्वारा “भारत के राज्यक्षेत्र में के”े शब्दों का लोप किया गया ।
[59] संविधान (फंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 5 द्वारा अंतःस्थापित । संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 14 द्वारा मूल खंड (2) का लोप किया गया ।
[60] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 15 द्वारा अनुच्छेद 224 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[61] संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 6 द्वारा “साठ वर्ष ”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[62] संविधान (पंद्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 7 द्वारा अंतःस्थापित ।
[63] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 29 द्वारा (20-6-1979 से) अंतःस्थापित । संविधान ( बयालीसवां संशोधन)अधिनियम, 1976 की धारा 37 द्वारा (1-2-1977 से) मूल फरंतुक का लोप किया गया था ।
[64] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 38 द्वारा (1-2-1977 से ) अनुच्छेद 226 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[65] संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 7 द्वारा (13-4-1978 से) “किंतु अनुच्छेद 131क और अनुच्छेद 226क के उफबंधों के अधीन रहते हुए” शब्दों, अंकों और अक्षरों का लोप किया गया ।
[66] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 30 द्वारा (1-8-1979से) “जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्याक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण के प्रकार के लेख भी हैं अथवा उनमें से किसी को “शब्दों से आरंभ होकर”न्याय की सारवान निष्फलता हुई है, किसी क्षति के प्रतितोष के लिए ”शब्दों के साथ समाप्त होने वाले भाग के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[67] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 30 द्वारा (1-8-1979 से) खंड (3), खंड (4), खंड (5)और खंड (6) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[68] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 30 द्वारा (1 -8-1979 से), खंड (7) को खंड (4) के रूप में पुनसंख्याकित किया गया।
[69] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 39 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित ।
[70] खंड (1) संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 40 द्वारा (1-2-1977 से) और तत्फश्चात् संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 31 द्वारा (20-6-1979 से ) प्रतिस्थापित होकर उपरोक्त रूप में आया ।
[71] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 40 द्वारा (1-2-1977 से ) खंड (5) अंतःस्थापित किया गया और उसका संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 31 द्वारा (20-6-1979 से) लोप किया गया ।
[72] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 41 द्वारा (1-2-1977 से) “तो वह उस मामले को अफने पास मंगा लेगा तथा –”के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[73] संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 9 द्वारा (13-4-1978 से) “अनुच्छेद 131क के उपबंधों के अधीन रहते हुऋ” शब्दों, अंकों और अक्षर का लोप किया गया ।
[74] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 42 द्वारा (1-2-1977 से ) अंतःस्थापित ।
[75] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “जिसमें उच्च न्यायालय का मुख्य स्थान है,”शब्दों का लोप किया गया ।
[76] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 16 द्वारा अनुच्छेद 230, 231 और 232 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
[77] संविधान (बीसवां संशोधन) अधिनियम, 1966 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित ।