प्रान्तीय राजवंश: मालवा Provincial Dynasty: Malwa
मालवा पर अलाउद्दीन खल्जी ने 1305 ई. में अधिकार कर लिया था। तब से यह दिल्ली के अधीन मुस्लिम नायकों के शासन में रहा। तैमूर के आक्रमण के बाद की अव्यवस्था के युग में यह, अन्य प्रान्तों के समान, स्वतंत्र बन गया।
दिलावर खाँ गौरी जिसे शायद तुगलक वंश के फीरोज ने मालवा का शासक नियुक्त किया था, 1401 ई. में दिल्ली के सुल्तान से व्यवहारिक रूप में स्वतंत्र हो गया, यद्यपि उसने कभी विधिवत् उसकी अधीनता को अस्वीकार नहीं किया और न राजत्व की पदवी को ही धारण किया। 1406 ई. में उसके बाद उसका महत्त्वाकांक्षी पुत्र अल्प खाँ आया, जो हुशंग शाह के नाम से सिंहासन पर बैठा। नया शासक विरामहीन प्रवृत्ति का मनुष्य था। उसे साहसपूर्ण कार्यों एवं युद्ध में आनन्द मिलता था, जिनमें वह अपने शासन काल भर बराबर व्यस्त रहा। 1422 ई. में एक व्यापारी के वेश में वह अपनी राजधानी से उड़ीसा को चल पड़ा तथा उस राज्य के आशंका-राहित राजा पर अचानक हमला कर दिया। उससे रिश्वत के रूप में पचहत्तर हाथी लेकर वह वापस आया। मालवा लौटते समय हुशंग ने खेरला को जीत लिया तथा उसके राजा को बंदी बनाकर ले आया। उसे दिल्ली, जौनपुर एवं गुजरात के सुल्तानों से लड़ना पड़ा। एक बार उसे अहमदशाह बहमनी से भी अपनी ताकत आजमानी पड़ी, जो उसकी खेरला की विजय से क्रुद्ध हो गया था क्योंकि उस स्थान का राजा पहले बहमनी राज्य के अधीन रह चुका था। पर अधिकांश आक्रमणों में उसी की पराजय अथवा बरबादी हुई। 6 जुलाई, 1435 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी। तब उसका ज्येष्ठ पुत्र गजनी खाँ, मुहम्मद शाह के नाम से, मालवा का सुल्तान घोषित किया गया। पर नया शासक राज्य के कार्यों से पूर्णतः असावधान था। उसके मंत्री महमूद खाँ ने मई, 1436 ई. में गद्दी हड़प ली। इस प्रकार मालवा के खल्जी सुल्तानों का वंश स्थापित हुआ। महमूद ने सरदारों के एक गुट एवं गुजरात के अहमदशाह प्रथम के, जिसने मालवा के मुहम्मद शाह के एक पुत्र मसूद खाँ का पक्ष ले रखा था, विरोध को निष्फल कर दिया।
महमूद खल्जी एक वीर योद्धा था। उसने गुजरात के अहमद शाह प्रथम, दिल्ली के मुहम्मद शाह, मुहम्मद शाह तृतीय बहमनी एवं मेवाड़ के राजा कुम्भ के विरुद्ध युद्ध किया। वह मुस्लिम सुल्तानों के साथ किये गये युद्धों में असफल रहा। मेवाड़ के राणा के साथ उसका युद्ध निर्णयात्मक प्रतीत होता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि उभय पक्ष विजय का दावा करने लगे। मेवाड़ के राजा ने चित्तौड़ में, विजय-स्तंभ बनवाया और मालवा के सुल्तान ने अपनी विजय के स्मरणार्थ मांडू में एक सात महलों वाला स्तम्भ स्थापित किया। निस्सन्देह महमूद खल्जी मालवा के मुस्लिम शासकों में सबसे अधिक योग्य था। उसने अपने राज्य की सीमाओं को दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत श्रेणी तक, पश्चिम में गुजरात की सरहद तक, पूर्व में बुन्देलखंड तक तथा उत्तर में मेवाड़ एवं हरौती तक बढ़ाया। उसकी ख्याति भारत के बाहर फैल गयी। मिश्र के खलीफा ने उसके पद को स्वीकार किया तथा महमूद खल्जी ने सुल्तान अबू सईद के यहाँ से आये एक दूतमंडल का स्वागत किया। वह न्यायी एवं क्रियाशील प्रशासक था। फरिश्ता इस प्रकार उसके गुणों की प्रशंसा करता है- सुल्तान महमूद नम्र, वीर, न्यायी एवं विद्वान् था। उसके राज्यकाल में उसकी प्रजा-मुसलमान एवं हिन्दू-प्रसन्न थी तथा उनका एक दूसरे से मित्रवत् सम्बन्ध था। कोई भी ऐसा वर्ष नहीं बीतता था, जिसमें वह युद्ध नहीं करता रहा हो। फलस्वरूप उसका खेमा उसका घर बन गया तथा युद्धक्षेत्र उसका विश्राम-स्थल। अपने अवकाश के घंटे वह संसार के विभिन्न राजाओं के दरबारों के इतिहास एवं संस्मरण पढ़वाकर सुनने में लगाता था। लगभग चौंतीस वर्षों तक राज्य करने के बाद 68 वर्ष की उम्र में 1 जून, 1469 ई. को माण्डू में उसकी मृत्यु हो गयी।
महमूद का ज्येष्ठ पुत्र ग्यासुद्दीन अपने पिता की मृत्यु के दो दिनों के बाद मालवा की गद्दी पर बैठा। वह शान्ति-प्रेमी था। वह धर्मनिष्ठ मुस्लिम था तथा अपनी दैनिक प्रर्थना में सावधान था। वह सभी मादक पदार्थों एवं वर्जित खाद्य पदार्थों से दूर रहता था। पर अब्दुल कादिर नासिरुद्दीन एवं शुजात खाँ अलाउद्दीन नामक उसके दोनों पुत्रों में कलह होने के कारण उसके अन्तिम दिन दु:खदायी बन गये। अन्त में अब्दुल कादिर नसिरुद्दीन ने 1500 ई. में गद्दी पर अधिकार कर लिया। नसिरुद्दीन 1510 ई. में अपनी मृत्यु होने तक अपनी शक्ति का बहुत दुरुपयोग करता रहा। तब उसका दूसरा पुत्र महमूद द्वितीय के नाम से सिंहासन पर बैठा। मुस्लिम सरदारों के प्रभाव से छुटकारा पाने के उद्देश्य से महमूद द्वितीय ने चंदेरी के शक्तिशाली राजपूत नायक मेदिनी राय को मंत्री के पद पर नियुक्त किया। मेदिनी राय ने शीघ्र राज्य में सर्वोच्च प्रभाव जमा लिया तथा विश्वास एवं उत्तरदायित्व के पदों पर हिन्दुओं को नियुक्त करने लगा। इससे मालवा के सरदारों में विद्रोह भड़क उठा। उन्होनें गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह द्वितीय की सहायता से उस राजपूत मंत्री को हटा दिया। पर मेदिनी राय ने चित्तौड़ के राणा साँगा की सहायता से महमूद द्वितीय को ही हटा डाला। विजयी राजपूतों ने मालवा के सुल्तान को पकड़ लिया। पर राणा साँगा ने उसके साथ वीरतापूर्ण उदारता का व्यवहार किया, जो राजपूत जाति की विलक्षणता है तथा अपने विजित शत्रु को अपने राज्य में पुन: स्थापित कर दिया। पर इस समय तक मालवा राज्य की ताकत बहुत घट गयी थी तथा इसकी स्वतंत्रता के दिन गिने थे। सुल्तान महमूद द्वितीय ने राणा साँगा के उत्तराधिकारी राणा रतन सिंह के राज्य पर आक्रमण कर उससे शत्रुता मोल ले ली। राणा ने बदला लेने के उद्देश्य से मालवा पर आक्रमण कर दिया। वह गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के छोटे भाई एवं उसकी गद्दी के प्रतिद्वंद्वी चाँद खाँ को शरण देकर उसका भी कोपभाजन बन बैठा। इस पर बहादुरशाह ने 17 मार्च, 1531 ई. को मांडू जीत लिया। इस तरह मालवा की स्वतंत्रता जाती रही। यह गुजरात के बहादुरशाह के अधीन हो गया। पीछे कुछ काल के लिए मुग़ल शासक हुमायूँ ने इस पर कब्जा कर लिया। 1535 ई. के लगभग मल्लू खाँ ने, जो पहले मालवा के खल्जी सुल्तानों का एक पदाधिकारी था, कादिर खाँ के नाम से, मालवा में प्रभुसत्ता स्थापित कर ली, पर 1542 ई. में दिल्ली के अफगान शासक शेरशाह ने उसे गद्दी से उतार दिया। मालवा पर अफगान सरकार के प्रतिनिधि शासन करते रहे, किन्तु 1561-1562 ई. में मुग़ल सेनापतियों ने इसे बाज बहादुर से छीन लिया।