लॉर्ड ऑकलैंड Lord Auckland
जॉर्ज ईडन या लॉर्ड ऑकलैंड इंग्लैंड की व्हिग पार्टी के एक राजनीतिज्ञ, ऑकलैंड के पहले अर्ल (first earl of Auckland – 1834), सेकेंड बैरन (second baron – इंग्लैंड का सबसे नीचे के दर्जे का लार्ड), व्यापार मंडल के सदस्य( 1830), और नौवाहन विभाग के सबसे पहले लॉर्ड (First Lord of the Admiralty-1834) थे। लॉर्ड ऑकलैंड 1836 से 1842 के बीच भारत के गवर्नर जनरल के रूप में कार्यरत थे।
गवर्नर जनरल के रूप में लॉर्ड ऑकलैंड ने नियुक्तियों, पेंशन, और कानून के लिए प्रांतीय प्रशासकों के मार्गदर्शन के लिए सामान्य नियम बनाये। उन्होने पश्चिमी शिक्षा, विशेष रूप से चिकित्सा विज्ञान आदि के प्रसार का समर्थन किया।
ऑकलैंड ने अक्टूबर 1938 में शिमला घोषणा पत्र में दोस्त मोहम्मद के खिलाफ युद्ध का फ़ैसला किया। पहले विनाशकारी अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842) की जटिलताएँ उसकी सभी सेवाओं पर भारी पड़ रही थी, जिसे उसने ब्रिटिश राजदूत अलेक्जेंडर बुर्नेस की सलाह के खिलाफ, अफ़ग़ान आमिर दोस्त मोहम्मद बराकज़ई को गद्दी से हटाने के लिए छेड़ दिया था। ऑकलैंड इससे पहले अवध में फैली अशांति को दबाने और कुरनूल और सतारा के विद्रोही राजाओं को गद्दी से अपदस्थ करके उनकी भूमि पर कब्जा करने में सफल रहा था।
अगफन युद्ध के द्वारा उसने सिंध के अमीरों को अपनी संप्रभुता स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया। उसने आंग्ल भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा और अखंडता और इस तरफ से आक्रमण से सुरक्षा का हवाला देते हुये खाड़ी स्थित फ़ारसी क्षेत्रों पर भी कब्जा कर लिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार ऑकलैंड का युद्ध प्रेम राजनीतिक कम व्यक्तिगत अधिक था।
अधिकांश ब्रिटिश अधिकारियों की तरह ऑकलैंड के मन में भी रूसी आक्रमण का भय बना रहा। दिसंबर 1838 में, ऑकलैंड की सिंधु-सेना ने अफ़ग़ानिस्तान की ओर कुछ किया। इस अभियान की शुरुआत ऑकलैंड ने काफ़ी अच्छी की। 1841 में मकनॅग्च्टेन (Macnaghten) ने और सेना भेजने की विनती की। ऑकलैंड ने और सेना भेजने में देर कर दी, तब तक मकनॅग्च्टेन (Macnaghten) को मार डाला गया और ऑकलैंड की सिंधु सेना को अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर खुर्द-काबुल दर्रे तक पीछे हटने पर मजबूर कर दिया गया। इस घटना को ब्रिटिश सेनाओं की सबसे बड़ी पराजय के रूप में देखा गया और ऑकलैंड इस हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए, गवर्नर जनरल का पद लॉर्ड एलेनबरों (Lord Ellenborough) को सौंप कर वापस इंग्लैंड लौट आया। इस पराजय का कष्ट उसे जिंदगी भर रहा।
बहरहाल उसे 1846 में नौवहन-विभाग के प्रमुख के रूप में पुनर्नियुक्त किया गया, इस पद पर वह अपनी मृत्यु (1849) तक बना रहा।