आर्य समाज Arya Samaj
आर्य समाज 19वीं शताब्दी में शुरू हुए सुधार आंदोलनों में सबसे प्रभावशाली था| इस सुधार आंदोलन को उस समय हिंदू धर्म की प्रतिक्रियाओं, ईसाई मिशनरी और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के आकार में यूरोपीय आधुनिकता की चुनौतियों का सामना करना था| इस आंदोलन का प्रभाव केवल अपने अनुयायियों की संख्या से नहीं नापा जा सकता जो की 1947 के अंत तक 20 लाख तक पहुँच गयी थी, बल्कि इस तथ्य से की इसके अनेक नेताओं ने बीसवीं सदी के दौरान भारतीय राजनीति, शिक्षा, पत्रकारिता, और सार्वजनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया| उत्तर भारत की उस समय की विशेष ऐतिहासिक स्थिति में, एक विचारधारा के साथ आर्य समाज ने लोगों को बहुत प्रभावित किया|
आर्य समाज की उत्पत्ति, प्रारंभिक विकास और सिद्धांत
आर्य समाज की पहली शाखा स्वामी दयानंद सरस्वती (1824-1883) द्वारा 1875 में बंबई में स्थापित की गयी थी| दयानंद एक गुजराती शैव ब्राह्मण थे| दयानंद अपनी जवानी के दिनों में ही हिंदू धर्म की विशेषताओं बहुदेववाद और उथले कर्मकांडवाद के अपने अनुभवों से असंतुष्ट हो गये थे| 1850 के दशक और 1860 के दशक में दयानंद एक सन्यासी के रूप में भटकते रहे, इन वर्षों के दौरान उन्होने एक सुधार और “शुद्ध” आर्य धर्म की अपनी दृष्टि का निर्माण किया|
दयानंद सरस्वती के विचार में हिंदू समाज में व्याप्त अंधविश्वास और सामाजिक बुराइयों जैसे मूर्ति पूजा का प्रसार, बाल विवाह, जाति व्यवस्था का हनन, महिलाओं के दमन का मूल कारण मनमाने और स्वार्थी ब्राह्मण थे| पंडितों ने वेदों के अध्ययन जिसमें एक आदर्श समाज के लिए दिशा निर्देश निहित था, को उपेक्षित कर पुराणो के अध्ययन पर ज़्यादा ज़ोर दिया था| इनका विश्वास था की सौम्य और तर्कसंगत एकेश्वरवाद की वापसी वैदिक शस्त्रों द्वारा ही हो सकती है और यह भारत की आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं का हल प्रदान करना भी सुनिश्चित करेगा, जिसे हिंदुओं ने उनके गर्व आर्य पूर्वजों से दूर छोड़ दिया है|
अपने विचारों का प्रसार करने के लिए स्वामी जी ने जन-संचार की नई तकनीकों का भी प्रयोग किया, जिसके अंतर्गत उन्होने कई पर्चे निकाले और अपने विचारों को अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में शाब्दिक संशोधनों द्वारा व्याख्या भी की| अपनी इस किताब में उन्होने ईसाइयत, इस्लाम, सिख और हिंदू धर्म के कट्टरपंथियों की आलोचना की, जिसकी वजह से आर्य समाज अपनी स्थापना के समय से ही विवादास्पद बना रहा|
एक समय में कई शिक्षित हिंदुओं की मुश्किल यह थी कि वह अपनी धार्मिक परंपरा के साथ अपने नई पश्चिमी ज्ञान के साथ सामंजस्य कैसे बैठाएं, यहाँ हिंदी भाषी क्षेत्रों के शहरी केंद्रों में पश्चिमी सभ्यता में शिक्षित मध्यम वर्ग विशेष रूप से पंजाब में आर्य समाज काफ़ी लोकप्रिय हो गया| 1883 में अपने संस्थापक की मृत्यु के बाद यह आंदोलन बंद नहीं हुआ बल्कि सार्वजनिक गतिविधि के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट रूप से इसका विस्तार होता रहा| 1886 में दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल (Dayananda Anglo-Vedic High School – DAV) लाहौर में स्थापित किया गया जो शैक्षिक संस्थानों के एक काफी सफल नेटवर्क का नाभिक बन गया और यह आज भी जारी है|
अपनी स्थापना के प्रारंभिक चरण में आर्य समाज ने कुशल ऊर्जावान संगठन और अपने विचारो के प्रचार-प्रसार के लिए धन उगाहने का भी कम किया, जो कि आंशिक ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रेरित था और आंशिक रूप से इसमे हिंदू परंपरा के तत्वों का पुनर्नवीनीकरण किया गया था|
राष्ट्रवाद के युग में धार्मिक आंदोलन
1893 में आंदोलन सैद्धांतिक शुद्धता के सवाल पर विभाजित हो गया| स्वामी श्रद्धा नंद (1857-1926), जो कि इस आंदोलन के बाद उभरने वाले दूसरे सबसे बड़े प्रचारक थे, ने डीएवी (DAV) स्कूलों को चला रहे गुटों पर उनके अत्यधिक पाश्चात्य होने और अपने संस्थापक की वैचारिक विरासत को धोखा देने का आरोप लगाया| सन् 1900 के पश्चात उन्होने अपने खुद के स्कूलों के नेटवर्क ‘गुरुकुल’ की स्थापना की, और यहाँ उन्होने प्राचीन हिंदू वैदिक शिक्षा पद्धति एवं वेदों के अध्ययन पर ज़ोर दिया| श्रद्धा नंद ने ब्रिटिश पब्लिक स्कूलों की शैक्षणिक प्रथाओं और पाठ्यक्रमों का भी प्रयोग किया|
दोनो गुट 1890 से अलग-अलग तरीकों से राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे| डीएवी विंग के प्रमुख नेताओं में से कुछ जैसे लाला लाजपत राय, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और मुख्य धारा के राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बन गये| जबकि श्रद्धा नंदा अपने अनुयायियों से विकासवादी राष्ट्रवाद की वकालत करते रहे| इनके अनुसार राजनीतिक स्वशासन कोई जन्म सिद्ध अधिकार नहीं था इसे एक दुरूह सीखने की प्रक्रिया के माध्यम से अर्जित किया जा सकता था, और केवल शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति की क्रमिक पूर्णता आजादी के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकती थी| 1919 में जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के बाद राष्ट्रीय आंदोलन नई उँचाई पर पहुँचे और महात्मा गाँधी द्वारा आयोजित अभियानो मे गुरुकुल आर्यों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया|
मुख्य रूप से महिलाओं की शिक्षा एवं उनकी स्थिति में सुधार आर्य गतिविधियों की आधारशिला थी| लेकिन इन्होने अन्य क्षेत्रों में भी सुधार के अपने उत्साह को व्यक्त किया| 1880 के दशक में उन्होने अछूतों के उत्थान के लिए जातियों की सीमा तोड़ना ही अंतिम विकल्प माना| इसके लिए उन्होंने कई प्रयोग किये| आर्यों के बीच ‘शुद्ध’ अछूतों को स्वीकार न करने की रूढ़िवादी विश्वास की विरुद्ध इन्होने एक नई प्रक्रिया का प्रतिपादन किया| “शुद्धि” जाति बहिष्कृत लोगों, नव-मुस्लिमों जिन्होने इस्लामी शासन के दौरान इस्लाम अपना लिया था, का शुद्धीकरण एक अनुष्ठान के द्वारा किया गया| ऐसे प्रयासों से जल्द ही आर्य समाज को इस्लाम के साथ संघर्ष भी करना पड़ा| आर्य सामजियों द्वारा गौ-हत्या पर प्रतिबंध और हिन्दी के प्रसार के लिए हिन्दी को प्रशासनिक भाषा के रूप में(उस समय उर्दू को प्रशासनिक भाषा के रूप में प्रयोग किया जाता था) प्रयोग करने की माँग ने इस सांप्रदायिक तनाव को और खट्टा कर दिया| 1920 के दशक में इन्हे हिंदुओं और मुसलमानो के बीच बिगड़ते संबंधों के संदर्भ में रूढ़िवादी हिंदू भाइयों के बीच अधिक से अधिक स्वीकृति पाने की आशा में हिंदू धर्म के रक्षकों और जानबूझ कर झगड़ालू छवि के रूप में देखा जाने लगा|
आज के विद्वानों में से कुछ, इसे हिंदू अंधराष्ट्रीवादी दलों और संगठनों की एक अग्रदूत के रूप में प्रथम संगठन के रूप में देखते हैं| हालाँकि उस समय स्थिति काफ़ी विषम हो गयी जब विभिन्न आर्य आंदोलनो में क्षेत्रीय उग्रवादी हिंदू संगठनो का वर्चस्व हो गया|
1920 से 1940 तक आर्य समाज की लोकप्रियता अपनी चरम सीमा तक पहुँची, परंतु आज़ादी के बाद इनकी लोकप्रियता कम होने लगी| आजकल उत्तर भारत के क्षेत्रों में जहाँ यह आंदोलन एक सदी तक बहुत महत्वपूर्ण था वहाँ भी इसकी लोकप्रियता खो गयी है| आर्य समाज उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के शुरू में भारत से मजदूरों और अन्य लोगों के आव्रजन के साथ ही हिंदू बहुल देशों गुयाना, फिजी, और मॉरीशस में फैल गया था, जहाँ यह आज भी यह अपने आर्य समाज के ‘शुद्ध’ ब्रांड के साथ जिंदा है|